- प्रो. सरोज रानी
शोध
सार : महर्षि
वाल्मीकि
द्वारा
रचित
महाकाव्य
रामायण
भारतीय
संस्कृति
की
धरोहर
है।
इस
अनुपम
रचना
ने
भारतीय
कला
को
सदैव
ही
सवंर्धित
किया
है
विशेषतः
पहाड़ी
शासकों
के
संरक्षण
में
अंकित
रामायण
की
सुंदर
चित्रावलियों
ने
पहाड़ी
चित्रकला
के
वैभव
में
अभिवृद्धि
ही
की
है।
सत्रहवीं
से
उन्नीसवीं
शताब्दी
के
मध्य
पहाड़ी
चित्रकला
के
विविध
केन्द्रों
में
विशेषतः
बाहु, चम्बा
तथा
गुलेर
राज्यों
में
रामायण
के
प्रसंगों
पर
चित्रांकित
ये
अद्वितीय
चित्र
विशेष
रूप
से
रामायण
के
अरण्य, किष्किन्धा
तथा
सुंदर
कांड
से
सम्बंधित
हैं।
इन
चित्रों
में
चित्रकारों
ने
अत्यंत
निपुणता
से
रामायण
में
उल्लिखित
प्रकथन
का
शब्दशः
अंकन
करने
का
सुंदर
प्रयास
किया
है।
विविध
केन्द्रों
में
अंकित
रामायण
के
इन
अविस्मरणीय
चित्रों
में
कुछ
समानताओं
के
साथ
क्षेत्र
विशेष
की
विषेषताओं
के
समन्वय
से
विविधतायें
भी
निहित
हैं।
रामायण
पर
आधारित
ये
मनोरम
पहाड़ी
लघु
चित्र
भारतीय
चित्रकला
एवं
संस्कृति
की
अमूल्य
निधि
हैं।
बीज
शब्द : रामायण, श्रीराम, लक्ष्मण, पहाड़ी, चित्रकला, संग्रहालय, शृंखला, गुलेर, बसोहली, चम्बा।
मूल
आलेख : संस्कृत
साहित्य
विश्व
का
सर्वाधिक
संपन्न
एवं
उत्कृष्ट
साहित्य
है।
भारत
के
मनस्वियों
द्वारा
संस्कृत
में
रचित
साहित्य
भारतीय
संस्कृति
के
धरोहर
हैं।
जिनमें
महर्षि
वाल्मीकि
द्वारा
रचित
रामायण
भारतीय
संस्कृति
का
एक
अनमोल
रत्न
है।
भारतीय
संस्कृति
का
जैसा
सजीव
एवं
गत्यात्मक
चित्रण
इस
ग्रन्थ
में
हुआ
है
वैसा
अन्यत्र
दुर्लभ
है।
यह
भारतीय
साहित्य
का
उपजीवी
ग्रन्थ
है।
रामायण
आदिकाव्य
या
आदि
महाकाव्य
के
नाम
से
भी
विख्यात
है।
इसमें
हिन्दू
धर्म
एवं
संस्कृति
के
आदर्श
मर्यादा
पुरुषोत्तम
भगवान
श्रीराम
के
समग्र
जीवन
का
काव्यमय
वर्णन
हुआ
है।
इसकी
वर्तमान
उपलब्ध
प्रति
में
चार
हजार
श्लोक
सात
काण्डों
में
निबद्ध
प्राप्त
होते
हैं।
परवर्ती
काल
के
संस्कृत
एवं
अन्य
भाषाओं
में
रचित
साहित्य
में
इस
महाकाव्य
का
अत्यधिक
प्रभाव
पड़ा
है।
इस
उत्कृष्ट
रचना
ने
भारतीय
कला
को
भी
सदैव
संवर्धित
किया
है
और
कला
को
अनंत
रसमयी
अनुभूति
प्रदान
की
है।
विशेष
रूप
से
सत्रहवीं
से
उन्नीसवीं
शताब्दी
के
मध्य
हिमाचल
प्रदेश, जम्मू
एवं
गढ़वाल
के
पहाड़ी
राज्यों
के
शासकों
द्वारा
संरक्षित
पहाड़ी
चित्रकला
में
रामायण
का
प्रभाव
द्रष्टव्य
है।
पहाड़ी
चित्रकला
के
विविध
केन्द्रों
विशेषतः
बाहु, चम्बा
तथा
गुलेर
राज्यों
में
रामायण
पर
आधारित
अनुपम
चित्रावलियाँ
वहाँ
के
निपुण
चित्रकारों
ने
अंकित
की
हैं
जो
भारतीय
संस्कृति
एवं
कला
के
धरोहर
हैं।
