शोध आलेख : आधुनिक कला परिदृश्य में रवीन्द्रनाथ टैगोर के चित्रसृजन पर एक दृष्टि / कमल कुमार मीना

आधुनिक कला परिदृश्य में रवीन्द्रनाथ टैगोर के चित्रसृजन पर एक दृष्टि 
- कमल कुमार मीना

शोध सार: रवीन्द्रनाथ टैगोर की सृजन शक्ति कलाकार के रूप में अजेय, अपरिमेय तथा विलक्षण थी। रवीन्द्रनाथ टैगोर के शब्दों में "चित्रकला के क्षेत्र में मात्र रंग व रेखाएं ही कोई संदेश नहीं देती अपितु उनमें ध्वनि लय भी होती है, जिनका उद्देश्य कलाकार की कल्पना व संवेदना का संग्रह विकास करना होता है।" इतने सफल होने के बाद भी उनकी कुछ नया करने की उत्सुकता थी जिसके चलते 67 वर्ष की उम्र में उनका रुझान चित्रसृजन की ओर आकर्षित हुआ। उनके चित्रों में प्राकृतिक दृश्य अधिक देखने को मिलते हैं, जिनमें मुख्य रूप से पेड़-पौधे, वनस्पति, विचित्र जीव-आकृतियों के साथ सुंदरता व असुंदरता की अवधारणा भी देखी जा सकती है। उन्होंने अपने चित्र सृजन में नारी को विशेष महत्व दिया है। व्यक्ति-चित्रों में नारी व पुरूष दोनों के ही चित्र अत्यन्त प्रभावी व भाव प्रवण है। व्यक्ति चित्रों में दो चश्म चेहरे, डेढ़ चश्म चेहरे, सवा चश्म चेहरे, एक चश्म चेहरे सभी प्रकार की मुखाकृतियाँ चित्रित की गयी हैं। रवीन्द्र ने दृश्य-चित्रों में प्रकृति के प्रत्येक अवयव का सूक्ष्म निरीक्षण कर, क्षण-क्षण में परिवर्तनीय प्राकृतिक सौन्दर्य की सम्पदा को अपने चित्रों में संजोया है। प्रकृति-चित्रण बहुत ही मर्मस्पर्शी तथा सजीव है। रवीन्द्र अपने चित्र-विषय में सिद्धहस्त रहे हैं।

      रवीन्द्रनाथ टैगोर ने अपने चित्रित-चित्रों में मानव-मन के चेतन, अचेतन और अवचेतन तीनों ही भागों को स्पर्श किया है। किन्तु चित्रों को देखने के पश्चात् स्पष्ट तौर पर यह कहा जा सकता है कि चित्रित-चित्र मानव-मन की अचेतन अवस्था से अधिक प्रभावित थे। इस अचेतन अवस्था का चित्रण करने के लिए रेखा एवं तूलिका के प्रत्यावर्तन सहायक रहे हैं। आपने सर्वप्रथम अस्पष्ट आकृतियों के अस्पष्ट चित्र बना, शनैः-शनैः जीवन को पूर्णरूपेण कला के प्रति समर्पित करते गए। उनके पशु-पक्षी चित्र भी अधिकतर कल्पना पर ही आधारित हैं परन्तु कला की दृष्टि से अनुपम हैं। रवीन्द्रनाथ टैगोर एक कवि, उपन्‍यासकार, नाटककार, और दार्शनिक तो थे ही साथ में एक प्रसिद्ध चित्रकार भी रहे हैं। इतनी बेहतरीन कहानियां लिखने के बाद उन्होंने चित्रकारी की और उस समय रुझान दिखाया, जब उनके भतीजे अवनीन्द्रनाथ टैगोर (बंगाल शैली के जनक) पूरी तरह से चित्रकला में सक्रिय थे। वो कहीं कहीं अपने भतीजे से प्रेरित जरूर थे, लेकिन उनकी कला अपने आप में सब से अलग थी, जिसमें किसी और का प्रभाव दिखाई नहीं देता था।

चित्रकारी करते हुए शुरू में उन्होंने जीव-जंतुओं और काल्पनिक पक्षियों के चित्र तैयार किए जो की काफी सराहनीय रहे। वो कपड़े के टुकड़ों और अंगुलियों को स्याही में डुबो कर बिना ब्रश की मदद के राक्षसी आकृतियों, भूत-प्रेतों के काल्पनिक चित्र तैयार करते थे। उन्होंने लगभग 2000 चित्र बनाए अंडाकार मानव शीश की रचना की। रवीन्द्रनाथ टैगोर द्वारा अपने चित्रों की प्रथम प्रदर्शनी सन् 1930 में पेरिस में लगाई गई। उन्हें भारत के प्रथम रचनात्मक चित्रकार के रूप में भी जाना जाता है। कोलकाता में जब इनकी पेंटिंग प्रदर्शनी लगाई गई तो दर्शकों को कुछ खास समझ नहीं आई और उन्होंने इसकी जमकर आलोचना की। कई दर्शकों ने तो उनकी पेंटिंग को समझ के परे बताया, लेकिन रवीन्द्रनाथ को इन आलोचनाओं से कोई फर्क नहीं पड़ा और उन्होंने अपना कार्य निरंतर जारी रखा।

बीज शब्द: विश्वकवि, उपन्‍यासकार, कलासृजन, दार्शनिक, अभिव्यंजना, प्रज्ज्वलित, रचनात्मक, चित्रसृजन, अंतरानुभूति, रेखांकन, काव्यमय, परिदृश्य, आदि।

