शोध आलेख : कहानी का नाट्यरूपान्तरण : रचना प्रक्रिया के विविध आयाम / डॉ. राखी क्लेमन्ट

कहानी का नाट्यरूपान्तरण : रचना प्रक्रिया के विविध आयाम
- डॉ. राखी क्लेमन्ट

शोध सार : आज हिंदी नाटक और रंगमंच पर संगीत, नृत्य, चित्रकला, कथा साहित्य, कविता आदि को लेकर अनेक प्रयोग हो रहे हैं। बदलते परिवेश, परिवर्तित मूल्य, सभ्यता और संस्कृति के विकास के साथ समय की मांगएवं युगीन आवश्यकतानुसार नाट्य साहित्य के रूप में निरन्तर परिवर्तन होते रहते हैं। साहित्यिक कृतियों का नाटक रूप में परिवर्तन या अन्तरण करने की प्रक्रिया आज ज़ोरदार रूप में चल रही है। कहानी, उपन्यास, कविता, लघुकथा, संस्मरण, जीवनी, आत्मकथा जैसे प्रचलित सभी साहित्यिक विधाएँ नाट्यरूपान्तरण के लिए उपयोगी सिद्ध हुए हैं। फिर भी ज्यादातर रूप में कथा साहित्य के नाट्यरूपान्तरण अधिक हुए हैं। इसको बहुसंख्यक लोगों तक पहँचाने में रेडियो, दूरदर्शन, सिनेमा जैसे दृश्य-श्रव्य माध्यमों की भूमिका भी महत्वपूर्ण है।आज कहानी का नाट्यरूपान्तरण या कहानी का मंचन समकालीन हिन्दी रंगमंच की नूतन प्रवृत्ति बन गया है। यह कहानी और नाटक दोनों विधाओं को समृद्ध कराने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इस प्रक्रिया से कहानी के पढने और सुनने के पाठकीय आस्वाद के साथ नाटकीय दृश्यात्मकता का आनन्द भी मिलता है। अत: एक पाठ्य पुस्तक जीवन्त होकर ज्यादातर लोगों तक पहुँचते हैं। इससे अनपढ लोग भी लाभ उठाते हैं। कथावाचन, कथागायन और आख्यान की मौखिक परंपरा से आगे बढकर युगीन आवश्यकताओं के अनुरूप कहानी के आधुनिक लिखित एवं प्रकाशित साहित्य रूप को पाठक और श्रोता की सीमा लाँघकर सीधे दर्शकों तक लाने का प्रयास इस प्रक्रिया द्वारा होता है। नाटक या रंगमंच के लिए चुनी हुई लगभग सारी हिन्दी कहानियाँ अपने समय की चर्चित कहानियाँ रही हैं। उन कहानियों के माध्यम से हिन्दी का श्रेष्ठ साहित्य नाटक में आया।

बीज शब्द : रूपान्तरंण, नाट्यरूपान्तरण, कहानी का नाट्यरूपान्तरण एवं मंचन, लेखकरूपान्तरकार, निर्देशक, अभिनेता, दृश्य-श्रव्य-माध्यम, रंग-संकेत, संप्रेषणीयता 

मूल आलेख : 

भूमिका - ‘रूपांतरणशब्दरूपतथाअन्तरण(रूप+अन्तरण=रूपान्तरण) के योग से बना है, जिसका अर्थ है- ‘रूप को बदलना परिवर्तन, अनुवाद, उल्था, एडेप्टेशन आदि इसके पर्यायवाची शब्द हैं। डॉ. शंभूनाथ द्विवेदी के अनुसारएक विधा की रचना को दूसरी विधा में परिवर्तित किए जाने की क्रिया कोरूपांतरणकहा जाता है। कई विद्वान इसे विधान्तर भी कहते हैं। इस शब्द का अर्थ है - रूप बदलना। इसमें स्रोत भाषा के कथ्य को लक्ष्य भाषा में प्रस्तुत करते समय उसके रूप को परिवर्तित कर दिया जाता है।1 साहित्यिक विधाओं तथा साहित्येतर विधाओं में यह प्रक्रिया निरंतर होती रहती है। साहित्य के क्षेत्र मेंकिसी एक साहित्य का दूसरे साहित्य में अन्तरण करना साहित्य का रूपांतरण है।2 इस प्रक्रिया से निश्चय ही इन विधाओं के पारस्परिक संबंधों को नया रूप एवं नई गति प्राप्त होती है।

साहित्य के लगभग सभी विधाएँ रूपांतरण के लिए उपयोगी सिद्ध होती हैं। हिंदी साहित्य में आदिकाल से लेकर पौराणिक तथा अन्य कथाख्यानों के आधार पर प्रबंध काव्य के रूप में, नाटक के रूप में, कहानी के रूप में तथा उपन्यास के रूप में रूपान्तरण की प्रक्रिया चल रही है। इस प्रकार रूपांतरण की प्रक्रिया प्राचीन काल से ही प्रचलित थी। लेकिन इसका अधिकाधिक प्रचार-प्रसार आधुनिक काल में ही हुआ।  मुद्रण का आविष्कार तथा रेडियो, टेलीविजन, सिनेमा जैसे दृश्य-श्रव्य-माध्यमों एवं नव माध्यमों के विकास ने इसको बहुविध रूप प्रदान किया।

