शोध सार : हिमाल जो कि भारत में लगभग 2500 कि० मी० का भूगोल अपने आप में समाये हुए है जिनमें 13 राज्य/केंद्रशासित प्रदेश आते हैं. अगर इस बात पर थोड़ा गहराई से नज़र डाली जाय तो हम पाते है कि हिन्दी के सो कॉल्ड मुख्य धारा के विद्वान या साहित्यविद यहाँ के जन संघर्ष, लोकजीवन, पलायन, राजनैतिक उठापटक, भाषायिक अस्मिता, समाजिक कुरीतियों, क्षेत्रीय सामंजस्य, भौगोलिक आस्था, मोहभंग और लोकहित से सम्बंधित कविताओं, उपन्याओं और नाटकों पर बहस करने के लिए हमेशा से ही अपने मुख को फेरते आये हैं या उनको शायद इन क्षेत्रों की रचनाएँ या तो गवाँरु लगती हैं या बस आंचलिक भाषा का आग्रह, पर इस तरह का आग्रह तो हर एक भाषा के विकास का अभिन्न समावेशी अंग रहा है परन्तु जब कभी हम इस ओर अपना ध्यान आकर्षित करते हैं तो हमें कई ऐसे रचनाकार दिखते हैं जो मुख्य हिन्दी साहित्यिक धारा में अपने हिस्से का भूगोल और भाषा के शब्दकोश को जीवंत बनाये हुए हैं उन्हीं में कुमाऊँ क्षेत्र से कवि हैं अनिल।
बीज शब्द : आंचलिक, पहाड़, एन्थ्रोपोसीन, रूपक, पलायन, भाषा, रचनाकर्म, भाषायिक अस्मिता, हिमाल
मूल आलेख : अनिल उन कवियों में से हैं जिन्होंने हिमालयी लोक और प्राकृतिक जन-जीवन को जीवित रखने के लिए हिन्दी साहित्य की मुख्य धारा में डुबकी लगाने के बजाए, धरती के किनारों, हाशियों को समृद्ध करने को ज्यादा महत्व दिया। हिन्दी साहित्य जगत में अपना अनसुना-अनकहा किनारा बुना। कविताओं को बोया उसे खाद देकर उस पर हर रंग के फूल खिलाये। उसी हाशिए से मुख्य धारा की ओर अपने लोक और ठसकपने की भाषा से हिन्दी भाषा के शुद्धतावादी स्वभाव को पहाड़ों का फक्कड़पन दिया। पहाड़ की आवाजों को साहस के साथ सामाजिक जिम्मेदारी ग्रहण करते हुए अपनी राजनीति कही। अनिल के अपने रंग हैं वे कभी एक मसखरे, कभी सूफी, कभी चिर प्रेमी, कभी अराजक, कभी सामाजिक आन्दोलनों में हिस्सेदारी करते तो कभी करुणा और अपनत्व से भरे यारों के बीच यारबाजियाँ और अड्डेदारियाँ करते। अपने भीतर हद दर्जे तक बैचेन रहने वाले इस कवि की कविताओं के कई फलक हैं ठीक उसके अपने व्यक्तित्व की तरह।
चाहे जीवन हो, नदी हो, समाज हो या फिर यों कहें कि शब्दों को मथने का मर्म हो, प्रकृति का अलौकिक सौन्दर्य हो अथवा सभ्यतायें हों, वह सभी किनारों पर ही संस्मरणों के इन्द्रधनुषीय वितान उकेरते हुए परिधि को एक लयात्मक प्रासंगिकता प्रदान करते हुए आये हैं । जब भी किनारों की बात हो तो याद आती है किनारों के अनिल की। अपने तरह की ठसक में रहने वाले इस जीव के जीवन और व्यक्तिव को समझने के लिए कुंवर नारायण की यह कविता लबों और पुतलियों के पर्दों पर चलचित्र की तरह गतिमान होने लगती है-
“हाथ मिलाते ही झुलस गई उंगलियाँ/ मैंने पुछा, कौन हो तुम?/ उसने लिपटते हुए कहा, आग!” [2]
हिन्दी के केन्द्रीय आलोचकों की दृष्टि साहित्य अनिल के बहुफलकीय बिम्बों में और रुपकों में कम ही गई है। उनकी कई कविताओं में वे मनुष्य और प्रकृति के बीच सामजस्यपूर्ण रहवास, परिवेश की झलक मिलती है। आमजन और प्रकृति शोषण व सत्ता के खिलाफ जिन्दा रहने के लिए किस तरह लड़ रही है यह भी वहाँ दर्ज है। पंचेश्वर बाँध निर्माण के खिलाफ सक्रिय रहे अनिल ने बाँध निर्माण के लिए काटे जा रहे पेड़ों को इस तरह अपनी कविता में लिखा-
