- डॉ. मोहम्मद कामरान खान
शोध सार : मानव समुदाय सहयोग के बिना कभी प्रगति नहीं कर सकता थाl मनुष्य आपसी सहयोग के लिए कई तरह की संस्थाओ का निर्माण करता है। राज्य भी उनमे से एक है। राष्ट्र की अवधारणा राज्य की अवधारणा पर परजीवी के रूप में आश्रित है। राष्ट्रवाद एक भावनात्मक गहनता है जो व्यक्ति अपने राज्य के प्रति अनुभव करता है। राष्ट्र और राष्ट्रवाद का जन्म इतिहास के विशिष्ट चरण में हुआ है। इसकी उत्पत्ति के पीछे विभिन्न विद्वान् विभिन्न कारण मानते है। विचारक बेनिडिक्ट एंडरसन ने 1983 में इमेजिंड कम्युनिटी रिफ्लेक्शन ऑन द ओरिजन एंड स्प्रेड ऑफ़ नेशनलिज़्म में राष्ट्र और राष्ट्रवाद की अलग अवधारणा प्रस्तुत की है। अपनी पुस्तक की शुरुआत में एंडरसन राष्ट्र और राष्ट्रवाद के अध्ययन में आने वाली कठिनाइयों का उल्लेख करते है साथ मार्क्सवादी, उदारवादी और रूढ़िवादी विचारधाराओं पर राष्ट्रवाद की अनदेखी का आरोप लगाते है। एंडरसन राष्ट्र को एक कल्पित समुदाय मानते है जिसका वास्तविक अस्तित्व नहीं है। वास्तविक अस्तित्व ना होने के बावजूद यह मिथ्या नहीं है साथ ही प्रिंट पूँजीवाद को राष्ट्रवाद की जननी के रूप में स्वीकार करते है। एंडरसन मानते है की राष्ट्रवाद से पूर्व दो सांस्कृतिक प्रणालियाँ अस्तित्व में थी धार्मिक समुदाय और वंशवादी क्षेत्र। राष्ट्र के कल्पित समुदाय ने पूर्व में विद्यमान सांस्कृतिक प्रणालियो को विस्थापित किया। एंडरसन ने अपनी पुस्तक के माध्यम से राष्ट्र और राष्ट्रवाद का सार्वभौमिक इतिहास लिखने का प्रयास किया है।
बीज शब्द : कल्पित समुदाय, राष्ट्रवाद, मार्क्सवाद, सांस्कृतिक कलाकृतियां, धार्मिक समुदाय, वंशवादी क्षेत्र, समांगी खाली समय, प्रिंट पूँजीवाद, क्रियोल, प्रशासनिक तीर्थयात्राl
मूल आलेख : मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। आधुनिक जीवविज्ञानी और नृविज्ञानी इस बात से सहमत है कि मानव जाति के विकास में कभी ऐसा समय विद्यमान नही था जब मनुष्य एक दूसरे से स्वतंत्र रूप में अस्तित्व में थे। मानव जाति के आदिम पूर्वजों ने मानव की उत्पत्ति से पूर्व ही व्यापक सामाजिक और राजनीतिक कौशल विकसित कर लिया था और मानव मस्तिष्क कई तरह के सामाजिक सहयोग के लिए यंत्रस्थ हो चुका था।1 टामस हाब्स की शब्दावली में कहा जाए तो मनुष्य कभी दीन, हीन, एकांगी और पाशाविक अवस्था में नही रहा है। सहयोग के अभाव में मनुष्य कभी इतनी प्रगति नही कर पाता जितनी वह कर पाया है। मनुष्य की सामाजिकता ऐतिहासिक या सांस्कृतिक उपलब्धि नही है ब्लकि मानव स्वभाव में स्वतः अन्तर्निहित है।
मनुष्य स्वभाव से नियमों का निर्माण और उसका पालन करने वाला प्राणी है। मनुष्य स्वयं के लिए ऐसे नियम बनाते है जो सामाजिक अंतःक्रियाओं को नियंत्रित करते है और समूह की कारवाई को संभव बनाते है।2 मनुष्य में अपने व्यवहार को सस्थांगत बनाने की प्रकृति होती है। मनुष्य जिन संस्थाओं का निर्माण करता है उनके संचालन के लिए नियम बनाता है और उनका पालन करता भी है तथा उनके प्रति निष्ठा भाव रखता है। सामाजिक विकास ने संस्थाओं के विकास के पैमाने को परिवार से समूह, समूह से जनजाति और जनजाति को राज्य तक विस्तारित किया है। एक संस्था के रूप में राज्य समाज की सबसे प्रमुख संस्था है। यह वैधानिक बल प्रयोग का ऐसा निकाय है जो अपनी शक्ति का प्रयोग एक निश्चित सीमा के भीतर करता है इस रूप में यह समूह और जनजाति से भिन्न है। राज्य के साथ एक और संकल्पना है जो राज्य के साथ अभिन्न रूप से जुड़ी है वह है राष्ट्र। जहाँ राज्य एक संस्था है वही राष्ट्र राज्य के निवासियों को आपस में जोड़ने की भावना है। जोड़ने वाला यह तत्त्व धर्म, भाषा, नस्ल, परम्परा और संस्कृति या इतिहास में से एक या एक से अधिक हो सकता है।
राज्य ऐसा वैधानिक और राजनीतिक संगठन है जो अपने नागरिको से आज्ञा पालन और वफादारी प्राप्त करने की क्षमता रखता है।3 आधुनिक विश्व में सभी राज्य स्वयं को राष्ट्र राज्य कहते है। इसका अर्थ यह है कि स्वयं को एक राजनीतिक संगठन मानने की अपेक्षा एकजुटता की भावना और शक्ति भी मानते है। राज्य निर्माण आधुनिक युग में राष्ट्र निर्माण है। जैसे ही राष्ट्र एक राजनीतिक इकाई बन जाता है। राष्ट्रवाद एक राजनीतिक धर्म में परिवर्तित हो जाता है जो समय-समय पर नागरिकों से अपने सर्वस्व की मांग करता है। राष्ट्र की परिभाषा राज्य की पूर्व और कल्पित परिभाषा पर परजीवी रूप में विद्यमान है।4 राष्ट्रवाद आधुनिक विश्व की सबसे शक्तिशाली शक्तियों में से एक है। बेनेडिक्ट एडंरसन के शब्दों में राष्ट्रत्व हमारे समय के राजनीतिक जीवन का सर्वाधिक विधिसंगत मूल्य है।5 राष्ट्र, राष्ट्रवाद और राष्ट्रीयता को परिभाषित करना अत्यंत कठिन कार्य है। एरिक हाब्सबाम के अनुसार राष्ट्रवाद पर जो साहित्य मौजूद है वह विशुद्ध रूप से वर्णनात्मक होने के अलावा असंतोषजनक और निराशाजनक है। वस्तुतः राष्ट्रवादियों द्वारा अपने राष्ट्र के बारे में जो कुछ लिखा गया है वह प्रश्न खड़ा करने वाला है इसलिए नगण्य है।6
