अफ़लातून की डायरी(4)
- डॉ. विष्णु कुमार शर्मा
- डॉ. विष्णु कुमार शर्मा
मैं कहता आँखन की देखी
[03.07.2023]
व्याकरण की किताबों में व्यक्तिवाचक विशेषण पढ़ते-पढ़ाते ‘बनारसी साड़ी’ और ‘बनारसी पान’ के उदाहरण के सिवा बनारस से अफ़लातून वाबस्ता नहीं था लेकिन आज अफ़लातून के लिए बनारस व्यक्तिवाचक संज्ञा भी है, जातिवाचक भी और भाववाचक भी। बनारस के प्रति पहला आकर्षण कैसे जगा याद नहीं। बनारस मतलब सगुणोपासना और तंत्र-साधना के केंद्र काशी में निर्गुण की टेक लगाकर हुंकार भरते “तू कहता कागद की लेखी, मैं कहता आँखन की देखी। मैं राखा सुरझावन हारा, तू राखा उरझाय रे” का उद्घोष करने वाला कबीर। बनारस मतलब संस्कृत की महान परंपरा को रामबल व आत्मबल से भाखा में चुनौती देता तुलसी। “कि वहीं पर रखी है तुलसीदास की खड़ाऊँ, सैंकड़ों बरस से।” कक्षा नौ को बिस्मिल्लाह खां को पढ़ाते हुए बस यह याद रहा कि “बनारस में गंगा मैया है, बाबा विश्वनाथ है, संकटमोचक हनुमान है... और... “ई भारत रत्न हमें लुंगिया पर नाहीं, शहनैया पर मिला है।” बनारस मतलब लमही के प्रेमचंद। बनारस मतलब सुंघनी साहू वंशधर जयशंकर प्रसाद... “अरुण, यह मधुमय देश हमारा”... कामायनी... चन्द्रगुप्त... ममता। बनारस मतलब चौखम्भे पे टेक लगाए भारत के इंदु राजा हरिश्चंद्र जू। बनारस मतलब आचार्य रामचंद्र शुक्ल। बनारस मतलब बीएचयू। बनारस मतलब नामवर सिंह। बनारस मतलब ‘काशी का अस्सी’... बनारस के लिए सबसे जियादा मोहब्बत किसी ने पैदा की तो वह काशीनाथ सिंह ही होंगे। केदारनाथ सिंह की ‘बनारस’ कविता देखिए-
“कभी सई-साँझ
बिना किसी सूचना के
घुस जाओ इस शहर में
कभी आरती के आलोक में
इसे अचानक देखो
अद्भुत है इसकी बनावट
यह आधा जल में है
आधा मंत्र में
आधा फूल में है
आधा शव में
आधा नींद में है
आधा शंख में
अगर ध्यान से देखो
तो यह आधा है
और आधा नहीं है”
बनारस मतलब तुलसीराम की मणिकर्णिका। बनारस मतलब अदब की दुनिया के युवा-तुर्क सत्य व्यास और उनका ‘बनारस टॉकीज’। बनारस मतलब व्योमेश शुक्ल की ‘आग और पानी’। बनारस मतलब ‘द स्लो इंटरव्यू’ में संजय मिश्रा के बनारसी किस्से। बनारस मतलब सितारा देवी, गिरिजा देवी। बनारस मतलब पंडित रविशंकर। बनारस मतलब कंठे महाराज, किशन महाराज, गुदई महाराज। बनारस मतलब रसूलन बाई। बनारस मतलब बड़े-छोटे रामदास जी। बनारस मतलब पंडित राजन-साजन मिश्र... मेरे लिए ये सब बनारस है। बनारस मेरे लिए तीर्थ है, सांस्कृतिक तीर्थ। हमारे यहाँ तीर्थ वहाँ हैं जहाँ जल है, और बनारस में गंगा का जल है। बनारस में जो रस है वह कौनसा रस है? मेरा मन कहता है कि बनारस में जो रस है वह गंगा का ही रस (जल) है। गंगा है तो बनारस है।
22 जून की सुबह मैं और माणिक बनारस स्टेशन उतरे। हमारे दूसरे साथी बलदेव एक दिन पहिले शाम को ही बनारस आ पहुँचे थे। मडुआडीह, गोदौलिया, लंका... ये सब नाम अब तक किताबों में ही पढ़े थे आज साक्षात् दर्शन कर रहा था। मडुआडीह का नाम बदलकर अब बनारस स्टेशन कर दिया गया है। बलदेव ने लंका में ही एक गेस्टहाउस में तीन आदमियों के लिए एक कमरा बुक कर रखा था। ऑटो वाले ने बीएचयू के गेट पर ही उतारा। सामने महामना का स्टेच्यू था, उन्हें प्रणाम किया। बीएचयू को देखकर अभिभूत हुआ। गेस्टहाउस में सामान रखा, नहा-धोकर तरोताज़ा हुए। बाहर गर्म दिन था। गेस्टहाउस के कोने पर ही बेड़ई, आलू की सब्जी और जलेबी का नाश्ता किया। उदरपूर्ति के पश्चात् सारनाथ को प्रस्थान किया। गूगल मैप दिखा रहा था कि दस किमी की दूरी है लेकिन बनारस से सारनाथ के बीच कहीं लगा ही नहीं कि हम शहर से बाहर आए हैं। बनारस शहर ही सारनाथ तक आ गया। बनारस आने वाला व्यक्ति अमूमन सारनाथ जाता ही है। म्यूजियम का टिकट पाँच रुपए तथा मोनेस्ट्री का बीस रुपया है। टिकट ऑनलाइन बुक होता है जो आप बाहर ही क्यूआर कोड स्कैन कर हाथोंहाथ बुक कर सकते हैं। सबसे पहले हमने सुविधाओं का लाभ लिया। टॉयलेट बहुत साफ-सुथरे। साफ और ठंडा पीने का पानी। सार्वजानिक स्थानों पर गंदे टॉयलेट मेरे