इस समय विश्व चिंतन के केंद्र में एन्थ्रोपोसीन की अवधारणा की चर्चा बनी हुई है इस सन्दर्भ में यह कविताएं अपने समय और उससे आगे की बात कहती है। हम एक ऐसी दुनिया में रहने को अभिशप्त होते जा रहें हैं जहाँ इंसानी हस्तक्षेप के चलते ही प्रकृति भी प्राकृतिक नहीं रही। एंथ्रोपोसीन की अवधारणा ने कोरोना काल के बाद हाल के वर्षों में पूरी दुनिया के लोगों का ध्यान आकर्षित किया है। क्योंकि वैज्ञानिक और विद्वान इस मान्यता से जूझ रहे हैं कि मानव गतिविधियों ने पृथ्वी की जैविक प्रणालियों को अपरिवर्तनीय रूप बदल दिया है। ‘द फ्यूचर ऑफ़ नेचर’ पुस्तक में स्टोएमर पॉल क्रुटजेन ने सुझाव दिया कि- “औद्योगिक क्रांति ने न केवल मानव को प्रकृति का दोहन करने का रास्ता दिखलाया है वरन प्रकृति के रहवास और उसके प्राकृतिक होने को भी नष्ट करने की ओर कदम रखा है” [4]। अनिल और उसके समकालीन परिधि के रचनाकारों में बहुराष्ट्रीय कम्पनियों द्वारा गाँव देहातों, नदी, पहाड़ों को लूटे जाने और प्राकृतिक रहवासों को ध्वस्त किये जाने के खिलाफ़ दोगले और बहुरूपिये विकास की खूब धज्जियां उड़ाई है। प्रकृति और मानव के बीच के सहज संबंधों की तलाश इनकी कविताओं का प्रस्थान बिंदु है इस पूरी पीढ़ी के आदिवासी और परिधि के रचनाकारों को पढ़ते हुए लगता है कि प्रकृति की उदारता, विकरालता और जिजीविषा से उर्जा लेते यह लोग गैर-बराबरी, असमानता, शोषण के खिलाफ अपनी बात कहते हैं । इनकी कविताएँ सह-अस्तित्व के सम्मान और स्वीकार की कविताएँ हैं जिसे करोना महामारी के बाद विद्वानों ने अलग दृष्टि से देखा है। एन्थ्रोपोसीन पृथ्वी के पारिस्थितिकी तंत्र, जलवायु और जैव विविधता को आकार देने में सम्मिलित हर सत्ता के अस्तित्व और उसके परिवेश में हिस्सेदारी को बराबरी से स्वीकार करता है। अनिल की कविताओं में प्रकृति इंसानों के औसत से ज्यादा दिखाई देती है। वे भेड़ों के खुरों पर ओस के फूल खिलाते हैं। उनके यहाँ नाई की बच्ची कैची से निकलती गोरैया की आवाज सुनती है। घास स्त्रियों के सपनों में आकर उन्हें जंगलों की ओर बुलाती है, न्योली यानि हिमालयन बारबेट, माँ के कंठ में रहती है। वहां दरांती घास बनकर उगती हैं और देवदार का पेड़ प्रेमियों के एहसास संभाले किसी पहाड़ पर इन्तजार करता है। स्त्री का पुनर्जन्म एक फूल ‘प्योली’ के रूप में होता है या फिर एक चिड़ियाँ में रूप में जो किसी पहाड़ पर साल के पेड़ पर बैठकर गीत गाती है। वे कहते हैं-
जब आज इंसानी सनक ने रासायनिक क्रियाओं और बाँध- विकास परियोजनाओ से भूगोल को पूरी तरह बदल दिया है या बदलने का कुचक्र जारी है ऐसे में अनिल ने जो जीवन जिया है वही जीवन उसकी कवितों में मिल जाता है। महाकाली के बांध पर वह लिखते हैं –
अनिल बहुत ही भिन्न भूगोल का प्राणी नहीं हैं। बहुत सारे लोगों ने ऐसा भूगोल जिया या यूँ कहें कि वे इस भूगोल में पैदा हुए, पर अनिल जो रचा उसने पहाड़ के परिवेश को, हिमालय के जीवन को नोस्टेलज्या से बाहर निकालकर नई दिशा दी। यही आग्रह उनकी आवाज को सघन और उत्कृष्ट बनाती है।
कवि कहता है -"कुमाउँनी भाषा की पीठ हिन्दी भाषा की तरफ नहीं बल्कि कुमाउँनी भाषा की दीठ हिन्दी की तरफ हैं।"[7] जैसा कि हिन्दी भाषा में है पहाड़ हमेशा दुःख का होता है लेकिन कवि का पहाड़ दुःख का नहीं है कवि का पहाड़ सतरंगी है, स्त्रियाँ अगर घास काट रहीं हैं तो उन्हें बोझ तले दबी दिखाई जाती है ठीक इसे ही हिन्दी रूपको में भेड़ का प्रतीक ऐसा है कि भेड़ हमेशा दबी कुचली है या उसे इस तरह दर्शाया जाता है जैसे उसकी कोई समझ नहीं । पर अतीत में भेड़ों-बकरियों ने जाने कितने चरवाहों को पैगम्बर, ईशु, कृष्ण बना दिया। भेड़ चाल जैसे प्रचलित रूपकों को वह उलट कर देखते हुए कहते हैं कि- “भेड़ें दुनिया की सबसे भरोसेमंद साथी हैं। वे इतनी शांतिप्रिय होती हैं कि भयावह जंगलों में हमेशा कम जोखिम वाले रास्ते चुनती हैं।”