(हीरामंडी की ऐतिहासिक-सांस्कृतिक और कलात्मक अर्थच्छवियाँ)
- डॉ. विमलेश शर्मा
सच कहूँ तो मैं हीरामंडी नाम और उसकी शाब्दिक-आर्थी-भाविक और सामाजिक भंगिमा से वाक़िफ, कृष्ण बलदेव वैद के उपन्यास गुज़रा हुआ ज़माना से हुई,और फिर मंटों की कहानियों, अमृता के लिखे और फिर अन्य साहित्यिक रचनाओ में उल्लेख से... और उसके बाद उसके इतिहास और क्रांति की चिंगारियों से। गुलाबी क्रांति के ये तेवर शोध को आमंत्रित कर रहे थे, और हासिल हुआ कि हुस्न, इतिहास के इस वक़्फ़े में पूरी तहज़ीब-ओ-दम-ख़म के साथ अपने अस्तित्व की लड़ाई की बात बख़ूबी कहता है। इसी मुक्ति प्रसंग के तात्कालिक ताप और सांस्कृतिक अर्थच्छवियों को कई कोणों से देखने-समझने-परखने की दरकार इतिहास-साहित्य और सिनेमा में सतत बनी हुई है।
सब ताज़ पड़े बेसुध होकर
हम अपने हाक़िम ख़ुद होंगे !
आज़ादी का दौर अलग दौर था। उस दौर में सिरफिरे लोग बसते थे,
जो वतनपरस्ती को अपना ख़ुदा मानते थे; वतन के लिए अपना प्रेम तलवार की धार पर रख देते थे। जिन्हें अपना सम्मान प्रिय था, जो वतन के ख़ातिर अंग्रेज़ी अफ़सरों के आगे सर उठा कर और सीना ठोककर चलने की हिम्मत रखते थे। ऐसे काफ़िरों में आदमी-औरत का भेद नहीं था, इनमें पेशे-जाति-धर्म की कोई होड़ नहीं थी, इन सिरफिरों पर तो बस एक धुन सवार थी, और वह धुन थी आज़ादी की। आज़ादी की यह लड़ाई हर घर से लड़ी गई थी, और यह सच भी था कि आज़ादी का यह संग्राम चंद लोगों के भरोसे लड़ा भी नहीं जा सकता था, ना ही यह प्रभावशाली वर्ग या पूँजीपतियों या नवाबों की ही लड़ाई थी। इस लड़ाई में तो हर वर्ग, हर शख़्स अपना योग दे रहा था। इसी योग में एक जोड़ था उन स्त्रियों का जो ग़ज़ब की फ़नकार थीं। जिनके पास राजा-महाराजा और नवाब अपनी संततियों को इल्म-तहज़ीब और नफ़ासत सीखने भेजा करते थे; जिन्हें कहीं तवायफ़, कहीं बाजी, कहीं गणिका-नायिका और स्वयं ब्रितानी लोग जिन्हें नौच गर्ल्स कहकर पुकारते रहें हैं। जिनकी हाथों की लकीरों में अधूरी मुहब्बतें और मुक्क़मल दर्द लिखा है, जिनकी क़िस्मत में टूटते ख़्वाब ज़्यादा हैं। इतिहास की इन नायिकाओं का बौद्धिक और सांस्कृतिक योगदान तो रहा ही है परन्तु आज़ादी का तिलस्म रचने में भी ये रानियाँ कहीं पीछे नहीं रहीं हैं।
इसी नफ़ासत का एक किस्सा है, कि “ मशहूर शायर फ़िराक़ गोरखपुरी और फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ की बहुत दोस्ती थी, दोनो अंग्रेजी के आला दर्ज़े के जानकार थे परन्तु उर्दू के मशहूर शायर थे। बँटवारे के कई साल बाद फ़िराक़ गोरखपुरी जिन्हें हिन्दी जगत् रघुवीर सहाय श्रीवास्तव के नाम से जानता है अपने दोस्त से मिलने इलाहाबाद से लाहौर गए। फैज़ साहब ने उनकी बहुत ख़ातिरदारी की और उन्हें हीरामंडी ले गए, ताकि वे नृत्यकला की पाकिस्तानी संस्कृति को देख सके। वहाँ जब नृत्य शुरू हुआ तो फिराक़ साहब ने शराब माँगी तो फैज़ साहब ने कहा यहा पीने की मनाही है, यह एक अदब की रवायत है।”