शोध सार : अपने राष्ट्र के प्रति अटूट प्रेम एवं अपनत्व का भाव ही राष्ट्रीय चेतना कहलाती है। भारतीय वांग्मय में आरंभ से ही राष्ट्रीय चेतना विद्यमान रही है। हिंदी साहित्य में राष्ट्रवाद और देशभक्ति की भावना चारण काल से ही किसी न किसी स्वरूप में (राजभक्ति आदि के रूप में) दृष्टिगोचर होती है, परन्तु आधुनिक युग के साहित्य ने राष्ट्रवाद के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। आधुनिक काल में हिंदी साहित्य में अनेक विधाओं का विकास हुआ जैसे उपन्यास, नाटक, कहानी, निबंध, यात्रावृत्तांत, सॉनेट, ग़ज़ल आदि। इन सभी ने अपने-अपने स्तर से पाठकों का ध्यान आकृष्ट किया तथा भारतीय जनता को एकता के सूत्र में पिरोने और स्वाधीनता आंदोलन के लिये प्रेरित करने का पुनीत कार्य किया। इन्हीं विधाओं में आज की सबसे चर्चित और लोकप्रिय काव्य विधा ग़ज़ल है, जो अपनी सारगर्भित और छंदबद्ध अभिव्यंजना शैली के लिए जानी जाती है। ग़ज़लों में राष्ट्रीय चेतना का अंदाज़ा हम इसी बात से लगा सकते हैं- जब देश अंग्रेज़ों का ग़ुलाम था तब हिंदुस्तान को आज़ाद कराने के लिये अनेक क्रांतिकारियों ने हंसते-हंसते फांसी के फंदे को स्वीकार कर लिया था उनके जज़्बे और शौर्य की गाथा हम कैसे भूल सकते हैं। भगत सिंह, रामप्रसाद बिस्मिल आदि ने तो आंदोलन को क्रांतिकारी स्वर देने के लिये नारों के साथ देशभक्ति
ग़ज़लों, नज़्मों और शेरों का भी प्रचुरता से प्रयोग किया था। वास्तव में स्वतंत्रता आंदोलन में इन शेरों-शायरी, गीत-ग़ज़लों का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। चाहे हम इक़बाल के क़ौमी तराने ‘सारे जहां से अच्छा हिंदोस्ताँ हमारा’ को ही लें या फिर रामप्रसाद बिस्मिल को जब फाँसी दी जा रही थी तब उन्होंने भी बिस्मिल अज़ीमाबादी की ग़ज़ल “सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है, देखना है ज़ोर कितना बाज़ू-ए-क़ातिल में है” को याद करते हुये शहादत दी थी। हिंदी में ग़ज़लों की परंपरा अमीर खुसरो से लेकर कबीर, भारतेंदु, निराला, शमशेर, त्रिलोचन से होते हुये समकालीन युग में दुष्यंत तक आते-आते बहुचर्चित हो जाती है। यहाँ ग़ज़लों के मिज़ाज में भी बदस्तूर बदलाव दिखाई देते हैं जो लाज़िम भी हैं क्योंकि हर भाषा अपने साथ अपनी सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक विशिष्टता को समाहित किये होती है। हिंदी साहित्य में समकालीन युग का आग़ाज़ साठ-सत्तर के दशक से माना जाता है। समकालीन युग अपनी विशिष्ट प्रवृत्तियों के लिये जाना जाता है इसमें शिल्पगत और भावगत अनेक परिवर्तन लक्षित होते हैं। समकालीन युग में अनेक ग़ज़लकार जैसे दुष्यंत कुमार, रामदरश मिश्र, गोपालदास नीरज, अदम गोंडवी, कुँवर बेचैन, शिवओम अम्बर, वशिष्ठ अनूप, माधव कौशिक, मंजू मनीषा, सूर्यभानु गुप्त, उर्मिलेश, शेरजंग गर्ग और हनुमंत नायडू आदि की ग़ज़लों में हमें राष्ट्रीय चेतना के स्वर परिलक्षित होते हैं, ये स्वतंत्रता के लिये नहीं बल्कि स्वातंत्र्योत्तर भारत के लिये एक सजग प्रहरी की भांति देश में घटित प्रत्येक घटना पर नज़र बनाये रखते हैं और अपनी लेखनी से राष्ट्रीय हित में हर एक पहलू को उजागर करते हैं।
