सम्पादकीय
विशेषांक प्रकाशन की यात्रा में अपनी बात
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आर्टिफिशियल
इंटेलिजेंस आने के बाद से ही मुझे अपने होने का अर्थ बचाकर रखने का बड़ा काम मिल
गया है। किन्हीं भी जानकार से मिलता हूँ तो
भय भीतर तक घात करता है कि आने वाले एक दशक में दुनिया बहुत हद बदल जाएगी। बीते
दिनों हमारे दोस्त महेंद्र नंदकिशोर के साले साहेब गजेन्द्र भाई घर आए। पहली
मुलाक़ात इतनी आकर्षक और लम्बी थी कि लगा कमाल का आदमी है गजेन्द्र। पढ़ाकू और ऊपर
से इंजीनियर। मैं भी अपडेट रहता हूँ मगर मेरे ज्ञान के स्रोत उससे एकदम भिन्न
किस्म के थे। वह अच्छी खासी नौकरी के बावजूद अपनी रुचिगत आदतों के चलते सतत शोध
ढूंढ़ता और उन्हीं में रमा रहता है। मेरी पढ़ाई-लिखाई मानविकी तक सिमित रही मगर
तकनीक की बातें मुझे अपनी तरफ बहुत खींचती रही हैं। गजेन्द्र ने आस बंधाई कि एआई
और मनुष्य में मनुष्य का मुकाबला करना संभव नहीं। बताकर गया कि किशोर मन वाली
अवस्था में मस्तिष्क में सलवटों का जितना विकास संभव है उतना बाद के सालों में नहीं।
असल बात यह है कि आज की पीढ़ी इस अवस्था में मस्तिष्क को उचित दिशा में उपयोग नहीं
ले पा रही है इसलिए उनके विकास की संभावना घटती जा रही है। बाकी रही बात मेमोरी की
तो मनुष्य के आगे मशीन हमेशा कमतर साबित होगी। विश्वभर में एआई के वर्जन पर वर्जन
आ रहे हैं। प्रीमियम वर्जन के अपने लाभ हैं। गजेन्द्र ने बताया कि जितना हम सर्च
करेंगे और आए हुए परिणाम को लाइक करेंगे तो वह उस एप की ताकत को ही बढ़ाएगा जो अन्य
के लिए ज्यादा लाभकारी होगी। अभी एआई अपने शिशु-काल में है जिसे वक़्त के साथ कई
नवाचार आकर पालेंगे और पोसेंगे। समय के साथ हमें इसकी कमियाँ भी अनुभव होगी मगर
सैकड़ों किस्म के काम में मनुष्य का दख़ल कम हो जाएगा, यह तय है। गजेन्द्र ने अंत
में बताया कि कला और सृजन के क्षेत्र में मनुष्य के दिमाग की आवश्यकता हमेशा बनी
रहेगी। ऐसे संभावनाशील युवाओं से एक भेंट
भी मुझमें बहुत आस जगा जाती है।
बीते दिनों बी.एन. विश्वविद्यालय, उदयपुर में हुए एक हिंदी सेमीनार में जाने का मौका मिला। बारीक बात यह रही कि मानव मूल्यों के बचाव और उनके प्रदुषण की यात्रा पर कई विद्वान बोले-बतियाए। साहित्य में मूल्यों के रक्षण की यात्रा के कई नमूने पेश किए गए। मैं अपने साथी डॉ. मोहम्मद हुसैन डायर के आग्रह पर वहां गया जिसने राही मासूम रज़ा पर काम किया है। शोध पत्र का सारांश पढ़ने के नाम पर यह मेरा पहला अनुभव था। कई परिचित वक्ता सभा में मौजूद थे। मैंने बिना किसी परवाह के अंतिम समय में शोध सारांश पढ़ने के बजाय अपनी बात का मसौदा बदला दिया। ‘हिंदी की दलित आत्मकथाओं में स्त्री स्वर’ के नाम से मैंने लिखकर भेज रखा था। यह मेरे शोध कार्य का हिस्सा रहा इस बात को चार साल गुज़र गए। इस बीच मैंने मध्यस्थ दर्शन के नाम से आए एक जीवन-विद्या अध्ययन-अध्यापन प्रत्यय के साथ कुछ समय यात्रा की। मन में नई तरह की उथल-पुथल होती रही। फिर कुछ नए निष्कर्ष स्थिर हुए। मैंने मनुष्य होने के लिए ज़रूरी मानव चेतना के विकास को दर्शन के नज़रिए से रखने का प्रयास किया। सभा को अचरज तो हुआ मगर मैं अप्रभावित रहा। मैंने कहा कि मनुष्य की दृष्टि मायने रखती है खासकर हमारी तालीम में स्त्री, धन और प्रकृति के प्रति हमारी दृष्टि। जब तक हमारे मन में फ्रायड, एडाम स्मिथ और डार्विन का कब्जा है समझने में लोचा रहेगा ही। मानव व्यवहार में बीते तीन दशक में आया गहरा बदलाव बड़ा भयंकर और त्रासदकारी है। अलार्म के बावजूद हम दौड़े जा रहे हैं। सात मिनट के उस वक्तव्य के बाद के.के. शर्मा जी, सदाशिव श्रोत्रिय जी और माधव हाड़ा जी ने सराहा तो मन प्रसन्न हुआ। मेरा यह मानना फिर से स्थिर हुआ कि मौलिकता तो बचाएं न कि परिपाटी पर अड़े रहें।
