शोध आलेख : मध्यकालीन मुस्लिम कवियों के काव्य में फाग परंपरा / अनुज कुमार शर्मा

मध्यकालीन मुस्लिम कवियों के काव्य में फाग परंपरा
- अनुज कुमार शर्मा



शोध सार : आज जब सांप्रदायिकता अपने चरम-स्तर पर है। धर्म के नाम पर सब चीजों का बंटवारा हो रहा है तब हम पाते हैं ि त्यौहार हमारे समाज में सांप्रदायिक सद्भावना को बढ़ाते हैं भारत में अलग-अलग समुदायों के कुछ विशेष त्यौहार हैं लेकिन इन त्यौहारों को सारे समाज मिलजुल कर हर्षोल्लास के साथ मनाते हैं। यही हमारी अनेकता में एकता की भावना है। लेकिन होली के त्यौहार के संदर्भ में यह बात बढ़-चढ़कर दिखाई देती है। होली के त्यौहार में प्राचीन काल से ही मुग़ल बादशाहों तक ने भाग लिया है। मुसलमान कवियों ने होली का जो वर्णन अपने काव्य में किया है उसके सामने हिंदू कवि भी पीछे छूट जाते हैं। इस आलेख के माध्यम से यह दिखाने का प्रयास किया गया है कि होली सिर्फ हिंदुओं का त्यौहार नहीं और होली का वर्णन सिर्फ हिंदू कवियों ने नहीं किया है बल्कि होली  का त्यौहार सभी धर्म के लोगों के द्वारा मनाया जाता है। साथ ही इस शोध आलेख से हम होली के विभिन्न पक्षों को जान पाएंगे।

बीज शब्द धार्मिक-रहस्यवादसंस्कृतिऔगुन कृत्य, सांप्रदायिकता, गारी गायन, धमार, बानगी आदि।

मूल आलेख आम-तौर पर भारत देश में तीन प्रकार के त्यौहार मनाए जाते हैं। राष्ट्रीय त्यौहार जैसे गांधी जयंती, स्वतंत्रता दिवस, गणतंत्र दिवस, प्रतिष्ठित लोगों एवं घटनाओं के सम्मान में मनाए जाते हैं। धार्मिक त्यौहार जैसे होली, दीपावली, दशहरा आस्थाओं और उनकी मान्यताओं की किवदंतियों का पालन करते हैं। मौसमी त्यौहार हर मौसम के साथ मनाए जाते हैं, जो क्षेत्र से क्षेत्र में भिन्न होता है। भारत देश में तीनों ही प्रकार के त्यौहार पूरे उत्साह के साथ मनाए जाते हैं। यह त्यौहार हमारे अंदर आदर्श स्थापित करते हैं। सत्य, न्याय, परोपकार, दया आदि गुणों का समावेश हमारे अंदर इन त्यौहारों के माध्यम से होता है। जब कोई भी त्यौहार आता है तो हमारे अंदर रस की धारा फूट पड़ती है-

हुलस रहा माटी का कण-कण, उमड़ रही रस धार है।
त्यौहारों का देश हमारा, हमको इससे प्यार है।
आजादी के दिवस तिरंगा, घर घर लहराता है।
वीर शहीदों की गाथाएं, हमको याद दिलाता है।
आता है हर वर्ष दशहरा, होते खेल तमाशे हैं।
दीपावली पर दीप दान, फुलझडियां खील बताशे हैं।
होली में डफ, ढोल, मंजीरे, रंगों की बौछार है।
त्यौहारों का देश हमारा, हमको इससे प्यार है।[i]