[8] जिस प्रकार नदी हमेशा बहने का प्रतीक होती है, उसी प्रकार कवि के यहाँ बकरियों के खुरों पर ओस के फूल खिलते हैं। चार कविता संग्रहों में अभी तक अनिल ने डेढ़ सौ से अधिक कविताएँ लिखी हैं। इन बहुरंगीय कविताओं में छोटा सा चयन कर आप नहीं स्वयं ही देख सकते हैं कि हर कविता में समुचित पक्षों को प्रतिबिम्बित कर प्रतिनिधित्व करती है, इन कविताओं में नर्म हथेलियों की रगड़ से पैदा हुई आँच है। औद्योगिकीकरण के बाद पलायन की चेतना का प्रभाव लोक गायक स्व० कबूतरी देवी के गीत हों या नरेंद्र सिंह नेगी के गीत वो सबसे पहले लोक में बसे हुए हैं. लोक जब इस तरह से फैलता है तो यह जरूर है कि उसकी भाषा का क्षेत्र फैल रहा होता है फिर भी उसकी बोली का क्षेत्र सीमित होता है। परन्तु उसके संस्कार कहीं ना कहीं वैश्विकरण से जुड़े होते हैं। वह सीधे न जुड़ कर दूसरे तरीकों से जुड़ते हैं और उसका लौकिक संस्करण जन्म लेता है। कविताओं की पढ़ते हुए आप इस लोक के आँच को जरुर महसूस करेंगे। जसिंता केरकेट्टा जिनका काम आदिवासी-संवेदना में है, कहती हैं- “मातृभाषाएँ अपनी विलुप्ति के खिलाफ हमेशा संघर्षरत रहती हैं, ऐसे में हिमाल की आवाज, अनिल की कविताएँ यह महसूस कराती हैं कि जमीन से जुड़ी भाषाएँ दुनिया से क्या कहना चाहती हैं? ये कवितायेँ अपनी मृत्यु को नकार आकर अंतिम साँस तक लड़ने वाली हिमाल की भाषा है, जो अपनी माटी की खुशबू के साथ उसकी पीड़ा भी लेकर आती है। यही सच देख पाने के लिए विशाल छद्म की ये कवितायेँ, देखने का नजरिया देती हैं।[9]
साक्षात्कार (भेंटवार्ता) : कवि के व्यक्तित्व, कविता की बारीकियों, प्रमुख बहस और कवि के चिंतन के मुद्दों को जानने समझने के लिए इस भाग को जोड़ा गया है।
1) डॉ. अनिल कार्की से बात बातचीत[10]
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कवि होने में, कवित्व क्या प्रदर्शित करता है?
जवाब में अनिल कहते हैं- "अगर आप कविता को स्थानीय नजरिये से हटाकर यह कोशिश करते हैं कि ज्यादा से ज्यादा लोग कविता के बिंदुओं और बिम्बों को एकरूपता में देख सकें। तो वह कवितत्व समझ सकते हैं।" “जैसा कि हिन्दी भाषा में है, पहाड़ हमेशा दुःख का होता है। लेकिन मेरे वहां पहाड़ दुख के नहीं होते। मेरे यहाँ बहुत सतरंगे पहाड़ हैं। स्त्रियाँ अगर घास काटती हैं तो उन्हें बोझ तले दबी दिखाई जाती हैं, हर जगह ! और नदी हमेशा बहने का प्रतीक होती है और भेड़ हमेशा, भेड़ का प्रतीक ऐसा है कि भेड़ हमेशा दबी कुचली है। लेकिन मेरे यहाँ बकरियों के खुर पर ओंस के फूल खिलते हैं।
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क्या यह संदर्भ ‘नदी भेड़ नहीं होती’ में भी दिखाई देता है?
अनिल कहते हैं कि- नदी भेड़ नहीं होती कविता में, कविता को कई बार को लोग नदी की तरफ से पढ़ते हैं। अगर आप भेड़ की तरफ से पढ़ोगे तो आपको लगेगा की भेड़ ज़्यादा सही चीज है। जो अपने चरवाहों के साथ रहती है। वह अपने आप में दूसरे तरह का भ्रम पैदा करती है।उसको पाठक किस तरह से समझता है उस पर टिप्पणी की जा सकती है। इसलिए थोड़ा बिम्बों और प्रतीकों के ‘पलायन से पहले’ क्या संदर्भ हैं? उसे समझने की कोशिश करते हैं।
आगे अनिल कहते हैं- पलायन से पहले! इस तरह विचार आया कि मैं आगे संग्रह नही लिखूँगा। 2018 में सारी नौकरियाँ छोड़कर में अपने गाँव चला गया। रहवासी किसान सेंटर की स्थापना की, जो 86 किसान परिवारों के लिए रोज़गार और बच्चों की प्राथमिक शिक्षा के लिए पढ़न-पाठन की व्यवस्था करता है और जो लोग पलायन-पलायन कहते हैं उनको यह बताना भी जरुरी था कि पलायन किस संदर्भ में? अगर आप पलायन बोलते हैं तो उससे पहले उन चीजों को क्यों नहीं देखते? इन सारी चीजों को। फिर आप कहाँ जा रहे हैं? इस कविता संग्रह के अंत में जो कविताएँ हैं ‘पलायन से पहले’ वह भी उस मौजूदगी को दर्शाती है।
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मेरे कुछ सवाल हैं कि यह कवि का पलायन है? समाज का पलायन है? विकास का पलायन है? या बेरोज़गारी का है?