बीज शब्द : राष्ट्रीय चेतना, ग़ज़ल, समकालीनता, भारतीय वांग्मय, अरूज़, औद्योगिकीकरण, बाज़ारवाद, शहरीकरण, अलगाववाद, आतंकवाद, पूंजीपति, स्वाधीनता आंदोलन।
मूल आलेख : किसी भी देश या भाषा का साहित्य हो उसमें राष्ट्रीय चेतना के स्वर अवश्य विद्यमान होते हैं, कभी प्रत्यक्ष रूप में तो कभी अप्रत्यक्ष रूप में। भारत एक बहुसांस्कृतिक, बहुभाषी और विविधताओं से परिपूर्ण राष्ट्र है। यहाँ अनेकता में एकता का भावसूत्र ही सबको आपस में जोड़े रखता है और यही भावना राष्ट्रीयता की उत्कृष्ट भावना में तब्दील हो जाती है। व्यक्ति धर्म-संप्रदाय, जाति-नस्ल, क्षेत्र सबसे ऊपर उठकर ‘भारतीय’ के रूप में जाना जाता है। डॉ. भीमराव अम्बेडकर के अनुसार कहें तो– “हम सबसे पहले और अंत में भारतीय हैं।” यही राष्ट्रीय चेतना है।
राष्ट्रीय चेतना का शाब्दिक विवेचन करें तो, चेतना का तात्पर्य ‘बोध होने’ से है। ‘जिन लोगों में स्वयं के और अपने आसपास के वातावरण के तत्त्वों का बोध होने, उन्हें समझने तथा उनकी बातों का मूल्यांकन करने की शक्ति हो उसे चेतना कहते हैं।’ इस आशय से- ‘राष्ट्र में बसने वाले सभी नागरिकों, और राष्ट्र की भौगोलिक, सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक तथा मानवीय तत्त्वों-घटनाओं का बोध होना ही राष्ट्रीय चेतना है। यह चेतना ही है जो उस देश के नागरिकों को देशभक्त (राष्ट्रभक्त) बनाती है और उन्हें अपने राष्ट्र के लिए संपूर्ण न्योछावर होने के लिए प्रेरित करती है। भ्रमवश राष्ट्रीय चेतना को संकीर्ण मानसिकता से भले ही सीमित अर्थों में ले लिया जाता हो लेकिन इसका आंतरिक स्वरूप अत्यंत व्यापक है। भारतीय वांग्मय वेद, उपनिषद्, पुराण, रामायण, महाभारत, कौटिल्य के अर्थशास्त्र, बौद्ध-जैन ग्रंथों आदि में हमें राष्ट्रीयता के तत्व किसी न किसी रूप में अवश्य मिलते हैं। संस्कृत व्याकरण के अनुसार ‘राष्ट्र’ शब्द की उत्पत्ति ‘राज्’ या ‘रास्’ शब्द में में ‘ष्ट्रन’ प्रत्यय के योग से हुई है। इस प्रकार राष्ट्र शब्द का अर्थ- “रासन्ते चारु शब्दम् कुरुते जन: यस्मिन प्रदेशे विशेषे तद राष्ट्रम”।1 ऐसे ही ऋग्वेद में राष्ट्र के लिए ‘राष्ट्रं राज्यं’ पद का प्रयोग किया गया है। राष्ट्र के स्वरूप अनेक हैं जैसे इसे कभी देश, कभी राज्य, कभी कबीले, कभी जनपद तो कभी यह समाज के लिए प्रयुक्त किया जाता रहा है, जैसे रामायण में आये श्लोक ‘जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी’ में तो जन्मभूमि ही राष्ट्र के रूप में व्यंजित हुई है। कौटिल्य ने भी राष्ट्र शब्द ‘देश’ के अर्थ में प्रयुक्त किया है। इस प्रकार हमारे यहाँ पहले से ही राष्ट्र की अवधारणा पोषित होती रही है।
