- मनीषा कुमारी एवं वीरेंद्र सिंह
शोध-सार : बाज़ार एक ऐसे स्थान का नाम है जहाँ क्रेता-विक्रेता वस्तुओं के विनिमय के लिए एकत्रित होते हैं। बाज़ार का जन्म मनुष्य जीवन को सरल व सुगम बनाने हेतु एक सुविधा के रूप में हुआ था लेकिन मानव के लिए यह आत्मघाती साबित होने लगा है। वर्तमान समय में यह मानव जीवन का नियंता हो गया है। मनुष्य की कमजोर नब्ज को पकड़ते हुए यह हमारी प्राथमिकताओं को तय करने लगा है। नब्बे के दशक में आर्थिक उदारीकरण के साथ ही यह और विकराल रूप लेने लगा है और अब तो यह हमारी जड़ों पर ही वार करने लगा है। आदिवासी समाज मनुष्य जीवन के मौलिक स्वरूप को बचाए हुए है लेकिन बाज़ार की पहुँच से अब वह भी दूर नहीं रहा है। आदिवासी क्षेत्रों में उपलब्ध प्राकृतिक संपदा पर अब बाज़ार की गिद्ध दृष्टि पड़ने लगी है जिसके प्रति चिंता के स्वर से कुछ आगे बढ़कर आदिवासी कविता में अब मुखर प्रतिरोध दर्ज़ होने लगा है।
बीज-शब्द : बाज़ारवाद, आदिवासी, प्रकृतिखोर, दिकु, जंगल, नदियाँ, पहाड़, भाषिक अस्मिता, विस्थापन, रोज़गार।
मूल आलेख : बाज़ार और आदिवासी समाज का परस्पर संबंध शिकारी और शिकार के जैसा है। एक, आदिवासी प्राकृतिक संपदा पर गिद्ध दृष्टि गड़ाए हुए और दूसरा, उसे बचाने के हर संभव प्रयास करते हुए; एक, विज्ञान और तकनीक के पंखों पर सवार होकर विकास की ऊँची उड़ान भरता हुआ और दूसरा, मानव की जड़ों को सींचने, रोपने और संरक्षण के कार्य में व्यस्त; एक, मुनाफ़ा केंद्रित संकीर्ण दायरे में मानवता को कैद करता हुआ और दूसरा, जीवन मूल्यों की जमीन को बचाए रखने की जद्दोजहद में; एक, मनुष्य जीवन को सरल, सुगम और सुविधासंपन्न बनाता हुआ और दूसरा, संपन्न मनुष्य को पाँव ज़मीन पर ही टिकाए रखने की तालीम देता हुआ; एक, मनुष्य जीवन में नयी राह दिखाता हुआ और दूसरा, उस राह में भटकाव की रोकथाम करता हुआ। गंभीरता से मनन करें तो पाएँगे कि बाज़ार और आदिवासी विपरीत ध्रुवों की तरह एक-दूसरे के विरोधी हो गए हैं, एक-दूसरे को चुनौती देते हुए जबकि मानवता की बेहतरी के लिए इन दोनों का पूरक होना अनिवार्य है।
मनुष्य जब खानाबदोश था, वह प्रकृति पर निर्भर रहता था इसलिए तब बाज़ार नाम की कोई संस्था नहीं थी। घुमंतू जीवन छोड़ जब उसने समाज में रहना आरंभ किया, तो उसकी आवश्यकताएँ बढ़ने लगीं और वस्तुओं के विनिमय को सुगम बनाने के लिए बाज़ार का जन्म हुआ। इस तरह बाज़ार मनुष्य के लिए सुविधा बनकर आया। समाज के विकास के साथ बाज़ार के स्वरूप में परिवर्तन हुआ और वह मुनाफ़ा केंद्रित हो गया। बाज़ार अब सुविधा की अवधारणा से भटक कर मनुष्य जीवन का नियंता हो गया है जिसे बाज़ारवाद कहा जाता है। आर्थिक उदारीकरण और वैश्वीकरण के साथ नब्बे के दशक के बाद बाज़ार और विकराल रूप धारण करता गया। अब बाज़ार के लिए हर वस्तु एक उत्पाद है जिसका मोल-भाव किया जा सकता है। “बहुत मोटे तौर पर कहा जा सकता है कि सभ्यता और संस्कृति या कह लीजिए जीवन-समग्र का मुख्य संचालक निकाय बाज़ार को मानना बाज़ारवाद है।”1
आदिवासी का अर्थ है आदि-निवासी, मूल निवासी।2 अंग्रेज़ी में इसके लिए aboriginal, Indigenous3 जैसे शब्द आते हैं। महात्मा गांधी इनके लिए ‘गिरिवासी’ शब्द का प्रयोग करते हैं जबकि देश के संविधान में अनुसूचित जनजाति कहकर संबोधित किया गया है। वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार भारत की कुल जनसंख्या का 8.6 प्रतिशत आदिवासी हैं।4 उड़ीसा, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, झारखंड, राजस्थान सहित पूर्वोत्तर भारत में अधिसंख्य आदिवासी निवास करते हैं जिनका उल्लेख हमारे संविधान की पाँचवीं अनुसूची में मिलता है। लोकुर समिति द्वारा 1965 में अनुसूचित जनजातियों की पहचान के पाँच आधार निर्धारित किये गए हैं– आदिम लक्षण, विशिष्ट संस्कृति, भौगोलिक अलगाव, बड़े पैमाने पर समुदाय के साथ संपर्क में संकोच और पिछड़ापन। विकट भौगोलिक परिस्थितियों के कारण संकुचित स्वभाव तथा आर्थिक पिछड़ापन स्वाभाविक है। आदिवासियों की अपनी विशिष्ट संस्कृति होती है जो इन्हें एक अलग पहचान देती है। भाषा भी संस्कृति का एक अभिन्न अंग है।