अनिल जवाब देते हुए कहते हैं-
पलायन हुआ ही नहीं है। इसमें पलायन का कोई मसला ही नही है। पलायन तो अब होगा अगर होगा तो। चाहें समाज का पलायन हो या अन्य पलायन हों। लेकिन यह संग्रह पलायन से पहले आपको सचेत करता है कि आप देखिए, पढ़िए और समझिए। यह गाँव में रहते हुए लिखी गयी। 2018 में नैनीताल में जसिंता ने इसकी भूमिका लिखी।
● जसिंता कौन हैं? जसिंता केरकेट्टा हमारे दौर की बहुत ही जीवंत और उत्साह से भरी हुई आदिवासी कवयित्री हैं। उनकी पुस्तकें अंगोर, जड़ो की ज़मीन, ईश्वर और बाज़ार आदि हैं।
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अगर आपकी भाषा की बात की जाय तो, प्रस्तुत लघु-शोध में जो शिल्प विधान है उसमें पहला बिंदु भाषा रखा गया है। यह पाठकों से किस प्रकार जुड़ती है?
अनिल ने कहा - यह बहुत ऊबड़-खाबड़ कविता है।
मैंने कहा : मुझे तो नही लगी ऊबड़-खाबड़। मुझे यह कविता संग्रह पढ़ने के बाद प्रतीत हुआ कि अगर किसी को पहाड़ देखना है, जैसे कि मैंने यह जानने कि लिए अपने से छोटे विद्यार्थियों और गुरूजनों तक संग्रहित कविताएं पहुँचायी और जब वह भी इस तरह सौंदर्य भरे गद्यात्मक काव्य को पढ़ते हैं तो उनकी आँखों में एक चमक दिखायी देती है। उनके सामने जिये हुआ पहाड़ को इस कवि ने किस तरह से पिरोया है उसका यथार्थ बिम्ब साधारणीकरण प्रस्तुत करता है। उनको स्पर्श करती है यह कविताएँ।
बेचैन भी करती हैं। -अनिल ने कहा
बेचैन भी करती हैं मैंने हामी भरी।
तो यह सब कुमाऊँनी भाषा की वजह से है? सवाल करते हुए अनिल ने पूछा
यह सब क्या भाषा को ही श्रेय जाना चाहिए? अनिल ने प्रश्न किया
नहीं! पूरा श्रेय भाषा को कैसे जायेगा सर। मैंने उत्तर दिया
किसको जाएगा? अनिल ने पूछा
पिरोने वाले की संवेदना को जाएगा। मैंने उत्तर में कहा
हाँ! किसी बेचैनी को तो जाएगा ही।
वह बेचैनी कहाँ मौजूद है?
वह बेचैनी है उत्तराखंड के, 22 साल हो गये बने हुए। एक पूरी पीढ़ी बर्बाद हो गई। जब उत्तराखंड बन रहा था तब हमने आँखें खोली। उत्तराखंड के राजनैतिक आंदोलनों से हमने आंदोलनों को जीना सीखा और प्रतिभाग किया। नैनिसार में रहे, पंचेश्वर मूवमेंट में रहे इस तरह बहुत जगह उपस्थित रहे। लेकिन वह इतना बड़ा मोहभंग था। एक तो उत्तराखंड का बनना, किन स्थितियों में शुरू हुआ उनमें मुख्य कारण ‘मंडल आयोग कमीशन रिपोर्ट’ के विरोध में था, तो वह इस वजह से आरक्षण विरोधी मूवमेंट था। फिर वह राज्य की माँग को लेकर आगे बढ़ा। साथ ही इस पूरे वातावरण को किसने दिशा दी और अपने हित में मोड़ा, किन लोगों ने सपने दिखाए? और उसी सपने को देखते देखते एक पूरी पीढ़ी 22 साल की हो गयी (2000
में
जो
पैदा
हुई
थी)। इन 22 सालों इस पीढ़ी ने इतना सब कुछ खोया है पाया कुछ नहीं। तो यह पूरा मोहभंग किसी आंदोलन के रूप में नहीं फूटा। तभी आपको इस काव्य संग्रह और ‘उदास बखतों का रमोलिया’ में उस मोहभंग की छटपटाहटें दिखेंगी। उन छटपटाहटों से कहीं ना कहीं भाषा की निर्मिति होती है।
तत्कालीन मुख्यमंत्री और सरकार पर कविता लिखने के लिए जिस प्रकार के बिम्बों की ज़रूरत होती है, अपनी पीढ़ी के साथ जोड़ते हुए। उस तरीक़े की भाषा की माँग होगी। मतलब “हमारी पीठ ही हिन्दी की तरफ़ नही है, हमारी दीठ हिन्दी की तरफ़ है। लेकिन हमारे मुद्दे वह अपने राज्य की तरफ़ हैं। और अपने राज्य के उन लोगों की तरफ़ है जिनको धोखा दिया गया है।"[11] इसमें आपको बहुत सारी कविताएँ मिलेंगी जो राज्य और केंद्र सरकार को सम्बोधित करते हुए हैं। किसानमूवमेंट, बेरोज़गारी, माफियाखोरी, अलगाव आदि को सन्दर्भित कविताएँ हैं। तो इनको उन्ही संदर्भों में देखा जाना चाहिए। "भाषा का एक तेवर है, वह कोई चमत्कारी चीज नही है। भाषा का तेवर आपको समाज से मिलता है और आपको उस मोहभंग से मिलता है जो आपको समाज के संक्रमण काल से मिला है।"[12]
ख) डॉ. लोकेश डसीला से बातचीत[13]
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डॉ. लोकेश मेरे पिता के मित्र भी हैं और अनिल से बात करते हुए जब यह पता चला कि उनको कविता रचना शैली कि प्रेरणा कहाँ से मिली? तो उन्होंने कहा - लोकेश दा ही थे जिनके बोलों (बुरांश कविता) के सहारे मेरी कविता ने चलना सीखा।
अरे यार!