मन में वितृष्णा का भाव भर देते हैं जिससे सारा भक्तिभाव और गौरव भाव तिरोहित हो जाता है। म्यूजियम में घुसते ही अशोक स्तम्भ के दर्शन हुए। विशाल चतुर्मुख सिंह मन में ऐसा भाव भर रहे थे जिसे गर्व, औदात्य, विस्मय, देशप्रेम... कुछ भी नाम नहीं दिया जा सकता या सबका मिला-जुला भाव रहा होगा। म्यूजियम में बौद्ध काल की बलुआ पत्थर की अनेक प्रतिमाएँ व कलाकृतियाँ रखी थी। घूम-घूम कर हमने सब देखा। मोबाइल और कैमरा बाहर जमा कर लिया जाता है। ये अच्छी बात है। मेरा मानना है कि किसी भी मंदिर, म्यूजियम आदि में मोबाइल-कैमरा ले जाने की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए। आदमी का सारा ध्यान तो फोटोबाजी में ही लगा रहता है। म्यूजियम से बाहर आकर मोनेस्ट्री की ओर गए। एक विशाल स्तूप वर्तमान था शेष सब खंडहर। मैं और बलदेव फोटो लेने के मामले में लापरवाह हैं। माणिक ने हम दोनों के कुछ फोटो खींचे। सौहार्दवश मैंने भी माणिक के कुछ फोटो उतारे। माणिक फोटो नहीं खींचे तो हमें तो याद भी नहीं आए कि फोटो भी खींचने चाहिए। हमारी सबसे अधिक चाहना उस अश्वत्थ वृक्ष को देखने की थी जहाँ बुद्ध ने पाँच शिष्यों को उपदेश दिया। वह मोनेस्ट्री के बाहर है जहाँ कोई टिकट नहीं लगता। वहीं एक बौद्ध मंदिर भी है जिसमें बुद्ध की एक स्वर्णिम आभा लिए प्रतिमा है। मंदिर अभी बंद था। बाहर एक आदमी ने हमें लपका और बुनकर गाँव दिखाने की पेशकश की जहाँ हैंडमेड बनारसी साड़ियाँ बनती है। उसका असल उद्देश्य हमें साड़ी बेचना था। अन्दर न ले जाकर बाहर ही दुकान पर उसने हमें साड़ियाँ दिखाई। नमूने के लिए दुकान के एक कोने में ही कारीगर साड़ी बना रहा था। साड़ी हमें वहाँ से तो लेनी ही नहीं थी क्योंकि शुरुआत में ही उस लपके ने एक बात ऐसी कह दी जो मुझे चुभ गई। “ये बुनकर संघ का कारखाना है यहाँ आपको बढ़िया बनारसी साड़ी मिल जाएगी वो भी कम दाम पर। ये ही साड़ियाँ शो-रूम पर आपको दुगनी कीमत में मिलेंगी।” यहाँ तक तो बात ठीक थी लेकिन अगला वाक्य- “शहर में भी कुछ लोग आपको ऐसी जगह ले जाएँगे जहाँ हैण्डमेड साड़ियाँ बनती हैं लेकिन वे लोग मुसलमान हैं और मुसलमानों का तो आप जानते ही हैं।” सुनकर मैंने तय कर लिया कि यहाँ से तो साड़ी नहीं ही खरीदनी। देखकर लौट आए। लपका निराश हो गया। उसका कमीशन बना नहीं... आखिर तीन अध्यापकों को कौन लपका ठग सकता है? मंदिर खुलने में समय था सो हम वहाँ विश्राम के लिए बैठ गए। तभी बारिश आ गई। वहाँ छोटे बच्चों के लिए एक छोटा-सा चिड़ियाघर भी है। बुद्ध के यहाँ जीव-जंतु बंधन में?? तभी... आहा ! आनंद आ गया- भीषण गर्मी में बारिश राहत लेकर आई।
कुछ देर हमने इंतजार जिया। वक्त काटने को आइसक्रीम खाई। चूँकि हमारे पास समय कम था इसलिए हम भीगते हुए ही निकल पड़े। अश्वत्थ वृक्ष जैसा हमें दिखा वह तो बहुत ही नया था। निश्चित रूप से बुद्ध के समय का वृक्ष तो हो नहीं सकता था। बाद में लगाया गया होगा। उसके आगे उपदेश देते बुद्ध और पाँच प्यारे। वहाँ सर छुपाने की भी जगह नहीं थी। सो हम बौद्ध मंदिर की ओर दौड़ पड़े। बुद्ध की स्वर्णिम आभा की बहुत सुन्दर प्रतिमा थी। भारत में श्रमण परंपरा की दो बड़ी धाराएँ जैन और बौद्ध हैं। वैदिक कर्मकांड के विरोध में दोनों धाराएँ आईं। इनमें भी जैन परंपरा अधिक प्राचीन है। आज आस्तिक और नास्तिक से आशय ईश्वर में विश्वास और अविश्वास से लिया जाता है लेकिन मूल में इनका संबंध वेदों में विश्वास-अविश्वास से था। वेदों में आस्था रखने वाला आस्तिक और आस्था नहीं रखने वाला नास्तिक। आस्तिक ब्राह्मण कहलाए और नास्तिक श्रमण। दर्शन के स्तर पर यदि हम गहराई से देखेंगे तो पाएँगे कि बुद्ध से बड़ा वेदांती कौन? ये भेद भी हमारी स्थूल बुद्धि ने कर दिए हैं वरना बुद्ध, महावीर, शंकराचार्य, कबीर, नानक, बाबा फरीद... सब उस एक सत्य की ओर ही इशारा कर रहे हैं। “एकं सत् विप्रा बहुधा वदन्ति।” वस्तुतः भारत में श्रमण परंपरा वेदों से भी अधिक प्राचीन है। वैदिक मत के कर्मकांड के विरोध में ये दोनों