सातवाँ और आठवाँ दशक  नाटककार और निर्देशकों  केलिए अनेक प्रकार की चुनौतियों का समय था। उन चुनौतियों के समाधान के रूप में एक नई कलात्मक विधा के रूप में नाट्यरूपांतरण का आरंभ होता है। पीछे नाट्यरूपांतरण नाटक एवं रंगमंच का एक अभिन्न अंग बन गया। आज नाट्यरूपान्तरण एक सशक्त विधा बन गयी है। इसमें मुख्य रूप से नाटकेतर साहित्यिक कृतियों का नाटक रूप में परिवर्तन या अन्तरण करने की प्रक्रिया होती है। यह एक पुनर्सृजन की नयी पद्धति है।कारण चाहे अच्छे मौलिक नाटकों की कमी हो या नयेपन की तलाश अथवा कोई और सुविधा-यह सच है कि हिंदी के अधिकांश रंगकर्मियों और नाट्य दलों ने नाट्यरूपान्तरों को अभिमंचित अवश्य किया है।3 इस अनोखी साहित्य सृजन से जनमानस अवश्य आन्दोलित हो उठता है। साहित्य की सभी विधाओं को अपने आप में समेटने की क्षमता नाटक में निहित होने के कारण साहित्य की सभी विधाओं को रूपान्तरण की प्रक्रिया द्वारा नाटक रूप में ढाला जा सकता है। इससे मूल रचना को पढ़ने, सुनने और देखने का अनुभव एक साथ मिल भी जाता है।

नाट्यरूपान्तरण दो प्रकार के हो सकते हैं-मूल कृति की वस्तु को ज्यों-का-त्यों किसी दूसरी विधा में लाना और मूल कृति की वस्तु को आदार बनाकर रूपान्तरकार के कल्पना के अनुसार किसी दूसरी विधा में लाना। डॉ.गिरीश रस्तोगी के अनुसारकिसी भी कृति को संवादबद्ध कर देना नाट्यरूपान्तरण नहीं है। नाट्यरूपान्तरण गौण वस्तु हैं , द्वितीय-तृतीय स्तर की चीज़।वह भी सृजन हैं- एक मौलिक कृति का पुनर्सृजन। इसलिए उसका तात्पर्य किसी बनी-बनाई रचना को केवल इस्तेमाल करना नहीं है, उस रचना में अन्तर्निहित दूरगामी संभावनाओं  और कला एवं साहित्य के विलक्षण सम्बन्ध-सूत्रों को तलाशना,पिरोना और नवीन सौन्दर्य़बोध के साथ बड़े समूह तक संप्रेषित करना है और लिखित शब्दों को दृश्यात्मक लय,टोन और भिन्न आकार देना है।4

बहुत से हिन्दी और अन्य देशी-विदेशी भाषाओं के अनेक साहित्यिक रचनाओं के नाट्यरूपान्तरण/ मंचन हुए हैं और अब भी हो रहे है। कहानी, उपन्यास, कविता, नाटक, लघुकथा, सस्मरण, जीवनी, आत्मकथा जैसे प्रचलित सभी साहित्यिक विधाएं नाट्यरूपान्तरण के लिए उपयोगी सिद्ध होते हैं। फिर भी ज़्यादातर रूप में कथा-साहित्य का नाट्यरूपान्तरण अधिक हुए हैं। इन दो विधाओं के नाट्यरूपान्तरण से हिन्दी रंगमंच संपन्न हुआ है। यह प्रक्रिया रंगमंच का अभिन्न अंग बन गया। यह प्रक्रिया रंगमंच का अभिन्न अंग बन गया। छठे-आठवें,आठवें दशक में तीव्र रचनात्मक प्रक्रिया के साथ कथा साहित्य रंगमंच का अभिन्न अंग बना।5

     कहानी और नाटक दोनों कथात्मक साहित्य है, दोनों में कथानक, चरित्र, देशकाल आदि समान तत्व हैं। ये समानताएँ होते  हुए भी दोनों में कुछ भिन्नताएँ भी हैं। कहानी के विवरणात्मक श्रव्य अनुभव को नाटक के संवादों, क्रियाओं एवं स्थितियों के माध्यम से सीमित समय में, दृश्यानुभव में बदलने की प्रक्रिया ही कहानी का नाट्यरूपांतरण में होता है। यह वास्तव में कहानियों के भीतर नाटक एवं रंगमंच को तलाश करने का प्रयास है साथ ही कहानी के अदृश्य मर्म को पकड़ने की कोशिश भी है।  इसमें कहानी सुनते या पढ़ते समय श्रोता या पाठक के मन या आँखों के सामने आनेवाले दृश्य जगत को साकार करने की प्रक्रिया होती है। अर्थात् पढने, सुनने और देखने का अनुभव एक साथ मिलता है। 

