- योगेश कुमार एवं डॉ. कमलेश कुमारी
बीज
शब्द : मानव जीवन, प्रगतिशील कविता, शोषित, सहानुभूति, समष्टि, बिम्ब, सत्य, यथार्थ, प्रकृति, साम्यवाद, संवेदना।
मूल
आलेख : शमशेर की
कविताएँ
नई
कविता
की
पृष्ठभूमि
तैयार
करके
उसे
गति
प्रदान
करती
हैं।
इनकी
कविताओं
के
माध्यम
से
हम
नई
कविता
को
संश्लेषित
कर
सकते
हैं।
सत्य
के
प्रति
आग्रह, सामाजिक
चेतना, मार्क्सवादी
रुझान
आदि
प्रवृत्तियां
हमें
नई
कविता
में
देखने
को
मिलती
हैं।
शमशेर
बहादुर
सिंह
की
कविताओं
में
जितनी
गहराई
है,
उतनी
ही
उन्मुक्तता, व्यापकता और फैलाव भी
है।
कवि
का
सजग
मानस
उनकी
कविताओं
को
एक
नई
ऊंचाई
प्रदान
करते
हैं।
शब्दों
के
बीच
का
ठहराव
पाठक
को
अपने
साथ
बहा
ले
चलता
है।
कवि
अपनी
कविताओं
में
कोमलता
और
कठोरता, विचारों में
स्थिरता
व
गतिशीलता, ऐन्द्रिकता और
भावोच्छवास
के
मध्य
समुचित
सामंजस्य
बिठाने
में
कुशल
है।
प्रेम
के
विभिन्न
रंग
उनकी
कविताओं
में
फैले
हुए
हैं।
शमशेर
की
कविताओं
में
जनवादी-दृष्टि
स्पष्ट
परिलक्षित
होती
है।
ये
समाज
के
यथार्थ
की
कलई
खोलने
वाली
कविताओं
की
तरफदारी
करते
हुए
लिखते
हैं, ‘‘बात बोलेगी/हम
नहीं/भेद
खोलेगी/बात
ही।/सत्य
का
मुख/झूठ
की
आंखे/क्या
देखें! सत्य
का
रुख़/समय
का
रुख़
है:/अभय
जनता
को/सत्य
ही
सुख
है,/सत्य
ही
सुख’’[1]
यहां
तक
कि
रामस्वरूप
चतुर्वेदी
ने
तो
इनकी
कविता
‘बात
बोलेगी
हम
नहीं’ को नई
कविता
का
घोषणा
पत्र
तक
कह
दिया।
‘‘नई
कविता
के
अप्रतिहत
प्रवक्ता
रामस्वरूप
चतुर्वेदी
ने
शमशेर
की
याद
में
आयोजित
एक
सभा
में
कहा
था
कि
शमशेर
की
पंक्ति
‘बात
बोलेगी
हम
नहीं’ नई कविता
का
घोषणा
पत्र
बन
गई
थी।’’[2]
शमशेर
की
कविताओं
में
स्वर, लय, ताल के
साथ-साथ
अलंकारों
का
भी
स्वाभाविक
प्रयोग
दिखलायी
पड़ता
है।
इनकी
कविताओं
में
दैनंदिन
की
छोटी-बड़ी
घटनाएं
जो
आमजन
को
प्रभावित
करती
हैं, उन्हें अपनी
कविता
का
विषय
