- डॉ. कीर्ति माहेश्वरी
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सार : ‘सफ़र
एक
डोंगी
से
डगमग’ यात्रा-वृत्तांत
के
लेखक
राकेश
तिवारी
दिल्ली
से
कलकत्ता
तक
नौका
से
यात्रा
करते
हैं
और
संपूर्ण
यात्रा-वृत्तांत
में
लेखक
ने
अपनी
यात्रा
के
अनुभव
साझा
किए
हैं।
इसमें
लेखक
की
बौद्धिकता
एवं
कल्पना
का
मणिकांचन
योग
दिखलाई
पड़ता
है।
नदी
और
समाज
के
पारस्परिक
सम्बन्ध
को
नदी
संस्कृति
की
संज्ञा
दी
गयी
है। नदियों के
महत्व
को
स्वीकारते
हुए
नदी
और
समाज, नदी और
मानव, नदी और
सभ्यता
के
संबंधों
को
पहचानने
की
कोशिश
में
कई
साहित्यकारों
ने
अपनी
यात्राओं
में
नदी
को
सम्मिलित
किया। इस कड़ी
में
भारतीय
समाज
को
जानने
का, अनेकों नदियों
यथा–चम्बल, यमुना, गंगा, टोंस, सोन, हुगली आदि
किनारे
बसे
शहरों, गाँवों के
जीवन
को
जानने, समझने और
भारतीय
ग्रामीण
जीवन
को
नजदीक
से
देखने
का
एक
प्रयास
है–‘सफ़र एक
डोंगी
में
डगमग।’
बीज
शब्द : देशाटन, दीठ, घुमक्कड़ी, यायावर, रोजनामचा, हिमाच्छादित, चरैवेति, बौद्धिकता, शैलाश्रय, तदन्तर, अविरल, जिजीविषा, चिरायेंध, समतुल्य।
मूल
आलेख : यात्राएँ
जीवन
की
गतिशीलता
की
संवाहक
है।
“मनुष्य स्थावर वृक्ष
नहीं
है, वह जंगम
प्राणी
है। चलना मनुष्य
का
धर्म
है, जिसने उसे
छोड़ा, वह मनुष्य
होने
का
अधिकारी
नहीं।”1
भले ही देशकाल, समय और
परिस्थितियों
के
साथ
तीर्थाटन, देशाटन और
पर्यटन
के
रूप
में
यात्राओं
का
स्वरुप
और
अर्थ
निरंतर
बदलता
रहा
है
परन्तु
भ्रमण
का
जीवन
से
अविछिन्न
सम्बन्ध
सदा
ही
रहा
है।
भीतर
और
बाहर
से
उदात्त
बनाती, सांस्कृतिक समझ
को
विस्तार
देती
और
जीवन
को
नए
दृष्टिकोण
से
देखने
की
दीठ
मनुष्य
को
यात्राएँ
ही
देती
रही
है।
इसीलिए
तीर्थाटन
से
चली
आ
रही
आज
के
पर्यटन
की
सुदीर्घ
परंपरा
हमारी
संस्कृति
का
हिस्सा
है।
‘चरन्
वै
मधु
विन्दति’
यानी
जो
चलता
है
उसी
को
जीवन
का
अमृत–मधु
प्राप्त
होता
है।
माधुर्य
का
चरम
अर्थ
सम्पूर्णता
ही
है।
घुमक्कड़ी
से
ही
सम्पूर्णता
की
चाह
पूरी
होती
रही
है।”2 गंतव्य
की
रम्यता, वहाँ की
भव्यता, लोग, परिवेश के
साथ
ही
वह
अदेखा
भी
मन
को
नयी
कल्पनाएँ
भर
देता
है
जिसकी
चाह
रखते
यात्रा
का
आरम्भ
होता
है।
आधुनिक
युग
में
आवागमन
के
साधनों
के
विकास, तकनीक तथा संचार
माध्यमों
के
विकास
ने
यात्रा
को
बहुत
सुलभ, सुगम बना
दिया
है।
जिस
वजह
से
देश
दुनिया
में
यायावरों
की
संख्या
में
वृद्धि
हुई
है।
एक
समय
के
बाद
यात्रा–वृत्तांत
को
बड़ा
पाठक
वर्ग
मिला।
नए
दौर
में
कुछ
किताबों
ने
यात्रा
साहित्य
का
पाठक
वर्ग
तैयार
करने
में
विशेष
भूमिका
निभाई।
अब
पाठकों
को
यात्रा
का
स्थूल
वर्णन, रोजनामचा नहीं
पढ़ना
होता
बल्कि
यात्रा
के
बहाने
सामाजिक–सांस्कृतिक
जीवन
की
प्रमाणिक
झांकी
मिलने
लगी
है।
मनुष्य
अनादिकाल
से
यात्रा
करता
आया
है।
यात्रा
साहित्य
मनुष्य
के
ज्ञान
–पटल में वृत्ति
करता
है।
लेखक
अपने
यात्रा-संस्मरणों
द्वारा
देश–विदेश
की
भौगौलिक
स्थितियों, ऐतिहासिक धरोहरों
और
रीति
–रिवाजों से गहरा
परिचय
करवाता
है।
यात्रा-साहित्य
ज्ञान
और
मनोरंजन
के
साथ–साथ
मनुष्य
को
यात्रा
के
लिए
भी
प्रेरित
करता
है।
कश्मीर
से
कन्याकुमारी
तक
फैले
भारत
में
क्या
नहीं
है!