    कहानी का नाट्यरूपान्तरण : रचना प्रक्रिया के विविध आयाम

प्राचीन काल से हमारे देश में कहानी कहने-सुनने की परंपरा रही है। राजा रानी की कहानियाँ, पौराणिक कथाएँ, लोक कथाओं की कथा वाचन या कथा गायन की लोक परंपराएँ- इसके लिए उदाहरण हैं। ये सभी शैलियाँ मुद्रित या लिखित आलेख पर आधारित नहीं थीं। ये सब कहानियाँ सुनने वालों की कल्पना के रंग पर निर्भर थीं। आगे चलकर सभ्यता और संस्कृति के विकास के साथ-साथ मुद्रण का आविष्कार इसमें बदलाव लाने में सहायक हुआ। पाठकों को एकांत में बैठ कर चुपचाप कहानी पढ़ने का अवसर मिला। इसके बाद रेडियो, दूरदर्शन, सिनेमा जैसे नवीन माध्यमों का प्रचार-प्रसार कहानी को सीधे श्रोताओं और दर्शकों तक पहुँचाने में सहायक सिद्ध हुआ।

कहानी का वाचन और कहानी के आधार पर नाटक लिखने (नाट्यरूपान्तरण करना) की प्रक्रिया के बीच मूल कृति की वस्तु को ज्यों-का-त्यों किसी दूसरी विधा में प्रस्तुत करने की प्रक्रिया भी है, जिसका श्री गणेश श्री देवेंद्र राज अंकुर ने किया है। उन्होंने 1975 में राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय द्वारा निर्मल वर्मा की तीन कहानियों-‘धूप का टुकडा’, ‘डेढ़ इंच ऊपरऔरवीकेंटकोतीन एकान्तनाम से प्रस्तुत किया। इस प्रयोग को बाद मेंकहानी का रंगमंचनामक संज्ञा मिली। अंकुर जी ने 1975 से लेकर 1990 तक के समय लगभग 112 कहानियों का मंचन किया। इस केलिए विभिन्न शैलियों को अपनाया। उनमें, एक ही कहानीकार की एक या अधिक कहानियों का मंचन,भिन्न कहानिकारों की दो या तीन कहानियों को चुनकर एक अलग नाम देकर मंचन आदि शामिल हैं। इसके लिए मोहन राकेश की चार कहानियों- बस स्टैन्ट की एक रात,मिसपाल,अपरिचित,एक और ज़िन्दगी-का एक साथ मंचन चर्चित है। साथ ही साथ चन्द्रधर शर्मा गुलेरी की उसने कहा था, प्रसाद की आकाश दीप, प्रेमचंद की कफन का अलगाव तीन सन्दर्भ नाम से रूपान्दरण भी चर्चित है। इस प्रयास को अंकुर जी ने कोलाजया रंग कोलाजनाम दिया।

कोलाज के लिए कहानियों को चुनना एक लंबी प्रक्रिया है। इसके लिए कोई निश्चित फार्मुला नहीं है। वे कहते हैं- “सबसे पहले मैं अपने हाथ से एक हज़ार तक कहानियों को पढ़कर लगभग सौ-डेढ-सौ कहानियों में से स्वयं गुज़रता हूँ।.. यह पढ़ना सुनाना पाँच-छह दिनों में समाप्त होता है और हर कहानी पर बहस करते, पुनर्विचार करते, दो शामों में आखिर ज़्यादा से कितनी कहानियाँ की जा सकती है, इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए छह-सात कहानियों का चुनाव अपने आप हो जाता है।6 एक-सी शैलीवाली या एक समस्या को अलग-अलग कोणों से उठाने वाली कहानियाँ उन्हें कोलाज के रूप में प्रयोग करने के लिए प्रेरणा देती हैं। अंकुर के इस प्रयोग को तत्कालीन आलोचकों वं समीक्षकों  ने प्रबल विरोध किया। फिर भी कालान्तर में यह एक मुहावरा बन गया।

