चीकू के बीज : मेरे हिस्से का आकाश / रेखा कंवर

चीकू के बीज : मेरे हिस्से का आकाश
- रेखा कंवर

 

शाम अपना रंग बिखेर चुकी है। बड़ी-बड़ी मशक्कत करने के बाद मैं शाम तक पहुँच पाती हूँ। पूरे दिन में मुझे यह शाम का वक्त ही सुहाता है। शाम का यह नारंगी रंग मेरे मन को बड़ा भाता है। इस भागते हुए जीवन में ज़रा ठहर कर देखना मन को कितना सुकून देता है। और यह शाम का वक्त मुझे इसलिए भी पसंद है क्योंकि इस वक्त मैं खुद के साथ होती हूँ, खुद के बारे में सोचती हूँ और मैं खुद के साथ ही तो मैं सबसे ज़्यादा कंफर्टेबल फील करती हूँ। जब मैं शाम को इस तरह घर की देहरी पर बैठ कर आते जाते राहगीरों को देखती हूँ तो जाने क्यों मुझे उनकी आँखों में एक अजीब सी कशमकश, खामोशी नजर आती है। शाम का यह नारंगी रंग मेरे जीवन में भी एक नारंगी रंग घोल देता है। मुझे बहुत पसंद है शाम के इन बदलते रंगों को देखना और आते-जाते लोगों के चेहरे पढ़ने की कोशिश करना। पर हाँ! लोगों के चेहरे पढ़ना इतना भी आसान नहीं होता है। क्योंकि मन की घाटे उसी के साथ खुलती है जिस पर हमें सबसे ज्यादा विश्वास हो। यह सच है कि सब अपने चेहरे पर एक नकली मुखौटा पहने रखते हैं और असलियत को छुपाते फिरते हैं। शायद एक मुखौटा मैंने भी ओढ़ रखा है। आज हवा में एक अजीब सी ठंडक है। कभी-कभी हवा के झोंके तेज आते तो चेहरे को छू जाते हैं। ऐसा लगता हैं मानो ये हवा के झोंके मुझे अपने साथ बुला रहे हो, कहीं दूर बहुत दूर... अपने साथ चलने के लिए। हाँ! मैं शरीर से तो यही बैठी थी मगर मेरा मन तो जैसे इन्हीं के साथ उड़ने लगता। मैंने एक नजर आसमान की ओर दौड़ाई तो देखा कि काले-काले गहरे बादल पूरे आसमान को ढके हुए थे। पर बरसें नहीं। यह बादल भी कितनी नाटकीयता के साथ प्रवेश करते हैं। इन मौसमों की तरह एक मौसम हमारे भीतर भी होता है जो कभी हमें बेवजह उदास कर देता है तो कभी हमें एक अजीब सी खुशी दे जाता है।

उफ्फ! शायद मैं भटकने तो नहीं लगी शाम से। हमारा मन ऐसा ही होता है जिसमें जाने कितने ही विचार एक साथ ही जाते हैं। यह सूरज भी ना, जब ढलने पर आता है तो जाने कैसी रफ्तार पकड़ लेता है कि ढलता ही जाता है, ढलता ही जाता है... शाम का हल्का-हल्का धुंधलका छाने लगा है। सुबह का थका-हारा सूरज आसमान से अपने घर जाने की तैयारी में है। जानवर खेतों से अपने घोसलों की ओर लौट रहे हैं। दिन-भर के काम से चेहरे पर थकान लिए हुए सब के पिता अपने घर की ओर जा रहे हैं। उनके हाथों में थैलियाँ है जिसमें केले, आम और भी जाने क्या-क्या खाने की चीजें हैं। घर के बाहर अपने पिता का इंतजार कर रहे बच्चों की नजरे जैसे ही उनके पिता के हाथ में लटकी थैली की ओर पड़ती है तो उनके चेहरे पर एक खुशी झलक उठती है। जल्दी से दौड़ते-भागते वो बच्चे अपने पिता के हाथ से थैली छिनते हुए "मम्मी-मम्मी" की आवाज लगाते हुए घर के भीतर भागे जा रहे हैं। कितना सुखद है घर लौटना और वो भी अपने घर लौटना। क्या हो अगर उनके पिता किसी दिन घर लौटे तो? और जब उनके हँसते-खिलखिलाते चेहरे घोर उदासी में चले जाए तो! सोचना तो दूर की बात है, इस ख्याल से भी मैं कांप उठती हूँ।