(पुस्तक- 1947 के जख़्म- राजीव शुक्ल से) इसी अदबी संस्कृति को संजय लीला भंसाली ने ‘हीरामंडी’ में पूरी भव्यता और सहजता के साथ दिखाया है, यही भंसाली का शाहकार है। संगीत और नृत्य की कई शैलियों के प्रचार-प्रसार में जिनमें नृत्य की कथक शैली और गायन की ठुमरी, गज़ल और दादरा शैली प्रमुख है, इनका सांस्कृतिक योग है। अंज़ीज़ुंबाई हो या गौहर जान ये नाम इतिहास की मुख्यधारा में दर्ज ही नहीं हो पाए हैं, जिन्होंने अपनी रईसी लुटाकर आज़ाद हिन्दुस्तान की मज़बूत नींव बनने में अपना योगदान दिया । इतिहास के पन्नों पर उतरा ऐसा ही एक वक्फ़ा ‘लाहौर’ जिसे अमृतसर का जुड़वा शागिर्द कहा जाता है, की मल्लिकाओं के हिस्से दर्ज़ है, जिसे इस समाज ने उसकी फ़ितरत के अनुरूप ही लगभग भूला दिया है । यह आधिकारिक रूप से घोषित है कि भारत के मुक्ति संग्राम में तवायफ़ों का ख़ून भी शामिल है, हीरामंडी इसी तथ्य की तस्दीक करती है। इसी लाहौर को जहाँ रावी के तट पर नेहरु ने पूर्ण स्वराज्य की घोषणा की थी को संजय लीला भंसाली मोईन बेग की कहानी के माध्यम से सामने लाते हैं। यह शृंखला जिस पर अतिभव्यता का दोष कई समीक्षकों ने लगाया है, स्त्री हक़ूक की लड़ाई और उसकी आज़ादी की ईमानदार समझ के लिए ही सही, अनेक कमियों के बावज़ूद देखी जानी चाहिए।
हीरामंडी-द डायमंड बाज़ार शीर्षक से भंसाली भव्यता का ऐसा तिलिस्म रचते हैं जिसमें ऐश्वर्य, आज़ादी की चमक-धमक के आगे अपना सर झुकाता सा जान पड़ता है। इस कहानी में वर्चस्व का संघर्ष है, प्रतिशोध की आग है और अंग्रेज़ों के खिलाफ़ प्रतिरोध के स्वर हैं। यहाँ ख़्वाबों की डूबती-उतराती कब्रगाहें हैं, रहस्यमयी-खनखनाती आवाज़ें हैं, अनेक क़िरदार हैं जो अपने जीवन की कशमकश, छोटे-बड़े मकसदों में मुब्तिला है। इस कहानी में जोश-ओ-जुनून तो है ही, सत्ताई तिकड़में और फ़रेब भी शुमार है, एक ओर अंग्रेज़ी सरकार तो दूसरी ओर नवाबी ठसक है, ख़लिश-ख़राश-ज़ख़्म ओ नमक भी है जो साफ लफ़्ज़ों में कहने का हुनर रखती है कि, “मोहब्बत और बगावत के बीच कोई लकीर नहीं होती, इश्क और इंक़लाब के बीच कोई फर्क नहीं होता”। एक ओर इसमें ख़ूबसूरत फ़ानूस में जलती-दमकती मोमबत्तियाँ हैं, जो हुस्न और अवसाद दोनों की रहस्यमयी उपस्थिति की परिचायक है तो दूसरी ओर आत्मसम्मानी, सर उठाकर जलती हुईं मशालें। नवाबी तबीयत से रचा-रंगा लाहौर नवाबों की रंगीनियों और अहमक़ाना अंदाज़ से बुना इस कहानी का कथानक गुलाम हिन्दुस्तान का वास्तविक चित्र खींचता है। वे नवाब जो अपनी कब्र भी औरों से ऊँची बनाने में विश्वास करते हैं। हीरामंडी में एक ओर ताज़दार और आलमज़ेब की नवोढ़ा प्रेमकहानी है जो किताबों की बातों, ख़तों की आवाज़ाही से शुरू होकर उन्हीं पर ख़त्म जान पड़ती है तो दूसरी ओर तवायफ़ मल्लिकाजान और बिब्बोजान की ख़ुद्दारी और वतन पर ख़ुद को ख़ाक कर देने की अदम्य इच्छाशक्ति जिनके क़िस्से किताबों में दर्ज़ भी होने की क़िस्मत भी ना हासिल कर पाए। कहानी में नवाबों का सुरा-सुंदरी प्रेम और अय्याशियों का ज़िक्र है तो वहीं अदब और सलीके के लिए जानी जाने वाली तवायफ़ों के एक सांस्कृतिक दौर का पूरा खाका उसके संघर्ष और जीवट के साथ मौज़ूद है। ये औरतें जो पितृसत्ता की बेड़ियों में सीधे-सीधे जकड़ी हैं, अपने स्वाभिमान से मानो उसी पितृसत्ता को लानतें भेजती-सी जान पड़ती हैं। यों पूर्व औपनिवेशिक समय में सांस्कृतिक प्रतिनिधित्व करने वाली इन औरतों का क़द बहुत ऊँचा था। इन्हें भारतीय सौन्दर्य और सांस्कृतिक धरोहर का प्रतिनिधित्व करने वाली