मूल आलेख: रवीन्द्रनाथ टैगोर कला-जगत में सूर्य की भाँति सृष्टि के उच्च-शिखर पर प्रकाशवान रहे, जिन्होंने अपने साहित्य व काव्य रूपी प्रकाश से संसार को प्रकाशमय करने के साथ-साथ उसे नवीन परिवेश और नवीन साहित्य से भी सराबोर कर दिया। जिस प्रकार वर्षा के पश्चात् सूर्योदय पर सतरंगी इन्द्रधनुष का आकाश में स्वतः ही प्रस्फुटन होने पर उसके सप्तरंगों द्वारा आकाश में एक नई आभा का जन्म होता है ठीक उसी प्रकार रवीन्द्रनाथ की कविताओं में भी एक नवीन मूक अभिव्यक्ति का प्रस्फुटन स्वतः ही हुआ, जिसने अपने पहले परिचय में ही रवीन्द्रनाथ को आत्मविभोर कर उनके हृदय में असीम ऊर्जा का प्रस्फुटन किया।1

प्रारम्भिक इन्द्रधनुषी कला को रवीन्द्र ने बाल-सुलभ घटना मात्र मानकर उसकी आत्मा को स्पर्श नहीं किया, परन्तु धीरे-धीरे रवीन्द्र ने अपनी कलम की नोंक के क्रूर आघातों द्वारा उत्पन्न अस्पष्ट रूपों को मूर्त रूप प्रदान करना प्रारम्भ कर दिया। रवीन्द्र ने जो कुछ भी आंका है उसके छन्द में प्राणों का यह स्पन्दन और प्राणशक्ति इतनी तीव्र और प्रचुर है कि आज के युग के सुप्रसिद्ध श्रेष्ठ कलाकारों की कलाकृतियाँ भी उसके सामने कुछ फीकी व निष्प्राण ही लगती हैं।2

काव्य-रूपात्मक आकृतियों ने सर्वप्रथम रवीन्द्र के चित्रतल पर स्थान ग्रहण किया। इन अस्पष्ट रूपों में रूचि उत्पन्न होते ही रवीन्द्र ने अपने मनोवेगों को चित्रतल पर उकेरना प्रारम्भ किया। रवीन्द्र ने स्वयं कहा है, “अब तक मैं अपनी भावनाओं को साहित्य तथा संगीत में व्यक्त करने के लिए अभ्यासरत रहा हूँ पर मेरी आत्माभिव्यक्ति के तरीके अपूर्ण रहे, अतैव प्रकटीकरण के लिए चित्रित रेखाओं का सहारा लेकर आगे बढ़ रहा हूँ।3

रवीन्द्र ने सरल, संक्षिप्त व स्पष्ट रेखाओं द्वारा आदिमानव के समान ही चित्र-चित्रांकित किए। चित्रकला के क्षेत्र में किसी परम्परागत शैली को न अपनाते हुए संक्षिप्त रेखाओं व रंगों द्वारा अपनी मूक अभिव्यक्ति की।

यूँ तो इस महाकवि ने अपनी सतरंगी कल्पनाओं की कूँची के वैभव से अपने जीवन में सैकड़ों चित्र-चित्रित किए। उन्होंने बचपन में ड्राइंग या किसी चित्रण तकनीक का प्रशिक्षण प्राप्त नहीं किया, बल्कि वे तो अपनी अंतरानुभूतियों को रेखाओं में उभार कर अपने मन को एक भोले बालक की भाँति बहलाते थे।

रवीन्द्रनाथ टैगोर दिन-रात अनवरत् रूप से चित्र-सृजन के कार्य में लगे रहे। उनके चित्र विषय के अनुरूप ही माध्यम भी विभिन्नता लिए हुए थे। प्रयोगधर्मी रवीन्द्रनाथ ने रासायनिक रंगों के स्थान पर प्राकृतिक रंगों को भी अपने चित्रतल पर स्थान दिया। उन्होंने चित्रकला के क्षेत्र में किसी भी परम्परागत शैली में बंध कर चित्रण कार्य नहीं किया, वरन् अपनी आत्मिक सन्तुष्टि हेतु चित्रकर्म में लीन रहे। उन्होंने किसी भी प्रकार के नियमों का पालन नहीं किया और उनकी चित्रांकन शैली पूर्ण व्यक्तिगत थी।

रवीन्द्रनाथ टैगोर बहुमुखी प्रतिभा सम्पन्न व्यक्ति थे। रवीन्द्र ने अपने मनोभावों की अभिव्यक्ति चाहे वह संगीत में हो, साहित्य में हो, काव्य में हो या फिर कला में हमेशा सृजनात्मक ही रही है। रवीन्द्र में सृजनात्मक-पक्ष ईश्वरीय प्रदत्त था, क्योंकि यदि मानव में सृजनशीलता है तो ग्रहण करने के मार्ग स्वतः ही निश्चित हो जाते हैं। जे. कृष्णमूर्ति द्वारा व्यक्त विचार रवीन्द्रनाथ की कला पर पूर्णरूपेण लागू होते हैं, ‘‘यदि हम में कोई आन्तरिक ज्योति प्रज्ज्वलित है, कोई आनंद है, तो उसको व्यक्त करने का मार्ग भी हमें स्वतः ही दिखाई देगा, अभिव्यक्ति के तरीकों का अध्ययन आवश्यक नहीं है।4

गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर का जन्‍म 7 मई, 1861 को कोलकाता में हुआ5 जिनको कवि, उपन्‍यासकार, नाटककार, चित्रकार, और दार्शनिक के रूप में भी जाना जाता है। बाल्यकाल में उन्होंने किसी भी तरह की चित्रण तकनीकी का प्रशिक्षण प्राप्त नहीं किया, बल्कि वे तो अपने प्रारंभ में सुप्त रहे, लेकिन जब जागे तो कई वर्षों तक वह उसी के वशीभूत होकर कार्य करते रहे। असाधारण, काव्यमय वृति व सूक्ष्मग्राह्यी संवेदना उनकी कला के साधक थे। चित्रकला के अभ्यास को उन्होंने बड़ी, तन्मयता व निष्ठा से अभिराम रखा। उन्होंने सैकड़ों रेखांकन बनायें, उनकी अपनी व्यापक भावधारा से पुष्ट होकर रंगों से जो रेखाएं उभारी, वे चित्र बन गए। इन चित्रों का न कोई रूप विधान था, न नियम, ना ही कोई लाक्षणिक आधार। इस समय रवीन्द्रनाथ टैगोर के भतीजे अवनीन्द्रनाथ टैगोर चित्रकला में पूर्ण दक्षता के साथ कार्य कर रहे थे। रवीन्द्रनाथ ने उन्हीं के संपर्क से चित्रकला की ओर उन्मुख होने की प्रेरणा प्राप्त की व साहित्य के क्षेत्र में अलग रचनात्मक शक्ति के आधार पर चित्रकला के क्षेत्र में सरलता से निविष्ट हो गए। आरंभ में उन्होंने केवल स्याही के पेंन से रेखांकन करके कला निर्मिती की, जिसमें काल्पनिक पक्षी या ‘जानवर’ जैसे आकार प्रचुर मात्रा में हैं। उन्होंने कोलकाता की बंगाल अकादमी तथा लन्दन के यूनिवर्सिटी कॉलेज में शिक्षा प्राप्त की। उनका शेष समस्त जीवन परिवार तथा मित्रों के प्रभाव से ही उनके बहुमुखी विकास का उद्घोषक है। ‘‘सन् 1901 में उन्होंने शान्ति निकेतन की स्थापना की। 1905 ई० में स्वदेशी आन्दोलन में व्यस्त रहे यद्यपि वे विदेशी वस्तुओं तथा विचारों के बहिष्कार के पक्षपाती नहीं थे। 1907 में इण्डियन सोसाइटी ऑफ ओरिएण्टल आर्ट की स्थापना में सहयोग दिया। रवीन्द्रनाथ टैगोर एशिया के प्रथम व्‍यक्ति थे, जिन्‍हें 1913 में नोबेल पुरस्‍कार से सम्‍मानित किया गया था।6 1915 से 1919 तक विचित्रा क्लब का संचालन किया। उन्होंने बंगाल शैली की आलोचना की और उसमें अनेक कमियाँ बतायीं। 1915 में ही वे जापान गये तथा इसके उपरांत 1919 में शान्ति निकेतन में कला भवन की स्थापना की।7

‘‘रवीन्द्रनाथ टैगोर ने अपने जीवन में एक हजार कविताएं, आठ उपन्‍यास, आठ कहानी संग्रह और विभिन्‍न विषयों पर अनेक लेख लिखे। इतना ही नहीं रवीन्द्रनाथ टैगोर संगीत प्रेमी थे उन्‍होंने अपने जीवन में 2000 से अधिक गीतों की रचना के साथ ही लगभग 2000 चित्रों का भी सृजन किया,8  उनके लिखे दो गीत आज भारत और बांग्‍लादेश के राष्‍ट्रगान हैं।

सच्चा कलाकार आजीवन अपनी ही खोज में रहता है और कभी-कभी खुद की तलाश करते हुए कई विधाओं की देहरी पर दस्तक देते नज़र आते हैं। रवीन्द्रनाथ टैगोर के रूप में एक ऐसा ही कलाकार हमें संस्कृति के विश्व में चमकता हुआ दिखाई देता है वे एक साथ कविता, कहानी, नाटक, संगीत, चित्रकला, मूर्तिकला आदि विधाओं में आवाजाही करते हुए अपनी और जगत की कही-अनकही कहानियों को उकेरते रहे। इस तरह उन्होंने अपनी विभिन्न विचार धाराओं को अलग-अलग विधाओं में व्यक्त किया। अपने जीवन के अंतिम पड़ाव पर उन्होंने शब्दों के कोलाहल से दूर रंग और रेखाओं का हाथ थामा, जिसमें वह अपने मन की बात कहने का संतोष पाते रहे। देखा जाए तो रवीन्द्रनाथ टैगोर का संगीत और उनका साहित्य अनगिनत लोगों के द्वारा न सिर्फ सराहा गया बल्कि अनेक लोगों के लिए प्रेरणा का स्रोत रहा लेकिन उनकी चित्रकला जिस तरह विश्व के अन्य देशों में लोकप्रिय रही, पर दुर्भाग्य से भारत में वह उपेक्षित रहीl यह 1930 के आसपास का वक़्त था और अनेक पश्चिमी देशों में टैगोर के चित्रों के प्रति ख़ासा आकर्षण उमड़ रहा था l

 रवीन्द्रनाथ टैगोर के चित्रों के बारे में उस समय भारत का कला जगत क्या राय रखता था, यह तो कहना मुश्किल है, लेकिन उनके इस रचनात्मक जीवन में आये बदलाव के प्रति वे अत्यंत सजग थे। वे इस बात को अच्छी तरह जानते थे कि आने वाले समय में उन्हें जब भी याद किया जाएगा, उनकी कलाकार की भूमिका को भूला न जा सकेगा। उन्होंने चित्रकला को ‘शेष बोयेशेर प्रिया’ या ‘जीवन संध्या की प्रेयसी’ माना था। रवीन्द्रनाथ ने चित्रकला को ‘खेल के बहाने वक़्त गुज़ारने की संगिनी माना था’ शब्दों की दुनिया के शोर से दूर एक शान्ति भरी कला में लीन हो जाने को हम शायद उन्हीं की बातों से बेहतर समझ सकते हैं।

