साक्षात्कार : ससमर्पण रचेगा वही बचेगा (राकेश कुमार सिंह से मनीता यादव की बातचीत)

जो ससमर्पण रचेगा वही बचेगा
(राकेश कुमार सिंह से मनीता यादव की बातचीत)

 

  1. अपने बचपन से लेकर लेखक बनने तक के सफ़र के बारे में बताइए?

बचपन तो क्या, जीवन के पैंतीसवें वर्ष तक कभी सपने में भी नहीं आया था कि लेखन से जुड़ना भी मुझसे संभव हो सकता है या साहित्य लिखना-पढ़ना मेरे बूते की बात है। हां, अब कभी-कभी लगता है कि जीवन का ढेर सारा समय साहित्यिक दृष्टि से बिना लिखे-पढ़े गंवाया जा चुका है जिसकी भरपाई अब संभव नहीं है। मेरी लेखकीय यात्रा बहुत लंबी और संघर्षमय भी नहीं रही जिसे ग्लैमराइज किया जा सके। बस यूं ही लिखने लगा था जिसे मैं विस्तार में अन्यत्र किसी संस्मरण में लिख चुका हूँ तब मुझे लगा था कि मैं कोई साहित्यकार तो हूँ  नहीं कि जो साहित्य की जमीन पर मील के पत्थर गाड़ दुँगा। मेरा एक प्रिय गीत है... “मैं पल दो पल का शायर हूंतो दस-बीस कहानियाँ  लिख ली जाएँ वही काफी हैं। दो-चार उपन्यास लिख सकूँ पूरे जीवन में तो यह भी बड़ी बात होगी। पर जब लेखन में गया तो इस दुनिया से बाहर निकल ही नहीं सका। अब लगता है कि लेखन तो एक अंतहीन... अनन्त यात्रा है। पता नहीं कितनी दूर तक... कितनी देर तक चल पाता हूँ। अब लगता है कि लेखन हो तो सोद्देश्य हो वर्ना हो।

  1. आपकी रचनाओ में कौन सा आपका सबसे प्रिय पात्र है और क्यों?

वैसे तो मुझे अपने कई पात्र प्रिय हैं, विशेषकर वे जिन्हें मैंने उनके जीवनकाल में देखा था। जो जीते-जागते लोग थे, कुछ अभी भी हैं। "त्रिपुर सुंदरी" की रंगीली, "आरखांड़" की रंगेनी, "मांत्रिक" की मनबसिया, "संभवामि युगे युगे" के भीम सिंह, "संवदिया" का हीरा ठाकुर... सूची लंबी है परन्तु इस सूची में सबसे ऊपर जो नाम आता है वह है भुवनेश्वर गोसाईं। वे मेरी रचनाओं में बार-बार उपस्थित होते रहे हैं। "वाह रे सिरजनहार" और "किस्सा निरबंसिया ताल" कहानियों और उपन्यास "महासमर की सांझ" में आप उन्हें देख सकती हैं।

दरअसल मेरे गाँव-गोतिया के रिश्ते में मेरे एक बाबा थे... पितामह धनपत सिंह। वे कथा-कृषक थे... शायद कहानियों की खेती करते थे। कहानियाँ  उगाते थे। उस कथा-पुरुष से मैं और मेरे समवय मित्रों ने खूब कहानियाँ  सुनी थीं। चढ़ती रात तक खलिहानों में, सांझ का झुटपुटा होने तक कोयल नदी की रेत पर, ढलती सांझ में अहरा की मेंड़ पर। जब मैं बाकायदा लिखने लगा तो उनका सस्वर गा-गा कर कहानियाँ  बांचना, किस्से रसाने का ढब, उनकी शैली मैने उधार ले ली है। "महाअरण्य में गिद्ध" के बुलाकी मुंडा भी वही तो हैं। वे मेरे सर्वाधिक प्रिय पात्र हैं। मुझे विश्वास है कि आगे भी वे मेरे साथ रहने वाले हैं।

  1. आपको कभी ऐसा भी लगता है कि जीवन से लिए गए पात्रों को जब आप अपनी रचना में ढालते हैं तो लेखन प्रक्रिया के दौरान उनमें बहुत बड़ा परिवर्तन हो जाता है?

