प्रस्तुत परिभाषा एकदम सटीक जान पड़ती है। मानवीय जीवन के विविध रंग, रूप, समाज और देश में देखे जा सकते हैं। समाज में
पूंजीपति वर्ग, मध्यम वर्ग और निम्न वर्ग अर्थात हाशिए पर पड़ा और खड़ा वह समाज, जिसका कोई हिमायती नहीं। जिसके पास न सिर ढकने के लिए छत है और न ही निश्चिंत होकर पैर फैला कर सोने के लिए ज़मीन का कोई टुकड़ा। हिंदी साहित्य में हाशिए के इन लोगों पर ऐसी कथाएँ तो मिल जाती हैं, किंतु इन पर केन्द्रित उपन्यासों की सूची अधिक लंबी नहीं है। दलित साहित्यकारों ने अन्य कथानकों पर लेखनी तो खूब चलाई है, किंतु घुमन्तू जनजातियों पर सृजन अपेक्षाकृत कम हुआ है। वह भी उपन्यास जैसी विधा पर। काफ़ी समय के अंतराल के बाद वर्ष 2022 में इन्हीं जनजातियों पर एक मनचाहा और सशक्त उपन्यास अध्ययन करने का अवसर मिला। वरिष्ठ साहित्यकार रत्नकुमार सांभरिया का उपन्यास 'साँप'।
'साँप' का कथानक वृहद और कलेवर विस्तृत है, जो राजस्थान साहित्य अकादमी, उदयपुर का सर्वोच्च मीरां पुरस्कार प्राप्त है। उपन्यास भारतवर्ष में रहने वाली खानाबदोश जातियों के जीवन पर आधारित है। इन जातियों के जटिल जीवन की पीड़ा-अनुभूति, दुरूह जीवनशैली का व्यापक रूप उपन्यास में प्रस्तुत किया गया है। साहित्य की किसी भी विधा का सौंदर्य कला पक्ष के अभाव में पूर्ण नहीं होता, इसलिए आवश्यक है कि उसके कला पक्ष का तात्त्विक विश्लेषण भी किया जाए।
कथावस्तु – 'साँप' का कथानक दमदार है। साँप अर्थात मौत का दूसरा रूप। दरअसल 'साँप' कालबेलिया
जाति सहित अन्य दस-बारह घुमक्कड़ जातियों के जीवन पर केन्द्रित है। यानी ये जातियाँ अपने जंगली जीव-जन्तुओं के साथ हर वक्त मौत के साये तले जीती हैं। नि:संदेह अंदाज़-ए-हकीकत बयां की क्षमता तो उपन्यासकार में है। खैर बात करते हैं कथावस्तु की।
उपन्यास की पृष्ठभूमि
विकसित शहर और वीरान, उजाड़ खाली स्थलों पर पड़े डेरे हैं। कथा का आरंभ धनाढ्य सेठ मुकुंददास और उनकी पत्नी मिलनदेवी के नए गृह-दुकान की नींव से हुआ है। यहाँ धनाढ्य वर्ग के रुतबे, धन, सुख-वैभव, संपन्न जीवन, रीति-रिवाजों का बेहद सुंदर चित्रण हुआ है। लेखक का यह कहना कि मानो कुबेर के नुमाइंदे हों, समीचीन जान पड़ता है। बड़े भाई सुकुन्ददास के पास बेटा है और छोटा भाई मुकुंददास नि:संतान है। अपने बड़े भाई की पत्नी सूरतीदेवी के तानों से मुकुंददास की पत्नी मिलनदेवी व्याकुल रहती है। इस उद्देश्य से पति-पत्नी अपने नए मकान-दुकान के निर्माण का निर्णय लेते हैं। वे नए घर की नींव के उत्सव उल्लास से गदगद हैं।
लेखक ने मज़दूर वर्ग की हालत को बयान करते हुए लिखा, "काबा मज़दूर का शरीर मृदा की प्रतिमा सा है।"