राष्ट्रवाद ने एक विचारधारा और आन्दोलन के रूप में अमेरिकन और फ्रांसीसी क्रांति पर व्यापक प्रभाव डाला है। एक राजनीतिक सकंल्पना के रूप में राष्ट्रवाद का अध्ययन काफी समय तक उपेक्षित रहा है और बींसवी शताब्दी की शुरूआत तक इसका वैज्ञानिक अध्ययन संभव नहीं हो पाया। राष्ट्रवाद के अध्ययन में सबसे प्रमुख समस्या यह है कि राष्ट्रवाद अपने अंदर व्यापक विषयों को समेटे हुए है जिसमें नस्ल और नस्लवाद, भाषायी विकास, राजनीतिक धर्म, साम्प्रदायिकता, जातीय संघर्ष अंतरराष्ट्रीय कानून, प्रवासन और नरसंहार आदि सम्मिलित है। इस रूप में राष्ट्रवाद एक समूह अवधारणा है। राष्ट्रवाद के अलावा शायद ही कोई ऐसी अवधारणा होगी जो एक साथ इतने विषयों को अपने अंदर समेटे हुए है। इसलिए हमें राष्ट्रवाद का अध्ययन करते हुए अतंर-अनुशासनात्मक दृष्टिकोण अपनाना होगा।7 राष्ट्रवाद फिसलन भरी और ढलवां अवधारणा है। कोई भी राजनीतिक विचारधारा या धार्मिक दृष्टिकोण स्वयं को राष्ट्रवाद से जोड़ने के लालच से अपने आप को नही रोक पाया है। राष्ट्रवाद एक अवधारणा के रूप में लोकप्रिय संप्रभुता, स्वायत्तता, एकता, पहचान और स्वतंत्रता को सम्मिलित करता है। राष्ट्रवाद के कई प्रतिमान है जैसे राष्ट्रवाद धार्मिक, अनुदारवादी, उदारवादी, फासिस्ट सांस्कृतिक, अलगाववादी, सरंक्षणवादी, एकीकरणवादी या पैन राष्ट्रवादी हो सकता है।8 स्पष्ट शब्दों में कहें तो जितने राष्ट्र है उतने ही प्रतिमान है बल्कि उससे भी ज्यादा।
अर्नेस्ट रेनन राष्ट्र को एक नैतिक अवधारणा के रूप में परिभाषित करते है जो बल पर नही बल्कि सहमति पर आधारित है। रेनन राष्ट्र निर्माण के जितने भी प्रचलित सिद्धांत है जैसे राजवंश, नस्ल, भाषा, धर्म और भूगोल को नकारते है। रेनन के अनुसार राष्ट्र एक आत्मा, एक आध्यात्मिक सिद्धांत हैlएक राष्ट्र में अतीत और वर्तमान दोनों सम्मिलित होते है। अतीत के रूप में स्मृतियों की समृद्ध विरासत पर साझा स्वामित्व तथा वर्तमान के रूप में साथ रहने की सहमति जो साझी विरासत के रूप में मिलती है। रेनन राष्ट्र को एक दैनिक जनमत संग्रह के रूप में मानते है। रेनन के अनुसार राष्ट्र के मूल में साझें दुख, सांझे सुख और सांझे सपने विद्यमान है।9
स्टालिन के शब्दों में राष्ट्र ऐतिहासिक रूप से गठित लोगों का एक स्थिर समुदाय है जो एक सामान्य भाषा, क्षेत्र, आर्थिक जीवन और एक सामान्य संस्कृति में प्रकट मनोवैज्ञानिक सरंचना के आधार पर बनता है। जब यह सभी विशेषताएँ एक साथ होती है तो एक राष्ट्र का गठन होता है। स्टालिन के शब्दों में हर ऐतिहासिक परिघटना की तरह राष्ट्र भी परिवर्तन के नियमों के अधीन है। इसका अपना इतिहास अपनी शुरूआत और अंत है।10 अर्नेस्ट गेलनर के अनुसार राष्ट्रवाद प्राथमिक रूप से एक राजनीतिक सिद्धांत है जो इस मान्यता पर आधारित है कि राजनीतिक और राष्ट्रीय इकाई में समरूपता होनी चाहिए।11
राष्ट्र और राष्ट्रवाद का जन्म यूरोप में हुआ। इतिहासकार एरिक हॉब्सबाम इसे यूरोपियन फिनोमेना या प्रतिभास मानते है जो दोहरी क्रान्तियों फ्रांसीसी और औद्योगिक का परिणाम था। राष्ट्र ऐतिहासिक रूप से नवीन रचना है। इस नवीनता के दो तत्त्व प्रमुख है व्यक्ति की राष्ट्र के प्रति निष्ठा अन्य निष्ठाओं से बढ़कर है बल्कि यह अन्य निष्ठाओं को प्रतिस्थापित भी करती है। दूसरा एकल मानव समूह को स्वयं को संप्रभु राष्ट्र के रूप में अभिव्यक्त करने का अधिकार होता है। राष्ट्र की अवधारणा में लोकतांत्रिक और समतावादी तत्त्व विद्यमान होते है। इस रूप में राजनीतिक राष्ट्रवाद अपने मूल स्वरूप में क्रांतिकारी होता है, राष्ट्रवादी अपने राष्ट्र को प्राकृतिक, स्थायी, परम्परागत और शाश्वत मानते है।12