            भारत वर्ष त्यौहारों की भूमि है। भारत वर्ष में प्रत्येक तीसरे दिन कोई ना कोई त्यौहार होता है। भिन्न भिन्न ऋतुओं के अनुसार पर्वों तथा त्यौहारों का आगमन होता है। फाल्गुन में जब सरसराती बयार शरीर में स्पंदन करती है तब मन में मस्ती की लहर उठने लगती है। होली का त्यौहार इसी फाल्गुन मास की पूर्णिमा को मनाया जाता है। जनश्रुति के अनुसार होली वर्ष का चतुर्थ पर्व है। रंग की फुहारें एवम् गुलाल के बादल चारों ओर मादक वातावरण बना देते हैंकभी जब भारत में वर्ण व्यवस्था थी तब चारों वर्णों के चार विशेष त्यौहार निश्चित किए गए थे। ब्राह्मणों की श्रावणी (रक्षाबंधन), क्षत्रियों का दशहरा, वैश्यों की दीपावली, तथा शूद्रों की होली।[ii] लेकिन अब सैकड़ों वर्षों से होली का पर्व सार्वजनिक रुप से मनाया जाता है। यह किसी वर्ण का त्यौहार नहीं अपितु समस्त धर्मों, लोक का त्यौहार है। क्या हिंदू, क्या मुसलमान सभी इस पर्व की मस्ती में मगन हो जाते हैं। भविष्योत्तर पुराण में लिखा है कि- “ढूंढा नामक राक्षसी के उपद्रव को शांत करने के लिए शीतकाल की समाप्ती पर फागुन शुक्ला पूर्णिमा के प्रदोष काल में सब लोग निर्भय होकर, निःशक होकर  हंसे, खेलें, रंग बिरंगे वस्त्र पहिनकर चंदन, गुलाल अबीर लगाकर और पान खाकर सब एक दूसरे पर पिचकारियों से रंग छिड़कें, परस्पर गाली देते हुए सब लोग हास्य विनोद करें तथा स्त्रियाँ नृत्य करें। फिर स्वच्छन्द और निःशंक रूप से सब हो हल्ला मचायें। इस प्रकार शब्द करने से उस राक्षसी के भय का निराकरण होता है तथा सब पाप नष्ट हो जाते हैं।[iii]

            होली जलाने से पूर्व ढूंढा नामक राक्षसी के नाम की तथा उसके समस्त उपद्रवों को शांत करने की निम्न श्लोक द्वारा प्रार्थना की जाती है-

 ‘‘होलिके ‘‘’’ नमस्तुभ्यं ढूंढा तेजो विमर्दिनी
सर्वोपद्रव शान्तपर्थ गृहाणाय नमोस्तुते॥’’[iv]                              

            होली धार्मिक रहस्यवाद के मिश्रण की प्रणीति करता है जिसमें भगवान की रट लगाने वाले भक्त प्रहलाद को भगवान की कृपा का साक्षात्कार हुआ तथा होलिका अग्नि में जलकर भस्म हो गई। इसीलिए भी यह एक धार्मिक पर्व है। प्रहलाद भगवान का भक्त था इसलिए उसको अनेकों प्रताड़नाएं, कष्ट दिए गए किंतु उस पर ईश्वर की कृपा थी कि इन सब का असर पड़ा। उसकी स्मृति में होली का पर्व मनाया जाता है।

            होली एक पौराणिक पर्व है। अनेक पुराणों और ग्रंथों में होली मनाए जाने का उल्लेख मिलता है। संस्कृत साहित्य में वात्स्यायन कृतकामसूत्रतथाहर्षकृतरत्नावलीऐसे ग्रंथ है जिनमें होलिकोत्सव का बड़ा सजीव वर्णन देखने को मिलता है। कामसूत्र तथा रत्नावली के अतिरिक्त यशोवर्णन के दरवारी कवि भवभूति कृत मालती माधव में भी होली मनाए जाने का प्रमाण मिलता है। हजारी प्रसाद द्विवेदी इसकी प्राचीनता का उल्लेख करते हुए कहते हैं— “प्राचीन काल में आरंभ में यह पर्व धार्मिक यज्ञ के रूप में मनाया जाता था।[v]

            इसका रूप अन्य देशों की परम्परा में भी देखा जाता है क्योंकि यह प्रकृति के आनन्द का खेल है, मनुष्य जाति के रागात्मक उल्लास का क्रिया-व्यापार है। रोम में यह पर्वफेस्टम स्टुलटोर्मसके रूप में मार्च माह में परम्परागत रूप में मनाया जाता रहा है। इस उत्सव में होली जैसी धूमधाम वहाँ तीन दिन तक रहती थी। रोम के युवक तीन दिन तक उन्मत्ता होकर, रंग-बिरंगे कपड़े पहनकर अथवा कुछ नंगे होकर मार्ग में, मन्दिरों में तथा नदियों के घाटों पर नाचते-गाते फिरते थे। साथ ही वे सभी से परिहासजनक वार्तालाप करते थे। जर्मनी में भी यह उत्सव मनाया जाता था। जर्मनी के प्रसिद्ध इतिहासवेता जे.बी. आबेनस ने लिखा है- सभी जर्मनी पान, भोजन और रसरंग में अपने को भूल जाते थे। वे सोचते थे कि आज के दिन जैसा फिर कभी नहीं आयेगा। अधिवासी लोग मुँह पर नकाब लगाकर, दमवेश बनाकर, शरीर को लाल और काले रंगों से रंगकर इधर-उधर नंगे घूमते फिरते थे।[vi]

