शोध आलेख : भारतीय समाज और हाशिए के सवाल / चन्दन कुमार

भारतीय समाज और हाशिए के सवाल
- चन्दन कुमार

शोध सार : हाशिए पर डाल दिया गया समाज हमेशा से संसाधनों से वंचित रहा है। आज भी वह वंचना का शिकार है। साहित्य में भी वह हाशिए पर ही रहा है। कलम इनके पास नहीं रही जिसके कारण अपनी बात कहने में अक्षम थे। जिनके पास कलम थी वे अपना बचाव करते हुए इनके ऊपर लिखने का काम किए। आज समय बदला है लोकतंत्र ने पढ़ाई-लिखाई तक लोगों की पहुंच बढ़ायी है। आज हाशिए का समाज भी पढ़-लिख रहा है और अपनी अनुभूतियों को अपने ढंग से कह रहा है। जिसके कारण उन पर तमाम आरोप लगते रहे हैं। हाशिए का लेखन मुक्कमल तौर पर मनुष्यता का लेखन है। यह लेखन मनुष्य के बीच विद्यमान तमाम तरीके के शोषण का खात्मा चाहता है। कुल मिलाकर यह लेखन मानवीय संबंधों पर आधारित है। मुख्य धारा के साहित्य से आज उसके कई सारे सवाल हैं। प्रस्तुत आलेख में भारतीय समाज के ढांचे पर बातचीत की गई है। साथ ही साथ हाशिए के समाज के महत्वपूर्ण सवालों के जरिए भारतीय समाज की मानसिकता को परखने की कोशिश भी की गई है।

बीज शब्द : हाशिए का समाज, भारतीय समाज, पितृसत्ता, पूंजीवाद, सामंतवाद, जाति, श्रेष्ठता, दलित, आदिवासी, स्त्रियां, उदारीकरण, ब्राह्मणवादी पितृसत्ता।

मूल आलेख : कई सारे लोग सवाल करते हैं कि आज साहित्य ज्यादा कमजोर हुआ है। आये दिन यह सवाल उठता रहा है कि साहित्य में दलित साहित्य, स्त्री साहित्य, आदिवासी साहित्य की आवश्यकता क्यों हैं? जब मुख्यधारा में इनकी आवाज उठती रही है तो फिर इस तरह का लेखन क्यों? इन सारे सवालों के तह तक जाने की आवश्यकता है। एक तो यह कि हिंदी में  जो भी रचनाकार या आलोचक हुए हैं, और हैं भी उनकी दृष्टि क्या है? इस पर भी विचार की आवश्यकता है। जब हम लोकतंत्र कहते हैं तो लोकतान्त्रिक मूल्यों की भी बात करते हैं और किसी भी रचनाकार को इन्हीं मूल्यों पर कसने की कोशिश करते हैं। यह तो सत्य है कि जो कोई भी आलोचक है उसका अपना समाज है, संस्कृति है और संस्कार हैं। भारतीय समाज श्रेष्ठता बोध पर आधारित है। ऐसे तमाम लोग अपनी श्रेष्ठता को बनाये और बचाये रखने के लिए लोकतान्त्रिक मूल्यों की अवहेलना करते हैं। अब सीधे तौर पर कुछ उदाहरणों से बात की जाय, आचार्य रामचंद्र शुक्ल सिद्ध साहित्य, नाथ साहित्य और निर्गुण धारा के कवियों की रचनाओं को सांप्रदायिक साहित्य कहकर ख़ारिज करते हैं। लेकिन आप यदि गहनता से अध्ययन करें तो पाएंगे कि ये सारे रचनाकार लोकतान्त्रिक मूल्यों की स्थापना की बात करते हैं जैसे रैदास कहते हैं-

" ऐसो चाहो राज में, मिलै सभन को अन्न।
छोटे बड़ो सब सम बसै, रविदास रहे प्रसन्न।।"1

