- प्रो. श्यौराज सिंह 'बेचैन'
शोध सार : आदिवासी क्षेत्रों में विकास
के नाम पर लूट, हिंसा और व्यापक पैमाने पर भ्रष्टाचार पसरा
हुआ है। लोग अपने घरों से विस्थापित हो रहे हैं। प्रशासनिक हलकों में कमीशनखोरी
बढ़ी है। आदिवासी मुख्यधारा की राजनीति में व्यापक हस्तक्षेप नहीं कर सका है,
ऐसे में बाहरी लोगों के शोषण का वह शिकार हुआ है। नक्सल समस्या ने
भी आदिवासी समाज की भारी क्षति की है। नक्सल घुसपैठ के कारण जो नक्सल नहीं है,
जो हक और सम्मान की बात करतें हैं उन्हें भी नक्सल कहकर रास्ते से
हटा दिया जाता है। प्रस्तुत आलेख में कहानियों के माध्यम से आदिवासी क्षेत्रों में
फैली इन समस्याओं को समझने का प्रयास किया गया है।
बीज शब्द : आदिवासी, विकास, नक्सलवाद, राजनीति,
आदिवासी शोषण।
मूल आलेख : पूंजीवादी सभ्यता ने आदिवासी
समाज को बहुत गहरे स्तर तक प्रभावित किया है। उसने आदिवासी समाज के सामाजिक और
सांस्कृतिक ताने-बाने को छिन्न-भिन्न कर दिया है। विकास के नाम पर व्यापक पैमाने
पर इन क्षेत्रों में खनिज संसाधनों का दोहन जारी है। वैश्विक कम्पनियों की नजर इन
क्षेत्रों पर है, वे विकास के तमाम दावों के साथ
संसाधनों पर दखल कर रही हैं। आज उपनिवेश के पुराने तरीके बदल गए हैं। जहां आज
तीसरी दुनिया के देश नव उपनिवेशवाद के शिकार हैं तो वहीं तीसरी दुनिया के भीतर के
आदिवासी क्षेत्र पारंपरिक उपनिवेशवाद के शिकार हैं। आदिवासी क्षेत्रों में बाहरी
घुसपैठ तेजी से बढ़ी है। आदिवासी क्षेत्रों के विकास का दावा करने वाला शासन-प्रशासन
खदानों और जंगलों को पूंजीपतियों को सुपुर्द कर दे रहा है। आदिवासी क्षेत्रों में
फैले अपार खनिज संसाधनों से दिल्ली मुम्बई जैसी राजधानियां जगमगा रही हैं और
राजधानियों के कूड़े कचरे को आदिवासी क्षेत्रों में डंप किया जा रहा है। इन इलाकों
में व्यापक पैमाने पर लूट और भ्रष्टाचार जारी है। नीचे से लेकर ऊपर तक प्रशासन की
मिलीभगत और बंटवारे में हिस्सेदारी है। ज्यांद्रेज ने आदिवासी क्षेत्रों में विकास
के नाम पर जारी परियोजनाओं की लूट की हिस्सेदारी पर लिखा है कि, "ग्राम पंचायत स्तर पर किसी भी विकास कार्य के लिए अलग-अलग अधिकारियों को
कमीशन देना पड़ता है: 3 प्रतिशत प्रखण्ड विकास अधिकारी
(बीडीओ) लेता है, 5 प्रतिशत जूनियर इंजीनियर, 5 प्रतिशत ग्राम पंचायत एक्सटेंशन ऑफिसर लेता है और 5
प्रतिशत प्रखण्ड का अध्यक्ष। 2 प्रतिशत प्रखण्ड के क्लर्क को
देना पड़ता है और 2 प्रतिशत प्रखण्ड के खजाँची को।"[1]
इस लूट के खिलाफ उठने वाली हर आवाज का दमन जारी है। नक्सलवाद के नाम पर प्रशासन
आदिवासियों के साथ मनमाने व्यवहार करता है। ऐसे में प्रशासन से आदिवासी समाज का