            लेकिन ब्रज की होली सारे विश्व में अपना अलग महत्व स्थापित किए हुए है। ब्रज में होली का पर्व बसंत पंचमी को प्रारंभ हो जाता है। बसंत पंचमी के दिन में बृजवासी पीले पुष्प, पीले पेड़ों, पीले रंगों से जहां वसंत ऋतुराज का स्वागत करते हैं वही दूसरी ओर तभी से उनके हृदय में फाग की फगुनोरी समा जाती है और पूरे वातावरण में होरी की धूम संगीत के वातावरण से प्रारंभ हो जाती है। होली पर रंग फेंकना, होली जलाना, रंग गुलाल, पिचकारी, गायन-वादन, नृत्य, संगीत, हँसी, मजाक, ठिठोली, मादक द्रव्यों का सेवन सर्वत्र देखने को मिलता है। प्राचीन काल से ही क्या हिंदू, क्या मुसलमान सभी इस पर्व को उल्लास के साथ मनाते चले आए हैं।मुगल बादशाह के शासन में तो होली बड़े धूमधाम से मनाई जाती थी। उसमे स्वयं बादशाह अपनी अपनी बेगमों के साथ भाग लेते थे।[vii]

            इससे यह स्पष्ट होता है कि यह त्यौहार हिंदुओं में ही नहीं बल्कि मुस्लिम संप्रदाय के लोगों में भी प्रिय रहा है। समाज में सभी संप्रदायों के लोग इस पर्व को बड़ी श्र‌द्धा से तथा मिलजुलकर मनाते हैं। अपनी मस्ती, स्वच्छंदता, मादकता, लालित्य तथा आह्लाद के कारण होली का त्यौहार विजातीय लोगों को भी बहुत पसंद आया। जाने कितने मुसलमान कवियों ने होली का वर्णन अपनी रचनाओं में किया है। रस की खान कवि रसखान ने फाल्गुन के महीने, रसिक सलौने रिझवार श्री कृष्ण के द्वारा अनेकऔगुन कृत्यकरने का बडा ही चित्ताकर्षक वर्णन किया है :

‘‘आई खेलि होरी ब्रजगोरी वा किसोरी संग
अंग अंग रंगनि अनंग सरसाइगो।
कुंकुम की मार वा पै रंगनि उछार उड़ै
बुक्का और गुलाल लाल लाल तरसाइगो।
छोड़ै पिचकारिन धमारिल बिगोइ छोड़ै
तोड़ें हियहार धार रंग बरसाइगो।
रसिक सलोनो रिझवार रसखानि आज
फागुन में औगुन अनेक दरसाइगो॥’’[viii]

            भारत में हमारी संस्कृति और साहित्य के सबसे सुंदर फूल तब खिले जब बाहर की कोई धारा आकर हमारी संस्कृति और हमारे भाव से मिली। जब आर्य-अनार्य संस्कृतियां आपस में मिली तो हमने वैदिक साहित्य और दो बड़े महाकाव्य रामायण एवं महाभारत की रचना की। आभीर आए तो हमारी कविता में ईह लौकिकता की वृद्धि हुई और श्रृंगार ने एक नया रंग पकड़ा जिसका प्रमाण हाल की गाथा सप्तशती है। जब मुसलमान आए तो यहां भाषा काव्य का विकास हुआ और उन्होंने हमारी संस्कृति के रंग में रंगकर ऐसी भक्ति की कि आज भी उनको याद किया जाता है। सिर्फ भक्ति ही नहीं, श्रृंगार और रहस्यवाद की कविताओं में एक नई तड़प पैदा हुई और जब ईसाइयत यहां पहुंची तो हमने छायावाद की सृष्टि की। हालांकि संस्कृतियों के टकराव से जन-जन को हानि पहुंची, मुगलों ने जो अत्याचार किए वह सर्वज्ञात हैं। लेकिन फिर भी हमारी संस्कृति से प्रभावित कुछ मुसलमान ऐसे भी हुए जिन्होंने भारतीय संस्कृति को अपनाया ही नहीं बल्कि उसे अपनी रचनाओं में समाया और भारतीय संस्कृति को आगे की पीढ़ी तक पहुंचाने का कार्य किया।

