- डॉ. श्यौराज सिंह बेचैन
अब
कहाँ
होगा
मेरा
दाखिला?
अगर
हो
भी
गया
तो
खाना,
किताबें-कॉपियाँ,
ड्रेस
इत्यादि
कहाँ
से
आयेंगी?
सोचता
हुआ
प्रेमपाल
सिंह
यादव
के
घर
पहुँचा,
“मास्साब, आप कहीं
मेरा
दाख़िला
करा
दें।
अन्यथा
मैं
गाँव
छोड़कर
किसी
शहर
चला
जाऊँगा।
गाँव
में
रहूँगा
तो
आप
के
खेत-क्यार
का
काम
भी
कर
दिया
करूँगा।"
वे
भी
समझ
गये
कि
श्यौराज
को
दाखिला
मिल
गया,
तो
इससे
बीते
वर्षों
की
भाँति
आगे
भी
काम
लिया
जा
सकता
है,
अगर
यह
गाँव
छोड़
कर
चला
गया
तो
हमें
ऐसा
दूसरा
मुफ्त
में
बेगार
करने
वाला
नहीं
मिलेगा।
सो,
उन्होंने
कहा-
“देहगवाँ
कॉलेज
में
प्रेमपाल
सिंह
गुप्ता
प्रिंसिपल
हैं,
वहाँ
जाओ
या
जुनावई
भैया
के
पास
जाओ।"
उनके
लिए
उन्होंने
एक
पत्र
लिखा।
जगदीश
जी
वहाँ
पी.टी.आई.
थे
और
प्रेमपाल
सिंह
के
चचेरे
भाई
थे।
परिचित
तो
मुझ
से
भी
थे,
पर
वे
मुझे
बाल-मज़दूर
के
रूप
में
ही
देखते
थे।
वे
गाँव
के
उन
आर्य
समाजी
शिक्षकों
में
नहीं
थे
जो
कम-से-कम
अस्पृश्यता
को
बुरा
मानते
थे।
प्रेमपाल
सिंह
के
पास
जाने
से
पहले
उनके
यहाँ
भी
मैं
कई
बार
रहट-दाँय
हाँकने,
जुताई,
कटाई,
निराई
जैसे
कृषि
संबंधित
कई
तरह
के
काम
कर
चुका
था।
इसलिए
उनकी
नज़र
में
मैं
एक
बाल-मज़दूर
ही
था,
छात्र
नहीं।
मैं
विद्यालय
पहुँचा
और
जाते
ही
पत्र
जगदीश
यादव
को
दिखा
कर
कहा,
“मास्साब, मैं ग्यारहवीं
में
दाखिला
लेना
चाहता
हूँ।
कृपया
आप
मुझे
प्रिंसिपल
साब
के
पास
ले
चलें।"
उन्होंने
पत्र
पढ़ा
और
बोले
- "जब मेरे
पिता
जी
फसल
कटवाने
के
लिए
तुझे
बुलाने
जाते
हैं
तो
तू
मना
कर
देता
है
और
प्रेमपाल
की
मुफ्त
बेगार
करता
है,
तो
उसी
के
पास
जा
मैं
तेरी
मदद
क्यों
करूँ?
तू
गाँव
में
रह
कर
मजूरी
कर।
वैसे
भी
तू
पढ़
कर
क्या
करेगा?
जब
बिन
पढ़ाई
किये
तेरी
पूरी
बिरादरी
के
बच्चे
चैन
से
रह
रहे
हैं,
तो
तू
क्यों
तड़पड़ाता
है
पढ़ने
को,
तुझसे
शांत
क्यों
नहीं
रहा
जाता?
वैसे
भी
तू
तो
विद्यार्थी
से
अधिक
मज़दूर
ही
लगता
है।”
“गुरु जी, ऐसा
न
कहें।
मजदूरी
करता
हूँ
तो
मजदूर
लगता
हूँ,
पढ़ने
का
मौका
देंगे
तो
पढ़ने
वाला
लगने
लगूँगा।”
“बेगार मजदूरी करते-करते
दस
पास
हो
गया,
तेरे
लिए
इतना
क्या
कम
है?
जा,
गाँव
जा
और
कोई
काम-धन्धा
देख।
पढ़
भी
गया
तो
कहीं
कोई
मास्टर
नहीं
बन
जायेगा।
अपनी
हदें
और
हालात
देख
।
औकात
में
रह
ज़मीन
पर
रेंगना
सीख,
ज़्यादा
पंख
मत
पसार।"
मैं
निराश
होकर
लौट
रहा
था।
विद्यालय
की
परिधि
के
बाहर
मेरे
कदम
बहुत
धीमे-धीमे
गाँव
की
ओर
उठ
रहे
थे,
तभी
मेरे
गाँव
के
छात्र
ओमवीर
यादव
ने
मुझे
आवाज़
दी
- “श्यौराज रुक-रुक
यहाँ
सभी
अध्यापक
प्रिंसिपल
तुझे
जानते
हैं।"
"मुझे
कैसे
जानते
हैं?
