- अजय कुमार साव
शोध सार
: हरिशंकर
परसाई
आधुनिक
हिंदी
व्यंग्य
के
विश्वविद्यालय
माने
जाते
हैं।
उनकी
रचनाओं
का
फलक
विस्तृत
है।
जीवन
के
विभिन्न
अनुभव
क्षेत्रों
को
विषयवस्तु
बनाकर
उन्होंने
अपनी
रचना
में
समाज
के
हर
वर्गीय
चरित्र
को
उसके
गुण-दोषों
के
साथ
उपस्थित
किया
है।
उनकी
रचनाएं
समसामयिक
जीवन
के
दस्तावेज़
हैं।
अपनी
रचनाओं
के
माध्यम
से
उन्होंने
जनता
में
सामाजिक-राजनीतिक-सांस्कृतिक-आर्थिक
चेतना
का
प्रवाह
कर
उनके
विकास
में
अवरोधी
सड़ांध
मान्यताओं
तथा
शोषक
व्यवस्थाओं
को
नष्ट
कर
नए
समाज
के
निर्माण
का
संकल्प
दिया
है।
कबीर
की
ही
भांति
परसाई
जनता
के
प्रहरी
हैं
जो
समय-समय
पर
समाज
में
फैले
पाखंडों
पर
समीचीन
चोट
करके
जनता
को
जाग्रत
करने
के
अपने
लेखकीय
कर्त्तव्य
का
निर्वहन
करते
हैं।
जिस
प्रकार
कबीर
के
दोहे
एवं
पद
जनता
के
कंठ
में
समाए
हुए
हैं, उसी प्रकार
परसाई
की
व्यंग्य
रचनाओं
की
पंक्तियां
भी
जनता
द्वारा
कंठस्थ
है।
समय-समय
पर
परिस्थितिनुसार
जनता
अपने
भावों
को
अभिव्यक्त
करने
के
लिए
उनकी
पंक्तियों
को
दोहराती
है।
इससे
यह
सहज
अनुमान
लगाया
जा
सकता
है
कि
परसाई
सामान्य
जन
के
जीवन
संदर्भों
से
कितने
अधिक
जुड़े
हुए
हैं
तथा
उनका
यही
जुड़ाव
समाज
में
उनकी
प्रासंगिकता
और
जनवादी
साहित्यकार
के
रूप
में
प्रसिद्धि
का
मूलाधार
है।
बीज
शब्द : कबीर, जनता, व्यंग्य, समाज, राजनीति, आर्थिक, संस्कृति, शोषण, भ्रष्टाचार, मध्यवर्ग, व्यवस्था, पूंजीवाद, जाति, वर्ग, धर्म, रचनाएं, विषमता, ऐतिहासिक, रूढ़ी, प्रगतिशील, विसंगति, विडंबना, क्रांति, बुद्धिवादी, आरक्षण, स्त्री, दलित, फक्कड़पन, आदि।
मूल
आलेख : व्यंग्य-पुरुष
हरिशंकर
परसाई
स्वातंत्र्योत्तर
हिंदी
गद्य
साहित्य
के
प्रभावशाली
साहित्यकार
थे।
उनकी
रचनाएं
तत्कालीन
समय
और
समाज
के
लिए
आईना
हैं, जो वही
दिखाती
है
जैसा
चेहरा
है।
परसाई
ने
अपने
लेखन
कर्म
को
सामाजिक
व
राजनीतिक
विसंगतियों
के
खिलाफ
लड़ने
के
लिए
हथियार
के
रूप
में
तबदील
किया।
अपनी
लेखनी
को
हर
प्रकार
के
अंतर्विरोधों
के
अनावरण
के
प्रति
समर्पित
किया, “उन्होंने अपने
समय, समाज और
समझ
के
हर
स्तर
पर
छाई
पोंगापंथी
को
धमेड़ा
और
रेशा-रेशा
किया।
भारतीय
नौकरशाही
की
अराजक
धमाल
को
जिस
तरह
परसाई
ने
उजागर
किया
और
जिस
वस्तुनिष्ठ
ढंग
से
उसके
खिलाफ
जिहाद
छेड़ा, वह अद्भुत
है।
सांप्रदायिकता
और
फिरकापरस्ती
के
खिलाफ
लिखने
पर
तो
उन्हें
कट्टरपंथी
सांप्रदायिक
लोगों
के
हिंसक
हमले
भी
झेलने
पड़े, मगर इससे
उनके
कबीराना
तेवर
और
मजबूत
हुए।“1
परसाई
के
व्यक्तित्व
का
विकास
कुछ
इस
ढंग
से
हुआ
कि
वे
अपने
आसपास
के
परिवेश
से
अछूते
कभी
नहीं
रहें।
‘वसुधा’ नामक पत्रिका
ने
ही
उन्हें
एक
लेखक
के
रूप
में
तथा
अखिल
भारतीय
श्रेणी
के
साहित्यिक
संपादकों
की
पंक्ति
में
ला खड़ा किया। किंतु परसाई ने
कबीर
की
तरह
इस
संसार
को
देखा, इसीलिए उनका
पूरा
व्यक्तित्व
तेज
तर्रार
रहा। वे समाज
की
रचना
और
विकास
क्रम
को
मार्क्स
की
वैज्ञानिक
दृष्टि
से
देखते
थे।
इसी
दृष्टि
से
उन्होंने
व्यक्ति
या
घटना
को
पकड़कर
एक
ऐसा
सर्वमान्य
ताना-बाना
बुना
कि
उसमें
पूरी
समाज
व्यवस्था
और
सभ्यता
का
ढोंग
उजागर
हो
गया।
उन्होंने
सामाजिक
व्यवस्था
पर
प्रहार
कबीराना
अंदाज
में
किया।
वे
प्रतिबद्ध
लेखक
थे
और
किसी
व्यक्ति
की
वैचारिकी
ही
उसकी
आस्थाएं, संस्कार और
उसके
व्यक्तित्व
व
कृतित्व
का
मुख्य
निकष
होती
हैं।
परसाई
कबीर
से
अत्यधिक
प्रभावित
थे।
उनके
कई