            हमारे त्यौहार हमारी संस्कृति के वाहक हैं। भारतीय समाज में उत्सव-धर्मिता कण-कण में विद्यमान है। किसान मजदूरी करते समय भी लोकगीत गाता है। जब होली का त्यौहार आता है तो क्या बूढ़ा, क्या जवान, क्या स्त्री, क्या पुरुष सभी होली के रंग में मस्त हो जाते हैं-

‘‘कैसी ये देस निगोरा
जगत में होरी या ब्रज होरा
का बूढ़े का लोग लुगाई
एक तें एक ठिठोरा।’’[ix]

            इसी प्रकार जब मुसलमान लोग भी इस त्यौहार से परिचित हुए तो वे भी इससे प्रभावित होकर, होरी के खिलैया भगवान श्री कृष्ण की भक्ति में डूबकर, फाग की मस्ती में मस्त होकर इस त्यौहार को अपनी रचनाओं में स्थान दिया। शाहनवाज शैदा लिखते हैं -

‘‘लगे गुलशन पे अजबल जम के होली।
जमे पुरनूर कुल मेंहदी के फूली।।’’[x]

            होली का त्यौहार मस्ती एवं उल्लास का त्यौहार है। इस त्यौहार पर सभी लोग मस्त होकर एक दूसरे पर रंग, गुलाल फेंकते हैं। मदमस्त होकर नाचते गाते हैं। इसी उल्लास के साथ मदमस्त होकर होली खेलने वाली गोपिकाओं का वर्णन करते हुए रसखान कहते हैं कि सुहागिनें (गोपिकाएं) आनंद के साथ होली खेलती हुई, पिचकारी में रंग भरकर मारती हैं। वे इस प्रकार एक दूसरे पर गुलाल डाल रही हैं कि उन्होंने हरि के मन को हर लिया है।

‘‘खेलत फाग सुहाग भरी, अनुरागहि लालन को धरि कै।
मारत कुंकुम केसरि के पिचकारिन में रंग को भरि कै।
गेरत लाल गुलाल लली मनमोहिनी मौज मिटा करि कै
जात चली रसखान अली मदमस्त मनों मन को हरि कै।।’’[xi]

            ब्रज में होली केवल खेली और गायी ही नहीं जाती अपितु इसकी साहित्य सृजन की परंपराओं ने इसे अंतरराष्ट्रीय पहचान दिलाई है। होरी के दौरान गारी गायन इस परंपरा की अपनी विशिष्टता है। इस सन्दर्भ में रहीमदास  लिखते हैं -   

 ‘‘भाटा बरन सुकोंजरी, बेचै सोवा साग
निलजु भई खेलत सदा, गारी दै फाग।।’’[xii]

            बसंत ऋतु के आगमन पर प्रकृति आकर्षक हो जाती है तथा फसल पकने से ग्रामीण समाज में खुशी की लहर दौड़ रही होती है। फाल्गुन की मस्त बयार चलते ही सारे ब्रज में होली की मस्ती का आलम शुरू हो जाता है। बम्ब नगाड़े ब्रज के गांव-गांव में निकलकर घूमने लगते हैं। लोग अबीर, गुलाल लिए एक दूसरे पर फेंकते हैं। इसी होरी पर्व से प्रभावित होकर श्री कृष्ण की भक्ति में डूब कर शाह तुराब अली कलंदर श्री कृष्ण के होली खेलने का वर्णन करते हुए कहते हैं कि ब्रज में फागुन लगते ही होली की धूम मची हुई है। लोग पिचकारी में रंग भरकर एक-दूसरे पर फेंक रहे हैं। श्री कृष्ण इस प्रकार होली खेल रहे हैं कि स्वयं तो बचे हुए हैं और दूसरों को रंग देते हैं:

‘‘आयो बसंत मयी मतवारी, उमग चली सब बारी कुवारी।
कोई अबीर लिए भर झोरी, कोई बनाय रही पिचकारी।
लाल गुलाल लगाए मुख पर, रंग से भीजी चूनर मारी।
अबही ही सो ब्रज में धूम मची है होरी खेलत है श्याम बिहारी।
आप बचो रहे सब का रंग है तुराब अस चतुर खिलारी।’’[xiii]

            होली का त्यौहार प्रेम का त्यौहार है। यह पति-पत्नी, प्रेमी-प्रेमिका के बीच खेले जाने वाला त्यौहार है। राधा तथा कृष्ण इसके प्रतीक हैं। ब्रज में आज भी बरसाने की गोपिका तथा नंदग्राम के हुरियारों के बीच होली खेली जाती है। यकरंग श्री कृष्ण को अपना प्रियतम मानकर स्वयं उनकी प्रेयसी होकर अपने प्रियतम, आराध्य श्री कृष्ण को होली खेलने के लिए आमंत्रित करते हैं। वे लिखते हैं-

यकरंगपिय से जाय कहो कोई हर घर रंग मचोरी।
सुर नर मुनि सब फाग खेलत हैं अपनी अपनी आरी।।
खबर कोई लेत मोरी।।[xiv]

            होली पर चांचर, लावनी, ख्याल, चौबोला, तान, सपरी नौटंकी, गाँवों से लेकर शहरों तक इन शैलियों को गाते हैं और साथ में ढप, ढोल, मृदंग, चंग, ढ़ोलक, नगाडे, बीन, तुरई आदि बजाते हैं तथा नृत्य संगीत का आयोजन होता है। मोहम्मद शाह अपनी रचना में होरी की इसी विशेषता को स्थान देते हुए लिखते हैं कि-

‘‘अहो धुन धुकार डफ मृदंग बजत हैं, बिच मुरली घन घोरी।
चोबा चंदन और अरगजा, केसर रंग में बोरी॥
यक गावत यक बीन बजाबत, अबिर गुलाल लिये भर झोरी।
सदारंग बरसत गोकुल में खेलत नंद किशोरी॥’’[xv]

            शुरूआती दौर में आक्रमण करके आए मुगलों में जो कवि थे उन्होंने गुलो-बुलबुल, शमा परवाना, शीशी फरहाद, कैस-लैला की दास्तानें दुहराई लेकिन फिर एक समय पश्चात् उनके काव्य में हिन्दू आदर्श और हिन्दू रीति-रिवाज गए। इसका एक कारण यह भी हो सकता है कि वह हमारे समाज में घुल-मिल गए और दूसरा महत्त्वपूर्ण कारण है कि उन्होंने हमारी भारतीय संस्कृति को अपनाया। मुस्लिम भक्त कवि भी इसी तरह की ही रचनाएँ करते हैं। होली जो कि हिन्दू धर्म में विशेष त्यौहार है और इसकी यह विशेषता है कि हम एक-दूसरे को गुलाल लगाकर सभी तरह से गलतफहमियों को दूर करके प्रेम के रंग में रंग जाते हैं। इसका वर्णन करते हुए रसलीन होली के त्यौहार का वर्णन करते हुए कहते हैं -

‘‘फाग समय रसलीन बिचारि लला पिचकी तिय आवत लीनें।
आइ जबै दिढ़ ह्वै निकसी तब औचक चोट उरोजन कीनें।
लागत धाप दोऊ कुच में सतराइ चितै उन बाल नवीनें।
झटका दै तोर चटाक दै माल छटाक दै लाल के गाल में दीनें॥’’[xvi]

            मुस्लिम कवियों में होली का सर्वाधिक वर्णन रसखान ने किया है। रसखान ब्रज-मंडल के कण-कण में बस जाना चाहते हैं। खग, पत्थर, पशु आदि के रूप में ब्रज में बसना चाहते हैं। ब्रज की होली भी उनके लिए अलग स्थान रखती है।