बनाया।
प्रयोगवादी
कवियों
में
से
अधिकतर
कवि
नई
कविता
में
प्रवृत्त
हुए।
नई
कविता
में
अन्तर्वस्तु
की
अभिव्यक्ति
सरल
व
सहज
रूप
में
होती
है।
स्वतंत्रता
के
बाद
की
यह
कविता
नवभारत
के
समाज
को
नया
रूप
देने
की
ओर
उन्मुख
है। इनकी
कविताओं
में
बिम्ब
स्वाभाविक
रूप
से
आते
हैं।
यह
प्रवृत्ति
हमें
नई
कविता
में
देखने
को
मिलती
है।
शमशेर
की
कविता
‘धूप
कोठरी
के
आइने
में
खड़ी’ में लिखते
हैं, ‘‘धूप कोठरी
के
आइने
में
खड़ी/हंस
रही
है/एक
मधुमक्खी
हिलाकर
फूल
को/बहुत
नन्हा
फूल/उड़
गई/आज
बचपन
का/उदास
मां
का
मुख/याद
आता
है।’’[3]
शमशेर बहादुर
सिंह
ने
जीवन
और
जगत
के
सभी
रूपों
को
अपनी
कविताओं
का
विषय
बनाया
है।
नामवर
सिंह
शमशेर
की
कविता
का
फलक
इतना
विस्तृत
बताते
हैं
कि
उनकी
कविताओं
के
लिए
कोई
भी
विशेषण
उन्हें
छोटा
कर
देता
है।
वे
लिखते
हैं
‘‘इसलिए
शमशेर
के
लिए
इतना
ही
काफी
है
कि
वे
कवि
हैं-
सिर्फ
कवि।
न
‘शुद्ध
कविता’ का कवि, न ‘कवियों का
कवि’, न प्रयोग
का
कवि
और
न
प्रगति
का
ही
कवि।
कुछ
कवि
ऐसे
होते
हैं
जिन्हें
हर
विशेषण
छोटा
कर
देता
है।’’[4]
समाज के
प्रति
साम्यता
का
भाव, वर्ग विहीन
समाज
की
कल्पना, सत्य के
प्रति
शमशेर
की
प्रतिबद्धता
ने
उनका
झुकाव
मार्क्सवाद
की
ओर
कर
दिया।
यह
झुकाव
उनके
जीवन
के
अंतिम
दिनों
तक
यूं
ही
बना
रहा।
शमशेर
का
अपनी
कविता
में
गोर्की
को
होरी
के
आँगन
में
लाकर
खड़ा
कर
देना
एक
परिवर्तन
का
सूचक
है।
अब
शोषित
वर्ग
अपने
साहब
के
प्रति
‘जी
हुजूर’ का
रवैया
न
रखकर
अपना
प्रतिरोध
स्पष्ट
रूप
से
जाहिर
करेगा।
‘अमन
का
राग’ कविता में
वे
लिखते
हैं-‘‘आज मैंने
गोर्की
को
होरी
के
आँगन
में
देखा/और
ताज
के
साए
में
राजर्षि
कुंग
को
पाया/लिंकन
के
हाथ
में
हाथ
दिए
हुए/और
ताल्स्ताय
मेरे
देहाती
यूपियन
होठों
से
बोल
उठा/और
अरागों
की
आँखों
में
नया
इतिहास/मेरे
दिल
की
कहानी
की
सुर्ख़ी
बन
गया।’’[5]
डॉ.