आपके प्रश्न से मैं अंशत: सहमत हो सकता हूँ। लेखन प्रक्रिया में जीवन से लिए गए पात्रों के व्यक्तित्व में मैं कोई परिवर्तन नहीं करता। मुझे लगता है यह उस चरित्र के साथ बेईमानी है या उसके साथ धोखा करना है। हाँ , स्थितियों और घटनाओं में कुछ बदलाव या कुछ जोड़-तोड़ मैं कर लेता हूँ। रचना की मांग और निष्पति की आवश्यकतानुसार कुछ स्थितियाँ  या घटनाएँ  परिकल्पित भी करनी हों तो करता हूँ। मुझे लगता है कि किसी पात्र के जीवन के साथ इतनी अधिक तोड़-मरोड़ भी नहीं होनी चाहिए कि वह चरित्र या उसके कार्य-व्यवहार नाटकीय और अविश्वसनीय लगने लगें। तब तो रचना ही नकली लगने लगेगी और मैं जादुई यथार्थवाद का कायल नहीं हूँ। अपने एक अतिप्रिय पात्र का उदाहरण लूँ  तो अपने धनपत बाबा के मूल चरित्र या व्यक्तित्व के साथ मैंने कोई प्रयोग नहीं किया। पहनावा, बोली-बानी जैसा का तैसा रखा है। बस पात्र का नाम बदल कर भुवनेश्वर गोसाईं कर दिया। अपना बाबा बता कर मैंने उनकी स्थिति अवश्य बदली है, उन्हें अपना हलवाहा बताया है ताकि कुछ लेखकीय छूट लेने की सुविधा रहे। ताकि चरित्र को रातों में घर से बाहर रख कर कथा आगे बढ़ा सकूँ  वर्ना बाबा नौ बजे रात तक सो जाते थे और अलसुबह तीन-चार बजे ही बिस्तर छोड़ देते थे। भुवनेश्वर गोसाईं या बुलाकी मुंडा के चोले में मेरी रचनाओं में धनपत बाबा ही अवतरित होते रहे हैं।

  1. आपकी अकादमिक पृष्ठभूमि विज्ञान में रही है साहित्य की ओर आने की प्रेरणा आप किसे मानते हैं? किसी घटना/परिस्थिति को या फिर व्यक्ति विशेष को?

सही है कि मेरी अकादमिक पृष्ठभूमि विज्ञान की है, वह भी अंग्रेजी माध्यम से रही। साहित्य की ओर भटक आने के पीछे प्रेरणा कोई घटना रही, ही कोई परिस्थिति रही। हाँ, इसमें दो व्यक्तियों की भूमिका अवश्य रही। एक मेरे महाविद्यालय के हिंदी शिक्षक डॉ नीरज सिंह जिनका मानना था कि साहित्य मुझ जैसे नीरस विज्ञान के व्यक्ति द्वारा संभव नहीं, तो मैंने पहली कहानी उनकी चुनौती को स्वीकार करते हुए लिखी। "नक्सलाईट" शीर्षक यह कहानी दिसंबर 1995 के 'हंस' में "नाम अज्ञात" शीर्षक के साथ छपी थी।

दूसरा व्यक्तित्व मेरी पत्नी थीं। जब मेरी पहली कहानी 'हंस' में छपी तो पत्नी की प्रतिक्रिया थी कि यह कहानी मेरी हो ही नहीं सकती। जेम्स हेडली चेज़ और ओमप्रकाश शर्मा पढ़ने वाला मैं ऐसी कहानी भला कैसे लिख सकता था! पत्नी की दृष्टि में साहित्यकार एक महान विद्वान और नायकों की भांति श्रद्धेय व्यक्ति होता है। मैंने पत्नी की निगाहों में खुद को साबित करने की जिद्द में दूसरी कहानी लिखी फिर तीसरी-चौथी-पाँचवी और फिर सिलसिला बन गया। एक बार जो साहित्य की दुनिया में आया तो फिर वापस निकल ही नहीं सका। बस लिखता गया। यहाँ  स्थान कम है और किस्सा लंबा है। विस्तार से जानना हो तो मेरी संस्मरणों की पुस्तक "लो आज गुल्लक तोड़ता हूँ" देख सकती हैं। अब पत्नी नहीं रहीं तो वह प्रेरणा भी नहीं रही। यूं लिखता अभी भी हूँ  पर उस जुनून के साथ नहीं लिख पाता। नियमित नहीं लिख पाता। जिसके लिए लिखता था वही नहीं हैं तो फिर... खैर, आपका अगला प्रश्न!

