कविताएँ / रूपम मिश्र

कविताएँ

रूपम मिश्र


(1)  

बचे होते प्रेम करने के दिन।

कितने कम हो तुम जीवन में कि

मैं मन ही मन लेती रहती हूँ तुम्हारा नाम

जैसे फकीर अलख की इबारत पढ़ते हैं

 

ये मेरी पुकार

जो तुम्हारे होने की हाह से मुझमें उठती है

वो जाकर बरखा को बुलाते

जलपाखियों की पुकार में मिल जाती है

किसी विलुप्त होती लोक-रहन की तरह

मैं तुम्हें गुनगुनाती रहती हूँ

 

मातिवर कहानियों की तरह मैं तुम्हें बार-बार कहती हूँ

गढ़ती रहती हूँ मनुष्य होने के नये-नये अर्थों में

 

उठती रहती है मुझमें तुम्हारी तलब

जैसे किसी बीमार की देह में पानी की तास उठती है

 

तुम्हें ही सम्बोधित कर के सत्य के सवाल ढूँढना

मुझे भाता है

तुम्हें ही आवाज देते हुए

न्याय की ओर चल देना मुझे आता है

 

तुम तो जानते हो मेरी मूल खोज मनुष्य ही है

उसे ही मैं मनुष्यों में पलट-पलट कर खोजती रहती हूँ

 

एक वेदना भरी गहरी काली रात हमारे बीच खड़ी है

हमारे अपने जन हमसे ओझल होते जा रहे हैं

हमारे हाथ से मशालें छटकती जा रही हैं

ऐसे में हम अपनों को हेर रहें हैं

पर हाथ हैं कि आत्मा तक पहुँचते ही नहीं

 

इतना हायल होता जा रहा है कलेजा कि अब गाढ़-अवसान सब एक जैसे लगते हैं

पर बचे होते प्रेम करने के दिन तो हम प्रेम की नयी लोककथाएँ रचते

इस बार सारी प्रेमिकाएं खिलंदड़ और दिलफ़रेब होतीं

और सारे प्रेमी सहज और शर्मीले

 

दुनिया को जीने लायक बनाने के स्वप्न से बनी कहानियों में हम गुड़-घी की तरह महकते

 

अपनों के दिलों को छोड़कर

थोड़ी सी भी जगह हमारे किसी काम की नहीं साथी

 

तुम जानते हो हम कहानियों के पात्र नहीं थे

पर जाने कैसे इक सद्य-कथा में हम अनायास रहे हैं।

 

 

(2) 

हथेली में एक नाराज चेहरा लिये बैठी रहती हूँ

इतनी लीन और ध्यानस्थ कि

जैसे मेरी गोद में कोई नवजात लेटा हो

 

दीवाल से सिर टिकाए सोचती रहती हूँ कि

माख से बिदुरे होंठ जिन्हें चूमने की इच्छा एकदिन अचानक उठी थी

क्या फिर से उन्हें देख सकूँगी

मिलूँगी तो आखिर क्या कहूँगी

सोचती हूँ उस पल को मन और अददिहा हो जाता है

तभी एक सिखरन सी हँसी चमकती है

ओंठों पर घुल जाती है

 

मैंने उसे आंखों से चीन्हा था

मुक्ति से पारी गयीं थीं वे आँखें

हमारे सपनों और अपनों की जगमग दुनिया

मन को कहीं और घात लगाना था

मन था कि वहीं जाकर अरुझा जहाँ जीऊ-जीऊ आंतर था

 

चलो ये खेल ही सही

सावन की रातों में जन्में जुगनुओं का अजोर ही सही

 

वर्जनायें वहाँ टूटीं जहाँ से बड़े विवर्ण धब्बे छूटते लड़ाई पर

हमारे पास तो कोई पवित्र जल या जादू भी नहीं था

कि हम उसी से उन धब्बों को गायब कर देते

 

सपने में दिखती है अक्सर एक उजली पीठ

और नाराज़गी से बिदुरे वही ओठ

जहाँ सवालों का इतना मोड़ की मैं बिहड़ सी गयी

दरअसल मेरे पास कोई वेलकम काढ़ा हुआ रूमाल नहीं था

 

जाने कहाँ रहता है वो इन दिनों

अब सपने भी उसे ढूँढ नहीं पाते

सपने में उसकी पीठ ही दिखती है मुझे

और वो चला जा रहा है अंधड़ धूल भरे रास्ते पर

 

फिर दिखता है उजाड़ दीदी के ब्याह का माड़व

साँझ का पहर है धूमिल धोती तो बड़की माई ही पहनती थीं वही गा रही हैं एक अनंत बिरह से सालती रहन

"जल्दी मथुरा से किहे लौटानी हो..

नदानी जिनी देखाय मोहना..