स्तंभों
के
नाम
भी
कबीर
को
समर्पित
थे– सुनो भाई
साधो, कबिरा खड़ा
बाजार
में, माटी कहे
कुम्हार
से, कहत कबीर
आदि।
वे
कबीर
के
सीधे, बेलौस, बखिया उधेड़, मस्ती व
फक्कड़पन
से
भरे
व्यंग्यों
के
बड़े
भक्त
थे।
उन्होंने
कबीर
के
जितना
ताकतवर
अन्य
किसी
को
नहीं
माना।
वे
बड़े
क्षोभ
से
लिखते
हैं, “कबीर को
कई
शताब्दी
तक
कवि
नहीं, गाली देने
वाला
गंवार
और
ऊट-पटांग
रहस्यवादी
माना
जाता
रहा।
जब
रवींद्रनाथ
टैगोर
ने
उनकी
कविताओं
का
अनुवाद
छपवाया– ‘हंड्रेड
पोएम्स
ऑफ
कबीर’
और
लिखा
कि
मैंने
कबीर
से
बहुत
सीखा
है;
साथ
ही
क्षितिमोहन
सेन
और
हजारी
प्रसाद
द्विवेदी
ने
जब
कबीर
पर
काम
किया
तब
कबीरदास
प्रतिष्ठित
हुए।“2
कबीर
की
क्रांतिकारिता
पर
अपनी
स्वीकार्यता
की
मुहर
लगाने
वाले
परसाई
ने
दूसरी
ओर
तुलसी
को
मूलतः
ब्राह्मणवादी
माना
था
और
उनके
मान-मूल्यों
को
सामंती
बताया
था।
अपने
समय
में
जलाए
जा
रहे
हरिजनों
के
पीछे
वे
तुलसी
को
भी
प्रोत्साहक
मानते
थे, भले ही
इस
अपराध
का
सारा
दोष
वे
उनपर
न
डालते
हो।
हरिजनों
पर
होने
वाले
अत्याचारों
के
पीछे
वे
तुलसीदास
को
प्रेरक
इसलिए
मानते
थे
क्योंकि, “सामंती समाज
की
सड़ी-गली
मान्यताओं
को
तुलसी
ने
बल
दिया।
छोटे, कमजोर दलित
वर्ग
को
और
कुचलने
के
लिए
एक
धार्मिक
पृष्ठभूमि
और
मर्यादा
का
जाल
फैला
दिया।“3
भारतीय
महापुरुषों
और
समाज
सुधारकों
में
कबीर
का
विशिष्ट
स्थान
इसलिए
भी
है
कि
वे
बिना
लाग-लपेट
के
तीखी
बात
कहते
थे।
दूसरी
उल्लेखनीय
बात
कबीर
में
यह
है
कि
उनकी
दूसरों
की
आलोचना
के
पीछे
किसी
पंथ
को
चलाने
या
स्वयं
स्थापित
होने
की
कोई
आकांक्षा
नहीं
थी।
कबीर
को
हिंदी
का
पहला
व्यंग्य
लेखक
माना
गया
है।
कबीर
समस्त
बाह्य-आडंबरों
को
भेदकर
सत्य
का
संघात
करने
की
प्रबल
आकांक्षा
लेकर
उपस्थित
थे।
शास्त्रीय
आतंक
जाल
को
छिन्न
करके
और
लोकाचार
के
जंजाल
को
ढहाने
के
लिए
सबसे
बड़ा
अस्त्र
व्यंग्य
था।
उन्होंने
समय
और
समाज
में
व्याप्त
रूढ़ियों
और
आडंबरों
को
छिन्न-भिन्न
करने
के
लिए
संगत
और
सार्थक
व्यंग्य
का
सहारा
लिया
तथा
अपनी
मस्ती
और
घर
फूंक
तमाशा
देखने
की
क्षमता
के
लिए
कबीर
ने
व्यंग्य
की
आत्मा
को
पहचाना।
परसाई
की
रचनाओं
में
भी
कुछ
इसी
प्रकार
के
रूप
देखने
को
मिलते
हैं।
इन्होंने
भी
समाज, राष्ट्र, देशकाल में
बदलाव
लाने
के
लिए
व्यंग्य
लिखे।
इन
व्यंग्यों
में
कबीर
के
लेखन
की
झांकी
प्राप्त
होती
है।
ये
भी
फक्कड़
किस्म
के
व्यक्ति
थे, उन्होंने अपना
गुरु
कबीरदास
को
ही
माना
होगा, क्योंकि
जीवन
की
सच्चाइयों
को
उजागर
करने
में
दोनों
के
मत
एक
समान
थे।
कबीर
के
लेखन
से
प्रेरित
होकर
ही
उन्होंने
समाज
की
दुर्दशा
का
वर्णन
अपने
लेखन
में
भी
किया।
वे
यथार्थता
के
आधार
पर
समाज
की
कलुषता
को
मिटा
देना
चाहते
थे।
सच
उजागर
करने
में
कभी
नहीं
चुके; राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री एवं
समस्त
मंत्रिमंडल
तक
की
कार्यवाही
को
आम
जनता
के
सामने
अपनी
रचनाओं
के
माध्यम
से
लाकर
रखा।
परसाई
को
अपने
युग
का
कबीर
कहना
गलत
नहीं
होगा, क्योंकि उनके
व्यंग्य
में
वही
अक्खड़ता
व
स्पष्टता
दिखाई
देती
है
जो
कबीर
ने
अपनी
रचनाओं
के
माध्यम
से
व्यक्त
की
थी।
उपहास
और
मजाक
के
स्तर
से
व्यंग्य
को
उठाकर
कबीर
ने
उसके
प्रहारक
परिवर्तनकामी
चरित्र
को
स्पष्ट
किया।
समाज
के
पाखंडपूर्ण
आचरण, हिंदू-मुस्लिम
संस्कृति
के
अवगुण, जातिभेद और
धोखेबाजी
पर
कबीर
का
व्यंग्य
नश्तर
की
तरह
प्रयुक्त
हुआ, धार्मिक और
सामाजिक