                 तो ऐसे में रामचंद्र शुक्ल की सामन्तवादी दृष्टिकोण को भी समझा जा सकता है। आने वाले बाद के आलोचक इस दृष्टि पर प्रश्नचिह्न तो खड़ा ही करेंगे। जैसे आज यह आम धारणा विकसित कर दी गयी है कि कलयुग चल रहा है। मतलब की निचले तपके की जातियों के जीवन स्तर में सुधार हुआ तो जन्मना श्रेष्ठ लोगों को नागवार लगना ही है। इसी तरह हिंदी साहित्य में जबसे विमर्शों का दौर शुरू हुआ है  तब से यह गाहे- बगाहे आवाज आ रही कि सब कूड़ा लिखा जा रहा है। जब अधीनस्थ जातियाँ अपनी अनुभूतियाँ प्रकट कर रही हैं तो तक़लीफ़ बढ़ती नजर आ रही है, क्योंकि यह सवाल उठाया जा रहा कि सत्तर सालों के बाद भी हिंदी एकेडमिया इनकी आवाज़ इस तरह से क्यों नहीं उठायी? ओमप्रकाश वाल्मीकि की ‘ठाकुर का कुआँ’ कविता आपको मजबूत कविता नहीं लगती क्यों? कविता देखिए- 

 “चूल्‍हा मिट्टी का
मिट्टी तालाब की
तालाब ठाकुर का ।
 
भूख रोटी की
रोटी बाजरे की
बाजरा खेत का
खेत ठाकुर का ।
 
बैल ठाकुर का
हल ठाकुर का
हल की मूठ पर हथेली अपनी
फ़सल ठाकुर की ।
 
कुआँ ठाकुर का
पानी ठाकुर का
खेत-खलिहान ठाकुर के
गली-मुहल्‍ले ठाकुर के
फिर अपना क्‍या ?
गाँव ?
शहर ?
देश ?”2

                     यहां 'ठाकुर' किसी जाति विशेष से संबंधित नहीं है। बल्कि शोषक का प्रतीक है। सच माने तो आज भी दलितों के हिस्से में क्या है? कुछ भी नहीं। उनका क्या है गांव, शहर, देश ? यह सवाल आज भी बदस्तूर बना हुआ है। आज भी उन्हें उनकी जाति से ही पहचाना जाता है। श्रम करके कमाने-खाने के अलावा उनके पास कुछ भी नहीं है।          

                     अक्सर दलित साहित्य पर बौद्धिकों का एक खेमा हमलावर रहा है। साहित्य में आरक्षण नहीं चलेगा कहकर नकारता रहा है। उनकी अनुभूतियों का मज़ाक बनाता रहा है। लेकिन आज दलित साहित्य हिंदी साहित्य को आगे ही बढ़ा रहा है। ये सारे विमर्श हिंदी समाज से अपने स्पेस की बात करते हैं। आज दलित साहित्य बहुत आगे निकल चुका है। कवि, आलोचक, कहानीकार, दलित चिंतक ओमप्रकाश वाल्मीकि लिखते हैं- “दलित साहित्य जन साहित्य है, यानी मास लिटरेचर (Mass Literature)। सिर्फ इतना ही नहीं, लिटरेचर ऑफ एक्शन (Literature of action) भी है, जो मानवीय मूल्यों की भूमिका पर सामंती मानसिकता के विरुद्ध आक्रोशजनित संघर्ष है। इसी संघर्ष और विद्रोह से उपजा है दलित साहित्य।”3 आज भी हिंदी के प्रोफ़ेसर यह कहते हुए पाए जाते हैं कि विमर्शों पर बहुत काम हो चुका है। अब दूसरे विषयों पर काम करना चाहिए। जबकि ऐसा नहीं है उन तमाम शोध से जब उनकी स्थितियों में कोई परिवर्तन नहीं हुआ है तो इससे यह साफ जाहिर है कि अब तक के शोध कार्य बृहत्तर स्तर पर प्रभावित नहीं कर पाए हैं। यदि प्रभावित करते तो उनकी स्थितियों की तरफ सरकार का ध्यान जाना चाहिए था। कोई आंदोलन होना चाहिए था। अब तक किसी तरह के आंदोलन न होने में ऐसे ही दकियानूसी लोगों का हाथ है। 

