साभार गूगल |
कंचनलता साही ने साही की किताब ‘जायसी’ की भूमिका लिखते हुए कहा था- “जायसी का महत्त्व जितना जायसी पर नई रोशनी डालने के कारण होगा, शायद उतना ही जायसी के बहाने साही पर नई रोशनी डालने के कारण भी हो।”1 यह बात सच है क्योंकि छठे दशक की तमाम विचारोत्तेजक बहसों के बाद साही जायसी तक पहुँचते हैं, उनको विकसित-व्याख्यायित करते हैं। नई कविता के दौर की अपनी तमाम बहसों से प्राप्त ऊर्जा का साही यहाँ निवेश करते हैं और इस क्रम में जायसी की पुनर्व्याख्या करते हैं। अपनी खास शैली में साही, जायसी के बारे में ‘दहाड़ती हुई चुप्पी’ का जिक्र करते हैं। अर्थात् रामचंद्र शुक्ल से पूर्व के साहित्य-जगत में कवि के नाम पर जायसी को भुला दिए जाने की चर्चा करते हैं। ऐसा क्यों हुआ? जवाब देते हुए साही कृति ‘पद्मावत’ पर लदे विचारधारा के बोझ, सूफीवाद की चर्चा करते हैं। उनके मुताबिक रचना के बाहर की विचारधारा रचना को नुकसान ही पहुँचाती है। उन्होंने लिखा- “...तसव्वुफ से अलग हटकर जायसी पर विचार करना असंभव हो गया, इस गलतफहमी के कारण न सिर्फ जायसी का वास्तविक कवि व्यक्तित्व, उनकी रचनात्मक प्रतिभा और एक हद तक उनकी अद्वितीय मौलिकता पर पर्दा पड़ गया है, बल्कि वे दोहरे अन्याय और उपेक्षा के शिकार भी हुए हैं।”2 बजाय इसके रचना के भीतर से, उसकी बनावट-बुनावट से कविता के मर्म को पकड़ा जा सकता है। उपर्युक्त पुस्तक इसी अवधारणा की उपज है। हजारीप्रसाद द्विवेदी के ‘कबीर’ के ढाँचे से मदद लेते हुए वे पहले जायसी के व्यक्तित्व को खोलते हैं और उन पर से सूफी फकीर आदि के लबादे उतार देते हैं। बचकर क्या निकलता है- “...एक सामान्य, किंतु भावप्रवण मनुष्य, दिल मिलाने वाले दोस्त और अत्यंत प्रतिभाशाली, कल्पनाशील और बौद्धिक कवि...” 3 अगर द्विवेदी जी के ‘कबीर’ से इस ‘जायसी’ की तुलना करें तो दोनों के व्यक्तित्व वर्णन में एक बड़ा अंतर दिखाई देगा। कबीर मध्यकाल में ही दिखाई देते हैं, जबकि जायसी की विशेषताएँ देख ऐसा लगता है कि साही के इर्द-गिर्द का परिमल का कोई कवि हो!
अब हम साही द्वारा किए गए नागमती वियोग वर्णन के विश्लेषण पर चर्चा करेंगे। सभी जानते हैं कि आचार्य शुक्ल ने नागमती के विरह वर्णन को पद्मावत के केंद्रीय मार्मिक स्थल के रूप में पहचाना था। शुक्ल जी ने इस विरह की विशिष्टता को काफी महत्त्व दिया। उन्होंने बताया कि नागमती के विरह की खासियत यह है कि वह अपना रानीपना भूल जाती है, या यूँ कहें कि जायसी खुद यह भूल जाते हैं कि नागमती एक रानी है। वे नागमती को सामान्य गृहिणी की तरह ही देखने लगते हैं और उसकी पीड़ा रानी की पीड़ा न रह कर सामान्य स्त्री की पीड़ा हो जाती है। ‘हौं बिन नाह, मंदिर को छावा’ के द्वारा शुक्ल जी ने इस बदलाव को बखूबी परखा है। उन्होंने लिखा था- “उन्होंने सामान्य हृदय-तत्त्व की सृष्टि-व्यापिनी भावना द्वारा मनुष्य और पशु-पक्षी सबको एक जीवन सूत्र में बद्ध देखा है।... नागमती की वियोग दशा का विस्तार केवल मनुष्य जाति तक ही नहीं, पशु-पक्षियों और पेड़-पौधों तक दिखाई पड़ता था।... नागमती विरह दशा में अपना रानीपन बिल्कुल भूल जाती है और अपने को साधारण स्त्री के रूप में देखती है।” 4
