- विश्वजीत सिंह
शोध सार : समकालीन हिन्दी कविता बीसवीं शताब्दी के मध्य से आज तक अनेक परिवर्तनों और विचारधाराओं से गुजरते हुये मानव मूल्यों के चित्रण में अग्रणी रही है। इसमें सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक और व्यक्तिगत परिवेशों में मानवीयता के विभिन्न पहलुओं को उजागर किया गया है। समकालीन हिन्दी कविता मानव मूल्यों की खोज और अभिव्यक्ति का एक मजबूत क्षेत्र रही है। इन कविताओं ने प्रेम, करुणा, न्याय, समानता, स्वतंत्रता, विद्रोह, और पर्यावरण चेतना जैसे मूल्यों को विभिन्न रूपों मे दर्शाया है। समकालीन समाज के प्रति कवियों की चिंता और उनकी बेहतर दुनिया की कल्पना इन कविताओं में स्पष्ट रूप से झलकती हैं।
बीज
शब्द
: स्वतंत्रता, विद्रोह, मानव, मूल्य, मोहभंग, असंतोष, नक्सलबाड़ी, सम्पूर्ण क्रांति, छटपटाहट, पीड़ा, दलित, नारी, संविधान, संवेदनहीन, असमानता, आदिवासी।
मूल आलेख : सन् 47 में भारत की आजादी के बाद मोहभंग और निराशा की भावना एक जटिल और बहुआयामी घटना थी। एक लंबे और कठिन संघर्ष के अंत के बाद राष्ट्र ने उम्मीदों और आकांक्षाओं का नवीन स्वप्न देखा था, जब एक राष्ट्र ने अपनी नियति बनाने का वादा किया था। मगर आजादी के कुछ साल बीतने के बाद ही लोगों को इस बात का एहसास हो गया कि देश में सिर्फ शासन बदला है, व्यवस्था अब भी वैसी ही है। सन् साठ के दशक के बाद भारतीय परिवेश में व्याप्त आजादी से मोहभंग, निराशा, उत्कंठा, बेरोजगारी, असंतोष जैसी समस्याओं को लेकर चलने वाली कविता का नाम समकालीन कविता है। यही समकालीन कविता सन् अस्सी के बाद विभिन्न नये विषयों के साथ जुड़ती चली जाती है। आजादी के पूर्ववर्ती तथा परवर्ती काव्य आन्दोलनों में अब तक जिनको कविता में स्थान नहीं मिला था, उनको
स्थान मिलना शुरू होता है। समकालीन कविता में विभिन्न विमर्शों का उदय होता है। समकालीन कविता की निर्मिती में सन् साठ से अस्सी के बीच में हुए आंदोलनों का महत्वपूर्ण योगदान है। देश के अलग-अलग हिस्सों में लोगों ने आजादी के समय देश की सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी कांग्रेस को सत्ता से बाहर का रास्ता दिखाया। आजादी के बाद जनता की व्यवस्था को बदलने की यह पहली प्रतिक्रिया थी। उसके बाद देश के कुछ हिस्सों में नक्सलबाड़ी आंदोलन चला, जिनका
विश्वास लोकतंत्र में नहीं था। वह लोकतंत्र को कुछ ऊंचे लोगों के हाथ की कठपुतली समझते थे। नक्सलबाड़ी आंदोलन ने अपने अधिकारों के लिए संविधान के बाहर का रास्ता अपनाया परंतु वह भी इतना सफल नहीं रहा। सन् पचहत्तर में हुये आपातकाल के बाद लोगों ने देश की सबसे बड़ी सरकार को गिरा दिया तथा संपूर्ण क्रांति के नायकों को देश के शीर्ष पर पहुंचा दिया। इस बदलाव