                विमर्शों का फलक बहुत ही बृहत्तर है। संसाधनों की कब्जेदारी पर सवाल उठाता है और एक समतामूलक समाज की स्थापना की बात करता है। समाज में हाशिए की स्थिति क्या है? इस तरह के बहुत सारे सवालों को यह साहित्य उठाता रहा है। प्रतिरोधी साहित्य के बारे में बात करते हुए लोकाधर्मी आलोचक चौथीराम यादव लिखते हैं- “हमारे इतिहास में दलित चिंतन की जड़ें बहुत गहरी हैं। जितनी पुरानी वर्णव्यवस्था है उतनी ही पुरानी उसके विरोध की परंपरा भी। समय- समय पर ऐसे महापुरुष होते आए हैं जिन्होंने दलित-स्त्री विरोधी वर्चस्ववादी सत्ता के प्रतिरोध में बराबर हस्तक्षेप किया है- चाहे प्राचीन भौतिकवादी चिंतक हों या बुद्ध की विचारधारा का विकास करने वाले बौद्ध दार्शनिक, सिद्धों- नाथों की परंपरा में सरहपाद और गोरखनाथ हों अथवा निर्गुण धारा के संतों में कबीर और रैदास, चाहे आज के प्रगतिशील जनवादी आंदोलन हों या अस्मिताओं के समकालीन आंदोलन, ये सभी वर्चस्ववादी संस्कृति के बरक्स प्रतिरोध की संस्कृति का निर्माण करते हैं।”4 समाज में दलितों की स्थिति क्या है? इस पर बात करते हुए  श्योराज सिंह ‘बेचैन'  ' क्रौंच हूं मैं’ कविता में लिखते हैं - 

“आदि कविता
क्रौंच का वध
देखकर पैदा हुई थी
मैं परंतु
आदिकवि के
वंशजों में से नहीं हूँ।
वाल्मीकि
मैं नहीं हूँ।
‘क्रौंच हूँ मैं’।”5
 

          सदियों से शोषित जनमानस आज भी शोषण का शिकार है। पूंजीवाद के विकास के साथ दलितों की जिंदगी में सुधार तो हुआ है लेकिन सम्पूर्ण रूप से बदलाव नहीं हुआ है। सामाजिक तौर पर आज भी दलित कहीं-न-कहीं वंचना का शिकार है। इसके मूल में यदि कोई चीज है तो वह है जाति व्यवस्था। भारत में जाति श्रेष्ठता बोध के कारण पैदा हुई असल सच्चाई है। आज भी लोग दलितों को मनुष्य के रूप में नहीं देखते हैं। बल्कि उनकी नजर में वह हरवाहा ही है। सत्ता - संसाधन की मलाई खाए हुए लोग कभी भी इस व्यवस्था का विरोध नहीं करेंगे। यदि करना शुरू करें तो भारत मनुष्यता का पाठ पढ़ाने वाला पहला देश होगा। ‘तुम्हारी जाति ही है दोस्त’ कविता में कवि  विहाग वैभव लिखते हैं -

“तुम्हारी जाति ही है कि
धन्ना धोबी और मुनमुन मुसहर की लड़की को स्कूल जाते देख
 तुम चिंतित, दुखी और उदास होकर हंसते हो
या न्याय, समानता और अधिकारों की बात करते चमार कवि से
उसकी हर बात पर खीझते हो
आक्रोश की भाषा को वैदिक व्याकरण से ख़ारिज करते हो
और किसी लड़ाके को देख
मुस्कुराते हो स्खलित व्यंग्य की मुद्रा में
 यह अनायास ही नहीं है कि
तुम्हें अपनी ही जाति में प्रेम होता है
भावना की अतल सतह पर जमी हुई काई - सी
यह तुम्हारी जाति ही है दोस्त।”6

 