पहाड़ी चित्रकला की महानतम कला शैली की प्रजनक गुलेर में राजा दलीप सिंह के शासनकाल में अनेक मनोरम चित्र शृंखलायें चित्रांकित हुई, जिसमें रामायण शृंखला में रामायण से उद्धृत प्रसंगों का भी अतिशय सुंदर चित्रांकन किया गया है। इस रामायण शृंखला के अंकन का श्रेय पंडित सेऊ को जाता है।1 इस शृंखला के लगभग चालीस पन्ने लाहौर संग्रहालय, पाकिस्तान; राजकीय संग्रहालय एवं कला वीथी, चंडीगढ़; राइटबर्ग म्यूजियम, ज्यूरिख इत्यादि में संगृहीत हैं। ये चित्र रामायण के अरण्य, किष्किन्धा तथा सुंदर कांड से सम्बंधित हैं। बी. एन. गोस्वामी एवं फिशर ने इन चित्रों का समय 1720 ई० निर्धारित किया है।2 किन्तु आर्चर3 एवं अज्जाजुद्दीन4 के मत में इनका समय 1720-1730 ई० है साथ ही उन्होंने इन चित्रों के अंकन का श्रेय नूरपुर के चित्रकारों को दिया है। ये चित्र लाल रंग के हाशिये से आबद्ध हैं। इन हाशियों में काले एवं श्वेत रंग की रेखाएँ खिंची हुई हैं। चित्र के पृष्ठ में वाल्मीकि रामायण के श्लोक उद्धृत हैं। ये श्लोक काली स्याही से लिखे गए हैं। कहीं-कहीं पर कुछ अक्षर अथवा शब्द लाल रंग से भी लिखे हुए मिलते हैं। चित्र में आकृतियाँ सुस्पष्ट हैं। आँखें बड़ी एवं रंजीत अधर सिकुड़े हुए हैं। आँखों के चारों ओर तथा कपोलों के ऊपरी भाग में हल्के लाल रंग का छायाकरण है। पृष्ठभूमि तेज पीले, नारंगी अथवा लाल रंग की है। क्षितिज श्वेत रंग के लहरदार किनारे एवं नीले रंग की पट्टी से दर्शाया गया है। और धरातल प्रायः हरे रंग का है। इस धरातल पर छोटे घास के गुच्छे भी अंकित हैं। पृष्ठभूमि में आवश्यकतानुसार ही किसी वस्तु को जोड़ा गया है अन्यथा रिक्त छोड़ दिया गया है। राजकीय संग्रहालय एवं कला वीथी, चंडीगढ़ में संरक्षित ‘लक्ष्मण द्वारा शूर्पणखा का नाक-कान काटना’ नामक चित्र (1)(पंजीयन सं0 इ-98) इस शृंखला का एक उत्कृष्ट उदाहरण है। जिसमें उपर्युक्त विशेषताएँ समाहित हैं।
चित्र-1, लक्ष्मण द्वारा शूर्पणखा का नाक-कान काटना, रामायण, शृंखला, पंड़ित सेऊ, लगभग 1720 ई, राजकीय संग्रहालय एवं कला वीथी, चंडीगढ़
चित्र(1) में
चित्रांकित
कथानक
का
उल्लेख
रामायण
के
अरण्यकाण्ड
के
18वें
सर्ग
के
श्लोक
21 एवं 24 पर प्राप्त
है।
इत्युक्तो लक्ष्मणस्तस्याः
क्रुद्धो
रामस्य
पश्यतः।
उद्धृत्य
खड्गं
चिच्छेद
कर्णनासे
महाबलः।।21।।
अरण्यकाण्ड/
अष्टादशः
सर्ग/
श्लोक
21
अर्थात्-
श्रीरामचन्द्रजी
के
इस
प्रकार
आदेश
देने
पर
क्रोध
में
भरे
हुए
महाबली
लक्ष्मण
ने
उनके
देखते-देखते
म्यान
से
तलवार
खींच
ली
और
शूर्पणखा
के
नाक-कान
काट
लिए।
सा
विक्षरन्ती
रूधिरं
बहुधा
घोरदर्शना
।
प्रगृह्मा
बाहू
गर्जन्ती
प्रविवेश
महावनम्।।24।।
अरण्यकाण्ड/
अष्टादशः
सर्ग/
श्लोक
24
अर्थात्-
वह
देखने
में
बड़ी
भयानक
थी।
उसने
अपने
कटे
हुए
अंग
से
बारंबार
खून
की
धारा
बहाते
और
दोनों
भुजाएँ
ऊपर
उठाकर
चिंघाड़ते
हुए
एक
विशाल
वन
के
भीतर
प्रवेश
किया।
चित्र
में
लक्ष्मण
द्वारा
शूर्पणखा
का
नाक-कान
काटने
के
प्रसंग
का
चित्ताकर्षक
चित्रण
किया
गया
है।
चित्रकार
ने
एक
ही
चित्र
फलक
पर
कथानक
की
निरंतरता
को
सुंदरता
से
दर्शाया
है।
चित्र
में
बायीं
ओर