  1. ऐतिहासिक उपन्यास में कल्पना और यथार्थ का समायोजन कितना और कैसे होता है? क्या इस कल्पना में जोड़ने के साथ इसमें कुछ छिपाने की भी गुंजाइश रहती है?

जहां तक मैंने समझा है, ऐतिहासिक उपन्यासों में यथार्थ के साथ कल्पना का मिश्रण खिचड़ी में घी-नमक की भांति होना चाहिए। इनकी अधिकता व्यंजन का जायका खराब और बेमजा कर देती है। ऐतिहासिक उपन्यासों में ऐतिहासिकता को छिपाने का अर्थ है तथ्यों के साथ बेजा छेड़छाड़ या कह लें बेईमानी करना जिसे मैं गलत मानता हूँ। हाँ, उपन्यास पढ़ते हुए वह उपन्यास ही लगे कि ठस इतिहास इसलिए उपन्यास को पठनीय और रोचक बनाने हेतु मैंने इतिहास के समानांतर एक काल्पनिक अख्यान का उपयोग अवश्य किया है। अपने ही उपन्यास का उदाहरण लूं तो "जो इतिहास में नहीं है" की मूल कथा तो ऐतिहासिक परिघटना संताल हुल की है परंतु इसके समानांतर हारिल-लाली की प्रेमकथा भी चलती है। यदि कोई समानांतर कथा संभव हो पाए तो इतिहास के यथार्थ के साथ कल्पना की बुनावट-तुरपाई इतनी बारीक हो कि कहीं जोड़ दिखे। यथार्थ और कल्पना को छिनगाना मुश्किल हो। अब एक ही रेसिपी बार-बार परोसी जाय तो भोजन का आनंद एकरस हो जाता है सो अपने उपन्यास "हुल पहाड़िया" में मैने इस दूसरे शिल्प का प्रयोग किया है। अब आप शोधकर्ताओं और पाठकों को निर्णय करना है कि इन प्रयोगों में मैं कितना सफल या असफल रहा।

  1. ऐतिहासिक उपन्यासकार होने और इतिहासकार होने में बुनियादी फर्क क्या है?

इतिहासकार और ऐतिहासिक उपन्यासकार में बुनियादी फर्क या सबसे बड़ा फर्क चित्त और पट्ट का है। गोया सिक्का तो वही है लेकिन उसके दो पहलू हैं। उपन्यास सम्राट प्रेमचंद की स्पष्ट मान्यता थी कि इतिहास में तथ्यों के सिवा सब झूठ होता है, जबकि साहित्य में तथ्यों के सिवा सब सच होता है। मैं तो यह मानता हूँ  कोई इतिहास अंतिम सत्य नहीं होता बल्कि हर इतिहास अंतरिम (एडहॉक) होता है। नई सत्ताएं पूर्वस्थापित इतिहास का मनोवांछित पुनर्लेखन कराती हैं। सत्ता के बदलते ही इतिहास दर्शन भी बदल जाता है फिर इतिहासकार की आँखें सत्ता द्वारा समर्थित तथ्यों और आंकड़ों एवं सत्ता के प्रति निष्ठा के आधार पर इतिहास लिखती हैं। तथ्यों की हेराफेरी कर इतिहास की वस्तुगतता की हत्या करने वाले इतिहासकार भी हुए हैं। इसलिए इतिहास बहुत विश्वसनीय चीज़ नहीं है। ऐतिहासिक उपन्यासकार तथ्यों-आंकड़ों की छान-फटक तो करता ही है साथ ही स्थलीय साक्ष्यों, क्षेत्र विशेष की आस्थाओं, जन-स्मृतियों, लोकोक्तियों तथा लोकगीतों को भी खातिर में लाता है। इनका सम्मान और उपयोग करता है। तो बुनियादी फर्क यह कि जहाँ  तक मैं समझता हूँ, इतिहास के प्रति ईमानदारी अकादमिक इतिहासकार की अपेक्षा ऐतिहासिक उपन्यासकार में अधिक बेहतर होती है।

  1. आपने उपन्यासों में ऐतिहासिक नायकों के वास्तविक चरित्र के साथ न्याय कर पाने के लिए क्या लेखकीय तैयारी की?