यह तो बहुत बड़ी बात कह दी उसने।
अनिल तो बहुत स्टेबलिश लेखक है।- डॉ. लोकेश डसीला ने उत्तर दिया
मैंने कभी ऐसे लिखा नहीं और जितना भी लिखा गिनीचुनी 7-8 कविताएँ शौक़िया लिखा। कुछ आध गद्य में भी लिखा। मेरा अकादमिक विषय क्षेत्र वनस्पति विज्ञान है, पर बचपन से ही हिन्दी और साहित्य के प्रति विशेष अनुराग भी रहा।
हमारा तो फ़ेवरेट कवि है यार अनिल!
जब से हमने उसे पढ़ना शुरू किया है वह न केवल लेखक है। मैं तो उसको एक लेखक के रूप में कम बल्कि एक ऐक्टिविस्ट ज़्यादा मानता हूँ। रहवासी सेंटर चलाया उसने। किसानों से मिलता है। मतलब वह कविता लिखता नहीं कविता जीता है। सब कुछ जो अनिल लिखता है उसे धरातल पर प्रदर्शित करता है। वही उसके व्यक्तित्व में है।
और
कई लोग होते हैं जो दिल्ली में बैठकर पहाड़ पर कविता लिख देते हैं और खुश हो जाते हैं।
लेकिन अनिल यहाँ खुद हल भी चलाता है और कवितायें भी करता है।
एक चीज और है,
जब वह साहित्य रचता है गद्य में भी उसका काव्य झलकता है।
ग) प्रो. शिरीष कुमार मौर्य से मुलाक़ात[14]
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प्रो. शिरीष कुमार मौर्य कवि-आलोचक हैं। वर्तमान में कुमाऊँ विश्वविद्यालय से हिन्दी के अनेक शोधार्थियों का मार्गदर्शन कर रहे हैं। अनुनाद के मुख्य संपादक और अनिल आपके ही शिष्य रहे हैं।
मैं शुरू से बताता हूँ। - प्रो. शिरीष कुमार मौर्य ने वार्ता शुरू करते हुए कहा।
नए ऐक्ट 2009 में पीएच.डी. करने की पद्धति बदली। पीएच.डी. इंटरेंस हुआ। यह हुआ कि सीटें आवंटित होंगी। कौन कहाँ जाएगा किसी को नहीं पता? काउन्सलिंग होगी?
उससे पहले यह होता था कि पद्धति- मान लीजिए अनिल पिथौरागढ़ से पढ़ा है, मैं रामनगर से पढ़ा हूँ, आप हल्द्वानी से पढ़ें हैं, तो आप पढ़ने के दौरान ही एक अध्यापक छाँट लेते थे।
हैं ना कि यह अध्यापक मुझे बेहतर लगता है और आने वाले वक्त में इनके अंडर करूँगा रीसर्च। तो आप तय कर लेते थे।
इस एक्ट के कारण उसकी गुंजाइश ख़त्म हो गयी।
हमारी हेड थीं प्रोफेसर नीरजा टण्डन, तो अनिल उन दिनों पिथौरागढ़ से एक भिन्न तरह के परिवेश से आया था। हो सकता है कि अनिल उनको तेज तर्रार सा लगा हो । हो सकता है कि अनिल थोड़ा रफ़ लगा हो।
रॉ लगा हो, बड़ा खुरदुरा। उन्होंने मेरे पास उसे भेजा और कहा कि थोड़ा रफ़ है। उसका व्यवहार परम्परागत नहीं है।
दुःखद बाद यह है कि हिन्दी के हलकों में या उच्च शिक्षा में भी सामान्य व्यवहार उसको माना जाने लगा जिसमें विद्यार्थी बहुत विनीत भाव से आता है। पाँव छू लेता है। प्रणाम कर लेता है। हाथ जोड़ कर बैठ जाता है। उसको सामान्य आचरण कहते हैं।
लेकिन मेरे लिए यह असामान्य आचरण है। असल में मैं बहुत अलग तरह का आदमी हूँ। मेरा भी इस तरह का आचरण मैं बहुत मित्रवत् हूँ, मैं चेले नही पालता। मेरा कोई चेला नही होगा। लेकिन यह परम्परा आपको हिन्दी में और संस्कृत में बहुत दिखेगी। मेरे जितने भी शोधार्थी रहे, सभी मित्रवत् रहे। मेरे लिए यह सहज होना है। बाकियों को यह सहज होना सही नही लगा हो और तब अनिल को प्रो० नीरजा टण्डन ने मेरे नाम आवंटित कर दिया।
अनिल आया यहाँ।
मुझे बहुत याद नहीं है लेकिन अनिल आया होगा। मैंने उससे बात की होगी। हाथ मिलाया होगा (मेरी बहुत आदत थी) तो उसको भी कुछ विचित्र लगा होगा। उसके बाद उसने बहुत अच्छा लेख मुझपर लिखा ‘देखा हुआ आदमी तापा हुआ घाम’। अनिल बहुत अलग तरह की राजनीति से भी आया था। वह पिथौरागढ़ में रहकर राह खोज रहा था। जोश था, जनसाधारण के लिए प्रतिबद्धता थी। जनसरोकारों को लेकर बेचैनी थी। ठेठ जीवन था ना ! जब मैंने यह सब देखा और पाया कि मेरा बचपन भी इसी तरह का था। तो अनिल से विभिन्न प्रकार से आत्मीयता हुई और उसने काम करना आरंभ किया। थीसिस के लिए उसका काम था- छायावादोत्तर लंबी कविताओं में रचना विधान तथा विचारधारा’ विषय चुना गया तो मैंने उसे ‘आलोक धन्वा’ की ‘ब्रूनो की बेटियाँ’ दी और लम्बी कविताओं को लेकर मैं बहुत उत्सुक रहता था क्योंकि मैं लगातार यह देख रहा था कि दरसरल समय हमसे (एक लेखक से) जिस आख्यान की माँग करता है। क्या हम उसके साथ न्याय कर पा रहे हैं? लम्बी कविताओं को लेकर तब एक हलचल थी और अनिल में भी थी। क्योंकि लंबी कविताएँ ज़ाहिर सी बात है कि वह कथा वर्णन (narration) में जाती हैं। वह जीवन का एक आख्यान संभव करना चाहती हैं। जिनमें कितनी भूमिकाएँ हैं, कितने संघर्ष हैं, कितने मोर्चे हैं, आदि चीजें बहुत अलग-अलग छोटे-छोटे हिस्सों में होती हैं। लेकिन समग्रता में एक जीवन रचती हैं। तो क्या हमारा लिखा उस जीवन को रच पा रहा है?