                         आप देख सकते हैं कि भारतीय सामाजिक संरचना कितनी जटिल है। यदि आप जाति से अलग शादी-विवाह करते हैं तो अपने जान से हाथ भी धो सकते हैं। गोरखपुर जिले में ' अनीश कन्नौजिया ' 7 के साथ जो हुआ किसी से छुपा नहीं है। भारत में प्रेम की कितनी ही परिभाषाएं गढ़ी गईं हो लेकिन धरातल पर उसकी सच्चाई कुछ और है। कवि 'बोधा’ ठीक लिखते हैं - 

“यह प्रेम को पंथ कराल महा, तरवारि की धार पै धावनो है॥”8

 

                      प्रेम का पंथ अत्यधिक डरावना है। जिस पर चलना तलवार की धार पर चलने जैसा है। बोधा के दिमाग में भारतीय समाज की संरचना रही होगी। लेकिन इसके साथ ही लोकतांत्रिक मूल्यों के चलते आज अंतर्जातीय विवाह हो पा रहे हैं। ऐसी संख्या कम है।

                      भूमंडलीकरण, उदारीकरण के बाद की स्थितियां और भयावह हुई हैं। जल, जंगल, जमीन से आदिवासी समुदाय की बेदखली में तेजी आई है। आज तथाकथित मुख्य धारा के लेखन में उनकी आवाज दबी हुई है। वह अपनी आवाज उठाने में कामयाब हैं। लेकिन सत्ता संरचना यह नहीं चाहती है। वह चाहती है कि हिरण का इतिहास शिकारी ही लिखता रहे। आज बदस्तूर आदिवासी समुदाय विस्थापित होने के लिए मजबूर हैं। एक वे ही हैं जो मानव समाज को बचाने की लड़ाई लड़ रहे हैं। उसके बाद भी तमाम तरीके से सत्ता उनकी आवाज दबाने में कामयाब है। हम उनकी आवाज बनना ही नहीं चाहते हैं। हम तो बस इल्जाम लगाने में आगे हैं। नदियों और जंगलों से जीवन है। यदि ये ही नहीं रहे तो मानव समुदाय तबाह हो जाएगा। इसकी चिंता किसी को भी नहीं। जबकि यह जायज चिंता है। उनका जीवन सहजता और सरलता का प्रतीक है। वे किसी से कुछ छीनने नहीं जाते हैं। लेकिन नए जमाने के देवताओं की नजर उन्हीं संसाधनों पर है। और वे उस पर कब्जेदारी के लिए व्याकुल हैं। आदिवासी समाज पर लेखन तथाकथित मुख्य धारा के लोग कैसे कर सकते हैं, जिन्हें उस समाज की किसी भी गतिविधि के बारे में कोई जानकारी नहीं है? आज भी तथाकथित मुख्य धारा का समाज उन्हें गिरी हुई नजरों से देखता है। आज वे अपनी आवाज बड़ी बुलंदी से उठा रहे हैं इसमें कोई दो राय नहीं है। आज जल, जंगल, जमीन से उनका विस्थापन लगातार जारी है। कवि अनुज लुगुन अपनी कविता 'अघोषित उलगुलान’ में लिखते हैं - 

“वे जो शिकार खेला करते थे निश्चिंत
ज़हर-बुझे तीर से
या खेलते थे
रक्त-रंजित होली
अपने स्वत्व की आँच से
खेलते हैं शहर के
कंक्रीटीय जंगल में
जीवन बचाने का खेल।”9

 

        आदिवासी समाज के जीवन में जहर घोलने का काम बाजारवादी संस्कृति के द्वारा किया जा रहा है। इस बाजारवादी संस्कृति से कोई बच नहीं पा रहा है। यह अपने अनुसार सबको चलाने की कोशिश कर रही है। आम जनमानस के दिमाग पर यह संस्कृति इतनी हावी हो गई है कि बिना कुछ पैदा किए सबको रेडिमेड की आदत लग गई है। गांवों में महिलाओं द्वारा बनाए जाने वाले सामानों का महत्व कम होता गया है। हमारी सोच, हमारा हर क्रियाकलाप बाजार पर निर्भर हो गया है। सर्दी के दिनों में महिलाएं ऊन के धागे से थोड़े श्रम से अच्छे कपड़े बना लेती थीं। आज बाजार ने ऐसी हीन भावना लोगों के अंदर पैदा की है कि लोग उससे दूरियां बना लिए हैं। खैर… 