हिमाच्छादित
पर्वत, पहाड़, नदियाँ, नाले, झीलें, सागर तट, किले-महल, हवेलियाँ, पुरातत्व, चित्रकला, संगीत और
नाट्य
के
साथ
भांति–भाँति
के
लोग
और
उनकी
अनूठी
संस्कृति।
रेत
के
धोरों
में
उगे
गुलाब
सरीखे
जैसलमेर
के
स्वर्ण
दुर्ग
की
याद
कोई
कैसे
बिसरा
सकता
है!
रणथम्भौर
से
सरिस्का
अभ्यारण्य
छोड़ी
गई
बाघिन
के
बहाने
की
यात्रा
ने
तो
घुमक्कड़ी
की
मेरी
सोच
को
ही
नए
अर्थ
दे
दिए।
हर
स्थान
की
अपनी
अस्मिता, अपनी गरिमा
और
वैभव है।
यह
जब
लिख
रही
हूँ, मन पाखी
गौतम
बुद्ध
को
याद
कर
रहा
है।
कभी
उन्होंने
अपने
शिष्य
से
कहा
था
‘चरथ भिक्खवे
चरथ।’
यानी
भिक्षुओं
चलते
रहो, चलते रहो।
शायद
इसीलिए
कहा
गया
है
कि
जो
सभ्यताएं
चलती
रही, उनका विकास
हुआ
और
जो
बैठी
रही
उनका
भाग्य
भी
रूठा
रहा।
जल
यदि
एक
स्थान
पर
पड़ा
रहता
है, बहता नहीं
है
तो
सड़ांध
मारने
लगता
है।
सामाजिकता
का
भाव
लिए
जीवनगत
सौंदर्य
की
संवाहक
ही
तो
हैं
हमारी
तमाम
यात्राएँ।
मानव
को
उदात्त
बनाने
का
रचनात्मक
विधान
ऐतरेय
ब्राह्मण
के
मूल
मंत्र
‘चरैवेति, चरैवेति
...’में ही तो
है।
“हरेक यात्रा–संस्मरण
में
लेखक
के
बुद्धिपक्ष
के
साथ
–साथ ह्रदय पक्ष
का
भी
अद्भुत
सामंजस्य
दिखाई
पड़ता
है।”3
‘सफ़र एक
डोंगी
से
डगमग’
यात्रा-वृत्तांत
के
लेखक
राकेश
तिवारी
दिल्ली
से
कलकत्ता
तक
नौका
से
यात्रा
करते
हैं
और
संपूर्ण
यात्रा-वृत्तांत
में
लेखक
ने
अपने
ये
ही
अनुभव
साझा
किये
हैं
जिसमें
लेखक
की
बौद्धिकता
एवं
कल्पना
का
मणिकांचन
योग
दिखलाई
पड़ता
है।
राकेश
तिवारी
का
जन्म
2 अक्टूबर 1953 को
सीतापुर
जिले
के
बिसवां
गाँव
में
हुआ।
इन्होंने
काशी
हिन्दू
विश्वविद्यालय
से
प्राचीन
भारतीय
इतिहास, संस्कृति और
पुरातत्व
विषय
में
स्नातकोत्तर
की
उपाधि
प्राप्त
की।
इसके
बाद
मिर्ज़ापुर
के
चित्रित
शैलाश्रयों
पर
अवध
विश्वविद्यालय
से
विद्या
वाचस्पति
की
उपाधि
प्राप्त
की।
इनका
देश
के
विभिन्न
भागों
में
पुरातात्विक
सर्वेक्षण
एवं
उत्खनन
के
साथ
गंगा
घाटी
को
दक्षिण
भारत
से
जोड़ने
वाले
प्राचीन
‘दक्षिण-पथ’ की
यात्रा
करने
और
गहन
अध्ययन
का
लगभग
चालीस
वर्षों
का
अनुभव
रहा
है।
इन्होंने
कई
देशों
की
यात्राएँ
की
हैं।
यात्रा
करने, घूमने और
लिखने
में
इनकी
सहज
रूचि
है।
इनके
प्रमुख
यात्रा-वृत्तांत
‘पहिये के इर्द-गिर्द’, ’सफ़र
एक
डोंगी
से
डगमग’, ’पवन
ऐसा
डोले’, ‘अफगानिस्तान
से
ख़त-ओ-किताबत’
एवम्
‘पहलू में आए
ओर-छोर’
है।
प्रकृति
की
सुन्दरता
मानव
मन
को
अपनी
ओर
खींचती
है।
प्रकृति
के
प्रेम
एवं
सामीप्य
को
महसूस
करने
के
लिए
मनुष्य
प्रकृति
के
निकट
जाकर
उसके
साथ
समय
व्यतीत
करता
है। जीवन की
भागदौड
से मुक्ति
पाकर
अपने
अस्तित्व
को
प्रकृति
के
संसार
में
खोजने
की
चाह
लिए
वह
निकल
पड़ता
है।
बाद
में
अपने
अनुभव
को
मुक्त
भाव
से
अभिव्यक्त
कर
वृत्तांत
में
निबद्ध
कर
देता
है।
मानव
का
यह
भ्रमणकालीन
दस्तावेज
ही
यात्रा-साहित्य
कहलाता
है।
“देश की
भौगोलिक
परिधि
में
यात्राएँ
करने
के
दौरान
बहुत
से
साहित्यकारों
ने
नदियों
की
संगत
निभाई।