(*बिदुरे ओठ-होठों पर ढरकी नाराजगी *सिखरन-गुड़ और दही से बना शर्बत *अददिहा - भीतर से जर्जर *जीऊ-जीऊ आंतर-बेहद आत्मीय होना)

 

 

(3) 

इससे
पहले कि नदियों के पाट खत्म

हो जायें

ओरा जाएं सारे जंगल

सिरा जाये तितली, फूल ,तारों के कितने किस्से

हवा अंधड़ में बदल जाये

बारिश होना भी लगभग बंद हो जाये

हमें एकबार मिल लेना चाहिए

 

कहीं भी मिल लेना चाहिए

जहाँ से दिखती रहे थोड़ी हरियाली थोड़ा आकाश

और ओझल रहें घृणा की तरेरती नज़रें

 

इतनी तेज़ी से इतनी सुंदरता नष्ट की जा रही है यहाँ कि

मैं बचे हुए को जी लेने के लिए बेचैन हो उठी हूँ

 

मैं खयालों में रोज जमा कर रही हूँ  मिट्टी ,पानी और हरियाली

तुम्हारे संग-साथ के लिए इतनी चीजें तो चाहिए ही

 

तुम ही सोचो कैसा होगा हमारा अभिसार

बिना बारिश, बिना जंगल ,बिना पहाड़ और नदी के

एक उजाड़ , प्लास्टिक का संसार दम घोट देगा हमारा

 

देखना अगर इसी तरह टलता रहा हमारा मिलना

तो एक दिन प्यार किये बिना ही हम दुनिया से चले जाएंगे

और किसी को कोई फ़र्क नहीं पड़ेगा।

 

 

(4) 

मुझे
कितना होश है मैं कितना ज़िन्दा हूँ

हिसाब लगाने की जहमत कौन करे

 

अब खाली साँझ उदासी लेकर नहीं आती

मैं बेचैन होकर ही सुबह जागती हूँ

 

एक बेरंगनीरस सा दिन सामने खड़ा है

मैं फिर से आँख बंद कर लेती हूँ

 

चाय ठंडी हो जायेगी तो देने वाले को तेरज होगा

बेमन पी रही हूँ और आज सुबह ही वो लड़का बेतरह याद गया जिसको मैं अक्सर रोक लेती थी

देश-दुनिया की बात करती हूँ बार-बार उसके साथ चाय पीती हूँ

इतनी सी उम्र में उसकी चिंताओं को देख उस पर दुलार आता है लेकिन बस स्नेह से देखती हूँ

वो उठने को होता है मैं बहाने से रोक रही हूँ

 

उसे लग रहा मैं उसे ध्यान से सुन रही हूँ

जबकि मैं उसे ठग रही हूँ

 

वो एकदम तुम्हारी तरह नहीं बोलता

लेकिन पहरों की बातचीत में एकाध बार ठीक तुम्हारे लहजे में बोल देता है

साँझ उतर गई है अब रात होगी वो अभी उठकर जा रहा है

मैं थोड़ी सी उदास हो रही हूँ उसके जाने से नहीं

तुम्हारा लहजा खोने से

 

वो गेट से दुबारा लौटा है

कोई काम याद आया होगा

वो सहेजता है

कुछ-कुछ कहता है

 

अभी-अभी वो ठीक तुम्हारी तरह बोला है

वही चिरपरिचित मुक्ति की हांक

अभी-अभी तुम्हारा लहजा सारी फिजा में लाल अबीर की तरह फैला गया है

 

( रूपम मिश्र का जन्म 7 जून, 1983 को उत्तर प्रदेश के जौनपुर जनपद के तिलहरा (सुजानगंज) में हुआ। उनकी शुरुआती पढ़ाई गाँव में ही हुई। फिर पूर्वांचल विश्वविद्यालय, जौनपुर से स्नातक किया। महत्त्वपूर्ण पत्र-पत्रिकाओं में उनकी कविताएँ नियमित रूप से प्रकाशित होती रही हैं। वे स्त्री मुद्दों पर लगातार लिखती रही हैं। अनेक कविताओं के उर्दू, अंग्रेजी और मराठी में अनुवाद प्रकाशित हुए हैं। एक जीवन अलग सेउनका पहला कविता-संग्रह है। वेमनीषा त्रिपाठी स्मृति अनहद कोलकाता सम्मान’ (2022) से सम्मानित हैं। rupammishra244@gmail.com )


चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक ई-पत्रिका 
  अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-52, अप्रैल-जून, 2024 UGC Care Listed Issue
सम्पादक-द्वय : माणिक-जितेन्द्र यादव चित्रांकन  भीम सिंह (इलाहाबाद विश्वविद्यालय)

4 टिप्पणियाँ

  1. रुपम की कवितायेँ बिरले अंदाज़ से हमें अपनी तरफ खींचती हैं। पहली कविता अपने कहन में सरल और एक सीध में चलती हुई इबारत होकर भी कथा सरीखी है और कविताई को छूटने नहीं देती है। अगली कविता से गुजरते हैं तो लगता है कि इनमें बहुतेरे नए लोक के शब्द हैं। क्या कमाल ढंग से प्रेम गूंथा हुआ है इन कविताओं में। हमारे कहने से पढ़ जाइएगा इस कवयित्री को। कठिन शब्दों के अर्थ खोल कर देने से भाव ग्रहण करना आसान हुआ है। कविताओं में उपस्थित प्अरेम पने प्रेमी से संवाद ही नहीं यह हमें प्रकृति से असीम रिश्ते तक लेकर जाती रचनाएं हैं। आखिरी कविता जिगर में कहीं अटक गयी है अब। इन कविताओं को उपलब्ध करवाने के लिए अपनी माटी की सह-सम्पादक डॉ. कविता सिंह का विशेष शुक्रिया।

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  2. अनूठी अलग ढंग की कविताएँ बहुत उम्दा

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  3. बेहतरीन रचना। अंत: स को छूकर भावनाओं को उभारती कलम।

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