प्रमुख छायावादी कवि सुमित्रानंदन पंत जी भी कहते हैं- ‘हमारा विशाल देश राष्ट्र की भावना या कल्पना से वैदिक युग से ही परिचित रहा है।’ यदि पाश्चात्य विद्वानों पर दृष्टि डालें तो उन्होंने भी राष्ट्रवाद को परिभाषित करते हुये उसे ही राष्ट्र माना है जिसमें रहने वाली मानव जाति एक दूसरे से प्रेम, सद्भाव तथा सहानुभूति का भाव रखती हो तथा एक शासन तंत्र के अधीन मिलजुल कर रहती हो। पाश्चात्य विद्वान जॉन स्टुअर्ट मिल(1806-1873)
के अनुसार- “राष्ट्र मनुष्य जाति का एक ऐसा भाग है, जो एक दूसरे के प्रति सहानुभूति से बँधा हुआ एक सरकार के अधीन रहने की प्रबल इच्छा रखता हो।”2 आधुनिक काल उन्नीसवीं शताब्दी से आरम्भ होता है इस युग का सम्पूर्ण साहित्य राष्ट्रीय भावना से ओत-प्रोत साहित्य है। अंग्रेजी शासन के अधीन परतंत्र भारतीयों द्वारा स्वतंत्र होने की छटपटाहट और अंग्रेजों के ज़ुल्मों-सितम के विरोध में साहित्य लेखन किया जा रहा था। इनमें जहाँ एक ओर भारतेंदु, बालकृष्ण भट्ट, महावीर प्रसाद द्विवेदी आदि अपने निबंधों, नाटकों, कहानियों के माध्यम से राष्ट्रीय चेतना को जनमानस में जाग्रत कर रहे थे तो वहीं मैथिलीशरण गुप्त, निराला, प्रसाद, दिनकर, माखनलाल चतुर्वेदी, सुभद्रा कुमारी चौहान आदि कविताओं के माध्यम से जनता में देशभक्ति और क्रांति की ज्वाला को प्राणवायु प्रदान कर रहे थे। राष्ट्रीय चेतना से युक्त साहित्यिक रचनाकारों में रवींद्रनाथ टैगोर, भारतेंदु हरिश्चंद्र, बालमुकुंद गुप्त, मैथिलीशरण गुप्त, निराला जी, जयशंकर प्रसाद, दिनकर, माखनलाल चतुर्वेदी आदि का नाम प्रमुखता से लिया जा सकता है। इन्होंने राष्ट्रीय भावना से पूरित रचनाएँ प्रचुर मात्रा में लिखीं। लेकिन स्वाधीनता पूर्व और स्वाधीनता बाद राष्ट्रीयता में भी परिवर्तन देखने को मिलता है क्योंकि स्वतंत्र्योत्तर युगीन भारत में हमें सिर्फ़ बाहरी ताकतों से नहीं लड़ना था बल्कि इस समय तक देश अनेक आंतरिक समस्याओं जैसे आर्थिक और सामाजिक असमानताओं, राजनीतिक विखंडन, क्षेत्रीय तनाव, बाज़ारवाद, यांत्रिकता, ग़रीबी, अशिक्षा, स्वास्थ्य, बेरोज़गारी, विकास तथा कई जटिल विकृतियों से जूझ रहा था। साहित्य तो अपने समय-समाज से रूबरू होता है ऐसे में उस समय लिखा जाने वाला साहित्य कैसे इन समस्याओं से अछूता रह सकता है। अतः अब साहित्य में इन मुद्दों को प्रमुखता से स्थान दिया जाने लगा। साहित्य की अन्य विधाओं की तरह हिंदी ग़ज़ल ने भी अपने समय और समाज को अभिव्यक्त करने का पुरज़ोर प्रयास किया गया। आधुनिक युग में हिंदी ग़ज़ल, हिंदी कविता की एक महत्वपूर्ण और सशक्त विधा के रूप में स्थापित हो गई है।
