- डॉ. कोकिल
शोध सार : महादेवी वर्मा एवं सुमित्रानंदन पंत दोनों ही छायावाद के दो विशेष साहित्यकार हैं। दोनों ने मध्यकाल की काव्य चेतना को न्यून रुप-रंग और वाणी प्रदान की है। पंत ने जिस खड़ी बोली को रमणीयता दी, महादेवी ने उसे मार्मिकता देकर उसकी प्राण-प्रतिष्ठा कर दी। भाषा के सौन्दर्य में पंत बेजोड़ हैं, अभिव्यक्ति की मार्मिकता में महादेवी। पंत मुख्यतः वर्णानात्मक हैं, महादेवी मुख्यतः उदगारात्मक हैं। प्रस्तुत शोधालेख में ध्वनि के स्तर पर कवि एवं कवयित्री ने कहीं तो कर्ण कटु ध्वनियों को कोमल बनाया है, कहीं द्वित्व वर्णो को सरल किया है, कहीं संयुक्ताक्षरों का सरलीकरण किया है, कहीं भाषा में माधुर्य लाने के लिए सघोष तथा महाप्राण ध्वनियों को अघोष तथा अल्पप्राण बनाया है, तो कहीं प्रसंग के अनुसार भीषणता प्रदर्शित करने के लिए अघोष तथा अल्प प्राण ध्वनियों का सघोष तथा महाप्राण ध्वनियों के रूप में भी परिवर्तित किया है। जिससे काव्य भाषा में कोमलता, मधुरता, सरसता, सजीवता आदि का समावेश हुआ है। प्रस्तुत आलेख द्वारा मैं ‘पंत एवं महादेवी वर्मा के काव्य में ध्वनि विचलन का तुलनात्मक अध्ययन’ को स्पष्ट करने का प्रयास कर रही हूँ।
बीज शब्द : कर्ण-कटु ध्वनि, द्वित्व वर्ण, छन्दपूर्ति, तुकबन्दी, ध्वन्यात्मक, भीषणता, संयुक्ताक्षर, रुपान्तरण, पिपासित, आश्वासन।
मूल आलेख : शैलीविज्ञान के आधार पर जब किसी कृति या कृतिकार की भाषा का अनुशीलन किया जाता है, तब सर्वप्रथम ध्वनि का विश्लेषण एवं विवेचन किया जाता है। प्रायः कवि या लेखक कभी तो परम्परा से प्राप्त ध्वनि में कुछ परिवर्तन करके एक नये ढंग से ध्वनि का रूपान्तर किया करते हैं, जिससे उनकी रचना में नवीनता के साथ-साथ अधिक चारूता एवं सरसता आ जाती है। कभी वे ऐसी-ऐसी ध्वनियों का चयन किया करते हैं, जो उनके भावों एवं विचारों के उद्घाटन में अधिक सहायक होती है तथा जिनके फलस्वरूप भावों एवं विचारों का बिम्बात्मक शब्द-चित्र हमारे सामने प्रस्तुत हो जाता है, इसके साथ ही कभी-कभी वे ध्वनियों का सासामानांतर प्रयोग करके अपनी रचना को अधिकाधिक रोचक, मार्मिक एवं आकर्षण बनाया करते हैं। इस प्रकार शैली विज्ञान की दृष्टि से ध्वनि के अध्ययन की तीन दिशाएँ स्पष्ट ज्ञात होती है- (क) ध्वनि-विचलन (ख) ध्वनि-चयन (ग) ध्वनि-समानान्तरता। इनमें ध्वनि-विचलन की विवेचना निम्नलिखित है-
पन्त एवं महादेवी वर्मा की काव्य भाषा में विचलन -
पन्त काव्य
में -