मैंने तीन ऐतिहासिक उपन्यास लिखे हैं। "जो इतिहास में नहीं है", "हुल पहाड़िया" और "महासमर की सांझ"..! मैंने लिखने से पूर्व तो नहीं, लिखने के दौरान रामशरण शर्मा, जी.सी. झा, एस.पी. सिन्हा, के.के. दत्ता, बालमुकुंद वीरोत्तम जैसे इतिहासकारों को पढ़ा। आचार्य चतुरसेन शास्त्री, महाश्वेता देवी और वृंदावन लाल वर्मा जी को पढ़ा। 'मैली के गजेटियर्स देखे। अपने उपन्यासों की जमीन के दौरे किए। दुमका के अशोक सिंह, कवियित्री निर्मला पुतुल, आदिवासी जन-जीवन के जानकार पत्रकार राजेन्द्र प्रसाद सिंह (भागलपुर) और अनूप कुमार वाजपेयी (दुमका) के संपर्क में रहा...लगातार। लिखित इतिहास पर ही निर्भर रह कर मैंने वाचिक इतिहास, नव्यतम शोध और उस समाज विशेष पर भी नजर रखी। उस समाज के लोगों से मिला, बात की क्योंकि साहित्य कोरा इतिहास नहीं होता। साहित्य किसी क्षेत्र विशेष के जनजीवन में गहरे धंसी आस्थाओं, विश्वासों, लोककथाओं, लोकगीतों,किंवदंतियों और सरोकारों आदि-आदि के रसायन से जन की स्मृतियों में दर्ज होता है और पीढ़ी-दर-पीढ़ी उस देश-काल के समाज, संस्कृति और लोक से स्पंदित होता है।

  1. आपके अनुसार ऐतिहासिक उपन्यासों की सैद्धांतिकी क्या है? या ऐतिहासिक उपन्यास किसे कहेंगे?

ऐतिहासिक उपन्यास की पूर्वस्थापित सैद्धांतिकी तो स्पष्ट है कि ऐसा उपन्यास जिसमें किसी विशेष कालखंड का चित्रण हो या किसी कालखंड विशेष की किसी परिघटना विशेष या व्यक्ति विशेष के जीवन से जुड़ी घटनाओं का चित्रण हो, जो पाठकों को अतीत और वर्तमान से जोड़ सके। पूर्वस्थापित धारणा या सैद्धांतिकी तो यही कहती है कि ऐतिहासिक उपन्यास की अनिवार्य शर्त है, उसकी कथा का प्रख्यात होना और पाठकों का उससे पूर्व परिचित होना परंतु पिछले दशक से ऐतिहासिक उपन्यास की एक नई प्रवृत्ति भी उभर कर आई है "हिस्ट्री फ्रॉम बिलो"! यह प्रवृत्ति कथा के प्रख्यात होने की शर्त को नकारते हुए सैद्धांतिकी में संशोधन का प्रस्ताव करती है। अर्थात् अपेक्षाकृत अज्ञात-अल्पख्यात चरित्रों या घटनाओं को लेकर विभिन्न स्रोतों के आधार पर ऐतिहासिक उपन्यास लिखे जाने लगे हैं। व्यतीत के सूत्रों-सुरागों का उत्खनन कर सूक्ष्मैतिहास (माइक्रो हिस्ट्री) को उपन्यास में ढालने की कोशिश ने ऐतिहासिक उपन्यास की सैद्धांतिकी को संशोधित-परिष्कृत कर दिया है।

  1. आपके उपन्यासों में आए नायकों को चुनने के पीछे तत्कालिक उद्देश्य क्या रहा है?