चूँकि
भारत
के
दार्शनिक
एवं
सांस्कृतिक
परिवेश
में
नदी
केवल
एक
भू-आकृति
नहीं
है, बल्कि करोड़ों
प्राणियों
एवं
वनस्पति
जगत
को
जीवन
देने
वाली
अविरल
प्रवाह
-मान स्त्रोत
है।
वेद-ऋचाओं
में
भी
गंगा, यमुना और
सरस्वती
जैसी
पवित्र
नदियों
का
स्तुति-गान
किया
गया
है।”4
प्राचीन ग्रंथों
में
हमें
नदी-घाटियों
में
सभ्यताओं
के
उत्थान
एवं
विकास
के
साक्ष्य
मिलते
है।
भारत
की
अनेक
सभ्यताऍ
एवं
नगर
इन्हीं
नदियों
के
किनारे
बसे
होने
के
कारण
पवित्रता
और
धार्मिक
आस्था
के
केंद्र
हैं।
भारतीय
जनमानस
में
नदी
की
छवि
मातृ-स्वरूपा
रही
है
और
सदियों
से
यहाँ
का
लोक
एवं
धर्म
इसी
रूप
में
इसकी
वंदना
करता
आया
है।
नदी और
समाज
के
पारस्परिक
सम्बन्ध
को
नदी
संस्कृति
की
संज्ञा
दी
गयी
है।
नदियों
के
महत्व
को
स्वीकारते
हुए
नदी
और
समाज, नदी और
मानव, नदी और
सभ्यता
के
संबंधों
को
पहचानने
की
कोशिश
में
कई
साहित्यकारों
ने
अपनी
यात्राओं
में
नदी
को
सम्मिलित
किया।
इस
कड़ी
में
भारतीय
समाज
को
जानने
का, अनेकों नदियों
यथा–चम्बल, यमुना, गंगा, टोंस, सोन, हुगली आदि
किनारे
बसे
शहरों, गाँवों के
जीवन
को
जानने, समझने और
भारतीय
ग्रामीण
जीवन
को
नजदीक
से
देखने
का
एक
प्रयास
है–‘सफ़र
एक
डोंगी
में
डगमग।’
यह
यात्रा-वृत्तांत
यात्रा
के
तौर
पर
बहुत
रोमांचक
पुस्तक
है
इसका
ऐतिहासिक
और
भौगौलिक
पक्ष
भी
बहुत
ज्ञानवर्धक
है।
इस
यात्रा-वृत्तांत
को
लेखक
ने
12 खण्डों, क्रमशः
‘लंगर उठने से
पहले’, ‘डोंगी
खुलती
है’, ‘चम्बलं
शरणं
गच्छामि’, ‘नमामि
यमुनामहे, यत्र गंगा
च
यमुना
चैव
यत्र
प्राची
सरस्वती’, ‘तीन
लोक
से
न्यारी
नगरी’, ‘बिना
पैसे
के
राम-राम’, ‘घाघरा-सोन–सदानीरा
संग’, ‘पाटलिपुत्र
जगत्
विख्यात’, ‘कोसी–संकरी
गली
निहारी’, ‘हर
चप्पा
हरियाला’
तथा
‘बलम कलकत्ता
पहुँच
गए’
में
पिरोया
है।
खंड
शीर्षकों
को
पढ़कर
ही
लेखक
के
पथ
का
अनुमान
लगाया
जा
सकता
है।
नदी
में
छोटी
सी
नाव
खेते
हुए
लेखक
घाट-घाट
के
ऐतिहासिक
महत्व
को
हमारे
सामने
प्रस्तुत
करता
जाता
है।
यह
यात्रा-वृत्तांत
उत्तर–
पूर्वी
भारत
की
भौगौलिक
संरचना, समाज, संस्कृति और
बोलियों
को
समझने
का
महत्वपूर्ण
दस्तावेज
है।
22 मार्च 1976 को
दिल्ली
के
ओखला
हेड
नहर
से
यात्रा
की
शुरुआत
हुई।
‘युवा परिभ्रमण
एवं
सांस्कृतिक
समिति’
नाव
यात्रा
दिल्ली
से
कलकत्ता
लिखी
टी–शर्ट
पहने, काली नाव
लेकर
लेखक
निकल
पड़े
इस
रोमांचक
यात्रा
पर।
दिलचस्प
बात
यह
है
कि
इस
बासठ
दिन
की
यात्रा
में
लेखक
ने
अकेले
ही
नाव
चलाने
का
निश्चय
किया
था
और
उसे
साकार
करके
भी
दिखाया।
यात्रा के
दौरान
जब
नाव
ओखला
हेड
से
यमुना
नहर
के
छिछले
पानी
को
पार
कर
धौलपुर
में
चम्बल
के
पानी
में
पहुँची
तब
चम्बल
के
बारे
में
विख्यात
कहानियों
से
लेखक
का
मन
घबराया, लेकिन चम्बल
वालों
से
मिले
अनन्य
स्नेह
और
आत्मीयता
ने
सदियों
से
कुख्यात
उस
घाटी
के
प्रति
लेखक
और
पाठक
का
दृष्टिकोण
बदल
दिया।
धौलपुर
से
आगे
बढ़कर
आगरा
होते
हुए
नाव
यमुना
में
पहुँची
तो
यमुना
किनारे
बसे
ऐतिहासिक
शहर