कविवर सुमित्रानन्दन पंत छायावाद के आधार स्तम्भ हैं। अतः उनके काव्य में छायावाद की समस्त विशेषताऐं विद्यमान हैं। इन्हीं छायावादी विशेषताओं के अनुरुप पंतजी ने अपने काव्य में कहीं माधुर्य गुण के लिए, कहीं प्रसाद गुण के लिए, कहीं ओज गुण के लिए, तद्नुरूप ध्वनियों का विचलित प्रयोग किया है। इतना ही नहीं, आपने रीति, वृति, रस, अलंकार, बिम्ब, प्रतीक आदि को दृष्टि में रखकर शब्दों की मूल ध्वनियों को भावाभिव्यंजना के अनुरूप परिवर्तित करते हुए अपने काव्य में अनेकानेक स्थलों पर ध्वनि-विचलन के नवसर्जित प्रयोग किये हैं, यद्यपि कहीं-कहीं पर ये प्रयोग मात्र छन्द पूर्ति के लिये भी हुए हैं तथापि अधिकांश ऐसे प्रयोग किसी विशेष उद्देश्य को लेकर ही किये गये हैं। इनमें से प्रमुख-प्रमुख ध्वनि-विचलन और उनके उद्देश्य एवं कारण इस प्रकार है-
कर्ण-कटु ध्वनियों का सरलीकरण -
माधुर्य के कवि पंत ने अपनी रचना में कोमलता लाने के लिये ट, ठ, ड, ढ़ को छोड़कर ‘क’ से ‘म’ तक के वणों को ड़, अ, ण, न, म से संयुक्त करते हुए प्रयुक्त किया है, तथा इनमें भी कहीं तो ‘ण’ ध्वनि के स्थान पर न ध्वनि कहीं ‘ण’ ध्वनि के स्थान पर ‘र’ ध्वनि और कहीं ‘ड’ ध्वनि के स्थान पर भी ‘र’ ध्वनि का ही प्रयोग किया है यथा-
‘‘हाय
रूक गया यहीं संसार
बना सिन्दूर अंगार।
वात-हत लतिका वह सुकुमार
पड़ी है छिन्नाधार।”1
यहाँ विधवा की स्थिति को तरू से छिन्न लतिका के द्वारा प्रस्तुत किया गया है। इसमें ल, त, क, र, आदि ध्वनियों का प्रयोग कवि ने कर्ण कटु ध्वनियों को सरल बनाने के लिये किया है।
“सघन मेघों का भीमाकाश
गरजता है जब तमसाकार
दीर्घ भरता समीर निःश्वास
प्रखर झरती जब पावस-धार”2
यहाँ पावस के भीषण चित्रण में कर्ण कटु ध्वनियों का कवि ने प्रयोग नहीं किया है।
ध्वनि की यह कोमलता ध्वनि विचलन का सशक्त प्रयोग है। कहना न होगा ऐसे सभी प्रयोग एक ओर तो पंत की माधुर्य एवं प्रसाद गुण पूर्ण भावना के परिचायक है और दूसरी ओर शैली वैज्ञानिक धरातल पर ध्वनि सम्बन्धी विचलन के उदाहरण हैं।
महादेवी वर्मा -
“अचल हिमगिरी के हृदय में आज चाहे कम्प हो ले,
या प्रलय के आँसुओं में मौन अलसित व्योम रो ले,
आज पी आलोक को डोले तिमिर की घोर छाया,
जाग या विद्युत-शाखाओं में निठुर तूफान बोले।”3
इस ओजपूर्ण प्रसंग को महादेवी ने कोमल ध्वनियों द्वारा रूपायित करने का सफल प्रयास किया है।
“चीरकर भू-व्योम को प्राचीर हों तम की शिलाएँ,
अग्निशर-सी ध्वंस की लहरें जला दें पथ-दिशाएँ,
पग रहे सीमा, बने स्वर, रागिनी सूने निलय की,
शपथ धरती की तुझे ‘औ’ आन है मानव हृदय की।।”4
इन पंक्तियों में भी भीषण परिवेश के कर्ण कटु ध्वनियों से नहीं अपेक्षाकृत सरल प्रसाद गुण सम्पन्न ध्वनियों से स्पष्ट किया गया है। यह भाषिक चमत्कारपूर्ण प्रयोग शैली विज्ञान की दृष्टि से ध्वनि विचलन का उदाहरण है।