अन्य विधाओं की भांति ग़ज़लों की भी अपनी प्रकृति है, यह कम लिख-बोल कर अधिक कहने वाली विधा है। ग़ज़ल एक ख़ास अरूज़ में लिखी जाती है और यही अरूज़ इसे विशिष्ट बनाती है। समकालीन हिंदी ग़ज़लों में राष्ट्रीय चेतना का स्वर अपनी पूर्ण अर्थवत्ता के साथ दिखाई देता है। समकालीन हिंदी ग़ज़लकार अपने देश में व्याप्त समस्याओं को लेकर दु:खी भी हैं और राष्ट्र के विकास में बाधक तत्त्वों को तीखे स्वर में फटकार भी लगाते हैं। राष्ट्र प्रेम से तात्पर्य केवल भारत माता की जय और वंदे मातरम बोलने से नहीं है बल्कि उसके प्रत्येक नागरिक, उसकी संस्कृति, उसकी भौगोलिक संपदा और उसमें विद्यमान समस्त जैवमंडल के प्रति प्रेम से है। नंददुलारे वाजपेयी के कथन से यह बात और स्पष्ट हो जाती है- “राष्ट्र केवल सीमाओं और जनसंख्या के समुच्चय का नाम नहीं है, इसके साथ परिस्थितियों के एक विशिष्ट अपात और एक विशिष्ट इतिहास का भी योग होता है, राष्ट्र एक व्यक्ति के सादृश्य ही है।”3 इस तरह राष्ट्र एक समुच्चय है, जिसके लोग आपस में प्रेम और सद्भाव की डोर से जुड़े होते हैं। इसी प्रेम के चलते एक सजग कवि, ग़ज़लकार देश को गर्त की ओर ले जाने वाले तत्त्वों, व्यवस्थाओं पर सवाल खड़े करता है और जनता में क्रांति का भाव उत्पन्न करता है। आधुनिक युग में भारतेंदु, प्रसाद, निराला, शमशेर बहादुर सिंह, लाला भगवानदीन ने हिंदी ग़ज़लों को अपनी अभिव्यक्ति का माध्यम बनाना आरंभ कर दिया था परन्तु इसका पूर्ण सूत्रपात दुष्यंत कुमार की ग़ज़लों में उभर कर आता है।
सन पचहत्तर में जब पूरे देश में आपातकाल लगा दिया गया और नागरिकों के ‘जीवन के अधिकार’ को भी छीनने का प्रयास किया गया उस समय हिंदी ग़ज़ल की दुनिया में दुष्यंत सरीखे क्रांतिकारी ग़ज़लकारों का उदय साहित्य की दुनिया में महत्वपूर्ण घटना थी। दुष्यंत का ग़ज़ल संग्रह ‘साये में धूप’ के प्रकाशन के साथ ही सर्वत्र उसकी धूम मच गई और वहीं से समकालीन हिंदी ग़ज़लों का दौर आरंभ माना जाता है। दुष्यंत भले कहते हों कि ‘मैं जिसे ओढ़ता बिछाता हूं वो ग़ज़ल आपको सुनाता हूं’ पर वो ओढ़ना बिछाना क्या है? कोई आरामदायक मलमल का बिस्तर नहीं बल्कि देश की राजनीति में फ़ैल रही विसंगतियों से आहत होकर करारी चोट करती ग़ज़लों से है जिसका उस समय समाज को सामना करना पड़ रहा है। इसीलिए दुष्यंत को क्रांति और राष्ट्रीय जागरण का कवि माना जाता है। वे मुल्क़ के हालात पे चश्मे-नम होते हुए लिखते हैं –
“एक बूढ़ा आदमी है मुल्क में या यूँ कहो,
इस अँधेरी कोठरी में एक रौशन-दान है ।
मस्लहत-आमेज़ होते हैं सियासत के क़दम,
तू न समझेगा सियासत तू अभी नादान है ।
कल नुमाइश में मिला वो चीथड़े पहने हुए,
मैंने पूछा नाम तो बोला कि हिंदुस्तान है।”4
यह दौर एमरजेंसी का दौर था जब सत्ता की दमनकारी नीतियों से आम जनता त्रस्त हो गई थी। वह अपने करुण-क्रंदन को एक कठोर आवाज़ देना चाह रही थी। ऐसे में दुष्यंत अपनी ग़ज़लों के माध्यम से क्षयकारी व्यवस्था के ख़िलाफ़ आमजन की आवाज़ बनकर खड़े होते हैं। उनके शे’र हैं –