शुक्ल जी से सहमत होते हुए भी साही इस बारे में क्या सोचते हैं, यह देखना यहाँ जरूरी है। साही ने लिखा- “यह नागमती का विरह वर्णन ही था, जिसके कारण शुक्ल जी ने जायसी को गुमनामी से उठाकर हिंदी की त्रिवेणी में बिठा दिया। मैं बहुत विनम्रतापूर्वक शुक्ल जी के इस मूल्यांकन में अपनी आवाज मिलाना चाहता हूँ। परंतु नागमती का विरह वर्णन भावों का तीव्र और संगीतात्मक संप्रेषण मात्र ही नहीं है। वह हमारे आस्वादन में कुछ और अनुभूतियाँ भी जोड़ता है। पूरा विरह वर्णन, बारहमासे की शक्ल में, नागमती की वाणी के द्वारा रूप ग्रहण करता है। नागमती का पार्थिव शरीर और महल की सखियाँ शुरू की कुछ पंक्तियों में झीनी सी दिखलाई पड़ती हैं। अचानक कल्पना एक झटके से मुक्त हो जाती है और हमारा साक्षात्कार आवाज, सिर्फ आवाज से होने लगता है। धीरे-धीरे झीनी पार्थिवता भी केंचुल की तरह छूट जाती है। सारी पार्थिवता तिरोहित होने लगती है। सखियाँ पिघल कर तिरोहित हो जाती हैं। चित्तौड़ का किला, राजमहल सब तिरोहित हो जाता है, यहाँ तक कि नागमती का पार्थिव शरीर भी तिरोहित हो जाता है। वीरानों, जंगलों, वनखंडियों, पहाड़ों, गाँवों, खेतों में टीसती हुई एक साफ, लेकिन अशरीरी आवाज शेष रह जाती है। यह आवाज पूरे देश के, गुजरते हुए समय के मर्म में निरंतर तैरती रहती है। देश और काल, दोनों अनावश्यक आवरण की तरह टूट कर गिर जाते हैं- मर्म, केवल मर्म ही रह जाता है। ...इस आवाज में एक पारदर्शी निर्वैयक्तिकता है जो नागमती को भी पीछे छोड़ जाती है।” 5
निराला को याद करते हुए, जिन्होंने अपने ‘तुलसीदास’ के बारे में लिखा- ‘देश काल के सर से बिंधकर, वह जागा कवि अशेष छविधर’, साही की इस व्याख्या के निहितार्थों को और नजदीक से देखना चाहिए। साही शुरू में शुक्ल जी से सहमत होने की बात कहते हैं। इसका अर्थ यह हुआ कि वे नागमती के साधारण गृहिणी बन जाने और बड़ी पीड़ा के प्रतिनिधि चरित्र होने को स्वीकारते हैं। पर वे यही नहीं मानते। नागमती के विरह को वे धीरे-धीरे यथार्थ से काटना शुरू करते हैं। शुक्ल जी जहाँ जायसी के काव्य लोक का, खासकर नागमती वियोग वर्णन के संदर्भ में आधार तलाशते हैं, वहीं दूसरी तरफ साही उससे उसे मुक्त करने की कोशिश में लगे रहते हैं। साही पहले इस विरह को अपने आस-पास की दुनिया से अलग करते हैं, फिर देश-काल, परिस्थिति से और अंतत: खुद नागमती से भी इसे अलग कर देते हैं। गनीमत यह है कि वे इस क्रम को आगे नहीं बढ़ाते अन्यथा यह विरह जायसी से भी अलग हो जाता। तब क्या बचा? शुद्ध विरह या शुद्ध दुख या शुद्ध टीस। मर्म बच जाता है। तब प्रकट होती है निर्वैयक्तिकता और वह भी पारदर्शी। तब जाकर यह शुद्ध दुख इतिहास-लोक की आवाज बन पाने की हैसियत अर्जित कर पाता है। हैरानी की बात यह है कि तिसपर भी साही शुक्ल जी से सहमत होने का दावा किए जाते हैं।
तो क्या काव्य के मर्म तक पहुँचने के लिए हमें उसके आस-पास से सब कुछ, सारी हकीकी दुनिया को हटा देना चाहिए? नई कविता के केंद्र में चल रही बहसों में व्यक्ति के स्वातंत्र्य का सवाल प्रमुख था। प्रामाणिक अनुभव का जोर था और अज्ञेय के सृजन के ‘क्षण’ की थीसिस को आगे बढ़ाया जा रहा था। पर यहाँ तो साही नितांत वर्तमानता को भी कृति से दूर हटा कर देखने की वकालत करते हैं। समस्या यह है कि इस निर्वैयक्तिक मर्म को पाठक कैसे अनुभूत करे? ‘शुद्ध कविता’ के आस-पास पहुँचे इस मर्म को पाने के लिए पाठक अपने देश-काल से ही प्रयत्न कर सकता है। तब इस रचना वा आलोचना प्रक्रिया में वस्तु का क्या स्थान है? साही इस देशकाल युक्त विरह को देशकाल मुक्त बनाकर ही देशकाल में व्यापने वाला बना पाते हैं। इस पूरे उपक्रम की जरूरत क्या है?