कानपुर
की
छटा
दर्शनीय
थी।
कानपुर
से
आगे
बढ़ने
पर
इलाहाबाद
का
संगम
और
काशी
के
घाटों
ने
भारतीय
संस्कृति
की
अनुपम
छवि
दिखाई।
सरयू, टोंस, सोन, कोसी के
पानी
में
होते
हुए
गाजीपुर, पटना, फरक्का को
पीछे
छोड़ते
हुए
रास्ते
में
आने
वाले
गाँव, खेत, खलिहान, मछुए, मल्लाह, साधु-संत, व्यापारी और
आम
जन
जीवन
को
अपने
में
समेटे
हुए
यह
डोंगी
यात्रा
कलकत्ता
की
हुगली
नदी
में
जाकर
पूरी
होती
है।
और
यहीं
से
नाव
यात्रा
का
अंत
और
लेखन
की
शुरुआत
हुई।
जिसका
वर्णन
लेखक
ने
उत्कृष्ट
भाषा
शैली
में
किया
है।
गंगा
नदी
से
ऐतिहासिक, धार्मिक महत्व
को
प्रतिपादित
करती
चलती
यह
यात्रा
उसकी
सहायक
नदियों
और
उसके
किनारे
बसी
जनजातियों
के
प्रत्यक्ष
विवरण
देती
चलती
है।
लेखक
को
यह
यात्रा
पूर्ण
करने
में
जहाँ
बासठ
दिन
लगे
वहीँ
यात्रा-वृत्तांत
लिखने
में
पूरे
तीस
साल।
ऐसे
में
एक
पुरातत्व
अध्येता
की
निगाह
से
देखा
गया
उत्तर–पूर्वी
भारत
विशेषतः
गंगा
नदी
का
क्षेत्र
इस
पुस्तक
में
एक
दम
जीवंत
रूप
में
पाठक
के
समक्ष
उपस्थित
हो
जाता
है।
रोमांच, उत्साह, बेचैनी, उकताहट, संघर्ष और
जिजीविषा
से
भरा
यह
यात्रा-वृत्तांत
अपनी
अद्भुत
लेखन
शैली
और
वर्णन
से
पाठक
को
बांधे
रखता
है।
विश्व की
प्राचीनतम
मानव
सभ्यता
की
जन्मस्थली
यह
भारत
कश्मीर
से
कन्याकुमारी
तक, गुजरात से
असम
तक
अनेकों
भौगालिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, धार्मिक, राजनीतिक, आर्थिक कारणों
से
हमें
आपस
में
जोड़े
हुए
हैं।
इसी
भारतीय
एकता
का
प्रत्यक्ष
विवरण
है
ये
यात्रा
वृत्तांत।
आदि
से
अंत
तक
विविध
ज्ञानवर्धक
जानकारियों
से
भरपूर
यह
यात्रा-वृत्तांत
रास्ते
में
आने
वाले
प्रत्येक
नदी, घाट, गाँव का
ऐतिहासिक
सामाजिक
विवरण
देता
चलता
है।
चम्बल
नदी
के
नामकरण
के
धार्मिक
एवम्
ऐतिहासिक
कारण
बताते
हुए
लेखक
लिखते
है
कि
“महाभारत के ‘द्रोण-पर्व’
में
नारद
मुनि
ने
कथा
सुनाई
है– ‘राजा
रन्तिदेव
के
दो
लाख
भोजन
बनाने
वाले
थे।
उनके
यहाँ
निरंतर
आने
वाले
अभ्यागतों, विप्रों तथा
अतिथियों
को
पकाए
हुए
तथा
बिना
पकाए
हुए
अमृत
तुल्य
भोजन
परोसे
जाते
थे।
ब्राह्मणों
को
न्यायतः
अर्जित
धन
से
ही
दान
दिया
जाता
था।
वेदों
का
धर्मतः
अध्ययन
करके
उसने
समस्त
शत्रुओं
को
वश
में
कर
रखा
था।
उनके
अग्निहोत्र
नामक
यज्ञ
के
अवसर
पर
उनकी
पाक–शाला
से
मेध्य
पशुओं
के
चमणे
की
राशि
से
चर्मण्वती
नदी
प्रभूत
हुई।
यही
चर्मण्वती
आज
की
चम्बिल, चामिल, चम्बल, चामर या
चामल
है।”5
इसी
प्रकार
जब
डोंगी
दिल्ली, हरियाणा, मध्यप्रदेश पार
कर
उत्तरप्रदेश
के
प्रसिद्ध
शहर
बनारस
पहुँची
तो
वहाँ
के
घाटों
का
ऐतिहासिक
महत्व
बताते
हुए
लेखक
ने
लिखा
है– “तुलसी
घाट
आया।
मानव
मानस
के
प्रत्येक
पक्ष
की
विवेचना
कर
रामचरितमानस
में
समेटने
वाले
तुलसी
बाबा
का
दीर्घकालीन
निवास
और
गोलोक
वास
का
स्थान।
कहते
है
कि
यही
गंगा
तट
पर
रानी
झाँसी
भी
जन्मी
जिनका
शौर्य
बुंदेलों
की
आग
बनकर
फूटा, सहस्त्रों गोरे
और
वीर
बुंदेले
उसमे
समा
गए। .....दशाश्वमेघ
घाट
के