“होने लगी है जिस्म में जुंबिश तो देखिये,
इस पर कटे परिंद की कोशिश तो देखिये।
गूँगे निकल पड़े हैं ज़बाँ की तलाश में,
सरकार के ख़िलाफ़ ये साज़िश तो देखिये।”5
दुष्यंत के बाद से हिंदी ग़ज़लकारों की एक लंबी फेहरिस्त तैयार होती जो पूरी तत्परता और तन्मयता के साथ हिन्दी ग़ज़ल को नित नए आयामों में पहुँचाते हैं। वे राष्ट्रीय, सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक, लोकजीवन, वंचित समाज, किसान, मज़दूर, स्त्री सभी की समस्याओं को अपनी ग़ज़लों के माध्यम से रूबरू कराते हैं जो एक प्रकार की राष्ट्रीय चेतना व जागरुकता का ही लक्षण है। शिवओम अम्बर देश की बदहाल स्थिति पर व्यंग्य करते हुए लिखते हैं कि यह आज़ादी हमने अपने पूर्वजों के लहू को न्योछावर करके प्राप्त की है इसे आज के घूसखोर और भ्रष्टाचारी नेताओं के हाथों यूं ही गवानें नहीं देंगे—
“फ़ज़ा इस वक़्त रूमानी नहीं है,
ग़ज़ल की चूनरी धानी नहीं है।
सियासत कोई नादानी नहीं है,
तिजारत है ये कुर्बानी नहीं है।
चमन के हम बिना सींचे बढ़े हैं,
ये कुव्वत है मेहरबानी नहीं है।
रचेगी रोशनी की वर्णमाला,
हमारी चीख बेमानी नहीं है।”6
आज़ादी के बाद लोगों ने जैसी कल्पना की थी कि अब तो अपना राज है अब ग़रीबी और अमीरी के बीच का फासला कम हो जाएगा। समाज के हर तबके को समानता, स्वतंत्रता, शिक्षा, तथा सम्पत्ति का समान लाभ प्राप्त होगा लेकिन ऐसा कुछ भी न हो सका बल्कि औद्योगिकीकरण ने ग़रीब को और ग़रीब तथा अमीर को पूँजीपति में परिवर्तित करके एक गहरी खाई कायम कर दी। तभी तो मूर्धन्य ग़ज़लकार शेरजंग गर्ग ये दर्द इन अशआरों में बयाँ करते हैं-
“ग़रीब क्यों न रहे देश की सारी बस्ती,
हैं क़ैद खुशियाँ सभी एक ही घराने में।
गिरी हैं बिजलियाँ कुछ ऐसी चमन पर अपने,
कि अब तो बच्चे भी डरते हैं मुस्कुराने में ।”7
एक वक़्त था जब अंग्रेजों के शासन में भी हम एक-दूसरे से मोहब्बत करते थे। अपने मुल्क़ के लिये सब मिलकर कुर्बानी देने के लिये तैयार थे। लेकिन आज साम्प्रदायिकता ने इस क़दर हमें अपनी ज़द में ले लिया है कि हमारी ‘हम सब भारतीय हैं’ वाली भावना को चोट पहुँच रही है, हम आपस में ही झगड़ रहे हैं। इसी से आहत होकर ग़ज़लकार हनुमंत नायडू कहते हैं-
“उस देश की तलाश है जो मेरी जान था,
उसकी किसी गली में ही मेरा मकान था।
मैं देश में ही ढूंढ रहा ऐसे देश को,
हाथों में जिसके एक तिरंगा निशान था।”8
इसके साथ ही वो हालाते-हिंदुस्तान को लेकर भी चिंतित हैं। आज़ादी के इतने वर्षों बाद भी एक बड़ी आबादी को दो वक़्त की रोटी और रहने के लिये घर भी मयस्सर नहीं वो फुटपाथ पर सोने को मज़बूर है। इस पर व्यंग्य करते हुए वो आगे कहते हैं-
“फुटपाथ पर बिछाइये आकाश ओढ़िये,
यह भेंट मेरे देश की हर ख़्वाबगाह को।”9