स्तर
पर
विद्रूपताओं
के
हर
मोर्चे
पर
कबीर
ने
आक्रमण
किया। परसाई की
आत्मा
में
कबीर
पूरी
संजीदगी
के
साथ
मौजूद
थे
और
कबीर
जनता
के
प्रतीक
रहें
तथा
जनता
की
ही
शक्ति
का
सहारा
परसाई
को
भी
था।
कबीर
का
प्रभाव
परसाई
के
जीवन
पर
बेहद
आंतरिक
रूप
से
पड़ा
और
उन्होंने
अपनी
आसपास
फैली
विद्रूपताओं
को
ही
नहीं
उजागर
किया, बल्कि पूरे
देश
में
फैली
विसंगतियों
को
भी
अपने
लेखन
का
मुद्दा
बनाया।
परसाई
के
फोकस
में
राजनीति
रही
है।
वे
आधुनिक
युग
में
मनुष्य
और
समाज
की
नियति
निर्धारित
करने
वाली
राजनीति
के
प्रति
सजग
हैं।
इसके
प्रति
बेखबरी
से
ही
अनेक
प्रकार
के
छल-फरेब पैदा
होते
हैं।
उनके
व्यंग्य
राजनीतिक
विचारधारा
से
ही
प्रेरित
है।
उनके
व्यंग्य
का
जन्म
ही
मनुष्य
की
रचनात्मक
पक्षधरता
से
होता
है।
परसाई
मनुष्यता
के
प्रति
किए
जाने
वाले
हर
षड़्यंत्र
के
विरुद्ध
दिखाई
पड़ते
हैं।
इस
प्रकार
वे
व्यक्ति
की
नियति
और
अस्मिता
के
लेखक
ही
नहीं
हैं, वे तो
सामाजिक
जीवन
की
विडंबनाओं
के
विश्लेषक
हैं।
उनके
लेखन
में
प्रेमचंद
की
ही
तरह
विविधता
और
विस्तार
है।
लेकिन
अंतर
यह
है
कि
प्रेमचंद
ने
मुख्य
रूप
से
सामंतवादी
सामाजिक
संबंधों
की
जटिलता
को
अपनी
रचना
का
विषय
बनाया
था, जबकि उन्होंने
मुख्य
रूप
से
पूंजीवादी
सामाजिक
संबंधों
की
जटिलता
को
अपने
व्यंग्यों
में
उतारा
है, “अपने जमाने
में
सत्याग्रह, हृदय परिवर्तन, ट्रस्टीशिप, सर्वोदय, अहिंसक मार्ग
आदि
की
बड़ी-बड़ी
बातें
सुनी
जाती
है।
एक
लगभग
संत
राजनीतिज्ञ
वर्ग
संघर्ष
की
भी
बात
करते
हैं, मगर अहिंसक
वर्ग
संघर्ष।
अहिंसक
वर्ग
संघर्ष
का
एक
छोटा
नमूना
ही
पेश
कर
देते। हिंसा, अहिंसा, हृदय परिवर्तन, ट्रस्टीशिप, सर्वोदय सब
फालतू
हैं।
सिर
पर
चढ़कर, सिर को
नोचकर
रोटी
ले
सको
तो
ले
लो, वरना भजन
करते
मर
जाओ।
गलत
होऊं
या
सही, पर इस
स्पष्ट
संघर्ष
के
बिंदु
पर
मैं
आम
आदमी
को
देखना
चाहता
हूं।”4
परसाई
के
लेखन
के
केंद्र
में
आम
आदमी
है।
उसी
की
रोजमर्रा
की
तकलीफों
को
वे
जबान
देते
हैं
तथा
उसकी
तकलीफों
के
लिए
जिम्मेदार
ताकतों
को
बेनकाब
भी
करते
हैं।
वे
उन
कारणों
की
पड़ताल
भी
करते
हैं
जिनकी
वजह
से
भारत
में
सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक एवं
राजनीतिक
विसंगतियां
व्याप्त
होती
चली
गई।
उनकी
रचनाएं
हमारे
अपने
समय
के
यथार्थ
से
सिर्फ
रूबरू
ही
नहीं
कराती
बल्कि
एक
विकल्प
की
तलाश
में
रोशनाई
भी
पैदा
करती
है।
रोटी-कपड़े
के
लिए
बिलबिलाती
इंसानियत
से
लेकर
वातानुकूलित
कमरों
में
शराब
की
बोतल
में
डूबे
पूंजीपतियों
तक
को, हल चलाने
वाले
किसानों
से
लेकर
इंसानों
का
खून
चूसने
वाले
मुनाफाखोरों
और
उद्योगपतियों
को, धर्म की
ठेकेदारी
करने
वाले
ढोंगियों
को
बड़े
करीब
से
उन्होंने
देखा-परखा, जाना-बूझा
और
उन
विसंगतियों
का
सामना
किया।
इसलिए
उन्हें
इस
बात
का
एहसास
होने
में
जरा
भी
दिक्कत
नहीं
हुई
कि
इतने
बड़े
पैमाने
पर
उपजने
वाली
विसंगतियां
हमारी
समाज
संरचना
और
आर्थिक-राजनीतिक
कार्य
पद्धतियों
की
दिशाहीनता
से
जन्मी
है।
उन्हें
विश्वास
हो
गया
कि
जब
तक
मौजूदा
हालातों
में
बुनियादी
परिवर्तन
नहीं
लाया
जाता
तब
तक
समाज
की
प्रगति
को
दिशा
नहीं
मिल
सकती।
यही
विशेष
कारण
है
कि
परसाई
की
सृजन
दृष्टि
सुधार
की
न
होकर
परिवर्तन
की
ओर
मुड़
गई,
“वैसे
मैं
सुधार
के
लिए
नहीं, बदलने के
लिए
लिखता
हूं।”5 एक साक्षात्कार
में
परसाई
कहते
हैं, “कोई सामाजिक
क्रांति
अराजनैतिक
नहीं
हो
सकती।
यदि
आज