इस बीच में मेरा ध्यान बार-बार मेरी ही तरह घर के बाहर बैठी उस बूढी औरत के झुर्रियों से भरे चेहरे की ओर खिंचा चला जाता है। वो बहुत देर से ताक रही है सड़क पर आते जाते लोगों को। शायद किसी अपने के इंतजार में। लेकिन क्यों? क्या वो नहीं जानती कि अब कोई नहीं आने वाला उससे मिलने? वो जानती तो है मगर फिर भी इस मन को कैसे समझाए भला? बड़ी मनमानियाँ करता है यह मन। और ये शाम! यह शाम भी तो उसे अपनों के आने की आस जगा रही है। कभी-कभी तो मुझे सोच के हैरानी होती है कि जिस औरत का जवान बेटा और पति उससे पहले ही उसे इस दुनिया से छोड़कर चले गए और जिसे अब वह अपना कह सके उनमें से ले-देकर एक बेटी ही तो थी जो जीवन के इस पड़ाव पर उसे बिल्कुल अकेला करके प्रेमी के साथ भाग गई। हाँ, जानती हूँ प्रेम करना गलत नहीं है। पर उम्र के उस पड़ाव पर जब माता-पिता का अपने बच्चों का साथ होना उन्हें सबसे ज्यादा सुकून देता है, उस उम्र में ही उनका छोड़ कर जाना उन्हें कितना चुभता होगा न। लेकिन इतना कुछ होने के बाद भी उस बूढी औरत में कितनी जिंदादिली और कितना जीवन अब भी बाकी था। या शायद वह अपने दुखों को छुपाने का नाटक कर रही है।

मैं बार-बार उनकी आँखों में झांकने की कोशिश करने लगी। मैंने देखा कि उसकी आँखों में अनेक अनकहीं कहानियाँ दबी हुई हैं जिन्हें पढ़ने के लिए कोई पी-एच.डी. की जरूरत नहीं पड़तीं। कितना मुश्किल होता है अकेले जीना? कितना अजीब लगता है जब हम सवाल करें और सामने उनका जवाब देने वाला कोई हो? ऐसे कोई बीच रास्ते में छोड़कर कैसे जा सकता है भला? सोचती हूँ कि जोड़ों का तो साथ ही उड़ जाना बेहतर है, वरना कोई एक अकेला कब तक उड़े आसमान में।

मंदिर की घंटियों की आवाज अब तेज हो गई है चारों ओर पूजा की अगरबत्ती की खुशबू फैल चुकी है। एक बार फिर मेरी नजर खिड़की के बाहर बैठी उस बूढी औरत के चेहरे पर पड़ी तो मैंने देखा कि वह बार-बार एक नजर आसमान की तरफ देखती है और फिर अपनी हथेलियाँ से अपने आँखें पोंछने लगती हैं। उसकी आँखें डबडबा गई थी। मैं उन्हें देखने का नाटक करती हुई बस उन्हें ही देखे जा रही थी। इस वक्त रुक जाना चाहिए था सबको, समय को पृथ्वी को और लोगों को भी। पर यहाँ कौन किसके लिए रुकता है! मेरा एक मन किया कि मैं दौड़ कर उनके पास जाऊं और उन्हें कस के गले से लगा लूँ और कहूँ कि मैं हूँ न। उससे पहले ही मेरे भीतर से आवाजे आने लगी कि क्या मुझे यह करने की इजाजत है? क्या मुझमें इतनी हिम्मत है? और मैं वहाँ जाती भी तो ऐसा क्या कहती जो उनके मन के दर्द को हल्का कर देता। एक्चुअली कुछ चीजों के हमारे पास जवाब नहीं होते हैं।