मैं
तो
यहाँ
कभी
पढ़ा
नहीं।"
तो
उसने
बताया,
“यहाँ हर क्लास
में
नदरोली
के
छात्र
हैं।
वे
अध्यापकों
को
बताते
हैं
कि
तू
कविताएँ
लिखता
है
और
मज़दूरी
करता
है।
इसलिए
तू
खुद
प्रिंसिपल
साब
से
जाकर
मिल।
उन्हें
बता
कि
तू
दाखिला
लेना
चाहता
है।"
मैंने
उसकी
राय
मानी
और
प्रिंसिपल
रामनिवास
शर्मा
'अधीर' की ओर
लौटा।
वे
उस
वक़्त
बारहवीं
क्लास
में
संस्कृत
पढ़ा
रहे
थे।
वे
आशु
कवि
थे।
मैं
क्लास
के
बाहर
जाकर
खड़ा
हो
गया।
ओमवीर
ने
उन्हें
बताया-
"गुरु जी, नदरोली
वाला
श्यौराज
आया
है।"
"कहाँ है?"
"बाहर खड़ा है।"
उन्होंने
क्लास
के
बीच
ही
मुझे
बुलाया
और
आने
की
वजह
पूछी।
मैंने
अपनी
मंशा
जाहिर
की
तो
उन्होंने
कहा-
“मैं
तुम्हारे
बारे
में
सुन
चुका
हूँ।
तुम
जैसे
बच्चों
को
भी
पढ़ने
के
अवसर
मिलने
चाहिए,
परन्तु
अब
तो
दाख़िला-प्रक्रिया
बन्द
हो
चुकी
है
और
ग्यारहवीं
में
तो
62 बच्चे हो चुके
हैं।
अब
एक
भी
सीट
बढ़ायी
नहीं
जा
सकती।
मुझे
खेद
है
कि
हम
तुम्हें
प्रवेश
नहीं
दे
पायेंगे।
हाँ,
तुम
प्राइवेट
पढ़ो
और
परीक्षा
देने
हमारे
विद्यालय
में
आ
जाना।
अगर
किसी
से
गारंटी
दिला
सको
तो
हम
पुस्तकालय
से
किताबें
भी
तुम्हें
दिलवा
देंगे।”
मुझे
फिर
एक
झटका
लगा,
मैं
दोहरी
हताशा
के
साथ
लौटने
लगा।
अभी
खेल
का
मैदान
पार
भी
नहीं
कर
पाया
था
कि
तभी
एक
और
छात्र
मेरा
पीछा
करता
आया
“श्यौराज ! श्यौराज
! तुम्हें प्रिंसिपल
साब
बुला
रहे
हैं।”
'बुला रहे हैं,
क्यों
बुला
रहे
हैं?'
आशा-निराशा
भरे
अन्तर्द्वन्द्व
के
साथ
मैं
प्रिंसिपल
साब
के
कक्ष
में
दाख़िल
हुआ
और
अभिवादन
कर
पूछा
“जी गुरु जी,
आपने
मुझे
बुलाया?”
“हाँ श्यौराज,
बुलाया,
इसलिए
कि
मैंने
तुम्हारे
दाख़िले
के
बारे
में
सोचा
है।"
सुनते
ही
मेरी
आँखों
में
चमक,
मन
में
उम्मीद
और
होठों
पर
हल्की-सी
मुस्कुराहट
तैर
उठी।
मैंने
बड़ी
उत्सुकता
से
पूछा,
“क्या सोचा है
गुरु
जी
आपने?"
“देखो
श्यौराज,
तुम
विद्या
के
सचमुच
प्यासे
हो
पर
यह
विद्यालय
रूपी
कुआँ
किसी
प्यासे
के
घर
नहीं
जाता,
प्यासे
को
खुद
यहाँ
चलकर
आना
होता
है।”
“तो गुरु जी
मैं
आ
गया
क्या
कुएँ
में
अब
पानी
नहीं
रहा,
सूख
गया
है?"