कुछ विचारक राष्ट्रवाद का उदय प्रबोधन काल से जोड़ते है। प्रबोधन काल में राष्ट्रवाद समुदाय के आत्मनिर्णय के विचार से जुड़ा। इसका अर्थ था व्यक्तियों का एक समूह जिनके कुछ साझे हित है उन्हें अपनी आकांक्षाओं को अभिव्यक्त और प्रोत्साहित करने का अवसर दिया जाना चाहिए। यह सोच रूसों की रचनाओं में स्पष्ट रूप से देखने को मिलती है। राष्ट्रवाद का दूसरा चरण फ्रांसिसी क्रांति 1789 से शुरू हुआ। जब राजशाही विरोधियों ने अपने आपको LA NATION. इसका अर्थ था- बिना किसी पदनाम और हैसियत के सभी फ्रांसीसी लोग। स्वतंत्रता समानता और बंधुता का विचार LA NATION से ही जुड़ा था। यहाँ राष्ट्र के अर्थ को जनता की एकता तथा सांझी और समान नागरिकता से जोड़ा गया। बाद में यह अमेरिकन क्रांति से जुड़ा। राष्ट्र की लोकतांत्रिक और राजनीतिक अवधारणा इसके तीसरे तत्त्व से जुड़ी, वह थी VOLK या लोग। इसका अर्थ था एक जनसमुदाय जिसकी एक विशिष्ट राजनीतिक पहचान के अलावा अपना इतिहास परम्परा और संस्कृति है। इन तीन धाराओं के सम्मिलन से उन्नीसवीं शताब्दी से राष्ट्रवाद का उदय हुआ।13
राजनीतिक विश्लेषक फ्रांसिस फुकुयामा, अर्नेस्ट गेलनर और बेनेडिक्ट एंडरसन की तरह राष्ट्रवाद की उत्पत्ति को आधुनिकीकरण और औद्योगिकीकरण से उत्पन्न व्यक्ति के जीवन में आयी अनिश्चितता से जोड़ते है। पहचान की समस्या पूर्व आधुनिक समाजों में विद्यमान नही थी।14 इन समाजों में व्यक्ति की एक निश्चित पहचान थी तथा सामाजिक गतिशीलता कम थी। श्रम विभाजन सीमित होने के कारण हर व्यक्ति की चयन की शक्ति भी सीमित थी। व्यक्ति की इस स्थिति में परिवर्तन तब आया जब व्यापारिक पूँजीवाद का उदय हुआ। ग्रामीण समुदाय से शहरी समाज में परिवर्तन से उत्पन्न मनोवैज्ञानिक अव्यवस्था ने राष्ट्रवाद की नींव रखी जो एक मजबूत समुदाय के काल्पनिक अतीत पर आधारित थी जिसमें बहुलतावादी आधुनिक समाज के विभाजन और भ्रम विद्यमान नहीं थे। व्यक्ति को अपने जीवन में एक नये धर्म की आवश्यकता महसूस हुई जो उसे राष्ट्रवाद के रूप में प्राप्त हुआ। एक ऐसा धर्म जो अपने परम्परागत समुदायों के अलग कर दिए व्यक्तियों को पुनः आपस में जोड़ सके साथ ही उन्हें परम्परागत पहचान से अलग एक नई पहचान दे सके।
अगर हम राष्ट्र और राष्ट्रवाद के अध्ययन में मार्क्सवादी सिद्धांत की सहायता लेते है तो पता चलता है कि मार्क्सवाद को राष्ट्र और राष्ट्रवाद के अध्ययन में कोई विशेष रूचि नहीं है। उनकी रूचि सामाजिक वर्गो का अध्ययन है। वह राष्ट्र और राष्ट्रवाद के शीघ्र विलोपित होने की आशा कर रहे थे। मार्क्सवाद के अनुसार राष्ट्र सिर्फ ऐतिहासिक वर्गीकरण नही है बल्कि इसकी उत्पत्ति एक विशिष्ट युग में हुई है। यह विशिष्ट युग सामंतवाद के पतन और पूँजीवाद के उदय का युग था। जब उद्योगों के विकास ने एक समांगी जनसंख्या और सामान्य बाजार में से राष्ट्रीय बाजार विकसित करने की आवष्यकता पर बल दिया। राष्ट्र सबसे पहले पश्चिमी यूरोप जैसे ब्रिटेन, फ्रांस, इटली और जर्मनी में अस्तित्व मे आया। मार्क्सवाद ने राज्यों के आत्मनिर्णय के सिद्धांत का समर्थन किया है। इस सन्दर्भ में स्टालिन ने अपनी पुस्तक मार्क्सवाद और राष्ट्रीय प्रश्न लिखा है कि हर राष्ट्र को अपनी नियति के निर्धारण का अधिकार होना चाहिए।15 हर ऐतिहासिक परिघटना की तरह राष्ट्र परिवर्तन के नियमों के अधीन है। इसका अपना इतिहास अपनी शुरूआत और अंत है।
यदि हम यूरोपीय राष्ट्रवाद की प्रक्रिया का अध्ययन करे तो पता चलता है कि राष्ट्रवाद की प्रक्रिया तीन चरणों से होकर गुजरी है। पहले चरण में राष्ट्रवादी विचार केवल बुद्धिजीवियों तक सीमित है परन्तु इसमें व्यापक पैमाने पर जनसमर्थन जुटाने की महत्त्वाकांक्षा निहित है। दूसरे चरणों में देशभक्तों का एक समूह राष्ट्रवादी विचारो को फैलाने का व्यवस्थित प्रयास करता है। तीसरा चरण तब शुरू होता है जब राष्ट्रवादी विचार जनता में प्रवेश कर जाते है।16
राष्ट्र और राष्ट्रवाद की अवधारणा, उत्पत्ति और स्वरूप को लेकर विचारकों में मतभेद है। इस संदर्भ में बेनेडिक्ट एंडरसन ने अपनी पुस्तक ‘इमेजिन्ड कम्युनिटी रिफ़लेक्शन आन द ओरिजन एण्ड स्प्रेड आफ नेशनलिज्म. 1983(काल्पनिक समुदाय राष्ट्रवाद की उत्पत्ति और प्रसार पर प्रकाश ) में राष्ट्र और राष्ट्रवाद की बिल्कुल अलग अवधारणा प्रस्तुत की है। एंडरसन अपनी बात की शुरूआत इस आधार वाक्य से करते है कि राष्ट्रत्व हमारे वर्तमान जीवन का सर्वाधिक विधिसंगत मूल्य है। यह इतना सार्वभौमिक है कि मार्क्सवादी आन्दोलन और राज्य ना केवल अपने स्वरूप में बल्कि अपने सार में भी राष्ट्रवादी बनने की ओर उन्मुख है। टाम नैरन राष्ट्रवाद को मार्क्सवादी सिद्धान्त की असुविधाजनक विसंगति मानते है बेनेडिक्ट एंडरसन इसमें उदारवाद तथा रूढ़िवाद को भी सम्मिलित करते है। इस सन्दर्भ में एडंरसन लिखते है कि मार्क्सवादी और उदारवादी सिद्धान्त परिघटना को बचाने के टोलेमिक प्रयास में निस्तेज़ हो गए है अब कोपरनिकन भावना का पुनरुदय आवश्यक है।17 बेनेडिक्ट एंडरसन राष्ट्रवाद के अध्ययन से जुड़े तीन विरोधाभासों का उल्लेख करते है।