धाराएँ स्थापित हुईं, ऐसा माना जाता है और आज इनमें भी वही कर्मकांड घुस गया है। असल में निर्गुण की आराधना या ब्रह्म के अस्तित्व का नकार व स्व-अस्तित्व में विश्वास मुश्किल काम है। यह हर आदमी के बस का रोग नहीं। हिंदू से जैन या बौद्ध बने लोगों को भी अहिंसा, करुणा, मैत्री, न्याय... “अप्प दीपो भव” कहाँ समझ आने वाला हुआ? सो, वहाँ भी राम-कृष्ण-शिव-हनुमान की तरह महावीर और बुद्ध की प्रतिमाएँ बना ली गईं। पूजा-आरती शुरू हो गई। अगले दिन कबीर चौरा में भी वही नजारा देखने को मिला। जहाँ बैठकर कबीर उपदेश करते थे उस जगह मंदिर बना दिया गया है। मंदिर में कबीर साहब की बड़ी तस्वीर लगी थी। नीचे पाटे पर घंटी, जलपात्र आदि रखे थे जिससे अनुमान लगा पा रहा था कि निश्चित रूप से सुबह-शाम आरती होती होगी। युवा संन्यासी मठ के मुख्य प्रबंधक को पुजारी जी कहकर संबोधित कर रहे थे... हमने महावीर, गौतम बुद्ध, कबीर, गाँधी सबका एक-सा हाल किया हुआ है। गाँधी को भूल गए, गाँधी की बकरी जिस लोहे की जंजीर से बंधी रहती थी उसे पकड़ कर बैठे हैं; उसे पूज रहे हैं। हमें निर्गुण-निराकार का अभ्यास ही नहीं, हमारा अभ्यास ही चालीसा और दो अगरबत्ती का है। ठोकी और चलते बनो। बौद्ध मत दुनियाभर में फैलता चला गया और जहाँ उद्गम हुआ वहाँ उसकी स्मृति-शेष मात्र है... बौद्ध टेंपल देखने के बाद हम ऑटो पकड़कर ही लमही निकल गए।
कथा सम्राट प्रेमचंद...हमारे पुरखे प्रेमचंद। घर बंद था। हमने बाहर से ही फोटो लिए। दीवार पर सूचना थी कि शाम साढ़े पाँच बजे रोज उनकी कहानियों का पाठ होता है। सड़क के दूसरी ओर स्मारक बना है। वहाँ भी सूचना थी कि दोपहर (शायद) दो या तीन बजे बंद हो जाता है। घड़ी साढ़े तीन बजा रही थी। कुछ भूख भी लगी थी। एक दुकान पर एक-एक समोसा और एक-एक राजभोग का भोग लगाने के बाद हम बनारस की ओर लौटे। ऑटो वाले ने हमें मैदागिन चौराहे पर उतारा। मैदागिन चौराहे से बाबा विश्वनाथ की ओर बढ़ने पर बायीं ओर महाराजा अग्रसेन की सिंहासन पर विराजमान भव्य प्रतिमा लगी थी। वहाँ से पैदल चले। कार, ऑटोरिक्शा, ई-रिक्शा आदि की इधर मनाही है। बाइक या साइकिल-रिक्शा से जा सकते हैं। हम पैदल ही चले। बीच में एक जगह लस्सी पी। ऊपर गर्ल्स कॉलेज, नीचे लस्सी की दुकान। कोई तुक बैठी क्या? नहीं...कोई बात नहीं। मंदिर पहुँचे। गेट नम्बर चार लिखा था। मोबाइल-पर्स बाहर जमा करना होगा।
“अभी डिप्टी सीएम साब दर्शन को आए हैं, वेट कीजिए।”
“कितना वेट?
“आधा घंटा...। गेट नम्बर तीन से जाइए। नया कॉरिडोर उधर बना है। घूमना-फिरना, खाना-पीना सब कुछ है उधर।”
“कॉरिडोर नहीं घूमना, बाबा से सीधे मुलाकात करनी है।”
“तो वीआईपी दर्शन कीजिए, तीन सौ रुपए का टिकट है। पंद्रह मिनट में दर्शन हो जाएँगे।”
“हमारे पास बहुत समय है। फ्री में दर्शन करेंगे...। फिर दर्शन में कितना टाइम लग जाएगा?”
“कम से कम पैंतालिस मिनट।”
“छोड़ो यार ! बाबा को छोड़ो। मैया (गंगा) से मिलेंगे।”
तीनों एक स्वर में बोले- “मणिकर्णिका किधर से जाएँ?”
“उधर से...”
बनारस के लिए हम तीनों में एक चाहत सामान थी- मणिकर्णिका घाट देखना है।
मुमुक्षुओं की शरणस्थली मणिकर्णिका। गंगा की साक्षी में मणिकर्णिका घाट पर अनवरत जलती चिताएँ। बाबा के धारण करने से पवित्र हुई मुर्दों की वह राख ही भभूत बनकर हम सबके मस्तक पर सुशोभित होती है। काशी मोक्षदायिनी है... यहाँ मृत्यु की प्रतीक्षा में बैठे अनेक मुमुक्षु हैं। मौत है कि छका रही है। चार दिन की सोचकर आए थे कि काशी में मरे और मोक्ष... और इधर चार साल होने को आए। मौत है कि आती नहीं। “ठगनी क्यों नैना झमकावै, ठगिनी।” इसी ठगिनी को चीन्हने वाला काशी का ही एक नागरिक अपनी भुजाएँ उठाकर कहता है- “गंगा में नहाए को नर तरिगे, मछली न तरी जाको गंगा में घर है।” मगहर जिसके लिए कहा जाता था कि वहाँ जिसे मृत्यु आती है वह नरक में ही जाता है। कबीर कहते हैं- “मैं मगहर में जाकर ही देह त्याग करूँगा।” धार के विपरीत चलने वाले उस फक्खड़ का कैसा तो कलेजा रहा होगा?