बाज़ार के निरंतर प्रभाव के कारण आदिवासियों की इस अनूठी जीवन शैली की मौलिकता के लिए आज गंभीर चुनौतियाँ उपस्थित हुई हैं। जल, जंगल और जमीन उनकी अस्मिता और आर्थिकी के अभिन्न घटक हैं, भाषा और संस्कृति के अक्षुण्ण न रहने पर उनकी अस्मिता पर प्रश्न उठेंगे;
जंगलों
पर
अधिकार
नहीं
रह
जाएगा
तो
रोज़गार
के
लिए
पलायन
होगा; नदियों पर परियोजनाओं का पहरा होगा तो विस्थापन का दंश झेलना होगा। मनुष्य की उपभोक्तावादी जीवनशैली ने बाज़ार के मार्फ़त इन सभी समस्याओं को जन्म दिया है,
जिस
पर
आदिवासी
कवियों
का
चिंतित
होना
स्वाभाविक
है।
कविता
के
माध्यम
से
अपनी
चिताएँ
अभिव्यक्त
कर
वे
इन
बेहद
प्रासंगिक
विषयों
को
बहस
के
केंद्र
में
ला
कर
साहित्य
के
मूल
प्रयोजन
को
सिद्ध
करते
हैं।
महादेव
टोप्पो,
निर्मला
पुतुल,
अनुज
लुगुन,
जसिंता
केरकेट्टा,
वंदना
टेटे
जैसे
आदिवासी
कवियों
में
इन
चिंताओं
की
अभिव्यक्ति
स्वाभाविक
है,
ग़ैर
आदिवासी
कवियों
में
भी
यह
संवेदना
देखने
को
मिलती
है
जो
यह
स्पष्ट
करता
है
कि
मनुष्य
की
सुख-दु:ख की मूल भावनाएँ एक होती हैं।
वनमानुष से अपने विकास के सोपानों को पार करते हुए मनुष्य ने इक्कीसवीं सदी में प्रवेश कर लिया है। आज वह ज्यादा सुखी और सुविधाओं से लैस जीवनयापन कर रहा है लेकिन विडंबना यह है कि अभिजात्य समाज के बाहर आज भी समाज का एक बड़ा वर्ग अपनी अस्मिता के लिए संघर्षरत है। “कोई उन्हें उपहास से ‘जंगली’ या ‘लंगोटिया’ के नाम से संबोधित करता है। कुछ लोग उन्हें ‘भूमिपुत्र’ या ‘वनपुत्र’ कहना भी समीचीन समझते हैं। आजकल ‘आदिपुत्र’ जैसे नामों का प्रयोग भी उनके लिए किया जा रहा है। जंगल के ‘अनाभिषिक्त राजा’ के रूप में भी उनका गौरवपूर्ण उल्लेख किया जाता है।”5 वह प्रकृति की नैसर्गिक गोद में निवास करने वाला प्रकृतिपूजक समाज है और सभ्य मनुष्य उसे जंगली कहने लगा। वह विकट भौगोलिक परिस्थितियों में जीवनयापन करता है, जो उसे जीवटता से भर देती हैं। उसकी विशिष्ट संस्कृति को आप जंगली कह कर तिरस्कृत करते हैं; उसकी अनूठी भाषा को गँवारू कह दिया जाता है। आदिवासी समाज के प्रति सभ्य समाज का यह नज़रिया वास्तव में उसकी अपनी सभ्यता के चरित्र की गवाही देता है। सभ्य समाज की इस खंडित सोच को प्रश्नांकित करते हुए कवि महादेव टोप्पो पूछते हैं–
आदिवासी एक बंद समाज होता है जिनकी न्यूनतम जरूरतें प्रकृति से ही पूरी हो जाती हैं, इसलिए ये किसी बाहरी हस्तक्षेप को सहज स्वीकार नहीं करते। बाहरी लोगों के प्रवेश को ये अपनी अस्मिता के लिए बड़ा संकट मानते हैं। हरिराम मीणा की चिंता सटीक है कि– “आदिवासी इलाकों में बाहरी तत्त्वों की घुसपैठ सबसे बड़ी समस्या रही है। यहीं से आदिवासी जीवन की पवित्रता में प्रदूषण शुरू होता है और अंत में आदिवासी अस्तित्व का संकट।”7
वे
बाहरी
लोगों
को
‘दिकू’
कहकर
संबोधित
करते
हैं
और
भलीभाँति
जानते
हैं
कि
दिकुओं
के
हस्तक्षेप
का
मतलब
उनकी
मूल
अस्मिता
के
लिए
गंभीर
चुनौती
है।
‘दिकू’
शब्द
का
प्रयोग
अंग्रेजों
के
प्रवेश
के
बाद
हुआ।
अंग्रेजों
के
साथ
हिंदू
जमींदार,
उनके
कारिंदे,
ठेकेदार
आदि
के
लिए
प्रारंभ
में
दिकू
शब्द
का
प्रयोग
आदिवासी
करते
थे,
लेकिन
बाद
में
सामान्य
रूप
में
संपूर्ण
गैर
आदिवासी
समाज
को
‘दिकू’ कहा जाने लगा।8 इन दिकुओं में भी मुनाफ़ाखोर व्यापारियों से विशेष सचेत रहने का आह्वान करते हुए महादेव टोप्पो लिखते हैं–
इस जंगल में
इस पठार में
उन दोपाया जोंकों से लड़ते हुए
जो चूसते नहीं
सिर्फ हमारे शरीर का रक्त
चूस लेते हैं हमारे खेत-खलिहान
हमारी भाषा-संस्कृति और-
इतिहास का भी रक्त!9