रामविलास
शर्मा
कहते
हैं, ‘‘शमशेर का
आत्मसंघर्ष
उनके
मार्क्सवादी
विवेक
और
इस
उत्तर
छायावादी-
इलियट, एजरा पाउंड
वाले
काव्याबोध
का
संघर्ष
है।’’[6]
प्रगतिशील
कवियों
ने
साम्यवाद
का
नारा
बुलंद
किया,
जिसमें
जनकल्याण
की
भावना
निहित
है।
शमशेर
का
आमजन
के
प्रति
अपने
कवि
कर्तव्य
ने
उन्हें
साम्यवादी
बना
दिया।
उनकी
कविताओं
में
सर्वहारा
की
रोजी-रोटी, हक की
बातें
सामने
आती
हैं।
‘वाम
वाम
वाम
दिशा’ कविता में
शमशेर
भारत
में
साम्यवाद
की
बात
करते
हैं, ‘‘भारत का/भूत-वर्तमान
और
भविष्य
का
वितान
लिए/काल-मान-विज्ञ
मार्क्स-मान
में
तुला
हुआ/वाम
वाम
वाम
दिशा,/समयः
साम्यवादी/अंग-अंग
एकनिष्ठ/ध्येय-धीर/सेनानी/वीर
युवक/अति
बलिष्ठ/वामपंथगामी
वह॰॰॰/समय:साम्यवादी।’’[7] सभी
धर्म, सम्प्रदायों से
ऊपर
उठकर
शमशेर
शांति
को
अपना
धर्म
मानते
हैं।
शमशेर
की
समाज
के
प्रति
अटूट
प्रतिबद्धता
के
संकल्प
ने
उन्हें
जीवन
के
अंतिम
पड़ाव
तक
मार्क्सवाद
से
जोड़े
रखा।
उनकी
कविता
‘वाम
वाम
वाम
दिशा’ में मध्यम
वर्ग
के
प्रति
सहानुभूति
दिखाई
पड़ती
है।
इस
कविता
में
कवि
ने
मुक्तिबोध
की
फैंटेसी
से
भिन्न
स्पप्न
देखा
है।
शमशेर के
यहाँ
मार्क्सवादी
कविताएं
शुरू
से
अंत
तक
रही
हैं।
नामवर
सिंह
लिखते
हैं, ‘‘जिस कवि
ने
अपनी
काव्य-यात्रा
के
प्रथम
चरण
में
‘वाम
वाम
वाम
दिशा/समय
साम्यवादी’ जैसा ओजस्वी
गीत
लिखा, वही पचास
वर्ष
बाद
‘काल, तुझसे होड़
है
मेरी’ शीर्षक कविता
में
सहज
भाव
से
स्वीकार
करता
हैः
क्रान्तियाँ, कम्यून, कम्युनिस्ट समाज
के/नाना
कला
विज्ञान
और
समाज
के/जीवन्त
वैभव
से
समन्वित
व्यक्ति
मैं!’ जाहिर है
कि
मार्क्सवाद
और
कम्युनिज्म
शमशेर
की
कविता
के
हाशिए
पर
न
तब
था, न अब
है।
हमेशा
वह
उस
कवि-व्यक्तित्व
का
अभिन्न
अंग
रहा
है
जो
कविता
का
केन्द्र
है।’’[8]
ये
अवसरवादी
नहीं
थे
वरन्
अपने
विचारों
में
गहरे
और
स्थायी
थे।
शमशेर
के
यहाँ
पाठक
को
रसास्वादन
की
पूरी
छूट
मिलती
है।
शमशेर
स्वयं
को
अपने
अंतिम
दिनों
में
काल
से
होड़
करते
हुए
भी
स्वयं
को
मार्क्सवादी
स्वीकारते
हुए
लिखते
हैं-‘‘जो मैं
हूँ-/मैं
कि
जिसमें
सब
कुछ
है.../क्रांतियाँ, कम्यून,/कम्यूनिस्ट समाज
के/नाना
कला
विज्ञान
और
दर्शन
के/जीवंत
वैभव
से