किसी भी देश की समृद्धि और उन्नति तभी सम्भव है जब उसके प्रत्येक नागरिक का जीवन स्तर सुखमय हो। यदि एक भी व्यक्ति गरीबी, भुखमरी, बेरोज़गारी, बीमारी तथा जहालत भरी ज़िन्दगी झेलेगा तो उसके लिये राष्ट्र का कोई मूल्य नहीं क्योंकि “भूखे भजन न होय गुपाला लई लेव आपन कंठी माला” उसका तो सारा श्रम पेट भरने की जद्दोजहद में ही चला जाएगा। भारत की इसी स्थिति की शिनाख्त ‘नीरज’ जी अपनी ग़ज़लों में करते हैं। क्योंकि सच्चा कलमकार वही है जो समाज की विद्रूपता और नग्न रूप का यथार्थ अंकन करता है। उनका शे’र है—
“ज्यों लूट ले कहार ही दुल्हन की पालकी,
हालत यही है आजकल हिंदोस्तान की।”10
अदम गोंडवी जो अपने विद्रोही तेवर के लिये जाने जाते हैं, का शेर भी कुछ इसी दुर्दशा को बयां करता है-
“भुखमरी की ज़द में है या दार के साये में है,
अहले हिंदुस्तान अब तलवार के साये में है।”11
जब हम राष्ट्र से प्यार करते हैं तो उसकी प्रकृति की देखभाल धरोहर की तरह करते हैं परन्तु आज के तथाकथित विकास के युग में हम जंगलों की अंधाधुंध कटाई, जलस्रोतों को निरंतर मैले करते जाना, खनिज संपदा के अधिकाधिक दोहन से धरती के हृदय को खोखला करते जा रहे हैं जिसके दुष्परिणाम स्वरूप समय-समय पर बाढ़, सूखा, भूकम्प, सुनामी जैसी आपदाओं से भारी नुकसान झेलना पड़ता है। आज भारत सहित पूरा विश्व ग्लोबल वार्मिंग की चपेट में झुलस रहा है। समकालीन हिंदी के प्रमुख ग़ज़लकार रामदरश मिश्र जी भी अपनी ग़ज़लों में इन्हीं विपत्तियों की ओर इशारा करते हुए अपने विकास विहीन उस दौर की सुखद स्मृति में डूब जाते हैं जहाँ उनका बचपन है, हरी-भरी प्रकृति है, उनकी माँ है और उनका गाँव है-
“माँ ने बचपन में सुनाया जिस को लोरी की तरह,
अब हक़ीक़त में वो जंगल की कहानी देख ली।
एक नन्हा ख़्वाब मेरा खो गया जाने कहाँ,
गाँव देखा, शहर देखा, राजधानी देख ली।”12
यह बात सच है कि राष्ट्र एक व्यापक अवधारणा है पर कई बार अपनी मातृभूमि या अपना गाँव ही हमें अपने देश सा महसूस होता है। जितनी तेजी से शहरीकरण हुआ है उतनी ही तेजी से मनुष्यों में संवेदनाओं का भी ह्रास हुआ है। शहरों में सुख-सुविधाएँ सब हैं पर वहाँ एक अजनबीयत है तभी तो एक संवेदनशील कलमकार अपने गाँव के खेत-खलिहान, बाग-बगीचे, चिड़िया-चरंगू, पशु-पक्षी, लोगों को बहुत याद करता है और उन्हें अपनी कलम से साकार करता है। यह भी राष्ट्रीय चेतना का ही अंग है क्योंकि राष्ट्र के अंतर्गत आने वाली हर चीज़ राष्ट्रीय ही है। वे कहते हैं-
“मुझको मेरे खेत में धरती उतार दे,
मैं धान बोऊँ और वो पानी उतार दे।
खिड़की के पास जाऊँ तो भीतर भी आ सकूँ
चिड़िया ये कह रही है कि जाली उतार दे।” 13
आजकल देश के हालात कुछ ऐसे हो गये हैं कि जगह-जगह पर अलगाववाद, आतंकवाद जैसी समस्याओं का बोलबाला है, जिसने हमें आपस में तोड़कर रख दिया है, हम अपने ही लोगों से बैर करने लगे हैं।
“सुलग रहा है ये अपना वतन ज़रा सोचो,