टैगोर के सम्पूर्ण कला-कर्म पर गहन शोध करने वाले देश के विख्यात चित्रकार और कला चिंतक अशोक भौमिक बताते हैं कि चित्रकला को किसी प्रान्त या देश की सीमा में बांधने के पक्षधर रवीन्द्रनाथ टैगोर कभी नहीं रहे। चित्रकला चूंकि किसी भाषा पर आधारित कला नहीं है इसलिए रवीन्द्रनाथ एक तरफ़ जहां साहित्यकार के रूप में स्वयं को बांग्ला भाषा के साथ जोड़ते हैं, वहीं चित्रकला के उस खास उदार स्वरुप को समझते हुए वे चित्रकला में स्वयं को वैश्विक मानते हैं और इस प्रकार चित्रकला को अपनी ‘मानवतावाद’ की अवधारणा के सबसे करीब पाते हैं। उन्होंने अपने चित्रों के सन्दर्भ में इस बात को बार-बार दोहराया हैचित्रकला के सन्दर्भ में ‘अर्थ’ या ‘मायने’ के बारे में उन्होंने कहा था, लोग अक्सर मुझसे मेरे चित्रों के अर्थ पूछते हैं मैं खामोश रहता हूं, ठीक जैसे मेरे चित्र ख़ामोश हैं। उनका (चित्रों का) काम अपने आप को अभिव्यक्त करना है, व्याख्या नहीं उनके रूप के पीछे ऐसी कोई गूढ़ या गुप्त बात नहीं है, जिसे चिंतन द्वारा खोजा जा सके और शब्दों द्वारा वर्णन किया जा सके। टैगोर कि कला के बारे में सुप्रसिद्ध कला लेखक एवं इतिहासकार आनंद कुमार स्वामी ने लिखा है, नोट चाइल्डिश बट चाइल्ड लाइक।”9

रवीन्द्रनाथ ने बार-बार चित्रों को ‘समझने’ के स्थान पर ‘अनुभव’ करने की बात कही है। अपने चित्रों के लिए किसी शीर्षक से वे परहेज़ करते रहे हैं, क्योंकि उनका मानना था कि चित्रों के शीर्षक, दर्शक द्वारा चित्रों का स्वतंत्र अनुभव करने की प्रक्रिया में आड़े आते हैं। टैगोर के चित्रों को देखते हुए एक बात तो साफ़ समझ में आती है, कि उन्होंने ‘चित्रकला क्या है?’ इस प्रश्न पर न केवल गहरा मंथन किया था, बल्कि अन्य कला रूपों से ‘चित्रकला’ भिन्न क्यों है, इस पर भी गंभीरता से चिंतन किया था। उनका मानना था कि ‘अन्य कलाओं की तुलना में, हमारा साहित्य का ज्ञान बेहतर है। यह इसलिए है क्योंकि साहित्य का वाहक भाषा होती है और भाषा अंततः ‘अर्थ’ पर आश्रित होती है। लेकिन रेखाओं और रंगों की कोई ज़ुबान नहीं होती। पूछने पर वे खामोश अपने चित्रों की ओर निर्देशित करते हुए मानो कहते हैं कि स्वयं ही देख लो और कोई सवाल मत पूछो’।

 फिल्म निर्देशक और कथाकार सत्यजीत रे ने रविन्द्रनाथ टैगोर के चित्रों पर अपनी राय जताते हुए कहा है,–रवीन्द्रनाथ के चित्रों और रेखाचित्रों की संख्या दो हज़ार से कहीं ज़्यादा है। चूंकि उन्होंने चित्र रचना देर से शुरू की थी, यह एक चकित करने वाली उर्वरता है। यहां इसका विशेष उल्लेख ज़रूरी है कि वे किसी देशी या विदेशी चित्रकार से प्रभावित नहीं थे। उनके चित्र किसी परंपरा से विकसित नहीं हुए। वे निसंदेह मौलिक हैं। कोई उनके चित्रों को पसंद करे या न करे पर ये तो मानना ही पड़ेगा कि वे अनूठे हैं।

अशोक भौमिक द्वारा टैगोर के चित्रों का गहराई से अवलोकन करने के बाद अपने शोध में कहते हैं कि टैगोर के चित्रों में मूलरूप से प्राकृतिक दृश्य देखने को मिलते है। पेड़-पौधों, वनस्पति, विचित्र जीव-आकृतियां, उनकी सुन्दरता-असुंदरता की अवधारणा देखी जा सकती है। वे अपने चित्रों को भाषा, जाति, प्रान्त या किसी भी वर्ग में बांधना नहीं चाहते थे। वे चाहते थे कि उनके चित्रों को वैश्विक रूप से स्वीकारा जा सके। किसी भी पृष्ठभूमि के व्यक्ति को उनके चित्रों से जुड़ने में कोई बाधा न आ सके और इसी के चलते उनकी चित्रकला की प्रदर्शनी फ्रांस, जर्मनी, अमेरिका, डेनमार्क, स्विट्ज़रलैंड आदि देशों में होने के साथ उनके प्रशंसकों का एक नया समूह तैयार हुआ।

दुर्भाग्य से भारत में उनकी चित्रकला को ठीक से पहचाना न जा सका। रवीन्द्रनाथ अपने चित्रों में, स्वभाविक रूप से पौराणिक और ऐतिहासिक कथाओं के प्रसंगों और पात्रों को चित्रित कर सकते थे, लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया। उनके किसी भी चित्र में किसी परिचित कथा-नायक या कथा सन्दर्भ देखने को नहीं मिलता है। इससे उनकी कठिन और निःसंग कला यात्रा की कल्पना की जा सकती है।

टैगोर का मानना था कि छात्रों को प्रकृति के साथ शिक्षा हासिल करनी चाहिए। अपनी इसी सोच को जागृत करने के विचार से उन्होंने शांति निकेतन की स्थापना की थी। बचपन से कुशाग्र बुद्धि के रवीन्द्रनाथ ने देश और विदेशी साहित्य, दर्शन, संस्कृति आदि को अपने अंदर संजो लिया था।