1. इतिहासकारों की दृष्टि में राष्ट्र एक वस्तुनिष्ठ आधुनिकता है जबकि राष्ट्रवादी दृष्टि राष्ट्र को प्राचीनता से परिपूर्ण मानती है।
2. एक सामाजिक सांस्कृतिक अवधारणा के रूप में राष्ट्र एक सार्वभौमिक घटना है। जिसका अर्थ है कि हर किसी के पास अपनी राष्ट्रीयता होनी चाहिए। इसके विपरीत हर राष्ट्रीयता में विशिष्ट तत्त्व विद्यमान है।
3. राष्ट्रवाद जितनी शक्तिशाली राजनीतिक शक्ति है। उसकी तुलना में यह दार्शनिक रूप से दरिद्र विचारधारा है। इसका कारण यह है कि राष्ट्रवाद का हॉब्स, मार्क्स और वेबर की तरह कोई महान विचारक नही हुआ।18
एंडरसन राष्ट्र को प्राकृतिक या स्वाभाविक संस्था नहीं मानते है। उनके अनुसार राष्ट्र और राष्ट्रवाद विशेष प्रकार की सांस्कृतिक कलाकृतियां है। यह सांस्कृतिक कलाकृतियां इतिहास में किस तरह अस्तित्व में आयी है और समय के साथ उनका अर्थ किस तरह परिवर्तित हुआ है और आज भी वह किस तरह इतनी गहन भावनात्मक वैद्यता प्राप्त कर रही है। इस बात का अध्ययन आवश्यक है। एंडरसन लिखते है कि इन कलाकृतियों का निर्माण 18 वी शताब्दी में हुआ और यह असतत ऐतिहासिक शक्तियों के जटिल पारगमन का स्वतः स्फूर्त आवसन था जो एक बार निर्मित होने के पश्चात् प्रतिरूपक बन गए और राजनीतिक और वैचारिक नक्षत्रों की विविधता में समाहित हो गए।19
बेनेडिक्ट एंडरसन राष्ट्र की परिभाषा इस रूप में देते है कि राष्ट्र एक कल्पित समुदाय है जो सीमांकित और सप्रंभु दोनो है। राष्ट्र एक काल्पनिक समुदाय हैं क्योंकि सबसे छोटे राष्ट्र में भी इसके सदस्य अपने साथी सदस्यों को न जान पाते है न मिल पाते है न उनके बारे में कुछ सुन पाते है। फिर भी प्रत्येक के मन में उनकी साम्य छवि रहती है। एंडरसन काल्पनिक होने को मिथ्या होना नही मानते है। राष्ट्र सीमांकित हैं क्योंकि कोई भी राष्ट्र इतना व्यापक नही है कि उसमें सम्पूर्ण मानव जाति समा जाए। राष्ट्र को सप्रंभु माना जाता है क्योंकि उसकी वैधता किसी दिव्यता पर आधारित नही है। राष्ट्र की सप्रंभुता में उसकी स्वतंत्रता निहित है और अंत में राष्ट्र एक समुदाय है क्योंकि किसी भी राष्ट्र में विद्यमान शोषण और असमानता के बावजूद वह एक गहरी क्षैतिज मित्रता से रूप में जाना जाता है।20
एंडरसन के अनुसार राष्ट्रवाद धर्म की तरह व्यक्ति की अमरता और मृत्यु से गहरा सरोकार रखता है यही वह कारण है जिससे मार्क्सवादी और उदारवादी विचारधारा राष्ट्रवाद के सम्मुख अप्रसांगिक हो जाती है। एंडरसन मानते है कि यूरोप की अठारवीं शताब्दी न केवल राष्ट्रवाद के युग की शुरूआत है ब्लकि धार्मिक विश्वासों की संध्या भी है। धार्मिक विश्वासों अंत से एक नई सोच की आवश्यकता महसूस की गई जो व्यक्ति के जीवन की नियति को निरन्तरता में तथा आकस्मिकता को अर्थ में परिवर्तित कर पाए और उसके जीवन को अर्थपूर्ण बनाए। यह राष्ट्रवाद के माध्यम से ही संभव हो पाया है।
एंडरसन राष्ट्रवाद को राजनीतिक विचारधाराओं से जोड़कर नही बल्कि पूर्व में विद्यमान बड़ी सांस्कृतिक प्रणालियों से जोड़कर देखते है। उनके अनुसार राष्ट्रवाद से पूर्व दो सांस्कृतिक प्रणालियाँ कार्यरत थी एक धार्मिक समुदाय दूसरा वंशवादी क्षेत्र। पहली सांस्कृतिक प्रणाली धार्मिक समुदाय था जो एक पवित्र भाषा या लिपि से बनता था। यह पवित्र भाषाएँ थी लैटिन, अरबी, चीनी, पाली। इन्ही पवित्र भाषाओं के आधार पर पवित्र इस्लामिक उम्मा, ईसाई जगत और मिडिल किंगडम की कल्पना की गयी। यानी यह पवित्र भाषाएँ धार्मिक समुदायों को एक सूत्र में बाँधती थी। पवित्र भाषाओं के आधार पर बने यह सामाजिक समूह केंद्र-अभिमुख, पदानुक्रमित साथ ही क्षैतिज और सीमांकित थे। मध्य युग के पश्चात् पवित्र भाषाओं पर आधारित धार्मिक समुदायों का पतन होने लगा तथा देशी भाषाएँ उभरकर सामने आने लगी। दूसरी सांस्कृतिक प्रणाली थी वंशवादी क्षेत्र। यह राजा की दिव्यता पर आधारित थी जो लोग राजा के अधीन थे वह प्रजा थे ना की नागरिक। राजतंत्र में एक उच्च केन्द्र के चारों तरफ़ सब कुछ व्यवस्थित रहता था। प्राचीन राजशाही राज्यों ने न केवल युद्ध बल्कि यौन राजनीति के माध्यम से अपने साम्राज्य का विस्तार किया और विषम जनसंख्या को अपने अधीन किया। 17वी शताब्दी के पश्चात् यह व्यवस्था पतनोन्मुख होने लगी।21 राष्ट्र के कल्पित समुदाय ने पूर्व में विद्यमान सांस्कृतिक प्रणालियों को विस्थापित किया।