के
लेखन
में
राजनीति
का
मूल
स्वर
है
तो
चिंता
की
बात
नहीं।
चिंता
की
बात
सचमुच
यह
है
कि
राजनीति
के
मूल
स्वर
में
अन्य
पक्ष
न
खो
जाएं।
मोहभंग
तो
लेखक
का
इस
सामाजिक-राजनीतिक
व्यवस्था
से
हुआ
ही
है।
वह
नए
मूल्यों
की
तलाश
में
है
और
सही
राजनीति
तलाश
रहा
है।
सही
राजनीति
वामपंथी
राजनीति
है।”6
परसाई
जनपक्षधर
रचनाकार
थे, शोषण व
विषमता
के
प्रति
उनके
मन
में
तीव्र
घृणा
थी।
वे
गांधी
के
आदर्शों
को
सम्मान
की
दृष्टि
से
देखते
थे,
किंतु
गांधीवादी
रचनाकार
नहीं
थे।
विषमता
बोध
तो
उनके
व्यंग्य
का
आधार
रहा।
उनका
व्यंग्य
उन
सामाजिक-ऐतिहासिक
स्थितियों
को
समाप्त
कर
देना
चाहता
है, जिसके कारण
विषमता
मौजूद
है।
इसी
अर्थ
में
उन्होंने
कहा, “शाश्वत लिखने
वाले
तुरंत
मृत्यु
को
प्राप्त
होते
हैं।
अपना
लिखा
जो
रोज
मरता
देखते
हैं
वही
अमर
होते
हैं, जो अपने
युग
के
प्रति
ईमानदार
नहीं
हैं, वह अनंतकाल
के
प्रति
क्या
ईमानदार
होगा।”7 हमारे दौर
में
यह
विसंगति
जीवन
के
सभी
क्षेत्रों
में
व्याप्त
है– परिवार, समाज, राजनीति, अर्थ, शिक्षा, धर्म, साहित्य, नौकरशाही, सबमें, लेकिन इस
विडंबना
की
भरपूर
चोट
पड़ती
है
कमजोर
आदमी
की
ही
पीठ
पर।
अकाल, बाढ़, मृत्यु, बीमारी, भुखमरी, गरीबी, सामाजिक जीवन
की
ऐसी
सच्चाइयां
हैं
जो
सहज
ही
मानव
मन
में
करुणा
एवं
दया
उपजा
देती
है।
ऐसे
दृश्यों
से
कठोर
हृदय
भी
द्रवित
हो
उठते
हैं।
‘बुद्धिवादी’ इन
स्थितियों
के
शिकार
मनुष्यों
की
कारुणिक
दशा
पर
द्रवित
होकर
उनकी
सहायता
के
लिए
आगे
आने
की
अपेक्षा
भाव-शून्य
तर्क
देता
है।
इस
तरह
की
स्थितियों
में
‘बुद्धिवादी’ की
प्रतिक्रिया
को
सामने
रखकर
क्रूर
व
कोरे
बुद्धिजीवियों
के
चरित्र
को
उघारने
वाली
ये
पंक्तियां
दृष्टव्य
हैं, “मैंने कहा
हमलोग
उन
पीड़ितों
के
लिए
धन
संग्रह
करने
निकले
हैं।
हम
चंदा
लेने
आए
थे, वे समझे, हम ज्ञान
लेने
आए
हैं।
उन्होंने
हथेली
पर
ठुड्ढी
रखी
और
उसी
मेघ
गंभीर
आवाज
में
बोले– ‘टु
माई
माइंड– प्रकृति संतुलन
करती
चलती
है।
पूर्वी
बंगालस्तान
की
आबादी
बहुत
बढ़
गई
थी।
उसे
संतुलित
करने
के
लिए
प्रकृति
ने
तूफान
भेजा
था।‘– अगर कोई
आदमी
डूब
रहा
हो
तो
वे
उसे
बचाएंगे
नहीं, बल्कि सापेक्षिक
घनत्व
के
बारे
में
सोचेंगे।
कोई
भूखा
मर
रहा
हो
तो
बुद्धिवादी
उसे
रोटी
नहीं
देगा,
वह
विभिन्न
देशों
के
अन्न
उत्पादन
के
आंकड़े
बताने
लगेगा।
बीमार
आदमी
को
देखकर
वह
दवा
का
इंतजाम
नहीं
करेगा, वह विश्व
स्वास्थ्य
संगठन
की
रिपोर्ट
उसे
पढ़कर
सुनाएगा।
कोई
उसे
आकर
खबर
दे
कि
तुम्हारे
पिता
जी
को
मृत्यु
हो
गई, तो बुद्धिवादी
दुखी
नहीं
होगा, वह वंश
विज्ञान
के
बारे
में
बताने
लगेगा।”8
बुद्धिजीवियों
के
लक्षणों
को
रेखांकित करते हुए समाज में उनकी भूमिका पर परसाई कहते हैं, “पहले दर्जे
का
किराया
और
पेट
में
मुर्गा
बुद्धिजीवी
को
क्रांतिकारी
बना
देता
है।
मुर्गा
दिन
में
सबसे
पहले
क्रांति
का
आह्वान
करता
है, क्रांति की
बांग
देता
है
और
फिर
घूड़े
पर
दाने
बीनने
लगता
है।
भारतीय
बुद्धिजीवी
का
भी
यही
हाल
है।
क्रांति
की
बांग, घूड़े पर
दाने
चुगना
और
हलाल
होने
का
इंतजार
करना।”9 खोखले बुद्धिजीवियों
की
भांति
व्यापारी
साहित्यकारों
के
संबंध
में
वे
लिखते
हैं, “साहित्य हमारे
यहां
व्यापार
कभी
नहीं
रहा
जो
उसमें
बनना
चाहते
हैं, वे बेहतर
है
आढ़त
की
दुकान
खोलें।
यह
वह
धर्म
रहा
है, जिसमें मिटना
पड़ता
है, कबीर की
तरह
घर-फूंककर
निकलना
पड़ता
है।”10 परसाई की
इसी
मुखरता
पर
डॉ.