कोई सीधा जुड़ाव नहीं बन पाया है। शासन व्यवस्था स्थापित करने और नक्सलवाद के दमन
के नाम पर आदिवासियों का दमन जारी है। “सारंडा में नक्सल
विरोधी अभियान के दौरान सुरक्षा बलों ने गाँवों में आजीविका का संकट पैदा किया,
ग्रामीणों को आतंकित किया, निर्दोष आदिवासियों
को यातना दी, महिलाओं के साथ बलात्कार किया और तीन लोगों की
हत्या की।…इस क्षेत्र के 25 गांवों के युवा पुलिस अत्याचार
के भय से पलायन कर गये थे।”[2]
आदिवासी क्षेत्रों में फैले इस भ्रष्टाचार, शोषण
और दमन को रणेन्द्र ने अपनी कहानियों का विषय बनाया है। उनके कहानी संग्रह ‘छप्पन छुरी
बहत्तर पेंच’ में संकलित यह कहानियां सिर्फ गल्प नहीं हैं बल्कि यथार्थ की जमीन पर
पकी हुई हैं।
इस संग्रह की 'बाबा
कौए और काली रात कहानी' के माध्यम से रणेन्द्र ने आदिवासी
क्षेत्रों में फैले हुए भ्रष्टाचार को उजागर किया है। कहानी में लेखक एक नैरेटर के
रूप में उपस्थित है। कहानी की शुरुआत उसके बाबा के संघर्षों से होती है और उसका
अंत उनके आत्मदाह से। कहानी में लेखक का बाबा, शनिचरा काका
और सुरेश काका तीनों दोस्त हैं। बचपन से साथ पले बढ़े हैं। पुलिस थाना कचहरी हर
जगह उनका संघर्ष साझा है। लेकिन सुरेश की ब्लाक प्रमुख बनने की महत्वाकांक्षा इस
दोस्ती को तोड़ देती है। सुरेश चुनाव लड़ता है और दोस्तों की मदद से जीत जाता है।
लेकिन इसके बाद उसके अपने ही दोस्त उपेक्षित हो जाते हैं। इसके पीछे बचपन में हुई
सुरेश की शादी मूल कारण थी। वह अपनी पत्नी को छोड़ भैया जी जो की विधायक है कि बहन
से शादी कर लेता है, जिसके चलते पहली पत्नी आत्महत्या कर लेती है। इसके बाद सुरेश
अपने परिवार के साथ गांव छोड़ देता है। सुरेश मुख्यधारा की राजनीति में शामिल हो
जाता है, उसका सपना जो राजनीति में शामिल होकर उसे ठीक करने
का था वह तो बना रहता है लेकिन उसे वह साकार रूप नहीं दे पाता। उसके अपने ही ऑफिस
में उसके गांव के लोगों द्वारा की गई मजदूरी में कमीशन देना पड़ता है और जो लोग
कमीशन नहीं देते हैं उनकी मजदूरी लटका दी जाती है। सुरेश जो भ्रष्टाचार को खत्म
करने के लिए राजनीति में आया था इसके खिलाफ कुछ नहीं कर पाता है। लेखक का बाबा भी
कमीशन न देने पर इस समस्या का शिकार होता है जिसका जिक्र लेखक ने इस तरह किया है,
"तुमरे गाँव के सब छबढ़न बहुते समझदार हैं दादा। सबने कमीशन
कटवा लिया। आराम से सबका हिसाब खाता में पहुँच गया। आप भी कमीशन पर तैयार हो जाइए
दादा। का कीजिएगा, ऊपर तक पहुँचाना पड़ता है। लेन-देन नयँ
कीजिएगा तो सालो-साल दौड़ाकर मोरा देगा, ई ऑफिस। लेइये-देकर
काम निकालने में होशियारी है दादा। छोट भाई का बात मान लीजिए। हमरा नयँ तो आजी की