देवेन्द्रराज अंकुर जी के बाद आनेवाली पीढ़ियाँ  ‘कहानी के रंगमंचके प्रयोग से हटकर सोचने लगी। उन लोगों ने मूल कृति को ज्यों-का-त्यों प्रस्तुत करके उसमें कुछ जोड़ने और छोड़ने का प्रयास किया। यह प्रयोग आधुनिक हिन्दी रंगमंच की महत्वपूर्ण प्रवृत्ति बन गयी है। प्रेमचंद, प्रसाद, रेणु, परसाई, भीष्म साहनी, मोहन राकेश, अमृतलाल नागर, उदय प्रकाश से लेकर अद्यतन पीढ़ी के प्रसिद्ध रचनाकारों की कहानियों के नाट्यरूपान्तरणों से हिन्दी साहित्य एवं रंगमंच को लाभ मिला। हनुयादव द्वारा रूपान्तरितपंचलाइट’ (रेणु की), ‘अरथी’(श्रीकान्त वर्मा की ), ‘जीव खो गया’ (परसाई कीभोलाराम का जीवका), हबीब तनवीर द्वारा रूपान्तरितमोटेराम का सत्याग्रह’(प्रेमचंद कीसत्याग्रहका), ‘उसकी रोटी’(मोहन राकेश की), अरुण कुकेरजा द्वारा निर्देशित पंचपरमेश्वर(प्रेमचंद),उसने कहा था(गुलेरी),उसकी माँ(उग्र),आकाशदीप और पुरस्कार(प्रसाद), प्रसन्ना केशतरंज के खिलाड़ी (पहले कन्नड़ में,फिर गद से पहले दिन नाम से) और तिरिछ(उदयप्रकाश) आदि उत्तम उदाहरण हैं।

कहानी के नाट्यरूपान्तरण से हिन्दी साहित्य और रंगमंच को गतिशील एवं समृद्ध बनाने में महिला रचनाकारों ने भी महत्वपूर्ण योगदान दिया हैं। गिरीश रस्तोगी द्वारा रूपान्तरितऔर अन्त में प्रार्थना’, ‘जयदोल(अज्ञेय), ‘कफन(प्रेमचंद), ‘नमक का दारोगा(प्रेमचंद), ‘टुकड़ा-टुकड़ा आदमी(मृदुला गर्ग)’, ‘सालवती(प्रसाद) और और अंत में प्रार्थना(उदय प्रकाश)चित्रा मुद्गल का तीन नाट्यरूपान्तरित पुस्तकें- ‘बूढ़ी काकी तथा अन्य नाटक’, ‘सद्गति तथा अन्य नाटकऔरपंचपरमेश्वर तथा अन्य नाटक’, मृदुला गर्ग द्वारा .आर. बाइली की अंग्रेज़ी कहानीपा.दे.कातरेकाफिर एक बारनामक नाट्यरूपान्तरण, उषा गांगुली द्वारा बंगला की विख्यात लेखिका महाश्वेता देवी कीरूदालीका नाट्यरूपान्तरण- इन रचनाकारों के इस क्षेत्र में रहे महत्वपूर्ण योगदान के दस्तावेज़ हैं।

अन्य साहित्यिक विधाओं के समान कहानी का नाट्यरूपान्तरण भी एक मौलिक रचना प्रक्रिया है।गंभीर संवेदनशील साहित्यिक समझ से युक्त रूपांतरकार और निर्देशक जब किसी रचना को छूते हैं तो उनका ट्रीटमेंटसृजनकी मौलिकता का होता है। निर्ममता और संवेदनशीलता का, रचना के उपयोग और मौलिकता का समन्वय है नाट्यरूपान्तर।7 इस प्रक्रिया की मौलिकता से संबंधित और उसके सृजन-पूनर्सृजन से संबंधित अनेक प्रकार के प्रश्न उठे हैं। फिर भी यह कहना उचित होगा कि उस समय की रचनात्मक आकुलता और उर्वरता को एक नई अभिव्यक्ति देने में कहानी का नाट्यरूपान्तरण सफल हुए हैं।

हम जानते हैं कि हर साहित्यिक विधा का अपना वैशिष्ट्य होता है।कहानी के रंगमंचीय प्रयोग अपने आप में स्वतन्त्र विधा है और नाटक विधा से हटकर। इसकी प्रस्तुतियों का स्वरूप अभिनव है, अत: इनका कोई रंगमंचीय व्याकरण अभी तक प्रकाश में नहीं आया है। नाटक के नियम-कायदे इन पर लागू नहीं होते और ही नाट्यशास्त्र की सीमाओं में इन्हें जकड़ा जा सकता है।8 एक साहित्यिक विधा के पाठ को दूसरे माध्यम के द्वारा प्रस्तुत करने के लिए रूपांतरण की प्रक्रिया से गुज़रना तो अनिवार्य है। इस दृष्टि से देखा जाय तो कहानी के नाट्यरूपान्तरण के लिए कुछ रंगमंचीय व्याकरण का प्रयोग आवश्यक है।