के बाद भी लोगों को लगा कि व्यवस्था में कोई खास परिवर्तन नहीं हुआ है। इन जन-आंदोलनों और बदलावों का समकालीन कविता की निर्मिति में महत्वपूर्ण योगदान है। समकालीन कविता नये-नये विमर्शों के साथ जुड़ती है। अपनी बात अपने ढंग से कहती है। किसी भी राजनीतिक पार्टी या सरकार की तरफ बहुत खास उम्मीद से नहीं देखती है। आजादी की लड़ाई लड़ते समय लोगों को लगा था कि स्वराज आने से उनके जीवन में भी कुछ बदलाव होगा। देश में संविधान भी लागू हुआ, जिसका अर्थ था सबके लिए एक विधान। मगर यह सब मंचों से कहने, सुनने तथा किताबों में लिखी जाने वाली बातें थीं, यथार्थ से इसका बहुत ज्यादा सरोकार नहीं था। समकालीन कविता के नामकरण और कालावधि को लेकर विद्वानों में मतभेद हैं। कुछ विद्वान इसके प्रारंभ की सीमा साठ तो कुछ सत्तर के बाद तथा कुछ लोग अस्सी के दशक के बाद मानते हैं। पर मोटे तौर पर सन् साठ के दशक के बाद की कविताओं में समकालीन कविता के स्वर दिखाई पड़ने लगते हैं, जिसके मूल में सन् साठ के बाद ऐसी अनेक सामाजिक-राजनीतिक घटनाएं हुईं, जिनके कारण आम आदमी नवस्वतंत्रता और उससे मिलने वाले काल्पनिकों की स्थिति से ऊबकर एक नयी सोच के प्रति प्रयासरत था। समकालीन कविता में आधुनिक जीवन बोध, जीवन की व्यथा, अजनबीपन, अकेलापन, छटपटाहट, वैयक्तिक कुंठा, जीवन की कड़वाहट, युवा मन की मानसिक स्थिति, जीवन संघर्ष, भूख और रोटी, मनुष्य का दर्द व पीड़ा अत्यंत संवेदनापूर्ण ढंग से समकालीन कविता में व्यक्त हुआ है। इसके नामकरण को लेकर विद्वानों में मतभेद है। अलग-अलग विद्वानों ने अलग-अलग नामों से इस काल को संबोधित किया है। मगर कोई भी नाम उपयुक्त नहीं है। उपयुक्त नाम के अभाव में समकालीन शब्द का प्रचलन बढ़ा है, जिसके कारण इस काल को समकालीन कह कर संबोधित किया जा रहा है। विगत पच्चीस-तीस वर्षों में लेखकों तथा आलोचकों ने भी इसी नाम का पूर्ण समर्थन किया है। समकालीन कविता किसी एक भावबोध की कविता न होकर समुच्चय भावबोध की कविता है, जिसे समकालीन कविता ने बेहद जिम्मेदारी के साथ अभिव्यक्त किया है।
किसी भी सभ्य समाज या लोकतांत्रिक देश में मूल्य का होना बहुत जरूरी है। मूल्य सही जीवन जीने की कला सिखाते हैं। देश में संविधान आने के साथ ही लोगों के कुछ मानवाधिकारों को सुनिश्चित किया गया है।
मानवाधिकार समाज में वंचित, शोषित, ऊंचे, बड़े तथा जाति, लिंग भेद से ऊपर उठकर सबके लिए एक समान अधिकारों की बात करता है, जिससे समाज में किसी को भी उसके अधिकारों से वंचित न किया जा सके मगर जब हम यथार्थ में इसको देखते हैं तो पता चलता है कि कैसे गरीब, शोषित, वंचित, स्त्रियों, दलितों के साथ भेदभाव किया जाता है। उनके मानवाधिकारों का हनन किया जाता है। समकालीन कविता इन