लगी है आज ये कैसी अगन ज़रा सोचो।
ग़ज़ब तो ये है परिंदा नज़र नहीं आता,
उजड़ रहा है गुलों का चमन ज़रा सोचो।”14
हिंदी के बड़े ग़ज़लकारों में शुमार डॉ. कुंवर बेचैन की ग़ज़लें भी अपने समय से संवाद करती हैं वे एक ओर जहाँ प्रेम की ग़ज़लें लिखते हैं वहीं राष्ट्रीय महत्व की ग़ज़लें भी ख़ूब लिखते हैं। उनका मानना है कि अपने वतन से प्रेम करने वाले चाहे कहीं भी रहें परन्तु देश के प्रति उनकी निष्ठा कभी ख़त्म नहीं होती। आज भी हम देखते हैं कि भारत से अनेक युवा पढ़ने, नौकरी करने या रहने किसी भी उद्देश्य से विदेशों में जाते हैं परन्तु उनके दिल में तो भारत ही बसता है। वे उसकी ख़ुशबू को हर स्थान पर महसूस करते हैं। कुंवर जी की ग़ज़ल इसी पर केन्द्रित है, वे देशप्रेम की ख़ुशबू की बात करते हैं-
“गुलों में ज्यों चमन की ख़ुशबुएँ मौज़ूद रहती हैं,
कहीं भी जाऊँ वतन की ख़ुशबुएँ मौज़ूद रहती हैं।
मैं अपने गीत गाता हूँ तो लगता है कि इनमें भी,
तुम्हारे ही भजन की ख़ुशबुएँ मौज़ूद रहती हैं।” 15
प्रसिद्ध नवगीतकार, समीक्षक, कहानीकार और सुविख्यात ग़ज़लकार माधव कौशिक भी देश की शासन सत्ता की मनमानियों के प्रति आक्रोश ज़ाहिर करते हैं पर उनके आक्रोश में भी एक आशावादी दृष्टिकोण छिपा रहता है। आज भारतीय किसानों की स्थिति जग ज़ाहिर है वे सरकारों की अनेक योजनाओं के बावजूद मँहगाई की मार झेल रहे हैं और बेबस होकर आत्महत्या तक को मज़बूर हो रहे हैं। ऐसे में कौशिक जी का यह व्यंग्य सार्थक है---
“होरी की चीखें टकराईं जाकर चाँद सितारों तक,
लेकिन उसकी ख़बर न पहुँची शहरों के अखबारों तक।।”16
ग़ज़लकार जब आमजन को रोते बिलखते देखता है तो वह क्रांति की बातें करता है। वह अपने परिवेश को अपनी लेखनी रूपी कल्पना में ढालकर साक्षात् कर देता है। किसी भी जर्जर व्यवस्था को उखाड़ फ़ेंकने के लिये जनता का एकजुट होकर आवाज़ उठाना ज़रूरी हो जाता है, अदम गोंडवी ऐसे ही ग़ज़लकार हैं जिनका स्वर प्रतिरोधात्मक है वे कहते हैं—
“नीलोफर, शबनम नहीं अंगार की बातें करो,
वक़्त के बदले हुये मेयार की बातें करो।
भाप बन सकती नहीं पानी अगर हो नीम गर्म,
क्रांति लाने के लिए हथियार की बातें करो।
तर्क कर तनक़ीद के जज़्बे को मर जाती है क़ौम,
जुर्म है ठहराव अब रफ़्तार की बातें करो”17
अनेक आंतरिक समस्याओं के होते हुये भी आज का भारत नित नए कीर्तिमान स्थापित कर रहा है वह खेल में स्वर्णिम पताका लहरा रहा, अंतरिक्ष में अपनी अव्वल स्थिति जमा रहा है हाल ही में उसने चंद्रयान 3 अभियान के माध्यम से चंद्रमा के दक्षिणी ध्रुव में तिरंगा लहरा दिया है, वह विश्व की पांचवीं बड़ी अर्थव्यवस्था बन गया है। शिक्षा, स्वास्थ्य, गरीबी आदि में भी सुधार निरंतर सुधार कर रहा है तभी तो ख्यातिलब्ध ग़ज़लकार आदरणीय वशिष्ठ अनूप ने लिखा है कि आज की उपलब्धियों के पीछे हमारे पूर्वजों का समर्पण और कठिन तपस्या है और हम उनकी संतानें हैं अतः देश से प्रेम है तो सबसे पहले हमें अपने नायकों के प्रति आभारी होना पड़ेगा – अपनी गौरवशाली विरासत का स्मरण करते हुए वे लिखते हैं –