बारे
में
प्रचलित
है
कि
चक्रवर्ती
भारशिव
राजाओं
के
घोड़े
बारम्बार
समस्त
धरती
पर
उनकी
वीरता
का
सिक्का
जमाकर
वाराणसी
लौटते
रहें।
बारम्बार
इस
पवित्र
घाट
पर
अश्वमेघ
यज्ञ
के
अवसर
पर
यज्ञ–कुण्डों
का
सुगंधित
धूम
दशों
दिशाओं
में
भरता
रहा। .....मर्णिकेश्वर
घाट
पर
जलती
बेतरतीब
चिताओं
से
उठती
ढेरों
चिनगारियाँ
हवा
के
साथ
हमारी
ओर
लपकती
चली
आतीं।
रह-रहकर
मांस–मज्जा
की
चिरायेंध
नाक
में
समा
जाती।
चिताओं
का
जलना
कभी
नहीं
रुकता।”6
नदी
संस्कृति
समाज
के
ऐतिहासिक
विवरण
ही
नहीं
अपितु
सामाजिक
सांस्कृतिक
विवरण
भी
विश्लेषित
करती
है।
लेखक
यात्रा
के
दौरान
कई
अंतर्कथाओं
को
विवेचित
करता
है, बिना पैसे
के
राम–राम
खंड
में
एक
अंतर्कथा
को
लेखक
पाठक
के
समक्ष
रखते
हैं– “लोक–परंपरा
में
गाँव
का
इतिहास
कृष्ण–काल
तक
जाता
है
गहमर–गह–मुर, गृहमुर, मुरा का
घर
या
गृह।
यहाँ
मुरा
नामक
दैत्य
रहता
था।
कृष्ण
और
कंस
में
परस्पर
शत्रुता
थी।
कृष्ण
ने
कंस
और
उसके
मित्रों
का
वध
कर
दिया।
मुरा
भी
कंस
का
साथी
था।
कृष्णा
ने
उसे
भी
मार
गिराया
और
फिर
मुरारी
कहलाए।”7
पाठक
को
पढ़ते-पढ़ते लगता
है
मानो
ग्रामवासियों
का
वो
प्रेम, आतिथ्य सत्कार
सिर्फ
लेखक
के
लिए
ही
नहीं
अपितु
पाठक
के
लिए
भी
है, जिसे अस्वीकार
कर
पाना
पाठक
के
लिए
भी
मुश्किल
है।
“भारत की आत्मा
गाँवों
में
बसती
है।”
महात्मा गाँधी का
यह
कथन
इस
यात्रा-वृत्तांत
में
पूर्णतः
चरितार्थ
होता
दिखाई
देता
है। कोसी नदी
की
एक
लोककथा
जो
वहां
के
जनजीवन
में
आज
भी
प्रचलित
है
उसका
उल्लेख
लेखक
अपने
वृत्तांत
में
करते
हुए
नदी
का
समाज
से
सांकृतिक
सम्बन्ध
द्बताते
है– ”कोसी
मइया
की
कथा
घर
–घर में गाई
सुनी
जाती
है
–‘कोसिका महारानी
नदी
नहीं
तिरहुत
की
कन्या।
बंगाल
में
ब्याही
गयी।
झगडालू
सास
–ननदों के अत्याचार
सहते
सहते
दुखी
होकर
लड़
पड़ी, खीझ के
मारे
सोरह
मन
के
चमचमाते
चांदी
के
आभूषण
चूर–चूर
कर
के
धूर
कर
डाले
और
चिटककर
तिरहुत
की
और
भागी।
ननदों
के
कुल्हाड़े
वाले
हजार
दानव
लेकर
चलनेवाली
कुल्हाड़ी
–आंधी और पहाड़
डुबाने
वाले
पहड़िया
पानी
पीछे
लगा
दिए।
कोसी
मइया
जान
छोकर
भागी, बंगाला जादू
के
जोर
से
आंधी
-पानी ने पीछा
पकड़
लिया।
जहाँ–जहाँ
कोसी
भागी
आंधी–पानी
ने
सब
नष्ट
कर
डाला।
इलाका
उजाड़
हो
गया।
तब
तक
कोसी
मइया
की
दुलारी
बहिन
दुलारी
दाय
ने
एक
दीया
जलाकर
जादू
काट
दिया।
कोसी
रुक
गई।”8
स्थान-स्थान पर
ग्रामीणों
द्वारा
दिए
जाने
वाले
फल, सब्जी, दूध, बतासे को
लेखक
उनका
स्नेहपूर्ण
आशीर्वाद
समझकर
स्वीकार
करते
चलते
हैं।
वे
लिखते
है–“किनारे
बुलाने
वालों
में
से
एक
श्री
पूजाराम
गाँव
के
प्राइमरी
स्कूल
के
मास्टर
साहब
ने
बातों
के
बीच
ही
किसी
को
गाँव
से
दूध–बतासा
लाने
रवाना
किया।
देखते
ही
देखते
लोटा
भर
दूध
और
पाव
भर
बतासे
हाजिर।
तनिक
सी
भूख
ना
होने
पर
भी
उन्होंने
पूरा
लोटा
ही
मुंह
में
उलट
दिया
जैसे
अरसे
बाद
गाँव
लौटने
पर
बाबा–दादा
ने
प्रगाढ
प्रेम
दरशाया
हो।
बाँह
पकड़कर
बोले–‘मेरे
डिंगा
बैठ
के
खाओ
लला!’