“नहीं,
ऐसा
नहीं
है।
असल
में
वक़्त
आगे
बढ़
गया
है
और
तुम
पीछे
छूट
गये
हो।
फिर
भी
दो
दिन
बाद
'स्वतन्त्रता दिवस'
का
कार्यक्रम
है।
उस
में
छात्रों
को
अपनी-अपनी
प्रतिभा-प्रदर्शन
के
अवसर
दिये
जाते
हैं।
वाद-विवाद
प्रतियोगिताएँ
आयोजित
होती
हैं
और
छात्र
गीत,
कविताएँ,
प्रहसन
आदि
प्रस्तुत
करते
हैं।
हम
तुम्हें
अस्थायी
छात्र
स्वीकार
कर
प्रतियोगिता
में
भाग
लेने
की
अनुमति
देंगे।
अगर
तुम
जीतोगे
तो
तुम्हें
न
केवल
दाखिला
मिलेगा,
बल्कि
तुम
'छात्र-सभा' के
अध्यक्ष
भी
चुन
लिये
जाओगे
और
अगर
हार
गये
तो
बाहर
का
रास्ता
तो
तुम्हारे
लिए
खुला
ही
है।
बिना
किसी
शिकवे-शिकायत
के
किस्मत
जहाँ
ले
जाये,
चले
जाना।"
यही
एक
चुनौतीपूर्ण
शर्त
अब
तुम्हारे
लिए
अन्तिम
विकल्प
है
स्वीकार
हो
तो
किस्मत
आज़मा
कर
देख
लेना।
मैं
शर्त
की
बेचैनी
लेकर
अपने
घर
लौटा।
अनौखिया
यादव
जब
मेरी
हिमायत
करती
थीं
तो
मेरी
माँ
बन
जाया
करती
थी।
जब
वे
डाँटती
थीं,
तब
जगदीश
हों
या
प्रेमपाल
सभी
की
बोलती
बन्द
हो
जाती
थी।
हालाँकि
वे
मेरी
पढ़ाई
के
पक्ष
में
केवल
बोल
रही
थीं
कि
वे
भी
दाख़िले
की
शर्त
पर
ही
मुझसे
मुफ्त
सेवा
ले
सकें।
बीते
चार-पाँच
साल
वे
मेरे
द्वारा
की
गयी
सेवाओं
का
स्वाद
चख
चुकी
थीं।
दाख़िले
के
मामले
में
असहयोग
और
हतोत्साहन
के
बारे
में
जानकर
वे
उनसे
सख्त
लहजे
में
बोलीं-
“जगदीश, तुमने जो
अच्छो
नांइ
करों।"
मैं
अपने
पुश्तैनी
घर
लौटा,
प्रतियोगिता
में
भाग
लूँ
या
न
लूँ,
प्रवेश
का
प्रयास
करूँ
या
पढ़ाई
करने
का
इरादा
छोड़
दूँ?
इन
सवालों
से
जूझता
मेरा
मन
बेचैन
था
और
अस्तित्व
दाँव
पर
था।
मेरा
अन्तर्द्वन्द्व
कोई
बाँटने-
जानने
वाला
नहीं
था।
न
माता,
न
पिता,
न
भाई
और
न
बहन
।
हाँ,
नेत्रहीन
गंगी
बब्बा
(पिता के चाचा)
जरूर
मेरी
स्थिति
को
भाँप
रहे
थे,
उन्होंने
मुझे
पास
बिठा
कर
मेरा
मन
टटोला
था-
"का बात है
बेटा...
कछु
परेशान
है?
दाखिला
लेन
कूँ
गओ,
सो
का
भओ?
मिलो
कै
नांय?
का
काऊ
नें
उल्टी-सीधी
कह
दइ?"
"नांय
बब्बा
ऐसी
कोई
बात
नांय
है।"
"तो
और
कैसी
बात
है
बेटा
?"
“नांय
मिलो
दाखिला
।"
"चौं
नांय
मिलो?"
बब्बा
ने
मूँछों
में
फंसे
मट्ठे
को
पोंछते
हुए
पूछा
था।
"देर
हो
गयी।"
"कैसी
देर?
का
स्कूल,
मास्टर,
किताबें
खत्म
है
गयीं
जो अब
दाखिला
नांय
मिल
सकतु?"
"उम्मीद
कम
है
बब्बा
।"
“तू
जगदीश
मास्टर
तें
मिलो?"
“हाँ,
कॉलेज
में
उनसे
मिलो
।"
“तो
का
कही
उन
ने?"
"मनें
करि
दई
।”
“चों,
मनैं
चों
करि
दई?"
"मैंने
उनकी
बेगार
जो
नांय
करी
है
भौत
दिनन
तें।"
“अरे,
तो
तू
मेरी
लठिया
पकरि
कैं
जगदीश
के
बाप
के
ढिंग
लै
चल।
कितनी
सालन
तें
हम
इन
ऐैरनु
(यादवों) की गुलमई
करि
रये
हैं,
जब
तें
आँखें
फूटी
हूँ
इनकी
बहुइनु
की
चाकी
पीस
रओ
हूँ।
अब
जे
मास्टर
है
गये,
गोदनु
में
खिलाये
हैं,
अब
जे
कटी
उँगरिया
पै
हू
नांय
मूतँगे।
इतने
मतलबी
है
जाँगे
ऐैर?"
“ऐरनु-गैरनु
के
हाथ
में
हूँ
नांय
है
बब्बा।"
"तो
किन
के
हाथनु
में
है?"
“मालिकनु
के
हाथ
में
है।"
“तो
स्कूल
के
मालिक
कौन
होत
हैं
लल्ला?"
“वहाँ
प्रिंसिपल
की
चलती
है,
मैं
उनसे
मिलके
आओ
हूँ।"
"कौन
बिरादरी
के
हैं
पैंसीपल
साब?"