आज नाटक साहित्य भी नाट्यशास्त्र की सीमाओं से बाहर आया है। कहने का तात्पर्य यह है कि आज साहित्यकार रचनाओं के लिए किसी निर्दिष्ट नियमों को नहीं अपनाये जाते हैं। उनको अपनी अभिव्यक्ति को किसी किसी रूप में प्रस्तुत करने का स्वातंत्र्य होता है।कोई भी सृजनात्मक रचनाकार नियम या शास्त्र सामने रखकर किसी कृति की रचना नहीं करता है। रचनाएँ पहले आती हैं, उनके आधार पर नियम बाद में बनते हैं। नाटक पहले लिखे गए, नाट्य-नियम बाद में बने और बने तो बने ही नहीं रहे - समय के साथ बदलते भी गए, इसलिए कि प्रतिभा नियमों में बंध कर नहीं चलती।9 यहाँ कहानी का नाट्यरूपान्तरण करते समय भी एक निर्दिष्ट नियमों को अपनाकर मूल रचना को सशक्त एवं प्रभावशाली रूप में दृश्यात्मक बनाने का प्रयास ही हो रहा है। डॉ.गिरीश रस्तोगी के अनुसार..अंतर केवल यह है कि रूपान्तरकार को तैयार सामग्री को भिन्न विधा रूप, कला रूप में ढालना है। मूल रचना की आंतरिक शक्ति, उसकी मूल संवेदना, उसके अंत: सौंदर्य को संप्रेषण शक्ति से जोड़कर और अधिक प्रभावशाली सशक्त रचना के रूप में प्रस्तुत करना है।10 इसलिए रूपान्तरकार को मूल कहानीकार, संवेदना आदि के साथ न्याय करके नाट्यरूपान्तर तैयार करना है।

कहानी और नाटक दोनों कथात्मक साहित्य है, दोनों में कथानक, चरित्र, देशकाल आदि समान तत्व हैं। ये समानताएँ होते हुए भी दोनों में कुछ भिन्नताएँ भी हैं। कहानी के विवरणात्मक श्रव्य अनुभव को नाटक के संवादों, क्रियाओं एवं स्थितियों के माध्यम से सीमित समय में, दृश्यानुभव में बदलने की प्रक्रिया ही कहानी का नाट्यरूपान्तरण में होता है। यह वास्तव में कहानियों के भीतर नाटक एवं रंगमंच को तलाश करने का प्रयास है साथ ही कहानी के अदृश्य मर्म को पकड़ने की कोशिश भी है। 

हर कहानी में किसी किसी रूप में कोई छोटा-बड़ा नाटक रहता है। अत: कहानी और रंगमंच के बीच एक अप्रत्यक्ष रिश्ता मौजूद है। वास्तव में यह विशेषता ही कहानी के नाट्यरूपान्तरण को मूल्यवान बनाता है। रूपान्तरकार और निर्देशकों ने नाटकीयता से युक्त कहानियों को चुनकर नाट्यरूपान्तरण करने का प्रयास अधिक किया है, क्योंकि वैसा करने से चुनौती से बच सकते हैं साथ ही सफल होने की संभावना भी अधिक है। कहानी के नाट्यरूपान्तरण करने की प्रक्रिया में रूपान्तरकार एवं निर्देशक एक निर्दिष्ट नियम और सिद्धांत का पालन करके मूलभूत तत्वों - कथावस्तु, चरित्र, संवाद, संप्रेषणीयता - के साथ न्याय करके प्रस्तुत करने का प्रयास किया है।

साहित्य का उद्देश्य मात्र उपदेश देना और मनोरंजन करना नहीं है, बल्कि जीवन की विभिन्न समस्याओं और संवेदनाओं को व्यक्त करना भी है। उसके लिए एक अनिवार्य अंग हैकथावस्तु। इसके बिना कहानी की कल्पना नहीं की जा सकती है। कहानी में कथा की विस्तृत योजना होती है तो नाटक में संक्षिप्तता आवश्यक है। कहानी में वस्तु की योजना महत्वपूर्ण है तो नाटक में वस्तु की योजना उसका सचेतन एवं गतिशील आधार है।

कहानी और नाटक का समन्वित रूप ही कहानी के नाट्यरूपान्तरण में देख सकते हैं। कहानी में निहित वर्णनात्मक कथावस्तु या घटनाओं को नाटक के अनुकूल संक्षिप्त करके उसके मूल रूप को बिना भंग करके प्रस्तुत करने का प्रयास नाट्यरूपान्तरकार करते हैं लेकिन यह नाटक की संरचना से कुछ अलग है- “एक महत्वपूर्ण अंतर भी नाटक और कहानी के नाट्यरूपान्तरण तथा कहानी के मंचन के बीच रेखांकित करता है कि नाटक एक बहुत निश्चयात्मक संरचना में घटित होता है। नाटक का दृश्यबन्ध देखकर उसका अनुमान लगा सकता है लेकिन कहानी के पहले दृश्य को देखकर भी उसके आगे के, अन्त के बारे में अनुमान नहीं लगाया जा सकता है।11 नाटक की यह सुविधा पाठक या दर्शक में उत्सुकता एवं जिज्ञासा बढाने में सहायक होती है। कहानी लिखते समय कहानीकार का ध्यान केवल पाठकों में ही रहता है लेकिन नाटककार रंगमंच तथा पाठक एवं दर्शक को ध्यान में रखा जाता है। मंचानुकूल वस्तु विन्यास तैयार करने की स्वतंत्रता नाट्यरूपान्तरकार को है।