इसी विषय पर विचार करते हुए मुक्तिबोध लिखते हैं कि- “जो फैंटेसी अनुभव की सारी व्यक्तिगत पीड़ा से पृथक होकर अर्थात् उससे तटस्थ होकर अनुभव के भीतर की ही संवेदनाओं द्वारा उत्सर्जित और प्रक्षेपित होगी, वह एक अर्थ में वैयक्तिक होते हुए भी दूसरे अर्थ में नितांत निर्वैयक्तिक होगी।” 6
मुक्तिबोध इसे सामान्यीकरण और प्रातिनिधिकता से जोड़ते हैं जबकि अज्ञेय और साही इसे व्यक्ति की मूल स्वतंत्रता से। दूसरे किसी भी काव्यानुभव को उसके कसकते दुखते मूलों से अलग कर देने के बाद ही मुक्तिबोध के अनुसार, फैंटेसी तैयार होती है, जहाँ सामान्यीकरण और प्रातिनिधिकता की आवश्यकता होती है। पर यह प्रक्रिया यहीं नहीं रुकती। कला के तीसरे क्षण के द्वंद्व इसे अमूर्त नहीं रहने देते। रचना-प्रक्रिया के भीतर की इस निर्वैयक्तिकता से अलग साही रचना को उसके सामाजिक परिवेश से काटकर ही निर्वैयक्तिकता के ऊँचे आसन पर बैठा पाते हैं।
प्रसंगत: साही जायसी के नागमती वियोग वर्णन को इसी कला दृष्टि के भीतर खींच ले आते हैं। इस तरह जायसी के काव्य का ‘मर्म’ आचार्य शुक्ल के ‘मार्मिक’ से अलग और विरोधी की भूमिका ले लेता है। ‘मार्मिक’ में निबद्ध देश काल, ‘मर्म’ बनते बनते गायब हो जाता है। शायद यही वजह है कि साही जायसी को आधुनिक कवि मानते हैं। तर्क यह कि वे आचार्य शुक्ल द्वारा खोजे जाने के बाद ही वे कवि हुए। साही के ही शब्दों में- “मैंने आरम्भ में कहा था कि जायसी ने लिखा चाहे सोलहवीं शताब्दी में हो, लेकिन उन्हें वस्तुत: आविष्कृत इस बीसवीं शताब्दी में आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने किया। इस अर्थ में वे बीसवीं शताब्दी के ही कवि हैं। लेकिन उनकी सृजनशीलता एक गहरे अर्थ में आधुनिक है।” 7
यह आधुनिकता क्या है? साही मध्यकालीन चौखटे से बाहर करके जायसी के कवि की पहचान करना चाहते हैं। वे बार-बार, जायसी को अन्य भक्त कवियों से अलगाते हुए जोर देकर कहते हैं कि जायसी कवि हैं, और कुछ नहीं। सूफीवाद का चढ़ा हुआ मुलम्मा उतारते हुए साही जायसी की इस खोज को आगे बढ़ाते हैं। वे कहते हैं कि जायसी का प्रस्थान बिंदु मनुष्य है। न कोई ईश्वर और न ही अध्यात्म- “उनकी चिंता का मुख्य ध्येय मनुष्य है- मनुष्य, जैसा कि वह सामान्य जिंदगी में उठता-बैठता है, सीखता है, प्रेम करता है, गृहस्थी चलाता है, युद्ध में वीरता और कायरता दिखाता है, राज्य स्थापित करता है, छल-कपट, बेईमानी और कमीनापन करता है, संप्रदाय स्थापित करता है, बटोर करने के लिए नारे लगाता है- और इस सबके बाद अपनी अपर्याप्तता की गहरी त्रासदी से ग्रस्त हो जाता है।”8 साही के लेखे इसी मनुष्य का चित्रण जायसी को आधुनिक बनाता है। यही उनकी बौद्धिक सघनता है, विचारधारा मुक्तता है।