            होली में ब्रज मंडल में अलग ही उल्लास का वातावरण बन जाता है। रसखान इस मादकीय वातावरण का वर्णन करते हुए कहते हैं कि फाल्गुन के महीने में सारे ब्रजमंडल में धूम मची हुई है। कोई भी युवती इस धूमधाम से नहीं बची है तथा सब ने विशेष प्रकार का प्रेम रस पी लिया है। प्रातः और सांय आनंद सागर कृष्ण लाल गुलाल लेकर फाग का खेल खेलते रहते हैं। इस फाल्गुन के महीने में सब ब्रजबाला निर्लज हो गई है-

फागुन लाग्यौ जब ते तब ते ब्रजमंडल धूम मच्यौ है।
नारि नवेली बचै नहिं एक विसेख यहै सवै प्रेम अच्यौ है।
साँझ सकारे वही रसखानि सुरंग गुलाल लै खेल रच्यौ है।
को सजनी निलजी भई अब कौन भटू जिहिं मान बच्यौ है॥[xvii]

            होली का त्यौहार प्रेमी-प्रेमिका का त्यौहार माना जाता है। कृष्ण और राधा आज भी इसके प्रतीक हैं। कृष्ण की गोपिकाओं के साथ होली खेलने का मनोहारी वर्णन करते हुए शाह तुराब अली कलंदर कहते हैं कि श्री कृष्ण गोपिकाओं के साथ होली खेल रहे हैं। एक गोपिका जो सास-ननंद की चोरी से बाहर निकली है, श्री कृष्ण उस पर रंग डालना चाहते हैं लेकिन वह गोपिका अपने सास ननंद के डर से रंग डालने से मना करती है और कृष्ण को उलाहना देते हुए कहती है कि ब्रज मैं एक हम ही नहीं और भी बहुत गोपिकाएं हैं

हां, हां मोको छेड कन्हैया, हो तो दिनन की थोरी।
ब्रज में इक हमही बसत हैं और बहुत हैं सांवर गोरी।
निकरी हूँ मैं आज मंदिर सौं अपनी सास ननद की चोरी।
फेंक लाल गुलाल बसन पर उजर है अबै चुनर मोरी।
रंग सौ जुबोर मोरी चुनरिया, खेलू तुराब चही संग होरी।[xviii]

            वैसे तो होली पूरे भारतवर्ष में मनाई जाती है पर अलग-अलग सांस्कृतिक अंचलों की होली की अपनी खासियत है। लेकिन एक बात जो सभी जगह की होली में सामान्य है, वह है महिलाओं और पुरुषों के बीच रंग खेलने के बहाने अनूठे विनोदपूर्ण और शरारत से भरे प्रसंग। ये प्रसंग शुरू से होली की पहचान से जुड़ रहे हैं। इस मस्ती में नहाने वाले सभी संप्रदाय के लोग हैं। आखिरी मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर की लिखी होली बहुत ही सरस मनोरम है-

क्यों मो पे रंग की मारी पिचकारी,
देखो कुंवरजी दूंगी मैं गारी।
भाग सकूँ मैं कैसे मो से भागा नहीं जात,
ठाड़ी अब देखूं और को सनमुच में आत।
बहुत दिनन में हाथ लगे हो कैसे जाने दूँ,
आज फगवा तो सं का था पीठ पकड़ कर लूँ।

            मुगल बादशाहों में से होली का वर्णन सिर्फ बहादुर शाह जफर ने ही नहीं किया बल्कि आजम शाह जो औरंगजेब के ज्येष्ठ पुत्र थे ने भी किया है-

होरी बजाना बालम निश दिन मुझको ध्यान है।
उसका गोश्त अजू जान इन्दर राज।
मुद्रा पहरू, भस्म चढ़ाऊं खुदरा चूये बेदागम्।
दिल खुश करके फाग मचाऊ दस्त बगरद्म अदाजम्।।[xix] 

            मलिक मोहम्मद जायसी मध्यकाल के प्रसिद्ध सूफी संत थे। इन्होंने हिंदू घरों की कहानियों को अपने काव्य का विषय बनाया तथा हिंदू-मुस्लिम एकता का लगातार प्रयास किया। हिंदू देवी देवताओं के प्रति जहां कहीं भी श्रद्धा दिखलाने का अवसर आया है, इन्होंने बड़ी सह्रदयता का परिचय दिया है। होरी के संदर्भ में एक बानगी-