अपने ही सवालों में उलझी हुई मैं देर तक खड़ी रही वहीं, उन्हें देखते हुए और उनके चेहरे के बीच में पड़ी दरारों के भीतर झांकने की कोशिश करती रही यह देखने के लिए कि इस वक्त उनके मन में क्या चल रहा है, अतीत की ऐसी कौन सी यादें थी जो उन्हें घेरे हुई है और यह भी कि किसी अपने को खोने का दु: क्या सबका एक-सा ही होता है! गुणा भाग करता मेरा मन उसके और मेरे दुखों को तराजू में तोलता हैं और जान पाता कि किसका दु: ज्यादा बड़ा है उससे पहले ही मेरे कानों में किसी के रोने की आवाज सुनाई दी। मैंने मुड़ कर देखा तो मेरी नजर सामने खेलते उन बच्चों पर गई जिसमें से एक अब रो रहा था। वे तीनों भाई थे। उससे थोड़ा बड़ा उसका भाई उसके चेहरे पर हाथ फेर उसे चुप करने की कोशिश कर रहा था और धीमी में आवाज में यही समझा रहा था कि चुप हो जा वरना मम्मी जाएगी। लेकिन वो बच्चा चुप होने का नाम ही नहीं ले रहा था। बस रोए जा रहा था। उसके भाई के चेहरे पर माँ का डर साफ-साफ दिखाई दे रहा था। जिसका डर था वही हुआ। उसकी रोने की आवाज सुनकर उनकी माँ बाहर गई जिसके हाथ आटे से सने थे। वह दूर से ही चिल्ला कर बोली- "या गोला ने कतरी दान क्यो की हन्डए मत खेलिया करो और खेलो तो लड़िया मत करो पर ये भी चमार का मूत माने ही कोनी"! और भी जाने क्या-क्या बोलती हुई वो उसके पास गई और झटके से उसके बच्चे का हाथ देखने लगी जिसके हाथ की कोहनी खून से लथपथ थी। शायद वह गिर गया था इसलिए उसे चोट लग गई थी। उसकी माँ उसका हाथ पकड़े अपने भीतर के प्रेम को छुपाने का असफल प्रयास करती चेहरे पर गुस्सा लिए लगातार कुछ बुदबुदाती जा रही थी। वह जल्दी से अपने घर के भीतर गई और बाहर आई तो उसके हाथ में एककोलगेटथा। वह जल्दी सेकोलगेटलेकर उसके बच्चे के पास गई और अपने हाथ की उंगलियों से धीरे-धीरे जहाँ चोट लगी थी, वहाँ लगाने लगी। वह बार-बार उसके हाथों पर फूंक मारती जा रही थी। इस वक्त कितनी ममता झलक रही थी उस माँ की आँखों से। जब चोट किसी अपने को लगे तो उससे कहीं ज्यादा दर्द उस चोट को देख-देखकर हमें होता है। मैं एकटक बस वही देखे जा रही थी कि तभी मेरी नज़रें उन्हीं के पास सर झुकाए खड़े उसके बड़े भाई के चेहरे पर पड़ी। शायद वह अपनी गलती स्वीकार रहा था। कितना प्यारा था यह दृश्य। यह वह उम्र थी जब बच्चे का एकमात्र विश्वसनीय सहारा माँ का आंचल था जिसमें दुबककर वो सबसे ज्यादा महफूज महसूस कर सकें। मैं सोच रही थी कि हमें भी यानी इस नए दौर की नई पीढ़ी को भी इस बच्चे से कुछ सीखना चाहिए था।: और हम तो थोड़े बड़े हुए नहीं कि गलती होने पर भी कैसे अपने माता-पिता से आँखों से आँखें मिलाकर कितनी आसानी से झूठ बोल देते हैं, बजाय उन गलतियों को स्वीकारने के।