यह थोड़ा आश्चर्यजनक लगता है कि इस पुस्तक में सूरदास का जिक्र सिरे से नहीं है जबकि कई-कई बार कबीर और तुलसी, जायसी की इस आधुनिकता के रंग को और गाढ़ा करने के लिए मौजूद हैं। कहीं ऐसा तो नहीं कि ऊपर जायसी को आधुनिक बनाने के जितने पैमाने दिए गए हैं वे सूर पर भी लागू होते हों! त्रासदी की बात छोड़ दें तो मनुष्य ही सूर की कविता के केंद्र में है, और गोपियों के विरह वर्णन की त्रासदी भी कोई कम तो नहीं। पर सूर के बारे में हम जानते हैं कि वे गोचारण काव्य के जमाने के हैं। तब क्या साही के आधुनिक की परिभाषा या लक्षण को और नजदीक से देखने की जरूरत है? प्रसंगत: ऊपर दी गई परिभाषा में आया मनुष्य ‘लघुमानव’ के काफी नजदीक दिखता है जिसके बारे में विस्तार से चिन्हित करते हुए मुक्तिबोध ने आजादी के बाद के मध्यवर्ग के भीतर के द्वंद्वों और दबावों को दिखाया था।
‘नई कविता और आधुनिक भावबोध’ नाम का मुक्तिबोध का निबंध इस आधुनिक की विस्तार से व्याख्या करता है। साही के ‘आधुनिक’ की पहचान हम वहाँ से करने की कोशिश कर सकते हैं। मुक्तिबोध ने लिखा- “आज सुशिक्षित मध्यवर्ग के लिए भारतीय परिस्थिति अनुकूल नहीं है।... पैसे की कीमत बढ़ गई है, आदमी की कीमत गिर गई है।... पश्चिमी जगत में प्रचलित सभ्यता समीक्षा... कहा गया कि मानव स्वभावत: क्षुद्र है, तुच्छ है, वह स्वभावत: स्वार्थ प्रेरित है.... मनुष्य मूलत: क्षुद्र है। अतएव दु:ख सनातन है। दु:ख से उबरने का कोई उपाय नहीं।” 9 अब यहीं जायसी के ‘त्रासद’ से मुक्तिबोध की इस व्याख्या का मिलान करिए। साही बार-बार जायसी के ट्रेजिक विजन की बात करते हैं, जहाँ अंत में कुछ नहीं, सिर्फ दु:ख बच जाता है। यही वह ‘मर्म’ है, जिसकी चर्चा ऊपर हुई है। इस तरह साही की अपने देशकाल की मध्यवर्गीय अवस्थिति की चिंताएँ ‘पद्मावत’ तक फैल जाती हैं। अन्यथा साही जैसा चुस्त आलोचक मध्यकालीन मनुष्य की व्याख्या के सिलसिले में इस तरह के वाक्यांश न लिखता कि वह ‘बटोर करने के लिए नारे लगाता है’। इसी क्रम में साही वैचारिक प्रतिबद्धता के बरक्स बौद्धिक सघनता को खड़ा करते हैं। बौद्धिक सघनता को परिभाषित करते हुए साही कहते हैं- “अप्रस्तुत अर्थ के समाहित हो जाने से प्रसंगगत अर्थ में तीव्रता, वैचारिक तरंगाकुलता और भावों के संश्लेष का समायोजन होता है। यही है वह विस्तृत होती हुई झंकार जिसे हम बौद्धिक सघनता कह सकते हैं।” 10 अब साही द्वारा बताई गई वैचारिक प्रतिबद्धता को भी समझ लिया जाए- “...[जब] अप्रस्तुत आध्यात्मिक अर्थ प्रधान हो जाएगा और कथा का ठोस भावात्मक संदर्भ गौण हो जाएगा। यह होगी विचारधारात्मक प्रतिबद्धता।” 11 साही अपने वक्त के बोध से जायसी को परख रहे थे, यह कहना एक बात है। दूसरी बात यह है कि साही अपने वक्त के बोध को कविता के प्रतिमान की तरह मध्यकाल पर भी लागू कर रहे थे। सत्यप्रकाश मिश्र ने लिखा- “मुझे लगता है कि जैसे टी.एस. इलियट, शेक्सपियर और दांते को देखता है और आलोचना को आलोचनात्मक क्षमता उत्पन्न करने के स्तर तक पहुँचता है वैसे ही साही तुलसी, कबीर और खुसरो आदि से जायसी की तुलना करके अपने प्रतिमानों का प्रमाण जायसी को सिद्ध करते हैं।” 12
