- करन
शोध
सार : उच्च शैक्षिक
संस्थानों
का
काम
जहां
एक
ओर
विविध
सामाजिक-आर्थिक
पृष्ठभूमि
से
आने
वाले
विद्यार्थियों
के
बीच
कैम्पस
के
सामाजिक
और
शैक्षिक
अनुभवों
को
सुविधाजनक, सहज
और
समावेशी
बनाने
का
होना
चाहिए
तो
वहीं
दूसरी
ओर
हम
आज
भी
पाते
हैं
कि
कैम्पस
के
ऐसे
अनुभव
जिसमें
दोस्ती
बनाना, साथ
मिल-जुलकर
गपशप
करना, पढ़ना, सीखने-सिखाने
की
प्रक्रिया
में
जुड़ना, और
कैम्पस
की
तमाम
गतिविधियों
में
भाग
लेना
शामिल
हैं
वे
हाशिए
के
तबके
से
आने
वाले
विद्यार्थियों
के
बीच
गैर-बराबरी, वंचना, अलगाव, और
हाशियाकरण
की
परिस्थितियाँ
पैदा
करते
हैं।
अत:
जिन
शैक्षिक
संस्थानों
से
यह
अपेक्षा
की
जाती
है
कि
वे
जाति
के
संरचनात्मक
और
ढांचागत
अभावों
का
मुकाबला
और
क्षतिपूर्ति
करने
में
सहयोग
करेंगे, वे हाशिए
पर
रहने
वाले
विद्यार्थियों
के
बीच
अपर्याप्तता
की
भावना
को
बनाए
रखने
में
आज
भी
कायम
हैं।
इस
पर्चे
के
माध्यम
से
व्यक्तिपरक
स्वयं
के
कैम्पस
जीवन
में
जाति
के
व्यक्तिगत
और
जीवंत
अनुभवों
की
पड़ताल
की
गयी
हैं।
इस
संदर्भ
में, यह पर्चा
एक
ऑटो-एथ्नोग्राफिक
अध्ययन
पर
आधारित
हैं
जिसमें
स्वयं
के
माध्यम
से
उच्च
शिक्षा
के
संदर्भ
में
सामाजिक
और
शैक्षिक
अनुभवों
में
जाति
और
शिक्षा
के
माध्यम
के
संचालन
को
समझने
का
प्रयास
किया
गया
हैं।
बीज
शब्द : जाति, उच्च शिक्षा, ऑटो-एथ्नोग्राफी, विद्यार्थी, शैक्षिक
अनुभव, भाषा, व्यक्तिपरक, कैम्पस, ज्ञान-उत्पादन, हाशियाकरण।
मूल आलेख : उच्च शिक्षा में निम्न जाति से आने वाले विद्यार्थियों के बहिष्करण के अनुभव इस बात का प्रतिबिंब हैं कि किस तरह शैक्षिक संस्थानों के भीतर और बाहर उनके रोजमर्रा के जीवन की संरचना में जाति अंतर्निहित हैं (राव, 2013; सुकुमार, 2023)। जिन शैक्षिक संस्थानों से यह अपेक्षा की जाती है कि वे जाति के संरचनात्मक और ढांचागत अभावों का मुकाबला और क्षतिपूर्ति करने में सहयोग करेंगे, वे हाशिए पर रहने वाले विद्यार्थियों के बीच अपर्याप्तता की भावना को बनाए रखने में आज भी कायम हैं। अपर्याप्तता की सतत भावना जीवित रहने के लिए दूसरों पर निर्भरता और आत्म-संदेह की भावना पैदा करती हैं, और इस प्रकार यह स्वयं के कल्याण और विभिन्न अवसरों की तलाश की तत्परता के लिए हानिकारक हैं। सामाजिक-आर्थिक रूप से वंचित संदर्भों से आने वाले विद्यार्थी वंचन की विशेष परिस्थितियों में बड़े होते हैं और अक्सर समाज में अपनी अधीनस्थ स्थिति को एक दिए गए रूप में अपने भीतर समा लेते हैं। वंचन और हाशियाकरण की स्थितियां न केवल यह दर्शाती हैं कि कैसे कुछ स्तरीकरण, पदानुक्रम, संबंधों के इतिहास और लोगों की पहचान बनती हैं बल्कि यह भी दर्शाते है कि समाज की बड़ी सामाजिक संरचनाओं में सत्ता और नियंत्रण के सवाल कैसे अंतर्निहित हैं। जाति, एक सामाजिक स्तरीकरण के रूप में, बहिष्करण