चित्रण-विषय: रवीन्द्रनाथ ने अपने चित्रों में मानव-मन के चेतन, अचेतन और अवचेतन तीनों ही भागों को स्पर्श किया है किन्तु उनके चित्रों को देखने के पश्चात् ये स्पष्ट तौर पर कहा जा सकता है कि चित्र मानव-मन की अचेतन अवस्था से अधिक प्रभावित थे। इस अचेतन अवस्था का चित्रण करने के लिए रेखा एवं तूलिका के प्रत्यावर्तन सहायक रहे। आपने सर्वप्रथम अस्पष्ट आकृतियों के अस्पष्ट चित्र बनाए। शनैः-शनैः रवीन्द्रनाथ अपने जीवन को पूर्णरूपेण कला के प्रति समर्पित करते गए। उनके पशु-पक्षी चित्र भी अधिकतर कल्पना पर ही आधारित हैं परन्तु कला की दृष्टि से अनुपम हैं।

रवीन्द्रनाथ के व्यक्ति-चित्रों में नारी व पुरूष दोनों के ही चित्र अत्यन्त प्रभावी व भाव प्रवण है। दृश्य-चित्रों में प्रकृति के प्रत्येक अवयव का सूक्ष्म निरीक्षण कर, क्षण-क्षण में परिवर्तनीय प्राकृतिक सौन्दर्य की सम्पदा को अपने चित्रों में संजोया है। प्रकृति-चित्रण बहुत ही मर्मस्पर्शी तथा सजीव है। रवीन्द्र अपने प्रत्येक चित्र-विषय में सिद्धहस्त रहे हैं।10

प्रमुख प्रदर्शनियाँ: सन् 1930 ई. में रवीन्द्रनाथ की चित्रों की प्रदर्शनी पेरिस की ‘पीगाल’ गैलरी में आयोजित की गई जिसकी यूरोपीय प्रशंसकों ने खूब प्रशंसा की साथ ही यूरोप और अमेरिका की कला दीर्घाओ ने उनकी चित्र कृतियों को खरीदा तो सभी आश्चर्य से अभिभूत हो गये। बाद में लंदन, बर्लिन, वर्मा व मास्को में भी उनकी चित्रों की प्रदर्शनी लगी। सन् 1932 ई. में उनके चित्रों की प्रदर्शनी कोलकाता में हुई। सन् 1946 में यूनेस्को द्वारा आयोजित ‘अंतरराष्ट्रीय आधुनिक कला प्रदर्शनी’ में उनके चार चित्र सम्मिलित किए गए। सन् 1933 में रवीन्द्रबाबू के चित्रों की प्रदर्शनी मुंबई में लगाई गई।11

कलाकार जया अप्पासामी ने रवीन्द्रनाथ की निम्नलिखित विशेषताओं का उल्लेख किया है।

1.      उनकी कोई भी आकृति पूर्व-निश्चित नहीं है।

2.      चित्रण की अपूर्णता: फिनिश तथा तकनीकी परिष्कार का अभाव; कहीं-कहीं रिक्त स्थान भी छोड़ दिया गया है।

3.      सजीवता: चित्रों की आकृतियाँ ही नहीं वरन् सम्पूर्ण धरातल ही सजीव प्रतीत होता है।

4.      गम्भीर तथा चमकविहीन रंग: इनमें रहस्यात्मकता भी प्रतीत होती है।

5.      सभी आकृतियों में लयात्मकता है।

6.      धरातलों तथा आकृतियों में टेक्सचर की विविधता है जिसे आधुनिक कला से पहले कभी भी प्रशंसित नहीं किया गया था।

7.      कुछ चित्रों में अंधेरे के विपरीत तेज चमक अथवा प्रकाश का प्रभाव। चमकीली पृष्ठभूमियों में अंधेरी आकृतियाँ।12

नारी चित्रण: रवीन्द्रनाथ सौंदर्य उपासक व शृंगार वृत्ति के कलाकार थे। उनके चित्रों का प्रमुख विषय ‘नारी’ था। विशेष रूप से भारतीय नारी। उनके चित्रों में नारियों के सहज, सरल, भावपूर्ण चेहरे दिखते हैं। एक और वे काली घनी केस राशि के मध्य नारी तो दूसरी ओर अंगविहीन दग्ध हृदय का अंकन भी करते हैं। जिनके विभिन्न रूपों में वसंत और प्रेम की भावनाओं का दहन जगत देखा जा सकता है।13

रंग: रविन्द्रबाबू ने सभी प्रकार के रंगों का प्रयोग किया, किंतु वे द्रव्यमिश्रित रंगों को पसंद करते और स्याई का भी प्रचुर मात्रा में प्रयोग करते। रंग नहीं मिलने पर वह फूलों की पंखुड़ियों को दबाकर रंगों को काम में लेते थे। वे रंगाकन पद्धति सामग्री से आंतरिक प्रेरणा को अधिक महत्व देते थे।14

चित्रतल आधार: रवीन्द्रनाथ ने अपनी रचना के चित्रात्मक आधार पर नाना प्रकार के कागज यथा जलरंग, कार्टेज, वाट्समैन, पोस्टर और अन्य प्रकार के मोटे पतले कागज बनाए।

वर्ण संयोजन: रवीन्द्रनाथ ने अपनी गहरी मानसिक वृत्ति के मंदिर में ही अपने ग्रंथ में वर्ण संयोजन का प्रयोग किया है। भारतीय कला समीक्षकों ने रवीन्द्रनाथ की वर्ण संयोजन पद्धति की भूरि-भूरि प्रशंसा की है। सन् 1930 में जर्मनी में आयोजित रवीन्द्र के चित्रों की एकल प्रदर्शनी में व्यक्ति चित्रों में अनूठे वर्णों की चमक और स्पंदन का अनावरण किया गया, विदेशी समीक्षकों ने उनके अनूठे वर्ण योजना को आश्चर्यजनक और दुर्लभ बताया है।

कुछ समय उन्होंने फूलों से रंग तैयार कर स्वैटर का चित्रण किया जो उनकी अपनी अलग विशेषता थी। रवीन्द्रनाथ अपनी रचना में रंगीकरण करने की पद्धति का प्रयोग करते थे। वह चित्रों में फूल घिसकर फूलों का रंग भरते व हल्दी से सुनहरे रंग की आभा देने का प्रयास करते हैं और सूर्य की किरणों को प्रकाश में लाने के लिए कागज का स्थान रिक्त छोड़ देते थे।