दोनों साहित्यकारों के काव्य में जीवन के भीषण चित्र कर्ण कटु वर्गों से नहीं, प्रसाद गुण सम्पन्न वर्गों से चित्रित किये गये हैं। ऐसे प्रयोग एक ओर तो दोनों के माधुर्य एवं प्रसाद गुण पूर्ण भावना के परिचायक है तो दूसरी ओर शैली वैज्ञानिक धरातल पर ध्वनि विचलन के उदाहरण है।
दित्य वर्णों का सरलीकरण -
पन्त काव्य
में -
पंत ने अपने काव्य में अनेक स्थलों पर द्वित्व वर्णों को सरल एवं काव्यानुकूलन बनाने के लिये उनकी ध्वनियों में परिवर्तन कर दिया है, जिसके परिणामास्वरूप संस्कृत का ‘हिल्लोल’ शब्द हिलोर के रूप में विपथित हो गया है। इसी एक ‘हिलोर’ शब्द को पन्त जी ने अनेक स्थलों पर प्रयुक्त किया है। यथा-
“स्वर्ण, सुख, श्री, सौरभ में भोर
विश्व को देती है जब बोर,
विहग-कुल की कल कण्ठ-हिलोर
मिला देती भू-नभ के छोर।”5
यहाँ हिल्लोल शब्द की द्वित्ववर्णजन्य जटिलता को दृष्टि में रखकर पन्त जी ने हिलोर शब्द को अपनाया है, जो कि सरलता एवं सरसता से ओत प्रोत है तथा ध्वनि-विचलन का उदाहरण है। वैसे यहाँ विचलन दो प्रकार से देखा जा सकता है।
एक तो द्वित्ववर्ण ‘ल्ल्’ ध्वनि का लोप और दूसरा शब्द के अंत में ‘ल’ के स्थान पर ‘र’ ध्वनि का प्रयोग। अतः यहाँ दोनों दृष्टियों से ध्वनि सम्बन्धी विचलन है।
महादेवी वर्मा के काव्य में -
“इन कनक रश्मियों में अथाह,
लेता हिलोर तम-सिंधु जाग।”6
यहाँ भी
‘हिल्लोल’ शब्द की द्वित्ववर्णजन्य जटिलता को दृष्टि में रखकर हिलोर शब्द को
अपनाया है जो कि सरसता एवं सरलता से ओत-प्रोत है तथा ध्वनि-विचलन का श्रेष्ठ उदाहरण है।
इस प्रकार के प्रयोग भाव में सरलता एवं काव्यात्मकता लाने के लिये किये गये हैं, ये ध्वनि के स्तर पर विचलन है। द्वित्ववर्ण सम्बन्धी ऐसे अनेक प्रयोग कविवर सुमित्रानन्दन पन्त जी तथा महादेवी वर्मा जी के काव्य में अनेक स्थलों पर प्रयुक्त हुए हैं।
छन्द पूर्ति हेतु ध्वनि विचलन -
पन्त जी
के काव्य में -
छायावादी कवि पन्त की काव्य-भाषा, छायावादी काव्य की प्रमुख भाषा मानी जाती है, क्योंकि उसमें समस्त छायावादी भाषिक तत्व विद्यमान है और वहाँ भाषिक स्तर पर जो भी नूतन प्रयोग हुआ है वह किसी न किसी उद्देश्य को लेकर प्रयुक्त किया गया है, तथापि कुछ स्थल ऐसे अवश्य हैं जहाँ मात्र छन्दपूर्ति के लिये ही भाषा के नवीन प्रयोग किये गये हैं। ऐसे प्रयोग पन्त जी की काव्यभाषा में ध्वनि के स्तर पर भी मिलते हैं जिन्हें मध्यम श्रेणी का ध्वनि-विचलन माना जा सकता है।
‘‘हमारे निज सुख दुःख निश्वास
तुम्हें केवल परिहास
तुम्हारी ही विधि पर विश्वास
हमारा चिर-आवश्वास।”7