की प्रकृति को संरचित करने और समझने में एक महत्वपूर्ण तत्व हैं (नंबिसन, 2009; शर्मा 2021)। इस लेख के माध्यम से व्यक्तिपरक स्वयं के बी. ए. अर्थशास्त्र की पढ़ाई के दौरान (2015-2018) कैम्पस जीवन में जाति के व्यक्तिगत और जीवंत अनुभवों की पड़ताल की गयी हैं। इस संदर्भ में, यह पर्चा एक ऑटो-एथ्नोग्राफिक अध्ययन पर आधारित हैं जिसमें स्वयं के माध्यम से उच्च शिक्षा के संदर्भ में सामाजिक और शैक्षिक अनुभवों में जाति और शिक्षा के माध्यम के संचालन को समझने का प्रयास किया गया हैं। ऑटो-एथ्नोग्राफिक अध्ययन एक ऐसी शोध प्रविधि हैं जिसमें शोधकर्ता स्वयं के अनुभवों, भावनाओं, और गंभीर प्रतिबिंबों को प्राथमिक आंकड़ों के रूप में व्यवस्थित करके सांस्कृतिक मान्यताओं, मानदंडो, और प्रथाओं की जाँच करता हैं (एडम्स व अन्य, 2015)। इसमें शोधकर्ता अपने रोजमर्रा के अनुभवों को एक व्यापक सामाजिक दुनिया में रखकर सांस्कृतिक मूल्यों, मानदंडो, प्रथाओं, और सत्ता और असमानता की संरचनाओं की जटिल और अंदरुनी समझ हासिल करने का प्रयास करता हैं (तरीसाई, 2023)।
साहित्य में
जातिगत
आधारित
भेदभाव, शोषण और
संघर्षों
से
जुड़े
अध्ययन
देखने
को
मिल
जाते
हैं
परंतु
रोजमर्रा
की
दिनचर्या
में
किस
तरह
से
जाति
समाज
में
संचालित
होती
हैं, ने हाल
ही
में
साहित्य
में
ध्यान
आकर्षित
किया
हैं, खासतौर पर
उच्च
शिक्षा
के
कैम्पस
में।
यह
पर्चा
इस
साहित्य
का
उपयोग
यह
समझते
हुए
करता
हैं
कि
संस्थागत
स्थलों
पर
जातिगत
टकराव
प्रचलित
तो
हैं
परंतु
इसका
रूप
हमेशा
प्रकट
होते
हुए
नहीं
दिखता।
जातिगत
टकराव
अक्सर
खंडित, अपरिभाषित, और अस्पष्ट
स्वरूप
में
मौजूद
हैं।
फ्रेरे
(2000) और
डेलपिट
(1988) के
कार्यों
ने
अवधारणा
दी
हैं
कि
शिक्षा
में
सर्वव्यापी
क्रमशः
‘चुप्पी
की
संस्कृति‘ और ‘खामोश संवाद‘ कैसे हाशिए
पर
रहने
वाले
समूहों
के
उत्पीड़न
में
सहायक
हैं
और
विद्यार्थियों
के
बीच
एक
निष्क्रिय
और
दमित
आत्म-दृष्टिकोण
बनाते
हैं।
इस
तरह
की
प्रक्रिया
उत्पीड़ित
समूहों
से
आने
वाले
विद्यार्थियों
के
संघर्ष
और
प्रतिरोध
को
दबाने
का
भी
काम
करती
हैं।
‘खामोश
संघर्ष‘ को समझने
के
लिए, मैंने संगठनात्मक
अध्ययन
के
क्षेत्र
में
हुए
शोध
का
अध्ययन
किया
जो
दर्शाता
हैं
कि
कैसे
संस्थान
और
समूह
चुप
रहने
और
संघर्षों
को
स्वीकार
न
करने
की
संस्कृति
विकसित
करते
हैं
(मॉरिसन और मिलिकेन, 2000)। रोथ
और
क्लिनर
(1999) ने
तर्क
दिया
हैं
कि
कई
संगठनों
में
एक
अनकही
सांस्कृतिक
प्रथा
हैं
- ‘‘अपनी
समस्या
के
बारे
में
किसी
को
तब
तक
न
बताएं
जब
तक
आपके
पास
उसका
समाधान
न
हो‘‘ (पृ. 16)। साहित्य
में
इस
तरह
के
अध्ययन
यह
भी
संकेत
देते
हैं
कि
‘‘जो
लोग
अपने
विचारों
और
भावनाओं
को
प्रकट
करने
में
विफल
रहते
हैं
वे
अक्सर
तनाव, असंतोष, संशय और
यहां
तक
कि
अवसाद
का
अनुभव
करते
हैं...