        महिलाओं के विचारों की अभिव्यक्ति हम पुरुष ही करना चाहते हैं। और वो भी अपने ढंग से अपनी स्थिति को बचाते हुए। पितृसत्ता हमेशा से स्त्रियों को पुरुषों की अधीनता स्वीकार करने की बात करती रही है और यही पितृसत्ता स्त्रियों को दोयम दर्जे में देखना पसंद करती है। भारतीय सामजिक संरचना में स्त्रियों के श्रम का कोई मोल नहीं माना जाता रहा है और न ही माना जाता है। तमाम मानवीय सरोकारों से उन्हें वंचित करके रखने की साजिश हमेशा से होती रही है। भावनात्मक रूप में पितृसत्ता महिलाओं को गुलाम बनाये रखने की साजिश करती है और वे इस गुलामी को सहजता से स्वीकार करती चली जाती हैं। ‘चूड़ी बाजार में लड़की’ में कृष्ण कुमार लिखते हैं- “चूड़ी पहनाए जाने की इच्छा का उद्भव और चूड़ी को अपनी सुंदरता का  साधन मान लेने का भाव छोटी लड़की को पुरुष- प्रधान सभ्यता में ढालने के सहज चरण हैं।”10 अस्सी के दशक के बाद से स्त्री स्वर मुखर हुआ है। अपने हक़ हकूक की बात को लेकर वे पहले से ज्यादा सजग हुई हैं। आज ब्राह्मणवादी पितृसत्ता तमाम तरीके के चोंचलेबाजी से उन पर अपने विचार थोपता रहा है। लेकिन आज वे अपनी अभिव्यक्ति कर रहीं है तो इसके मूल में शिक्षा है। भारत में महिलाओं के अलग - अलग सवाल हैं। उच्च वर्णीय महिलाओं की लड़ाई पितृसत्ता से है। वहीं पर निम्न वर्णीय महिलाओं की लड़ाई पितृसत्ता के साथ- साथ जातिसत्ता से भी है। असल में भारतीय समाज में उच्चवर्णीय पुरुष प्रेम के नाम पर निम्न महिलाओं का शोषण ही करता है। शादी तो उसे करनी होती नहीं है। बजरंगबिहारी तिवारी लिखते हैं- “हिंसा करने और मामले को दबा देने में हमारे समाज का वर्चस्वशाली वर्ग बहुत अनुभवी है। पितृसत्ता और जातिसत्ता हिंसा के बल पर ही कायम हैं। दलित स्त्री दोनों तरह की हिंसा का शिकार होती है। उस पर होने वाली हिंसा के विभिन्न रूपों में यौन हिंसा मुख्य है।”11 महिलाएं चहारदीवारी के भीतर कैद होती रहीं हैं। उन पर तमाम बंधन लगते रहे हैं। इसके बावजूद उन्हें जो थोड़ा समय मिला है उसमें वे अपने आप को सबला बनाकर दिखाया है। उन्हें जो बार - बार अबला कहा जाता रहा है। उसका उन्होंने मुंहतोड़ जवाब दिया है। जहां मैथिलीशरण गुप्त ' यशोधरा’ खंडकाव्य में लिखते हैं -

“अबला जीवन हाय तुम्हारी यही कहानी
      आंचल में है दूध और आंखों में पानी।।”12

 

   वहीं पर ' कामायनी' के लज्जा सर्ग में जयशंकर प्रसाद लिखते हैं -

 “नारी तुम केवल श्रद्धा हो,
विश्वास रजत नग पग तल में
 पियूष स्रोत से बहा करो
जीवन के सुंदर समतल में।”13

 

  उपर्युक्त दोनों कविताएं महिलाओं की दीनता को ही प्रकट करती हैं। ये दोनों पुरुष रचनाकार हैं। लोकतंत्र में ज्यों ही मौका मिला स्त्री स्वर को तो वह कहना शुरू कीं - 

“मुंह सी के अब जी ना पाऊंगी
जरा सबसे ये कह दो…!
 