प्रस्तुत पंक्तियों में पन्त ने ‘आश्वासन’ का प्रयोग ‘आश्वास’ के रुप में किया है जबकि आश्वास एवं आश्वासन दोनों की अर्थबोध कराने की क्षमता बिल्कुल समान है। अतः स्पष्ट है कि आश्वास को 'आश्वासन के रूप में प्रयुक्त करना न तो कुछ अतिरिक्त कहने में समर्थ है और न काव्य के मूल स्वर को प्रदर्शित करने में सक्षम है, मात्र छन्दपूर्ति को दृष्टि में रखकर ही ‘आश्वासन’ शब्द का आश्वास के रूप में नूतन प्रयोग किया गया है।
महादेवी वर्मा -
‘‘दुख से आविल, सुख से पंकिल
बुदबुह से स्वप्नों से फेनिल,
बहता है युग-युग से अधीर।”8
‘‘पिक की मधुमय वंशी बोली
नाच उठी सुन अलिनी भोली।”9
प्रथम उदाहरण में आविल, पंकिल एवं द्वितीय उदाहरण में आलिनी, भोली शब्द प्रयोग इसी प्रकार का है। यह प्रयोग छन्दपूर्ति के साथ-साथ अतिरिक्त भाव की भी अभिव्यंजना में सक्षम है। दोनों का काव्य ऐसी अनेक पंक्तियों से युक्त है।
‘‘धीर वट की दी न नीप अशोक मन विश्राम की दी,
ज्वाल में उसने हमें नित छाँह प्रेमिल प्राण की दी।”10
कहना न होगा कि प्रेमिल प्रयोग भी इन्हीं विशेषताओं से युक्त है।
तुलनात्मक अध्ययन -
अन्य छायावादी कवियों की तरह पन्त एवं महादेवी के काव्य में छन्दपूर्ति हेतु छन्द विचलन के अनेक उदाहरण मिलते हैं। इस प्रकार के ध्वनि विचलन में पन्त जी की दृष्टि विशेष रूप से रमी है। इससे काव्य में नवीन अर्थों की अभिव्यंजना भी होती है। इससे इनकी सार्थकता बढ़ जाती है।
तुकबन्दी -
पन्त जी
के काव्य में -
कहीं-कहीं पर दो पंक्तियों के अन्तिम शब्दों में परस्पर तुक मिलाने के लिए भी पन्त जी एवं महादेवी वर्मा जी ने नये ध्वन्यात्मक प्रयोग किये हैं| यथा-
“तूने ही पहले बहु-दर्शिनी।
गाया जागृति का गाना,
श्री-सुख-सौरभ का नभ-चारिणी
गूँथ दिया ताना-बाना।”11
“याद है क्या न प्रात की बात?
खिले थे जब तुम बनकर फूल?
भ्रमर बन, प्राण! लगाने धूल
पस आया मैं, चुपके शूल।”12
उक्त पंक्तियों में दर्शिनी, चारिणी, गाना, बाना, फूल, धूल एवं शूल प्रयोग तुकबन्दी के साथ-साथ काव्य जगत में नये आयामों की सृष्टि भी कर रहे हैं।
महादेवी वर्मा -
“बीन-बन्दी तार की झंकार है आकाशचारी,
धूलि के इस मलिन दीपक से बँधा है तिमिरहारी।।”13
“यह स्वर्णरश्मि छू श्वेत-भाल,
बरस जाती रंगीन हास,
सेली बनता है इन्द्रधनुष
परिमल मल मल जाता बतास।।”14
“आकाशचारी के तुक में तिमिरहारी इसी
तरह हास बतास प्रयोग में तुकबन्दी से पंक्तियाँ आकर्षक और सारगर्भित हो गयी है यहाँ तुकबन्दी की मृदुता अर्थ की तरलता की पोषक है।
तुलनात्मक अध्ययन -
तुकबन्दी का प्रयोग दोनों कवियों में सायास होकर भी कमजोरी का पर्याय नहीं है क्योंकि ये प्रयोग केवल तुक मिलाने के लिए नहीं आये हैं। इनसे कविता में नाद सौन्दर्य के साथ भावाकर्षण भी होता है। जिनमें अनन्त अर्थ विस्तार की संभावनाएं भी निहित है इसीलिए इन कवियों की तुकबन्दी नीरस और सरकने वाली नहीं लगती, उसमें रचनाकार का श्रम नहीं झलकता।