कथावस्तु के उपरान्त कहानी या नाटक का विशिष्ट तत्व पात्र योजना अथवा चरित्र चित्रण है। सफल चरित्र-चित्रण के अभाव में रचना की कलात्मकता एवं प्रभावात्मकता नष्ट हो जाती हैं। कथानक का विकास विभिन्न पात्रों द्वारा होता है। पात्रों का चरित्र- चित्रण कहानीकार या नाटककार की सफलता का परिचायक है। वह पात्रों के माध्यम से विविध प्रकार के मनोभावों, विचारों और उद्देश्यों को व्यक्त करता है।

कहानी का नाट्यरूपान्तरण करते समय कहानी के मुख्य पात्रों को सुरक्षित रखना आवश्यक है, जिससे कथ्य का विकास होता है। मूल कथ्य को अधिक विस्तार करके उसे अधिक दृश्यात्मक एवं प्रभावात्मक बनाकर प्रस्तुत करने के लिए मूल से अधिक दृश्य-योजना के साथ कुछ और पात्रों की प्रस्तुति भी आवश्यक है। इसके लिए नये-नये पात्रों को जोड़ने, कहानी के गौण पात्रों को निश्चित भूमिका एवं नाम देकर या बदलकर प्रस्तुत करने, मूल पात्र की प्रस्तुति में बदलाव लाने आदि का अधिकार नाट्यरूपान्तकार एवं निर्देशक को है।

हर कहानी संवादात्मक नहीं होती है। केवल वर्णनात्मक या विवरणात्मक कहानियाँ भी हो सकती हैं। लेकिन संवाद नाटक का प्राण होता है। संवाद के अभाव में नाटक की कल्पना नहीं की जा सकती। कथावस्तु के विकास में, पात्रों के चरित्र निर्माण में, कहानी में कुतूहलता पैदा करने में कथोपकथन का महत्वपूर्ण स्थान है। नाटक की बनावट और बुनावट दोनों संवाद पर आश्रित है।

कहानी के नाट्यरूपान्तरण करते समय वर्णनात्मक कहानियों को संवादात्मक बनाकर, संवाद युक्त कहानी को बिना परिवर्तन के साथ अधिक संवादात्मक बनाकर प्रस्तुत करना पड़ता है। नाटक में भाषागत संवाद के अलावा मुद्राओं, भाव- भंगिमाओं, आँखों, संकेतों एवं पारस्परिक स्थानिक निकटता और दूरी तथा गति और गतिहीनता आदि के द्वारा भी संवाद हो सकता है। इनमें भाषागत संवाद महत्वपूर्ण है। इससे भाव एवं विचारों की अभिव्यक्ति होती है, जबकि शब्देतर साधन मुख्य रूप से भाव संवेगों को भी अभिव्यक्त करते हैं। कहानी के नाट्यरूपान्तरण में इन बातों पर ध्यान रखना होता है।

कहानी मूलतः एकांत में पढ़ने की विधा होती है। लेकिन नाटक प्रेक्षक या दर्शकों को संबोधित करनेवाली विधा है। कहानी की मूल संवेदना को भंग किये बिना नाट्यात्मक तत्वों को आत्मसात करते हुए प्रस्तुत करना आवश्यक है। वस्तु-विन्यास, पात्र-योजना, संवाद-योजना, दृश्य परिकल्पना आदि के द्वारा कहानी के नाट्यरूपान्तर को संप्रेषणीय बनाकर प्रस्तुत करना आवश्यक होता है। संप्रेषणीयता की दृष्टि से नाट्यरूपांतर के दृश्य परिकल्पना की भूमिका महत्वपूर्ण है। संगीत, ध्वनि, प्रकाश-योजना, रंग सज्जा जैसे रंग-संकेतों से पूर्ण दृश्य-परिकल्पना एवं रंगभाषा नाट्यरूपान्तर को सम्प्रेषणीय बनाने के साधन हैं। 

कहानी के नाट्यरूपान्तरण में कहानी के नाटकीय तत्वों को ही नहीं, उसके कहानीपन को भी सुरक्षित रखते हुए दृश्यात्मक बनाने में अनेक प्रकार की समस्याओं का सामना करना पड़ता है- “संकट वहीं से शुरू हो जाता है, जब हम पाठ्य साहित्य को साक्षात्कार की वस्तु और उसी क्षण जीने-मरनेवाली चुनौती से जोड़ते हैं, पाठकों को दर्शक में बदलते हैं।12 कहानी के नाट्यरूपान्तरण में उसके नैरेशन को लेकर समस्या पैदा होती  है।कहानी को मंच पर प्रस्तुत करने में सबसे बड़ी समस्या उसके नैरेशन या वृत्तान्त कथन को लेकर ही आती है। कहानी में यह आसान लगता है, किन्तु नाटक में किसी पात्र को सोचते हुए कैसे दिखाया जाए? सूत्रधार या वाचक ऐसा पात्र पुराने पारंपरिक नाटकों में होता था, जो कथा को आगे बढ़ाता था, कहानी को जोड़ता था, यहाँ तक कि कभी-कभी तो कथा पर टिप्पणी करते हुए अभिनय भी कर लेता है। इसी से प्रेरणा लेते हुए कहानी के रंगमंच में अब पात्र ही वर्णनकर्ता या सूत्रधार भी बन गए। कहानी के नाट्यरूपान्तरण में इस संकट से उतरने के लिए सूत्रधार का प्रयोग किया जाता है।13 रूपान्तरकार की कल्पनाशक्ति से इस समस्या को दूर कर सकते हैं। 