पर्णकुटीर
के
भीतर
सुंदर
सीता
के
साथ
बैठे
नीलवर्णी
महाबाहु
श्रीराम
वार्ता
कर
रहे
हैं।
वे
पर्णपत्रों
का
वस्त्र
धारण
किए
हुए
हैं
तथा
उनके
बायें
हाथ
में
उनका
आयुध
धनुष
है।
दायीं
ओर
श्रीराम
के
आदेश
देने
पर
लक्ष्मण
को
तलवार
से
काम
में
मोहित
शूर्पणखा
का
नाक
काटते
हुए
दर्शाया
गया
है।
कथाक्रम
की
निरंतरता
को
दर्शाते
हुए
चित्रकार
ने
चित्र
के
ऊपरी
भाग
में
दायीं
ओर
भयंकर, विकराल
राक्षसी
शूर्पणखा
को
आकाश
में
उड़ते
हुए
दिखाया
है।
यहाँ
पर
शूर्पणखा
को
सुंदर
स्त्री
के
स्थान
पर
गहरे
वर्ण
की, लम्बे
नुकीले
दाँत
एवं
नाखून, भारी
उरोज
तथा
धुँधराले
बालों
वाला
बनाया
गया
है।चित्र-2, ‘दानवों का संहार करते राम’ रामायण शृंखला, पंड़ित सेऊ, लगभग 1720 ई, राजकीय संग्रहालय एवं कला वीथी, चंडीगढ़
राजकीय
संग्रहालय
एवं
कला
वीथी, चंडीगढ़
में
ही
संगृहीत
‘दानवों का संहार
करते
राम’
नामक
चित्र(2) भी इस
शृंखला
का
एक
अनुपम
उद्धरण
है।
जिसमें
भगिनी
शूर्पणखा
की
दुर्दशा
देखकर
क्रोधित
खर
द्वारा
राम
से
युद्ध
करने
हेतु
भेजे
गए
चौदह
राक्षसों
के
संहार
का
अंकन
है।
यह
चित्र
रामायण
के
अरण्य
काण्ड
के
20वें
सर्ग
के
श्लोक
संख्या
18,
19 एवं 21 पर आधारित
प्रतीत
होता है।
चित्र
में
चित्रकार
ने
श्लोक
में
उल्लिखित प्रकथन का
शब्दश
अंकन
करने
का
प्रयास
किया
है।
ततः
पश्चान्महातेजा
नाराचान्
सूर्यसंनिभान्।।18।।
जग्राह परमक्रुद्धश्चतुर्दश
शिलाशितान्।
गृहीत्वा धनुरायम्य
लक्ष्यानुद्दिश्य
राक्षसान्।।19।।
मुमोच राघवो
बाणान्
वज्रानिव
शतक्रतुः।
अरण्य काण्ड/ सर्ग २०/ श्लोक 18, 19
अर्थात्-
तत्पत्श्चात
महातेजस्वी
रघुनाथजी
ने
अत्यन्त
कुपित
हो
शान
पर
चढ़ाकर
तेज
किए
गए
सूर्यतुल्य
तेजस्वी
चौदह
नाराच
हाथ
में
लिए।
फिर
धनुष
लेकर
उस
पर
उन
बाणों
को
रखा
और
कान
तक
खींच
कर
राक्षसों
को
लक्ष्य
करके
छोड़
दिया।
मानो
इन्द्र
ने
वज्रों
का
प्रहार
किया
हो।
तैर्भग्नहृदया
भूमौ
छिन्नमूला
इव
द्रुमाः।।21।।
निपेतुः शोणितस्नाता
विकृता
विगतासवः
।
अरण्य काण्ड/ सर्ग 20/ श्लोक 21
अर्थात्-
उन
नाराचों
से
हृदय
विदीर्ण
हो
जाने
के
कारण
वे
राक्षस
जड़
से
कटे
हुए
वृक्षों
की
भांति
धराशायी
हो
गए।
वे
सब
के
सब
खून
से
नहा
गए
थे।
उनके
शरीर
विकृत
हो
गए
थे।
उस
अवस्था
में
उनके
प्राण
पखेरू
उड़
गए।
प्रसंगानुरुप
चित्र
में
समरांगण
में
शूरवीर
श्रीराम
एवं
राक्षसों
के
मध्य
हुए
युद्ध
का
अंकन
है।
चित्र
में
बायीं
ओर
योद्धा
की
वेशभूषा
में
गहरे
नील
वर्णी
ओजस्वी
श्रीराम
को
घनुष
पर
बाण
संधान
कर
दानवों
पर
वार
करते
हुए
दर्शाया
गया
है।
वर्णानुरुप
चित्र
में
भी
राम
द्वारा
छोड़े
गए
बाणों
की
संख्या
चौदह
ही
है।
बायीं
ओर
चित्र
में
दानव
अंकित
हैं।
जिनके
अंकन
में
भी
सेऊ
ने
अतिशय
रुचि
दिखाई
है।
उसने
सावधानीपूर्वक
दानवों
को
विविध
वर्ण
में
यथा
हरा, नीला, लाल, श्वेत
एवं
धूसर
रगों
में
चित्रित
किया
है।
दानवों
के
नुकीले