अनिल
में
मैंने
लेखक
देखा
अनिल
कविताएँ
नहीं
लिखता
था,
अनिल
कहानियाँ
लिखता
था
और
अनिल
की
कहानियाँ
मैंने
देखी;
मैं
भौंचक्का
रह
गया।
खूब
आँचलिक
आग्रह
था।
लेकिन
मसला
यही
है
कि
मनुष्य
जीवन
के
बुनियादी
प्रश्न
कहाँ
हैं? वह तो सबके एक हैं ना और अनिल के वहाँ भी थे। हो सकता हैं कि उसमें आंचलिकता का अधिक आग्रह था। उसमें कुमाऊँनी के इतने शब्द थे कि हिंदीतर भाषा के लोग उसको ना समझ पायें। लेकिन अनिल यह कर रहा था और बहुत कमाल कर रहा था। जब मैंने अनिल की कहानियाँ पढ़ीं तो हिन्दी की सबसे बड़ी पत्रिका ‘पहल’ में छपना स्थापित लेखक होना हुआ। मैंने ज्ञानरंजन जी को (उससे पहले मैं पहल के लिए लगातार लिखता रहा, ज्ञान जी पसंद करते थे मुझे। ज्ञान जी को लगता था कि मैं अच्छा कवि हूँ। और यह भी लगता था कि मैं अच्छा आलोचक भी हूँ। क्योंकि उन्होंने डाँट-डाँट के मुझे आलोचक भी बनाया था) अनिल की कहानियाँ भेजी। ज्ञान जी उछल पड़े ! बहुत शानदार कहानियाँ हैं इनको साथ छापते हैं। तुम कहाँ से लाए इसे खोज के। - ज्ञान जी ने उत्तर दिया
बाद में यह हुआ कि ज्ञान जी ने वह कहानियाँ दो-तीन बार पढ़ी और मुझसे कहा कि इसमें कुछ शब्द ऐसे हैं जिनका कुमाऊँ से बाहर लोगों का जान पाना थोड़ा मुश्किल है। इसलिए इन शब्दों को थोड़ा डाइल्यूट किया जाना चाहिए तो अच्छा होगा। क्योंकि इससे पहले भी एक पूरा आन्दोलन एक आंचलिक कहानी के रूप में चल चुका था। जो रेणु की कहानियाँ में है। रेणु की कहानियाँ कितनी तो आँचलिक हैं। लेकिन आप…पहुँच जाते हैं। बहुत आँचलिक शब्द होता है रेणु की कहानियों में पर वह बाधा नहीं बनता। उन्होंने शैलेश मटियानी का उदाहरण दिया की अनिल से कहो कि इस तरह से कर सकते हैं। क्योंकि वह शैलेश जी की कहानियों में भी हैं वहाँ सारा कुछ आया है।
आगे प्रोफेसर कहते हैं- कथा में अनिल, शैलेश मटियानी की सबसे सच्ची संतान है। अगर मटियानी होते तो सब कुछ उसके नाम कर जाते। इतना कोई हो सकता है तो वह अनिल हैं। ज्ञान जी ने कहा की उनसे भी सीखा जा सकता है। क्योंकि हर कहानी में मानो तीन से चार पेज में कहानी छपेगी। बारह- पंद्रह शब्द ऐसे हो जा रहे हैं जो अबूझ हो जाएँगे। तो क्या शब्द बदले जा सकते हैं?