यह उनकी ज़िंदगी में धनाभाव, दरिद्रता और परिश्रम से कुरूप शरीर के चित्र को दर्शाता है। कथानक की शुरुआत में ही कोने की जड़ सी उठी जमीं पर मज़दूर का कस्सी मारना और पूंछड़ी का निकल कर छटपटाना कथा का सुंदर आरंभ है, जहाँ से साँप के लीड रोल में आने का आगाज़ कहा जा सकता है। साँप कस्सी के प्रहार से क्रोधवश फन उठा फुंकारता है और रौद्र रूप धर लेता है। अपनी ओर लपलपाती दोहरी जीभ से मजदूर के प्राण हलक में अटक जाते हैं। लेखक ने पुजारी का दोहरा चरित्र भी उपन्यास में उजागर किया है कि एक तरफ़ नाग-नागिन का चाँदी का जोड़ा नींव में रखने की सलाह वह देता है, दूसरी ओर वह जीवित साँप को मारने का सुझाव भी देने से नहीं चूकता। लालचीपन की हद देखें, वह पैसे देते ही मुहूर्त बदल देता है। इस तरह पाठक के समक्ष लेखक सच को पेश करता नज़र आता है। धर्म-कर्म में आस्था रखने वाला सेठ अंतिम निर्णय यह लेता है कि नींव में फँसे पूंछड़ी कटे नाग को सुरक्षित जंगल में छुड़वा कर मंगल मुहूर्त में नींव का काम सम्पन्न कराया जाए। जो कहीं न कहीं जीव के प्रति सहानुभूति
और दया की भावना को पुष्ट करता है। पूंजीपति सेठ भयभीत मज़दूर को साथ लेकर सपेरे की तलाश में निकल पड़ता है।
उपन्यासकार
ने इस प्रकार भारत में बड़ी आबादी के रूप में मौजूद हाशिए के लोगों की दुनिया में शहरी लोगों की दुनिया का प्रवेश करवाया है, जो उसकी सूझबूझ का परिचायक है। उपन्यासकार
ने जनजातीय समुदायों के जीवन की कठिनाइयों का सूक्ष्म चित्रण ही नहीं किया, अपितु उनके रहन-सहन, ईमानदारी से कमाई जाने वाली जीविका, निर्मल स्वभाव, जुबां में सच का कसैलापन दिखाया है। यह स्वभाव वीराने में उनके अस्तित्व को बचाने में मददगार होता है। उपन्यास में मदारी, भालू का नाच दिखाने वाली जाति, सपेरा आदि हाशिए पर मौजूद लोगों की अनोखी छवि, वेशभूषा , उनकी जिंदगी का जीवंत चित्रण है। इन लोगों की कला, सभ्यता और संस्कृति के बीच आपसी प्रेम और सौहार्द का तालमेल इस उपन्यास में मौजूद है।
सारे दृश्य प्रत्यक्ष से दृष्टिगत होते हैं, लखीनाथ बाईस की उम्र में अभाव भरी इस दुनिया में जीकर यह जान चुका था कि दीन दुनिया से मुक्ति का एक ही मार्ग है- शिक्षा। इसलिए वह अब किसी भी कीमत पर अपने बच्चों की शिक्षा प्राप्ति के विषय में समझौता नहीं करना चाहता। मुँहमाँगी मजदूरी की बात सुन कर सेठ को आगाह करना इस बात को साबित करता है कि सर्वहारा वर्ग की दुनिया लोभ, दंभ, द्वेष से कहीं दूर सहज और मानवीय है। अभावग्रस्त लोगों की दुनिया परसुखानुभूति की दुनिया है। ये तमाम जनजातीय समुदाय समाज से लेकर राजनीति और अर्थव्यवस्था तक सभी की आँखों से ओझल रहे हैं या जानबूझकर अधिकार वंचित किए गए हैं। उन लोगों को स्वयं सोचना चाहिए जो इनके अधिकार दबाए बैठे हैं। जहाँ देश में सबके हिस्से ज़मीन है, घर हैं, साधन हैं, रोज़गार हैं, इनके हिस्से कहाँ हैं ? वे भी भारतीय नागरिक हैं, तो फिर उनके हिस्से किसने हड़पे ? क्यों हड़प लिए ? ऐसे अनेक प्रश्न उपन्यास में उठते हैं। इन समूहों की एकता, शक्ति, चेतना के अभाव में बिखरी दिखाई देती है। उपन्यासकार ने जब उपन्यास के मध्य में इनकी चेतना को नायिका के माध्यम से जाग्रत किया तो इनकी शक्ति और सामूहिक बल से सत्ता भी थरथराती दिखाई दी। इस कथानक में जनजातीय आन्दोलन का अद्भुत रूप वरिष्ठ लेखक सांभरिया ने उकेरा है। अत्यंत व्यापक रूप में जिसमें केवल खानाबदोश जीवनयापन करने वाले मुनष्य ही नहीं बल्कि पशु-पक्षी भी सम्मिलित हैं; जो शायद ही किसी अन्य लेखक की कल्पना में भी रहा हो। ये इस उपन्यास का सबसे अनूठा अध्याय और दृश्य है। कथा में आंशिक रूप से विगत स्मृतियों के चलचित्र भी विद्यमान हैं। उपन्यास का कथानक आधुनिक युग के विकासशील देश में जनजातियों