सभी सरोकारों को अपने साथ लेकर चलती है। समकालीन कविता में कोई बड़ा या छोटा नहीं है, सबके लिए कविता में स्थान है, सभी तरह की आवाजों की अभिव्यक्ति है। वर्तमान भारतीय राजनीतिक परिदृश्य में एक अजीब-सा दौर चल रहा है। जनआंदोलनों से निकलते विचार तथा उससे पोषित नेता लोग वही काम कर रहे हैं, जिनकी खिलाफत उन्होंने कभी की थी। जो दल एक-दूसरे को अपना राजनीतिक दुश्मन मानते थे, आज अपनी विरासत बचाने के चक्कर में एक-दूसरे का हाथ थाम रहे हैं। आजादी के पचहत्तर साल बाद भी लोगों के मुद्दे अब भी वही हैं, शिक्षा, रोजगार, गरीबी, महंगाई मगर कोई भी सरकार पूर्ण रूप से इन सभी सुविधाओं का लाभ जनता तक पहुंचाने में सफल नहीं रही है।
21वीं
सदी के तीसरे दशक में भी विभिन्न राज्यों से स्त्रियों के साथ मारपीट बलात्कार जैसी जघन्य घटनाएं हर रोज सुनाई देती है। वर्तमान समय में आदिवासियों को विकास के नाम पर निर्वासित किया जा रहा है। उनका जल, जंगल और जमीन उनसे छीना जा रहा है। विकास और आधुनिकता के नाम पर उनकी संस्कृति मिटाई जा रही है। आजादी के 75 वर्ष होने के बावजूद समाज में आज भी दलितों के साथ अत्याचार की घटनाएं सामने आती रहती हैं। समकालीन कविता इन सभी विमर्शों को साथ लेकर संवैधानिक अधिकारों की बात करती है तथा संवैधानिक अधिकारों के माध्यम से उपेक्षित समाज को न्याय दिलाने के लिए प्रयासरत है।
विभिन्न युगों की कविता में जो स्त्री पीड़ित एवं शोषित होकर भी बोल नहीं पाती थी, वह आज के समय में अपने आपको शोषण से मुक्त करने की इच्छा रखती है। स्त्री अपने स्वच्छंद प्रेम, आकांक्षा को महत्व देती है। समकालीन कविता नारी उत्थान, समानता तथा नारी आंदोलन की बात करती है। समकालीन हिन्दी कविता में नारी मुक्ति की कामना को अनेक रूपों और भावनाओं में व्यक्त किया गया है। इन कविताओं ने ना केवल स्त्री-पुरुष समानता की भावना को मजबूत किया है,बल्कि सामाजिक बदलाव को भी प्रेरित किया है। पुरुष हमेशा से स्त्री को अपने बनाए नियमों के अनुसार चलाना चाहता है। पुरुषों के परंपरागत विचारों के खिलाफ आज की स्त्री अपनी आवाज बुलंद करती है, जिसे पवन करण ने इस कविता में बेहतर ढंग से व्यक्त किया है -
“मुझे इस बात का कोई पश्चाताप नहीं है
नहीं कोई अपराध बोध मेरे भीतर
हमेशा के लिए उसकी होते समय
आज जैसी वह मुझे चाहता है,
वैसी नहीं हूँ मैं”1
21वीं सदी के इस बदलते दौर में स्त्री का जीवन बड़ा ही अस्त-व्यस्त हुआ है। घर से बाहर निकलकर उसने अपनी नयी पहचान बनाई है। अपने ऊपर होने वाले अत्याचारों के खिलाफ आवाज उठाती है तथा समाज का सच सबके सामने रखते हुए मुक्त जीवन की आकांक्षा रखती है। समकालीन हिन्दी कविता में नारी जीवन की दुर्दशा और अत्याचार का चित्रण एक महत्वपूर्ण सामाजिक और राजनीतिक मुद्दे को उजागर करता है, जिसमें उनकी अपनी शर्तें हैं, वैचारिकी है, सामाजिक होने की शर्त है, नागरिक की शर्ते हैं। स्त्री मात्र त्याग और भोग की वस्तु भर नहीं है, वह स्वतंत्रचेता स्त्री है जो अपने अधिकारों की मांग करती है।