एंडरसन ने राष्ट्र को एक कल्पित समुदाय के रूप मे चित्रित करने के लिए समय की एक विशिष्ट संकल्पना का प्रयोग किया है और वह है ‘संमागी खाली समय।’ समय की यह अवधारणा एंडरसन ने वाल्टर बेंजामिन से ली है। संमागी खाली समय का अर्थ है कि समय एकरेखीय खाली पात्र है जिसमें एक घटना दूसरी घटना का कारण है और भविष्य अनिश्चित है। समय की यह धारणा ईसाई मत की उस धारणा से विपरीत है जहाँ भविष्य ‘न्याय दिवस’ के रूप में निश्चित है। समय की इस धारणा को उपन्यास और समाचार पत्रों के माध्यम से समझा जा सकता है। पाठक किसी उपन्यास में विभिन्न पात्रों को एक ही समय में अलग-अलग कार्य करते कल्पना कर सकता है साथ ही उनके मध्य अंर्तसंबंधों की भी कल्पना कर सकता है और उनसे अपना संबंध जोड़ सकता है। उपन्यास और समाचार पत्र राष्ट्र को कल्पित समुदाय के रूप में प्रस्तुत करने के माध्यम बन गए। यह भी कल्पना की गयी की राष्ट्र एक समाजशास्त्रीय जीव की तरह खाली समय के माध्यम से विकसित हो रहा है। संमागी खाली समय राष्ट्रवाद का अग्रदूत साबित हुआ। जहाँ समाचार पत्रों ने पूरे राष्ट्र का एक दिन का लेखा जोखा प्रस्तुत किया वही प्रारम्भिक इतिहासकारों ने घटनाओं की एक अनंत शृंखला के रूप में उनके बीच कार्य-कारण संबंध देख राष्ट्र को संभव बनाया। समाचार पत्र उन घटनाओं के मध्य जो एक ही समय में घटित हुई है उनके मध्य काल्पनिक संबंध स्थापित करता है जो एक काल्पनिक समुदाय को अस्तित्व में लाता है। दूसरा समाचार पत्र एक ही तरह के लोगों द्वारा पढ़ा जाएगा इससे उनके मध्य भी एक काल्पनिक संबंध स्थापित होगा जो एक काल्पनिक समुदाय को अस्तित्व में लाता है। एडंरसन लिखते है कि पुस्तकें समाचार पत्र का ही चरम रूप है।22
एंडरसन प्रिंट पूँजीवाद को राष्ट्रवाद की जननी के रूप में प्रचारित करते है। प्रिंट पूँजीवाद के माध्यम से ही क्षैतिज, धर्मनिरपेक्ष अनुप्रस्थ समय के राष्ट्रीय समुदायों का गठन हो पाया है। इस सन्दर्भ में एडंरसन ने यूरोप में लैटिन भाषा का उदाहरण प्रस्तुत किया है। यूरोप में सबसे पहले पूँजीवाद ने लैटिन भाषा की पुस्तकों का उत्पादन किया परन्तु लैटिन बोलने वाला यह वर्ग काफी छोटा था। जैसे ही यह वर्ग संतृप्त हुआ। पूँजीवाद द्वारा नये बाजार की तलाश की गई और यह बाजार उसे देशी भाषाओं के माध्यम से प्राप्त हुआ। देशी भाषा के प्रिंट पूँजीवाद ने यूरोप में धर्मसुधार की प्रक्रिया को भी आगे बढ़ाया। मार्टिन लूथर तथा प्रोटेस्टेंट द्वारा देशी भाषाओं के माध्यम से अपनी बातों को आम जनता तक पहुँचाया गया। देशी भाषा की पुस्तकों के माध्यम से अपने विचारों को प्रकट करने के कारण मार्टिन लूथर को पहला सर्वश्रेष्ठ विक्रेता (Best seller)माना जाता है।23 दूसरी और देशी भाषाओं का प्रयोग राजशाहियों द्वारा प्रशासनिक सुविधा के लिए किया गया। यह देशी भाषाएँ लैटिन से ज्यादा सुगम थी और इन देशी भाषाओं के माध्यम से राष्ट्रीय चेतना का विस्तार हुआ। प्रिंट पूँजीवाद ने भाषा विज्ञान के क्षेत्र में व्यापक परिवर्तन किएlप्रिंट पूँजीवाद ने विभिन्न बोलियों को एक मानकीकृत भाषा में परिवर्तित कर दिया। अब जो मुद्रित रूप में उपलब्धि थी वह भाषा बन गई थी और जो मुद्रित रूप में उपलब्ध नही थी वह बोली के रूप में जानी गयी साथ ही जो बोली प्रिंट भाषा के नजदीक थी वह महत्वपूर्ण हो गयी तथा अन्य सभी बोलीयाँ उस प्रिंट भाषा में समाहित हो गई। पार्था चटर्जी के शब्दों में प्रिंट पूँजीवाद आधुनिक राष्ट्रीय भाषा के विकास के लिए नया संस्थागत स्थान प्रदान करता है।24 एडंरसन लिखते है कि प्रिंट भाषा का राष्ट्र और राष्ट्रवाद से इतना निकट संबंध है कि सभी राष्ट्रीय राज्यों के पास अपनी प्रिंट भाषा है और बिना प्रिंट भाषा के राष्ट्र और राष्ट्रवाद का अस्तित्व सभंव नही है।