जो
लोग
अपनी
बात
नहीं
रख
पाते
उन्हें
अक्सर
यह
एहसास
होता
हैं
कि
उनके
दृष्टिकोण
कोई
मायने
नहीं
रखते...‘‘ (पर्लो और
रिपेनिंग, 2009, पृ. 196)। इन
स्थितियों
में
संस्थागत
विकृति
विकसित
हो
जाती
हैं
जिससे
सामना
करने
में
विफलता
होती
हैं
और
अंततः
कुछ
लोगों
को
व्यवस्था
से
बाहर
धकेल
दिया
जाता
हैं।
इस
प्रकार, यह पता
लगाना
महत्वपूर्ण
हो
जाता
है
कि
उच्च
शिक्षा
में
जाति
का
कैसे
अनुभव
किया
जाता
हैं, उसको कैसे
व्यक्त
किया
जाता
हैं
और
जातिगत
अनुभवों
को
चुप
कराया
जाता
हैं।
स्कूली शिक्षा
पूरी
करने
के
बाद
मुझे
2015 में दिल्ली के
एक
सरकारी
विश्वविद्यालय
में
बी.ए
ऑनर्स
अर्थशास्त्र
में
दाखिला
मिला।
इस
विश्वविद्यालय
में
अधिकांश
विद्यार्थी
उच्च
तबके
से
आते
थे
जो
कि
महेंगे-महंगे
निजी
स्कूलों
से
पढ़ाई
करके
आयें
हैं, जिनकी अंग्रेजी
भाषा
पर
एक
गहरी
पकड़
हैं, और जिनके
पास
एक
खास
तरह
की
सामाजिक
व
सांस्कृतिक
पूंजी
हैं।
कई
छात्रों
ने
मेरी
जाति
के
बारे
में
भी
पूछा
और
मैं
अक्सर
झूठ
बोल
दिया
करता
था
कि
मैं
उच्च
जाति
से
संबंध
रखता
हूँ।
अधिकांश
समय
आसपास
के
विद्यार्थी
यह
मान
लिया
करते
थे
कि
मैं
या
तो
ब्राह्मण
समुदाय
से
हूँ
या
जाट
समुदाय
से
हूँ।
ऐसा
मेरी
हरियाणवी
बोली, गोरा रंग
और
मेरे
शाकाहारी
होने
के
कारण
हुआ।
मुझे
धीरे-धीरे
आर्थिक
पारिस्थितियों
के
कारण
एक
अलगाव
महसूस
होने
लगा
क्योंकि
मेरे
पास
पहनने
को
महंगे
कपड़े, कैफेटेरिया में
खर्च
करने
के
लिए
पैसे, और अंग्रेजी
सीरीज
देखने
के
लिए
सब्स्क्रिप्शन
जैसी
चीजें
नहीं
थी।
विश्वविद्यालय
कैम्पस
में
एक
दिन, मैं अपने
घर
का
बना
खाना
खा
रहा
था
और
मैंने
अपने
कुछ
उच्च
जाति
के
साथियों
से
पूछा
कि
क्या
वे
इसे
खाना
चाहेंगे।
उन्होंने
कहा
कि
उन्हें
भूख
नहीं
हैं
लेकिन
कुछ
ही
मिनटों
के
बाद
मैंने
उन्हें
कैंटीन
से
नूडल्स
और
फ्राइज
खरीदते
हुए
देखा।
मैंने
अक्सर
देखा
कि
दलित-बहुजन
विद्यार्थी
ही
अपने
घर
से
खाना
लाते
थे
जबकि
उच्च
जाति
के
विद्यार्थी
कैंटीन
से
खाना
खरीदते
थे।
जो
विद्यार्थी
अपने
घर
से
रोटी-सब्जी
लाते
थे, उन्हें कैंटीन
से
खाना
खरीदने
वाले
लोग
निम्न
दृष्टि
से
देखते