यही काम मुक्तिबोध भी कर रहे थे। यह संयोग से कुछ अधिक ही है कि नई कविता की दोनों धाराओं, मार्क्सवाद और परिमल के सशक्त दो आलोचक अपने-अपने कानून बनाने फिर भक्तिकाल की ओर पहुँचे। मुक्तिबोध ने समूचे भक्तिकाल पर लिखा और साही ने जायसी पर, पर साही के मान समूचे भक्तिकाल पर लागू नहीं किए जा सकते। दूसरे नई कविता के प्रतिमानों से जायसी में अस्मिता आदि खोज निकालते हुए साही खुद का ही प्रत्याख्यान करते हैं। वर्तमान चेतना के पक्ष में लिखते हुए उन्होंने अतीतग्रस्तों पर आक्षेप करते हुए लिखा- “अतीत को इच्छानुसार बदलकर सामयिक स्थिति में प्रयुक्त कर लेने का लोभ छूटे नहीं छूटता। कौन है जो आज तुलसीदास की भावभूमि पर काव्य लिखना चाहेगा? लेकिन तुलसीदास की परंपरा में खड़े होने का दावा सबका है।” 13
अगर यह ‘कौन’ साही हैं तो क्या इस उद्धरण में तुलसी की जगह जायसी रखे जा सकते हैं?
साही ने अपने समय के समसामयिक विचारक को गुनते हुए लिखा- “ समसामयिक विचारक एवं कलाकार अंधकार से घिरा हुआ होता है, लेकिन साहस से परिपूर्ण- अनिश्चयशीलता में विवश होता है किंतु प्रयास में अपराजित, उत्तरहीन प्रश्नों से ग्रस्त होता है, पर झूठे उत्तरों का प्रतिरोधी, सांप्रतिक सत्य से सीमित होता है किंतु आडंबर का विरोधी, त्रासदी और दुख का अस्तित्त्व स्वीकार करता है, किंतु स्वतंत्रता का सैनिक होता है। उसका विवेक उसकी आस्था है, उसका संशय उसकी ईमानदारी है, उसका साहस उसके व्यक्तित्व की पूर्णता है और उसकी लघुता उसकी सार्थकता है।” 14 स्वाधीनता से भरे हुए इस कलाकार विचारक की और क्या पहचान है? मुक्तिबोध ने बहुत जोर देकर इस कलाकार की वर्गीय स्थिति की पहचान की थी। नेहरू युग और उसके आदर्शों के खंडित हो जाने की बेला में, अपनी सामाजिक-आर्थिक बदहाली से टूटे हुए, शीत युद्ध के चलते कम्युनिज्म को स्वाधीनता का हनन करने वाली तानाशाही मानने वाले इस निम्न मध्यवर्गीय प्रवृत्ति को वे नई कविता में जोर देकर अलगाते हैं। यह लघुमानव जनता की संगठितता और विराटता को महसूस नहीं कर पाता। यह आत्म और क्षण और नितांत समसामयिकता को कसौटी बनाता है। सारे अन्यायों से एक साथ लड़ने की उनकी आधारभूमि की असलियत तब खुलती है जब इस सिद्धांत को व्यवहार में बरता जाता है। उस स्तर पर सारे अन्यायों से एक साथ लड़ने का तात्पर्य है- किसी के साथ न लड़ना। अन्यायों से लड़ाई का आधार बहुसंख्य गरीब जनता की बजाय वैयक्तिक होने के कारण ही ऐसा होता है। साही की कबीरदास के प्रति लिखी गई बहुउद्धृत कविता में ‘फटकार कर सच बोलने’ की माँग की गई है। ऐसा सच, जिससे चाहे जिसे लाभ पहुँचे। यह सच किसके पक्ष में जाएगा, साही इसकी चिंता नहीं करने को कहते हैं। यह गैर जिम्मेदारी कहाँ से आती है? क्या सच कलाकार को गैर जिम्मेदारी बनाता है? दूसरे लोगों की जिंदगियों से दूर हटकर खोजा गया अपना सत्य कितना प्रामाणिक होगा। तीसरे अगर यह सच व्यक्तिनिष्ठ ही है तो फिर इसकी कोई परिभाषा संभव नहीं होगी, हर व्यक्ति का अपना सच होगा। यहाँ तक कि प्रगतिवादी या कम्युनिस्ट का भी। प्रसंगवश याद करना चाहिए कि साही के राजनैतिक गुरु डॉ. लोहिया ने भी भारतीय जनमानस की धार्मिकता के ‘सच को सामने रखा और जनता पार्टी सांप्रदायिक राजनीति के फंदे में फँस गई। मुक्तिबोध इस लघुमानव की पड़ताल इन शब्दों में करते हैं- “...