अनिल अड़ गया। अनिल नही माना।
ठीक…. हुआ! अच्छा हुआ! वह नही माना। लेकिन ज्ञान जी उसको बड़ा कथाकार मानते रहे। फिर उस कहानी को हमने अनुनाद से ‘भ्यास कथा तथा अन्य कहानियाँ’ शीर्षक से साथ में छापा और उसका आवरण मैंने पेंट किया। फिर अनिल ने अपनी कवितायें दिखायीं, फिर वह किताब बनी ‘उदास बखतों का रमोलिया’ दख़ल प्रकाशन से मित्र अशोक पाण्डे ने छापी। लेकिन अनिल के कुछ हठ, कुछ ज़िद से, मैं नाराज़ भी हूँ। लेकिन मुझे वह प्यारे भी उतने ही हैं। मैं शायद उसका बड़ा होने के नाते, स्नेह होने के नाते उसके लिए चीजों को आसान करना चाहता था। मैं चाहता था कि अगर यह इतनी ज़िद छोड़ दे तो इसके लिए चीजें अच्छी हो जायेंगी। मान लो की बारह शब्द बदल दे और पहल में छपकर बड़ा कलाकार हो जाय। लेकिन वह बहुत खूबसूरत था हठ। वह जिद सुंदर थी। क्योंकि कवि होने से पहले बचे रहे मेरा पहाड़ उसकी सम्वेदना है, उसका कवित्व है।
घ) समय साक्ष्य प्रकाशक/संपादक श्री प्रवीन कुमार भट्ट से साक्षात्कार[15]
● प्रवीन भट्ट समयसाक्ष देहरादून के सम्पादन मंडल में हैं उत्तराखंड के विभिन्न लेखकों को स्थापित करने में सहायक हैं। उसी तरह आपने डॉ. अनिल कार्की के लेखन को पढ़ा है। आपने उनके काव्य को सम्पादित और प्रकाशित किया है। काव्य के माध्यम से ही है अगर देखा जाय तो आपको क्या व्यक्तित्व झलकता हुआ दिखायी देता है?
यार! इस पर दो बातें हैं दरअसल, - प्रवीन जी विस्तार में बताते हुए
एक तो यह है की पहाड़ की जिस तरह की परिस्थिति है वर्तमान में पलायन का बोलबाला है। पहाड़ में केवल वो लोग अभी रह रहे हैं उसमें जो किसी ना किसी मजबूरी में हैं। न्यून संसाधनों की उपस्थिति होने के बावजूद पैतृक भूमि बंजर ना हो जाने का डर है मन में। तो इन परिस्थियों में एक निराशा है। कहीं कोई आशा की किरण नहीं है, कहीं पर कोई टेम्पो नहीं बना हुआ है कि हम यहाँ पर ख़ुशी से रहते हैं। और हम यहाँ पर रहना चाहते हैं। तो इन्हीं निराशाजनक परिस्थितियों के बीच में अनिल कार्की एक उम्मीद की किरण के रूप में कहें या फिर सामाजिक वस्तुस्थिति को दुनिया को बताने वाले एक इंसान के रूप में कहें। वह यथार्थ लाया है। अनिल ने साहित्य में जो रचा है उसमें कुछ ऐसा नहीं है कि जो वहाँ पर नहीं घटित हो रहा है। या जो नहीं है या ऐसी कपोल कल्पना जैसी बात नहीं है। वह सारी घटनाएँ रोज़ना पहाड़ों में होती हैं। चाहे अनिल के कहानी के पात्र हों, कविताओं के पात्र हों, चाहें वह खड़िया का माफिया हो। तमाम शिक्षा व्यवस्था हो या अन्य कोई आस-पास घटित हो रहा हो। जैसे फ़ौजी पिता पर लिखी ‘फ़ौजी त्रिपाल’ कविता हो। प्रदेश गये बेटों पर कविताएँ हैं जो लंबे-लंबे समय तक घर नही आते हैं। उनकी ईजा की उम्मीदों पर कविता हैं। उनकी कविताओं में आइसक्रीम, विक्स, बाम जैसे छोटी-छोटी कविताओं के संदर्भ हैं और यह हर दिन की कहानी है। अनिल ने जो देखा जो, महसूस किया उसे सामने रखने का काम किया है। वह यथार्थ है और तब सब लोग अनिल के काव्य को अपने से जोड़कर देखते हैं।
दूसरी बात यह भी है कि किस्सागोई कला है उनमें। यह कला भी एक अध्ययनशील व्यक्ति को ही आती है जब वह खूब पढ़ता है, देखता है कि दूसरे लोग किस तरह से अपनी बातों को रख रहे हैं कि उसमें किन-किन चीजों को जोड़ा जाय। अगर स्थानीय परिस्थिति को बताते हैं परंतु उसके साथ प्रकृति छूट जाये या परिवेश छूट जाये। तो नहीं बन पाएगा। दरसल हमारे आस-पास साहित्य एक दृश्य उपस्थित करता है। तो अनिल उस दृश्य को उपस्थित करने में कामयाब रहता है। यहीं उनके काव्य में सजीवता प्रदान करता है।
ङ) श्री विनोद उप्रेती से बातचीत[16]
● कॉलेज में एक ही दौर के रहे हैं तब ‘विहान’ के संपादक मंडल में भी सहयोग रहा और पलायन से पहले कविता संग्रह का आवरण विनोद ने दिया। कुछ स्मृतियाँ साझा की हैं।
हम एक ही समय के पढ़े हुए हैं लगभग - विनोद ने कहा