मैया कहैं बिटिया सीस झुकाना
सर को मैं ऊंचा उठाऊंगी
जरा सबसे ये कह दो…!
अपने को अब ना झुकाऊंगी
जरा सबसे ये कह दो…!
 
बाबू कहैं बिटिया पढ़ने ना जाना
अपना मैं ज्ञान बढ़ाऊंगी
जरा सबसे ये कह दो…!
अपना मैं मान बढ़ाऊंगी
जरा सबसे ये कह दो…!”14

 

  आज महिलाओं को जब मौका मिल रहा है तो, वे अपना परचम लहराने में पीछे नहीं हैं। आज वे मुकम्मल सवाल कर रहीं है। पिछले सदी में जहां बाप द्वारा बेटियों को किसी के हाथ में थमा देने पर वे कुछ नहीं बोलती थीं, चुपचाप चली जाती थीं। आज भी लगभग ऐसी स्थितियां हैं लेकिन कुछ परिवर्तन हुआ है। उसे कैसा वर चाहिए वह डिमांड कर रही है। यह सब कुछ हो रहा है तो उसमें सबसे बड़ा हाथ शिक्षा का है। कवयित्री  निर्मला पुतुल ‘अपनी कविता 'उतनी दूर मत ब्याहना बाबा’ में लिखती हैं - 

 “और उसके हाथ में मत देना मेरा हाथ
जिसके हाथों ने कभी कोई पेड़ नहीं लगाए
फ़सलें नहीं उगाईं जिन हाथों ने
जिन हाथों ने दिया नहीं कभी किसी का साथ
किसी का बोझ नहीं उठाया।।”15

 

  सच में अगर पुरुष बैठे ठाले का धंधा करता हो, तो वह उस महिला की भावनाओं का कद्र ही नहीं कर पाएगा। वह उसे छोटी - छोटी बातों के लिए प्रताड़ित ही करता रहेगा। 

  सच में आज स्थितियां बदलीं हैं। हाशिए पर डाल दिए गए लोगों ने अब आवाज उठानी शुरू की है। यह आवाज साहित्य की दुनिया में भी दर्ज की जा रही है। जिससे आज साहित्य के स्वरूप में बदलाव देखने को मिल रहा है। सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का दौर है। जहां लोगों को भीड़ बनने में समय नहीं लग रहा है। ऐसे दौर में चुनौतियां बढ़ी हैं। उसके साथ ही साथ साहित्य के स्वरूप में भी विस्तार लगातार जारी है। यह विमर्शों के विकास से अत्यधिक संभव हुआ है। इसी आशा के साथ कि आने वाला समय और ज्यादा लोकतांत्रिक होगा। समतामूलक समाज की स्थापना में हम सफल होंगे।