की जटिल जीवन शैली का सच्चा चित्र प्रस्तुत करता है।
पात्रों की बात करें तो केंद्रीय पात्रों में तीन स्त्रियाँ
और एक पुरुष है। उपन्यास की नायिका रूप-लावण्य, अनुपम सौंदर्य की धनी है और बुद्धिमती
होने के साथ सामाजिक कार्यकर्ता, निर्भीक, समर्पित, दृढ़ संकल्प एवं संपन्न परिवार की सुविधाभोगी स्त्री है। बावजूद इसके वह संवेदनशील है। वह जन-मन समिति की सचिव और एम.एल.ए. चमनादास की पुत्रवधू है। नायिका सवर्ण पात्र है, जो नायक के जनजातीय जीवन के बड़े बदलाव में अपनी संपूर्ण ताकत झोंक देती है।
पहली विशेष बात इस उपन्यास की यह है कि उपन्यास में इस धारणा को अंगूठा दिखाया गया कि वचनबद्धता
की वाहक होने की रीति केवल सवर्ण या रघुकुल में ही है, बल्कि इसका संबंध हर ईमानदार व्यक्ति से है। इस उपन्यास का नायक लखीनाथ और उसकी पत्नी इस धारणा को तोड़ते हैं। यानी हाशिए की श्रमिक जातियाँ किसी भी जातिगत श्रेष्ठतावादी धारणा को खंडित करती हैं। दूसरी महत्त्वपूर्ण और उल्लेखनीय
चीज़ उपन्यास में आंदोलन का नवीन रूप है, जिसमें मनुष्यों के साथ जानवर भी अपनी भागीदारी निभा रहे हैं।
स्त्री पात्र सरकीबाई मदारिन जहाँ खुद्दार है, वहीं धर्मकंवर एक दमदार एस.पी. है। जिसके सहयोग से लखीनाथ रिहा होता है और अपराधियों
को सजा मिलती है।
जनजाति वर्ग की स्त्रियाँ
साहसी और धैर्यवान दिखाई गई हैं। रमतीबाई मदारिन इसका उदाहरण है। रमतीबाई नायक की पत्नी है। बाईस वर्ष की आयु , इकहरी काया छरहरेपन की दहक, सलोना रंग, यमुना के जल सी बहती कशिश है। चेहरे पर चेचक के दाग हैं, लेकिन वह कुरूपता नहीं, सुंदरता के हमराह हैं।
वह इतनी ज्ञानी है कि लोगों के अच्छे बुरे भावों को झट से बिना बोले हाव-भाव से ही भाँप लेती है। सपरानाथ जब नशे में धुत होता है और उसकी आँखों में वासना भरी देखती है तो वह उसे चौखट के पास जाकर वहीं रोक देती है और दुत्कार कर गुस्से से अंदर आ जाती है। सपरानाथ से वह कई बार अपनी अस्मिता की रक्षा
स्वयं ही करती है। एक निर्भीक पात्र है रमतीबाई। वह सरूपानाथ से, लखीनाथ से साँप के सौदे में रमती के साथ एक रात मांगता है। इन शब्दों को सुन वह आग बबूला हो उठता है। जब इस घटना के बाद वह सपेरे को पीटता है तो रमती देहरी पर आकर कहती है -"मुँह पे खोसड़ा मार, नपूता, रण्डक- भंडक के।"2
एक साधारण सुघड़ गृहणी की भांति वह मिलनदेवी और काजल के घर आने पर आदर सत्कार भी करती है और कहती है- "भैण जी गाय, भैंस तो म्हारे राख्या ना, बकरी खड़ी है, थन भरी। चा बनाऊं?"3
रमती और लखीनाथ बातचीत करते हैं तो रमती मिलन और उनके आने की बात उसे बताती है। चाँदी का सिक्का और मुड़ा हुआ सौ का नोट लौटाने की बात रमती कहती है जिससे उनके ईमानदार होने और अपनी कमाई का खाने की ओर संकेत किया गया है
-"दूसरां की चीज़ बसत आपणा घर ठीक ना होवै। ये बड़ा लोग हैं न, आला-चाला हौवै। बैखेड़ा कर दे, भरोसा ना। चोरी चकारी का ऐब घाल दे। सहर आतो मोड़ आईयो।"4...