थे।
भोजन
की
प्राथमिकताओं
के
बीच
इन
अंतरों
ने
सहकर्मी
समूहों
के
भीतर
जाति
भेद
को
दृश्यमान
बना
दिया।
हालाँकि
मैं
कई
विद्यार्थियों
के
साथ
बातचीत
करता
था, लेकिन उच्च
जाति-वर्ग
के
विद्यार्थियों
को
हमारे
साथ
बाहर
जाने
में
ज्यादा
दिलचस्पी
नहीं
थी।
मुझे
हमेशा
लगता
था
कि
मेरे
उच्च
जाति-वर्ग
के
साथी
मुझसे
बात
करते
थे
ताकि
वे
पढ़ने
की
सामग्री, परीक्षा पाठ्यक्रम, कक्षा के
समय
और
अन्य
दिन-प्रतिदिन
के
शैक्षणिक
कार्यों
के
बारे
में
अपडेट
प्राप्त
कर
सकें।
सभी
कक्षाओं
में
मेरी
पूरी
उपस्थिति
होती
थी
और
कई
विद्यार्थी
मुझसे
नोट्स
मांगते
और
उनकी
फोटोकॉपी
करवा
लेते।
जो
लोग
कैंपस
में
मेरे
साथ
मुश्किल
से
बातचीत
करते
थे, वे मुझे
देर
रात
फोन
करते
और
मुझसे
क्लास
नोट्स
और
पढ़ने
की
सामग्री
भेजने
के
लिए
कहते।
विश्वविद्यालय में
शिक्षा
का
माध्यम
अंग्रेजी
था।
हिन्दी
विषय
को
छोड़कर
बाकी
विषयों
की
पढ़ाई
अंग्रेजी
में
होती, लैक्चर अंग्रेजी
में
चलते, पठन-सामाग्री
अंग्रेजी
में
दी
जाती, परीक्षा व
तमाम
तरह
के
मूल्यांकन
अंग्रेजी
में
होते
और
शोध
भी
अंग्रेजी
में
ही
लिखे
जाते।
मेरी
हिन्दी
में
हमेशा
से
ही
एक
अच्छी
पकड़
रही
हैं
परंतु
कक्षा
में
सभी
को
अंग्रेजी
में
बोलता
देख
हिन्दी
में
अपनी
बात
रख
पाने
की
हिम्मत
जुटाने
में
मुश्किल
होती
थी।
सुकुमार
(2023) लिखते
हैं
कि
वंचित
पृष्ठभूमि
से
आए
विद्यार्थियों
की
अंग्रेजी
में
अपर्याप्त
पकड़
होने
के
कारण
उन्हें
उच्च
शिक्षा
में
मानसिक
हिंसा
और
दमन
सहना
पड़ता
हैं।
चूँकि
भाषा
और
ज्ञान
के
बीच
एक
गहरा
संबंध
हैं
इसीलिए
भाषा
से
की
जाने
वाली
हिंसा
को
ज्ञान
से
की
जाने
वाली
हिंसा
से
हटकर
नहीं
देखा
जा
सकता।
कक्षा
में
इस्तेमाल
की
जाने
वाली
भाषा
अक्सर
प्रभुत्व
और
सम्पन्न
वर्ग
की
भाषा
होती
हैं
जिसे
वे
विद्यार्थी
ही
समझने
में
सक्षम
हो
पाते
हैं
जो
प्रभुत्व
वर्ग
से
आते
हैं
और
जिनके
पास
सामाजिक-सांस्कृतिक
पूंजी
होती
है
(नाग, 2019), जो
विद्यार्थी
इस
भाषा
को
नहीं
जानते
उनको
कक्षा
में
चुप
होकर
बैठना
पड़ता
हैं।
कक्षा
में
भाषा
और
ज्ञान
दोनों
ही
स्तर
पर
असमानता
देखने
को
मिलती
हैं।
बी. ए.