ता तप साधि एक पथ लागे। करु ऐसा किन राति सुभागे॥
ओहि मन लावहु रहइ रूठा। छाडहु झगरा यही जग झूठा॥
जब हंकार ठाकुर कर आई। एक घड़ी जिव रहइन पाई॥
सोई सोहागिन जाहि सोहागू। कंत मिलाइ जो खेलइ फागू॥
कह सिगर शिर सिंदूर मेलहु। सबई आइ मिलि चाधर मेलहु॥
आउ जो रहहि गरब करि गोरी। चढ़इ सोहाग जस होरी॥[xx]

            करौली,राजस्थान की रहने वालीताजश्री कृष्ण की अनन्य भक्त थी।ताजमुगल बादशाह अकबर की बेगम थी। ये भक्त होने के साथ-साथ कवयित्री भी थी। वल्लभ संप्रदाय में ताज के रचे हुए कई पद हैं। उनकी रचनाओं में एक धमार बहुत प्रसिद्ध है जो होली के दिनों में वल्लभ संप्रदाय मंदिरों में गई जाती है-

बहुरि डफ बाजन लागे हेली।
खेलत मोहन साँवरो हो किहि मिसि देखन जाय॥
सास ननद बैरिन भयीं अब कीजै कौन उपाय।
ओजत गागर डारिये जमुना जल के काज॥
यह मिस बाहिर निकस के हम जाय मिलें तजि लाज।
आओं बछरा में लिये बनकों देहि बिडार॥
वे देहै हम ही पठै हम रहेगी घरी द्वै चार।
हा हा री हौं जात हो, मो पै नाहिन परत रह्यौ॥
तू तो सोचत ही रही हैं मान्यो मेरो कह्यौ।
राग रंग गहगड मच्यौ नंदराय  दरबार॥
गाय खेल हंस लीजिये, फाग बड़ौ त्योहार।
तिनमें मोहन अति बने, नाचत सबै गुवाल।।
बाजे बहु विधि बाजहिं संग मुरज डफ ताल।
मुरली मुकुट विराजही कटि-पट बांधे पीत॥
नृत्यत आवतताजके प्रभु गावत होरी गीत॥[xxi] 

            हमारा दौर जिज्ञासा, खोज तथा शंका का दौर है। प्रश्न चारों ओर उलझे हुए हैं, प्रतिभाएं उलझी हुई हैं और नवीन मार्गों की खोज जारी है। ऐसे में लोग भूल गए हैं कि उनकी अपनी संस्कृति में वह सभी गुण विद्यमान हैं जो हम भारतीयों को पुनः विश्व गुरु के पद पर आसीन कर सकेगा। हम नए का विरोध नहीं करते लेकिन प्राचीन को भूलना गलत है। इसीलिए हमें इस आधुनिक वैज्ञानिक दौर में अपनी संस्कृति, अपनी परंपरा को पहचानने की अति आवश्यकता है जिससे कि हम सिर्फ अपना बल्कि संपूर्ण विश्व में उन भटके हुए लोगों को, जो हर एक पल अमानवीय होते जा रहे हैं मानवता का पाठ पढ़ा सकें। आज के दौर में जब चारों तरफ़ ऐसे तत्त्व उपस्थित हो गए हैं जो हमारी सांस्कृतिक एकता का हनन कर रहे हैं जिसका भयावह परिणाम देश के अलग-अलग हिस्सों में सांप्रदायिक दंगों के रूप में उभरकर आता है। हाल ही में हमने G-20 की अध्यक्षता की जिसकी टैग लाइनवसुधैव कुटुंबकम् अर्थात् संपूर्ण विश्व ही हमारा परिवार हैरखते हैं। इससे संपूर्ण विश्व पर हमारी मानसिकता की छाप पड़ती है। हमारे इस शोध आलेख से सिर्फ़ सांप्रदायिकता को बढ़ावा देने वाले लोगों की विचारधारा पर कुठाराघात होगा बल्कि संपूर्ण विश्व हमारी महान संस्कृति से रूबरू होगा।