(2)
सच तो यही है कि ‘अपनी माटी’ आरम्भ करते वक़्त विचार ही नहीं आया था कि कभी हम पाठकों के बीच प्रिंट वर्जन के रूप में भी यह पत्रिका लेकर जा सकेंगे। ई-माध्यम का आकर्षण लेकर चले थे जिस पर अभी भी कमोबेश कायम हैं। इस माध्यम की सार्थकता और सुगमता को लेकर हमें आज भी कोई संशय नहीं है। विस्तार के लिहाज़ से आज हम हिन्दीभाषी देशों में पढ़े और थोड़ा बहुत सराहे जाने लगे हैं। अब हिंदुस्तान के लगभग प्रत्येक राज्य से यहाँ रचनाएं आती और छपती हैं। देशभर के सभी केन्द्रीय विश्वविद्यालयों में इसकी पहुँच बन गयी है। भारत के विभिन्न क्षेत्रों से लगभग चालीस से भी अधिक साथी स्वयंसेवा के भाव से इस अभियान को चलाने में हाथ बंटा रहे हैं। हमारी एक मण्डली है जो अपने अंदाज़ में हमेशा तल्लीन रहती है। सीखते हुए यात्रा जारी है। पड़ाव-दर-पड़ाव आसानी ही हुई है। हम जनवरी, 2024 तक सात विशेषांक ऑनलाइन प्रकाशित कर चुके थे। कुछ विशिष्ट अंकों के लोकप्रिय होने और उनके महत्त्व के मद्देनज़र हार्ड कॉपी में प्रकाशित करने के पाठकों की तरफ से प्रस्ताव आए। वित्त और समुचित योजना के अभाव में टालमटोल होती रही जिसे अब जाकर विराम मिला।
एक दशक से भी अधिक का वक़्त गुज़र गया होगा और अब चेतन प्रकाशन, चित्तौड़गढ़ का सहयोग मिला तो हमारे पूर्व में प्रकाशित विशेषांकों को प्रिंट वर्जन में लाना संभव हो सका। सबसे अव्वल तो केन्द्रीय विश्वविद्यालय हैदराबाद के प्रो. गजेन्द्र पाठक और अब स्मृति-शेष प्रो. अभिषेक रौशन का आभार कि इस पत्रिका के यूजीसी में सूचीबद्ध होने के बाद प्रथमत: अंक-25 के रूप में ‘किसान विशेषांक’ आ सका। यह सितम्बर, 2017 की बात है। यह क्रम नवम्बर, 2022 में ‘हिंदी में प्रतिबंधित साहित्य’ से होता हुआ जनवरी, 2024 में ‘भक्ति आन्दोलन और हिंदी की सांस्कृतिक परिधि’ पर आकर रुका। तीनों अंकों में प्रो. गजेन्द्र पाठक की अनूठी मेहनत और विद्वत-दृष्टि की बड़ी भूमिका रही। यों गजेन्द्र जी से कभी मिलना नहीं हुआ लेकिन लम्बे परिचय की अनुभूति मन में बसी रहती है। सह-सम्पादक के तौर उनके शोधार्थी अजीत आर्या, गौरव सिंह और श्वेता यादव का सहयोग भी इस मौके पर याद करता हूँ। इस बीच जून, 2022 में श्री माणिक्यलाल वर्मा राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय, भीलवाड़ा में हिंदी के प्रो. मनीष रंजन के सम्पादन में ‘फणीश्वरनाथ रेणु’ पर अंक आ सका। मनीष जी से सुदीर्घ संवाद के कई किस्से हैं। अंक प्रकाशन के दौरान भी बहुत मुलाकातें हुईं। इसके प्रकाशन में सह-सम्पादक के तौर पर हमारे साथी डॉ. प्रवीण कुमार जोशी, डॉ. मैना शर्मा, डॉ. मोहम्मद हुसैन डायर और अभिनव सरोवा का योगदान अंक की प्रति हाथ में लेते हुए स्मृति में आता ही है। इस बीच मार्च, 2022 में मीडिया विशेषांक भी आया। इसका सम्पादन प्रस्ताव दिल्ली विश्वविद्यालय की प्रो. नीलम राठी जी की तरफ से आया जो संपादक मित्र डॉ. जितेन्द्र यादव की शोध निर्देशिका भी हैं। अतिथि संपादन में फिर एक नाम और जुड़ा मोहनलाल सुखाड़िया विश्वविद्यालय, उदयपुर में हिंदी के सहायक आचार्य और मेरे शोध निर्देशक डॉ. राजकुमार व्यास। उक्त पांच अंकों की ही प्रकाशन योजना बनी और आज पूरी हुई। इनके निमित्त सहयोग देने वाले चित्रकार मित्रों सहित समस्त लेखकों के साहित्यिक अवदान के प्रति आभार व्यक्त करता हूँ।