एंडरसन ने अमेरीकी महाद्वीप में 18वीं और 19वीं शताब्दी के दौरान नए राष्ट्रों के निर्माण में क्रियोल (क्रियोल वह लोग है जो यूरोपवासियों के वंशज हैं परन्तु यूरोप से बाहर पैदा हुए है) के योगदान का वर्णन करते है। यह क्रियोल अपने यूरोपीय पूर्वजों की ही भाषा बोलते थे परन्तु इन्होंने अपने राज्यों में सामूहिक चेतना विकसित कर राष्ट्रीय आन्दोलन में महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह किया। यद्यपि यह क्रियोल वर्ग उपनिवेशवादी शक्तियों द्वारा ही उत्पन्न किया गया था। बेजामिन फ्रेंकलिन तथा सीमोन द बोलीवर ऐसे ही क्रियोल का ही उदाहरण है। इन देशों में राष्ट्रवादी भावना विकसित करने में प्रशासनिक तीर्थयात्राओं का विशेष योगदान है। जिस तरह धार्मिक तीर्थयात्राऐं एक धार्मिक समुदाय का निर्माण करती है उसी तरह प्रशासनिक तीर्थयात्रा जिसमें यह क्रियोल वर्ग शैक्षिक या प्रशासनिक कारणों से अपने औपनिवेशिक महानगरों में यात्रा करता था, सामूहिक राष्ट्रीय चेतना विकसित करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी।
एंडरसन ने 1760-1830 के अमेरीकन राष्ट्रवाद तथा 1820-1920 तक यूरोपीय राष्ट्रवाद का अध्ययन करने पर इसके दो प्रमुख तत्वों का उल्लेख करते है। पहला है राष्ट्रीय प्रिंट भाषा दूसरा है भूतपूर्व क्रांतियो (ब्रिटिश, फ्रांसिसी) का प्रतिरूपक राज्य बनने की कामना। एडंरसन लिखते है यूरोपीय खोजों से यूरोपवासियों का सम्पर्क नयी-नयी भाषाओं से हुआ। इसमें कई भाषाएँ तो लैटिन और हिब्रु से भी प्राचीन थी। इस सम्पर्क ने लैटिन, हिब्रु और ग्रीक को देशी भाषाओं के साथ घुलने मिलने के लिए मजबूर किया। यह पवित्र भाषाओं के पतन का मुख्य कारण बना। दूसरी ओर स्थानीय भाषाओं के विकास ने स्थानीय भाषाओं के कोशकारों, व्याकरणविदो, भाषाशास्त्रीयो और साहित्यकारों के स्वर्ण युग को जन्म दिया। इन पेशेवर बुद्धिजीवियों ने राष्ट्रवाद को आकार दिया। इनकी रचनाओं को समाज के सभी वर्गो ने पढ़ा। समाज का बुर्जूआ वर्ग पहला ऐसा वर्ग था जिसने प्रिंट पूँजीवाद द्वारा उत्पन्न काल्पनिक समुदाय के आधार पर अपने आर्थिक हितों का सरंक्षण किया तथा एकता प्राप्त की। इस संदर्भ में एडंरसन लिखते है कि अनपढ़ कुलीन की कल्पना की जा सकती है परन्तु अनपढ़ पूँजीपति की नही।25
यूरोप में आटोमन, हसबर्ग और रोमोनोव साम्राज्य अपने मूल स्वरूप में बहुभाषाई, बहुधार्मिक और बहुजातीय थे। इन शासको ने देशी भाषाओं को अपने प्रशासनिक उदेश्य लिए प्रयोग किया। जब यह शासक एक ही भाषा और एक आकर्षक राष्ट्रीय पहचान की और बढ़े तो अपनी आबादी के प्रतिनिधि और प्रतीक के रूप में सामने आए। एंडरसन इसे अधिकारिक राष्ट्रवाद की संज्ञा देते है। अधिकारिक राष्ट्रवाद शासक वर्ग के उन प्रयासों को अभिव्यक्त करते है जिसके माध्यम से जनता में राष्ट्रवाद के उभार को पनपाया जाता है। साथ ही शासक वर्ग अपने कार्यक्रम और साम्राज्यवादी महत्वकांक्षा को वैद्यता प्रदान करता है। यही अधिकारिक राष्ट्रवाद यूरोपीय शक्तियों ने अपने उपनिवेशों पर भी लागू किया। एडंरसन ने अधिकारिक राष्ट्रवाद के कुछ उदाहरण किए है जब रूस में जर्मन भाषा को हटाकर रूसी भाषा को प्रोत्साहित किया गया। ब्रिटिश साम्राज्य तथा जापान ने भी लोकप्रिय भाषायी राष्ट्रवाद का अनुसरण किया।
एंडरसन लिखते है कि ज्यादातर बुद्धिजीवी राष्ट्रवाद को नस्लवाद और दूसरों के प्रति घृणा से जोड़ते है। जबकि राष्ट्रवाद गहनरूप से आत्मत्याग करने वाला प्रेम भी पैदा करता है। यही बात राष्ट्रवादी संगीत, कला और काव्य में अभिव्यक्त होती है। राष्ट्रवाद निस्वार्थ प्रेम और एकजुटता का क्षेत्र है जो लोगो को बलिदान करने के लिए प्रेरित करता है। एडंरसन लिखते है कि राष्ट्रवाद का आधार प्रिंट भाषाएँ होती है और भाषा अपने मूलस्वरूप में समावेशी होती है। कोई भी व्यक्ति कितनी ही भाषाएँ सीख सकता है।
अठारवी शताब्दी के अंत के पश्चात् राष्ट्रवाद विभिन्न युगों, राजनीतिक शासनों, अर्थव्यवस्थाओं और सामाजिक संरचनाओं के अनुसार प्रतिरूपण और अनुकूलन की प्रक्रिया से गुजरा है। जहाँ नए शासन अस्तित्व में आए हैं वहां भी पुराने शासन की इमारतों, संस्थाओं, अभिलेखों और पुराने राजवंशों के प्रतीक का राष्ट्रवाद के प्रतीको के रूप में अनुसरण किया गया है। एंडरसन लिखते है कि तीन संस्थाएं जनगणना, मानचित्र और संग्रहालय साम्राज्यवाद और उत्तर औपनिवेशिक राज्यों के बीच निरतंरता का संकेत देती है। एडंरसन इसके लिए दक्षिणपूर्वी एशिया के उदाहरणों को प्रस्तुत किया है। पहला है जनगणनाlजनगणना के माध्यम से पूरे राष्ट्र की आबादी की जटिलताओं को समाप्त कर उनका सामान्य वर्गीकरण किया गया। इसके तहत धार्मिक पहचान को समाप्त कर नस्लीय पहचान पर बल दिया गया। पूर्व की जनगणनाओं में ड्राफ्टियों और करदाताओं की गिनती की जाती थी परन्तु अब पूरी