संदर्भ :
1 - गोविंद रजनीश द्वारा संपादित रैदास रचनावली, प्रकाशक : अमरसत्य प्रकाशन 109, ब्लॉक बी, प्रीत विहार, दिल्ली - 110092, प्रकाशन वर्ष : 2023, पृष्ठ संख्या -138
2 - ओमप्रकाश वाल्मीकि, सदियों का संताप, प्रकाशक : गौतम बुक सेंटर ‘ चंदन सदन’, सी - 263 ए, गली नं -9 हरदेवपुरी, शाहदरा, दिल्ली - 110093, संस्करण - 2012, पृष्ठ संख्या - 13 
3- ओमप्रकाश वाल्मीकि, दलित साहित्य का सौंदर्यशास्त्र, प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्राइवेट लिमिटेड जी-17, जगतपुरी, दिल्ली- 110051, तीसरा संस्करण- 2019, पृष्ठ संख्या- 15
4- चौथीराम यादव, उत्तरशती के विमर्श और हाशिए का समाज, प्रकाशक : अनामिका पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर्स (प्रा.) लिमिटेड 4697/3, 21- ए, अंसारी रोड, दरियागंज, नई दिल्ली- 110002, प्रथम संस्करण- 2014, पृष्ठ संख्या- 28
5- - कंवल भारती, उद्धृत,दलित साहित्य की अवधारणा, बोधिसत्त्व प्रकाशन कैथ का पेड़ रामपुर -244901(उ. प्र.), संस्करण - 2006, पृष्ठ संख्या - 67 
6 - विहाग वैभव, मोर्चे पर विदागीत, प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन प्रा. लि. 1 बी, नेताजी सुभाष मार्ग, दरियागंज नई दिल्ली - 110002, पृष्ठ संख्या - 74 
7 - Amar Ujala, 6 नवंबर 2021, https://www.amarujala.com>crime
8 - आचार्य रामचंद्र शुक्ल, उद्धृत हिंदी साहित्य का इतिहास, विजय प्रकाशन मंदिर ( प्रा.) लि. सीके. 15/53, सुड़िया
वाराणसी - 221001, पृष्ठ संख्या - 256 
9 – अनुज लुगुन, अघोषित उलगुलान, प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन प्रा. लि. 1-बी, नेताजी सुभाष मार्ग, दरियागंज नई दिल्ली - 110002 ,  संस्करण - 2023, पृष्ठ संख्या - 17
10- कृष्ण कुमार, चूड़ी बाज़ार में लड़की, प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन प्रा.लि. 1-बी, नेताजी सुभाष मार्ग, दरियागंज नई दिल्ली- 110002, पहला संस्करण- 2014, पृष्ठ संख्या-16 
11- बजरंगबिहारी तिवारी, हिंसा की जाति जातिवादी हिंसा का सिलसिला, प्रकाशक : परिकल्पना, के-37, अजीत विहार दिल्ली- 110084, प्रथम संस्करण- 2023, पृष्ठ संख्या-51 
12 - मैथिलीशरण गुप्त, यशोधरा,  प्रकाशक : लोकभारती प्रकाशन पहली मंजिल, दरबारी बिल्डिंग, महात्मा गांधी मार्ग इलाहाबाद - 211001, संस्करण - 2014, पृष्ठ संख्या - 40
13 – जयशंकर प्रसाद, कामायनी, प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन प्रा. लि. 1-बी, नेताजी सुभाष मार्ग नई दिल्ली – 110002, सातवां संस्करण – 2009, पृष्ठ संख्या - 57 
14 - ‘ मुंह सी के अब जी ना पाऊंगी, जरा सबसे यह कह दो!
https://www.youtube.com/@democraticsandesh
15 - निर्मला पुतुल, नगाड़े की तरह बजते शब्द, प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ 18, इंस्टीट्यूशनल एरिया, लोदी रोड नई दिल्ली – 110003, तीसरा संस्करण – 2012, पृष्ठ संख्या – 49

चन्दन कुमार
सहायक आचार्य- हिंदी, गांधी शताब्दी स्मारक पी जी कॉलेज, कोयलसा, आजमगढ़। 
3
चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक ई-पत्रिका 
  अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-52, अप्रैल-जून, 2024 UGC Care Listed Issue
सम्पादक-द्वय : माणिक-जितेन्द्र यादव चित्रांकन  भीम सिंह (इलाहाबाद विश्वविद्यालय)

1 टिप्पणियाँ

  1. हाशिए का समाज सच में आज संसाधनों से वंचित है। सारे तोहमत इसी वर्ग पर लगाये जाते हैं। सामाजिक दृष्टिकोण से सबकुछ इनके खिलाफ रचा और बुना गया है। आज इस विषय पर बात करना ज्यादा जरूरी हो गया है।
    आपका बहुत - बहुत शुक्रिया और इस लेख को लिखने के लिए बहुत बधाई जो आपने इतने महत्वपूर्ण विषय को लेकर जरूरी बात कही है।

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