अचानक मुझे घर के बाहर बेटी उस बूढी महिला के बारे में याद आया तो मैं पलट कर फिर उस तरफ देखने लगी लेकिन अब वह वहाँ नहीं थी। चली गई होगी शायद थककर राह देखते-देखते। तब इंतजार कितना लंबा होता है जब किसी के आने की उम्मीद के बराबर हो। दुनिया का सबसे बड़ा दु: तब होता है जब कोई अपना इस आसमान में कहीं खो जाए और वापस आने की उम्मीद भी हो। मैं कमरे में रखी कुर्सी पर आकर बैठ गई। बस अब और नहीं देख सकती थी मैं। मुझमें इतनी हिम्मत नहीं थी। थोड़ी देर चुप बैठने के बाद मेरी आँखों के सामने वापस वहीं सब तैरने लगा जो मैंने अभी मैं बाहर देखा था। बार-बार उस औरत और उसके बच्चे के चोट पर प्यार से मरहम लगता चेहरा मुझे याद जाता। मुझे लगा जैसे मेरे भीतर कुछ अटक रहा है शायद जलन हो रही थी उनसे। मेरे भीतर का दर्द कड़वाहट में बाहर निकलने लगा।

मेरी नज़रें सामने टंगी माँ की तस्वीर पर जा गिरी जिसमें माँ का हँसता-मुस्कुराता चेहरा दिख रहा थालेकिन मुझे लगा जैसे उनके चेहरे की मुस्कुराहट अब फीकी पड़ गई हैं। हाँ! शायद उनकी तस्वीर की ही तरह। मैं देर तक देखती रही माँ की तस्वीर को। मेरे मन में कई सारे सवाल थे। मैं देर तक देखती रही माँ की तस्वीर की तरफ और जवाब माँगती रही उनसे। लेकिन तस्वीरें कहा कुछ बोल पाती है। भीतर थोड़ी घुटन होने लगी तो बाहर गई। सोचा कि यह पीड़ा इन कागज़ी फूलों की तरह क्यों नहीं होती है कि एक फुक मारो और उड़ जाए? इन यादों और पीड़ाओं को भी अलमारी के किसी बंद अंधेरे कोने में क्यों नहीं रखा जा सकता जैसे सबसे छुपा कर अलमारी के किसी बंद कोने में कोई कीमती समान रखा जाता है जिसे हम जब चाहे तब देखले और जब चाहे तब वापस उन्हें वही रख दे सबसे छुपा कर? जिंदगी अपने फैसले खुद लेती है हमें बिना बताए, पर यह हमें कहीं सारे ऑप्शन भी देती है कि हम सारी जिंदगी दु: मनाएं या फिर खुशी से जीवन बिताएं, या फिर सब कुछ कहकर मन हल्का कर दे या फिर मन में ही किसी बोझ की तरह उठाते रहे। बस हमें चुनना होता है इन सब में से और हम उन्हें चुनना ही भूल जाते है। समझ नहीं आता यह मैं किसे समझा रही हूँ खुदकों? या..

सारे ख्याल अपने मन से झटके और पास रखें फोन में एक गाना चला कर उसे गौर से सुनने लगी। और फिर थोड़ी देर बाद बंद कर दिया। अभी भी वह गाना मेरे मन के भीतर गूंज रहा था। इस गाने की ही तरह खुशी भी हमारे ही भीतर होती है। बस, हम उसे गुनगुनाना छोड़ देते हैं। हमें जरूरत है तो उसे गुनगुनाते रहने की। वैसे भी माँ जाकर भी पूरी कहाँ जा पाई थी। वह जाने के बाद भी कितनी सारी मेरे पास ही रह गई थी। उनकी यादें अभी भी मेरे मन के एक कोने में सहेज कर रखी हुई है। लेकिन यादों पर हमारा कोई वश नहीं होता। जब चाहे तब चली आती है बिना कहे।

शाम गहरी हो रात बनने जा रही है। सूरज अपना बोरिया बिस्तर बांध का कर आसमान में अंधेरा कर कब का जा चुका है। यह जानते हुए भी कि अंधेरे में कैसे रहेंगे लोग। माँ भी तो ऐसे ही छोड़ कर गई थी ! यह जानते हुए भी कि मेरी सहेली, बहन, सब वो ही तो थी न। इसलिए शायद मैंने कोई मित्र नहीं बनाया या शायद बना ही नहीं पाई। और बनाती भी क्यों? मेरी सब बातें सुनने वाली और मैं जैसी हूँ वैसे ही अपनाने वाली माँ थी मेरे पास। मैं उनके अलावा और किसी से भी बोलने में हिचकिचाती थी। मैं हमेशा से ऐसी ही थी, अकेलापन पसंद, खामोश तबीयत। एक माँ ही तो थी जो मुझे पूरा का पूरा स्वीकारती थी जैसी मैं हूँ वैसी। बात-बात पर मेरा रोना, हर चीज के लिए जिद करना, यह सब उसी के साथ तो कर पाती थी। वह जानती थी कि मैं अलग थी, मैं दूसरों की तरह लोगों से बातें करने में असहज थी। फिर कैसे वो मुझे इस तरह अकेले छोड़ कर जा सकती थी अकेले? उसे बता कर जाना चाहिए था कि वह अपने साथ-साथ मेरा खुलकर रोना, मेरा बचपना सब अपने साथ ही ले जाएंगी।