अपने कामों में पतियों का साथ देती ज़िम्मेदार
स्त्रियाँ! रमतीबाई त्यागमयी है। वह अपने बच्चे को मिलन को सौंप देती है। वह पति के वचन के साथ अडिग खड़ी रहती है और अपना दूधमुँहा बच्चा उसे देती है। उसी के माध्यम से रचनाकर ने डेरे की रीति रिवाज़, परम्पराओं का भी खुलासा किया है। पति का नाम न लेना, लोक लाज का प्रतीक है, इन समुदायों में स्त्री को विधवा न रखना प्रगतिशील सोच और स्त्री पक्ष के प्रति सजगता का संकेत है। महिला का सम्मान उसकी कोख से होता है, ये सामाजिक धारणाएँ भी रमतीबाई द्वारा कहलवाई गई हैं।
मिलनदेवी नायिका होने के नाते अपनी कोख के बांझपन को लेकर चिंताग्रस्त
है। उसके मन में नि:संतान होने की टीस है, जो उसे दिन-रात सोने नहीं देती। मन में विषाद, माँ न बनने का संताप उसकी नींद उड़ा देता है। मिलनदेवी को लेखक ने शायद इसीलिए समाज के कल्याणकारी कार्यों में लगाया है। अपनी जेठानी के नि:संतान होने के ताने शब्दभेदी बाण की भांति उसे भेद देते हैं और वह पैने बाण से रक्तरंजित पक्षी की भाँति आर्तर्नाद करती है। नायिका इसी कारण अपने परिवार और घर में तनाव भी झेल रही है।
नायक लखीनाथ बाइस तेईस वर्ष का नौजवान सपेरा है-
"जलती आँखें। चिरते कलेजे। सुशील, सुदर्शन, समुद्र की हिलोरे मारता यौवन, बाईस-तेईस की उम्र। भगवा कुरता। धवल धोती। पैरों में कुरम की जूतियाँ। कानों में पीतल के कुंडल। घुंघराली लटें कंधों पर गिरती। बैरागी सा मनोभाव।"5
नायक अशिक्षित होते हुए भी बुद्धिमान,
साहसी और वाक् चातुर्य जानता है। पैसा अंत तक भी उसके दृढ़ निश्चय को हिला नहीं पाता। वह अपने डेरावासी घुमंतू जातियों का आंदोलन में नेतृत्व भी करता है। मिलनदेवी का उसके प्रति आकर्षण जीवन में संतान सुख मिलने की आशाओं का उद्गम करता है। लखीनाथ को रिझाने के लिए उसका वेश बदलना, उसकी ओर उन्मुख होना, उसके डेरे में बार-बार जाना, सभी खानाबदोश लोगों को अधिकारों के प्रति जागरूक करना, प्रशासन से टकराना, जमीन बिछाने और आसमान ओढ़ने वालों को स्थाई घर दिलवाना आदि घटित घटनाओं के पीछे मात्र एक मकसद दिखाई देता है-संतान प्राप्ति।
नायिका अपने कौतूहल को दबा नहीं पाती है, वह एक शिक्षित, निडर, अपने कहे के प्रति प्रतिबद्ध, जागरूक, आन्दोलन नेत्री और संघर्षशील महिला है जो इन घुमंतुओं के लिए वरदान साबित हुई है। उसने सत्कर्म किया,स्वप्रेरित हुई और जनजातियों के प्रति करुणाप्लावित होकर संघर्ष करती रही। इतना महत्त्वपूर्ण कार्य नायिका से पूर्ण करवा लेखक ने इससे नारी सशक्तीकरण के स्वर को रेखांकित किया है।
इसी तरह पतिव्रता, स्पष्ट बयानी, साहसी स्त्री के रूप में लखीनाथ