दाँत
एवं
शृंग
भी
विविध
प्रकार
के
अर्थात्
सीधे
घुमावदार
एवं
कोणीय
हैं।
उनके
थूथन
भी
विभिन्न
प्रकार
के
चित्रांकित
हैं।
सभी
राक्षसों
के
पंजे
पक्षियों
के
पंजे
के
समान
नाखून
से
युक्त
हैं।
प्रत्येक
के
घुटनों
में
एक
घुँघरु
बँधा
हुआ
है।
सभी
दानवों
की
स्थिति
अत्यंत
दयनीय
है।
उनकी
आँखें
भय
से
विस्फारित
हैं।
एक
दानव
का
सिर
विहीन
धड़
भूमि
पर
गिरा
हुआ
है।
कुछ
दानवों
के
क्षत-विक्षत
देह
रुधिर
में
डूबे
हुए
हैं।
कुछ
बाण
से
बिंधे
हुए
मरणासन्न
स्थिति
में
हैं
तथा
दो
दानव
भयभीत
हो
रणभूमि
से
पलायन
करते
हुए
दर्शाए
गए
हैं।
युद्ध
की
इस
विभीषिका
को
सेऊ
ने
गहरे
पीले
रंग
की
पृष्ठभूमि
में
अत्यंत
निपुणता
से
संयोजित
किया
है।
चित्र
में
चित्रित
आकृतियों
का
समूहीकरण
एवं
विषय
के
अनुरूप
चटख
रंग
विन्यास
द्वारा
समग्र
चित्र
में
संचारित
ऊर्जा
दर्शनीय
है।
गुलेर
राज्य
के
समान
ही
पहाड़ी
राज्य
चम्बा
में
भी
रामायण
शृंखला
का
चित्ताकर्षक
अंकन
हुआ
है।
इस
शृंखला
के
चित्रांकन
का
श्रेय
चित्रकार
लहरू
को
दिया
जाता
है।5
यह शृंखला क्षैतिज
आकार
की
है।
इस
शृंखला
के
37 चित्र भूरी
सिंह
संग्रहालय, चम्बा
में
संगृहीत
हैं।6
जिनका पंजीयन संख्या
डी.67 से डी.100 तथा डी.102 से डी.104 है।7
अन्य
चित्र
ब्रिटिश
म्यूजियम, लंदन; एडविनबिन्नी
संग्रह, कैलिफोर्निया
आदि
में
संगृहीत
हैं।
साधारणतः
यह
स्वीकार
किया
जाता
है
कि
ये
चित्र
1760 से 1765 ई. के
मध्य
चित्रित
किए
गए
हैं।8चित्र-3, ‘वनगमन के पूर्व श्रीराम का धन का वितरण‘, रामायण शृंखला, चित्रकार लहरू, लगभग 1760-1765 ई.,भूरी सिंह संग्रहालय, चम्बा
रामायण
के
ये
चित्र
विवरणात्मक
तथा
परिष्कृत
हैं।
कला
इतिहासकर
हरमन
गोएत्ज़
के
अनुसार
चम्बा
के
रामायण
चित्रों
में
आकृतियों
का
समूह
सुव्यवस्थित
एवं
परिवेश
में
संघटित
दिखाई
देती
हैं।9
छोटी
आकृतियाँ
अधिक
आकर्षक
एवं
जटिल
हैं।
ये
आकृतियाँ
विविध
चेष्टाओं
और
भंगिमाओं
के
माध्यम
से
एक
दूसरे
से
सम्बद्ध
दिखाई
देती
हैं।
लहरू
ने
इन
चित्रों
में
अधिकांश
पुरूषों
को
गलमुच्छों
के
साथ
चित्रित
किया
है।
केशविन्यास
सावधानीर्पूवक
बनाया
गया
है
तथा
मुखाकृतियों
में
विविधता
है।
इसका
सुंदर
उदाहरण
है
भूरी
सिंह
संग्रहालय, चम्बा
में
संरक्षित
रामायण
शृंखला
का
चित्र
(3) ‘वनगमन के
पूर्व
राम
द्वारा
अपने
संपत्ति
का
वितरण।
इस
चित्र
में
लहरू
ने
पुरूषों
के
समूह
में
कुछ
को
श्मश्रु
युक्त, कुछ
को
मात्र
मूँछ
के
साथ
तथा
अन्य
को
शमश्रुविहीन
चित्रित
किया
है।
प्रतीत
होता
है
कि
मुखाकृतियों
के
वैविध्यपूर्ण
चित्रण
में
लहरू
की
विशेष
रूचि
थी।चित्र-4,‘राम को चुनौती देते परशुराम’, रामायण शृंखला, चित्रकार लहरू, लगभग 1760-65 ई., भूरी सिंह संग्रहालय, चम्बा
लहरू
ने
रामायण
शृंखला
के
फलकों
को
प्रायः
तीन
भागों
में
विभाजित
कर
संयोजित
किया
है।
इसका
उत्कृष्ट
उदहारण
है
चित्र(4) ‘राम को चुनौती देते परशुराम‘। यह