माँ की सारी आदतें अब मुझमें समाने लगी हैं। माँ को बहुत ज्यादा सलीके से जमी हुई चीजें और उन्हें वैसे ही व्यवस्थित जमाए रखने वाले लोग बिल्कुल नहीं भाते थे और अब शायद मुझे भी। जरा सी बेतरतीबी तो होनी चाहिए घर में भी और जीवन में भी। तो फिर मैं तुमसे अलग कैसे बनूं? और क्यों बनू मैं तुमसे अलग? तुम्हें यह भी बता कर जाना चाहिए था कि लोगों की नजरों में एकदम परफेक्ट कैसे बनते हैं? और यह भी क्या हर लड़की को परफेक्ट बनना जरूरी है? और हाँ! तो कैसे बना जाता है परफेक्ट लड़की? जीवन में कुछ बिखरता रहे? कुछ छूटता रहे,या कुछ गलतियाँ होती रहे तो हमें आदत लगीं रहती है। मुझे नहीं लगता कि मैं कभी परफेक्ट बन पाउंगी। माँ ने तो मुझे कभी परफेक्ट बनाने की ज़िद की ही नहीं। उसने तो मुझे मेरे अधूरेपन के साथ जैसी मैं हूँ वैसी ही अपना लिया था। जब भी कोई मेरे बारे में कुछ कहता तो वह मुझे समझाने के बजाय वह उल्टा उनसे ही लड़ जाती थी। वह हमेशा मेरी ढाल बनकर खड़ी रहती थी और हो भी क्यों ? आखिरकार माँ जो थी। वह दूसरी माँओं से थोड़ा अलग थी। तभी तो उसने अपने अंतिम वक्त भी मुझसे यही कहा था कि जैसी तू है वैसी ही रहना हमेशा। किसी के लिए भी बदलना मत और हाँ! अब थोड़ा मजबूत बन जाना बेटा क्योंकि तुम्हें हर बार बचाने वाली अब मैं नहीं होऊंगी तुम्हारे साथ।

काश अतीत के उन दिनों में वापस जा पाती और माँ से थोड़ा और प्रेम कर पाती, उन्हें थोड़ी और खुशियाँ दे पाती, उनके साथ कुछ और अच्छे पल बीता पाती। क्या ऐसा नहीं हो सकता कि माँ का जाना उस डरावने सपने की तरह होता और जब मैं आँखें खोलती तो वापस फिर वैसे ही सब कुछ ठीक हो जाता पहले जैसा ही? शायद ऐसे दौर से सबको गुजरना पड़ता है जो समझदार होता है वह तो रास्ता पार कर लेता है और जो नहीं होता है वह इन टकराहटों में ही उलझा रह जाता है। माँ ने जैसा कहा था मैं वैसे ही मजबूत बनना सीख रही हूँ। सिख क्या रही हूँ सीख चुकी हूँ हालातों से लड़ना। जब भी किसी की बात पर रोना आता है तो मैं अकेले कमरे में आकर चुपचाप रो लेती हूँ किसी को बतातीं नहीं। क्योंकि मैं नहीं चाहती की कोई मुझे कमजोर समझें।