मणिकर्णिका पर सब कुछ यंत्रवत चल रहा था। लकड़ी वाले लकड़ी जमा रहे हैं। सफाई वाले सफाई में मगन हैं। पंद्रह-बीस काली और पुष्ट देहें शवों की राख को गंगाजल में छानकर कोयले अलग कर रहे हैं। डोम अधजले शव को बाँस से आग में ठेल रहे हैं। परिजन कतारबद्ध हो एक ओर शांत बैठे हैं। कुछ युवा वीडियो बना रहे हैं। एक लम्बे कद का फिरंगी किसी गाइड के साथ ऊपर झरोखे में खड़ा हो नया जीवन-दर्शन पा रहा है। शव के परिजन नए शव को लाकर पहले गंगा में स्नान करा रहे हैं। हमारे सामने ही चार शव आए। एक शव किसी युवा का था। परिजन भी सब युवा ही। उन्होंने शव को गंगा स्नान नहीं कराया बल्कि गंगा से अंजुली भर-भर कर तीन-तीन बार उसके मुँह में आचमन कराया। युवा शव के चेहरे पर करीने सजी हलकी दाढ़ी थी। उस पर गुलाल का श्रृंगार। माणिक ने बरबस उसकी ओर ध्यान दिलाया तो वह चेहरा मेरे जेहन में घर कर गया और पीछे घर में बिलखते माँ-बाप व बहनों की एक काल्पनिक छवि मेरी आँखों में तैरने लगी। दो दिन बनारस में रहा तब तक उस युवा शव का चेहरा मेरी आँखों में ही तैरता रहा। हम आगे बढ़े। एक-दो नाव वालों से बात हुई लेकिन सौदा पटा नहीं। एक किशोर से हमने खूब बारगेनिंग की लेकिन बात नहीं बनी। उसने कहा कि जिस नाव वाले ने सबसे पहले आपको आवाज दी, आप उसके ही ग्राहक हुए। अब दूसरा कोई आपको लेकर जाएगा तो उसे आवाज देने वाले को कमीशन देना होगा।
“ऐसा क्यूँ?”
“यहाँ ऐसा ही नियम है।”
“कितना कमीशन देना होता है?”
“ये नहीं बता सकते।”
हम आगे के घाटों को पार करते दशाश्वमेध घाट पहुँचे। यहाँ शाम की गंगा आरती फेमस है। आरती के लिए रुकने का हमारे पास समय नहीं था। किसी ने सलाह दी कि शाम में दशाश्वमेध की आरती देख लीजिए या तड़के असी घाट की आरती। हमने सुबह की आरती देखने का निश्चय किया। बाहर से अस्थि-विसर्जन के लिए आने वाले यात्रियों का जमावड़ा इस घाट पर था। एल्युमिनियम या प्लास्टिक की बोतलों में गंगाजल लिए और माथे पर गंगा-माटी का चन्दन लगाए मृत-आत्माओं के शांत-क्लांत परिजन। अब हम भी बहुत थक चुके थे। हमें चाय की तलब हो रही थी। घाट से बाहर निकलकर एक बढ़िया चाय की दुकान ढूँढी। बड़े कुल्हड़ में कोयले की सिगड़ी पर पीतल के भगोने में पकी कम चीनी व ताजे दूध की गाढ़ी चाय पी। वाह ! मजा आ गया। सारी थकान छू-मंतर। अब हमें यहाँ की एक स्थानीय दोस्त प्रतीक्षा से मिलना था। जो सुबह से अपने काम में व्यस्त थीं इसलिए शाम छह बजे मिलना नक्की किया हुआ था। असल में हम प्रतीक्षा की प्रतीक्षा में थे और प्रतीक्षा हमारी प्रतीक्षा में थी।
दशाश्वमेध घाट पर चाय पीते हुए हमने प्रतीक्षा को फोन लगाया। प्रतीक्षा माणिक की मित्र हैं। दोनों स्पिक मैके में मिले थे। प्रतीक्षा से मेरा परिचय अभी तक व्हाट्सअप चैट तक ही था। वह मेरी डायरी की नियमित पाठक हैं। जब हमने बताया कि हम बनारस आ रहे हैं तो वह खासा उत्साहित थी मिलने को। अभी वह यूनिवर्सिटी से लौटकर कुछ खा-पी रही थीं। बोली- दस मिनट बाद फलां जगह (नाम भूल रहा हूँ) मिलिए। हमने गूगल मैप से देखा जगह डेढ़ किमी दूर थी। रिक्शे वाले ने कहा कि डेढ़ सौ रुपया लगेगा क्यूँकि घूमकर आना पड़ेगा, इधर वन-वे हो रहा है। भीड़-भाड़ देखते हुए हमने पैदल चलने का निर्णय लिया। और संयोग से अब हम बनारस की गलियों में दाखिल हुए। बेहद संकरी गलियाँ, दोनों और मकान। घाट से नजदीक है तो दुकानें भी। कई जगह तो इतनी संकरी गली है कि एक मोटरसाइकिल आ जाए तो पैदल चलने वाले को भी साइड में दबकर खड़ा होना पड़े। दीखने में ही आभास हो रहा था- स्लो लाइफ जीते मस्त, बेपरवाह लोग। एक दुकान में तोंदिल आदमी बाल छंटाने के लिए कुर्सी पर बैठा ऊंघ रहा था, संभवतः भंग के नशे में हो; नाई जी खैनी मल रहे थे। दुकानदार और ग्राहक दोनों को ही कोई जल्दी नहीं। घरों