की पत्नी को देखा जा सकता है। गरीबी में भी दुर्बलता, असमर्थता इन जातियों में कम दिखाई पड़ती है। जनजातीय लोगों के जीवन के रहन-सहन, खान-पान, विषाद, पीड़ा, दिनचर्या को लेखक ने यथार्थ रूप में प्रस्तुत किया है। पुनर्वास के इस अकल्पनीय स्वप्न के साकार होने में जितनी भूमिका मुनष्य की है, उतनी ही जानवरों की भी। यहीं संगठन की अहमियत विशाल आन्दोलन रूप में सामने आती है जिसे अनुपम और अनूठापन कहना उचित होगा। मुख्य पात्र आत्मकेंद्रीयता से मुक्त हैं, व्यापक दृष्टिकोण अपनाएं हुए हैं और ज्यादातर पात्र परिश्रम-विश्वासी हैं। नायिका कबीले की दुनिया से अनजान होते हुए भी परोपकारी भाव, कृतज्ञता से अभिभूत उदात्त आचरण लिए है। सवर्ण जातियों एवं राजनैतिक रूप से सशक्त वर्ग के विश्वासघात, प्रवंचना, झूठे आश्वासन सभी को सिलसिलेवार उपन्यास में स्थान मिला है। उपन्यास में पंद्रह से अधिक जनजातियों के संघर्ष को चित्रित किया गया है। कथांत में दोनों पात्र लखीनाथ और मिलनदेवी अपने-अपने वचन को पूरा करते हैं और एक दीर्घ संघर्ष के परिणाम स्वरूप घुमंतू जातियाँ न्याय प्राप्त करती हैं। इन्हें ज़मीन से घर तक, शिक्षा से रोजगार तक, वोट से अधिकार तक, अधिकार से शासन प्रणाली तक और देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था से कोसों दूर रखा गया जो उनके पिछड़ने और हाशिए तक पहुँचने का मूल कारण था और सत्ता पर धनवानों के काबिज़ होने का मूल मंत्र। राजतंत्र के संदर्भ में आए चरित्र हों या पुलिस प्रशासन के चरित्र सभी के घिनौने सच को उपन्यास में दृश्यमयी भाषा में उभारा है। घुमंतू जातियों की एकजुटता ने सत्ता व प्रशासन के पैरों तले की ज़मीन खींच ली। ये पात्र हृदय और मतिष्क दोनों को आकृष्ट करते हैं। पात्रों और जानवरों के माध्यम से क्रांति जो समाज का स्वरूप बदलती हैं, इसमें नवीन और व्यापक दृष्टिकोण का समावेश हुआ है।
उपन्यास में बहुत सी विशेष बातें हैं जिनमें एक ख़ास बात ये है कि अक्सर कुछ दलित लेखक अपने लेखन में गैर वर्ण के पात्रों की भूमिका को रेखांकित इसलिए नहीं करते, क्योंकि उन्हें दलित और सहानुभूति
शब्द चुभता है; या वे केवल ये जताना चाहते हैं कि शुद्ध दलित साहित्य में दलित ही दिखाए जाएँ। यही कारण है कि अपने जीवन में उनकी महत्ती या छोटी भूमिका को वे बाहर कर वे एकांगी साहित्य लिखने का प्रयास करते रहें हैं। हाँ , सवर्ण शोषक रूप में अवश्य दर्ज़ होता रहा है। इस मायने में इस उपन्यास और उपन्यासकार
की ईमानदारी की प्रशंसा अवश्य होनी ही चाहिए।
भाषा दृष्टिबोध
का पहला साधन होती है। उचित शब्द प्रयोग संगत माना जाता है, यही कला पक्ष का प्रथम सोपान भी माना गया है। लेखक जनजातीय जीवन के माध्यम से डेरे में रह रही जनजातियों का विवरण देता है- 'नंदीवाला, बहुरूपिया, बाज़ीगर, कलंदर, मदारी पेरना, सपेरा-कालबेलिया ?'