प्रमोद
मीणा
कहते
हैं, “आज के
राजनीतिक
माहौल
के
खिलाफ
बोलना, आ बैल
मुझे
मार
जैसी
स्थिति
बन
चुकी
है, वैसे में
परसाई
की
यह
स्पष्टवादिता
और
ज्यादा
महत्वपूर्ण
हो
जाती
है।”11
विश्वनाथ
त्रिपाठी
भी
उनकी
वैचारिक
प्रतिबद्धता
के
संबंध
में
लिखते
हैं, “परसाई समाजवाद
में
विश्वास
करते
हैं।
वे
वर्ग
विभक्त
समाज
में
दूसरों
का
हक़
छीनकर
सांसारिक
सफलता
प्राप्त
करने
की
अमानवीयता
एवं
टुच्चेपन
को
समझते
हैं।
वे
अमानुषिक
यथास्थितिवादी
एवं
विकास
विरोधी
रूढ़ियों
को
उद्घाटित
करते
हैं।
वर्ग
विभक्त
समाज
की
शोषक
शक्तियों
की
ऐतिहासिक
अशक्तता
जानते
हैं।
ऐतिहासिक
प्रक्रिया
का
तर्क
उनका
सुदृढ़
दुर्ग
है।
जहां
वे
सुरक्षित
हैं, जहां से
वे
यथास्थितिवादियों
को
देखते
हैं, उन पर
प्रहार
करते
हैं।”12
जाति-पांति, छुआछूत और
वर्णभेद
जैसी
सामाजिक
विसंगतियों
पर
आदिकाल
से
ही
तीखे
व्यंग्य
किए
जाते
रहे
हैं।
‘सद्भावना भवन
में
बलात्कार’
और
‘भागलपुर के चौबेजी’
जैसी
रचनाओं
में
परसाई
ने
जाति
प्रथा
पर
अपने
निराले
अंदाज़
में
चोट
किया
है।
जातीय
श्रेष्ठता
का
दंभ
भरने
वाले
सवर्ण
यूं
तो
अछूतों
को
घृणा
एवं
तिरस्कार
की
दृष्टि
से
देखते
हैं, लेकिन एंद्रिक
सुख
पाने
के
लिए
वे
जातीय
उच्चता
और
छुआछूत
के
तमाम
भेदों
को
भुलाकर
उनसे
शारीरिक
संबंध
बनाने
में
संकोच
नहीं
करते
और
न
ही
इससे
उनके
जातीय
गौरव
की
कोई
हानि
नहीं
होती।
इसका
उदाहरण
प्रेमचंद
के
‘गोदान’ और फणीश्वरनाथ
रेणु
के
‘मैला आंचल’ में
देखने
को
मिलता
है।
इस
विसंगति
पर
परसाई
हास्यपूर्ण
शैली
में
चोट
करते
हुए
लिखते
हैं,
“हरिजन
स्त्री
से
बलात्कार
करने
से
छूत
नहीं
लगती, पर उसका
भाई
अगर
छू
ले
तो
छूत
लग
जाती
है।
नहाना
पड़ता
है।
झगड़ा
चंदन, चोटी और
जातिगत
पवित्रता
का
नहीं
है।
दूसरा, यों तो
चमार
वाल्मीकि
की
रामायण
पर
शोध
करके
पंडित
प्रोफेसर
हो
गए।
जुलाहे
कबीर
पर
शोध
करके
ऊंची
जाति
के
लोग
डॉक्टरेट
लेते
हैं
और
कॉलेजों
में
नौकरी
करते
हैं।
साधो, हरिजन हमारे
लिए
जरूरी
हैं।
सेवा
करने
को
हरिजन
चाहिए।
बेगार
करने
को
हरिजन
चाहिए।
बलात्कार
करने
को
हरिजन
औरतें
चाहिए।
समाज
को
हरिजनों
की
बहुत
जरूरत
है।”13 समाज में
वर्ण
व्यवस्था
के
समर्थक
और
आरक्षण
विरोधी
मनुवादी
लोगों
से
परसाई
उनकी
उच्च
जातियों
को
सदियों
से
मिल
रहे
अघोषित
आरक्षण
को
लेकर
चुभते
हुए
सवाल
पूछते
हैं, “शर्मा जी, सब कहीं
रिजर्वेशन
हो
जाए
तो
कैसा
रहे?
ऊंची
जातियों
के
लिए
भी
आरक्षण
हो
जाए।
बलात्कार
हरिजन
स्त्रियों
से
होते
हैं।
क्यों
नहीं
तीस
फीसदी
बलात्कार
ऊंची
जातियों
की
स्त्रियों
से
हो?