चित्र
भूरी सिंह
संग्रहालय, चम्बा
में
संगृहीत
है।
कथानक
के
अनुसार
परशुराम
श्रीराम
को
शिव
के
धनुष
को
खींचने
की
चुनौती
देते
हैं।
परशुराम
के
चुनौतीपूर्ण
शब्दों
से
क्रुध
हो
श्रीराम
धनुष
को
बिना
उद्यम
के
ही
खींच
लेते
हैं।
इस
असाधारण
कर्म
को
देखकर
स्वर्ग
में
देवता
भी
अचम्भित
हो
जाते
हैं।
‘राम
को
चुनौती
देते
परशुराम‘
प्रसंग
रामायण
के
बालकाण्ड के 76वें
सर्ग के श्लोक संख्या 5, 9 एवं
10 में वर्णित
है।
आरोप्य
स
धनू
रामः
शरं
सज्यं
चकार
ह.........।।
5।।
बालकाण्ड/ षट्सप्तितम: सर्ग/ श्लोक सं. 5
अर्थात्-
उस
धनुष
को
चढ़ाकर
श्रीराम
ने
उसकी
प्रत्यच्ञा
पर
बाण
रखा
वरायुधधरं
रामं
द्रष्टुं
सर्षिगणाः
सुराः।
पितामहः पुरस्कृत्य समेतास्तत्र सर्वश:।। 9।।
बालकाण्ड/ षट्सप्तितम: सर्ग/ श्लोक सं. 9
अर्थात्-
उस
समय
उस
उत्तम
धनुष
और
बाण
को
धारण
करके
खड़े
हुए
श्रीरामचन्द्रजी
को
देखने
के
लिए
सम्पूर्ण
देवता
और
ऋषि
ब्रह्माजी
को
आगे
करके
वहाँ
एकत्र
हो
गए।
गन्धर्वाप्सरश्चैव
सिद्धचारणकिन्नराः।
यक्षराक्षसनागाश्च
तद्
द्रष्टुं
महदद्भुतम्।।10।।
बालकाण्ड/ षट्सप्तितम:
सर्ग/
श्लोक
सं.10
अर्थात्-
गन्धव, अप्सराएँ, सिद्ध, चारण, किन्नर, यक्ष, राक्षस
और
नाग
भी
उस
अत्यंत
अदभुत
दृश्य
देखने
के
लिए
वहाँ
आ
पहुँचे।
कथांश
के
अंकन
हेतु
लहरू
ने
पूरे
चित्र
को
तीन
भागों
में
विभक्त
किया
है।
नीचे
के
भाग
में
सुकोमल
रेखाओं
से
प्रदर्शित
लहरों
से
भरा
हुआ
गहरे
रंग
का
जलाशय
अंकित
है।
जिसमें
अनेक
मुकुलित
कमलपुष्प, कलिका
एवं
पत्र
सुशोभित
हैं।
ऊपर
हल्का
नीला
अंतरिक्ष
व्याप्त
है।
आकाश
में
श्वेत
रंग
के
कुण्डलित
बादलों
की
दो
पंक्तियों
के
मध्य
देवतागण
श्रीराम
के
कृत्य
से
विस्मित
होकर
करबद्ध
खड़े
हैं
।
मध्य
में
सपाट
हरे
रंग
की
पृष्ठभूमि
में
चुनौती
देते
परशुराम, धनुष
उठाते
हुए
एवं
धनुष
खींचते
हुए
श्रीराम
तथा
उनके
पीछे
करबद्ध
लक्षमण
खड़े
हैं।
रामायण
के
कथानक
पर
आधारित
अनेक
रेखाचित्र
भी
उपलब्ध
हैं।
यह
रेखाचित्र
जगदीश
एवं
कमला
मित्तल
भारतीय
कला
संग्रहालय;
सालारगंज
संग्रहालय, हैदराबाद;
भारत
कला
भवन, वाराणसी
तथा
भूरी
सिंह
संग्रहालय, चम्बा
इत्यादि
में
संग्रहीत
हैं।10
ये
रेखाचित्र
अधिक
विवरणात्मक
हैं।
संभवतः
1760 ई. में
लहरू
ने
जब
रामायण
शृंखला
का
कार्य
प्रारम्भ
किया
था
तो
ये
रेखाचित्र
उसे
उपलब्ध
थे।
चित्रांकित
‘रामायण‘ पर आधारित
रेखाचित्रों
एवं
चित्रों
में
चित्रकारों
कि
व्यक्तिक
विशेषताओं
के
साथ
ही
बसोहली
चित्रशैली
की
विशेषताएँ
भी
सन्निहित
हैं।
जो
उनमें
स्पष्टतः
दर्शित
है।
इन
चित्रों
में
पशु
बसोहली
के
चित्रों
में
अंकित
पशुओं
की
तरह
कृशकाय
एवं
भावप्रवण
अंकित
हैं।
गोपों
की
नुकीली
टोपी
एवं
धारीदार
अधोवस्त्र
भी
बसोहली
चित्रों
से
साम्यता
रखते
हैं।
चित्रों
के
गहरे
लाल
हाशिये
भी
बसोहली
प्रभाव
को
दर्शाते
हैं।
अपारदर्शी
रंग
यथा-
धूसर
नीला, गहरा