इन लोगों के साहस, चौकन्नेपन और उनके साथी जानवरों की अहम भूमिका को प्रस्तुत करता ये विवरणात्मक
संवाद उनकी वास्तविक ज़िंदगी का परिचयक है- "यस मैम जंगल में रहने वाले लोग विषमताओं से खेलते हैं, डरते नहीं। आग दिखते ही डेरे जाग गए। लोगों ने लाठी, बर्छी, बंकी, डंडा, खुखरी, पत्थर, भाटे लेकर बदमाशों का डट कर सामना किया। जानवर छोड़ दिए गए। कुत्ते लगा दिए गए।"7
मानवीय पीड़ा को दर्शाते हुए रचनाकर लिखता है-
"हुकूम म्हारी घुमक्कड़ जातियाँ अपने ही देस में बीरानी हैं। अनजानी हैं। बिना चेहरा की हैं। देस आपणो। परदेस आपणो।
पर ना म्हारो कोई गाम। ना ठीयो। ना गली। ना कूचा।.... मारे पीटे। झूठ पे साचो गूंठो टिकवा ले।"...8
लोकगीत जनजातियों
की संस्कृति के चित्र प्रस्तुत करते हैं। विषम परिस्थितियों
में भी मन बहलाने के प्रयास स्त्रियाँ करती हैं जो एक स्थानीय रंगत को प्रदर्शित
करता है और काव्यात्मकता को भी-
"बाजे री ने गुजरी रसिया चूंदड़ी
दोनू घडावों लाडा आज री घड़ी
घर लाबौ केसरिया बालम बाजे री गुजरी।"
9
तीज-त्योहारों,
बदलते मौसमों का मुनष्य पर सामान्य प्रभाव पड़ता है। वह मुनष्य को धर्म, जाति, धन के आधार पर विभाजित नहीं करता। प्रकृति भेद से परे हैं। उसका सम्मोहन सभी के लिए बराबर है। वह निर्धन व्यक्ति, जीव-जंतु सभी को अपना सान्निध्य देती है। इन निर्जन वनों के जीवन की शुष्कताओं को भी मोहक फागुन मोह रहा है और कुछ प्रसन्नता हृदय को प्रफुल्लित किए हुए है- - "फागुन था। इन दिनों धरती फूल-फूल फूले नहीं समाती। हरे, पीले, लाल, गुलाबी, नीले, सफ़ेद, बैंगनी रंगों की सतरंगी ओढ़नी ओढ़े रीझ-रीझ जाती। सुहागिन सी इठलाई फाग गाती हैं।"10
सजीव संसार और जनजातीय समुदाय के जीवन पर उपन्यासकार की पैनी दृष्टि बनी रही है। ऐसे दृश्य जिनमें मनुष्यों का मुनष्य द्वारा गुलाम बनाया जाना, मुनष्य द्वारा जीव-जंतुओं को गुलाम बनाया जाना और मुनष्य ने अपने निहित स्वार्थवश न पशुओं के लिए जंगल छोड़े, न कुछ लोगों के सिरों पर छत। मानव के संग पशु-पक्षियों की आंदोलन में भागीदारी का दुर्लभ दृश्य प्रस्तुत करना लेखक की असाधारण बुद्धिमता का प्रमाण है।
दृश्यात्मकता-
दृश्यात्मकता की बात करें तो उपन्यास जीवन की अतल गहराई लिए है। जनजातीय जीवन में घटित घटनाएँ, दिनचर्या, पेशे के दृश्य, सजग चेतना के विभिन्न परिदृश्य जीवंत हैं। प्रकृति और वातावरण जीवंत एवं नवीनतम आंकाक्षाओं से परिपूर्ण हैं । उपन्यास में जनतांत्रिकी का विराट स्वरूप है-
"धरती के कीड़े-मकोड़ों जैसे गंदे-संदे ज़मीनी लोग, साँप कोबरा, जैसे ज़हरीले जीवों, रीछ, भालू जैसे जंगली जानवर, बंदर-बंदरिया जैसे डरावने प्राणियों, गर्दभ जैसे ढीठ पशु, बाज़ जैसे आंतकी पखेरू, कबूतर और तोता जैसे निरीह पक्षियों का कारवां दोपहर बाद प्रदेश की राजधानी की कोलतार की सड़कों पर ऐसे उतरा मानो मखमल पर टाट सरक रहा हो। घुमंतुओं के उभाने पैरों में छाले पड़ गए थे। जानवरों के खुर चट गए थे। जोश और जज़्बा बरकरार था।"11
उपन्यास का अद्भुत एवं आश्चर्यचकित