तबीयत का तो ख्याल कीजिए। थोड़ा झुकने में हरजा नयँ है दादा।"[3]
इसी भ्रष्टाचार के चलते लेखक का बाबा आत्मदाह करने पर मजबूर होता है। अपनी ही
मजदूरी के पैसे को पाने के लिए उसे ब्लाक ऑफिस के चक्कर लगाने पड़ते हैं। ब्लाक
ऑफिस में फैले भ्रष्टाचार के खिलाफ वह संघर्ष करता है। मजदूरी का पैसा जब उसके
खाते में नहीं आता है तो वह बीडीओ से शिकायत करता है। लेकिन ऑफिस के बड़े बाबू
उसका काम पूरा नहीं करते हैं। समय से पैसा न मिलने के कारण और बड़े बाबूओं के
द्वारा अपमानित किए जाने से वह आजीज आकर ब्लाक ऑफिस में आत्मदाह कर लेता है। लेखक
इसका वर्णन करते हुए लिखता है कि, "जब कहा जा रहा है कि
सोमवार को खाता में पैसा चढ़ जाएगा तो जिद्द काहे कर रहा है। तभी दो-चार लोग तैश
में उठकर बाबा को धकियाकर चैंबर से बाहर करने लगे। लगता है बाबा की सोचने- समझने
की ताकत एकदम खत्म हो गई। धक्का से दरवाजे के बाहर जाकर गिरे तो उठकर सामने के
खंभे में सर पटकने लगे। तभी किसी ने पेट्रोल से भरा जर्किंग उनके हाथों में थमा
दिया। बाबा भी बिना सोचे-समझे पूरा जर्किंग सर पर उड़ेल लिए। पेट्रोल में पूरी तरह
भींग गए तो उनकी हाथों में किसी ने दियासलाई जलाकर दे दी।"[4]
आदिवासी अंचलों में यह सांस्थानिक भ्रष्टाचार
नीचे से ऊपर तक फैला हुआ है। हर किसी को अपना हिस्सा चाहिए। आदिवासी विकास और उनके
हित परियोजनाओं में गौड़ हैं। इसी तरह ‘हमन को होशियारी क्या’ कहानी में राय साहब
जो कि नगर विकास मंत्री है वह और उसके गुर्गे मनमानी करते हैं। विकास के नाम पर
पतली सड़के और स्पा सेंटर तो क्षेत्रों में खुल रहे हैं लेकिन आमजन की जरूरत की
चीजें गायब हैं। विकास के नाम पर सड़कें ऐसी कि अगर दो गाड़ियां आ जाएं तो साइकिल
से चलना दूभर होता है। क्षेत्र में मंत्री के गुर्गे रंगदारी करने और हफ्ता वसूली
में आगे हैं। लोकतंत्र के पहरेदार जिन्हें आम जन की सुविधाओं का ख्याल रखना था, उनके
लिए सहारा होना था वे उनके शोषण के नए-नए तरीको इजाद कर रहे हैं। कहानी में लेखक
बताता है कि राय साहब दुकानों से काम तो लेते हैं लेकिन उनका भुगतान नहीं करते
हैं। इसी तरह भोला के यहां उनकी गाड़ी मरम्मत होने आयी थी लेकिन पैसा मांगने पर उनके
गुडों ने गैराज के लोगों से मार पीट की। इसके खिलाफ भोला जब जमीनी संघर्ष करने के
लिए सोचते हैं तब उनकी नजर मंत्री के लूट और भ्रष्टाचार के नए तरीकों पर जाती है।
इसका जिक्र लेखक इस तरह करता है, "उन्होंने आँखें
उठाकर देखा तो शहर के हर मुहल्ले में 'वो' थे। जबरन घरों में घुस उन्होंने अपने कार्यालय खोल रखे थे। किसी मुहल्ले
में युवा मोर्चा, अगले में किसान मोर्चा, दलित मोर्चा, महिला मोर्चा, कार्यालय तो बहाना था।