“मुझे भी जीने दो
जब मैंने कदम बढ़ाया सड़कों पर
शैतान मुझ पर टूट पड़े
झुंड बनाकर, बेरहम
हीन घिनौने कट्टर
प्यासे मेरी देह के
न शर्म, हया उनमें
न लगते पुत्र किसी के
मैं पुलकित सरिता हूँ
लहरा कर बहने दो
मैं औरत हूँ।”2
तमाम संवैधानिक अधिकारों से वंचित होने तथा शोषित जीवन जीते हुए भी नारी जिंदा रहना चाहती है, जो नारी जीवन की विवशता को दर्शाता है। अपनी मौजूदगी से हर एक स्तर पर अपनी पहचान बनाने तथा मुकाम हासिल करने के बाद भी उसको पुरुषों के इशारे पर नाचना पड़ता है। स्त्री मुक्ति के सवाल हर उस मोर्चे पर मुखर है, जहां-जहां स्त्री के अस्तित्व पर बेमानी पहरे बिठाए गए हैं। नारी अस्मिता के सवाल समकालीन कविता में विशिष्ठता के साथ जुड़े हैं। जो समाज में फैले नारी शोषण, अत्याचार और अनैतिकता के विरुद्ध एक अनवरत मानवीय प्रतिरोध हैं, जहां स्त्रियाँ मात्र पुरुष के संदर्भ बिंदु के रूप में परिभाषित न होकर एक स्वतंत्र मनुष्य के रूप में परिभाषित होना चाहती हैं।
“कभी तबले की थाप पर मुझको
नाचना पड़ता है सो नाचती हूँ
पर जमाने मुझे खबर क्या मैं
अपना अस्तित्व पाना चाहती हूँ
जिंदा रहना अजीब है मुझको
और मैं जिंदा रहना चाहती हूँ”3
भारतीय संस्कृति में नारी को विभिन्न नामों से अलंकृत किया गया है। उनकी श्रेष्ठता और महानता के बारे में तमाम बातें की गई हैं। यही संस्कृति नारी को पूजनीय कहती है परंतु सामाजिक जीवन में ऐसे दृश्य कम देखने को मिलता है। सामाजिक जीवन में हम अनेक पुरुषों को देखते हैं, जो महिलाओं के अधिकारों और समानता का समर्थन करते हैं। वे नारीवादी आंदोलनों मे भाग लेते हैं, महिलाओं के लिए समान वेतन और अवसरों की वकालत करते हैं परंतु निजी जीवन में वे उतने ही पथभ्रष्ट हैं। दामोदर मोरे पुरुषों के दोगले चरित्र को मुखर तरीके से व्याख्यायित करते हैं, जो
बाहरी जीवन में दिखते तो बेहद सभ्य और शिष्ट हैं, मगर
निजी जीवन में वह उतने ही धूर्त और बहरूपिए हैं।
“केवल मंच पर ही तू
ऐसी मधुमय बातें करता
और घर जाते ही पत्नी को लात मारता”4
इन सभी समस्याओं का सामना करते हुए भी आज की नारी आगे बढ़ने के लिए प्रयासरत हैं। उसे जंजीरों में कैद रहना पसंद नहीं वह स्वच्छंद जीवन जीना चाहती हैं। समकालीन हिन्दी कविता ने नारीत्व की एक नयी परिभाषा प्रस्तुत की है, जिसमें स्त्री का स्वतंत्र आत्मनिर्भर और सशक्त व्यक्तित्व देखा जा सकता है। सामाजिक रूढ़ियों, लैंगिक भेदभाव और पितृसत्तात्मक संरचनाओं के कुकृत्यों के खिलाफ संघर्ष करती है। इन्हीं संघर्षरत महिलाओं के जीवन की अभिव्यक्ति मधु गुप्ता के काव्य मे देखने को मिलती है।