"ब्राह्मण
हैं,
बब्बा।”
“बामन?”
"हाँ...
बब्बा
वे
ब्राह्मण
हैं।"
“तो
छोड़ि
बेटा।
जब
ऐैरनु
ने
नांय
सुनी
तो
तेरी
बामन
का
सुनंगे?"
ब्राह्मणों
के
प्रति
अजीब
पूर्वाग्रह
थे
उन
के,
जबकि
शोषण
उत्पीड़न
करने
की
बात
तो
छोड़िए
इस
गाँव
में
कोई
ब्राह्मण
था
ही
नहीं।
मात्र
एक
परिवार
था
ब्राह्मणों
का,
सो
वह
यादवों
ने
भगा
दिया
था।
यह
पूरा
इलाका
यादव
बाहुल्य
था।
अध्यापक,
आर्य
समाजी,
शिक्षित
यादव
भले
इन्सान
थे
।
परन्तु
बड़ी
संख्या
में
अपढ़-उजड्ड
और
दलितों,
ब्राह्मणों,
मुसलमानों
तथा
बनियों
को
परेशान
करने
वाले
दबंग
थे।
सुभद्रा
कुमारी
चौहान
की
बुन्देले
हर
बोलों
की
कपोल
कहानी
पर
आधरित
कविता
'झांसी की रानी'
स्कूल
के
कोर्स
में
लगी
थी
सो...
सो
कण्ठस्थ
करली
थी।
रानी
द्वारा
किले
से
पलायन
करने
के
बाद
रानी
के
वेश
में
ब्रिटिश
फौज
से
लौहा
लेते-लेते
शहीद
हुई
झलकारी
बाई
'कोरी' का नाम
तक
नहीं
सुना
था।
क्या
चौहान
को
भी
पता
नहीं
था।
जबकि
किला
के
शिलालेख
पर
कोरी
की
कहानी
आज
भी
अंकित
है।
“पढ़ाइवौ-लिखाइवौ
इनयी
के
हाथनु
में
है।"
“तौ
तू
पढ़न
को
मन
मति
करै।
या
तू
एक
काम
करि,
मेरी
लठिया
पकरि
कें
पैन्सीपल
साब
के
घर
लै
चलि
।
मैं
उनके
पाइं
पकरि
कें
तेरे
दाखिला
की
भीख
मांगंगो।"
"क्या कहोगे?"
"कहँगो
महाराज,
हम
अछूत
चमारनु
के
बालक
कूँ
हूँ
दुए
आखर
पढ़ाइ
देउ।
हम
तो
सब
तरह
से
अन्धे
हैं।
शरीर
तेंऊ
और
विद्या
तेंऊ...
जा
बालक
कूँ
ग्यान-ध्यान
को
थोड़ो
उजीतो
दिखाइ
देउ।
जातें
जाकी
जिन्दगी
तो
नर्क
तें
लिकरि
जाये।"
“तुम्हारी
ज़रूरत
नांय
है
बब्बा।"
“तो
किन
की
ज़रूरत
है,
पिरधान
के
घर
चलूं?"
“प्रधान
की
हू
ज़रूरत
नांय
है।"
"तो
और
किन
की
ज़रूरत
है?"
"मेरी
जीत
की
ज़रूरत
है!"
"कैसी जीत?"
"बोलन
की
शर्त
लगायी
है
प्रिंसिपल
साब
ने
।"
मैंने समझाया
तो
वे
कहने
लगे
–
“तो
काए
की
चिन्ता
है
बेटा
? बुलबइया (वक्ता) तो
तू
है
ही,
जा
और
बोलि।
इतने
ज़ोर
तें
बोलि
कै
सब
तेरी
बड़ाई
करें।
अच्छो
है
बेटा
कोई
धन-दौलत
की
शरत
नांय
है।
अपने
बंगाली
बाबा
की
जलेबी
(प्रसाद) और सैयद
बाबा
के
पेड़ा
बोल
देउ,
बेलोन
वारी
की
जात
बोल
दे,
तू
जीतेगो
जरूर।"
मेरे
जहन
में
प्रिंसिपल
शर्मा
की
शर्त
रह-रह
कर
कौंधे
जा
रही
थी।
जीत
मेरे
लिए
नई
जिन्दगी