समन्वित/व्यक्ति
मैं।/मैं, जो वह
हरेक
हूँ/जो, तुझसे, ओ काल, परे है’’[9]
शमशेर रंगों
का
महत्व
प्रकृति
के
साथ-साथ
जीवन
में
भी
बखूबी
समझते
हैं।
इनकी
कविताएं
मधुर
राग
के
साथ
पाठक
के
मन
में
अद्भूत
चित्र
बनाती
प्रतीत
होती
हैं।
इस
प्रकार
संगीतात्मकता
और
चित्रकारिता
मिलकर
शमशेर
की
कविताओं
को
व्यापक
धरातल
प्रदान
करती
हैं।
रामस्वरूप
चतुर्वेदी
लिखते
हैं, ‘‘चित्रकला, संगीत और
कविता
घुल-मिलकर
उनके
यहाँ
रचना
संभव
करते
हैं।
भाषा
में
बोलचाल
के
गद्य
का
लहजा और लय
में
संगीत
का
चरम
अमूर्तन
इन
दो
परस्पर
प्रतिरोधी
मनःस्थितियों
को
उनकी
कला
साधती
है।
यही
कारण
है
कि
जागतिक
संदर्भों
के
कम-से-कम
रहने
पर
भी
शमशेर
में
हमें
एक
संपूर्ण
रचना-संसार
दिखाई
देता
है।’’[10]
इनकी कविताओं
में
प्राकृतिक
बिंब
सहज
ही
प्रतिफलित
हो
जाता
है।
ये
प्रकृति
व
मनुष्य
के
बीच
रागात्मक
समीकरण
खोजने
की
चेष्टा
करते
हैं।
एक
अटके
हुए
पत्ते
और
आँसू
का
संश्लिष्ट
बिंब
दिखलायी
पड़ता
है।
‘एक
पीली
शाम’ कविता में
शमशेर
लिखते
हैं, ‘‘एक पीली
शाम/पतझर
का
जरा
अटका
हुआ
पत्ता/× × ×/अब गिरा
अब
गिरा
वह
अटका
हुआ
आँसू/सांध्य
तारक-सा/अतल
में।’’[11]
नई
कविता
में
प्रकृति
वर्णन
देखने
को
मिलता
है
लेकिन
वह
वर्णन
स्वयं
को
मानव-जीवन
से
अधिक
समय
तक
दूर
नहीं
रख
पाता
है।
शमशेर
मानव
जीवन
और
प्रकृति
के
बीच
सामंजस्य
स्थापित
करने
का
निरंतर
प्रयास
करते
हैं।
इनकी
कविताओं
में
प्रकृति
की
सजीवता
और
सहजता
प्रस्फुटित
हुई
है।
कवि
ने
मानव
मन
के
भावातिरेकों
को
प्रकृति
के
माध्यम
से
कविता
में
उकेरने
का
सफल
प्रयास
किया
है।
इनकी
कविताओं
में
जड़
प्रकृति
में
भी
सचेत
मानव
व्यक्तित्व
की
झलक
जान
पड़ती
है।
ये
चित्रकार
होने
के
नाते
प्रकृति
का
और
भी
अधिक
मनोरम
चित्र
अपनी
कविता
में
प्रस्तुत
कर
पाते
हैं।
शमशेर
के
यहाँ
अधिकतर
प्रकृति
का
शांत
रूप
दिखलायी
पड़ता
है।
विराट
प्रकृति
भी
इनकी
कविताओं
के
साथ
आत्मीय
हो
उठती
है।
रामस्वरूप
चतुर्वेदी
लिखते
हैं, ‘‘पर्वत और
समुद्र
की
विराटता
को
यों
अपने
में
समो
ले
जाना
रचनाकार
से
एक
सहज
आत्मविश्वास
की
अपेक्षा
रखता
है।
वर्षा
का
दृश्य
पीकर
और
बादल
का
हर्ष
हृदय
में
भरकर
हवा
जैसा
हल्का
हो
जाना