यह तो स्पष्ट है कि ‘इस आधुनिक भावबोध में उन उत्पीड़नकारी शक्तियों का बोध शामिल नहीं है जिन्हें हम शोषण कहते हैं, पूँजीवाद कहते हैं, साम्राज्यवाद कहते हैं तथा उन संघर्षकारी शक्तियों का बोध भी शामिल नहीं है, जिन्हें हम जनता कहते हैं, शोषित वर्ग कहते हैं... संक्षेप में भारत की शिक्षित मध्यवर्गीय जनता में जो भाव संवेदनाएँ प्रगतिशील राजनैतिक अर्थ रखती हैं, उनका ‘आधुनिक भावबोध में कोई स्थान नहीं। हम तो केवल ‘लघु मानव हैं, साधारण जनता नहीं। साधारण जनता में विश्व-परिवर्तन की अदम्य क्रान्तिकारी शक्ति होती है। लेकिन उन नीति नियामकों के लेखे, वह भीड़ की अंधी ताकत है। वास्तविक चेतना तो व्यक्ति के अपने आभ्यंतर की समृद्धि है। तो इसलिए व्यक्तित्व की इकाई महत्त्वपूर्ण है। यह इकाई ‘लघु मानव' है, क्योंकि अब यह इकाई महान आदर्शों के उच्चतर स्तर की प्राप्ति के पीड़ाजनक भीषण प्रयत्नों में संलग्न नहीं है, न हो सकती है। महान आत्माओं, महान प्रतिभाशालियों, महामानवों का युग गया। ...हम जन साधारण हो जाएँ तो वामपंथी मनोवृत्तियों के शिकार होकर, भीड़ की अंधी ताकत बनते हुए अपनी इयत्ता खो देंगे। इसलिए हमको जन साधारण से लघुमानव बन जाना चाहिए।” 15
साही के उस लेख की याद करें, जहाँ वे कम्युनिज़्म और ईसाइयत को जोड़ते हुए उनकी आलोचना इन शब्दों में करते हैं- “यही वह भविष्य की वेदी है जिस पर वर्तमान का बलिदान किया जाता है।” 16 व्यक्ति स्वातंत्र्य के आधार पर साही ईसाइयत और कम्युनिज़्म दोनों में, रेजीमेंटेशन देखते हैं। उनके मुताबिक दोनों सुदूर कल्पित भविष्य के लिए मनुष्य के स्वातंत्र्य का हनन करते हैं। मुक्तिबोध अपने उपरोक्त लेख में इस पर तंज करते हुए लिखते हैं- “व्यक्ति स्वातंत्र्य एक पुनीत सिद्धांत है [चाहे उसमें लूट-खसोट, अनाचार, भ्रष्टाचार,स्वार्थ, चरित्रहीनता, धन का प्रभुत्व, शोषण क्यों न चलता हो! यदि समाज में बुराइयाँ हैं तो धीरे-धीरे ही दूर होंगी। लोग हैं कि जो अपने लघुत्व के कारण इस स्वातंत्र्य से डरते हैं। वे कलाकार हीन हैं जो बाह्यानुरोध स्वीकार करते हैं। मनुष्य की परम चेतन अंतरात्मा पर जोर डालने वाली, और उसे गुलाम बनाने वाली, यह साम्यवादी पार्टी रेजीमेंटेशन करती है।... वे कुछ बुद्धिजीवी और वह कुछ जनता इतनी बेवकूफ है कि उनके बहकावे में आ जाती है। वह विदेशी प्रभाव भारत में लाती है, लोगों के दिमागों को गुलाम बना लेती है [पश्चिमी प्रभाव भारतीय प्रभाव है, अमरीकी नीति नियमन वस्तुत: भारतीय है। अन्तर्राष्ट्रीय साम्यवाद भारत का शत्रु है, अन्तर्राष्ट्रीय पूँजीवाद और साम्राज्यवाद भारत का सगा भाई है!” 17यहाँ मुक्तिबोध के दिमाग में नई कविता की वह पूरी धारा है जो अज्ञेय से शुरू होकर साही और अन्य परिमल आलोचकों में परवान चढ़ी। नितांत वर्तमानता का सैद्धांतिकीकरण भी इसी की कड़ी है।