के
दूसरे
वर्ष
में
मेरी
कुछ
विद्यार्थी
संगठनों
से
भी
मुलाकात
हुई
जो
कि
हाशिये
के
तबके
से
आने
वाले
विद्यार्थियों
की
चुनौतियों
और
उनके
मुद्दों
पर
सक्रिय
रूप
से
बातचीत
करते।
गुणवत्तापूर्ण
और
समतामूलक
शिक्षा, शिक्षा का
निजीकरण, उच्च शिक्षा
में
अंग्रेजी
का
वर्चस्व, बढ़ती फीस, और तमाम
तरह
के
मुद्दे
विद्यार्थी
संगठनों
की
चर्चाओं
के
केंद्र
में
रहें।
बहुत
बार
ऐसे
विद्यार्थी
संगठनों
का
विश्वविद्यालय
कैम्पस
में
इन्हीं
कुछ
मुद्दों
पर
कभी
एकांकी
देखने
को
मिलती
तो
कभी
विद्यार्थी
आंदोलन
देखने
को
मिलते।
उच्च
शिक्षा
में
भाषा
का
मुद्दा
ऐसे
ही
एक
विद्यार्थी
संगठन
ने
उठाया।
एक
दिन
विश्वविद्यालय
कैम्पस
में
‘पढ़ाई
के
लिए
क्या
चाहिए
-पैसा? जाति? अंग्रेजी?‘, ‘अंग्रेजी की
गुलामी
बंद
करो, अंग्रेजी थोपना
बंद
करो‘ के पोस्टर
थामे
काफी
सारे
विद्यार्थी
नारे-बाजी
करते
दिखे।
इन
विद्यार्थियों
के
नारों
से
एक
बात
तो
समझ
में
आ
गयी
थी
कि
उच्च
शिक्षा
में
अंग्रेजी
की
ठेकेदारी
पर
जो
चुप्पी
थी
वह
अब
टूटने
लगी
हैं
और
विद्यार्थी
भाषाई
वर्चस्व
पर
सवाल
उठाने
लगे
हैं।
विद्यार्थियों
के
बीच
शैक्षिक
अवसरों
का
असमान
वितरण
उच्च
शिक्षा
में
भी
परिलक्षित
होता
हैं
जहां
हिंदी
या
किसी
स्थानीय
भाषा
माध्यम
की
पृष्ठभूमि
से
आए
विद्यार्थियों
को
गैर-बरबरी
की
नजरों
से
देखा
जाता
हैं
(सभरवाल एवं मालिश, 2019)। इसके
परिणामस्वरूप
वंचित
पृष्ठभूमि
से
आए
विद्यार्थियों
में
अक्सर
ऐसी
भावना
उत्पन्न
हो
जाती
हैं
जिसमें
वे
अपने
आप
को
कक्षा
के
स्थान
में
कहीं
दूर
पीछे
खड़े
हुए
महसूस
करते
हैं।
अंग्रेजी
में
हिचक
के
कारण, विद्यार्थियों के
लिए
कक्षा
में
चुप
रहना
एक
मजबूरी
बन
जाता
हैं
और
कक्षा
में
केवल
उन्हीं
विद्यार्थियों
की
आवाजें
सुनने
को
मिलती
हैं
जो
प्रभुत्व
वर्ग
या
प्रीविलेज्ड
तबके
से
आते
हैं
(महापात्रा एवं
मिश्र, 2019; नाग, 2019)।
मुझे हमेशा से ही इस बात की समझ बनाने में रुचि रही हैं कि किस प्रकार जाति, जेंडर, वर्ग की सामाजिक संरचनाएँ लोगों के अनुभवों और उनकी महत्वाकांक्षाओं को आकार देती हैं। परंतु अर्थशास्त्र की कक्षाओं में मुझे इन सामाजिक संरचनाओं के बारे में कभी पढ़ने को नहीं मिल पाया क्योंकि यह कोर्स का कभी हिस्सा ही नहीं बन पायी। जाति, जेंडर इत्यादि के बारे में पढ़ाई समाजशास्त्र, इतिहास, मनोविज्ञान जैसे विषयों