और
हार
मौत
की
ओर
लौट
जाने
जैसा
था।
मेरे
लिए
विद्यालय
की
ओर
जाने
वाले
सारे
रास्ते
बन्द
थे।
केवल
एक
शर्त
की
शक्ल
में
जीत
ही
एक
मात्र
विकल्प
बचा
था।
जीत
जीवन
और
हार
सपने,
सम्भावनाएँ।
बतौर
छात्र
यह
मेरे
जीवन-मौत
की
शर्त
थी।
इस
हकूके
जंग
में
मेरी
जानिब
से
कोई
और
नहीं
लड़
सकता
था।
कोई
उत्कोच
अथवा
कोई
सिफारिश
चल
नहीं
सकती
थी।
धन
दौलत
की
सत्ता,
जाति
की
उच्चता
जो
मेरे
पास
थी
भी
नहीं।
पढ़ने-बढ़ने
का
फैसला
भी
तो
मेरा
ही
है।
तैयारी
के
लिए
सामग्री
चाहिए,
सूचनाएँ
चाहिए।
आज़ादी
के
दिन
पर
बोलना
है,
तो
आज़ादी
के
संघर्ष
के
इतिहास
के
बारे
में
भी
तो
कुछ
बोलना
चाहिए।
मैं
कवि
तो
बीच-बीच
में
कुछ
स्वरचित
कविताओं
की
बानगी
भी
होनी
चाहिए,
इत्यादि
।
मैंने अपने
भाषण
की
तैयारी
की।
विशेष
कर
रूसी
साहित्य
जो
निःशुल्क
ही
मेरे
घर
आया
करता
था,
की
मदद
ली।
उसमें
से
मैंने
सूचनाएँ
संकलित
कीं।
रूस
की
बोल्शेविक
क्रान्ति,
अमेरिका
में
मार्टिन
लूथर
किंग
और
लिंकन
का
दास
प्रथा
के
विरुद्ध
किया
संघर्ष
अगास्तीनो
नेटो
(अंगोला के कवि,
राष्ट्रपति)
के
बारे
में,
शहीद
भगतसिंह
का
अछूत
विषयक
लेख
और
राष्ट्रीय
नेताओं
का
ज़िक्र
अपने
भाषण
में
मैंने
शामिल
किया।
डॉ.
अम्बेडकर
के
बारे
में
गहतोली
(अलीगढ़) में संघप्रिय
गौतम
का
भाषण
सुना
था,
परन्तु
चाह
कर
भी
मैंने
उनका
ज़िक्र
नहीं
किया
था।
क्योंकि
गैर
दलित
अध्यापक
न
तो
अम्बेडकर
का
जिक्र
करते
थे,
न
ज़िक्र
करने
वाले
को
पसन्द
करते
थे
और
न
उन्हें
कोर्स
में
रखते
थे।
सो
उनकी
कोई
बात
नहीं
की।
उन
दिनों
मैं
उर्दू
के
शायरों
में
फ़ैज़
अहमद
'फैज़', अली सरदार
जाफरी,
साहिर
लुधियानवी,
कैफ़ी
आज़मी
और
हिन्दी
में
हरिवंश
राय
'बच्चन' जी को
खूब
पढ़ता
था।
बाक़ी
नेताओं
में
गाँधी
जी,
नेहरू
जी
आदि
के
बारे
में
पाठ्य-पुस्तकों
में
प्रचुर
मात्रा
में
सामग्री
उपलब्ध
थी।
पन्द्रह
अगस्त
उन्नीस
सौ
उनासी
का
वह
दिन
अर्थात्
मेरी
अग्नि
परीक्षा
की
घड़ी
आ
गयी
थी।
मैंने
अपने
लिखे
हुए
भाषण
को
हैडिंग्स
में
बाँट
कर
कण्ठस्थ
किया
था।
सात
मिनट
के
लिए
मैंने
दस
मिनट
की
तैयारी
की।
अन्धे
और
निरक्षर
बब्बा
के
सामने
बोल-बोल
कर
खूब
अभ्यास
किया।
वे
कान
लगा
कर
सुनते
और
बीच-बीच
में
बोलते
- "वाह! बेटा
वाह!