प्रसंगत: फिर साही की कृति आधारित आलोचना की ओर लौटें। साही दो भुजाओं के बीच स्थित ‘सामंजस्य के अपने सिद्धांत के आधार पर पद्मावत की व्याख्या करते हुए ‘सिंहल द्वीप’ और ‘चित्तौड़गढ़’ के बीच ‘पद्मावती’ को चटख रंगों में उभार देते हैं।18 ऐसे ही छोर वे शमशेर की काव्यानुभूति को तलाशते हुए पकड़ते हैं। सिंहल द्वीप और चित्तौड़ का द्वंद्व शमशेर के विश्लेषण में मार्क्सवाद और अतियथार्थवाद के द्वंद्व में बदल जाता है। 19 साही मानते हैं कि कालातीत होने की मनुष्य की इच्छा एक यूटोपिया की तरफ उसे खींचती है। शमशेर के मामले में यूटोपिया भविष्य की वेदी पर वर्तमान की बलि नहीं चढ़ाती बल्कि अतीत और भविष्य, दोनों का समसामयिकीकरण कर देती है। तब ऐसे में साही के मुताबिक इस द्वंद्व में एक त्रासदी का जन्म होता है, जो काव्य का मर्म है। यह काव्य मर्म जायसी, शमशेर और मलार्मे, सबमें मौजूद है। आशुतोष कुमार ने इस पर टिप्पणी करते हुए इस आलोचना की प्रामाणिकता पर इन शब्दों में प्रश्न उठाया है- “कविता में निहित विश्वदृष्टि की खोज करना एक बात है। यह विश्वदृष्टि समूची कविता नहीं होती।... मुक्तिबोध की जुबान में कहें तो वह कविता में निहित ‘ज्ञानात्मक संवेदना और संवेदनात्मक ज्ञान है। साही इसे ‘बौद्धिक सघनता कहना चाहें तो कोई उज्र नहीं। लेकिन हर बार उसे मनुष्य की अस्तित्त्वमूलक विडंबना के रूप में ही देखना, जो आधुनिकतावादी संत्रास का ही एक दूसरा नाम है, कितनी प्रामाणिक आलोचना है?”20 पीछे हम मुक्तिबोध द्वारा किए गए इस प्रवृत्ति के वर्गाधारों का विश्लेषण देख आए हैं। यहाँ फिर उसे दोहराने का कोई लाभ नहीं।
साही की इस दृष्टि के पीछे के तनावों को समझने की कोशिश करते हुए हम इस संदर्भ के अंत तक पहुँचने का यत्न करेंगे। पहली बात तत्कालीन परिस्थिति में निहित है। उसी समय के अन्य दो आलोचकों, मुक्तिबोध और नामवर सिंह के आलोचनाकर्म की पड़ताल करते हुए हमने देखा था कि शीत युद्ध के प्रभाव उनके कैनन निर्माण पर पड़े। अर्थात हिंदी आलोचना में रूपवादी धारा और वस्तुवादी धारा के बीच बहस बढ़ चली। ऐसा इनमें से कोई शायद ही मानता हो कि विरोधी धारा में कोई तत्त्व नहीं है। आलोचकों के सामने चुनौती थी कि विरोधी के सिद्धांतों से सीखते हुए और उसकी कमजोरियों पर प्रहार करते हुए कैसे आलोचना को विकसित करें। और निश्चय ही यह करते हुए न अपना आधार छोड़ें और न ही विरोधी विचार को छूट दें। साही भी इसी आधारभूमि पर खड़े हैं। दूसरी बात भी अवस्थिति से ही जुड़ी हुई है। भारतीयता की खोज औपनिवेशिकता से छूटने के लिए जरूरी थी। इस भारतीयता की खोज और आधुनिकता के रिश्ते कभी सीधे-सीधे न रहे। लोहिया, और ठीक इसी तरह साही के सामने भारतीयता की खोज का सवाल दरपेश था। लोहिया यह खोज करते