आखिर
उनका
हक
है।”14
परसाई
ने
मध्यवर्गीय
कुसंस्कारों, ढोंग, दोहरे मानदंडों, झूठी मान-प्रतिष्ठा, काइयांपन आदि
को
अपनी
मारक
भाषा
द्वारा
बुरी
तरह
लहू-लुहान
किया
है।
अपने
एक
लेख
‘दो नाक वाले
लोग’
में
वे
लिखते
हैं, “मेरा ख्याल
है, नाक की
हिफाजत
सबसे
ज्यादा
इसी
देश
में
होती
है
और
या
तो
नाक
बहुत
नर्म
होती
है
या
छूरा
तेज, जिससे छोटी
से
छोटी
बात
से
भी
नाक
कट
जाती
है।
छोटे
आदमी
की
नाक
बहुत
नाजुक
होती
है।
यह
छोटा
आदमी
नाक
को
छिपाकर
क्यों
नहीं
रखता?
कुछ
बड़े
आदमी, जिनकी हैसियत
है
इस्पात
की
नाक
लगवा
लेते
हैं।
काला
बाज़ार
में
जेल
हो
आए
हैं
और
खुलेआम
दूसरे
के
साथ
बॉक्स
में
सिनेमा
देखती
है, लड़की का
सार्वजनिक
गर्भपात
हो
चुका
है।
लोग
उस्तरा
लिए
नाक
काटने
को
घूम
रहे
हैं।
मगर
काटे
कैसे?
नाक
तो
स्टील
की
है।
स्मगलिंग
में
पकड़े
गए
हैं।
हथकड़ी
पड़ी
है, बाजार में
से
ले
जाए
जा
रहे
हैं।
लोग
नाक
काटने
को
उत्सुक
हैं।
पैसे
वाले
नाक
तिजोरी
में
रखकर
स्मगलिंग
करने
गए
थे।
पुलिस
को
खिला
पिला
देंगे, बरी हो
जाएंगे
और
फिर
नाक
पहन
लेंगे।
जो
बहुत
होशियार
हैं
वे
नाक
को
तलवे
में
रखते
हैं।”15
रामायण
में
वर्णित
युद्ध
भी
‘नाक की लड़ाई’
ही
थी।
सार्वजनिक
सेवाओं
का
गठन
जनता
की
सहायता
और
हित
के
लिए
किया
गया
है, किंतु यहां
भी
विडंबना
है।
भ्रष्टाचार, अंधेरगर्दी और
धांधली
अपनी
चरम
सीमा
तक
व्याप्त
है।
कर्मचारी
वर्ग
बिल्कुल
ही
अकर्मण्य
तथा
गैर-जिम्मेदार
है।
अपना
काम
कोई
नहीं
करना
चाहता।
यहां
भी
रिश्वत, सोर्स, पुल और
एप्रोच
का
बोल-बाला
है।
प्रशासन
की
लालफीताशाही
तथा
नौकरशाही
को
व्यक्त
करने
के
लिए
परसाई
की
एक
कहानी
‘भोलाराम का जीव’
ही
पर्याप्त
है।
भोलाराम
का
जीव
पेंशन
की
फाइलों
में
अटककर
रह
जाता
है।
भोलाराम
जैसे
न
जाने
कितने
कर्मचारी
दफ्तरों
का
चक्कर
काटकर
स्वर्ग
सिधार
जाते
हैं, किंतु वजन
के
अभाव
में
उनकी
अर्जियां
इधर
से
उधर
उड़ती
रहती
हैं, “उस बाबू
ने
उन्हें
ध्यानपूर्वक
देखा
और
बोला– भोलाराम ने
दरख्वास्तें
तो
भेजी
थी, पर उनपर
वजन
नहीं
रखा
था, इसलिए कहीं
उड़
गई
होगी।”16 भोलाराम के
जीव
के
गायब
होने
और
उसके
पेंशन
के
मामले
को
लेकर
बुनी
गई
यह
रचना
वस्तुतः
एक
ऑफिस
की
कहानी
से
उठकर
पूरे
देश
की
व्यवस्था
और
उसमें
फैले
भ्रष्टाचार, असंगतियों और
अन्याय
को
बेहद
ठंडे
ढंग
से
परत
दर
परत
उधेड़ती
चली
जाती
है।
समाज
में
एक
ऐसा
वर्ग
भी
है
जो
हर
बात
पर
हाय-तौबा
तो
मचाता
है
पर
कुछ
ना-नुकूर
के
बाद
सबकुछ
स्वीकार
भी
कर
लेता
है
और
वह
वर्ग
है– मध्यवर्ग। इस
वर्ग
पर
महंगाई
के
प्रभाव
को
परसाई
लिखते
हैं,“महंगाई को
रोएंगे, लेकिन दीवाली
ठाठ
से
ही
मनाएंगे।
जैसे-जैसे
महंगाई
बढ़ती
है, वैसे-वैसे
उत्सव
बढ़ते
हैं।
पिछले
साल
शहर
में
दो
सौ
पचास
दुर्गा
की
प्रतिमाएं
रखी
गई
थी।
इस
साल
और
महंगाई
बढ़ी
तो
तीन
सौ
प्रतिमाएं
हो
गई।
पिछले
साल
भी
दीवाली
पर
रोशनी
और
धूम-धड़ाका
था, पर इस
साल
बढ़ी
तो
ड्योढ़ा
हो
गया।
महंगाई
का
इतना
रोना
होता
है, मगर देखो
कीमती
साड़ियों
की
दुकानों
पर, आभूषणों की
दुकानों
पर, महंगे कपड़ों
की
दुकानों
पर, कॉस्मेटिक्स की
दुकानों
पर
भीड़
लगी
है।
कहां
बढ़ी
है
गरीबी?
किनके
लिए
बढ़ी
है?