“चल पड़ी है नारी अब न रुकेगी
आज उठी है नारी अब ना झुकेगी
चांद पर पहुंच कर परचम लहराया
अपना वर्चस्व सबको बताया
कौन कहता है नारी पीछे है नर से
वह आगे है हर परचम से”5
इसके माध्यम से मधु गुप्ता नारी शक्ति को सशक्त और मजबूत बताते हुए उनमें खुद के बल पर विश्वास करने की भावना को प्रबल करती हैं। समकालीन कविता नारी मुक्ति के साथ-साथ दलितों तथा आदिवासियों की समस्याओं को भी अपने केंद्र में जगह देती है। आधुनिकता और विकास के नाम पर जब सरकारों द्वारा आदिवासियों के जल, जंगल, जमीन उनसे छीनी जा रही हैं। कानून और संविधान को ताक पर रखकर उनके हक को मारा जा रहा है। आज आदिवासियों का विस्थापन, विकास और परिवर्तन बड़ा खतरा है। ऐसी स्थिति के प्रति अब आदिवासी समाज सजग है, जिसके कारण यह सजगता समकालीन आदिवासी कविता में मुखर तरीके से देखने को मिलती है।
“यह कौन सी जगह है अराजकता के पहाड़ पर जहां
जनतंत्र के हलक में आधी शताब्दी से
बनी हुई है प्यास, जनतंत्र से गायब होते
जन का यह कौन सा परिदृश्य है
जहां दुनिया का सबसे मोटा संविधान
जूतियों के तले सिसकता है”6
प्राकृतिक संसाधनों के साथ बेरहम छेड़खानी केवल आदिवासियों के अस्तित्व के लिए ही संकट नहीं हैं, बल्कि सम्पूर्ण मानवता के लिए यह एक बड़ा खतरा है। जब संवेदनहीन सरकारें तथा उनमें व्याप्त भ्रष्टाचार गरीब आदिवासियों का हक मार के खा जाते हैं, जिस काम को करने की जिम्मेदारी सरकारों की है, उसी काम को करने के लिए भी गरीब आदिवासियों को पैसे देने पड़ते हैं। सरकारों में व्याप्त भ्रष्टाचार को उजागर करते हुए निर्मला पुतुल लिखती हैं -
“इंदिरा आवास के लिए बहुत भागदौड़ की
पंचायत सेवक को मुर्गा भी दिया
प्रधान को भी दिया 50 टका
पर अभी तक कुछ नहीं हुआ, पूरा
डेढ़ साल हुआ”7
समकालीन हिन्दी कविता में दलितों की आवाज एक क्रांतिकारी परिवर्तन का प्रतीक है। यह न केवल साहित्यिक क्षेत्र में बदलाव ला रही है, बल्कि सामाजिक और राजनीतिक स्तर पर भी गहरे प्रभाव डाल रही है। लंबे समय से समाज में दलितों के खिलाफ अत्याचार होता रहा हैं, समकालीन कविता दलितों को संवैधानिक अधिकारों से परिचय करवाते हुए अन्याय के विरुद्ध संघर्ष करने की प्रेरणा देती है। इसने दलित समुदाय के जीवन और अनुभवों को मुख्यधारा में लाने का काम किया है। इसके साथ उन लोगों से सवाल करती है, जो खुद को दलितों से अलग समझते हैं। राजेंद्र बडगुजर अपनी कविता ‘मनु का पाप’ में इसका स्पष्ट चित्रण करते हैं।
“वही दो हाथ
वही दो पैर
वही दो आंख
दराती लगने से कटने वाले लहू भी लाल
फिर मैं अलग क्यों?