कमजोरों के घरों पर कब्जा, पर एक पर्दा।"[5]
प्रशासन आदिवासियों के साथ भेदभावपूर्ण व्यवहार
करता है। आदिवासी समाज के लोगों को छोटे-छोटे केसों में उलझाकर जेलों में भर दिया
जाता है। उनके रीति-रिवाज और संस्कृतियां कथित मुख्यधारा के लोगों से अलग हैं। ऐसे
में उनकी सांस्कृतिक जानकारी न होने के चलते प्रशासन ऐसे अनके कानूनों में उन्हें
उलझा देता है, जिसका सीधा प्रभाव उनके सांस्कृतिक तौर तरीकों
पर पहुंचाता है। पुलिस प्रशासन ने आदिवासी क्षेत्रों में नक्सल शब्द का प्रयोग
आदिवासियों के विरुद्ध एक हथियार के तौर पर किया है। प्रशासन अपने खिलाफ उठने वाली
हर आवाज को दबाने के लिए आदिवासियों को नक्सली करार दे देता है। “झारखंड में 6,000 निर्दोष आदिवासियों को नक्सली होने
के आरोप में विभिन्न जेलों में डाल दिया गया है, वहीं
छत्तीसगढ़ में 17000 निर्दोष लोग एवं ओड़िसा में 2000
निर्दोष लोग जेलों में हैं। इस तरह से कुल 25000 निर्दोष लोग जेलों में बंद हैं। इसी तरह इन राज्यों में लगभग 1057 लोग फर्जी मुठभेड़ में मारे गए हैं एवं 500 महिलाओं
के साथ सुरक्षा बलों ने बलात्कार या बदसलूकी किया है।”[6] इन्हीं
वजहों से ज्यादातर लोग गांव से पलायन कर जाते हैं। आदिवासी समाज पुलिस प्रशासन और
नक्सलियों के बीच पिस रहा है। झारखंड के सोसोकुटी गांव की रहने वाली एतवारी इस
संदर्भ में कहती हैं कि, "पुलिस हमें खाना, कपड़ा और रहने के लिए घर उपलब्ध कराए, हम गांव
छोड़ने के लिए तैयार हैं क्योंकि गांव में रहने से हम माओवादी हो जाते हैं?'
वह प्रश्न उठाती हैं, 'हमें दिन में पुलिस
प्रताड़ित करती है और रात में माओवादी लोग, हम लोग जानना
चाहते हैं कि हमारा अपराध क्या है?"[7]
प्रशासन आज भी आदिवासियों को बर्बर, असभ्य और जंगली मानता है। उसकी औपनिवेशिक दृष्टि में कोई बदलाव नहीं आया
है। इसलिए वह आदिवासियों को आदतन अपराधी की श्रेणी में ही देखता है। ‘भूत बेचवा’
कहानी के माध्यम से रणेन्द्र ने इस समस्या को लक्षित किया है। कहानी में बहादुर दा
अपनी पत्नी के ऑपरेशन के लिए गाँव से शहर रुपए लेकर अनिल के साथ आ रहा था। पुलिस
उसे रोककर चेक करती है। उसके पास रुपए देखकर उसका कनेक्शन वह नक्सल से जोड़ देती
है। उन्हें गिरफ्तार कर थाने लाया जाता है। बिना उनकी दलील सुने पुलिस उन्हें मार
पीट कर अपने बात मानने के लिए मजबूर करती है। रणेन्द्र इसका चित्रण करते हुए लिखते
हैं कि, “मामला नक्सल कनेक्शन का था, सो
गिरफ्तार अभियुक्त मोटर साइकिल सहित सदर थाना पहुँचाए गए। दारोगा, इंसपेक्टर, डीएसपी। सबको पूरा भरोसा था कि पैसा
नक्सलियों का ही है। नहीं तो आदिवासी के पास डेढ़ लाख रुपया नगद कहाँ से आ गया?