प्रकृतिपूजक आदिवासी समाज की मूल चिंताएँ जल, जंगल और जमीन की हैं। जंगल आदिवासियों के ही नहीं, जनसामान्य के प्राण हैं लेकिन हरित क्षेत्र के प्रति जितना संवेदनशील आदिवासी समाज है, कदाचित सभ्य समाज नहीं है। जहाँ हम अपने स्वार्थों के लिए किसी पेड़ को काट गिराने में एक पल नहीं सोचते, आदिवासी लोग इन्हें ईश्वर स्वरूप मान कर अपनी संतान की तरह इनकी परवाह करते हैं। भारत के वन सर्वेक्षण 2011 के अनुसार जहाँ देश के कुल क्षेत्रफल का 21.05 प्रतिशत भूभाग वनाच्छादित है वहीं 26 राज्यों के 188 आदिवासी बहुल जिलों में यह 37.25 प्रतिशत है जो कि देश के कुल वनाच्छादित क्षेत्र का लगभग 60 फीसदी है। जिन 58 जिलों में वनाच्छादन 67 प्रतिशत या उससे अधिक है, उनमें 51 जिले जनजातीय बहुल हैं।10 ये आँकड़े ये बताने के लिए पर्याप्त हैं कि वन आदिवासियों की प्राणशक्ति हैं और वे जान की कीमत पर भी उनकी रक्षा करने के लिए प्रतिबद्ध हैं। जंगल में ईंधन के लिए लकड़ी तलाशती आदिवासी स्त्री की संवेदना व्यक्त करती कवयित्री जसिंता केरकेट्टा ‘परवाह’ कविता में लिखती हैं–
जब संविधान बना, तब फॉरेस्ट विषय को राज्य सूची के अंतर्गत रखा गया था। विभिन्न राज्यों में भिन्न वन क़ानून के परिणामस्वरूप विवाद उत्पन्न होने लगे तो 1976 में 42वें संविधान संशोधन के तहत इस विषय को राज्य सूची से हटाकर समवर्ती सूची में डाल दिया गया। केंद्र सरकार के वन (संरक्षण) कानून, 1980 ने भारत की वन–संपदा को संरक्षण दिया। साथ ही इस कानून की बदौलत केंद्र सरकार के पास वनों से जुड़े मामलों को विनियमित करने का अधिकार आ गया। इस बीच भारत की संसद द्वारा वन (संरक्षण) संशोधन बिल, 2023 पारित किया गया जो कि मूल कानून में परिभाषित ‘वन भूमि’ की परिभाषा में बदलाव की पेशकश करता है। इस बिल के अनुसार पुल बनाने, चेक डैम बनाने, इको टूरिज़्म के लिए सुविधाएँ बढ़ाने और ऐसे ही अन्य मामलों में, जिन्हें केंद्र सरकार जरूरी समझे, के लिए वन भूमि पर ग़ैर वानिकी अनुमति दी जा सकती है। साथ ही इस बिल में कई प्रकार के सर्वेक्षणों को गैर वानिकी उद्देश्य नहीं माना है; यानी उन्हें वन काटने के लिए किसी से अनुमति लेने की ज़रूरत नहीं है। ऐसे में कई पर्यावरणविदों का मानना है कि इसका फायदा कई खनन–उत्खनन करने वाली कंपनियों को मिलेगा और वन संरक्षण के नज़रिए से यह घाटे का सौदा साबित होगा। छत्तीसगढ़ के मोरगा गाँव की एक आदिवासी महिला का कहना है– “हम जंगल को अपना भगवान, सभी चीजों का प्रदाता मानते हैं। हम अपने आस-पास के पेड़ों की पूजा करते हैं और जब हमारी शादी होती है, तो हमारे समारोह पेड़ों के नीचे और आसपास आयोजित किए जाते हैं। हम हर दिन पेड़ों से प्रार्थना करते हैं ताकि हमारी नदियाँ भरने के लिए बारिश हो और सभी पौधों और जानवरों को पोषण मिले।”12 आदिवासियों को इस बिल से अपने जंगल और भी खतरे में प्रतीत हो रहे हैं। विकास कार्यों के निमित्त वन क्षेत्र के विलोपन के प्रति आदिवासी कविता में भी विशेष चिंता देखने को मिलती है। उन्हें विश्वास है कि मानव जाति का संपूर्ण अस्तित्व जब मिट जाने के कगार पर होगा, ये जंगल ही उनके आदिवासीपन को बचाएँगे, इसलिए कवि तय करता है कि–
जंगल के हरेपन को
बचाने की खातिर
जंगल का कवि
मांदर बजाएगा
बांसुरी बजाएगा
चढ़ा कर प्रत्यंचा पर कलम।13
वन क्षेत्र जल स्तर को बनाए रखने के भी बड़े कारक हैं। जहाँ ख़ूब घने वन होंगे, वहाँ धरती में नमी ज्यादा होगी और पेयजल के स्रोत भी बने रहेंगे। इसलिए पनबिजली उत्पादन की दृष्टि से भी ये आदिवासी क्षेत्र व्यापारियों की नज़र में हैं। इनके साथ-साथ अन्य विकासात्मक गतिविधियों के लिए आदिवासी क्षेत्रों में वनों का अत्यधिक कटान किया जा रहा है। कटते जंगलों को बचाने के लिए यह प्रकृति प्रेमी और प्रकृतिपूजक समुदाय निरंतर संघर्ष कर रहा है। शांत घाटी बचाओ अभियान, कैगा अभियान, हसदेव अरण्य संघर्ष इसके कुछ उदाहरण हैं। विकास कार्यों के कारण न केवल इनकी जमीनें, घर और आजीविका नष्ट हुई हैं, बल्कि इनकी आस्था के प्रतीक, पवित्र स्थल भी नष्ट हुए हैं। छत्तीसगढ़ में हसदेव अरण्य में कोयला खदान का विरोध करते हुए स्थानीय निवासी जयनंदन पोर्ते बताते हैं– “हमें अपने अनुष्ठानों को संपन्न करने के लिए जिन चीजों की आवश्यकता होती है, वे केवल जंगल में ही उपलब्ध होती हैं। यदि खदानें खोली गईं तो जंगल नष्ट हो जाएँगे और हमारी संस्कृति लुप्त हो जाएगी।”14