तू
अब
शरत
नांय
हारैगो
।”
उन्होंने
क्या
समझा,
क्या
नहीं
समझा,
वे
जानें
पर
'तू जीतेगो' ऐसी
आशा
व्यक्त
की
और
मेरी
पीठ
ठोंक
दी।
उतने
से
ही
लगा
था
कि
कोई
मेरा
अपना
है
जो
मेरे
साथ
खड़ा
है।
सुबह
जल्दी
उठा
और
नहा-धो
कर
रोटी
बनायी,
खाई,
बब्बा
को
खिलाई
और
विद्यालय
की
ओर
भाग
छूटा।
विद्यालय
करीब
छह-सात
किलोमीटर
की
दूरी
पर
था।
विद्यालय
में
सफ़ाई
थी।
प्रांगण
सजा
हुआ
था।
बड़ी
दिलचस्पी
के
साथ
15 अगस्त का कार्यक्रम
आयोजित
किया
जा
रहा
था।
मैं
गणवेश
(स्कूली पोशाक) में
नहीं
था
और
यहाँ
एकदम
नया
था।
मैं
प्रिंसिपल
रामनिवास
शर्मा
'अधीर' के पास
गया।
उन्होंने
वरिष्ठ
कक्षाओं
के
छात्रों
के
बीच
मुझे
बैठने
को
कहा।
उस
वक़्त
कॉलेज
में
छात्रों,
शिक्षकों
और
कुछ
अभिभावकों
के
अलावा
कॉलेज
के
प्रबन्ध
तन्त्र
से
जुड़े
कुछ
अन्य
प्रतिष्ठित
शख्सीयतें
और
शिक्षा
विभाग
की
ओर
से
आये
सरकारी
अधिकारी
भी
विराजमान
थे।
राष्ट्रगान
के
बाद
बच्चों
के
गीत,
कविताएँ,
नाटक
और
भाषणों
का
दौर
करीब
डेढ़
घण्टे
में
पूरा
हो
गया।
सीनियर
कक्षाओं
के
छात्रों
को
केवल
भाषण
देने
थे
या
काव्य
पाठ
करने
थे।
प्रतियोगिता
आरम्भ
हुई।
बारहवीं
कक्षा
के
छात्र
और
छात्र-सभा
के
तत्कालीन
अध्यक्ष
अलीजान
के
बाद
मेरा
नाम
पुकारा
गया।
मैं
उठकर
मंच
की
ओर
गया
और
नियत
स्थान
पर
जाकर
खड़ा
हो
गया।
उद्घोषक
का
संकेत
मिलते
ही
मैंने
अपना
भाषण
'परम् आदरणीय प्रधानाचार्य
जी,
समादरणीय
उप-प्रधानाचार्य
जी,
उपस्थित
महानुभाव
तथा
विद्यार्थी
भाई-बहनो'
के
सम्बोधन
के
साथ
शुरू
किया।
उस
समय
सदन
में
एकदम
शान्ति
थी।
भाषण
के
बीच-बीच
में
उर्दू
शायरों
के
कुछ
मौके
के
शेर
और
कुछ
विश्व
विभूतियों
के
कथनों
को
मैंने
कण्ठस्थ
कर
रखा
था।
'युवक', 'सोवियत दर्पण',
'युवावेदी', 'सुकवि
विनोद'
इत्यादि
पत्र-पत्रिकाओं
की
सहायता
से
मैंने
सूचनाप्रद
भाषण
तैयार
किया
था।
यह
ग्रामीण
क्षेत्र
के
छात्रों
और
शिक्षकों
के
लिए
तो
नितान्त
नया
था।
तालियों
की
गड़गड़ाहट
के
साथ
मेरा
भाषण
समाप्त
हुआ।
मैं
छात्रों
के
बीच
जाकर
बैठ
गया।
मैंने
देखा,
सय्यद
इमाम
इतखार
साहब
और
प्रेम
गुप्ता
निर्णायक
मण्डल
में
से
उठ
कर
प्रिंसिपल
के
पास
गये
और
उन्हें
परिणाम
पकड़ा
कर
वापस
अपनी
जगह
आकर
बैठ
गये।
कार्यक्रम
का
समापन
करते
हुए
प्राचार्य
शर्मा
'अधीर' ने छात्रों
के
प्रतिभा
प्रदर्शन
के
लिए
उनका
उत्साहवर्धन
किया।
बाहर
से
आये
अतिथियों
के
हाथों
कुछ
इनाम
और
कुछ
प्रमाण-पत्र
वितरित
किये
गये।
अन्त
में
उन्होंने
ऐलान
किया,
"अभी-अभी हुई
वाद-विवाद
प्रतियोगिता
का
परिणाम
भी
आ
चुका
है,
इसमें
श्यौराज
सिंह
ने
चौंसठ
और
अलीजान
ने
चौवन
अंक
प्राप्त
किये
हैं।
मैं
प्रबन्धक
जी
की
अनुमति
से
घोषणा
करना
चाहूँगा
कि
श्यौराज
सिंह
ने
प्रतियोगिता
जीतने
के
साथ-साथ
प्रवेश
पाने
की
शर्त
भी
जीत
ली
है।
अतः
विद्यालय
अपने
दिये
गये
वचन
का
पालन
करते
हुए
इन्हें
एक
सीट
की
व्यवस्था
कर
आज
से
ही
कक्षा
ग्यारह
में
दाखिला
दे
रहा
है।
इसी
के
साथ
नियमानुसार
ये
'छात्र-सभा' के
अध्यक्ष
भी
बनाये
जा
रहे
हैं।
परम्परा
के
अनुसार
पूर्व
अध्यक्ष
अलीजान
पुष्प-हार
भेंट
कर
इन
का
स्वागत
करेंगे
और
इसी
शुक्रवार
से
श्यौराज
सिंह
अपनी
बाल-सभा
के
उपाध्यक्ष,
महासचिव
आदि
टीम
का
गठन
कर
लेंगे।
इनके
भविष्य
के
लिए
मंगल
कामनाएँ।"
इस
प्रकार
मेरे
लिए
स्कूल
का
प्रवेश-द्वार
तो
खुल
गया।
लेकिन
अगले
ही
दिन
से
मेरी
दाल-रोटी
का
संकट
और
बढ़
गया।
अनौखिया-प्रेमपाल
तो
तभी
खाना
देंगे
जब
उनके
खेत,
घर
और
पशुओं
का
काम
करूँ
।
लेकिन
फिर
मेरी
पढ़ाई?