जब
तक
सारे
बतासे
गटक
नहीं
लिए
चलने
की
इजाजत
नहीं
मिली।”9
भारत गाँवों का
देश
है
और
साधारण
अर्थ
में
‘लोक’ गाँव में
बसी
जनता
के
परिचायक
है।
वर्तमान
युग
में
समस्त
संसार
के
मनुष्य
और
उससे
जुडी
विविध
अनुभूतियों
को
‘लोक’ अपने भीतर
रखता
है।
लोक
संस्कृति
किसी
समुदाय
की
जीवन
शैली
का
प्रतीक
हो
सकती
है।
लोक
से
ही
संस्कृति
की
निर्मिती
होती
है।
उसी
में
उसका
उन्नयन
होता
है।
“लोक संस्कृति
आदिम
मानव
से
लेकर
ग्राम्य
जीवन
की
सामूहिक
सौन्दर्यमूलक
अभिक्रियाओं
की
सहजात
अभिव्यक्ति
है।”10
लोक एवं ग्राम्य
जीवन
ही
नहीं
अपितु
सनातन
सभ्यता
के
मूल
में
गंगा
का
महात्म्य
बताती
लेखक
की
ये
पंक्तियाँ– “फिर
तो, मानव के
समस्त
क्रिया–कलापों
में
तन-मन
की
शुद्धि
के
लिए
गंगा
की
उपस्थिति
अनिवार्य
हो
गयी।
भारतीय
सभ्यता
की
रग–रग
में
गंगा
समा
गई।
उत्तर
से
दक्षिण
तक
नगरों–गांवों, नदियों और
लोगों
के
नाम
गंगा
पर
रखे
जाने
लगे, यथा–गंगापुर, गंगानगर, गंगैकोंडपुरम, गंगाखेर, गंगावाडी, गंगावती, रामगंगा, गोदावरी गंगा.....इत्यादि।”11
यही
नहीं
सनातन
संस्कारों
में
गंगा
की
महती
भूमिका
को
नकारा
नहीं
जा
सकता– “बच्चे
का
जन्म
हुआ, मनौती मानो
गंगा
की।
उपनयन
कराने
जाओ
गंगा
किनारे–हरिद्वार–प्रयाग–पाटलिपुत्र।
कुछ
बड़ा
हुआ
यज्ञोपवीत
के
अवसर
पर
फिर
वहीँ
पहुंचा।
सयाना
हुआ
गुरुकुल
पहुंचा
गंगा
किनारे।
..... मर ही गए
तो
मुँह
खोलकर
पान
कराया
जाता
गंगाजल।”12
रचनाकार
सृजन
द्वारा
संस्कृति
के
विशिष्ट
महत्व
को
अभिव्यंजित
करता
है।
यात्रा
जनित
अनुभवों
से
प्राप्त
बुद्धि;
हृदय
का
स्पर्श
पाकर
सृजन
करती
है।
हेमराज
कौशिक
इस
सम्बन्ध
में
लिखते
हैं
कि–“साहित्य
सृजन
यायावर
अपनी
सौंदर्य
बोध
क्षमता
और
सूक्ष्म
पर्यवेक्षण
शक्ति
के
द्वारा
स्वच्छंद
रूप
में
विचरण
करते
हुए
विभिन्न
स्थानों
की
यात्रा
करते
हुए
वहाँ
के
रीति–नीतियाँ, परम्पराओं, संस्कृति सभ्यता
लोगों
की
जीवन
शैली
का
परिचय
प्राप्त
करते
हुए
चलता
है।
वह
जिन
स्थानों, वस्तुओं, दृश्यों और
व्यक्तियों
से
साक्षात्कार
करता
है
उन्हें
आत्मिक
भाव
से
तन्मय
होकर
अपनी
विशिष्ट
भाषा
शैली
से
व्यंजित
करता
है।”13
धार्मिक दृष्टिकोण
से
यह
यात्रा-वृत्तांत
और
भी
महत्वपूर्ण
हो
जाता
है
क्योंकि
जिस
देश
में
नदी
को
माँ
के
समतुल्य
मानकर
पूजा
जाता
है, वहाँ स्थान
स्थान
पर, घाटों और
किनारों
पर
प्रातः
वंदन
और
संध्या
वंदन
के
दृश्य
दिखना
स्वाभाविक
है।
यथा, “संगम
निकट
आने
पर
तौलिया–गमछा
में
कपडे
लपेटे, डालियों में
फूल–पत्ता, चन्दन–माला
लिए, दूध के
डब्बे
और
गंगाजल
ले
जाने
के
लिए
लाये
ताम्र–पात्र
लटकाए
उत्साहपूर्ण
यात्रियों
से
भरी
नावों
की
भीड़
बढ़
गई।
.....-- गंगा माई
के
जयकारे, घंटियों की
टन
टन
और
नावों
की
भीड़
में
रास्ता
मनाते
मल्लाहों
की
नोंक–झोंक।.....--जोर–जोर
से
किए
जा
रहे
तरह–तरह
के
श्लोक–पाठ
ने
विशिष्ट
धार्मिक
वातावरण
रच
दिया।”14
नदियों
के
प्रति
ऐसा
ही
धार्मिक
आस्थामयी
दृष्टिकोण
हमें
अमृतलाल
वेगड़
कृत
‘सौंदर्य की नदी
नर्मदा’
में
भी
देखने
को
मिलता
है, जहाँ वे