वैश्वीकरण और बाज़ारवाद आदिवासियों के पहाड़ों में भी सेंधमारी कर रहा है। कच्चे माल के लिए बाज़ार ने आदिवासी क्षेत्रों की प्राकृतिक संपदा को निशाना बनाया। वंदना टेटे लिखती हैं– “स्थानीय नियंत्रणों (आर्थिक नीतियों) के हटते ही बेलगाम बाज़ार पहले से कहीं ज्यादा खूंखार हो गया। बाज़ार की जरूरतों के सारे कच्चे संसाधन उन प्राकृतिक क्षेत्रों में ही हैं, जहाँ आदिवासी रहते हैं। नतीज़न आज आदिवासी आर्थिक भूमंडलीकरण,
सांस्कृतिक
भूमंडलीकरण, राजनीतिक भूमंडलीकरण, धार्मिक भूमंडलीकरण, नस्लीय व लैंगिक भूमंडलीकरण और भाषाई भूमंडलीकरण की चपेट में हैं।”15
उड़ीसा,
छत्तीसगढ़
और
झारखण्ड
में
देश
के
कोयला
भंडार
का
70 प्रतिशत
हिस्सा,
लौह
अयस्क
का
80%, बाक्साइट का 60% तथा क्रोमाईट का लगभग 100% हिस्सा इन्हीं तीन राज्यों में है।16 इसलिए नब्बे के दशक में भारत में आरंभ हुए वैश्वीकरण ने झारखण्ड में खनन उद्योग को बढ़ावा दिया। इन पहाड़ों में मौजूद खनिज पदार्थों की ओर बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ लपलपाती हुई पहुँचने लगीं। अब इन पहाड़ों के वे रहवासी, जो पहाड़ की नाड़ी छूकर इनका ताप बताते हैं,
सूँघकर
किसी
जंगल
की
गंध
बताते
हैं,
इनके
चेहरे
का
रंग
बताते
हैं, इनके सीने में दबे कंद-मूल की प्रजातियाँ पहचानते हैं, वे इन पहाड़ों को धराशाई होते देख केवल दु:खी हो सकते हैं जबकि पहाड़ों को तोड़ने का पट्टा लिए हुए व्यापारी बेहद खुश हैं। इन छीजते जंगलों,
मिटती
वनस्पतियों, खंखुरते खनिजों, ट्रकों पर लाद कर शहर की ओर ले जाये जाते पहाड़ों के लिए ये आदिवासी चिंतित हैं जिसका चित्रण आदिवासी कविता में देखा जा सकता है। जसिंता केरकेट्टा ‘पहाड़ों के लिए’ कविता में व्यंग्य करती हुई कहती हैं–
थोड़े से पैसे के लिए
जो अपना ईमान बेचते हैं
वे क्या समझेंगे
पहाड़ों के लिए कुछ लोग
क्यों अपनी जान देते हैं17
इतिहास गवाह है कि दुनिया की तमाम बड़ी सभ्यताओं का विकास नदियों के आसपास हुआ है। यही नहीं, गाँव-देहात में मनुष्य घरों का निर्माण किसी नदी, नाले, झरने या अन्य जलस्रोत के समीपवर्ती ही करता है। देश के विकास में नदियाँ जीवन-धाराएँ कहलाती हैं लेकिन आज के अनियंत्रित विकास और औद्योगीकरण के दौर में नदी को भी संसाधन के रूप में देखा जा रहा है। आज हमारे देश की 70% से ज्यादा नदियाँ प्रदूषित हैं और अपने अस्तित्व के लिए जूझ रही हैं। राष्ट्रीय पर्यावरण शोध संस्थान नागपुर के अनुसार गंगा, यमुना, नर्मदा,
गोदावरी
और
कावेरी
सहित
देश
की
14 प्रमुख
नदियों
में
देश
का
कुल
85% जल
प्रवाहित
होता
है।
ये
सभी
नदियाँ
इतनी
प्रदूषित
हो
चुकी
हैं
कि
देश
की
66% बीमारियों
का
कारण
बन
रही
हैं।
कृत्रिम
बाँध
बनाना,
धाराओं
को
जबरदस्ती
मोड़ना,
नदियों
से
मशीनों
द्वारा
बालू
निकालना,
नदियों
के
किनारे
अवैध
निर्माण
कार्य
करना
और
विभिन्न
प्रकार
के
कचरों
को
नदियों
में
यूँ
ही
बहा
देना,
कुछ
ऐसे
असंवेदनशील
क़दम
हैं
जिनसे
कमोबेश
सभी
नदियाँ
संकट
से
घिर
रही
हैं।18 व्यापारिक लोभवश नदियों के किनारे किये गए अवैध भवन निर्माण का भयंकर दुष्परिणाम हिमाचल प्रदेश के जिला कुल्लू की व्यास नदी में आई बाढ़ के रूप में वर्ष 2023 में हमने खुली आँखों से देखा है। अपनी प्राणशक्ति के उद्गम अर्थात नदियों के महत्त्व को पहचानते हुए भी उसे नष्ट करने पर तुले प्रकृतिखोर मनुष्य को चेतावनी देती हुई जसिंता केरकेट्टा लिखती हैं–
एक दिन जब सारी नदियाँ
मर जाएँगी ऑक्सीजन की कमी से
तब मरी हुई नदियों में तैरती मिलेंगी
सभ्यताओं की लाशें भी
नदियाँ ही जानती हैं
उनके मरने के बाद आती है
सभ्यताओं के मरने की बारी19
असंतुलित विकासात्मक गतिविधियों का मानव जीवन पर सीधा और प्रतिकूल असर होता है। विस्थापन का दंश उसके लिए किसी नासूर से कम पीड़ादायक नहीं होता। विकास कार्यों के परिणामस्वरूप विस्थापित होने वालों की कुल संख्या में सर्वाधिक संख्या आदिवासी लोगों की है। लगभग 40%