जनसंख्या की गिनती की गयी। भूगोल के एक विषय के रूप में विकास और यूरोपीय तरह के मानचित्रों ने लोगों की कल्पना में पास और दूर की छवियों में परिवर्तन किया। निर्माण परियोजनाएँ, सैन्य गतिविधि तथा प्रशासनिक विभागों के निर्णय पहले मानचित्रों पर कर लिए जाते है और यही मानचित्र अधिकारिक राष्ट्रवाद के अग्रदूत बने। इन मानचित्रों का पुनरूत्पादन प्रिंट के माध्यम से ही संभव हो पाया। मानचित्रों के माध्यम से उत्तर औपनिवेशिक राज्यों को अपने क्षेत्रीय दावों को सही ठहराने तथा राष्ट्रीय मिथकों की रचना के लिए किया गया। मानचित्र राष्ट्रीयता के प्रतीक बन गए। संग्रहालयों के संरक्षण के माध्यम से औपनिवेशिक शक्तियों द्वारा अपने उपनिवेशों को यह आभास कराया की देशी लोगो पर हमेशा महान शक्तियों द्वारा शासन किया गया है। स्मारकों की सुरक्षा और रख रखाव, उनकी परम्पराओं का संरक्षण उत्तर औपनिवेशिक राज्यों में धर्मनिरपेक्ष प्रतीक के रूप में उभरे26
बेनेडिक्ट एंडरसन की पुस्तक राष्ट्र और राष्ट्रवाद के अध्ययन में महत्वपूर्ण कड़ी है। उनका यह मानना कि राष्ट्र भाषा, नस्ल या धर्म से नही बल्कि कल्पनाओं से निर्मित होता है, महत्वपूर्ण है। इस रूप में एंडरसन ने राष्ट्र और राष्ट्रवाद का सार्वभौमिक इतिहास लिखने का प्रयास किया है। पार्थ चटर्जी के शब्दों में एंडरसन की किताब पिछले कुछ वर्षो में राष्ट्रवाद पर नए सैद्धान्तिक विचारों को उत्पन्न करने में सबसे प्रभावशाली रही है। फिर भी एंडरसन की संकल्पना पर सबसे पहला आरोप अतिसरलीकरण का है और यह राष्ट्र के अंदर विभिन्न अनुभवों और राष्ट्रवाद के विशिष्ट तत्वों को नकारता है। यह भी कहा गया कि राष्ट्रीय पहचान किन्हीं कल्पनाओं पर आधारित नहीं हो सकती है इसके मूल तत्त्व विशिष्ट और यर्थाथ है। कल्पना का जो विष्लेषण एडंरसन द्वारा किया गया है वह मानवीय मनोविज्ञान से युक्तिसंगत नहीं है। उत्तर औपनिवेशिक विद्वानो ने एडंरसन की सकंल्पना को यूरोकेंद्रीत कहकर इसकी आलोचना की है जो औपनिवेशिक समाजों का अध्ययन करने में असफल सिद्ध हुई है। इस सन्दर्भ में पार्थ चटर्जी ने लिखा है कि यदि शेष विश्व में राष्ट्रवादियों को अपने कल्पित समुदाय को यूरोप और अमेरिका द्वारा पहले ही उपलब्ध कराए गए कुछ माडयुलर रूपों में से चुनना है तो उनके पास कल्पना करने के लिए क्या बचा है? ऐसा प्रतीत होता है कि इतिहास ने तय कर लिया है कि उत्तर औपनिवेशिक दुनिया में हम केवल आधुनिकता को शाश्वत उपभोक्ता होंगे। यूरोप और अमेरिका जो इतिहास के सच्चे विषयवस्तु है, ने हमारी ओर से न केवल औपनिवेशिक ज्ञान और शोषण की पटकथा पर विचार किया है बल्कि उपनिवेशवाद विरोधी प्रतिरोध और उत्तर औपनिवेशिक दुख की पटकथा पर भी विचार किया है यहाँ तक की हमारी कल्पनाएँ भी सदैव उपनिवेश बनी रहनी चाहिए।27 पार्थ चटर्जी निष्कर्ष के रूप में कहते है कि इतिहास के रूप में राष्ट्रवाद की आत्मकथा मौलिक रूप से त्रुटिपूर्ण है।28
राष्ट्रवाद को आमतौर पर शेष विश्व के लिए यूरोप के शानदार उपहारों में से एक माना जाता है। हालांकि यूरोप में राष्ट्रवाद की प्रक्रिया बल, दमन और जातीय उन्मूलन पर आधारित रही है। इस रूप में राष्ट्रवाद को एक निष्पाप अवधारणा नही माना जा सकता है। दो विश्व युद्धों तथा एशिया , अफ्रीका और लैटिन अमेरिका में विद्यमान जातीय संघर्ष की प्रवृति ने इसके विध्वंसात्मक स्वरूप को महत्त्वपूर्ण रूप से रेखांकित किया है। बेनेडिक्ट एंडरसन ने राष्ट्रवाद के सकारात्मक या रचनात्मक राष्ट्रवाद को रेखांकित किया है परन्तु इसे विकसित कर पाना बहुत दुष्कर कार्य है। राष्ट्रवाद पहचान की राजनीति का हिस्सा है परन्तु यह कहना कि व्यक्ति की हर समय एक ही पहचान हो सकती है,त्रुटिपूर्ण है। एरिक हाब्सबाम के शब्दों में मनुष्य की पहचान जूते की तरह नही होती है जो मनुष्य एक समय में एक ही पहन सकता है। मनुष्य की पहचान बहुपक्षीय होती है और एक ही व्यक्ति एक ही समय में अलग-अलग पहचान धारण कर सकता है। राष्ट्रवाद की समस्या तब और गम्भीर हो जाती है जब राष्ट्रवाद एक मूल्य व्यवस्था में परिणित हो जाता है। तब इस बात पर विचार करना आवष्यक हो जाता है कि क्या यह मूल्य इतने योग्य है कि मनुष्य के जीवन को इनके लिए संकट में डाला जा सकता है। अतएव आदर्श स्थिति यह है कि मनुष्य की विभिन्न पहचानों को प्रतिस्पर्द्धी माना जाए। राष्ट्र की सकंल्पना को हम नोहा हरीरी के शब्दों में अतंरविषयक सत्यता मान सकते है। यह एक ऐसी सत्यता होती है जिसका भौतिक अस्तित्व तो नही होता मगर उसके अस्तित्व को लेकर सभी मनुष्यों में सामान्यतः सहमति पाई जाती है। मनुष्य के जीवन की अर्थपूर्णता इन अतंरविषयक सत्यताओं पर आधारित होती है। राष्ट्र की सकंल्पना का सबसे विशिष्ट तत्त्व यह है कि राष्ट्र का आविष्कार करना पड़ता है, साथ ही राष्ट्र के इतिहास, परम्पराओं सांस्कृतिक तत्वों का भी आविष्कार करना पड़ता है। यही आविष्कृत इतिहास, परम्परा और संस्कृति के तत्वों को स्कूली और विश्वविद्यालय शिक्षा प्रणाली के माध्यम से एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को हस्तांतरित किया जाता है।