खेतों
पर
जाऊँ
तो
विद्यालय
कैसे
जाऊँ?
विद्यालय
जाऊँ
तो
रोटी-कपड़े
कहाँ
से
लाऊँ?
इन्तज़ाम
करूँ
तो
पढ़ने
कब
जाऊँ?
वे
जानते
थे
कि
भूखा
होगा
तो
काम
पर
लौटेगा
ही।
उन्हें
ज़्यादा-से-ज़्यादा
समय
काम
चाहिए
था
और
मुझे
शारीरिक
श्रम
से
बचाकर
पढ़ाई
के
लिए
समय-शक्ति।
अस्तित्व
को
बचाने
वाला
कोई
तीसरा
रास्ता
नहीं
था।
पेट
के
भोजन
के
लिए
श्रम
और
विद्यार्जन
के
लिए
पढ़ाई
इन
दोनों
को
साधने
के
लिए
मैं
पुरज़ोर
संघर्ष
कर
रहा
था।
यदि
मुझे
पढ़ाई
से
तत्काल
वंचित
रहना
पड़ता?
अगर
मैं
जीत
नहीं
पाता
तो
क्या
करता?
राजगीरी
से
जो
थोड़े-बहुत
पैसे
बचे
थे,
उनसे
मैंने
कुछ
अन्न
का
प्रबन्ध
किया
था।
खुद
ही
हाथ-चक्की
से
गेहूँ
पीसकर
और
रोटी
बनाकर
पढ़ने
जाने
लगा
था।
पर
वह
जल्दी
समाप्त
हो
गया।
"काम कर जाया
करो
तो
रोटी
हमारे
घर
खा
जाया
करो"
अनौखिया
यादव
का
अपना
सीधा
आदान-प्रदान
का
सिद्धान्त
था।
मैंने
उनके
उस
फैसले
को
पूरी
तरह
नहीं
माना
था
कि
मैं
उनके
द्वारा
सुझाई
गयी
एक
गरीब
यादव
की
बेटी
से
शादी
करूँ,
अपनी
बिरादरी
में
लौटकर
ही
न
जाऊँ।
प्रेमपाल
की
आटा
चक्की
चलाऊँ
और
खेतों
पर
काम
करते-करते
उन्हीं
के
घर
का
हो
कर
रह
जाऊँ।
माँ-बहन,
ताऊ-ताई
और
मेरी
जाति-बिरादरी
के
लोग
मेरी
पढ़ाई
के
प्रति
आश्वस्त्
नहीं
थे।
कुछ
ईर्ष्यावश
और
कुछ
अज्ञानतावश
पढ़ाई
के
प्रति
मेरे
समर्पण
को
मेरा
पागलपन
मान
रहे
थे,
वे
मेरे
प्रति
या
तो
उदासीन
थे
या
असहयोग
की
भूमिका
में
थे।
कई
लोग
मेरा
उपहास
उड़ा
रहे
थे
कोई
मूर्ख
कह
रहा
था,
तो
कोई
पढ़ाई
का
दीवाना।
हमउम्र
तो
मेरी
पढ़ाई
को
मेरी
लैला
और
मुझे
उसका
मंजनू
कह
रहे
थे।
'देखो देखो अब
यह
मेहनत
मजूरी
करेगा
या
किताबें
पढ़ेगा?'
पर
मैं
था
कि
मुझे
हर
उपहास
तस्लीम
था।
मैं
शिक्षा
रूपी
लैला
किसी
भी
तरह
प्राप्त
कर
लेना
चाहता
था।
रूखी-सूखी
खाकर
या
भूखे
पेट
भी
विद्यालय
जाने
को
विवश
था।
पास
होने-न-होने
का
द्वन्द्व
और
पेट
भरने
के
लिए
रोटी-दाल
की
दोहरी-तिहरी
चिन्ताओं
के
साथ
मैं
विद्यार्थी
जीवन
के
सफर
पर
चल
पड़ा
था।
बेहतर
जिजीविषा
की
जद्दोजहद
किसी
तरह
मुफ्त
की
बेगार
और
बन्धुआ
मज़दूरी
से
पीछा
छूटे,
इतनी
ही
महत्त्वाकांक्षा
थी
बस्स।
किसी
तरह
पढ़
कर
बड़ा
आदमी
बनने,
महान
लेखक
कहलाने
या
किसी
ऊँचे
पद
पर
पहुँच
जाने
की
मेरी
किंचित
भी
कल्पना
नहीं
थी।
मैं
केवल
गाँव
की
गरीबी,
गुलामी
और
शोषण
से
निजात
पाना
चाहता
था।
कुछ
दिन
बाद
स्कूल-ड्रेस
कम्पलसरी
हो
गयी
थी,
अतएव
मुझे
खाक़ी
पैंट-शर्ट
का
इन्तज़ाम
करना
था।
नयी
ड्रेस
ख़रीदने
के
लिए
मेरे
पास
पैसे
नहीं
थे
और
विद्यालय
के
पी.टी.आई.