अकेले
ही
साठ
वर्ष
की
आयु
में
3241 किमी. की पैदल
नर्मदा
यात्रा
करते
हैं
और
रास्ते
में
मिलने
वाले
सहयात्रियों
के
नर्मदा
के
प्रति
प्रेम
को
व्यक्त
करते
हुए
लिखते
हैं
कि
– “उन्होंने कहा, उन दिनों
में
अन्न
नहीं
लेता
था।
कंद-मूल, फल–फूल
या
दूध–दही।
वह
भी
मांगता
नहीं
था।
अनायास
मिल
जाता, तो ही
लेता।”
“यदि ना मिला
तो?” “तो
माँ
का
दूध।
इस
आदमी
की
श्रद्धा
देखकर
मैं
चकित
रह
गया। इसके लिए
नर्मदा
का
पानी, पानी नहीं
माँ
का
दूध
है।”15
दर्शन जीवन
की
आलोचना
है।
संसार
का
प्रत्येक
प्राणी
जन्मता
है, उसी में
पलता-पनपता
है, और अंत
में
उसी
में
अपनी
संसारी
जीवन
यात्रा
समाप्त
करता
हुआ
लीन
हो
जाता
है।
वास्तव
में
यह
मानवी
जीवन
के
स्वरुप, तात्पर्य, प्रयोजन, प्रारंभ तथा
अंत
के
प्रश्नों
में
प्रविष्ट
होता
है।
यह
संसारी
जीवन
उसके
मूल्य
तथा
उसके
तात्पर्य
की
व्याख्या
है।
उसके
उद्गम
तथा
लाभ
से
दर्शन
का
घनिष्ठ
सम्बन्ध
है।
दार्शनिक
दृष्टिकोण
से
ये
देखने
पर
स्पष्ट
हो
जाता
है
कि
संचरणशील
होने
के
कारण
प्रत्येक
प्राणी
संसार
में
भ्रमण
करता
है।
जीवों
में
संचरण
- शक्ति जन्मजात
रहती
है।
संसार
की
वास्तविकता
को
जानने–समझने
के
लिए
मनुष्य
को
इसकी
यात्रा
करनी
पड़ती
है।
अज्ञात
सत्ता
तक
पहुँचने
की
क्रिया
इसी
यात्रा
द्वारा
सम्पन्न
होती
है– “यात्राएँ
सिर्फ
भौतिक
संसार
को
देखने
के
चक्षु
नहीं, ये तो
अंतर्चक्षु
है, जिनके माध्यम
से
यात्री
‘स्व’
तक
की
यात्रा
करता
है।”16
लेखक ने अपनी
यात्रा
में
पाठक
को
दार्शनिक
भाव
से
जोड़ते
हुए
लिखा
है
कि-
“जो आया वही
मिटा।
प्रकृति
का
आदि
स्वरुप
आज
भी
वैसा
का
वैसा।
अनेकानेक
प्राणियों
का
अंत
हो
चुका, मानव का
भी
जरुर
होगा।
सृष्टि
में
कुछ
भी
स्थायी
नहीं।
यह
सब
सोचकर
वैराग्य
जागता। जीवन व्यर्थ
लगता।
सारी
आकांक्षाएं, रिश्ते और
महत्वाकांक्षाएँ
वृथा
प्रतीत
होते।”17
भाषा
और
शैली
के
दृष्टिकोण
से
भी
यह
यात्रा-वृत्तांत
उत्कृष्ट
कोटि
का
है।
इसमें
लेखक
ने
स्थानीय
भाषा
और
बोलियों
के
शब्दों, लोकोक्तियों को
वाक्य
विन्यास
में
प्रयोग
कर
उस
स्थान
की
लोक
संस्कृति
की
झलक
दिखाई
है, साथ ही
तत्कालीन
समाज
में
प्रचलित
अंग्रेजी
शब्दों
का
भी
यथोचित
प्रयोग
किया
है।
पूरे
यात्रा-वृत्तांत
में
ब्रज, अवधी और
भोजपुरी
बोलियों
के
शब्दों
की
भरमार
है, यथा धौलपुर
क्षेत्र
की
ब्रज
भाषा
को
दिखाता
यह
उदाहरण
है– ‘चम्बिल
को
पानी
बहुत
साफ़
है।
पीनों
में
भोत
अच्छो
लागि
है।.....
जहाँ
के
आदमी
दिल
के
बहुत
साफ़
है।
तुम्हाई
खूब
सेवा
करिहें, दूध–मठा
पिबैहें।”18
अवधी
को
दिखाता
यह
संवाद–‘आज–काल
लरकावा
बाप–महतारी
का
कौनो
ख़याल
नहीं
राखत।
इधर–उधर
फिरै
की
का
जरुरत
है? गुहीवा(घरवाली)घर
मा
अलग
परेशान
होई।’.....कहाँ
पढ़त
हौ?-ऐसी
जात्रा
मा
काहे
निकल
परे?.....घर
कौन
जगह
है?’.......‘कौनी
बखत
चला–चली
होई
....कौन सैन परेसानी
है?....का
खात
हौ?......सोवत
कहाँ
हौ?”19
भोजपुरी के
संवाद
भी
बड़े
बेजोड़
हैं
यथा–हम
तोरा
खाय
भैर
परबल
दै
देवौ
आरो
डायर
(डाँड) खींच देनौं।’........’का
सोचत
हौवा
गुरू!