अनिल दा, बहादुर दा की दलील सुनने के लिए कोई
तैयार नहीं था। सब-के-सब थर्ड डिग्री-फोर्थ डिग्री इस्तेमाल कर अपनी थ्योरी को
मनवाने पर तुले थे।"[8]
इस तरह पुलिस बहादुर दा और अनिल दा को दुर्दान्त नक्सली ठहरा देती है। बहादुर
बाखला एक दुर्दान्त नक्सली चित्रित किया गया। अनिल दा को ऐसे पात्र बनाने में
व्यावहारिक कठिनाइयाँ थीं। यूनिवर्सिटी कैम्पस में उसकी नियमित उपस्थिति, परीक्षाओं की तारीख आदि-आदि कोर्ट-कचहरी में बाधा खड़ी कर सकते थे। गाँव
में खेती-खलिहानों करने वाला बहादुर कहाँ से गवाह-प्रमाण लाता कि वह गढ़चिरौली
में फलाँ तारीख को, बस्तर और दतिवाड़ा में चिलाँ तारीख को और
सरण्डा के ट्रेनिंग शिविर में अलाँ महीने में नहीं था। फलाँ फलाँ मुठभेड़ों और
लैंड माइन्स अभियानों का नेतृत्व नहीं किया था। पूरी सिद्धहस्तता के साथ कहानी के
सारे कोणों को दुरुस्त किया गया"[9]
आदिवासी समाज में अपराध की प्रवृत्ति बेहद कम
रही है लकिन बाहरी घुसपैठ के साथ अपराधों की संख्या बढ़ी है। आदिवासी संस्कृति में
स्त्री पुरुष संबंध बेहद सहज हैं। घोटुल जैसी प्रथा में बचपन से ही लड़के-लड़कियां
साथ पलती बढ़ती रही हैं। इसलिए वहां सेक्स को लेकर टैबू नहीं है जैसा कि मुख्यधारा
के समाज में दिखाई देता है। बाहरी लोग जो आदिवासी संस्कृति से अपरिचित हैं
उन्होंने इस तरह के संबंधों का दुरूपयोग किया है। बलात्कार जैसे अपराध जो आदिवासी
क्षेत्रों में थे ही नहीं, वह भी होने लगे हैं। आदिवासियों का राजनीतिक दखल
मुख्यधारा जैसा नहीं है। अलग अलग नीतियां बनाकर आदिवासियों की एकता को स्थापित
नहीं होने दिया जाता है, इस वजह से तमाम बाहरी लोग
आदिवासी क्षेत्रों में अपनी राजनीति चमका रहे हैं। यही लोग आदिवासियों का शोषण करते
हैं और उन पर अपना हुक्म चलाते हैं। ‘छप्पन छुरी बहत्तर पेंच’ कहानी का पात्र बौधा
रोजमर्रा का जीवन जीने वाला व्यक्ति है। उसकी नई नेवली दुल्हन पर त्रिभुवन बॉस
जैसे गुंडे की नजर है। एक रात त्रिभुवन उसे उठा लेता है और उसके साथ बलात्कार करता
है। बौधा के विरोध करने पर उसे गोली मार देता है। इस परिस्थिति का वर्णन रणेन्द्र
ने इस तरह किया है, "दइया पलक झपकते सूर्य मंदिर पहुँच
गयी। साथ में मुहल्ले की दीदी-काको लोग। जबरन झलक को पानी से निकाला गया।
चादर-कंबल से ढॉप-ड्रेप कर लिए दिए अम्मा की कोठरी में। बेहोश झलक। चेहरा एकदम
सफेद। भंसा रसोईघर से गरम तेल को कटोरी लेकर भागदौड़ शुरू हुई। आधे घंटे बाद होश
में आई, लेकिन मुँह से बकार भी नहीं फूट रहा। ऐसे ताक रही
जैसे किसी को पहचानती ही नहीं हो।"[10]
इन्हीं राजनैतिक, आर्थिक
और सामाजिक शोषणों के खिलाफ जो त्वरित कार्यवाही प्रशासन को करनी थी उसमें वह
नाकाम रहा है। राजनैतिक साठ-गांठ से इन क्षेत्रों में अपनी धौंस जमाने वालों के
खिलाफ नक्सलियों ने कार्यवाही की है। आदिवासी क्षेत्रों में यह संघर्ष तेदूं पत्ते
के दामों में वृद्धि करने के साथ शुरू हुआ था। राहुल पंडिता लिखती हैं कि,
"शुरू में नक्सलवादियों ने ठेकेदारों और वन अधिकारियों की