क़ौम तक कहकर नवाज़ा जाता है। कहा जाता है कि इनके चाल-चलन, रहन-सहन का अनुकरण बेगमें और रानियाँ किया करतीं थीं, नवाब इनसे रीति-नीति का प्रशिक्षण लिया करते थे। बहरहाल यह तो इनका सामाजिक-सांस्कृतिक पक्ष था, जिन्हें हर समय, शख़्स और वर्ग अलग-अलग या अपने मिज़ाज के चश्मों से देख-पढ़-समझ सकता है। भंसाली हीरामंडी में इन्हीं औरतों से आज़ादी की बात दमदार तरीक़े से कहलवाते हैं जिन्हें इतिहास में दबा दिया गया है। ये ही वे औरतें हैं जिनके भीतर आज़ादी शब्द का अर्थ रूह के अंदरूनी हिस्से में गहरा धँसा हुआ है। जहाँ एक ओर इस कहानी में चाबियों की जंग में उलझे शीशमहल और ख़्वाबगाह हैं,वहीं दूसरी ओर हुज़ूर और साहिब बनने की भी लड़ाई है पर इन सब पर हावी है असली मुल्क़वालियों की आज़ादी की लड़ाई । इसी आँच में आलमबेग का प्रेम में सना हुआ रुमाल जल कर राख हो जाता है, ताज़दार अपनी जान वतन पर न्योछावर कर देते हैं, कुत्सिया अपने पोते का सेहरा बनाते-बनाते उसे खो बैठती हैं, और कोई साईमा किसी शोषक की आँच में अपने प्रेम की नमी को खो बैठती है।
'हमें देखनी है आज़ादी, हर हाल में हमें देखनी है... मिट जाएगा नाम इस ज़ुल्मत का,
लहराएगा परचम मुहब्बत का, हमें सुबह-ए-आज़ादी देखनी है...'...ये शब्द इस कहानी की तासीर को इतना गहरा रंग देते हैं कि भंसाली अपनी किसी भी फ़िल्म से ज़्यादा वाहवाही यहाँ ओटीटी पर इस शृंखला के आठ धारावाहिकों से लूट ले जाते हैं। इन शब्दों के आगे ही हीरामंडी के प्रारम्भिक हिस्से धीमे नहीं वरन् ज़रूरी जान पड़ते हैं। कहानी के अंत में दर्शक उन हिस्सों में किसी भी बदलाव या नकारात्मक आलोचना सुनने को भी तैयार नहीं हो पाता क्योंकि अनगिनत कोमल हाथों में थमा और मशालों से निकला स्वर उसे मंत्रमुग्ध कर देता है। हासिल कर लेने की बेचैनी और नूर को खो देने के डर के बीच सजी-धजी , घुँघरू बाँध नाचती नायिकाएँ आज़ाद ख़यालात हैं और पितृसत्ता की जकड़नों को मुँहतोड़ ज़वाब देती सच्चाइयाँ हैं, जिन्हें वे इसी कथा के संवाद की ही बानगी कि, जो समाज स्त्रियों को ज़ायदाद में हक़ देने की सहूलियत नहीं देता वह इतिहास के पन्नों पर उसे जगह कैसे दे सकता है को रुपहले पर्दे पर सजीव रूप से चित्रांकित करती हैं। वस्तुतः पितृसत्ता एक व्याधि है जिससे बचने का उपाय है सजगता और लैंगिक सरहदों को पार कर सभी को बराबर देखने की योग्यता-अर्हता हासिल करने की प्रवृत्ति को विकसित करना। हीरामंडी के पात्र अपनी भाषा और अदायगी से एक नयी भंगिमा में कड़वी से कड़वी बात बेहद सधे हुए संवादों में बयां करते हैं। हीरामंडी तमाम कमियों के बावज़ूद स्त्री को लेकर अपनी राजनीतिक समझदारी में पूरी तरह ईमानदार है और फ़िल्म का यही सरोकारी पक्ष उसे मूल्यवान बना देता है। फिल्म का संवादी तेवर इसे हर क़दम पर बयां करता है, “ आज़ादी शौक़ नहीं है नवाब साहब ! जंग है... शौक़ में सिर्फ़ वक़्त कटता है, जंग में गर्दन भी कट जाती है।”