में ही छोटे-छोटे अनेक मंदिर। मंदिरों के मुटियाए पुजारी। गाय बेपरवाह खड़ी है उसे भी रास्ता देने की जल्दी नहीं। नंदी से तो टस से मस होने की उम्मीद ही मत करिए। “सैंया भए कोतवाल...” जैसा मामला समझिए। हमने रास्ता देने के लिए कातर भाव से नंदी की ओर देखा तो हमारी ओर इस एटीट्यूड से झाँके कि “ससुर भोले बाबा यहाँ के मालिक हैं फिर काहे हम फैलकर चौड़े न हों, जाओ बे... साइड से निकलकर चुपचाप।” हम खिसियाकर मुस्कराए और पतली गली से निकल लिए। एक चौराहे पर प्रतीक्षा मिली। जैसा स्टेटस में देखता था ठीक वैसी बिंदास लड़की। दरमियाना कद, घुँघराले बाल, चौड़ी दन्तुरित मुस्कान। वह हमें एक और लंबी गली में ले गई। घर अच्छे से थे। गली में छोटे-छोटे बच्चे कुर्ता-पायजामा पहने और सर पर टोपी पहने खेल रहे थे इससे आभास हुआ मुस्लिम मौहल्ला है। हम जल्द एक दुकान पर खड़े थे। मालिक ने प्रतीक्षा से दुआ-सलाम की। मुस्करा कर हमारा भी अभिवादन किया। उनकी बातचीत से लगा परिचय पुराना है। अन्दर दाखिल हुए। दरवाजे पर प्लास्टिक की शीट गिरी थी भीतर एसी चल रहा था। उमस और गर्मी से राहत मिली। यह बनारसी साड़ियों की दुकान थी। दुकानदार ने बताया कि पीछे ही उनका घर है जहाँ एक हिस्से में कारखाना लगा है। प्रतीक्षा ने हमारी पत्नियों के लिए साड़ियाँ पसंद की। अपने काँधे पर लपेटकर दिखाया भी कि कैसा गेटअप आएगा। मोलभाव भी किया और हमें अच्छी साड़ियाँ दिला दी। फिर हमें कारखाने में ले गई। वहाँ काम कर रहे कारीगर ने बताया कि जिस तरह की हलकी साड़ियाँ हमने ली हैं वैसी साड़ी दिन की एक बना देते हैं जबकि एक भारी साड़ी बनाने में सात से आठ दिन लगते हैं। ताना-बाना देख मुझे हठात कबीर याद आ गए। बाहर आकर हमने रिक्शा पकड़ा। इस बीच बारिश में भीग जाने से बलदेव की जूतियाँ टूट गई तो उनको बाटा के शोरूम से चप्पलें दिलाई। अब हम प्रतीक्षा के हवाले थे। हमने कहा- “जहाँ चलना चाहो, वहाँ चलो।” सबसे पहले उसने हमें मैंगो ज्यूस पिलाया। लंगड़े आम का ज्यूस था खट्टा-मीठा, लाजवाब। फिर वह हमें काशी चाट भंडार ले गई। भीड़ बहुत थी, हमने अपनी बारी का इंतजार किया। प्रतीक्षा ने अपनी फेवरेट टमाटर चाट आर्डर की। सबने एक-एक प्लेट खाई। अद्भुत स्वाद था। फिर एक-एक प्लेट दही-बड़ा। इतने में ही हमारा पेट भर गया। फिर कुछ पैदल चले। बाजार रौशन था, गुलज़ार था। आगे चलकर हमने लंका के लिए ऑटो लिया। प्रतीक्षा मूलतः लखनऊ की हैं लेकिन अब बनारसी रंग में रंगने लगी हैं। हँसते हुए बता रही थीं कि कुछ दिन पहले भीड़भाड़ के चलते कोई उससे टकरा गया और सुबह-सुबह उससे बहस हो गई। वह बोला- “मैं कोई भो_ ड़ी वाला हूँ क्या?” मैंने भी कह दिया- होगा भो_ ड़ी वाला, तभी तो कह रहा है। गलती तुम्हारी है।” लंका पहुँचकर अपने फेवरेट THE BREW BERRY CAFÉ पर उसने हमें कोल्ड कॉफ़ी पिलवाई। फिर हम देर तक बातें करते रहे। उसने अपने बारे में बताया। मैंने और बलदेव ने अपने बारे में। माणिक और वह तो पहले से एक-दूसरे को जानते ही थे। बीएचयू की तमाम मुश्किलें बताई। हम बातें करते हुए गेट पर आ गए। उसके हॉस्टल में लौटने का सामान्य समय यानी नौ बजे तो कब का बीत चुका था। उसे आज लेट एंट्री करनी होगी। महीने में तीन लेट एंट्री अलाऊ है। हमें लग ही नहीं रहा था कि पहली बार मिले हैं। उसने भी कहा कि उसे भी ऐसा ही लग रहा है। साढ़े दस बज गए थे। हमने उसे बरबस धकेला हालाँकि हमें पता था कि कल हम मिल नहीं मिल पाएँगे। और हम गेस्टहाउस लौट आए। बातें करते हुए बारह बज गए। हम सबको नींद आ रही थी। पिछली रात भी ट्रेन में ठीक से सो नहीं पाए थे लेकिन फिर इकट्ठे न जाने कब मिलना हो तो हम इस पूरे ट्यूर को कैश करना चाह रहे थे। बलदेव लुढ़क गया। मैं बोलता रहा और देखा कि माणिक भी सो चुका है। मोबाइल में अलार्म लगाकर मैं सो गया। सुबह गंगा आरती में जाना था। उन दोनों के रूपक नहीं लग रहे थे कि सुबह जल्दी उठ जाएँगे।