कहानी के नाट्यरूपान्तरण की प्रक्रिया में रूपान्तरकार को संप्रेषण की समस्या से जूझना पड़ता हैएक तो मूल कहानी के मर्म को, मूड़ को, उसकी आन्तरिक लय और संवेदना को पूरी तरह पकड़ जाना, दूसरे इस मूड़, लय और संवेदना को पूरी तरह कहानी के ही मूल फॉर्म में लाकर दर्शकों तक कहानी की निजता के साथ संप्रेषित करना, तीसरे संप्रेषण की समस्या से जूझते हुए कहानी को दृश्यात्मक बिम्बों द्वारा प्रस्तुत करना, यह प्रस्तुति ही जटिल कार्य है, जिसमें कहानी में कहानीपन को भी बनाए रखना है और मंच की वस्तु भी। अभिनेताओं को भी कहानी में आज वर्णनात्मक अंशों को, आत्म-विश्लेषणों को पढ़ने-पढ़ाने, अनुभव करने-कराने की स्थितियों को प्रस्तुत करने के लिए चुनौती का सामना करना पड़ता है।14 इस प्रकार कहानी को रंगमंच तक लाने में कई जटिलताएँ और चुनौतियाँ  होती हैं।

कहानी के नाट्यरूपान्तरण की सबसे बडी विशेषता यह है कि वह कहानी को पुस्तक के पृष्ठों के संकीर्णवृत्त से निकालकर सीधे दर्शकों तक ले जाकर एक सामूहिक अनुभव बना देने का कार्य करता है।कहानी मूलतः पाठ्य साहित्य की सीमाओं में आती है। पुस्तक के पृष्ठों में समाई कहानी को पढ़ने-सुनाने के संकीर्णवृत्त से निकालकर उसे सीधे दर्शकों के सामने लाना और मंचीय प्रस्तुति के माध्यम से समूह मन का अनुभव बनाना ही कहानी का रंगमंच है। इस नवीन नाट्य प्रयोग में कहानी सामूहिक अनुभव में ढलती है।15 इस प्रकार कहानी में निहित कथ्य, शब्द एवं दृश्य को नाट्यात्मक लय के साथ प्रस्तुत करने का प्रयास होता है।

मूल रचना को समसामयिक घटनाओं से जोड़कर प्रभावशाली ढंग से रंगमंचीय अनुभव में बदलने की इस महत्वपूर्ण प्रक्रिया में अभिनय की प्रधानता है। कोई प्रकाशित कहानी पढ़ी जाती है तो उसकी खास चर्चा नहीं होती। लेकिन जब उसका मंचन होता है तो देखने वाले उसके असर से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकते।

कहानी का नाट्यरूपान्तरण साहित्य और रंगमंच की दूरी को समाप्त करने में, साहित्य के प्रति जनता की अभिरुचि को बढ़ाने में, पढने-सुनने के साथ देखने के नये अनुभव को प्रदान करने में, साहित्यकार, निर्देशक, अभिनेता आदि से परिचय और उनके प्रतिभा को समझाने में सहायक होता है। दृश्य-श्रव्य-माध्यमों की लोकप्रियता और जनता पर उसके प्रभाव ने इसको अधिक व्यापक बना दिया है। इसलिए यह प्रयोग जनता को मनोरंजन के साथ शिक्षा (ज्ञान) भी प्रदान करते रहते हैं।

निष्कर्ष : प्राचीन काल से ही नाटक सर्वाधिक सशक्त विधा रही है। समसामायिक परिवेश और युगीन आग्रह के अनुरूप उसका रूप और कथ्य बदलता रहा है। मौलिक नाट्य रचनाओं के अभाव में पिछले दो दशकों से हिंदी रंगमंच अपने अस्तित्व और अस्मिता के लिए तरस रहा था। विविध साहित्यिक विधाओं के नाट्यरूपान्तरण ने इसको पाटने में बडी भूमिका निभायी है। नाट्यरूपान्तरण की प्रक्रिया प्राचीन काल से ही प्रचलित थी। लेकिन इसका अधिकाधिक प्रचार-प्रसार आधुनिक काल में ही हुआ। रेडियो, दूरदर्शन, टेलीविज़न जैसे नवीन दृश्य-श्रव्य माध्यमों का प्रचार-प्रसार साहित्य को सीधे श्रोताओं और दर्शकों तक पहुँचाने में सहायक सिद्ध हुआ।