वे
कौन
हैं
जिनके
लिए
महंगाई
उनकी
समृद्धि
का
कारण
है?”17
समाज
की
शक्तियां
पूंजीवादी
एवं
सामंती
दोनों, जनमानस को
भटकाने
के
लिए
समय-समय पर
बाबा-वैरागियों, भगवानों आदि
का
सुनहरा
जाल
फैलाती
रहती
हैं।
देश
में
होने
वाले
अनेक
‘यज्ञों’ तथा हरिजनों
पर
सवर्णों
के
अत्याचार
के
बारे
में
परसाई
ने
असलियत
को
सामने
रखते
हुए
लिखा
है,”देश
में
जब
करोड़ों
आदमियों
को
अन्न
खाने
को
नहीं
मिलता
तब
ये
धार्मिक
पाखंडी
उसे
आग
में
झोंकेंगे।
मेरे
ख्याल
से
यह
यज्ञ
करने-कराने
वाले
समय-समय
पर
परीक्षा
करते
रहते
हैं
कि
देश
का
अविवेक
और
पौरुषहीनता
अभी
बरकरार
है
कि
नहीं।
लोग
देखते
रहे
कि
हमारा
अन्न,
घी,
शक्कर
आग
के
हवाले
किया
जा
रहा
है
और
वे
जय
बोलते
हैं।
यानी
लोग
अभी
जड़,
अविवेकी
और
कायर
हैं।
इन
लोगों
से
अभी
डरने
की
कोई
जरूरत
नहीं
है।
इन्हें
लम्बे
समय
तक
शोषित
रखा
जा
सकता
है।
यज्ञ
में
वास्तव
में
अन्न,
घी,
शक्कर
नहीं
जलते,
विवेक
स्वाहा!
बुद्धि
स्वाहा!
तर्क
स्वाहा!
विज्ञान
स्वाहा!”18 ये सारे
कार्य
अनायास
नहीं
हैं, इसके पीछे
योजना
है
जिसका
उद्देश्य
है
जनता
को
पिछड़ा
हुआ
रखना, उसे भाग्यवादी
और
संघर्षहीन
बनाना।
वर्तमान
समय
में
भी
यह
पाखंड
और
परिस्थितियां
विद्यमान
हैं।
आजकल
भ्रष्टाचार
सर्वत्र
व्याप्त
हो
चुका
है।
शिक्षा
विभाग
भी
इसका
अपवाद
नहीं
है।
‘ढपोलशंख मास्टर हो
गए’
एक
ऐसी
कहानी
है
जो
शिक्षा
विभाग
की
तमाम
विसंगतियों
को
उभारकर
सामने
लाती
है।
‘ढपोलशंख का मास्टर
होना’
यह
बताता
है
कि
शिक्षा
व्यवस्था
की
नींव
ही
कमजोर
की
जा
रही
है।
अध्यापकों
का
चयन
योग्यता
के
आधार
पर
न
होकर
सिफारिश
के
आधार
पर
हो
रहा
है, “ढपोलशंख को
नौकरी
दिलाना
ही
है।
ऊंचे
दर्जे
का
मूर्ख
है।
अगर
उसे
यहां
जगह
नहीं
दी
गई
तो
दुनिया
में
कहीं
जगह
नहीं
मिलेगी।
अगर
मेंबरों
के
लड़के, साले वगैरह
यहीं
नौकरी
नहीं
पा
सकते
तो
उनके
मेंबरों
के
बेटे
या
साले
होने
से
क्या
लाभ?”19
वस्तुतः
परसाई
ने
कबीर
की
अक्खड़ता
को
उसी
तरह
आत्मसात्
किया
जैसे
निराला
ने
तुलसी
को।
कबीर
परसाई
के
व्यक्तित्व
में
लीन
थे।
कई
बार
तनाव
के
क्षणों
में
उन्हें
कबीर
की
पंक्तियां- ‘हम
न
मरिहै, मरिहै
संसारा’, ‘जो
घर
जारै
आपना, चले हमारे
साथ’, ‘सब
कहता
कागद
की
लेखी, मैं कहता
आंखिन
की
देखी’, आदि दुहराते
हुए
पाए
गए।
परसाई
ने
‘सुनो भाई साधो’, ‘कबिरा
खड़ा
बाजार
में’, ‘माटी
कहे
कुम्हार
से’
जैसे
स्तंभ
लेखनों
से
कबीर
की
विरासत
को
ही
आगे
बढ़ाया।
वह
कबीर
ही
थे
जो
दुश्मनों
से
लड़ने
का
साहस
इसलिए
पा
सके, क्योंकि अपने
आप
से
लड़
सके
थे।
‘मुझसे बुरा न
कोय’ कहते हुए
कबीर
ने
अपनी
रूढ़ियों
को
तोड़ा-फोड़ा
वहीं
परसाई
ने
अपने
साथ
पूरे
वर्ग
की
आत्मलोचना
की, “मैं काफ़ी
बेहया
हूं, मैं पहुंचते
ही
आलोचकों
के
चेहरे, व्यवहार और
आवभगत
से
हिसाब
लगाना
शुरू
कर
देता
हूं
कि
ये
अच्छे
पैसे
देंगे
या
नहीं?
कभी
ऐसा
भी
हुआ
है
कि
ज्यादा
आवभगत
करने
वालों
ने
मुझे
रूपये
कम
दिए
हैं।
लेखक
का
शंकालु
मन
है।
शंका
न
हो
तो
लेखक
कैसा?