सुबह सवा चार बजे के आसपास पांच मिनट के अंतराल से मैंने दो अलार्म लगाए थे। पहला बजा तो माणिक ने बंद कर दिया। दूसरे से मेरी नींद खुली। बदन दर्द कर रहा था, आँखें भी भारी थी लेकिन सो तो फिर लेंगे, बनारस में हैं तो गंगा आरती को क्यूँ मिस करें। माणिक एक बार कहने में झट उठ बैठे। बलदेव को तैयार करने में कई जतन करने पड़े। पौने पांच बज चुके थे। शौचादि से निवृत्त हो हम चल पड़े। बाहर निकलते ही थोड़ा पैदल चले लेकिन समय हो गया था और गंगा आरती मिस नहीं करना चाहते थे इसलिए हमने ऑटो पकड़ा। दस रुपए प्रति सवारी की दर से तय कर हम अस्सी घाट पहुँचे। आरती शुरू हो गई थी। आरती देखने काफी लोग इकठ्ठा थे। आठ-दस युवा पुजारी आरती में आरती कर रहे थे लेकिन उनमें आपसी तालमेल और रिदम का अभाव था। एक और यज्ञ मंडप में हवन चल रहा था। आरती व यज्ञ का मंत्रोच्चार किसी गुरुकुल की छात्राओं द्वारा किया जा रहा था। किशोर वय की पाँचों लड़कियाँ साड़ी में अत्यंत गरिमामयी दिखाई दे रही थी। उनका उच्चारण एकदम स्पष्ट और सस्वर। आरती के बाद हम एक बड़ी नाव में बैठकर गंगा के उस तट की ओर चले गए। उस पार जाकर जब हमारी नाव रुकी तब बनारस के किसी आसपास के गाँव से आया एक परिवार छोटे बच्चे के निमित्त उसकी माँ से गंगा का पूजन-अर्चन करा रहा था। उसके बाद परिवार की बड़ी औरतों ने मांगलिक गीत गाए। बच्चे की माँ बड़ी भावपूर्ण थी और बच्चे के निमित्त हुई पूजा से पूर्ण संतुष्ट दिखाई दे रही थी। एक माँ दूजी माँ से प्रार्थनारत थी। नाव वाले ने आधे घंटे का समय दिया था सो हम कपड़े उतारकर नहाने लगे। सुबह के छह बजे भी जल की उष्णता महसूस की जा सकती थी। हरिद्वार में तो भर गर्मी में भी आप गंगा में डुबकी लगाइए, जल की शीतलता से देह झंकृत हो उठेगी। स्नान में आनंद की अनुभूति नहीं हुई। नाव वाले ने आवाज दी तो लौटना पड़ा। इस पार आए तो देखा कि घाट पर ही एक सज्जन स्टेज पर बैठकर योग-प्राणायाम करवा रहे हैं, नीचे कोई सौ के आसपास स्त्री-पुरुष, बाल-वृद्ध भाव से योग कर रहे हैं। इनमें पाँच-सात विदेशी श्रृद्धालु भी थे जो अधिक भावपूर्ण दिखाई पड़ रहे थे। संभवतः यहाँ की विश्रांति से अधिक आनंदित अनुभव कर रहे थे। हम गेस्टहाउस लौटे। बलदेव दोपहर बाद चला जाएगा। महीनों से प्रतीक्षित इस यात्रा का अब काउंट-डाउन शुरू हो गया। कुछ घंटों बाद हम सब अलग-अलग हो जाएँगे। बलदेव से अब कब मिलना होगा? इन सब भावों के उतार-चढ़ाव के बीच हम बातें भी करते रहे और एक-एक कर नहाते भी रहे। गेस्टहाउस का कमरा अच्छा है लेकिन टॉयलेट/वाशरूम साफ-सुथरा नहीं है। प्रतीक्षा ने कहा कि “अभी ऑफ सीजन है ऐसे में सत्रह सौ पर-डे के हिसाब से आपने महँगा कमरा लिया है।” अब बलदेव ठहरा चार्वाक-पंथी, सो जो मिल गया, जितने में मिल गया, ठीक है। “पैसे का क्या है? हमीं कमाते हैं, हमीं खर्च करते हैं।” पानी भी उसे जहाँ जैसा मिलता है, पी लेता है। कहता है- “भाई जी, जल में के मळ? मिल तो रहा है अभी। क्या पता कल ये भी नसीब न हो।” बारी-बारी से हम स्नानादि से निवृत्त होते रहे और बातों के लच्छे बनाते रहे। माणिक मेरे रसभीने किस्सों और बलदेव-दर्शन से आह्लादित हो रहे थे। संसार के सब दर्शनों के नकार का बलदेव का अपना दर्शन है। बलदेव का कहना है कि “इन बड़े-बड़े दर्शनों में क्यों माथा मचाया जाए? मेरे गाँव के गड़रिये, हल जोतते किसान, समूह में दीर्घशंका जाती औरतों, निंदा-रस में पगी वृद्धाओं और हताई पर बैठकर हुक्का गुड़गुड़ाते बुजुर्गों के पास भी जीवन-दर्शन है। कल की फ़िक्र किए बिना जिस बेफिक्री और सहजता से वे जीते हैं उसे देखकर मुझे लगता है कि इससे बढ़िया जीवन का और क्या फ़लसफ़ा होगा?”