हुए राम, कृष्ण और शिव तक पहुँचे। अपने तरह की आधुनिकता की खोज में ही लोहिया मिथकों की पुनर्परिभाषा तक गए और साही जायसी तक। आशुतोष कुमार ने इसे रेखांकित किया- “सवाल यह था कि परंपरा को छेड़े बगैर, उसे प्रश्नांकित किए बगैर कोई आधुनिक हो तो कैसे हो। और अगर आधुनिक हुए बगैर न रह सके तो फिर वह अपनी भारतीयता का क्या करे, जिसे भूल जाना, छोड़ देना या नजरअंदाज़ कर जाना नामुमकिन था? औपनिवेशिक विरासत से पीछा छुड़ाने की विकलता भारतीयता को पश्चिम के निषेध के रूप में ही परिभाषित कर सकती है। आधुनिकता भी अगर पश्चिम की है तो हमें उसकी जरूरत नहीं। हमें एक अलग अपनी आधुनिकता खोजनी है। इतिहास की अवधारणा, प्रगति का विचार- यह सब भी पश्चिम का ही चिंतन है। पश्चिम के पास काल की एक खास अवधारणा है- एकरेखीय अवधारणा है।” 21 ‘मार्क्सवादी आलोचना की कम्युनिस्ट परिणतियाँ’ में साही इसी बिंदु से आलोचना में आगे बढ़ते हैं। मार्क्सवादी आलोचना के प्रतिपक्ष में यह बिंदु आगे निर्मल वर्मा के चिंतन में विकसित हुआ।
संदर्भ:
1.
जायसी,
विजयदेव नारायण साही, हिंदुस्तानी एकेडमी,
1983 की
भूमिका
2.
जायसी,
विजयदेव नारायण साही, हिंदुस्तानी एकेडमी,
पृष्ठः 23
3.
वही,
पृष्ठः 22
4.
रामचंद्र शुक्ल
संचयन, भूमिका एवं
चयन- नामवर सिंह,
साहित्य अकादेमी, द्वितीय संस्करण, 1998, पृष्ठः 122-25
5.
वही,
पृष्ठः 111
6.
मुक्तिबोध रचनावली, खंड-4, संपादकः नेमिचंद्र जैन,
राजकमल प्रकाशन, 1980, पृष्ठः 85
7.
जायसी,
विजयदेव नारायण साही, हिंदुस्तानी एकेडमी,
1983, पृष्ठः
106
8.
वही,
पृष्ठः 62
9.
मुक्तिबोध रचनावली, खंड-5, संपादकः नेमिचंद्र जैन,
राजकमल प्रकाशन, 1986, पृष्ठः 307
10. जायसी, विजयदेव नारायण
साही, हिंदुस्तानी एकेडमी,
1983, पृष्ठः
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11. वही, पृष्ठः 70
12. आलोचक और समीक्षाएं, सत्य
प्रकाश मिश्र, विभा
प्रकाशन, 1993, पृष्ठः 61
13. नितांत समसामयिकता का
नैतिक दायित्व-1, छठवां
दशक, विजयदेव नारायण
साही, हिंदुस्तानी एकेडमी,
2007, पृष्ठः
146
14. नितांत समसामयिकता का
नैतिक दायित्व-2, वही,
पृष्ठः 163
15. मुक्तिबोध रचनावली, खंड-5,
संपादकः नेमिचंद्र जैन, राजकमल प्रकाशन, 1986, पृष्ठः 326
16. नितांत समसामयिकता का
नैतिक दायित्व-2, छठवां
दशक, विजयदेव नारायण
साही, हिंदुस्तानी एकेडमी,
2007, पृष्ठः
161
17. मुक्तिबोध रचनावली, खंड-5,
संपादकः नेमिचंद्र जैन, राजकमल प्रकाशन, 1986, पृष्ठः 326
18. देखिए ‘पद्मावत का
विश्लेषण’ नामक अध्याय, जायसी,
विजयदेव नारायण साही, हिंदुस्तानी एकेडमी,
1983, पृष्ठः80-112
19. देखिए ‘शमशेर की
काव्यानुभूति की बनावट’ शीर्षक
लेख, छठवां दशक,
विजयदेव नारायण साही, हिंदुस्तानी एकेडमी,
2007, पृष्ठः
194-219
20. समकालीन कविता और मार्क्सवाद, आशुतोष कुमार, हिंदी विभाग, अ.मु.वि., 2009, पृष्ठः 140
21. वही, पृष्ठः 136
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