भंसाली का निर्देशन-रंग संयोजन-संगीत कथानक को रवानगी देने में कहीं भी पीछे नहीं हटता और मँझे हुए चरित्रों की अदायगी इस भव्यता को चार चाँद लगाती जान पड़ती है। मोईन बेग की लिखी और भंसाली के स्क्रीन प्ले और निर्देशन से तैयार इस सीरीज में स्त्री क़िरदारों को बहुत ही कैफ़ियत के साथ और मनोवैज्ञानिक- ऐतिहासिक रंगों-तेवरों के साथ दिखाया गया है। आज़ादी का रंग हर रूह में एक ही जैसा धड़कता है और हीरामंडी रूह के उन रंगों को जिन्हें इतिहास सलीके से दर्ज़ नहीं कर पाया उन्हें इबारत के रूप में सामने लाने का कलात्मक प्रयास है। यों हर मन और व्यक्तित्व की निजी रुचियाँ है, जो सिनेमा को भी खाँचों-फाँकों में बाँटकर देखती है, परन्तु मेरा मन अस्मितावादी विमर्शों और यदि उसमें स्वानुभूतिपरक दृश्य भंगिमा को दिखाए जाने का महनीय पक्ष शामिल करता है तो उस ओर बँधता है। शृंखला पर भव्यता या अदाकारी के अनेक आक्षेप है परन्तु मुझे अपने समग्र में हीरामंडी सफल जान पड़ती है। दरअसल सिनेमा पर कोई भी दृश्य चाहे वह कितना भी सपाट क्यों न हो, वह उतने सपाट तरीके से नहीं आ पाता है। भंसाली अपनी दृश्य भाषा। की प्रति। इतने सजग हैं कि जब भी कोली कोमल मनोभाव के चित्र आते हैं तो वे उन्हें इस तरह चित्रित करते हैं कि इन दमित अस्मिताओं का स्वाभिमान कहीं आहत न हो जाए। इसीलिए वे दृश्यों में अतिरिक्त संवेदनशीलता भी बरतते हैं। फ़िल्म में यद्यपि धर्म और जातिवाद के प्रहार उतने मुखर नहीं दिखाए गए हैं लेकिन सटीक प्रतिबिंबन, वर्चस्व और प्रतिकार की अभिव्यंजना को सार्थक दिशा देते हैं। फरीदन की आलमजेब और मल्लिकाजान के प्रति स्त्री-दृष्टि दृश्यों को एक नई अभिव्यंजना देती हैं और उसका स्त्री के हक़ में खड़े होकर पितृसत्ता और राजनीतिक हलकों को ललकारना सिने भाषा और बिम्बों को एक अलग ऊँचाई पर ले जाता है। हीरामंडी के पात्र समाज के उपेक्षित पात्र हैं और साहित्य इतिहास और सिनेमा ने भी इन्हें वर्षों तक या यों कहे कि अपनी सहूलियत के हिसाब से विलंबित रखा है । बहरहाल इस शृंखला में अभिव्यंजना के अलग-अलग तेवर हैं, भावन-विभावन के अलग-अलग स्तर हैं, यथार्थ और कल्पना की गलबहियाँ हैं और इसीलिए भंसाली ने सिनेमाई माध्यम के अनुरूप रंग-संयोजन और संगीत पर बारीक काम किया है। भंसाली के चरित्र विपद-आपद में भी अपने व्यक्तित्व से समझौता नहीं करते, यह बात हम उनकी देवदास में भी देख चुके हैं। सिनेमा पर जीवन जीवंत होते हैं और हीरामंडी में संस्कृतियों का सफल अनूदित जीवन, जिसकी अपनी ध्वनिया और जीवन-दृश्य हैं। कोई भी फिल्मकार यदि इस बनावट के खाके को पूरी बुनावट और संजीदगी के साथ बुन ले तो सरोकार जीवित हो जाते हैं, रंगमंच सफल हो जाता है और दृश्य दर्शक के दिलो-दिमाग़ में धँस जाते हैं। हालाँकि जिस भव्यता का जादू भंसाली ने रचा है वो कुछ ही नगर वधुओं के हिस्से आता होगा पर उनका सच मल्लिका जान का वही कथन है कि, “हम चाँद है जो दिखता तो है खिड़की से मगर किसी के बरामदे में नजर नहीं आता।” बहरहाल धीमी शुरूआत के बाद और ताज़दार-आलमजेब के इश्को-मिज़ाज़ में डूबन के बाद हीरामंडी अपनी अंतिम कड़ियों में फिर से जागती-सँवरती नज़र आती है ,और इन्ही बिन्दुओं और दृश्यों पर दर्शक उससे भावनात्मक जुड़ाव भी महसूस कर पाता है, संगीत की रागिनियाँ इसे प्रभावी और भव्य बनाती है, तो सकल बन फूल रही सरसों, बन-बन फूल रही सरसों...सरीखे अमीर खुसरो के कलाम, निज़ामुद्दीन के गलियारों तक हाथ थाम ले जाने का हुनर रखते हैं।
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