संदर्भ :
1 आरबीएसई, कक्षा 5(हिंदी) प्रकाशक-राजस्थान राज्य पाठ्यपुस्तक मण्डल, जयपुर, संस्करण वर्ष 2023, पृष्ठ.18
2  डॉ वंदना तैलंग, ब्रज के लोकगीत एवं लोकपर्वों का सांगीतिक अध्ययन, जवाहर पुस्तकालय, मथुरा, संस्करण वर्ष 2015, पृष्ठ.42           
3 डॉ प्रभुदयाल मीतल, ब्रज का सांस्कृतिक इतिहास, राजकमल प्रकाशन, संस्करण वर्ष 1966, पृष्ठ.232,
4   डॉ प्रभुदयाल मीतल, ब्रज का सांस्कृतिक इतिहास, राजकमल प्रकाशन संस्करण वर्ष 1966, पृष्ठ.233       
5 डॉ हजारी प्रसाद द्विवेदी, प्राचीन भारत के कलात्मक विनोद, प्रकाशक-हिंदी ग्रन्थ-रत्नाकर कार्यालय, मुंबई, संस्करण वर्ष 1952, पृष्ठ.108 
6 डॉ वंदना तैलंग ,ब्रज के लोकगीत एवं लोकपर्वों का सांगीतिक अध्ययन, जवाहर पुस्तकालय , मथुरा , संस्करण 2015, पृष्ठ.42            
7डॉ भास्कर पचौरी,मथुरा का इतिहास, ब्रज प्रिंटर्स प्राइवेट लिमिटेड, संस्करण वर्ष 1997,पृष्ठ.87  
8 विद्यानिवास मिश्र,रसखान रचनावली, वाणी प्रकाशन, संस्करण वर्ष 2014, पद 1२२, पृष्ठ.77 
9 आज बरसाने में होरी रे रसिया, दैनिक, 18मार्च,1992 
10   डॉ मलिक मोहम्मद,दक्खिनी हिन्दी के शायर, किताबघर प्रकाशन, संस्करण वर्ष 1957,पृष्ठ.103 
11 विद्यानिवास मिश्र,रसखान रचनावली, वाणी प्रकाशन, संस्करण वर्ष 2014 पद 6, पृष्ठ.52 
12 विद्यानिवास मिश्र,रहीम ग्रंथावली, वाणी प्रकाशन, संस्करण वर्ष 2018,पद 23, पृष्ठ.105 
13रंजन जैदी,मुस्लिम साहित्यकारों का हिंदी साहित्य में योगदान, नटराज प्रकाशन, संस्करण वर्ष 2011, पृष्ठ.68
14 गंगाप्रसाद विशारद, हिंदी के मुसलमान कवि, लहरी बुक डिपो, संस्करण वर्ष 1926, पृष्ठ.328
15 डॉ राजेश शर्मा, ब्रज की होली, वृंदावन शोध संस्थान, संस्करण वर्ष 2021, पृष्ठ.84
 16 संपादक-सुधाकर पांडेय,हिंदी काव्य गंगा, प्रथम भाग, नागरी प्रचारिणी सभा, संस्करण वर्ष 1990, पृष्ठ.267 ,
17  प्रो देशराज सिंह भाटी,रसखान ग्रंथावली सटीक (पृष्ठ.274) अशोक प्रकाशन, संस्करण:1966   
18 गंगाप्रसाद विशारद,हिंदी के मुसलमान कवि, लहरी बुक डिपो, संस्करण वर्ष 1926, पृष्ठ.319
19   गंगाप्रसाद विशारद,हिंदी के मुसलमान कवि, लहरी बुक डिपो, संस्करण वर्ष 1926, पृष्ठ.200,    
20   ब्रज की होली, डॉ राजेश शर्मा, प्रकाशन-वृंदावन शोध संस्थान, संस्करण वर्ष 2021, पृष्ठ.83         
21  संपादक-विष्णुकांत शास्त्री, मधुरिमा पत्रिका,प्रकाशक-श्री राधा माधव संकीर्तन मंडल, पृष्ठ.340

अनुज कुमार शर्मा
जेआरएफ उत्तीर्ण विद्यार्थी, हिंदी साहित्य, दिल्ली

चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक ई-पत्रिका 
  अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-52, अप्रैल-जून, 2024 UGC Care Listed Issue
सम्पादक-द्वय : माणिक-जितेन्द्र यादव चित्रांकन  भीम सिंह (इलाहाबाद विश्वविद्यालय)

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