कवि
के
प्रकृति-मानव
रूप
को
उद्घाटित
करता
है, जो अपनी
सहजता
में
विराट्
है
और
विराटता
में
सहज।’’[12]
दैनंदिन की
तमाम
छोटी-बड़ी
घटनाओं
को
अपनी
कविताओं
में
समेकित
कर
लेना; शमशेर
‘मूड्स
के
कवि’ हैं किसी
‘विजन
के
नहीं’ मलयज की
पंक्ति
को
चरितार्थ
करती
नजर
आती
है।
शमशेर
की
कविताओं
में
गहरे
उतरते
जाने
का
आशय
उन
कविताओं
में
डूब-सा
जाना
है,
जहाँ
से
बाहर
निकलने
का
रास्ता
नजर
ही
नहीं
आएगा।
किसी
रचना
पर
रचनाकार
का
प्रभाव
स्पष्ट
परिलक्षित
होता
है।
शमशेर
मानते
हैं
कि
रचना
व
रचनाकार
का
संबंध
बदन
और
रूह
के
रूप
में
होता
है।
दोनों
के
अस्तित्व
के
बिना
हम
किसी
एक
पक्ष
पर
स्वतंत्र
रूप
से
बात
सहज
होकर
नहीं
कर
पाते
हैं।
इनकी
वैयक्तिकता
से
सामाजिकता
की
ओर
तथा
प्रगतिशीलता
की
कविता
‘अमन
का
राग’, ‘बैल’ जैसी अनेक
प्रगतिशील
कविता
का
जीवंत
उदाहरण
है।
मानव
जीवन
में
व्याप्त
असमानता
के
प्रति
इनकी
कविताओं
में
आक्रोश
दिखाई
पड़ता
है।
इनकी कविताओं
में
प्रणयानुभूति
के
तत्त्व
भी
अभिव्यक्त
हुए
हैं।
लेकिन
यह
कोरी
व्यक्तिगत
चेतना
लिए
हुए
नहीं; अपितु व्यापक
धरातल
पर
वैचारिक
पक्ष
उभरता
है।
शमशेर
का
प्रेम
लौकिक
न
रहकर
अलौकिकता
में
परिणत
हो
जाता
है।
‘‘प्रेम
का
कँवल
कितना
विशाल
हो
जाता
है/आकाश
जितना/और
केवल
उसी
के
दूसरे
अर्थ/सौंदर्य
हो
जाता
है/मनुष्य
की
आत्मा
में’’[13]
शमशेर अपनी
शब्द
योजना
और
शब्द-खिलवाड़
के
माध्यम
से
संगीत-ध्वनि
उत्पन्न
करनी
की
प्रवृत्ति
में
माहिर
हैं।
शमशेर
कि
संवेदनाएँ
कल्पना
लोक
से
होते
हुए
जन
मानस
के
यथार्थ
से
टकराती
हैं।
शमशेर
की
कविताएँ
आधुनिक
भाव-बोध
लिए
हुए
हैं।
हिंदी
कविता
को
नई
दिशा
देने
का
कार्य
शमशेर
ने
किया
है।
शमशेर
को
यूरोपीय
कविता
ने
कहीं-न-कहीं
प्रभावित
किया
है।
इनकी
कविताओें
में
हमें
अनेक
प्रकार
के
बिम्ब
दिखाई
पड़ते
हैं, जैसे- भावशील
बिम्ब, प्रणयवादी बिम्ब, प्रत्यक्ष बिम्ब
आदि।
इनकी
कविताओं
में
बिम्ब
कृत्रिम
नहीं
लगते
अपितु
वे
कविता
में
सहज
रूप
से
आते
हैं।
शमशेर
की
कविताएँ
बेहद
कसी
हुई
होती
हैं, उनमें पंक्तियों
या
शब्दों
का
प्रयोग
अनायास
ही
नहीं
करते
वरन्
दो
पंक्तियों
या
शब्दों
के
बीच
ठहराव
में
भी
अनेक
अर्थ
छुपे
हुए
होते
हैं।