सज-धजकर हम यात्रा के अगले पड़ाव तुलसी मानस मंदिर, संकटमोचन हनुमान और बीएचयू के लिए गेस्टहाउस से नीचे उतरे। लंका से कुछ आगे बढ़े तो राजस्थान स्वीट्स नाम की एक दुकान बाईं ओर दिखी। बाहर देशी घी की गर्म जलेबियाँ छन रही थीं। जलेबियों ने मुझे आगे नहीं बढ़ने दिया। खानपान के मामले में ‘अंधों में काना राजा’ की मेरी श्रेष्ठता को स्वीकार करते हुए वे दोनों इसकी कमान मेरे हाथों में सौंप अनुचर की भांति पीछे-पीछे चले आए। मस्सों की बीमारी से उबरे माणिक ने अभी चाय, कचोरी-समोसा व गरिष्ठ भोजन से परहेज किया हुआ है। सो मैंने एक-एक प्लेट खम्मन, खांडवी, प्याज कचोरी और जलेबी का वैविध्य भरा नाश्ता आर्डर किया। माणिक ने थोड़ा ही खाया शेष हमने उदरस्थ किया। बलदेव ने दुकानदार से मारवाड़ी में बातचीत शुरू की जिसका लब्बोलुआब यह था कि वे करीब पैंतीस साल से बनारस में नमकीन का व्यापार कर रहे हैं। पिछले कुछ सालों से मिठाइयाँ बनानी भी शुरू की है। नाश्ता कर आगे बढ़े तो देखा कि रविदास गेट के सामने ‘चाची की दुकान’ नाम्ना दुकान पर भारी भीड़ लगी है। पास से देखा तो परंपरागत बेड़ई,-पूड़ी-जलेबी के नाश्ते के लिए भीड़ जुटी है। चूँकि ये हम कल खा चुके थे और अभी नाश्ता किया ही था इसलिए हम उसे इग्नोर कर आगे बढ़े। ई-रिक्शा पकड़ा और संकटमोचन पहुँचे। मंदिर के गेट पर ही मोबाइल, बैग आदि रखवा लिए गए। बढ़िया व्यवस्था है। पिछले दिनों किसी ने फेसबुक पर लिखा कि “यदि केदारनाथ जाने वालों के फोन नीचे ही जमा कर लिए जाएँ तो जाने वालों की संख्या आधी रह जाएगी।” आदमी कहीं भी जाता है तो पूरा ध्यान बस फोटो खींचने-खिंचाने में लगा रहता है। वह देवदर्शन या प्राकृतिक सुषमा का आनंद ही नहीं उठा पाता, न वहाँ की स्थानिकता का परिचय पाता है। बस अपने चेक बॉक्स में एक टिक लगा खुश होता है कि हम फलां जगह भी जा आए। यात्रा से जो अनुभव मिलता है उससे वंचित ही रह जाता है। मेन गेट से मुख्य मंदिर के रास्ते के दोनों और पेड़ थे। हनुमान की प्रतिमा बहुत सुन्दर और मनहर थी और साथ ही पीछे एक बरामदे में चल रहा जीवंत संगीत वातावरण को और आनंददायी बना रहा था। बाहर निकलकर हम तुलसी मानस मंदिर गए। तेज धूप ने हमारी मुश्किलें थोड़ी बढ़ा रखी थीं लेकिन हम तीनों ही धुन के पक्के। आशीष त्रिपाठी सर से बलदेव की बात हो गई सो हम जा पहुँचे विश्व-विख्यात बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय। बीएचयू का हिंदी विभाग जिसे आचार्य रामचंद्र शुक्ल जैसे महनीय व्यक्तित्वों ने गढ़ा। हम आशीष जी के चैम्बर में पँहुचे, वे अपने तीन-चार स्कॉलर्स से कुछ बातचीत कर रहे थे या पढ़ा रहे थे। हमारे जाते ही उन्होंने छात्रों को विदा किया और हमसे मुख़ातिब हुए। आठ बाई पाँच का एक छोटा-सा कमरा। आशीष जी ने नामवर जी पर बड़ा काम किया है, कर रहे हैं लेकिन इत्ता बड़ा काम करने वाले आदमी को जगह इत्ती छोटी दी गई है। वजह वही ऑफिस पॉलिटिक्स होगी शायद। कुर्सियाँ आगे-पीछे कर जगह बनाकर हम बैठे। सर ने चाय मँगवाई, अपने बैग से निकलकर पार्ले क्रेक-जैक बिस्किट खिलाए। संगमन पर, प्रियंवद जी पर, बनास जन पर, पल्लव पर... और कुछ दूसरे साहित्यिक मुद्दों पर बात हुई। “मुझे बनारस में रहते इतने बरस हो गए लेकिन पता नहीं कब बनारस मुझे अपना मानेगा?” आशीष जी सौम्य और मृदु स्वभाव के हैं। उनसे विदा लेकर हम विभाग के ही दूसरे युवा साथी से मिलने पहुँचे। उन्होंने विभाग और विश्वविद्यालय की राजनीति को बहुत विस्तार से बताया। ये सब सुनकर मन खट्टा हो गया। लब्बोलुआब था कि विश्वविद्यालय में ब्राह्मणवाद और स्थानीयता, ये दो मुद्दे फैकल्टी के चयन से लेकर हर चीज में हावी रहते हैं। विश्वविद्यालय क्या इसलिए बनाए गए हैं? क्या बनारसियों का दिल इतना तंग है कि बाहरियों को अपना नहीं पाता?