रवीन्द्र ने अपनी रचनाओं में विभिन्न प्रकार के भूरे, हरे, मटमैले, पीले, काले, स्लेटी, फख्ताई गहरा और गहरा लाल, नारंगी, पीला, सफेद आदि रंगों का प्रयोग विशेष रूप से किया है। बाद में रवीन्द्रनाथ ने विभिन्न प्रकार के मिश्रित न्यूट्रल रंगों को और अधिक पसंद किया। विभिन्न हरे, नारंगी, पीले तथा अन्य रंगों का प्रयोग किया है। रवीन्द्र ने सभी समसामयिक प्रचलित माध्यमों यथा जलरंग, टेम्परा, क्रेयॉन, पेस्टल और तेलरंग आदि से चित्र निरूपित किये हैं।

उपलब्ध संरचना में रवीन्द्रनाथ टैगोर द्वारा संयुक्त वर्ण संयोजन को मोटे तौर पर दो भागों में विभक्त किया जा सकता है।

प्रथम भाग में हल्के रंग की पृष्ठभूमि पर गहरे रंग से अभिव्यक्ति या विपरीत रूपों का संयोजन किया गया।

द्वितीय भाग में गहरे रंग के ढांचे में गहरी ही पृष्ठभूमि अर्थात् एक ही वर्ण संयोजन का प्रयोग कर चित्रण रूप से भावाभिव्यक्ति को अधिक प्रभावपूर्ण बनाया गया है।

चित्रकार ने लाल वर्ण का प्रयोग भिन्न-भिन्न प्रकार से किया है। नारी की मानसिक अवस्था को रेखाओं में व्यक्त किया तथा यह वर्ण एवं गति को पूर्ण रूप से दिखाने में सक्षम है, जैसा कि सर्वविदित है कि रवीन्द्र ने चित्रकला की कोई शिक्षा ग्रहण नहीं कि थी, बल्कि उनकी चित्रकारी का सूक्ष्मावलोकन करने से स्पष्ट होता है कि टैगोर की रचनाओं का वर्णन विश्व के चितेरों में अनुपम है।

आकृति-निरूपण: काव्य शिरोमणि रवीन्द्रनाथ टैगोर काव्य-रचना से चित्रकारिता की ओर उन्मुख हुए। अपनी काव्य-रचना में अप्रत्याशित रूप से लकीरों द्वारा काटे गए वाक्य मूर्त अथवा अमूर्त रूप लेते गए, जिन्हें देखकर कवि-हृदय लकीरों के जाल से मुक्त करने में जुट गई। इस प्रकार अनायास ही आड़ी-तिरछी रेखाओं के मध्य फंसे चित्र को उन्होंने जीवन प्रदान किया। रवीन्द्र द्वारा अनेकों अमूर्त चित्र बनाए गए हैं। इनको चित्र तो कहा जा सकता है परन्तु ये न तो व्यक्ति चित्र हैं और न ही पशु-पक्षी चित्र है।

इसी क्रम में रवीन्द्र के मूर्त चित्र भी सुनियोजित हैं। इन चित्रों में दो चश्म चेहरे, डेढ़ चश्म चेहरे, सवा चश्म चेहरे, एक चश्म चेहरे सभी प्रकार की मुखाकृतियाँ चित्रित की गई हैं। रवीन्द्र के चित्रों का सूक्ष्मावलोकन करने के पश्चात् उनका चित्रकला की हर पद्धति से गहराई से जुड़ाव का संबंध दर्शाता है। उनके चित्रों में त्रिआयामी भाव भी उपलब्ध है।

भावाभिव्यन्जना: आधुनिक चित्रकार रवीन्द्रनाथ टैगोर के चित्रों की सबसे बड़ी विशेषता या उनका शैलीगत सौन्दर्य भावों की अभिव्यंजना ही है। आपके द्वारा निरूपित अधिकांश व्यक्ति-चित्र तात्कालिक प्रेरणा का परिणाम हैं, किन्तु उनमें परिवर्तन या उद्देश्यपूर्ण प्रतिपादन के प्रयत्न नहीं हैं। मानव-चित्र में भारतीय जीवन-दर्शन एवं आशा-आकांक्षा का दर्शन है। उनके जीवन के प्रत्येक पक्ष की गहरी अनुभूतियाँ दृष्टिगत होती हैं। उनके चित्रों के अवलोकन के पश्चात् दर्शक के नैसर्गिक भावों को स्पर्श कर उत्सुकता के भाव को जागृत करने की असीम शक्ति है। रवीन्द्र के चित्रों में दर्शक रसानुभूति को प्राप्त करता हुआ, आनन्द-सागर में गोते लगाता है। इस दशा को प्राप्त करने का भाव ही रवीन्द्र के चित्रों का वैशिष्ट्य पक्ष है। उनके चित्रित रूपों की भाव-भंगिमायें व रेखायें अनुपम हैं जो उनके चित्रों की व्यंजना को वैशिष्ट्य प्रदान करने में सहायक रही हैं।

संयोजन व्यवस्था: किसी भी कार्य को सुनियोजित पद्धति से प्रस्तुत करना ही संयोजन कहलाता है। ‘‘संयोजन दो अथवा दो से अधिक तत्वों की मधुर योजना को कहते हैं। यद्यपि रवीन्द्र ने अपने चित्रों में चित्रकला के किसी भी सिद्धान्त का अनुसरण नहीं किया है लेकिन फिर भी उनके चित्र संयोजन की दृष्टि से टिप्पणी रहित हैं। रवीन्द्र के चित्रों में जिस प्रकार चित्र- तत्व यथा-रेखा, रूप, वर्ण व तान का संयोजन है, जिससे रवीन्द्र चित्रकला के अन्तर्मन के मार्मिक ज्ञाता प्रतीत होते हैं। फलतः रवीन्द्र के चित्रों में सहयोग, सामंजस्य, सन्तुलन, प्रभावोत्पादकता, प्रवाह, प्रमाण स्वतः ही परिलक्षित होते हैं।