लोकभाषा का प्रभाव -
पन्त जी
के काव्य में -
पन्त एवं महादेवी वर्मा ने लोकभाषा का प्रयोग करते हुए उसके अनुरूप ही शब्दों को तोड़ा-मरोड़ा है तथा उनकी ध्वनियों में स्थान-स्थान पर मूलभूत परिवर्तन कर दिये है। ध्वनियों के ये मूलभूत परिवर्तन भी शैलीवैज्ञानिक दृष्टि से ध्वनि विचलन के अन्तर्गत ही आते हैं। यथा-
‘‘पिघल होठों का हिलता हास,
दृगों को देता जीवन-दान,
वेदना ही में तपकर प्राण,
दमक दिखलाते स्वर्ण-हुलास।”15
उक्त पंक्तियों में कवि ने ‘उल्लास’ शब्द के स्थान पर ‘हुलास’ शब्द का प्रयोग किया है जिससे ‘‘आ” ध्वनि को ‘उ’ ध्वनि के रूप में परिवर्तित कर दिया गया है, ध्वनियों का यह रूपातंरण ध्वनि सम्बन्धी विचलन के अन्तर्गत ही आता है।
“निर्निमेष, क्षणभर, मैं उनको रहा देखता
सहसा-मुझे स्मरण हो आया-कुछ दिया पहिले।।”16
उक्त पंक्तियों में कवि ने ‘पहले’ के स्थान पर पहिले शब्द का प्रयोग करके ‘अ’ ध्वनि को ‘ई’ ध्वनि के रूप में रूतांतरित कर दिया है। अतः लोकभाषा को अपनाते हुए ध्वनि विचलन का प्रयोग किया है।
‘‘मैं नहीं चाहता चिर-सुख,
मैं नहीं चाहता चिर-दुःख,
सुख-दुःख की खेल मिचौनी,
खोले जीवन अपना मुख।”17
‘‘मैं नवप्रकाश सन्देशवाह बन आँऊगी,
संध्या पलनों में झुला सुनहले युग प्रभात।”18
उक्त पंक्तियों में कवि ने खेल मिचौनी एवं संध्या आदि शब्दों का प्रयोग किया है जिससे शब्दों की मूल ध्वनियों को हटाकर उनके स्थान पर दूसरी ध्वनियों के प्रतिस्थापना से यदि एक ओर लोकभाषा का माधुर्य दिखाया है तो दूसरी ओर यहाँ ध्वनि-विचलन को भी स्थान दिया है।
महादेवी वर्मा -
“आज मरण का दूत तुम्हें छू,
मेरा पाहुन प्राण बन गया।”19
“झूलते चितवन गुलाबी
मैं चले घर खग हठीले।।”20
“आज उत्तर हो सभी का ज्वालवाही श्वास तेरा।
छीजता है इधर तू उस ओर बढ़ता प्राती।।”21
“किरणों के अंकुर बनते यह जो सपने बोता है।”22
उक्त पंक्तियों में कवयित्री ने पाहुन, हठीले छीजता एवं सपने बोता आदि शब्दों का प्रयोग करके लोकभाषा का माधुर्य दिखाया है तो दूसरी ओर ध्वनि विचलन को भी स्थान दिया है।
लोकभाषा में लोकजीवन पलता और बढ़ता है उसी में साँस लेता है इसीलिए साहित्यकार लोक भाषा का प्रयोग सहज रूप में ही करते रहे हैं, लोकभाषा की तरह शब्दों को तोड़ने-मरोड़ने और परिवर्तन से उसकी जीवन सम्पृक्ति का बोध होता है। पन्त जी एवं महादेवी जी के काव्य में लोकभाषा के शब्दों के प्रयोग से चारूता का संचार होता है। उससे लयात्मक सौन्दर्य द्विगुणित हो उठता है।