हाँ मैं मजबूत हो गई हूँ, बहुत मजबूत। लेकिन अंदर सेतो आज भी मैं वैसी ही खोखली हूँ। मैं सब बन सकतीं हुं पर बस समाज के हिसाब से वो परफेक्ट लड़की मैं नहीं बन पाऊंगी।और ही मैं बनना चाहती हूँ। लेकिन इस समाज को तो हर लड़की परफेक्ट ही चाहिए, वरना उसे यहाँ रहने का अधिकार नहीं। जानती हूँ समाज तो ऐसा ही है, पर कौन सा समाज जो हमने बनाया है वही ? एक बदलाव तो किया जा ही सकता है। पर क्या मैं यह अकेले कर पाऊंगी? पर कोशिश तो कर ही सकती हूँ। लेकिन कभी-कभी डर जाती हूँ इस ख्याल से कि क्या एक दिन मुझे भी सौंप दिया जाएगा किसी अजनबी के हाथों में। हाँ! सौप ही तो दिया जाता है आए दिन हर दूसरी लड़की को किसी अंजान शख़्स के हाथों में, जैसे कोई एक मकान मालिक घर को सजा-धजा कर उसकी चाबी किसी नए मकान मालिक को सौंपता है। उन घरों में लड़कियों के लिए जिम्मेदारियाँ तो होती है पर उनका बचपना, उनकी नादानियाँ नहीं होती। उन घरों में बड़े-बड़े कमरे होते हैं, पहनने के लिए अच्छे-अच्छे कपड़े भी होते हैं और शृंगार के लिए मनचाहे जेवर भी होते है, मगर उनके सपने वो तो वहाँ पर कहीं भी नहीं होते हैं। और जिन घरों में वह उन घरों के लोगों के साथ उनके जैसे ही फिट होने की कोशिश में लगी रहती है सारा जीवन। और खुद को कहीं खो देती हैं। शादी के बाद लड़कियों के पास अपने घर की यादों पर हक तो होता है, लेकिन फिर उनका अधिकार नहीं होता उन घरों पर जहाँ उनका सारा बचपन बीता था कभी। क्यों हमेशा लड़की कोई अपना घर छोड़ कर आना पड़ता है कभी तो लड़कों को भी जाना चाहिए ? उन्हें भी तो मालूम हो कि एक लड़की के लिए कितना मुश्किल होता है अपने माता-पिता और अपने घर को छोड़कर आना।

जब भी मुझे यह कहा जाता है कि यह तो हम हैं जो संभाल रहे हैं अगले घर ऐसा नहीं चलेगा, तो सोचती हूँ कि आखिर ये ऐसा कौन-सा अगला घर है जिसके नाम से हमें इतना डराया जाता है जिसके लिए हमें बदला जाता है और जो हमसे हमारे अपने घर का हक छीन लेता है। इसअगले घरशब्द से अब मुझे नफरत सी होने लगी है। इस घर और अगले घर के बीच में मैं ढूंढ रही हूँअपना घर हाँ! अपना घरजहाँ मुझे बदला जाए, जहाँ मैं बिना किसी डर के अपने छोटे-छोटे ख्वाब बुन सकूं। बहुत लोगों को लड़की के यहअपना घरशब्द चुप जाते होंगे शायद। हाँ! समाज बदल तो गया है जहाँ अब लड़कियाँ अब अपने पैरों पर खड़ी होने लगी है, नौकरियाँ करने लगी है मगर अब भी उन पर कई बंदिशें और कई शर्तें थोपी हुई है।

लड़कियाँ इतनी जल्दी बड़ी क्यों हो जाती है? या उन्हें बड़ा बना दिया जाता है? हमारे पास वक्त इतना कम क्यों होता है अपने सपने पूरे करने के लिए? ऐसे ही अनेक सवाल हवा में लटक रहे हैं। अगर किसी दिन तूफान आएगा तो उड़ जाएंगे यह सब या शायद किसी दिन सुलझ जाएंगे। जब सोचते-सोचते इन सवालों में उलझने लगी तो इन्हें अपने आप से परे झटक एक नजर फिर आसमान की ओर दौड़ाई। हल्की हल्की बूंदे बरसने के कारण आसमान एकदम साफ और धुला हुआ नजर रहा था। तारे किसी मोतियों की भांति जगमगा रहे थे। यह तारे भी कितने अजीब है। यह हम सब के बारे में सब कुछ जानते हैं, हमें ताकते रहते हैं, मगर फिर भी कभी हमारी मदद नहीं करते। और करें भी क्यों? इनका काम है यह हमें ताकते रहना। भला यह अपने काम से गद्दारी थोड़ी करेंगे।