में होती। जिस भाषा में जाति के बारे में चर्चा की जाती हैं और पठन-सामाग्री दी जाती वह अंग्रेजी हुआ करती। अब चूँकि अर्थशास्त्र में जो पठन-सामाग्री मिलती उसकी समझ बना पाना ही इतना कठिन होता कि मैं ऐसे वैकल्पिक विषयों को लेने के बारे में सोचना भी नहीं चाहता था जिनको अंग्रेजी में पढ़ाया जाता था। मैंने वैकल्पिक विषय के रूप में हिन्दी को चुना जहां मुझे हिन्दी में दलित साहित्य और समाज में हाशियाकरण के बारे में पढ़ने का अवसर मिल पाया। जहाँ एक ओर अभिजात वर्ग से आने वाले विद्यार्थी अंग्रेजी साहित्य, मनोविज्ञान, इतिहास, समाजशास्त्र जैसे विषयों में भरे हुए दिखते तो वहीं दूसरी ओर मैंने हिन्दी की कक्षाओं में निम्न जाति व वर्ग से आने वाले विद्यार्थियों की संख्या ज्यादा पायी। निम्न जाति के ये विद्यार्थी मेरे काफी अच्छे दोस्त रहे। मैंने अक्सर ऐसा पाया कि जो विद्यार्थी हिन्दी का कोर्स चुनते उनको निम्नतर दृष्टि से देखा जाता उन विद्यार्थियों के मुकाबले जो गणित, अर्थशास्त्र, मनोविज्ञान, समाजशास्त्र, आदि कोर्स चुनते। ये अभिव्यक्तियाँ भाषा और वर्चस्व के मुद्दों को समझने में मदद करती हैं (हुक्स, 1994)। मोहंती के अनुसार (2017), "भाषा एक सांस्कृतिक पूंजी के रूप में शिक्षा और सामाजिक संसाधनों तक पहुँच के लिए एक महत्वपूर्ण कड़ी है। बहुभाषी समाजों में, भाषाएँ शक्ति और पदानुक्रम से जुड़ी होती हैं, कुछ भाषाएँ विशेषाधिकार और सामाजिक अवसरों तक अधिक पहुँच हासिल करने में मदद करती हैं और अन्य वंचितता और भेदभाव का कारण बनती हैं" (पृ. 262)।
मुझे
कभी
अर्थशास्त्र
की
कक्षा
में
वह
आनंद
महसूस
नहीं
हुआ
जो
हिन्दी
की
कक्षा
में
हुआ।
इसके
पीछे
दो
मोटे
कारण
रहे
हैं-
पहला
तो
यह
था
कि
अर्थशास्त्र
की
कक्षा
में
हाशिए
से
आने
वाले
विद्यार्थियों
के
सामाजिक
अनुभवों
पर
होने
वाली
चर्चाएँ
गायब
थी
और
दूसरा
यह
कि
जिस
भाषा
में
पढ़ाया
जाता
और
जिस
भाषा
में
विद्यार्थी
अपनी
रोजमर्रा
की
जिंदगी
का
अनुभव
करते
उसमें
बहुत
फांसला
था।
हिन्दी
की
कक्षा
में
मुझे
यह
फांसला
दूर
होता
दिखाई
दिया।
हिन्दी
पढ़ते
हुए
जिस
तरह
के
मेरे
दोस्त
बने
वे
ज्यादातर
निम्न
तबके
से, मेहनतकश परिवारों
से
आने
वाले
पहली
पीढ़ी
के
विद्यार्थी
थे
जो
उच्च
शिक्षा
में
पहुँच
पायें
हैं।
यह
हमेशा
मेरे
साथ
मदद
के
लिए
खड़े
रहे
हैं।
हम
ज्यादातर
खाना
भी