सत्ता के खिलाफ संघर्ष को केन्द्रित किया। कागज बनाने वाले कारखाने के प्रबंधन और
जंगल के उत्पादों का दोहन करने वाले ठेकेदारों के खिलाफ भी संघर्ष शुरू हो गया।
तेंदू की पत्तियों और बांस इकट्ठा करने वालों की मजदूरी बढ़ाने के लिए भी संघर्ष
चलाए गए। पहले वर्ष में आदिवासियों ने वन विभाग को टैक्स देना बंद कर दिया। वन
भूमि के बड़े-बड़े हिस्सों पर जबरन कब्जा किया गया ताकि खेती की जा सके।
व्यापारियों और सूदखोर महाजनों द्वारा जिन जमीनों पर कब्जा कर लिया गया था उन्हें
उनसे छीन कर भूमिहीन मजदूरों में बांट दिया गया।"[11]
इन क्षेत्रों को उन्होंने आधार पृष्ठ के रूप में विकसित किया। वहां जनताना सरकारें
स्थापित की और फौरी कार्यवाही के आधार पर सामंती शक्तियों के भीतर दहशत पैदा की।
इन्हीं के चलते के एक बड़ा तबका नक्सलियों को मुक्ति दूत के रूप में देखने लगा है।
आदिवासी क्षेत्रों में सामंती शक्तियों के कारनामें और नक्सल प्रभावों को इंगित
करते हुए रणेन्द्र की कहानी ‘भूत बेचवा’ का पाँचू काका कहता है कि, "अब तो नक्सल फक्सल के चक्कर में बहुते बदल गया है। पहले तो मालिक यह भी तय
करता था कि कमिया के घर में कब बाल-बच्चा होगा? कितना होगा?
और किसके बूंद से होगा?"[12]
निष्कर्ष : आदिवासी समाज के जीवन संघर्षों का लेखक ने बहुत ही सजीव चित्रण किया है। कहानियों में सिर्फ आदिवासियों के शोषण को ही रेखांकित नहीं किया गया है बल्कि उसके खिलाफ वे संघर्ष करके हुए भी दिखाई देते हैं। पुलिस प्रशासन की नाकामी, चली आ रही उसकी औपनिवेशिक समझ को भी यह कहानियां रेखांकित करती हैं। जिन कार्यों को प्रशासन हल करना था उसमें वह नाकाम रहा है, विकास के नाम पर व्यापक पैमाने पर भ्रष्टाचार इन क्षेत्रों में पसरा हुआ है। आदिवासी समाज सरकारी नीतियों के लाभ से वंचित है ऐसे में नक्सलियों को उनके बीच जगह बनाने में सहूलियत हुई है। इसलिए बेहद जरूरी है कि आदिवासी समाज के संदर्भ में जो भी विकास की नीतियां बनाई जाएं उनमें उनसे सलाह ली जाए और उसका कार्यान्वयन व्यापक स्तर पर हो ताकि कोई आदिवासी विकास से वंचित न रह सके।
सन्दर्भ :
[1] ज्या द्रेंज, झोला वाला अर्थशास्त्र,
वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, पृ. 42
[2] ग्लैडसन
डुंगडुंग, संजय कृष्ण, क्रॉसफायर,
आदिवानी प्रकाशन, झारखंड, पृ. 51
[3] रणेन्द्र, छप्पन छुरी बहत्तर पेंच, आधार प्रकाशन, पंचकूला हरियाणा, पृ. 27
[4] रणेन्द्र, छप्पन छुरी बहत्तर पेंच, आधार प्रकाशन, पंचकूला हरियाणा, पृ. 29-30
[5] वही, पृ. 110
[6] ग्लैडसन
डुंगडुंग, संजय कृष्ण, क्रॉसफायर,
आदिवानी प्रकाशन, झारखंड, पृ. 6
[7] वही, पृ. 168
[8] वही, पृ. 41
[9] वही, पृ. 41-42
[10] वही, पृ. 64
[11] राहुल पंडिता, सलाम बस्तर,TRANQUEBAR
PRESS, नई दिल्ली, पृ. 56
[12] रणेन्द्र, छप्पन छुरी बहत्तर पेंच, आधार प्रकाशन, पंचकूला हरियाणा, पृ. 53
श्यौराज सिंह 'बेचैन'
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