ध्वनात्मक लिंग परिवर्तन -
पन्त काव्य
में -
प्रकृति के सुकुमार कवि को पुल्लिंग की अपेक्षा लिंग के प्रयोगों में अधिक माधुर्य की अनुभूति हुई है। अतः पन्त जी एवं महादेवी जी ने अपने काव्य में अनेक स्थलों पर पुल्लिंग ध्वनियों को स्त्रीलिंग ध्वनियों में रूपान्तरित करके ध्वनि-विचलन को अपनाया है। जैसे-
“सरल शैशव की सुखद सुधि-सी वही
बालिका मेरी मनोरम मित्र थी।”23
यहाँ पर ‘बलिका’ शब्द स्त्रीलिंग है परन्तु कवि ने ‘मित्र’ शब्द का प्रयोग किया है जो कि पुल्लिंग है। जबकि यहाँ पर बालिका शब्द प्रयुक्त हुआ है तो स्त्रीलिंग शब्द का ही प्रयोग होना चाहिए। किन्तु कवि के इस प्रयोग से यहाँ पर लिंग परिवर्तन हुआ है तथा शैलीवैज्ञानिक दृष्टि से यह ध्वनि विचलन के अन्तर्गत ही आते हैं।
“उषा-सस्मित किसलय-दल
सुधारश्मि से उतरा जल।”24
यहाँ पर उषा शब्द नारी के लिए प्रयुक्त हुआ है किन्तु सस्मित शब्द का प्रयोग भी हुआ है जबकि सस्मिता होना चाहिए क्योंकि सस्मिता स्त्रीलिंग है तथा सस्मित पुल्लिंग। अतः यहाँ पर भी कवि ने लिंग परिवर्तन करके ध्वनि विचलन का प्रयोग किया है।
महादेवी वर्मा -
“यह बताया झर सुमन ने,
वह सुनाया मूक तृण ने,
वह कहा बेसुध पिकी ने,
चिर-पिपासित चातकी ने।।”25
यहाँ पर भी पिपासित शब्द पुरूष परक विशेषण है किन्तु कवयित्री ने इसे नारी चातकी के लिये प्रयुक्त किया है। अतः यहाँ पर भी लिंग परिवर्तन हुआ है तथा यह शैलीवैज्ञानिक दृष्टि से ध्वनि विचलन के अन्तर्गत आता है।
तुलनात्मक अध्ययन -
इस प्रकार का विचलन घनानंद के वाक्य में मिल जाता है इसे दोष रूप में नहीं ग्रहण किया जाता है क्योंकि इसके अतिरिक्त अर्थ की व्यजंना होती है कभी-कभी छन्दपूर्ति के लिए ऐसे प्रयोग सर्वनाम के रूप में एवं विशेषण के रूप में आते हैं। यह दोष नहीं बल्कि उनका सौन्दर्य बन जाता है। धीरे-धीरे लिंग विपर्यय दोष नहीं गुणरूप में छायावादी कवियों के साथ जुड़ गया है।
निष्कर्ष : उपर्युक्त कवि एवं कवयित्री ने कहीं कर्ण-कटु ध्वनियों को सरल करने के लिए अपनी काव्य भाषा में विचलन का प्रयोग किया है तो कहीं द्वित्व वर्णों को सरल करने के लिए। पंत एवं महादेवी जी के काव्य में छन्दपूर्ति हेतु छन्द विचलन के भी अनेक उदाहरण मिलते हैं। दोनों ने तुकबन्दी के लिए एवं लयात्मक सौन्दर्य के लिए तो कहीं ध्वनात्मक लिंग परिवर्तन के लिए विचलन का प्रयोग किया है। इससे काव्य में सौन्दर्य बढ़ गया है।
असिस्टेन्ट प्रोफेसर, हिन्दी विभाग, श्री द्रोणाचार्य स्नातकोत्तर महाविद्यालय, दनकौर (गौतम बुद्ध नगर)
kokil.agarwal24@gmail.com, 8630825952
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