एक
साथ
खाया
करते
थे।
इनके
साथ
मुझे
घर
का
बना
खाना
खाने
में
बिल्कुल
भी
शर्म
का
एहसास
नहीं
होता।
परंतु
अर्थशास्त्र
कोर्स
के
सहपाठियों
के
बीच
खाने
के
डब्बे
जिसमें
लौकी
की
सब्जी
हैं
वह
डब्बा
खोलने
में
मुझे
शर्मिंदगी
महसूस
होती।
इन
अनुभवों
से
यह
समझने
को
मिलता
हैं
कि
विद्यार्थियों
की
सामाजिक-आर्थिक
स्थितियाँ
बहुत
हद
तक
यह
तय
करने
में
एक
महत्वपूर्ण
भूमिका
निभाती
हैं
कि
वह
पढ़ने
के
लिए
किस
तरह
का
विषय
और
भाषा
का
चयन
करते
हैं।
चूंकि
उच्च
शैक्षिक
संस्थानों
को
ज्ञान-उत्पादन
और
सृजन
के
संस्थान
माना
जाता
हैं
और
ऐसे
में
एक
ऐसी
भाषा
को
थोप
देना
जो
बहुत
से
विद्यार्थियों
की
रोजमर्रा
की
भाषा
तक
नही
हैं
ज्ञान-उत्पादन
के
लोकतंत्रीकरण
पर
गहरा
प्रभाव
डालती
हैं।
आज
बहुत
से
शिक्षक
ऐसे
शोधार्थियों
का
शोध
सुपरवाईज
करना
चाहते
हैं
जिनकी
अंग्रेजी
में
अच्छी
पकड़
हैं
(नाग, 2019) और
ऐसे
शोधार्थी
जिनकी
अंग्रेजी
पर
कम
पकड़
होती
हैं
या
जो
निम्न
तबकों
से
आते
हैं
अगर
वे
गलती
से
किसी
सुपरवाईजर
(खासतौर पर सवर्ण
जाति
वाले)
के
अंतर्गत
आ
भी
जाते
हैं
तो
उन्हें
तमाम
तरीकों
से
प्रताड़ित
किया
जाता
हैं
(सुकुमार,
2023)। इसी बात
की
ओर
इशारा
करते
हुए
गुरु
(2000) बताते
हैं
कि
किस
प्रकार
उच्च
शैक्षिक
संस्थानों
में
दलित
विद्यार्थियों
को
दलित
निर्देशकों
को
सौंप
दिया
जाता
हैं
जिससे
दलित
विद्यार्थी
और
दलित
शिक्षक
दोनों
को
आपस
में
एक
दूसरे
के
साथ
बांध
दिया
जाता
हैं।
इसका
असर
दो
स्तरों
पर
समझा
जा
सकता
हैं
-पहला यह कि
दलित
विद्यार्थियों
को
शिक्षकों
के
एक
एक
बड़े
समुदाय
की
पहुँच
से
दूर
रखा
जाता
हैं
और
दूसरा
यह
हैं
कि
उच्च
जाति
से
आने
वाले
विद्यार्थियों
को
दलित
शिक्षिकों
की
विशेषज्ञता
से
सीखने
से
दूर
रखा
जाता
हैं
(गुरु, 2000)।
ऐसे
में
भाषा
और
जाति
दोनों
ही
विद्यार्थियों
के
लिए
केवल
और
केवल
एक
बहिष्करण
का
उपकरण
ही
बनकर
रह
जाते
हैं
जिसका
प्रभाव
खासतौर
पर
उन
विद्यार्थियों
पर
पड़ता
हैं
जो
समाज
के
वंचित
तबकों
से
आते
हैं।
उच्च
शैक्षिक
संस्थानों
को
ऐसे
स्थान
के
रूप
में
देखा
जाता
है
जहाँ
ज्ञान
का
निर्माण
किया
जाता
हैं
और
उसको
साझा
किया
जाता
है, लेकिन दुर्भाग्य
से
यह
ज्ञान
एक
विशेष
भाषा
में
साझा
किया
जाता
हैं
जिसकी
समझ
केवल
ऐसे
विद्यार्थी
ही
बना
पाते
हैं
जो
समाज
के
उच्च
तबके
से
आते
हैं, और जो
विद्यार्थी