हरा
तथा
लाल
बसोहली
शैली
के
रंग-विन्यास
से
भिन्न
हैं।
बसोहली
के
निर्भीकता
के
स्थान
पर
भाव
अधिक
सौम्य
एवं
परिमारर्जित
हैं
तथापि
यह
स्पष्ट
है
कि
चम्बा
की
प्रारम्भिक
चित्र
शैली
बसोहली
चित्रशैली
से
ही
विकसित
हुई
है।चित्र-5,‘सीता के वियोग में राम एवं लक्ष्मण’, काँगड़ा शैली, लगभग 1780-85 ई., भूरी सिंह संग्रहालय, चम्बा, पंजीयन सं. 08, कैटेलॉग 1909, नंबर. डी, 134
चम्बा
में
ही
काँगड़ा
शैली
से
प्रभावित
लगभग
तीस
चित्र
रामायण
से
सम्बन्धित
भूरी
सिंह
संग्रहालय, चम्बा
में
संकलित
हैं।
कला
इतिहासकार
गोस्वामी
एवं
फ़िशर
ने
इन
फलकों
के
चित्रांकन
का
श्रेय
चित्रकार
मानकु
एवं
नैनसुख
को
दिया
है।11
ये
चित्र
रामायण
के
अयोध्या
कांड
एवं
अरण्य
कांड
के
प्रसंगों
पर
आधारित
हैं।12
लगभग
1780 ई. में
चित्रित
इन चित्रों
का
एक
अत्युतम
मनोरम
फलक
चित्र(5),‘सीता
के
वियोग
में
राम
एवं
लक्ष्मण’
प्राप्त
है।13
यह
चित्र
रावण
द्वारा
सीता
हरण
के
बाद
वियोगी
श्रीराम
के
मनः
स्थिति
के
प्रसंग
को
चित्रांकित
करता
है।
प्रसंगानुसार
रावण
द्वारा
सीता
हरण
के
पश्चात् जब राम
राक्षस
मारीच
का
वध
करके
कुटीर
पर
लौटते
हैं
तो
सीता
को
न
पाकर
अत्यंत
ही
विकलित
हो
उठते
हैं।
रामायण
के
अरण्य
काण्ड
के
सत्तावन
सर्ग
के
श्लोक
संख्या
20 तथा साठवें
सर्ग
के
श्लोक
संख्या
6 एवं 7 में वियोगी श्रीराम
का
वर्णन
है।
स्वमाश्रमं
स
प्रविगाह्य
वीरो
विहार
देशाननुसृत्य
कांश्चित्
एतत्तदित्येव
निवासभूमौ
प्रहृष्टरोमा
व्यथितो
बभूव
।।
20।।
रामायण/अरण्यकाण्ड/सप्तपंचाश
सर्ग/20
अर्थात्-
वीर
श्रीराम
ने
आश्रम
में
प्रवेश
करके
उसे
भी
सूना
देखकर
ऐसे
स्थलों
में
अनुसंधान
किया, जो
सीता
के
विहार
स्थान
थे।
उन्हें
भी
सूना
पाकर
उस
क्रीड़ा
भूमि
में
यही
वह
स्थान
है, जहाँ
मैंने
अमुक
प्रकार
की
क्रीड़ा
की
थी, ऐसा
स्मरण
करके
उनके
शरीर
में
रोमांच
हो
आया
और
वे
व्यथा
से
पीडित
हो
गए।
रुदन्तमिव
वृक्षैश्च
ग्लानपुष्पमृगद्विजम्।
श्रिया
विहीन
विहींनं
विध्वस्तं
संत्यक्त
वनदैवतैः
।।
6।।
रामायण/अरण्यकाण्ड/षष्टितम
सर्ग/6
अर्थात्ः
वह
स्थान
वृक्षों
(की सनसनाहट)
के
द्वारा
मानो
रो
रहा
था, फूल
मुरझा
गए
थे, मृग
और
पक्षी
मन
मारे
बैठे
थे।
वहाँ
की
सम्पूर्ण
शोभा
नष्ट
हो
गयी
थी।
सारी
कुटी
उजाड़
दिखायी
देती
थी।
वन
के
देवता
भी
उस
स्थान
को
छोड़कर
चले
गए
थे।।6।।
विप्रकीर्णाजिनकुषं विप्रविद्धबृसीकटम्।
दृष्ट्वा
षून्योटजस्थानं
विललाप
पुनः
पुनः।।7।।
रामायण/अरण्यकाण्ड/षष्टितम
सर्ग/7
अर्थात्-
सब
ओर
मृगचर्म
और
कुश
बिखरे
हुए
थे।
चटाइयाँ
अस्त-व्यस्त
पड़ी
थीं।
पर्णशाला
को
सूनी
देखकर
भगवान
श्रीराम
बारम्बार
विलाप
करने
लगे।।7।।
उपर्युक्त
श्लोकों
में
वर्णित
श्रीराम
की
मनोदशा
का
चित्रकार
लहरु
ने
चित्र
‘‘सीता के वियोग
में
विलाप
करते
हुए
राम
एवं
लक्ष्मण‘‘
में
जीवंत
अंकन
किया
हैं।
लहरु
ने
चित्र
के
केन्द्र
में
अंकित
सूने