यही तो सदियों का संताप है
निश्चय ही यह मनु द्वारा किया गया पाप है।”8
मुख्य धारा से जोड़ने की झूठी शर्तों के नाम पर सरकार आदिवासी क्षेत्रों में हस्तक्षेप कर रही है। आदिवासी समाज, जो मुख्य धारा से दूर बसे हुये हैं। वह जंगल, पहाड़, नदी, झरनों को ही अपना सब कुछ मानते हैं। बाहरी दुनिया से उनका कोई सरोकार नहीं, मगर वर्तमान समय में उनके अधिकार और उनकी अस्मिता खतरे में है। वैश्वीकरण के इस दौर में सबसे ज्यादा दोहन प्राकृतिक संसाधनों का ही हो रहा है। और ये प्राकृतिक संसाधन आदिवासी क्षेत्र में ही हैं, जिसके चलते आदिवासियों के समक्ष ये विकट समस्याएं आ खड़ी हुयी हैं। समकालीन कविता न केवल इन समस्याओं को उजागर करती है, बल्कि इसके साथ ही वह मनुष्यता के हक मे अपनी आवाज बुलंद करती है। अनुज लुगुन ने अपनी कविता ‘बाघ’ में इसी वस्तुस्थति का चित्रण किया है –
“जहाँ से वह छलाँग लगाता है
वहाँ के लोगों को लगता है
यह उचित और आवश्यक है
जहाँ पर वह छलाँग लगाता है
वहाँ के लोगों को लगता है
यह उन पर हमला है
और वे तुरन्त खड़े हो जाते हैं
तीर-धनुष, भाले-बरछी और गीतों के साथ”9
सरकारों को खुद का चश्मा उतार कर आदिवासियों के चश्मे से भी उनकी स्थिति को देखना चाहिए। सरकारों के लगातार हमलों के बावजूद आदिवासी समाज ऐसी नीतियों के खिलाफ हमेशा से संघर्षरत है। भारतीय समाज में व्याप्त असमानता एक बड़ी समस्या रही है। लंबे समय से समाज में निर्वासित जीवन जीने के लिए मजबूर दलितों की स्थिति भयानक है। दलित कविता का मूल स्वर समाज में हो रहे वर्ण और जातिभेद पर आधारित शोषण के विरुद्ध मानवीय मूल्यों के संरक्षण का है। समकालीन दलित कविता अपने समय और जीवन यथार्थ को बेहद ईमानदारी के साथ अभिव्यक्त कर रही है। निर्मला पुतुल इसी दृश्य को अपनी कविता में रेखांकित करते हुए शोषक वर्ग से सवाल करती हैं कि उन्हें कैसा लगता अगर यह सब यातनाएं उन्हें सहनी पड़ती।
“कैसा लगता
अगर उस सुदूर पहाड़ की तलहटी में
होता तुम्हारा गाँव
और रह रहे होते तुम
घास-फूस की झोपड़ियों में
गाय, बैल, बकरियों और मुर्गियों के साथ
और बुझने को आतुर ढिबरी की रोशनी में
देखना पड़ता भूख से बिलबिलाते बच्चों का चेहरा तो,
कैसा लगता तुम्हें?”10
समकालीन कविता में सबके लिए स्थान है। किसी भी एक व्यक्ति का सत्य सबका सत्य नहीं हैं। किसी भी प्रकार की सोच से असहमत होने का व्यक्ति को अधिकार है। समकालीन कविता ने इस असहमति के स्वर को बेहद खूबसूरत ढंग से प्रस्तुत किया है। वंदना टेटे की असहमति उन सभी विज्ञापन कंपनियों के खिलाफ है, जो
शरीर की गोरी त्वचा को खूबसूरत समझते हैं, तथा
उनके पक्ष में विज्ञापन करते हैं। वंदना टेटे की नजर में विज्ञापन वाली लड़की की तुलना में श्रमशील लड़की ज्यादा खूबसूरत हैं। त्वचा के रंग के आधार पर किसी को नीचा या कमतर समझने वाली सोच के खिलाफ तथा श्रमशील लड़कियों के पक्ष में वंदना टेटे ने अपनी काव्य रचना की हैं।
“टाँगी,
हँसिया,