जगदीश
यादव
की
चेतावनी
से
मेरा
मन
भयाक्रान्त
था।
“श्यौराज कान खोल
के
सुन
ले,
मैं
नहीं
जानता
तू
यहाँ
'बाल सभा का
अध्यक्ष'
है
या
गाँव
में
प्रेमपाल
का
मुफ्त
का
गुलाम
है।
मैं
पी.टी.आई.
हूँ।
कल
से
विद्यालय
के
गेट
पर
ड्रेस
में
मैं
सबसे
पहले
तुझे
ही
देखूँगा,
ड्रेस
में
होगा
तब
ही
प्रवेश
दूँगा।
वरन्
बेंत
मार-मार
कर
तेरी
टाँगें
ऐसी
तोडूंगा
कि
वापस
घर
भी
नहीं
लौट
पायेगा
समझा!
प्रिंसिपल
शर्मा
को
खुश
कर
लिया
है
तो
यह
मत
समझना
कि
मैं
भी
तेरी
जात-औकात
भूल
जाऊँगा।"
ड्रेस
ख़रीदने
के
लिए
मेरी
जेब
में
फूटी
कौड़ी
भी
नहीं
थी।
उस
शाम
मैंने
रोटी
नहीं
सेंकी
थी।
बब्बा
गाँव
के
यादवों
में
काम
के
बदले
अपना
पेट
भर
आये
थे।
पर
वे
महसूस
कर
रहे
थे
कि
श्यौराज
खामोश
है,
तो
ज़रूर
कोई
बात
है।
घर
में
चूल्हा
गर्म
नहीं
हो
रहा
है।
पूछ
बैठे-
“लल्ला, का बात
है?
आज
तैने
रोटी
नांय
सेंकी,
भूखो
सोबैगो
का?
सवेरे
पढ़न
नांइ
जाइगो
का?"
“मेरी
पढ़ाई
जो
होनी
थी
सो
है
गयी,
मोइ
स्कूल
में
कौन
पढ़न
देगो
बब्बा?”
यह
निराशा
भाव
सुनकर
उन्होंने
आवाज़
के
अन्दाज़
से
मेरा
हाथ
टटोल
कर
पकड़ा
और
मेरा
सिर
अपनी
छाती
से
सटाकर
रोते-सुबकते
कहने
लगे
–
“जो
ज़िन्दगी
हम
जी
रहे
हैं
बेटा,
मरिनु
तें
हू
बुरी
है।
जो
ज़िंदगी
नांय
है,
जेल
है।
तू
पढ़ि
अपने
पंख
पैदा
कर
और
आज़ाद
हवा
में
कहूँ
दूर
उड़ि
जा।
भगवान
पहले
जनम
के
करम
की
सज़ा
देतु
है,
तो
गरीब
और
अछूत-चमार
बनाबतु
है।
का
तू
हम
तें
अच्छो
जीनो
नांय
चाहतु?"
"चाहतू, तभी तो
कोशिश
कर
रओ
हूँ
बब्बा।
पर
अब
मेरे
वश
की
बात
नांय
है।
मैं
मजूरी
और
पढ़ाई
एक
संग
नांइ
करि
सकतु।”
“का भओ, काऊ
ने
मारो-पीटो
का?”
“जगदीश मास्टर ने
कह
दिया
है,
“ड्रेस में स्कूल
नांय
आओ
तो
टाँगें
तोड़
दूंगा।”
“का कोई ग़लती
करी
है
तैने?”
“कोई ग़लती नांय
करी,
मो
पै
स्कूल
जान
के
लत्ता-कपड़ा
नांय
हैं?”
“तो का तू
नंगो
पढ़न
जातु
है?"
"नांय, पर स्कूल
के
कपड़े
अलग
होत
हैं।"
बब्बा ने जैसे कभी रेल नहीं देखी थी, बस में नहीं चढ़े थे। वैसे ही कभी स्कूल भी नहीं देखा था। स्कूल ड्रेस में कभी कोई छात्र भी नहीं देखा था। सो, उन्हें स्कूल ड्रेस का आभास भी नहीं था। मैं ड्रेस का इन्तज़ाम नहीं कर सका था, इसलिए अगले दिन पढ़ने जाने का इरादा ही छोड़ दिया था। ड्रेस ख़रीदने के लिए पैसों का इन्तज़ाम भी नहीं कर सका। प्रेमपाल जी से बात की तो उन्होंने कहा, "बरसात के दिन हैं, मेरे खेत जोतो, धान लगाओ। प्राइवेट फार्म भरवा देंगे, स्कूल जाने का झंझट ही ख़त्म करो।"
वरिष्ठ प्रोफेसर, पूर्व विभागाध्यक्ष, हिन्दी विभाग, दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली
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