इस
ठहराव
के
मध्य
अर्थ
छिपाने
की
कला
मे
शमशेर
माहिर
हैं।
इनकी
कविताएं
गहरे
चिंतन
और
यथार्थबोध
लिए
हुए
हैं।
‘प्रेम’ नामक कविता
में
कवि
तमाम
बाधाओें
के
बावजूद
प्रेम
को
ही
अपनी
कविता
का
लक्ष्य
मानता
है।
इनका
प्रेम
केवल
मांसल
व
ऐेन्द्रिय
न
होकर
उदात्त
भाव
बोध
समाए
हुए
हैं।
इनकी
प्रेमानुभूति
में
वैश्विक
जीवन
मूल्य
उभरता
है।
शमशेर
लिखते
हैं, ‘‘चुका भी
हूँ
मैं
नहीं/कहां
किया
मैंने
प्रेम/अभी/जब
करूंगा
प्रेम/पिघल
उठेंगे/युगों
के
भूधर/उफन
उठेंगे/सात
सागर।’’[14] प्रेयसी
उनके
सीने
से
कसकर
भी
आजाद
रह
सकती
है
तो
शमशेर
की
कविताओं
में
प्रेम
में
उन्मुक्तता
को
स्पष्ट
रूप
से
देखा
जा
सकता
है।
मुक्तिबोध
शमशेर
को
‘प्रणय
जीवन
के
प्रसंगबद्ध
रसवादी
कवि’ मानते हैं।
विजयदेव नारायण
साही
मानते
हैं
कि
शमशेर
की
सभी
रचनाएं
यदि
शीर्षकहीन
छाप
दें
या
सभी
का
एक
ही
शीर्षक
‘सौन्दर्य’ तो भी
वह
सही
प्रतीत
होगा।
इनकी
कविताओं
में
हमें
सौन्दर्य
की
सहजानुभूति
मिलती
है।
शमशेर
की
कविताओं
की
तुलना
एजरा
पाउन्ड
से
करते
हुए
डॉ.
रामदरश
मिश्र
लिखते
हैं, ‘‘शमशेर बहुत
सूक्ष्म
सौन्दर्य-बोध
के
कवि
हैं।
इनमें
एजरा
पाउन्ड
की
तकनीकी
सौन्दर्य
की
गहरी
पैठ
है।’’[15]
जब शमशेर
विश्व
के
तमाम
मासूम
बच्चों, बहूओं, बेटियों को
अपने
ही
परिवार
के
सदस्य
मानकर
वैश्विक
सद्भाव
और
सम्मान
करने
की
बात
करते
हैं
तो
वहां
हमें
शमशेर
की
धार्मिक
सांप्रदायिकता, जातिगत मस‘अलों से
दूर
व्यापक
दृष्टि
नजर
आती
है।
ग्वालियर
के
मजदूरों
पर
हुए
गोलीकांड
को
‘ये
शाम
है’ कविता में
कवि
ने
उस
12 जनवरी
1944 की
खूनी
शाम
को
मजदूरों
की
दारुण
कहानी
को
सामने
लाने
का
प्रयास
किया
है।
शमशेर
लिखते
हैं, “य’ शाम
है/कि
आसमान
खेत
है
पके हुए अनाज
का।/लपक
उठीं
लहू-भरी
दराँतियां,/कि
आग
है:/धुआँ-धुआँ/सुलग
रहा/गवालियर
के
मजूर
का
हृदय”[16] ‘अफ्रीका’ कविता में
शमशेर
ने
रंगभेद
की
समस्या
को
सामने
लाया
है।
इस
कविता
में
काले
और
सफेद
पत्थर
के
द्वारा
कवि
ने
इस
समस्या
को
अपनी
इस
प्रतिरोधी
कविता
में
स्पष्ट
रूप
से
सामने
रखा
है।
शमशेर
लिखते
हैं, ‘‘तुम सफेद
हम/काला!/तुम्हें
अब
नाईं/छोड़
सकता!/नाईं
छोड़
सकता!/नेपथ्य
में
ढोल
बजता
है/डमाडम!
डमाडम!