कर देने वाला शब्द चित्र है- "उन्होंने रस्से के उस ओर निगाह भरी। चश्मे के भीतर आंखें फैल गईं। साँसें सरक गईं। हृदय की धड़कन धक-धक में बदल गई। तंगहाली का जीवंत संसार। दरिद्रता का हहराता समंदर। भूख का भभकता सैलाब। प्रदेश में गरीबी की खान है, जिसका कंकड़ यहाँ इकट्ठा हुआ.... भलीराम मदारी एक हाथ से रीछ की रास पकड़े था, दूसरे हाथ में डुगडुगी थी। पास ही सरकीबाई कुत्ता लिए खड़ी थी। मदारी ने डुगडुगी बजाई। रीछ झूमने लगा। कुत्ता चौकना हुआ और भूंक उठा।"12
भाषा शैली- भाषा के माध्यम से उपन्यासकार
ने भावों और विचारों को प्रभावशाली ढंग से अभिव्यक्त किया है। उन्हें संप्रेषणीय बनाया है तथा सहृदय संवेद्य बनाकर पाठक को रससिक्त किया है। भाषा में शब्द शक्तियों का प्रयोग ख़ासकर व्यंजना का प्रयोग भाषा का पोषक तत्त्व माना गया है, जिसके द्वारा अर्थ गौरव की सृष्टि की जाती है। काव्यात्मकता उसमें मधुरता बढ़ाती है। भाव की तरलता, गहनता से रचना विकसित होती है और कला पक्ष सुदृढ़। उपन्यासकार की भाषा हिंदी शब्दों से युक्त, परिमार्जित, प्रांजलता लिए है। बोधगम्यता का गुण भी प्रस्तुत उपन्यास का गुण है, खड़ी बोली, राजस्थानी, अंग्रेज़ी शब्दों का प्रयोग ही नहीं, बल्कि पूरे वाक्यों का प्रयोग लेखक ने किया है, स्ट्रैचर, सिविल हॉस्पिटल, ऑपरेशन, ट्रीटमेंट आदि।
"नॉट एट ऑल, वाउंड इज वेरी डीप।"13
हरियाणवी लोकोक्तियों
का खूब प्रयोग किया गया है, पात्रों की बोलचाल की भाषा में भी देशज, दसेक, किरामात, मोकलो, इबी, आदि। इसी तरह अंग्रेज़ी, उर्दू शब्दों का प्रयोग बहुलता से हुआ है। वाक्य रचना में कहीं-कहीं ठेठ आंचलिक शब्दों के प्रयोग से भाषा में क्लिष्टता भी आई है। लेकिन ये शब्द चयन साहित्य रचना के मूल्य बढ़ाते है, काव्यात्मकता, आलंकारिकता, चित्रमयता एवं लाक्षणिक शब्दावली कृति की विशेष खूबसूरती है।
उद्देश्य - रचनाकर ने खानाबदोश जीवनयापन करने वाले भारतवासियों
की मूलभूत समस्या को केवल उजागर ही नहीं किया, अपितु जनजातीय समाज की पुनर्वास की सदियों पुरानी समस्या का निराकरण कर उन्हें विकासोन्मुखता की ओर अग्रसर किया है। उपन्यास स्वांतःसुखाय की भावना से ओत-प्रोत है। लेखक जन आन्दोलन और क्रांति के साथ लोकतंत्र की ताकत का अहसास इस रचना में कराते हैं। सामाजिक एकजुता से ही शक्ति आती है जो सत्ता को झुका सकती है और अपने अधिकार हासिल करवा सकती है उपन्यास इस बात का प्रमाण देता है। लेखक ने एक कालबेलिया जाति के नायक का चयन कर सबसे दयनीय तबके को प्रमुखता प्रदान कर अपनी पक्षधरता व्यक्त की है। अपना सामाजिक उत्तरदायित्व निभाते हुए दलितों में भी दलित अधिकार वंचित जाति की शुष्क दुनिया का विस्तृत रूप पाठकों के समक्ष रखा है। निष्कर्ष रूप में कह सकते हैं कि उपन्यासकार ने उपन्यास के भाव और कला पक्ष को सशक्त रूप से उद्घाटित किया है।
असिस्टेंट प्रोफ़ेसर, ज़ाकिर हुसैन दिल्ली कॉलेज (सांध्य), दिल्ली विश्वविद्यालय
Rgiroh76@zhe.du.ac.in
अपनी माटी के संपादक मंडल का हार्दिक धन्यवाद
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