सहयोग:  जीवन के विभिन्न पक्षों को स्पर्शित करते हुए रवीन्द्र ने दृश्य-रूपों का सहयोगात्मक पक्ष सफलतापूर्वक निरूपित किया है। वर्ण, आकृति तथा पृष्ठभूमि का तालमेल ही चित्र की आत्मा है।

सामंजस्य: रवीन्द्रनाथ टैगोर द्वारा चित्रित सभी व्यक्ति-चित्र सहज स्फूर्त रेखाओं द्वारा सामंजस्य पूर्ण बन गये हैं। मुखाकृति को भावपूर्ण बनाने हेतु मुख्य रूप से आवृत्त रेखाओं का आलम्बन लिया गया है। सन्तुलनः द्वारा चित्रित चित्रों में सभी तत्त्व इस प्रकार निहित रहते हैं कि वे चित्रतल पर समुचित रूप से प्रत्यक्षतः अवतरित भी रहते हैं। रवीन्द्रनाथ ने सम्यक् विन्यास पर आधारित लगभग समस्त चित्रों में चित्रतल के केन्द्र को प्रमुख मानते हुए आकृति को सम्मुख मुद्रा में अंकित कर सन्तुलन मुद्रा में बनाये रखा है।

प्रभाविता: प्रथम आधुनिक भारतीय चित्रकार रवीन्द्रनाथ टैगोर के चित्रों का मुख्य प्रभाव दृष्टि बन्धन है। रवीन्द्र ने अपने चित्रों में प्रभाविता उत्पन्न करने हेतु आकृतियों को कहीं पूर्ण, कहीं मुख, कहीं धड़ तक तो कहीं कमर तक का भाव दर्शाया है। ये सभी विविधतापूर्ण आकृतियाँ प्रेक्षक की दृष्टि को बांधने में पूर्णतया समर्थ हैं।

प्रवाह: प्रवाह युक्त चित्र में नेत्र को कष्टदायक विरोधाभास का सामना नहीं करना पड़ता। रेखायें, रूप, वर्ण, तान सभी मिलकर प्रवाह को उत्पन्न करते हैं। रवीन्द्र के चित्रों का आधार लय है। अपने इस मन्तव्य को रवीन्द्र ने स्वयं स्पष्ट किया है, “मेरे चित्र रेखाओं में आवृत्त मेरी काव्यात्मकता है। यदि भाग्य से मेरे चित्र मान्यता प्राप्त करने के अधिकारी होते हैं, तो यह प्राथमिक स्तर पर रूप में लय के महत्व के कारण होना चाहिए, जो परम् सत्य है, यह किसी विचार की व्याख्या या किसी सत्य के प्रस्तुतीकरण के कारण नहीं।”

परिप्रेक्ष्य:  “रवीन्द्र के प्राकृतिक दृश्यों को देखने से ज्ञात होता है कि चित्रों में परिप्रेक्ष्य का ध्यान विशेष रूप से रखा गया है। प्राकृतिक चित्रण सरल एवं सादा है। प्राकृतिक चित्रण में दूरी, नजदीकी, ऊँचाई और निचाई का पूरा-पूरा ध्यान रखा गया है। दूर के दृश्यों को छोटा तथा धुंधला बनाया गया है। इसी क्रम में पंक्तिबद्ध पेड़ों के दृश्यों के चित्रण में पास के पेड़ बड़े व स्पष्ट एवं दूर के छोटे व धुंधले दिखाये गये हैं। भारत के प्रथम आधुनिक चित्रकार रवीन्द्रनाथ टैगोर का चित्रांकन कला जगत् के किसी भी सिद्धान्त का मोहताज़ नहीं है। उन्होंने चित्र-निरूपण प्रक्रिया में परम्परागत नियमों एवं सिद्धान्तों का अनुपालन नहीं किया है। रूप, सादृश्य, छाया-प्रकाश तथा त्रिआयामी प्रभावों की भी पूर्ण अवहेलना की है। उन्होंने चित्र को मात्र रंग एवं रेखाओं का संयोजन माना है। उनकी चित्रण-शैली ने उन्मुक्त एवं स्वच्छन्द गति से विचरण कर, विभिन्न संवेदनाओं की अनुभूति कर, अन्तर्मुखी होकर, मनोवैज्ञानिक विश्लेषण कर, सूक्ष्मतम अभिव्यक्ति को रूप एवं आकार में बांधकर प्राणवान किया है। रवीन्द्रनाथ टैगोर की अभिव्यक्ति की शैली अन्य समसामायिक कलाकारों से भिन्न होते हुए भी अद्भुत है। रवीन्द्र की कलात्मक अभिव्यंजना भावात्मक, व्यक्तिगत, भारतीय एवं निश्चित रूप से आधुनिक है।15