आदिवासी
विकास
कार्यों
के
कारण
विस्थापन
का
दंश
झेल
रहे
हैं।20 विस्थापन के कारण इन्हें अपना घर, गाँव, संस्कृति को छोड़ रोजी-रोटी कमाने के लिए शहरों की ओर पलायन करना पड़ रहा है। वहाँ उनका अपना कोई स्थाई घर नहीं रह जाता, बस गाड़ी के पहिये ही उनका पता बताते हैं। इस संदर्भ में ‘गाँव का पता’ कविता में जसिंता केरकेट्टा लिखती हैं–
मैं पूछती हूँ बच्चे से उसके गाँव का पता
वह अपना सिर हिलाता है
और कोई ट्रक दिखलाता है
किसी भी ट्रक से पूछ लो न दई, कहता है
कोयला, लोहा, बाक्साइट के साथ
कई गाँवों को लादकर वह ट्रक
जो रोज शहर की ओर जाता है
अब सिर्फ वही मेरे गाँव का
असली पता बताता है21
बहुराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा आदिवासी क्षेत्रों में किये जा रहे अतिक्रमण के कारण आदिवासियों को अपने जल, जंगल, जमीन से बेदखल होना पड़ रहा है। जो कभी जमीन के मालिक हुआ करते थे, आज मजदूर बने फिर रहे हैं। अनुज लुगुन ‘अघोषित उलगुलान’ कविता में लिखते हैं–
वे जो शिकार खेला करते थे निश्चिंत
ज़हर-बुझे तीर से
या खेलते थे
रक्त-रंजित होली
अपने स्वत्व की आँच से
खेलते हैं शहर के
कंक्रीटीय जंगल में
जीवन बचाने का खेल22
बाज़ारवाद ने मनुष्य को मुनाफ़ाखोर बनाया है जिसके कारण कई स्तरों पर आदिवासियों का पलायन हो रहा है। रमणिका गुप्ता कहती हैं– “भारत में आदिवासी जन समूहों का विस्थापन व पलायन तो सदियों पहले से ही जारी है, परंतु इधर विकास के नाम पर बरती गयी नीतियों के कारण वे केवल अपनी जमीनों, जंगलों, संसाधनों व गाँव से ही बेदखल नहीं हुए बल्कि उनके मूल्यों, नैतिक अवधारणाओं, जीवन शैलियों, भाषाओं और संस्कृति से भी उनके विस्थापन की प्रक्रिया तेज हो गयी।”23
भाषा
आदिवासी
समुदाय
की
पहचान
का
महत्त्वपूर्ण बिंदु है लेकिन विभिन्न कारणों से आदिवासी क्षेत्रों में बाहरी लोगों के प्रवेश तथा रोज़गार इत्यादि के लिए आदिवासियों का अपने मूल स्थान से विस्थापन उनकी भाषा की मौलिकता के लिए गंभीर चुनौतियाँ प्रस्तुत करता है। भाषा का सीधा संबंध संस्कृति से होता है इसलिए भाषा के मूल स्वरूप का बिगड़ना संस्कृति की मौलिकता के लिए भी अलंघ्य चुनौती है। यूनेस्को की रिपोर्ट एटलस ऑफ़ वर्ल्डस लार्जेस्ट लैंग्वेज इन डेंजर 2009 में कहा गया है कि जिन देशों की भाषाएँ खतरे में हैं, उन में भारत शीर्ष पर है। यहाँ 196 भाषाएँ मिटने की कगार पर हैं। जो भाषाएँ कमजोर वर्गों के समुदायों की हैं, वे नष्ट हो रही हैं क्योंकि उनमें रोज़गार की कोई गारंटी न होने के कारण उस समुदाय के लोग भी भाषाई पलायन करके उस भाषा का दामन थाम रहे हैं जिनमें रोज़गार की सुरक्षा मिलती है। भारत की भाषाओं में सबसे ज्यादा विलुप्त होने वाली आदिवासी भाषाएँ हैं। झारखण्ड की 8 भाषाएँ कुडख, मुंडारी, खड़िया, असुरी,
भूमिज, बिरहोरी आदि आदिवासी मातृभाषाएँ विलुप्त होने की कगार पर हैं।24 यदि इन भाषाओं के संरक्षण के लिए शीघ्र कोई ठोस प्रयास न हुए, तो इनसे जुड़े समुदायों की प्राचीन मौखिक, लिखित संस्कृति और ज्ञान परंपरा भी विल्पुत हो जाएगी। रोज़गार के अवसर न मिलने के कारण विलुप्त होती भषाओं पर चिंता प्रकट करती जसिंता केरकेट्टा लिखती हैं–
मातृभाषा खुद नहीं मरी थी
उसे मारा गया था
पर, माँ यह कभी न जान सकी।
रोटियों के सपने
दिखाने वाली संभावनाओं के आगे
भींच लिए थे अपने दाँत
और उन निवालों के सपनों के नीचे
दब गई थी मातृभाषा25
प्राचीन कलाएँ और धरोहरें किसी भी क्षेत्र, राज्य अथवा देश की अस्मिता से सीधे सम्बद्ध हैं और पर्यटकों को लुभाने वाले बड़े कारक हैं। बाज़ारवाद के प्रभाव से आदिवासी क्षेत्रों में मौजूद ये धरोहरें भी अछूती नहीं रही हैं। बहुराष्ट्रीय कंपनियों के आगमन से आदिवासियों के लघु और कुटीर उद्योगों पर प्रभाव पड़ा है। रोज़गार के लिए कृषि या अन्य लघु एवं कुटीर उद्योगों पर निर्भर रहने वाले आदिवासियों के जीवन में सिक्कों के साथ सपने लेकर आये इस बाज़ार ने उनसे उनकी कलाएँ ही छीन लीं। ‘बाज़ार,
अनाज
और