पर्ण
कुटीर
के
चहुँ
ओर
समग्र
दृष्य
को
संयोजित
किया
है।
कुटीर
के
सम्मुख
हृदय
पर
हाथ
रखकर
सिर
झुकाये
हुए
नील
वर्णी
श्रीराम
सीता
के
वियोग
में
अकुलाए
हुए
भूमि
पर
बैठे
हुए
हैं।
उनके
चरण
के
पास
संतप्त
लक्ष्मण
भी
चिबुक
पर
हाथ
रखकर
बैठे
हुए
हैं।
भूमि
पर
टूटकर
बिखरा
हुआ
पुष्पमाला
श्रीराम
की
व्यथा
को
इंगित
कर
रहा
है।
श्रीराम
के
विलाप
से
मानो
प्रकृति
भी
दुखी
हो
गयी
है।
कमल
पुष्प-पत्र
मुरझाये
हुए
इधर-उधर
अंकित
हैं।
चित्र
में
बायीं
ओर
एक
अकेला
मृग
उदास
बैठा
हुआ
हैं।
शुक, सारस, मैना
आदि
पक्षी
भी
इस
शोकाकुल
वातावरण
में
अलग-थलग
पादपों
में
बैठे
हुए
हैं।
पूरे
परिवेश
में
निरवता, स्तब्धता
एवं
संतप्ता
को
चित्रकार
लहरु
ने
अत्यंत
ही
कुशलता
से
उकेरा
है, प्रतीत
होता
है
स्वयं
चित्रकार
भी
इस
प्रसंग
की
कल्पना
से
ही
मर्माहत
हुआ
है।
उपर्युक्त
रामायण
चित्रावलियों
के
साथ
ही
शांग्री
रामायण
शृंखला
भी
उल्लेखनीय
है।
कुल्लू
के
राजसी
परिवार
की
शाखा
शांग्री
रियासत
के
वंशज
के
स्वामित्व
में
रहने
के
कारण
यह
रामायण
चित्रावली
शांग्री
रामायण
के
नाम
से
जाना
जाता
है।
इस
शृंखला
के
आरंभिक
चित्रों
के
अंकन
का
श्रेय
कलाविद्
बी.
एन.
गोस्वामी
एवं
फिशर
बाहु
के
चित्रकारों
को
देते
हैं
।14
इस
बृहत्
चित्रावली
में
चार
उपशैलियाँ
हैं।15
इस
चित्रावली
में
एक
समय
लगभग
270 चित्र थे।16
वर्तमान
में
ये
चित्र
राष्ट्रीय
संग्रहालय, नई
दिल्ली; भारत
कला
भवन, वाराणसी; गोपी
कृष्ण
कन्नोरिया
संग्रह, कोलकाता; लास
एंजिल्स
काउंटी
म्यूजियम
आफ
आर्ट; एडविन
बिन्नी
संग्रह, सेन
डिएगो
म्यूजियम
आफ
आर्ट
आदि
में
संगृहीत
हैं।17
इस
शृंखला
का
एक
मनमोहक
चित्र
‘वनगमन के पूर्व
श्रीराम
द्वारा
धन
का
वितरण‘
लास
एंजिल्स
काउंटी
म्यूजियम
आफ
आर्ट
में
संकलित
है।
रामायण
के
अयोध्या
काण्ड
के
33वें
सर्ग
के
श्लोक
28 में वनगमन
के
पूर्व
लक्ष्मण
सहित
श्रीराम
द्वारा
ब्राह्मणों, ब्रह्मचारियों, सेवकों
एवं
सुहृज्जनों
को
धन
का
वितरण
करने
का
प्रसंग
वर्णित
है।चित्र-6, ‘वनगमन के पूर्व श्रीराम द्वारा धन का वितरण’, अयोध्या काण्ड, शांग्री रामायण शृंखला, बाहु के चित्रकार, लगभग 1690-1700 ई., लॉस एंजिल्स काउंटी म्यूजियम ऑफ आर्ट
ततः
स
पुरूषव्याघ्रस्तद्
धनं
सहलक्ष्मणः।
द्विजेभ्यो
बालवृद्धेभ्य
कृपणेभ्यो
ह्यदापचत।।
28।।
अर्थात- तब
लक्ष्मण
सहित
श्रीराम
ने
बालक
और
बूढ़े
ब्राह्मणों
तथा
दीन
दुखियों
को
वह
सारा
धन
बँटवा
दिया
।।28।।
चित्र
के
अवलोकन
से
प्रतीत
होता
है
कि
चित्रकार
ने
स्वयं
रामायण
का
पाठ
किया
था।
वर्णनानुरुप
चित्रकार
ने
अंकन
का
सुंदर
प्रयास
किया
है।
चित्र
में
बायीं
ओर
पुष्प-पत्रों
के
आलेखन
से
अलंकृत
कालीन
पर
राजसी
वेशभूषा
में
नारंगी
रंग
का
लम्बा
जामा, स्वर्णाभूषण
एवं
कमल
कलिका
से
सुसज्जित
किरीट
धारण
किए
हुए
श्रीराम
खड़े
हैं।
उनके
कर
कमल
में
दान
देने
हेतु
श्वेत
पारदर्शी
अंगवस्त्र