फिर एक नजर चांद की और गई तो देखा रोज की तरह आज भी चांद आधा था। और फिर मैं हमेशा की तरह आज पूरे दिन का हाल उसे बताने लगी और फिर अपनी सवालों की एक मोटी पोटली इस चांद के सामने खोल दी। इन सबके जवाब में एक गहरा सन्नाटा मेरे सामने सर झुका कर खड़ा रहता है। मगर फिर भी मुझे अच्छा लगता है इसको अपनी सारी बातें बताना।

आज भी रोज की तरह मेरे घर के बगल वाले घर से झगड़ने की आवाजें आने लगी। धीरे-धीरे आवाज और तेज होने लगी। आज फिर वो आदमी शराब पीकर आया था और अपनी पत्नी को मार रहा था शायद। मुझे बिल्कुल अच्छी नहीं लगती यह तेज-तेज आवाजें जो किसी अपने की आवाज को दबाती हो, उन्हें नीचा दिखाती हो।

मैंने अपनी नज़रें यहाँ-वहाँ दौड़ाई तो मैंने देखा कि आस पड़ोस की कई आँखें छुपते-छुपाते अपनी खिड़कियों से झाक रही थीं। वह भी देख रहे थे यह सब। मुझे एक उम्मीद थी कि शायद कोई तो अपने घर से बाहर आएगा। मगर कोई भी बाहर नहीं आया। सब दुबके रहे अपने अपने घर में और सब ने देखने का नाटक करते हुए देखते रहे। थोड़ी देर तक आसपास के कई घरों में धीमी आवाज में खुसर-फुसर की आवाजें आने लगी। थोड़ी देर बाद सारे आस पड़ोस ने खामोशी की चादर ओढ़ली। लेकिन मैं खिड़की के पास खड़ी हुई देर तक सुनती रही मेरे बगल वाले घर से आती आवाजें। मेरा मन बार-बार कहता कि मैं जाऊं। मगर क्यों? मैं थी ही कौन आखिर उनकी! तभी मेरे भीतर से एक आवाज आई और कोई नहीं तो एक इंसान तो थी मैं। क्या एक इंसान होते हुए हमारा यह दायित्व नहीं बनता किसी की मदद करना? या शायद हम अपनी इंसानियत को भूलते जा रहे हैं। मैं देर तक पूछती रही खुद से यह सवाल। मुझे खुद से कोफ़्त होने लगी। अब मैं इससे ज्यादा नहीं लिख पाऊंगी। मैं अगर किसी की मदद नहीं कर सकती तो मुझे क्या अधिकार है किसी पर लिखने का? उन प्रश्नों का जवाब देना सबसे ज्यादा मुश्किल होता है जो अपने आप से ही पूंछे गए हो।

 

रेखा कंवर
(सामरी की लाइब्रेरी)

चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक ई-पत्रिका 
  अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-52, अप्रैल-जून, 2024 UGC Care Listed Issue
सम्पादक-द्वय : माणिक-जितेन्द्र यादव चित्रांकन  भीम सिंह (इलाहाबाद विश्वविद्यालय)

2 टिप्पणियाँ

  1. चीकू के बीज वाला यह कॉलम जरूर पढ़ना चाहिए एक किशोर लड़की के द्वारा जिस तरह की भाषा शैली का प्रयोग किया गया है वह बेहद मारक है। प्रूफ रीडिंग के दौरान इस आलेख की कई पंक्तियां ऐसी थी जिन्हें पढ़ कर काफी देर तक सोच में डूबा रहा । जिस तरह की चित्र भाषा का प्रयोग इसमें हुआ है पाठक इससे बाहर जा ही नहीं सकता है। इतनी कम उम्र में भाव और संवेदना का जिस तरह से समायोजन लेखिका ने किया है वैसा पहले कभी मुझे देखने में नहीं आया। रेखा भविष्य में लेखन के क्षेत्र में बुलंदियां छूएगी इसका मुझे पूरा विश्वास है। इतना अच्छा लिखने के लिए बधाई रेखा

    जवाब देंहटाएं

एक टिप्पणी भेजें

और नया पुराने