अपने उपन्यासों में आए नायकों के चुनाव के पीछे मेरा एकमात्र उद्देश्य झारखंड को बड़े फलक पर उपस्थित करना रहा है। वह संजीव सान्याल हो, नंदू घटवार हो, संताल हुल हो, पहाड़िया विद्रोह हो या फिर महेश असुर हो। मेरे लेखन के केन्द्र में चिर उपेक्षित और वर्षा वंचित पठार रहा। मेरी प्राथमिकता रही झारखंड की जमीन, जल और जंगल! जहाँ तक मेरे ऐतिहासिक उपन्यासों की बात है, तो स्वर्गीया महाश्वेता देवी ने आदिवासी जन-जीवन पर खूब लिखा है, परन्तु उनकी कहानी "हुलमाहा की मां" में मुझे संताल विद्रोह का ताप नहीं दिखा। झारखंड के इतिहास में घटित इतनी बड़ी बात का एक कहानी में पर्यवसित होना मुझे स्वीकार नहीं था, सो "जो इतिहास में नहीं है" लिखा गया। महाश्वेता देवी के उपन्यास "शालगिरह की पुकार पर" पढ़ा तो मैं इसी बात पर असहमत हुआ कि पहाड़िया विद्रोह का नायक तिलका मुरमु पहाड़िया थे, या संताल? तो कुछ प्रश्न थे, कुछ असहमतियाँ थीं, कुछ परिप्रेक्ष्य आड़े-तिरछे थे। तो मैंने अपने उपन्यासों के लिए नायक का चुनाव किया और अपनी समझ और सामर्थ्य भर कोशिश की कि मैं उनके व्यक्तित्व और कृतित्व को अपने ढंग से प्रस्तुत कर सकूँ। अपने इस परिप्रेक्ष्य को ठीक या स्पष्ट कर सकूँ। नतीजा है "हुल पहाड़िया"!

  1.  लेखक के रूप में सबसे बड़ा बल और सबसे बड़ी कमजोरी?

एक लेखक के रूप में मैंने पहले भी स्वीकार किया है, अब भी कहता हूँ कि साहित्य मेरे बस का रोग नहीं था। मैं कोई जन्मजात प्रतिभा नहीं था। मुझे लेखक बनाया गया और मुझे बनाने वाली रही मेरी पत्नी अनीता। एक लेखक के रूप में वही मेरा एकमात्र और सबसे बड़ा बल थी, और वही मेरी रचनाओं की प्रथम श्रोता और आलोचक थी। दो-चार दिनों तक यदि मेरा लिखना स्थगित हो जाता तो पत्नी के कान खड़े हो जाते थे, कि कुछ गड़बड़ है। कुरेद-कुरेद कर पूछने लगती... "कुछ लिख नहीं रहे? तबियत तो ठीक है?" अब जब अनीता नही रहीं, तो यह होना ही मेरी सबसे बड़ी कमजोरी है। लिखने की मेरी प्रेरणा ही नहीं रही तो लिखना किसके लिए और क्यों? अब कोई पूछने वाला नहीं कि मैं क्यों नहीं लिख रहा। अब लिखूँ या लिखूँ... किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता। यों छुटपुट लिखना, समीक्षाएँ-टिप्पणियाँ हो जाता है, चूंकि तीस वर्षों का रियाज रहा है, परन्तु अब कोई बड़ा काम मुझसे हो सकेगा, खुद मुझे संशय है।

  1.  साहित्यिक पुरस्कारों में बहुत होड़ मची हुई है, उसके विषय में बताएं और आपके क्या विचार हैं?

साहित्यिक पुरस्कारों की होड़ में, मैं कभी नहीं रहा, क्योंकि मैं खुद को साहित्यकार नहीं मानता। मैं गंवई किस्सा-गो हूँ, इसलिए पुरस्कारों की होड़ या पुरस्कारों की राजनीति में कभी शामिल ही नहीं हुआ, ही मुझे इनके बारे में ज्यादा जानकारी है। वरिष्ठ साहित्यकार मधुकर सिंह (आरा/बिहार) कहा करते थे... "पुरस्कार मिलते नहीं, ले लिए जाते हैं।" मैंने देखा कि वे सही कहते थे। दर्जन भर उपन्यास और दो-ढाई सौ कहानियाँ लिखने के बाद किसी लेखक को जो पुरस्कार मिला वही पुरस्कार मात्र दो उपन्यास और बीस-पच्चीस कहानियों के लेखक ने भी पा लिया। पढ़ता-सुनता भी हूँ कि अब शायद ही कोई पुरस्कार निर्विवाद बचा है। इसलिए मैंने कभी पुरस्कार की अपेक्षा नहीं की। जो मिल गया उसे अंधे के हाथ बटेर की भांति बोनस समझा। मेरे लिए इतना ही पर्याप्त है कि चंद लोग मेरा लिखा पढ़ते और पसंद करते हैं। इत्ते सारे लेखकों की भीड़ में यदि इतना भी हो सका तो मुझ अलेखक के लिए यह सम्मान या पुरस्कार ही तो है!