आदमी’ कविता में जसिंता केरकेट्टा लिखती हैं–
नहीं आता अब हमें
अपने बच्चे की कमीज़ में बटन टाँकना
चटाई बढ़नी मचिया खटिया बनाना
पेड़ लगाना अनाज उगाना
चिड़ियों के लिए खेत में धान छोड़ आना
ज़िन्दगी जोत दी गई है सिक्के उगाने में
और इस बेबसी पर हँसते हुए
कोई बड़ा बाज़ार लगा है
हर मोड़ पर नया मॉल बनाने में26
हस्तशिल्प
उद्योगों
पर
खतरा
मंडराने
के
कारण
इसका
प्रभाव
आदिवासी
समाज
में
सबसे
ज्यादा
आदिवासी
स्त्रियों
पर
पड़ा
है
क्योंकि
आजीविका
कमाने
का
ये
एकमात्र
सहारा
भी
बाज़ार
ने
इनसे
छीन
लिया
है।
अब
इनके
पास
मेहनत
मजदूरी
के
आलावा
कोई
और
रास्ता
नहीं
बचा।
बाज़ारवाद ने आदिवासियों की दैनंदिन की जीवन शैली में ऐसे सीधे हस्तक्षेप किया है कि न चाह कर भी वे उससे पीछा नहीं छुड़ा पा रहे हैं। निर्मला पुतुल लिखती हैं–
जो हमारे भीतर
जल-जंगल-ज़मीन बचाने का जज़्बा देखते हैं
झारखण्डी
अस्मिता
और
देशज
संस्कृति
तलाशते
हैं
उन्हीं
की
संगति
ने
हमारी
भाषा
बिगाड़
दी
और
प्यास
बुझाने
के
लिए
पेप्सी
और
स्प्राइट
का
चस्का
लगा
दिया।27
आदिम संस्कृति आदिवासियत का एक बड़ा घटक है। मुख्यधारा से अलग आदिवासी संस्कृति प्रकृति के साथ सामंजस्यपूर्ण संबंध बनाए हुए, सामूहिकता की शक्ति को समेटे हुए, अपनी जीवन शैली और सांस्कृतिक विविधता में विशिष्ट और समृद्ध है। जिस प्रकृति में मनुष्य जन्म लेता, पलता-बढ़ता और अंततः विलीन हो जाता है, आदिवासियों के लिए वह प्राणशक्ति है इसलिए उनकी संस्कृति में प्रकृति को सर्वोच्च स्थान प्राप्त है। उनके यहाँ प्रकृति की हर रचना के लिए सम्मान का भाव है। पेड़-पौधे, पशु-पक्षी, यहाँ तक कि मुरझाए फूलों और पत्तियों के लिए भी इनकी संस्कृति में संवेदना और रक्षा का भाव है। अपने सांस्कृतिक प्रतीक वे इसी प्रकृति से ग्रहण करते हैं। “एक पराजित समूह होते हुए भी आदिवासियों ने अपनी संस्कृति, भाषा अपने जीने की सामूहिक शैली, परंपराओं और रीति-रिवाजों की विरासत को जिंदा रखा है। सारी प्रकृति उनकी सहचर है। उनका बोंगा (देवता) उनका पूर्वज ही होता है, पेड़ों या चट्टानों तक ही सीमित है। उनके बोंगा के लिए मंदिर नहीं होता।”28
वास्तव
में
ये
लोग
इतना
ही
चाहते
हैं
कि
उनका
संबंध
एक
ऐसे
घर
से
बना
रहे,
जहाँ
खुला
सा
आँगन
हो,
मुर्ग़े
की
बाँग
पर
सुबह
होती
हो
और
पिछवाड़े
से
जहाँ
पहाड़ी
पर
डूबता
सूरज
दिखे
लेकिन
बाज़ारवादी
संस्कृति
के
प्रभाव
से
जब
प्रकृति
ही
खतरे
में
हो,
तो
इनकी
संस्कृति
के
प्रतीक
भी
कैसे
सुरक्षित
रह
पाएँगे।
‘संथाल
परगना’
कविता
में
निर्मला
पुतुल
लिखती
हैं–
बाज़ार की तरफ़ भागते
सब कुछ गड्डमड्ड हो गया है इन दिनों यहाँ
उखड़ गए हैं बड़े-बड़े पुराने पेड़
कंक्रीट के पसरते जंगल में
खो गई है इसकी पहचान
कायापलट हो रही है इसकी
तीर-धनुष-माँदल-नगाड़ा-बाँसुरी
सब बटोर लिए जा रहे हैं लोक-संग्रहालय
समय की मुर्दागाड़ी में लाद कर29
आदिवासी समाज में स्त्री जीवन के लिए पर्याप्त संभावनाएँ मौजूद हैं। उन्हें अपनी इच्छानुरूप जीवन जीने का अधिकार है जिसका एक बड़ा कारण उनका हर कार्य में पुरुष के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चलना है। पूर्वोत्तर में यदि ‘मातृसत्तात्मक समाज’
है
तो
आदिवासियों
में
स्त्री
‘सूर्य’ की प्रतीक मानी गयी है। प्रकृति के सूर्य जैसे शक्तिशाली प्रतिमान को स्त्री मानना आदिवासी समाज की एक मुकम्मल सोच को प्रतिपादित करता है। इसमें पुरुष की ‘हेजेमनी’
नहीं
है।30 पिछले कुछ समय से बाहरी लोगों के आदिवासी क्षेत्रों में प्रवेश के कारण आदिवासी स्त्रियों का जीवन अप्रत्याशित चुनैतियों से भर गया है। स्त्री के प्रति वस्तुवादी दृष्टिकोण आदिवासी जीवन में प्रवेश कर गया है जिसका सामना आदिवासी स्त्रियाँ कर रही हैं। उन्हें भी अब बाज़ार के उत्पाद की तरह देखा जा रहा है इसलिए पुरुष सत्तात्मक समाज से निर्मला पुतुल का यह प्रश्न प्रासंगिक है–
तन के भूगोल से परे
एक स्त्री के
मन की गाँठें खोल कर
कभी पढ़ा है तुमने
उसके भीतर का खौलता इतिहास?
× × ×
अगर नहीं !