आज साहित्यिक कृतियों का नाटक रूप में परिवर्तन या अन्तरण करने की प्रक्रिया जोरदार रूप में चल रही है। साहित्य की सभी विधाओं को अपने आप में समेटने की क्षमता होने के कारण इन विधाओं को रूपान्तरण की प्रक्रिया द्वारा नाटक रूप में ढाला जा रहा है। इसमें कहानी विधा का योगदान महत्वपूर्ण है। कहानी के नाट्यरूपान्तरण में कहानी सुनते या पढ़ते समय श्रोता या पाठक के मन या आँखों के सामने उभरनेवाले दृश्य जगत को साकार करने की प्रक्रिया होती है। अर्थात् पढने, सुनने और देखने का अनुभव एक साथ होने का नया अनुभव मिलता है।

एक विधा को उसके तत्व से मिलाकर दूसरे तत्वों में डालना कोई आसान कार्य नहीं है। फिर भी कई नाट्यरूपान्तरकारों ने इस कार्य को बड़ी खूबी से वैविध्य पूर्ण रूप में प्रस्तुत करने का प्रयास किया है। साहित्य को युग से, समय से, वर्तमान चेतना से जोड़कर नाट्यरूपान्तरण या मंचन के अनुरूप बनाकर अधिक प्रभावात्मक, दृश्यात्मक, संप्रेषणीय एवं सार्थक बनाने की प्रक्रिया से साहित्यिक रचनाओं को अधिक प्रसिद्धि मिली है। यह साहित्य की सभी विधाओं को जनता तक पहुँचाने का बेहतरीन तरीका बन गया है। साहित्य के प्रसार में यह सक्षम होता है। साथ ही इस प्रक्रिया ने नाट्य साहित्य को गतिमयता एवं लोकप्रियता प्रदान करके प्रयोगधर्मिता के नए द्वार खोल दिए हैं। 

 

 

संदर्भ :
1.       शंभूनाथ द्विवेदी, अनुवाद सिद्धान्त और समग्र पत्राचार, पूजा पब्लिकेशन, कानपुर, सं.2013, पृ.सं.34
2.       करणसिंह ऊटवाल, कहानी का रंगमंच और नाट्यरूपान्तरण, जवाहर पुस्तकालय, मथुरा, सं.2008, पृ.सं.21
3.       डॉ.जयदेव तनेजा, हिन्दी नाटक-आज-कल, तक्षशिला प्रकाशन, दिल्ली, सं.2000, पृ.सं.199
4.       गिरीश रस्तोगी, नाटक तथा रंग परिकल्पना, विश्वविद्यालय प्रकाशन, वाराणसी, सं.1992, पृ.सं.31
5.       गिरीश रस्तोगी, बीसवीं शताब्दी का हिन्दी नाटक औऱ रंगमंच, भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली, सं.1994, पृ.सं.112
6.       सं.महेश आनन्द, कहानी का रंगमंच, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, सं.1999, पृ.सं.128
7.       डॉ.जयदेव तनेजा, रंगकर्म और मीड़िया, तक्षशिला प्रकाशन, दिल्ली, सं.2015, पृ.सं.32
8.       सं.धीरेन्द्र शुक्ल, हिन्दी नाट्य परिदृश्य, प्रकाशन संस्थान, दिल्ली, सं.2011, पृ.सं.183
9.       सिद्धनाथ कुमार, नाटकालोचन के सिद्धान्त, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, सं.2004, पृ.सं.106
10.   डॉ.गिरीश रस्तोगी, नाटक तथा रंग-परिकल्पना, विश्वविद्यालय प्रकाशन, वाराणसी, सं.1992, पृ.सं.35-36
11.   उर्वशी, मधुमती, अंक 12, दिसंबर-जनवरी-2014, पृ.सं.31
12.   गिरीश रस्तोगी, बीसवीं शताब्दी का हिन्दी नाटक और रंगमंच, भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली, सं.1994, पृ.सं.113
13.   सं.धीरेन्द्र शुक्ल, हिन्दी नाट्य परिदृश्य, प्रकाशन संस्थान, दिल्ली, सं.2011, पृ.सं.132
14.   गिरीश रस्तोगी, नाटक तथा रंग-परिकल्पना, विश्वविद्यालय प्रकाशन, वाराणसी, सं.1992, पृ.सं.103
15.   सं.धीरेन्द्र शुक्ल, हिन्दी नाट्य-परिदृश्य, प्रकाशन संस्थान, दिल्ली, सं.2011, पृ.सं.183
डॉ.राखी क्लेमन्ट
सहायक आचार्य एवं विभाग अध्यक्षा, हिन्दी विभागसेन्ट. पॉल्स कॉलेज, कळमश्शेरी, एर्णाकुलम, केरल-683503


चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक ई-पत्रिका 
  अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-52, अप्रैल-जून, 2024 UGC Care Listed Issue
सम्पादक-द्वय : माणिक-जितेन्द्र यादव चित्रांकन  भीम सिंह (इलाहाबाद विश्वविद्यालय)

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