  1.  उस प्रेरणा को बताएँ जो आपको लिखने के लिए प्रेरित करती है?

आपके दसवें प्रश्न के उत्तर में ही इस प्रश्न का उत्तर समाहित है। आपको बस "बल" की जगह "प्रेरणा" का उपयोग करना है, उत्तर मिल जाएगा कि मुझे अब कोई प्रेरणा लिखने को प्रेरित नहीं करती। चूँकि वर्षों का रियाज है तो "मांग और पूर्ति" के लिए कभी कुछ सायास लिखना पड़ता है।

  1.  क्या कारण है कि हिंदी साहित्य की गद्य विधा में आपने कथा साहित्य को लेखन कार्य के लिए चुना है?

यह प्रश्न तो आपको मुझसे पहले ही पूछना चाहिए था। बल्कि पहला-दूसरा सवाल ही यही होना चाहिए था। बहरहाल, गद्य इसलिए चुना क्योंकि मैं विज्ञान का छात्र था, जिसकी पद्य में गति बिल्कुल नहीं थी। कॉलेज में संस्कृत और हिंदी का रट्टा इसलिए लगाया जाता था ताकि तैंतीस नंबर जाँय और हर विषय में उत्तीर्ण की सनद मिल सके। साहित्य में आने के बाद मैंने पाया कि मेरा लेखन कविता के मुठ्ठी भर आसमान में नहीं समा सकता। मुझे बड़ा कैनवास चाहिए था। मुझे पूरा... असीम आकाश चाहिए था। अब रही बात कि मैंने "कथा-साहित्य" ही क्यों चुना तो इसका सीधा-साफ उत्तर है कि इसे मैंने नहीं चुना। कथा-साहित्य ने मुझे चुना है। कृपया खुद को संशोधित कर लें कि मैंने सिर्फ कथा-साहित्य ही नहीं लिखा। इसके अलावा भी मैंने गद्य में लिखा है जो वस्तुत: लिखने हेतु मैंने चुना है... समीक्षाएँ, टिप्पणियाँ, आलेख, रिपोर्ताज, संस्मरण। शायद मेरा यह लेखन आपकी दृष्टि से ओझल रह गया है।

  1.  कोई ऐसी बात जो अभी तक किसी साक्षात्कार में आपने साझा ना की हो?

मेरे जीवन और लेखन के बारे में आपके ही कुछ प्रश्न मौलिक और मेरे लिए नए हैं। ऐसी कोई बात मुझे फिलहाल याद नहीं रही जो पहले मेरे किसी साक्षात्कार में कहनी रह गई हो और कहना चाहता हूँ। आपके प्रश्नों के उत्तर देना मुझे अच्छा लगा। काफी कुछ व्यक्त करने का अवसर मिला।

  1.  आप आज के युवा पाठकों के लिए क्या संदेश देना चाहते हैं?

आज की युवा पीढ़ी में न्यूनतम निवेश कर अधिकतम अर्जन की सट्टाबाजारी मानसिकता दिखती है। ऐसे फेसबुकिया लेखन का अंबार लग रहा है। मैं यही कह सकता हूँ कि सट्टाबाजार के सूत्र, साहित्य में नहीं चलने वाले। बिना देना-पावना या पुरस्कार-सम्मान की चाह किए लिखना और लिखते रहना ही साहित्य की मूल प्रतिज्ञा है। फिर जल कभी कभी अपना तल स्वयं ढूंढ लेता है। एक वाक्य में कहूँ तो जो ससमर्पण रचेगा वही बचेगा, यह तय है।

 

मनीता यादव
शोधार्थी, हिंदी एवं आधुनिक भारतीय भाषा विभाग, इलाहाबाद विश्वविद्यालय इलाहाबाद
maneetayadav70462@gmail.com

शोध निर्देशक
प्रो. कुमार वीरेंद्र सिंह
हिंदी एवं आधुनिक भारतीय भाषा विभाग, इलाहाबाद विश्वविद्यालय, इलाहाबाद

चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक ई-पत्रिका 
  अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-52, अप्रैल-जून, 2024 UGC Care Listed Issue
सम्पादक-द्वय : माणिक-जितेन्द्र यादव चित्रांकन  भीम सिंह (इलाहाबाद विश्वविद्यालय)

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