“तुलसी के जायसी के रसखान के वारिश हैं,
कविता में हम कबीर के ऐलान के वारिश हैं।
सीने में हमारे दिल आज़ाद का धड़कता,
हम वीर भगत सिंह के बलिदान के वारिश हैं।”18
इस प्रकार हम देखते हैं अपनी संस्कृति के प्रति गौरव-बोध वस्तुत: राष्ट्रीय चेतना का हिस्सा है।
निष्कर्ष : अंत में हम कह सकते हैं कि समकालीन हिंदी ग़ज़ल, ग़ज़ल की परम्परागत शराब और शबाब की प्रवृत्तियों से बाहर निकलकर, माशूका की तारीफ़ और राजाओं के क़सीदे को एक ओर छोड़कर समाज के दबे-कुचले-वंचितों और बेज़ुबानों की पीड़ा से साक्षात्कार करती है, आमजन की रोज़मर्रा की तक़लीफों से हमदर्दी रखती है, उन्हें जीने की नयी उम्मीद दिलाती है, उनकी आवाज़ बनकर विपत्तियों और व्यवस्था के चक्रव्यूह से जूझती है, इसके लिये वह क्रांति का आह्वान भी करती है परन्तु कहीं भी देश की प्रगति और उन्नति से समझौता नहीं करती। वह लोगों को एकजुट करती है लेकिन भेदभाव नहीं पैदा करती, बदहाल स्थिति के प्रति विद्रोह की मशाल जलाती है परन्तु देश की एकता को अक्षुण्ण बनाए रखने के लिये भाईचारे की नित नई इबारत रचती है। कोई भी दुश्मन यदि आँख उठाकर भी देखें तो उन्हें उनकी औकात दिखाने के लिये भी तत्पर रहती है। मुझे समकालीन हिन्दी ग़ज़ल के सशक्त हस्ताक्षर शेरजंग गर्ग के ये शेर माकूल लगते हैं-
“जो हमारे लिये साजिश में रचे दुनिया ने,
उन खिलौनों से नहीं दिल का बहलना होगा।
देश के प्रेम का हम जाम पियें- खूब पिएँ,
जलने वालों को फ़क़त हाथ ही मलना होगा।”19
इस तरह आज़ादी पूर्व से लेकर आज तक ग़ज़लों ने राष्ट्रीय चेतना को प्रगाढ़ करने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की है। हिन्दी की ग़ज़लों में बदले हुये मेयार के साथ, बदली हुई परिस्थितियों के साथ, राष्ट्रीयता की नवीन चेतना स्पष्ट दिखाई देती है। अब हिंदी ग़ज़लों में घुँघरू की रुनझुन के स्थान पर मनुष्य की पीड़ा का रुदन-क्रंदन है, मदिरा के स्थान पर रोटी की पुकार है, प्रत्येक व्यक्ति के हक़ की आवाज़ है, शिक्षा, स्वास्थ्य, बेरोज़गारी, स्त्री, दलित, आदिवासी, बाल, वृद्ध, पर्यावरण आदि उन सभी आवश्यक बिंदुओं की चर्चा है, स्वर है जो किसी राष्ट्र को सशक्त और समृद्ध बनाने में अहम भूमिका अदा करते हैं। वास्तव में आज जब सम्पूर्ण विश्व कृत्रिम बुद्धिमत्ता के प्रभाव से संचालित हो रहा है तो राष्ट्रीय चेतना का भी नवीन स्वरूप दृष्टिगत होना लाज़िमी है। अतः उपर्युक्त विवेचनों के आधार पर हम कह सकते हैं कि हिंदी ग़ज़लें न्यायोचित ढंग से राष्ट्रप्रेम के परिवर्तित स्वरूप को अभिव्यक्ति प्रदान करने में सफल सिद्ध हो रही हैं।
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