है।
श्रीराम
के
पीछे
गौरवर्णी
जानकी
एवं
पाण्डुवर्णी
अनुज
लक्ष्मण
भी
राजसी
परिधान
में
सुशोभित
खड़े
है।
उनके
सम्मुख
दायीं
ओर
दान
प्राप्त
करने
के
लिए
करबद्ध
ब्राह्मण, दरबारी, आम
नागरिक
एवं
परिचारक
खड़े
हैं।
चित्र
में
तत्कालीन
क्षण
की
गंभीरता
को
चित्रकार
ने
विविध
भावों
के
माध्यम
से
प्रेषित
किया
है।
अंकित
सभी
आकृतियों
के
मुख
पर
विविध
भाव
दर्शित
हैं।
श्रीराम
के
मुख
पर
हल्की
लालिमा
एवं
शांति
तथा
किंचित
स्मित
के
भाव
हैं,
वहीं
भ्राता
लक्ष्मण
के
मुख
पर
जिज्ञासा
के
भाव
परिलक्षित
हैं।
सीता
किंकर्तव्यविमूढ़
सी
है।
वनगमन
के
समाचार
से
अन्य
व्यक्ति
विचलित
एवं
व्यथित
हैं।
चित्र
में
आकृतियों
के
सिर
शरीर
के
अनुपात
में
बड़े
हैं
तथा
चिबुक
भारी
बनाये
गए
हैं।
सपाट
हरे
रंग
की
पृष्ठभूमि
में
समग्र
चित्र
कुशलता
से
संयोजित
है।
संक्षेप
में
पहाड़ी
शासकों
के
संरक्षण
में
चित्रकारों
ने
अत्यंत
निपुणता
से
रामायण
के
विविध
प्रसंगों
का
वर्णनानुरुप
भावप्रवण
चित्रण
किया
है, जो
भारतीय
चित्रकला
एवं
संस्कृति
की
अनुपम
निधि
है।
निष्कर्ष : भारत के महर्षि वाल्मीकि द्वारा रचित रामायण भारतीय संस्कृति का धरोहर है। अट्ठारहवीं शताब्दी के प्रारम्भ से लेकर उत्तरार्ध तक इस महाकाव्य में उद्धृत प्रसंगों का जीवंत अंकन पहाड़ी चित्रकला के अनेक केन्द्रों में अत्यंत सुंदरता से हुआ है। विशेष रूप से गुलेर, चम्बा एवं बाहु के चित्रकारों द्वारा अंकित रामायण शृंखलाएँ उल्लेखनीय हैं। पहाड़ी शासकों के संरक्षण में यद्यपि विविध केन्द्रों में रामायण की शृंखलाएँ चित्रांकित हुयी हैं तथापि उनमें कुछ समानतायें भी निहित हैं। विशेषतः इन मनोरम चित्रों में श्लोक में उल्लिखित कथांश का शब्दश अंकन के प्रयास को देखकर प्रतीत होता है कि इन सभी चित्रकारों ने स्वयं रामायण का पाठ किया होगा। वर्तमान में इन शृंखलाओं के अनुपम चित्र देश विदेश की अनेकों संग्रहालयों में संगृहीत हैं, जो भारतीय संस्कृति के वैभव का प्रतीक हैं।
1. बी.एन. गोस्वामी एवं इबरहार्ड फिशर, पहाड़ी मास्टर्स: कोर्ट पेंटर्स आफ नार्दन इंडिया, नई
दिल्ली, 2009, पृष्ठ-214.
2. वही.
3. डब्लू. जी. आर्चर, इंडियन पेंटिंग फ्राम द पंजाब हिल्स, लंदन, 1973, पृष्ठ 396.
म्यूजियम, लंदन, पृष्ठ 70.
5. विश्व चन्द्र ओहरी एवं रॉय सि. क्रेवेन, पैन्टेर्स आफ द पहाडी स्कूल्स, मार्ग प्रकाशन, मुंबई,
6. वही.
7. बी.एन. गोस्वामी एवं इबरहार्ड फिशर, उपर्युक्त, वही. पृष्ठ 151.
9. विश्व चन्द्र ओहरी एवं रॉय सि. क्रेवेन, उपर्युक्त, पृष्ठ 41.
12. विश्व चन्द्र ओहरी, द एक्जाइल इन द फारेस्ट, ललित कला अकादमी, नई दिल्ली,1983, पृष्ठ
13.
13. वही. पृष्ठ 42.
चित्रकला विभाग, महिला महाविद्यालय, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय
profsaroj89@gmail.com, 9415448747
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