दसौं
अँगुरी
घी
में
बा।
सरवन
से
परवलौ
मिली
और
ओ
पारी
पहुँच
चलल
जाई।”20
अंग्रेजी
भाषा
के
शब्द
भी
पूरी
यात्रा
में
बहुतायत
से
आते
हैं–स्टीमर, ट्रांजिस्टर, रेडियो, बोट क्लब, स्टूडेंट, वेल डन, कांग्रेचुलेशंस
आदि।
इसी प्रकार
प्रकृति
के
सौंदर्य
वर्णन
में
लेखक
ने
उपमाओं
का
प्रयोग
पांडित्य
प्रदर्शन
के
लिए
नहीं
बल्कि
सहज
रूप
में
किया
है
यथा
चम्बल
का
सौंदर्य
बताता
यह
कथन
–“चम्बल घाटी के
मरदाने
सौंदर्य
की
सख्ती
में
तनिक
सी
स्त्रियोचित
कोमलता
का
सम्मिश्रण
है।
यह
सौंदर्य
धरती
जैसा
सख्त, आकाश जैसा
खुला
और
मेघ-सा
स्वच्छंद
है।
इसके
साथ
थोड़ी
नरमी
खुरदरे
खारों
पर
लोटती
चम्बल
की
नरम
नीली
धारा
जैसी
मिल
गई
है।”21
गंगा
मैया
को
अपना
सब
कुछ
मानने
वाले
भोले
ग्रामवासियों
का
भक्ति
भाव
इस
लोकगीत
में
दिखाई देता
है, यथा -
“सेवा
में
मरीला
तोहार
हे
गंगा
जी
....
माँग माँग
एनी
हो
बर
कुछ
माँग
जे तोरे
मन
में
समाय
हे
गंगा
जी
पढ़ल पंडितवा
मैं
ससुर
माँगीला
मचिया बैठला
संग
सास
हे
गंगा
जी।
घोड़वा चढ़न
के
बेटा
माँगीला
गोडवा लागन
के
पतोह
हे
गंगा
जी!
राम ही
चन्द्र
अस
पुरुष
माँगीला
....”22
इस
प्रकार
भाषिक
दृष्टिकोण
से
भी
यह
यात्रा-वृत्तांत
हिंदी
के
श्रेष्ठ
यात्रा
वृत्तांतों
में
शुमार
होता
है।
निष्कर्ष
: ‘सफ़र एक
डोंगी
में
डगमग’
सिर्फ
एक
सफ़र
यात्रा
ही
नहीं
है, यह यात्रा
है
असंख्य
ऐतिहासिक
स्थलों
की, उनके इतिहास
की, राजवंशों के
गौरव
की, लोकजीवन की
मिठास
की, आनंद और
उल्लास
की, नदियों के
संगम
की
और
अंत
में
अपने
प्रियतम
सागर
से
मिलने
को
उत्कट
अभिलाषी
नदी
की।
शोध–पत्र
नदी
का
समाज
से
सामाजिक, सांस्कृतिक, दार्शनिक, मिथकीय, अंतर्कथात्मक, आध्यात्मिक तथा
साहित्यिक
सम्बन्ध
बताने
का
एक
प्रयास
है।
प्रसिद्ध
आलोचक
रामचंद्र
शुक्ल
जी
कहते
है
‘यात्रा को निकलती
है
बुद्धि
पर
हृदय को भी
साथ
लेकर’l इस यात्रा-वृत्तांत
के
बारे
में
कहना
न
होगा
कि, ‘यात्रा
को
निकलती
है
डोंगी पर पाठक
को
भी
साथ
लेकर।’
1. राहुल सांकृत्यायन :घुमक्कड़ शास्त्र, किताब महल, नई दिल्ली, 2020, पृ.10
2. राजेश कुमार व्यास : कश्मीर से कन्याकुमारी, पुरोवाक्, राष्ट्रीय पुस्तक न्यास, नयी दिल्ली,
2012, पृ.7
3. निधि शुक्ला : बनास जन, (सं.) पल्लव, तुम्हारा नाम क्या है तिब्बत, अक्टूबर 2022, पृ.9
4. प्रवीण कुमार जोशी : हिंदी के यात्रा साहित्य में नदी संस्कृति : विश्लेषणपरक अध्ययन (शोध–प्रबंध),
5. राकेश तिवारी : सफ़र एक डोंगी में डगमग, राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली, 2014, पृ.42
6. वही, पृ.105-108
7. वही, पृ. 125
8. वही, पृ.166
9. वही, पृ. 56
10. श्यामसुन्दर दुबे : लोक : परंपरा, पहचान एवं प्रवाह, राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली, 2019, पृ.
45
11. राकेश तिवारी : सफ़र एक डोंगी में डगमग, राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली, 2014, पृ. 94
12. वही, पृ. 95
13. हेमराज कौशिक : निर्मल वर्मा ; व्यक्तित्व एवं कृतित्व, अलका प्रकाशन, दिल्ली, 2012, पृ. 190
14. राकेश तिवारी : सफ़र एक डोंगी में डगमग, राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली, 2014, पृ. 87
15. अमृतलाल वेगड़ : सौंदर्य की नदी नर्मदा, पेंगुइन बुक्स इंडिया प्रा. लि. गुड़गाँव, 2006, पृ.16
16. सुभद्रा राठौर : ‘यात्रा- साहित्य : विधा और संभावनाएं’, हिंदी का कथेतर गद्य :परंपरा और प्रयोग
(सं. दयानिधि मिश्र ), वाणी प्रकाशन, 2020, पृ. 70
17. राकेश तिवारी : सफ़र एक डोंगी में डगमग, राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली, 2014, पृ.109
18. वही, पृ.52
19. वही, पृ.73-74
20. वही, पृ.150
21. वही, पृ.54
22. वही, पृ.121
असिस्टेंट प्रोफेसर, हिन्दी विभाग, जय नारायण व्यास विश्वविद्यालय, जोधपुर
kirtiatish@gmail.com
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