उस दौर में अनिल आरएसएस का ऐक्टिव, समर्पित कार्यकर्ता था। ऐसा वाला नहीं था कि टुच्चेपने में हल्ला करने वाला। उसी दौर में शुरुआती कविता संग्रह सामान्य था ‘अभिलाषा’ नाम से प्रकाशित किया। तब हम एक दूसरे के विपक्ष में कॉलेज की राजनीति और चुनाव में भी जोर जमाया करते थे। लेकिन वो समय बिल्कुल अलग है, वह कविताएं भी। वर्तमान का जो अनिल है तब के अनिल से उसके कर्म में बहुत बड़ा अंतर है। अनिल तब से ही बड़ा अध्ययनशील व्यक्तिव का था। तभी अनिल का विक्रम नेगी, रूपेश डिमरी, पंकज भट्ट, होशियार बिष्ट आदि यारों का ग्रुप हुआ करता था और मुख्य रूप से अनिल और विक्रम ने कविताओं पर ‘विहान पत्रिका’ का सम्पादन सम्भालते और एक अंक को देखते हुए मैं डिज़ाइनिंग का काम करता था। पढ़ते-पढ़ते अनिल ने महसूस किया कि दक्षिणपंथी राजनीति उनके काम की नहीं हैं क्योंकि नैनीताल जाने के बाद जब अनिल ने मुखर होना शुरू किया तो अनिल का नया वैचारिक रूप सभी के सम्मुख आया। ‘भ्यास कथा तथा अन्य कहानियाँ’ कहानी संग्रह प्रकाशित होने जी बाद अनिल ने पहाड़ के साहित्य को नॉस्टैल्जा से मुक्त कर नयी दिशा दी। सामाजिक परिस्थितियों को लिखना शुरू किया। जैसे ‘नया मुंशी’ पढ़ते हैं, चरखुल्ली की धार पढ़ते हैं या कोई अन्य कहानी पढ़ते हैं तो वो वर्तमान की कहानी है। यथार्थ दिखता है। ऐसा नहीं हैं कि किसी अतीत का गुणगान हो रहा हो। बल्कि समाज की समस्याओं में माफिया राज और राजनीतिक दख़ल को प्रदर्शित करती है।
निष्कर्ष : “मैं सचेत होकर लिखता हूँ लोगों को मेरी लेखनी उबड़-खाबड़ भी लगती है। लेकिन मैं जानता हूँ कि उबड़-खाबड़ लिखने का एक अपना शिल्प और सौंदर्य होता है”, जब अनिल ने ऐसा कहा तो यह समझ में आता है कि कुमाउँनी लेखन परंपरा में कवि स्वयं को श्री बंधु बोरा, (मनी ऑर्डर –कुमाउँनी, कहानी संकलन) की पंरपरा का मानते हैं। हिन्दी में शैलेश मटियानी तथा विद्यासागर नौटियाल की पंरपरा का स्वयं को मानते हैं। इस तरह देखते हैं कि डॉ. अनिल कार्की की प्रत्येक कविता अपनी संवेदना कि सुस्पष्ट अभिव्यक्ति देते हुए पाठकों के अंतःस्थल को निश्चित रुप से बेचैन करती है। इनके रचना कर्म में मानव तथा समाज की उन घटनाओं, संस्कार, चेतना, संवाद को पहली बार करीब से उसके सम और विषम पक्षों के जुड़ी रहने वाली गहरी सामाजिकता एवं राजनीतिक समझदारी देखने को मिलती है। साथ ही कवि जीवन के मूल को सामाजिक रूढ़िवादी विचारधाराओं को खूब खंडित करते हुए, पहाड़ की समाजिक यथार्थ का चित्रण करते हैं।
[1] कार्की, अनिल. उदास बखतों का रामोलिया, समयसाक्ष्य प्रकाशन- देहरादून, 2022, पृष्ठ- 54
[2] नारायण, कुंवर. इन दिनों, राजकमल प्रकाशन-नई दिल्ली, 2002, पृष्ठ-7
[3] कार्की, अनिल. पलायन से पहले, समयसाक्ष्य प्रकाशन- देहरादून, 2022, पृष्ठ- 48
[4] सुनील, जे. एन्थ्रोपोसीन का विचार, सदानीरा ग्रीष्म- 2022, गाजियाबाद, पृष्ठ-10
[5] कार्की, अनिल. पलायन से पहले, समयसाक्ष्य प्रकाशन- देहरादून, 2022, पृष्ठ-130
[6] कार्की, अनिल. उदास बखतों का रामोलिया, समयसाक्ष्य प्रकाशन- देहरादून, 2022, पृष्ठ- 114
[7] विश्वकर्मा,हिमाँशु. अनिल कार्की के कविता संग्रह ‘पलायन से पहले में संवेदना व शिल्प विधान’, हिन्दी विभाग महिला कॉलेज हल्द्वानी-2022, पृष्ठ-5
[8] डॉ. अनिल कार्की से साक्षात्कार, उत्तराखंड मुक्त विश्वविद्यालय, हल्द्वानी, उत्तराखंड, (13 जुलाई, 2022)
[9] कार्की, अनिल. पलायन से पहले, समयसाक्ष्य प्रकाशन- देहरादून, 2022, पृष्ठ- 5
[10] डॉ. अनिल कार्की से साक्षात्कार, उत्तराखंड मुक्त विश्वविद्यालय, हल्द्वानी, उत्तराखंड, (13 जुलाई, 2022)
[11] वही, (20 जुलाई, 2022)
[12] वही, (20 जुलाई, 2022)
[13] डॉ. लोकेश डसीला से साक्षात्कार, डीडीहाट, पिथौरागढ़, उत्तराखंड, (21 जुलाई, 2022)
[14] प्रो. शिरीष कुमार मौर्य से साक्षात्कार, डी० एस० बी० परिसर, नैनीताल, उत्तराखंड, (20 अगस्त, 2022)
[15] श्री प्रवीन कुमार भट्ट से साक्षात्कार, समयसाक्ष्य प्रकाशन- देहरादून, उत्तराखंड, (31 जुलाई, 2022)
[16] श्री विनोद उप्रेती से साक्षात्कार, नारायणनगर, डीडीहाट, उत्तराखंड, (25 अगस्त, 2022)
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