दाब,
दराँती
ये सब हमारी सुन्दरता के
प्रसाधन हैं
जिन्हें हाथ में पकड़ते ही
मैं दुनिया की
सबसे सुन्दर स्त्री हो जाती हूँ”11
समकालीन कविता का कैनवास काफी विस्तृत है, जो इसके लोकतांत्रिक और मानवीय होने का प्रमाण है। समकालीन हिन्दी कविता में समाज के सभी वर्गों और समुदायों को समाहित किया गया है, जो अब तक अपनी अभिव्यक्ति के लिए अवसर की तलाश कर रहे थे, जिसने स्त्रियों, दलितों, और आदिवासी जीवन के संघर्ष को केंद्र मे रखकर मानवीय मूल्यों की प्रतिष्ठा की है।
निष्कर्ष : समकालीन हिंदी कविता समाज में उपेक्षित स्त्री, दलित तथा आदिवासियों की स्थिति तथा उनकी समस्याओं को मुखर रूप में हमारे सामने रखते हुए उनमें मानव मूल्यों की खोज करती है। इस कालखंड के कवियों ने सामाजिक, राजनीतिक, और आर्थिक परिवर्तनों के साथ-साथ वैश्वीकरण और तकनीकी प्रगति के प्रभावों को भी अपनी रचनाओं में उजागर किया है। इन परिवर्तनों के बीच मानवीय मूल्यों की प्रासंगिकता और उनका संकट एक प्रमुख विषय रहा है। समकालीन हिन्दी कविता में मानवीय मूल्यों का चित्रण जटिल और बहुआयामी है, जिसे समकालीन कविता ने बेहद मुखर और स्पष्ट रूप में हमारे सामने प्रस्तुत किया है।
सन्दर्भ :
- पवन करण, स्त्री मेरे भीतर(तुम जैसी चाहने वाले हो वैसी नहीं हूँ), राजकमल प्रकाशन, 2012, पृ. 53
- ज्योति निर्मल, ’21वीं सदी की हिन्दी कविता में स्त्री-जीवन’, इक्कीसवीं सदी की हिन्दी कविता (सं. डॉ. सुकुमार भंडारे), पराग प्रकाशन, कानपुर, 2016, पृ. 192
- सविता भाउलाल नागरे, ‘इक्कीसवीं सदी की हिन्दी कविता में नारी जीवन’, इक्कीसवीं सदी की हिन्दी कविता (सं. डॉ. सुकुमार भंडारे), पराग प्रकाशन, कानपुर, 2016, पृ. 160
- प्रताप मिसाल : ‘पिछला चक्का काव्य में दलित स्त्री-जीवन’, इक्कीसवीं सदी की हिन्दी कविता (सं. डॉ. सुकुमार भंडारे), पराग प्रकाशन, कानपुर, 2016, पृ. 185
- संध्या मोहिते : ‘21वीं सदी की कविताओं में स्त्री-जीवन’, इक्कीसवीं सदी की हिन्दी कविता (सं. डॉ. सुकुमार भंडारे), पराग प्रकाशन, कानपुर, 2016, पृ. 202
- नीलकमल, मेरे देश का नाम, (कविता कोश), मेरे देश का नाम - नीलकमल
- निर्मला पुतुल; ‘नगाड़े की तरह बजते शब्द’, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, पृ. 93
- शिवाजी सांगोले: ‘इक्कीसवीं सदी की हिन्दी कविता में दलित चेतना’, इक्कीसवीं सदी की हिन्दी कविता (सं. डॉ. सुकुमार भंडारे), पराग प्रकाशन, कानपुर, 2016, पृ.60
- अनुज लुगुन- बाघ (कविता कोश) - बाघ - अनुज लुगुन
- निर्मला पुतुल- अगर तुम मेरी जगह होते (कविता कोश) - अगर तुम मेरी जगह होते - निर्मला पुतुल
- वंदना टेटे- सबसे सुन्दर स्त्री हो जाती हूँ (कविता कोश) - सबसे सुंदर स्त्री हो जाती हूँ - वंदना टेटे
शोधार्थी, हिन्दी विभाग, अंग्रेजी एवं विदेशी भाषा विश्वविद्यालय, हैदराबाद
vishwajeetsingh00444@gmail.com, 8808287869
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