इस
भाषा
को
नहीं
जानते
उन्हें
हिंसा
का
शिकार
होना
पड़ता
हैं।
यहाँ
मैं
किसी
शारीरिक
हिंसा
की
बात
नहीं
कर
रहा
बल्कि
एक
ऐसी
हिंसा
जो
सामाजिक, मनोवैज्ञानिक और
सांस्कृतिक
है।
जिस
भाषा
में
उच्च
शिक्षा
में
ज्ञान
का
आदान-प्रदान
और
निर्माण
होगा
और
कौन-सा
तबका
इस
ज्ञान
का
निर्माण
करेगा, यह हमें
बताता
हैं
कि
उच्च
शैक्षिक
संस्थान
समाज
के
किस
वर्ग
को
‘‘शिक्षित‘‘ करना चाहते
हैं, और किसके
प्रश्नों, चिंताओं, अनुभवों और
आवाजों
को
वे
ज्ञान
उत्पादन
की
प्रक्रिया
का
हिस्सा
बनाना
चाहते
हैं।
निष्कर्ष : उच्च शैक्षिक
संस्थानों
का
काम
जहां
एक
ओर
विविध
सामाजिक-आर्थिक
पृष्ठभूमि
से
आने
वाले
विद्यार्थियों
के
बीच
कैम्पस
के
सामाजिक
और
शैक्षिक
अनुभवों
को
सुविधाजनक, सहज
और
समावेशी
बनाने
का
होना
चाहिए
तो
वहीं
दूसरी
ओर
हम
आज
भी
पाते
हैं
कि
कैम्पस
के
ऐसे
अनुभव
जिसमें
दोस्ती
बनाना, साथ
मिल-जुलकर
गपशप
करना, पढ़ना, सीखने-सिखाने
की
प्रक्रिया
में
जुड़ना, और
कैम्पस
की
तमाम
गतिविधियों
में
भाग
लेना
शामिल
हैं
वे
हाशिए
के
तबके
से
आने
वाले
विद्यार्थियों
के
बीच
गैर-बराबरी, वंचना, अलगाव, और
हाशियाकरण
की
परिस्थितियाँ पैदा
करते
हैं।
एक
निम्न
तबके
से
आने
वाले
विद्यार्थी
के
रूप में मैंने
ऐसा
लगातार
महसूस
किया
हैं
कि
कक्षा
में
एक
खास
तरह
के
विद्यार्थियों
का
वर्चस्व
कायम
रहता
हैं, ये ऐसे
विद्यार्थी
हैं
जो
अभिजात
वर्ग
से
आते
हैं, जिनके पास
सामाजिक
व
सांस्कृतिक
पूंजी
हैं
और
जिनकी
अंग्रेजी
पर
बहुत
अच्छी
पकड़
हैं।
ऐसे
विद्यार्थी
जो
समाज
के
हाशिये
के
तबके
से
आते
हैं, जो सरकारी
स्कूलों
से
पढ़ाई
करके
आते
हैं, जो हिन्दी
माध्यम
व
स्थानीय
भाषा
से
स्कूली
शिक्षा
पूरी
करके
आते
हैं
उन्हें
उच्च
शिक्षा
में
जाति
और
भाषा
दोनों
ही
स्तरों
पर
अलगाव
का
अनुभव
करना
पड़ता
हैं।
अतः
उच्च
शैक्षिक
संस्थानों
को
विविध
संदर्भों
से
आने
वाले
विद्यार्थियों
की
आबादी
को
सीखने-सिखाने
की
प्रक्रिया
में
सार्थक
रूप
से
शामिल
करने
और
उनके
कैम्पस
जीवन
को
सुविधाजनक, सहज
और
समावेशी
बनाने
के
लिए
बहुआयामी
दृष्टिकोण
अपनाने
की
आवश्यकता
हैं।
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शोधार्थी, स्कूल ऑफ एजुकेशन स्टडीज़, डॉ. बी. आर. अंबेडकर विश्वविद्यालय, दिल्ली
karan.20@stu.aud.ac.in
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