राष्ट्र रूपी काल्पनिक समुदाय से इतर आधुनिक सोशल मीडिया ने एक नए समुदाय को जन्म दिया है। जिसे आभासी समुदाय के रूप में जाना जाता है। यह वह समुदाय है जिसके सदस्य एक दूसरे से किसी तकनीकी प्लेटफॉर्म के माध्यम से अंतक्रिया करते है परन्तु वास्तविक जीवन में एक दूसरे से नही मिल पाते है। यह समुदाय भी क्षैतिज होता है। वास्तविक समुदाय गाँव, काल्पनिक समुदाय- राष्ट्र तथा आभासी समुदाय फेसबुक या वहाटस्एप्प तीन समुदायों को मनुष्य जीवन से जुड़ा पाते है। मनुष्य एक ही समय में इन तीनों समुदायों का सदस्य हो सकता है और इन तीनों के क्षेत्र भी परस्पर व्याप्त होते है। हालिया वर्षो में हमारे जीवन में इस आभासी समुदायों का महत्व बढ़ा है और यह हमारे चिंतन और आचार व्यवहार को व्यापक रूप में प्रभावित कर रहे है।
राष्ट्र और राष्ट्रवाद की उत्पत्ति इतिहास के विशिष्ट चरण में हुई है और इसकी उत्पत्ति में विशिष्ट तत्वों का योगदान रहा है। परन्तु यह मानना की यह सकंल्पना किसी दूसरी सकंल्पना से प्रतिस्थापित नही हो सकती, त्रुटिपूर्ण है। लेकिन इस बात पर विचार करना आवष्यक है क्या राष्ट्र की सकंल्पना को प्रतिस्थापित करने वाली कोई अन्य सकंल्पना भी राष्ट्र की तरह वैद्यता और वफादारी प्राप्त कर सकती है? वर्तमान में हम कोई अन्तर्राष्ट्रीय या क्षेत्रिय संगठन ऐसा नही पाते है जो वैद्यता और भावनात्मक गहनता में राष्ट्र और राष्ट्रवाद के करीब भी हो।
1. फुकुयामा, फ्रांसिस, द ओरिजन ऑफ पोलिटिकल आर्डर फ्राम प्री हृयूमन टाइम्स टू द फ्रेंच रिवोल्यूशन, प्रोफाइल बुक्स, लंदन 2011 पृष्ठ 30
2. फुकुयामा, फ्रांसिस, पोलिटिकल आर्डर एण्ड पोलिटिकल डिकेः फ्राम इण्डिट्रियल रिवोल्यूशन टू द ग्लोबेलाइजेशन ऑफ डेमोक्रेसी, प्रोफाइल बुक्स, लंदन 2014 पृष्ठ 15
3. वाटसन हूज़ सेटन, नेशन एण्ड स्टेटसः एन इन्क्वाइरी इन टू द ओरिजन ऑफ नेशनलिज्म, रूटलेज पब्लिकेशन, न्यूयार्क 2019, (किडंल सस्कंरण) अध्याय-1
4. गेलनर अर्नेस्ट, ‘नेशन एण्ड नेशनलिज्म‘, ब्लैकवेल, पब्लिशर्स, यूके, 1983, पृष्ठ 4
5. एडंरसन, बेनेडिक्ट, ‘‘इमेजिन्ड कम्युनिटी‘‘, रिफ्लेकशन ऑन द ओरिजन एण्ड स्प्रेड ऑफ नेशनलिज्म, वर्सो पब्लिकेशन, लंदन, 2016 (किडंल सस्कंरण) अध्याय-1
6. हॉब्सबाम, एरिक, ‘ऑन नेशनलिज्म‘ (सपांदित), एबेसकस, यूके 2021 पृष्ठ 180
7. हचिसन, जान, स्मिथ द एन्थोनीः नेशनलिज्म(सपांदित), ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस, न्यूयार्क, 2012, पृष्ठ 3
8. हचिसन, जान, स्मिथ द एन्थोनीः वही पृष्ठ 3
9. हचिसन, जान, स्मिथ द एन्थोनीः वही पृष्ठ 17
10. स्टालिन, जोसेफः ‘मार्क्ससिस्म एण्ड द नेशनल‘ एण्ड कोलोनियल कवेश्चन , फोरेन लैग्वेंज प्रेस, पेरिस, 2021 पृष्ठ 8
11. गेलनर अर्नेस्ट वही पृष्ठ 1
12. हॉब्सबाम, एरिक, वही पृष्ठ 184
13. बेलिस जान एवं स्मिथ स्टीव, ‘द ग्लोबलाइजेशन ऑफ वर्ल्ड पॉलिटिक्सः एन इण्ट्रोडक्षन टू द इंटरनेशनल पॉलिटिक्स ऑक्सफोर्ड यूनीवर्सिटी प्रेस, पृष्ठ 525
14. फुकुयामा, फ्रांसिस, पोलिटिकल आर्डर एण्ड पोलिटिकल डिकेः वही पृष्ठ 187
15. स्टालिन, जोसेफ, वही पृष्ठ 21
16. हॉब्सबाम, एरिक, वही पृष्ठ 193
17. एंडरसन, बेनेडिक्ट, वही अध्याय-1
18. वही अध्याय-1
19. वही अध्याय-1
20. वही अध्याय-1
21. वही अध्याय-2
22. वही अध्याय-3
23. वही अध्याय-3
24. चटर्जी, पार्थाः ‘‘नेश न एण्ड इट्स फ्रेगमेंटस कॉलोनियल एण्ड पोस्ट कॉलोनियल हिस्ट्री‘‘, प्रिसंटन यूनीवर्सिटी प्रेस प्रिसंटन न्यूजर्सी 1993 पृष्ठ 7
25. एंडरसन, बेनेडिक्ट, वही अध्याय-5
26. वही अध्याय-10
27. चटर्जी, पार्थाः वही पृष्ठ 5
28. चटर्जी, पार्थाः वही पृष्ठ 6
सह प्रोफेसर, सम्राट पृथ्वीराज चौहान राजकीय, महाविद्यालय, अजमेर
kamran4297@gmail.com
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