तो फिर जानते क्या हो तुम
रसोई और बिस्तर के गणित से परे
एक स्त्री के बारे में...?31
आदिवासियों में साक्षरता दर प्राय: कम होती है तथा स्त्री साक्षरता दर तो और भी कम। उनके इसी पिछड़ेपन का फायदा उठाकर चंद सिक्कों की एवज में उनका शोषण किया जाता है। आज आदिवासी स्त्रियों के श्रम को आउट्सोर्स किया जा रहा है,
परिणामस्वरूप उनके शोषण का दायरा बढ़ गया है। काम पर जाती स्त्री को मालिक कम वेतन देने के साथ उसका दैहिक शोषण भी करता है। जल, जंगल और जमीन तो बाहरी लोगों से आक्रांत हैं लेकिन आदिवासी स्त्री घर के अंदर और बाहर, दोनों जगह शोषित हो रही है।32 आदिवासी स्त्रियों की इस व्यथा को दर्शाते हुए निर्मला पुतुल ‘चुड़का सोरेन से’ कविता में लिखती हैं–
कैसा बिकाऊ है तुम्हारी बस्ती का प्रधान
जो सिर्फ एक बोतल विदेशी दारू में रख देता है
पूरे गाँव को गिरवी
और ले जाता है कोई लकड़ियों के गट्ठर की तरह
लादकर अपनी गाड़ियों में तुम्हारी बेटियों को
हज़ार-पाँच-सौ हथेलियों पर रखकर33
जो लोग बाहरी हैं, वे तो आये ही उपभोग करने हैं लेकिन स्त्री को आश्चर्य तो अपने समाज पर होता है जो स्वयं स्त्री को इस दोज़ख में धकेलने में बराबर भागीदार है। इसलिए बड़े अधिकार से वह पूछती है–
क्या हूँ मैं तुम्हारे लिए...?
एक तकिया
कि कहीं से थका-मांदा आया
और सिर टिका दिया34
जन्म से ही प्रकृति के सान्निध्य में रहने वाले आदिवासी बखूबी जानते हैं कि ये खनन,
उद्योग, बड़े-बड़े बाँधों का निर्माण,
नगरीकरण
इत्यादि
प्रकृति
और
जैव
विविधता
के
लिए
बड़ा
खतरा
है।
इसलिए
समय-समय पर इन लोगों ने संगठित विद्रोह भी किये और यहीं से इनका नेतृत्व भी उभरा। अपनी संपदा और अस्मिता बचाने के लिए सिदो, कान्हू, चाँद, भैरों, बिरसा मुंडा जैसे न जाने कितने महापुरुषों के नेतृत्व में आदिवासियों ने पहले अंग्रेजों से संघर्ष किया और स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद उच्च वर्ग केंद्रित सरकारी नीतियों,
पूंजीपतियों
के
मंसूबों
और
मुख्यधारा
से
मिली
उपेक्षा
से।
आदिवासियों
को
प्रायः
विकास-विरोधी समझा जाता है, परंतु ध्यान रहे कि आदिवासी को भी विकास चाहिए, लेकिन उसकी अपनी जरूरत के हिसाब से। वह विकास के आदमखोर, धरतीखोर, मुनाफाखोर चरित्र का विरोधी है।35
देश के विभिन्न क्षेत्रों में रहने वाले आदिवासियों की जीवनशैली भिन्न-भिन्न हो सकती है, उनकी समस्याएँ कमोबेश एक जैसी हैं। विकास के नाम पर हमेशा उन्हें अपने जल, जंगल, जमीन से विस्थापित होना पड़ा है, अपने ही देश में उपेक्षित और शोषित होना पड़ा है। रमणिका गुप्ता इसी ओर संकेत करते हुए लिखती हैं– “आज आदिवासी शब्द के उच्चारण से ही हमारे सम्मुख खड़ा हो जाता है- सदियों से शोषित, विस्थापित किया गया,
एक
असंगठित
जनजातियों
वाला
मानव।
वह
मनुष्य
जो
अपनी
स्वतंत्र
परंपरा
सहित,
सहस्त्र
सालों
से
गाँवों-देहातों से दूर घने जंगलों में रहनेवाला संदर्भहीन मनुष्य है। जो एक विशेष पर्यावरण में अपने सामाजिक तथा सांस्कृतिक मूल्यों को जान की कीमत पर संजोये, प्रकृतिनिष्ठ, प्रकृति निर्भर, कमर पर बित्तेभर चिंदी लपेटे,
पीठ
पर
आयुध
लेकर
लक्ष्य
की
खोज
में
शिकारी
बना
मारा-मारा भटक रहा है। कभी राजनीतिक तथा सांस्कृतिक वैभव से इतराने वाला यह कर्त्तव्यशील मनुष्य, परन्तु वर्तमान में लाचार,
अन्यायग्रस्त तथा पशुवत जीवनयापन करने वाला मनुष्य! यही उनका कुल जीवन है,
वेदना
से
भरा
लोकाचार
है।”36
निष्कर्ष : बाज़ार अपने चरित्र के अनुरूप उपभोक्तावादी मनुष्य को सुखी जीवन के दिवास्वप्न दिखाता है और मनुष्य भी उसके मोहपाश में इस तरह गिरफ़्तार है कि उसके हाथों कठपुतली बन कर अपनी जड़ों को ही खोदने लगा है। भारत में आर्थिक उदारीकरण के साथ ही बड़ी-बड़ी बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ पूँजीपतियों और सत्ता के माध्यम से इस देश के आदिवासी क्षेत्रों में छिपी संपदा पर अपनी प्रकृतिखोर दृष्टि गड़ाए हुए हैं। इन क्षेत्रों में की जा रही खनन-उत्खनन तथा ऐसी ही अवैज्ञानिक एवं अनियंत्रित गतिविधियों के दुष्परिणाम भी सामने आने लगे हैं। समय-समय पर इन गतिविधियों का प्रतिकार भी हुआ है लेकिन धनबल के समक्ष ये प्रकृतिपूजक आखिर कब तक अकेले लड़ पाएँगे। इसलिए, हिंदी की आदिवासी कविता ने प्रकृति को बचाने की इस मुहिम में पूरी निष्ठा और ईमानदारी से प्रतिरोध दर्ज़ कर आदिवासी समाज को बड़ा संबल प्रदान किया है। कलम की ताक़त गहरी मार करती है और उसके परिणाम दूरगामी होते हैं। आदिवासी कविता ने जहाँ एक ओर आदिवासी समाज के ज़मीर को जगाया है तो दूसरी ओर नीति-निर्माताओं को भी सोचने पर मजबूर किया है। तात्कालिक परिणाम यह हुआ है कि बहुत से पर्यावरणप्रेमी इस मुद्दे पर मुखर होने लगे हैं और नीति निर्माण में प्रभावी हस्तक्षेप कर रहे हैं। उम्मीद है कि यह कविता और मुखर एवं प्रखर प्रतिरोधी स्वर के साथ अपनी भूमिका इसी तरह निभाती रहेगी और ईश्वर तुल्य इस प्रकृति को बचाने में अपने हिस्से का अर्घ्य अर्पित करती रहेगी।