गेट पर आए तो अब लगा कि खाना खा लेना चाहिए। बलदेव ने एक एसी रेस्टोरेंट की ओर इशारा किया। अभी हमें खाने की कम ठंडी की तलब ज्यादा लगी थी। भोजनोपरांत बाहर निकलकर देखा तो दो-तीन पान की दुकानें थीं। बनारस आएँ और पान न खाएँ, ऐसा हो सकता है? सो, तीन पान बंधवा लिए। एक सिगरेट भी ले ली। बलदेव और मेरा मिलन सिगरेट बिना पूरा नहीं होता। यूँ मैं सिगरेट को छह महिने हाथ न लगाऊँ लेकिन हम मिलते हैं तो साथ में एक-दो कश लगा लेते हैं। लेकिन पान ने तो हमारा धुआँ निकाल दिया। कमरे पर पहुँच कर हमने थोड़ी देर आराम किया। बलदेव को निकलना था। उसकी ट्रेन थी। थोड़ी देर वह उठकर जाने लगा तो मन किया कि गले लग जाऊं। पर नहीं लगा। मन भारी हो गया था। अब पता नहीं कब मिलना हो? लेकिन खुद को जज़्ब किया। थोड़ी देर बाद अब हमने भी सामान पैक किया और निकल लिए। हमारा अगला पड़ाव था- कबीर चौरा। खोजते हुए कबीर के घर और मूल गादी पहुँचे। घर बंद था। मठ गए। कबीर मठ को मंदिरनुमा ही बना दिया गया है। बीचोंबीच के मुख्य मंदिर में कबीर साहब की एक फोटो लगी है। कबीर ने जिस कर्मकांड का सदा विरोध किया वह अब उनके यहाँ भी घर कर गया था। धर्म का सांगठनिक रूप सदैव विनाशकारी होता है। पंथ बना नहीं कि समझो मूल की हत्या हुई। ‘वाद’ विचार का हन्ता है। जब भी कोई विचार ‘वाद’ में बदला कि उसका विनाश ही समझो। बाहर से आए कुछ कबीरपंथी मंदिर के अहाते में बोल-बतिया रहे थे। कबीर के जीवन से जुड़ी कुछ सत्य घटनाएँ और कुछ किम्वदंतियाँ साइन बोर्ड पर लिखी हुई थीं। बाहर निकले तो वहीं आसपास कुछ संगीतकारों के घर थे। फिर हम विश्वनाथ की ओर गए लेकिन मंदिर में फिर नहीं गए, समय कम था। विश्वनाथ के बाहर कुछ मिठाइयों की दुकानें थीं। एक दुकान से लौंगलता खाई, मन खराब हो गया; इससे बढ़िया तो जोधपुर की मावा-कचौरी है। अब परवल की मिठाई की तलाश शुरू हुई। खोजते हुए हम वहाँ की एक प्रसिद्द दुकान ‘रसवंती’ पर पहुँचे। परवल की मिठाई के अलावा दो और मिठाइयाँ सलेक्ट की। सबके एक-एक पीस चखे। अंत में नमस्कार कर वहाँ से चल पड़े। इनसे बढ़िया मिठाई हमारे कस्बे में ही मिल जाती है। खैर, सब शौक-मौज पूरी कर हम स्टेशन की और दौड़े। प्लेटफोर्म पाँच पर पहुँचे। भारी भीड़ और भारी उमस ने हाल ख़राब कर दिया। वापसी का रिजर्वेशन भी स्लीपर क्लास में था तिस पे ट्रेन लेट। अंत में ट्रेन आई, हम चढ़े, ट्रेन से रेंगना शुरू किया। हवा लगी तब जान में जान आई। तभी प्रतीक्षा का फोन आया। वह माफ़ी माँग रही थी कि वह आज हमारे साथ नहीं रह सकी। हमने प्रतीक्षा का शुक्रिया अदा किया। कल शाम से रात ग्यारह बजे तक वह हमारे साथ थी। उसके संग-साथ से ही हम अच्छी बनारसी साड़ियाँ खरीद सके, टमाटर चाट खा सके, कोल्ड कॉफ़ी पी सके, कहकहे लगा सके, छिछोरेपन को कुछ देर के लिए ही सही जी सके।
शुक्रिया प्रतीक्षा, शुक्रिया बनारस।
डॉ. विष्णु कुमार शर्मा
बिचलेश्वर महादेव के पीछे, शिक्षक कॉलोनी, गुप्तेश्वर रोड, दौसा
Vishu.upadhyai@gmail.com, 9887414614
संक्षिप्त परिचय - डॉ. विष्णु कुमार शर्मा राजस्थान के दौसा जिले के स्व. राजेश पायलट राजकीय महाविद्यालय बांदीकुई में सहायक आचार्य, हिंदी के पद पर कार्यरत हैं। ‘प्रियंवद के कथा साहित्य में स्त्री : एक अध्ययन’ विषय पर पीएचडी। विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं यथा ‘अपनी माटी’, समवेत, मधुमती आदि में डायरी, संस्मरण, यात्रा वृत्तान्त, शोधलेखों का प्रकाशन व विभिन्न सेमिनारों में पत्र वाचन। साल 2022 में चित्तौड़गढ़, राजस्थान में आयोजित 24 वें ‘संगमन’ के स्थानीय संयोजक रहे। ‘अपनी माटी’ ई-पत्रिका के सह-संपादक हैं।
चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक ई-पत्रिका
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-52, अप्रैल-जून, 2024 UGC Care Listed Issue
सम्पादक-द्वय : माणिक-जितेन्द्र यादव चित्रांकन : भीम सिंह (इलाहाबाद विश्वविद्यालय)
'अपनी माटी'के बावनवें अंक में अगर सबसे पहले पढ़ने लायक़ कोई रचना है तो वह है युवा लेखक डॉ. विष्णु कुमार शर्मा की डायरी जिसमें बनारस की यात्रा का सरस वर्णन है। शैली रोचक और खुल्लम-खुल्ली है। एक ही हाँप के बगैर पढ़ जाए जैसा गद्य। आंकड़े एकदम सटीक और पूरे इतिहासबोध के साथ एक शहर जन्मता है इस रचना है में। शहरनामा है या दोस्तीनामा। फ़र्क़ मुश्किल है। हालांकि मैं इसमें शामिल हूँ जिसकी खिंचाई अपेक्षा से कम की गयी है। यह लाग-लपेट अच्छा नहीं। आगे से उधेड़कर लिखना सीखिएगा। बहुत डिटेल्स संभालकर रची है। मान गए उस्ताद। कुछ दशक बाद ऐसी रचनाओं के कारण विष्णु को आँका जाएगा। इन्हीं इच्छाओं के साथ अगले अंक में आपकी हिमाचल यात्रा की डायरी पढ़ने का मन बना रहा हूँ। " - माणिक, संपादक 'अपनी माटी'
जवाब देंहटाएंअद्भुत रचना✨️
जवाब देंहटाएंऐसा प्रवाह! अद्भुत, अनुपम। जकड़कर रखनेवाला।
जवाब देंहटाएंडायरी मतलब ’अफ़लातून की डायरी’। इसे मैं अपनी दुर्बलता मानूंगा कि अफ़लातून की डायरी पढ़ते ही बनारस के लिए निकला नहीं हूं। अगर मन का करने की हिम्मत होती तो सारे नियम, सारे एग्जाम धरे के धरे रहते और मैं बनारस के लिए निकल लेता। शुक्रिया ये सब लिखने के लिए, मन पर घूमने का स्वाद रखने के लिए शुक्रिया।
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