मगर
वे
भी
लेखक
हैं
जिनके
मन
में
न
शंका
उठती
है
न
सवाल।”20
हरिशंकर
परसाई
ने
बड़ी
बेरहमी
से
समाज
की
असलियत
को
कुरेदा
है।
उसकी
सड़ांध
की
ओर
ध्यान
आकर्षित
किया
है।
बड़ी
निर्भीकता
के
साथ
उन्होंने
अपनी
बातें
कही
हैं।
अनीति, असत्य और
अमानवीयता
पर
चोट
करने
वाले
का
अपना
दामन
पाक
साफ
होना
चाहिए
तथा
वह
सच्चाई
को
सरे
बाजार
साहस
के
साथ
कह
सकता
है, जैसा कि
कबीर
ने
कहा
था।
यदि
जोखिम
से
डर
है, अपना घर
संभालने
की
माया
है, तो बेहतर
है
कि
व्यंग्य
के
रास्ते
चला
ही
न
जाए।
जो
कीमत
चुकाने
को
तैयार
हो, यह रास्ता
उन्हीं
के
लिए
है।
अपने
समय
में
कबीर
को
कीमत
चुकानी
पड़ी
थी
और
अपने
समय
में
प्रेमचंद, निराला, नागार्जुन, मुक्तिबोध और
परसाई
ने
भी
कीमत
चुकाई।
वह
कौन-सी
चीज
है
जो
उन्हें
बड़े
से
बड़ा
खतरा
लेने
की
शक्ति
प्रदान
करती
थी।
निश्चय
ही
यह
कबीर
की
प्रेरक
शक्ति
ही
थी-
‘हम
न
मरिहै, मरिहै संसारा’।
अपनी
रचनाओं
के
माध्यम
से
आज
भी
परसाई
देश
की
जनता
के
बीच
अलख
जगाते
हुए
घनघोर
अंधेरी
रात
में
‘जागते रहो’ का नारा
लगाते
हैं।
यह
कहने
में
संकोच
नहीं
कि
कबीर
की
ही
तरह
परसाई
को
पढ़ने
वाला
पाठक
दर्शन
की
महीन
गुत्थियों
में
उलझे
बगैर
स्थितियों
को
सही
तरह
से
समझ
सकता
है
और
गुमराह
होने
से
बच
सकता
है।
कबीर
का
एक
दोहा
है, ‘सतगुरु
ऐसा
चाहिए
जैसा
सिकलीगर
होय, सबद मसकला
फेरि
करि
देह
दर्पण
करे
सोय।’
निष्कर्ष
: अतः कहा जा
सकता
है
कि
परसाई
कबीर
से
बहुत
अधिक
प्रभावित
थे।
उनकी
फक्कड़ाना
अंदाज, घर फूंक
मस्ती, बेपरवाही और
अखंड
आत्मविश्वास
ने
परसाई
को
विसंगतियों
से
लड़ने
की
क्षमता
दी।
परसाई
का
कहना
था
कि
उन्होंने
व्यंग्य
लेखन
के
लिए
औघड़
व्यक्तित्व
अपनाया।
शायद
व्यंग्य
लेखन
के
लिए
औघड़ाई
बेहद
जरूरी
है, इसी से
बेफिक्री, निर्भीकता और
जीवट
भावना
आती
है।
उनकी
रचनाओं
में
वर्गीय
चेतना
भी
स्पष्ट
रूप
से
देखी
जाती
है।
उन्होंने
परिवार, समाज और
निज
की
चिंता
न
करते
हुए
एक
पूरे
कबीराना
ठाठ
के
साथ
रचना
क्षेत्र
में
सक्रिय
हुए-
‘जो
घर
फूंके
आपना, चले हमारे
साथ’।
उनका
यह
कबीराना
फक्कड़पन
उन्हें
अपने
लेखन
और
चिंतन
के
क्षेत्र
में
प्रतिभाशाली
सिद्ध
करता
है।
वे
बेबाक
कलम
के
धनी
थे।
‘घर फूंक तमाशा
देखने’
की
जिंदादिली
ने
ही
उन्हें
साहित्याकाश
की
ऊंचाइयों
पर
पहुंचाया।
एक
जागरूक
प्रहरी
की
भांति
परसाई
न
सिर्फ
अंधकार
की
शक्ति
से
जूझते
रहें
बल्कि
लोगों
को
अंधेरे
में
लूट
जाने
से
सावधान
भी
करते
रहें
और
भविष्य
में
भी
करते
रहेंगे।
संदर्भ
:
- संध्या
कुमारी सिंह
: परसाई
के साहित्य
में समकालीन
यथार्थ, अमन प्रकाशन, कानपुर,
2011,
पृ. 26
- कांति
कुमार जैन
: तुम्हारा
परसाई, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली,
2002,
पृ. 272
- कमला
प्रसाद,
प्रकाश दुबे
: हरिशंकर
परसाई – चुनी
हुई रचनाएं
(भाग-2), वाणी प्रकाशन,
नई दिल्ली, 2008, पृ.
99
- हरिशंकर
परसाई : वैष्णव
की फिसलन,
राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली,
1976,
पृ. 37
- हरिशंकर
परसाई : सदाचार
का ताबीज,
भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली, 2000, पृ.
9
- रमाशंकर
मिश्र : अंतरंग
बातचीत : पृ. 54
- विश्वनाथ
त्रिपाठी : देश
के इस
दौर में,
राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, 2000, पृ.11
- कमला
प्रसाद एवं
अन्य (संपादक
मंडल) : परसाई
रचनावली (भाग
– 1), राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, 1985,
पृ. 60
- वही,
भाग – 3 , पृ.
246
- वही, भाग – 6, पृ.
117
- पल्लव
(संपा.)
: बनास
जन – हरिशंकर
परसाई जन्म
शताब्दी स्मरण, अंक
- 62, पृ.
363
- विश्वनाथ
त्रिपाठी : देश
के इस
दौर में,
राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, 2000, पृ.
18
- कमला
प्रसाद एवं
अन्य (संपादक
मंडल) : परसाई
रचनावली
(भाग – 3), राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, 1985,
पृ. 267
- कमला
प्रसाद,
प्रकाश दुबे
: हरिशंकर
परसाई – चुनी
हुई रचनाएं
(भाग-1), वाणी प्रकाशन,
नई दिल्ली, 2008, पृ.
549
- कमला
प्रसाद एवं
अन्य (संपादक
मंडल) : परसाई
रचनावली
(भाग –1 ), राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, 1985,
पृ. 272
- वही, भाग – 1, पृ.
171
- वही, भाग – 4, पृ.
149
- वही, भाग – 4, पृ.
193
- वही, भाग – 2, पृ.
241
- वही, भाग – 1, पृ.
88
एक टिप्पणी भेजें