1. प्रफुल्ल कोलख्यान, बाज़ारवाद और जनतंत्र, आनंद प्रकाशन, कोलकाता, 2006, पृष्ठ 22
2. डॉ. हरदेव बाहरी, राजपाल हिंदी शब्दकोश, राजपाल एंड सन्ज़, दिल्ली, पृष्ठ 83
3. डॉ. हरदेव बाहरी, बृहद अंग्रेज़ी-हिंदी कोश, ज्ञानमण्डल लिमिटेड, वाराणसी, 1969, पृष्ठ 6
4. Report of the High Level Committee on Socioeconomic, Health and Educational Status of Tribal Communities of India, Ministry of Tribal Affairs, Government of India, May 2014, p 34
6. महादेव टोप्पो, ‘मैं पूछता हूँ’, रमणिका गुप्ता(सं.), आदिवासी स्वर और नयी शताब्दी, वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली, 2017, पृष्ठ 49
7. हरिराम मीणा, आदिवासी दुनिया, नेशनल बुक ट्रस्ट, नयी दिल्ली, 2013, पृष्ठ 67
8. https://saathijohaar.com/2019/03/12/1.html
9. महादेव टोप्पो, ‘समझदार तितलियाँ’, रमणिका गुप्ता(सं.), आदिवासी स्वर और नयी शताब्दी, वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली, 2017, पृष्ठ 49
10. विस्थापन के सबसे ज्यादा शिकार हैं आदिवासी : मंत्रालय की रिपोर्ट https://www.im4change.org/hindi/news-alerts-57/
11. https://www.hindwi.org/kavita/parwah-jacinta-kerketta-kavita
12.https://www-survivalinternational-org.translate.goog/campaigns/adivasisagainstcoal?_x_tr_sl=en&_x_tr_tl=hi&_x_tr_hl=hi&_x_tr_pto=tc
13. महादेव टोप्पो, ‘जंगल का कवि’, रमणिका गुप्ता(सं.), आदिवासी स्वर और नयी शताब्दी, वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली, 2017, पृष्ठ 48
14.https://www-survivalinternational-org.translate.goog/campaigns/adivasisagainstcoal?_x_tr_sl=en&_x_tr_tl=hi&_x_tr_hl=hi&_x_tr_pto=tc
15. वंदना टेटे, वाचिकता : आदिवासी दर्शन, साहित्य और सौंदर्यबोध, राधाकृष्ण प्रकाशन, नयी दिल्ली, पृष्ठ 128
16. विस्थापन के सबसे ज्यादा शिकार हैं आदिवासी : मंत्रालय की रिपोर्ट https://www.im4change.org/hindi/news-alerts-57/
17. जसिंता केरकेट्टा, ईश्वर और बाज़ार, राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली, 2023, पृष्ठ 181
18. राहुल कुमार, संकट में नदियाँ https://www.drishtiias.com/hindi/blog/rivers-in-trouble
19. जसिंता केरकेट्टा, ईश्वर और बाज़ार, राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली, 2023, पृष्ठ 36
20 Report of the High Level Committee on Socioeconomic, Health and Educational Status of Tribal Communities of India, Ministry of Tribal Affairs, Government of India, May 2014, p 298
21. जसिंता केरकेट्टा, ईश्वर और बाज़ार, राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली, 2023, पृष्ठ 187
22. https://www.hindwi.org/kavita/aghoshait-ulagulan-anuj-lugun-kavita-1
23. रमणिका गुप्ता, आदिवासी विकास से विस्थापन, राधाकृष्ण प्रकाशन, नयी दिल्ली, 2014, पृष्ठ 7
24. https://www.deshbandhu.co.in/parishist/lite/languages-of-adivasis-india-56960-2
25. https://www.hindwi.org/kavita/matribhasha-ki-maut-jacinta-kerketta-kavita
26. जसिंता केरकेट्टा, ईश्वर और बाज़ार, राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली, 2023, पृष्ठ 88
27. निर्मला पुतुल, जब टेबुल पर गुलदस्ते की जगह बेसलरी की बोतलें सजती हैं, कविताकोश
28. रमणिका गुप्ता, आदिवासी अस्मिता का संकट, सामयिक प्रकाशन, नयी दिल्ली, 2019, पृष्ठ 52
29. https://www.hindwi.org/kavita/tribal/santhal-paragna-nirmala-putul-kavita?sort=
31. निर्मला पुतुल, नगाड़े की तरह बजते हैं शब्द, भारतीय ज्ञानपीठ, नयी दिल्ली, 2012, पृष्ठ 8
32. संजय जायसवाल, समकालीन हिंदी आदिवासी कविता में सामाजिक चेतना, आनंद प्रकाशन, कोलकाता, 2017, पृष्ठ 123
33. निर्मला पुतुल, नगाड़े की तरह बजते हैं शब्द, भारतीय ज्ञानपीठ, नयी दिल्ली, 2012, पृष्ठ 20
34. निर्मला पुतुल, क्या हूँ मैं तुम्हारे लिए, कविताकोश
35. https://www.forwardpress.in/2020/12/tribal-literature-interview-mahadev-toppo-hindi/
36. रमणिका गुप्ता, आदिवासी कौन, राधाकृष्ण प्रकाशन, नयी दिल्ली, 2017, पृष्ठ 26
मनीषा कुमारी
शोधार्थी, हिंदी विभाग, हिमाचल प्रदेश विश्वविद्यालय, शिमला-171005
7018202189 manishathakur0023@gmail.com
वीरेंद्र सिंह
सहायक आचार्य हिमाचल प्रदेश विश्वविद्यालय, सांध्यकालीन अध्ययन विभाग, द मॉल शिमला-171001
8580758307 virender1singh0123@gmail.com
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