प्रकाशक साथी भाई शेखर कुमावत का आभार प्रकट करना यहाँ ज़रूरी है हालांकि वे ‘अपनी माटी’ के संस्थापक साथियों में से एक रहे हैं। उनके डिजायनर राम रतन कुमावत ने बहुत श्रम और लगन से हमारे इन सभी अंकों को छापने में बड़ी मेहनत की है। वितरण सहित पाठकों से समस्त संवाद का दायित्व भी चेतन प्रकाशन की टीम भले से संभाल ही रही है। ‘अपनी माटी’ के प्रति आपके अनुराग को ध्यान में रखते हुए वर्ष 2024-25 में भी हम चार विशेषांक का सम्पादन करने का मानस बना चुके हैं। जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय, दिल्ली के प्रो. गंगासहाय मीणा, डॉ. बृजेश कुमार यादव सहित शोधार्थी विकास शुक्ल के संयुक्त प्रयासों से ‘अनुवाद विशेषांक’ आ रहा है वहीं इलाहाबाद विश्वविद्यालय, इलाहाबाद के डॉ. दीना नाथ मौर्य द्वारा ‘बाल साहित्य’ पर केन्द्रित अंक पर काम सतत रूप से जारी है। इसमें उनके शोधार्थी चंद्रकांत यादव और आरती सहयोग कर रही हैं। ‘अपनी माटी’ पत्रिका के संपादक डॉ. जितेन्द्र यादव अपने सहयोगी डॉ. विनोद कुमार की मदद से इस बार ‘सिनेमा विशेषांक ला रहे हैं। अंत में एक जानकारी आपको दें कि अरसे तक किए विचार के बाद ‘दृश्यकला विशेषांक संभव हुआ है जिसे राजस्थान विश्वविद्यालय, जयपुर की प्रो. तनुजा सिंह और इलाहाबाद विश्वविद्यालय, इलाहाबाद के सहायक आचार्य डॉ. संदीप कुमार मेघवाल अपने सम्पादन में ला रहे हैं। यथासंभव उक्त सभी चार विशेषांक दिसम्बर, 2024 तक हम पाठकों के बीच पेश कर सकेंगे। इस पूरी यात्रा में आपका साथ बना रहे। आपकी टिप्पणियों का स्वागत रहेगा।
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यह सामान्य अंक पहले छपे अंकों के क्रम में कुछ बड़ा और ज्यादा विविधता लिए हुए है। रूपम श्री की कविताओं सहित नीलू शेखावत की कहानी ने अंक में जान ला दी है। साथी मृत्युंजय का विजयदेव नारायण साही पर केन्द्रित लेखन पठनीय है। स्मृति-शेष चौथीराम जी को याद करते हुए हमने वेदप्रकाश भारती से एक संस्मरण लिखवाया है। जल्दी ही प्रकाशित होने वाली प्रो. श्यौराज सिंह बेचैन की आत्मकथा के दूसरे भाग से एक अंश यहाँ छापा है। 'हंस' और 'तद्भव' जैसी पत्रिकाओं में प्रकाशित सामग्री पर ज्ञानवर्धन करते दो आलेख भी यहाँ शामिल हैं जिन्हें पाठकों को पढ़ना चाहिए। कथेतर, सिनेमा और आर्युवेद सहित तकनीक पर भी यहाँ सामग्री संजोई है। 'संघर्ष के दस्तावेज़' कॉलम की एक से एक रचना बढ़िया है। अपने विषय को लेकर बेहद गहरी ले जाएँगी। इस बार सर्वाधिक दस आलेख हमने कविताओं में शामिल विभिन्न विमर्श को उजागर करने के लिए यहाँ शामिल किए हैं। डॉ. विमलेश शर्मा का लिखा लम्बे समय बाद फिर से संभव हुआ है। हमारे नए कॉलम 'शहर : जैसा मैंने जाना' में फल संस्मरण धाकड़ हरीश ने लिखा है जो चित्तौड़गढ़ को दिल से आज भी याद करते हैं। रेखा कुंवर का लेखन लगातार गहराता जा रहा है। उपन्यास के रूप में चर्चित 'साँप' की समीक्षा भी इस अंक में विशिष्ट है। बाकी आप अनुक्रम देखिएगा और जैसा मन करे पढ़िएगा। नियमित रूप से लिखने वाले भाई विष्णु, हेमंत और डायर आपको निराश नहीं करेंगे ऐसी आशा बनी हुई है। हमारी पत्रिका की पहचान के रूप में आदिवासी विमर्श सहित लोक संस्कृति और रंगों की दुनिया से परिचित करवाने वाली सामग्री हर अंक में शामिल करते ही हैं इस बार भी वह सब शामिल हैं। अंक में शामिल चित्रों के लिए इलाहाबाद विश्वविद्यालय, इलाहाबाद के दृश्यकला विभाग के छात्र भीम सिंह का आभार कि उन्होंने अपने चित्र हमें भेजें।
सम्पादकीय पढ़ने का अपना आनंद होता है। पढ़कर बेहतर महसूस हुआ।
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