डमाडम!’’[17]
निष्कर्ष:
मनुष्य
व
प्रकृति
के
बीच
के
आत्मीय
संबंधों
की
गहरी
प्रतिच्छाया
हमें
इनके
प्रकृति
चित्रण
में
देखने
को
मिलती
है।
इन्होंने
अपनी
कविताओं
में
प्रकृति
का
सजीव
चित्रण
प्रस्तुत
किया
है।
शमशेर
के
यहाँ
प्रकृति
सौंदर्य
की
नवीन
अभिव्यक्ति
दिखलाई
पड़ती
है।
मृत्युबोध
की
यथार्थपरकता
व
सहज
स्वीकार्यता
इनके
यहाँ
स्पष्ट
नजर
आती
है।
इतिहासबोध
व
सांस्कृतिक
बोध
के
सामंजस्य
के
साथ-साथ
परंपरा
बोध
की
पुनर्व्याख्या
दिखलाई
पड़ती
है।
हिंदी
व
उर्दू
मिश्रित
भाषा
इनकी
कविताओं
में
प्रकट
हुई
है।
कवि
शमशेर
की
कविताओं
के
मूल
में
मानवीय
संवेदना
है।
प्रेम, प्रकृति, सौंदर्य, प्रणय शक्ति, श्रम जैसे
तत्त्वों
से
जुड़ी
हुई
शमशेर
की
कविताएं
तमाम
मानवीय
मूल्यों
पर
खरी
उतरती
हैं।
शिल्प
की
दृष्टि
से
इनकी
कविताएं
समृद्ध
नजर
आती
हैं।
इनकी
‘मैं
भारत
गुण
गौरव
गाता’, ‘भारत की
आरती’ जैसी रचनाएं
देश
प्रेम
से
ओत-प्रोत
हैं।
इनकी
कविताओं
में
शब्द
चयन
अनायास
नहीं
है, अपितु उनमें
एक
प्रकार
की
प्रवाहमयता
देखने
को
मिलती
है।
ये
शब्दों
को
चित्रों
में
पिरोकर
पाठक
के
समक्ष
प्रस्तुत
करते
हैं।
इनकी
कविताएं
स्थूल
दृश्य
नहीं
बनाती
वरन्
सूक्ष्म
बिम्बों
के
माध्यम
से
अपनी
आत्माभिव्यक्ति
करती
हैं।
[1] शमशेर बहादुर सिंह; प्रतिनिधि कविताएँ; राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली; संस्करणः 2022, पृ॰ 43
[5] वही; पृ. 95
[6] डॉ. रामविलास शर्मा; नयी कविता और अस्तित्ववाद; राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली; संस्करण: 2003; पृ. 92
[7] शमशेर बहादुर सिंह; प्रतिनिधि कविताएँ; राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली; संस्करणः 2022, पृ॰ 47-48
[9] शमशेर बहादुर सिंह; प्रतिनिधि कविताएँ; राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली; संस्करणः 2022 पृ. 172
[10] रामस्वरूप चतुर्वेदी; नयी कविताएँ: एक साक्ष्य; लोकभारती प्रकाशन, नयी दिल्ली; संस्करण: 2015, पृ. 71
[11] शमशेर बहादुर सिंह; प्रतिनिधि कविताएँ; राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली; संस्करणः 2022 पृ. 101
[12] रामस्वरूप चतुर्वेदी; नयी कविताएँ: एक साक्ष्य; लोकभारती प्रकाशन, नयी दिल्ली; संस्करण: 2015 पृ. 79
[13] शमशेर बहादुर सिंह; इतने पास अपने; राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली; संस्करणः 2011; पृ. 44
[14] शमशेर बहादुर सिंह; प्रतिनिधि कविताएँ; राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली; संस्करणः 2022 पृ. 30
[15] शमशेर बहादुर सिंह; कुछ और कविताएं; भूमिका; पृ. 6
[16] शमशेर बहादुर सिंह; प्रतिनिधि कविताएँ; राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली; संस्करणः 2022 पृ. 41
[17] वही; पृ. 178
शोधार्थी, हिन्दी विभाग, हरियाणा केंद्रीय विश्वविद्यालय, महेंद्रगढ़
hindisahitya003@gmail.com, 8209898440
सह-आचार्य, हिन्दी विभाग, हरियाणा केंद्रीय विश्वविद्यालय, महेंद्रगढ़
kamlesh@cuh.ac.in, 7015405750
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