रेखांकन : रेखायें किसी चित्र का आधार हैं। कला पक्ष के अन्तर्गत रेखा का प्रतीकात्मक महत्व है और वह रूप की अभिव्यक्ति व प्रवाह को अंकित करती है। कलाकार की परस्पर उलझी हुई रेखायें उनके अन्त: के सूक्ष्म से सूक्ष्म परन्तु सशक्त भावों की अभिव्यक्ति में सहायक हैं। रेखायें केवल सीमा-रेखा ही नहीं दर्शाती, वरन् इनसे लय, गति व स्थूलता भी परिलक्षित होती है। प्रत्येक रेखा अपने में कुछ न कुछ भाव समेटे होती है। उदाहरणार्थ- जटिल रेखायें देखने में उलझन और सरल रेखायें शान्ति का भाव प्रकट करती हैं। ज्ञानी कलाकार इन रेखाओं के माध्यम से ही भावानुकूल छन्द प्रकट करता है। रवीन्द्रनाथ टैगोर के लगभग सभी चित्र सहज, स्फूर्त, स्वच्छन्द तथा सूक्ष्म हैं। मन्द गति का प्रभाव तथा भावपूर्ण रेखायें ही उनके चित्रों को जीवंत करने में सहायक हैं। अपने चित्रों में आवश्यकतानुसार कोमल, कठोर, मोटी-पतली विभिन्न प्रकार की रेखाओं का प्रयोग चित्रकार ने किया है। रवीन्द्र ने अपने समस्त चित्रों में चारित्रिक विशेषताओं, अवस्थाओं तथा मुख के विभिन्न अवयवों का प्रस्तुतीकरण प्रायः कलम तथा स्याही के माध्यम से ही किया है। वृद्धावस्था, चिन्तिता, उद्विग्नता के भावों को दर्शाने हेतु भी मुख्य रूप से रेखाओं का ही सहारा लिया गया है। इसी क्रम में नारी की उदासी का भी अत्यधिक भावपूर्ण अंकन सरल, आड़ी-तिरछी एवं वक्रीय रेखाओं द्वारा किया गया है।

       “रेखाओं की सहायता से चित्र-निरूपण में व्यक्ति के अन्तर्मन का जो चित्रण रवीन्द्रनाथ टैगोर ने किया है, वह कला-जगत् में अन्यत्र उपलब्ध नहीं होता। अपनी विशिष्टता के कारण रवीन्द्र के रेखाचित्र उनकी अपनी मौलिक विशेषता बन गई हैं।16

निष्कर्ष:  रवीन्द्रनाथ की चित्रकला शैली के दो मुख्य प्रकार हैं, बिन्दु द्वारा रूपाकार व नुकीले बिन्दुओं पर समाप्त होने वाले कोणीय चित्र। लयात्मक कुंडलित काट-पीट लेखनी अथवा तूलिका द्वारा अकल्पित आकारों की निर्मित पृष्ठतल पर अथवा चित्रफलक पर निरन्तर होती रही है। ये रूचि समूची पृष्ठभूमि पर एक अनन्य लोक के स्वामी के रूप में पृष्ठभूमि पर जड़ रूप में रूपायित हुए हैं।

 पृष्ठभूमि व रूपाकार इस प्रकार आपस में गुँथे हुए हैं कि एक-दूसरे में विलीन से हो गए हैं। बिन्दु रूपक पृष्ठभूमि व कुण्डलीय पृष्ठभूमि पर रूपाकार रूएदार, धुंधले व धब्बेदार प्रतीत होते हैं। बिन्दु रूपाकार और चक्राकार रेखायें एक अनहोनी रीति द्वारा स्पन्दित होकर चित्रफलक पर स्पष्ट परिलक्षित होती है। रेखांकन के साथ ही साथ रंगांकन की पद्धति में पृष्ठभूमि पर चौड़े तूलिकाघातों द्वारा एक ही रंग की रंगतों व कहीं-कहीं अन्यान्य रंगों की रंगतों व रंग संगतियों के गाढ़े व हल्के रंग की पृष्ठभूमि तैयार की गई है। इस सम्पूर्ण विवेचन से उनके चित्रों की शैलीगत सौन्दर्य का स्वरूप स्पष्ट होता है किन्तु रवीन्द्रनाथ एक ऐसे सृजनशील मस्तिष्क के कलाकार थे जिनके चित्रों की शैली को किसी सीमा में आबद्ध नहीं किया जा सकता।

संदर्भ
1.      https://www.granthaalayahpublication.org
2.      https://www.granthaalayahpublication.org.
3.      https://www.granthaalayahpublication.org.
4.      https://www.granthaalayahpublication.org.
5.      प्रताप, डॉ. रीता, भारतीय चित्रकला एवं मूर्तिकला का इतिहास, राजस्थान हिंदी ग्रंथ अकादमी, जयपुर, 18 वां संस्करण, 2014, पृष्ठ सं. -337
6.      https://www.moneycontrol.com/news/india/rabindranath-tagore-first-indian-to-win-nobel-prize-who-returned-title-of-knight-hood-258294.html.
7.      अग्रवाल, डॉ. गिर्राज किशोर, कला और कलम, संजय पब्लिकेशन, आगरा, पृष्ठ सं. – 73
8.      वही, पृष्ठ सं. – 74
9.      गोस्वामी, प्रेमचंद: भारतीय चित्रकला का इतिहास, पंचशील प्रकाशन, जयपुर, प्रथम संस्करण, 1999
10.  प्रताप, डॉ. रीता: भारतीय चित्रकला एवं मूर्ति कला का इतिहास, राजस्थान हिंदी ग्रंथ अकादमी, जयपुर, 18वां संस्करण, 2014,पृष्ठ सं.- 339
11.  वही, पृष्ठ सं.- 339
12.  अग्रवाल, डॉ. गिर्राज किशोर: आधुनिक भारतीय चित्रकला, संजय पब्लिकेशन्स, आगरा, पृष्ठ सं.-74
13.  प्रताप, डॉ. रीता: भारतीय चित्रकला एवं मूर्ति कला का इतिहास, राजस्थान हिंदी ग्रंथ अकादमी, जयपुर, 18वां संस्करण, 2014, पृष्ठ सं. 339
14.  https://www.granthaalayahpublication.org.
15.  https://www.granthaalayahpublication.org.
16.  https://www.granthaalayahpublication.org.
कमल कुमार मीना
शोधार्थी, दृश्य कला विभाग, मोहनलाल सुखाड़िया विश्वविद्यालय, उदयपुर
kamalmeena023@gmail.com,
8058238623


चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक ई-पत्रिका 
  अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-52, अप्रैल-जून, 2024 UGC Care Listed Issue
सम्पादक-द्वय : माणिक-जितेन्द्र यादव चित्रांकन  भीम सिंह (इलाहाबाद विश्वविद्यालय)

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