संस्मरण : शहर जैसा मैंने जाना : चित्तौड़गढ़ / ‘धाकड़’ हरीश

शहर जैसा मैंने जाना :  चित्तौड़गढ़
- धाकड़हरीश

आज भी जब रेलवे स्टेशन के ठीक बाहर के बस स्टॉप पर उतरता हूँ, तभी मुझे इस शहर में पहली बार मेरा आना याद जाता है। जब पहली बार इस अनजान शहर में आया तब मुझे नही पता था कि यह शहर इतना अपना बना लेगा। जैसे ही बस शंभूपुरा से आगे की तरफ निकलती है, मेरी नजरें पूर्व दिशा में ही टिकी रहती है। जब तक चित्तौड़गढ़ का किला दिख न जाए! जैसे ही उस पर नजरें पड़ती है, मन तुरंत हिसाब-किताब करने में लग जाता है। `बस' आधार रेखा पर ही लगातार चलती रहती है, पर मन कर्ण रेखा बनाता हुआ किले को छूकर स्टेशन के वहाँ तक लंब रेखा खिंचकर, आधार-रेखा से मिलकर कह उठता है- `अबे गणों छेटी कोनी ! बस, आवा ही वारो है- चित्तौड़!’ 

चित्तौड़ की गली-मोहल्लें इस कदर मेरे मन में बसे हुए हैं जैसे सब कुछ अभी कल की ही बात हो। सन 2014 में नौकरी लगने के कारण चाहते हुए भी निकलना पड़ा, किंतु आज भी अगर यहाँ आने-जाने का हिसाब लगाया जाए तो दो से तीन महीने में एक बार आना- जाना हो ही जाएगा। सेवा काल मे ठेठ दक्षिण शिवगंगा, तमिलनाडु तक गया, वहाँ रचा-बसा। परंतु मेरा मन हमेशा यही का यही रहा। आज भी नौकरी चाहे कांठल प्रदेश की छोटी सादडी में है, पर मन अब भी मेवाड़ में ही बसा हुआ है। बहुत से सुंदर शहरों को देखने के बाद भी इस शहर से दूर होना मुझे नही आया। मेरी स्वर्णिम स्मृतियों आकर्षण का शहर है-चित्तौड़गढ़! नजीर केसर का ये शेर याद आता है- 

"कोई पुराना शहर है जिस का
खुलता है दरवाज़ा मुझ में।" 

रेलवे स्टेशन वाले बस स्टॉप पर जिस फुर्ती से बस रुकती, हम उतरते उसी फुर्ती से। टर्न लेकर नाकोड़ा कार डेकोर के सामने से होते हुए सीधे रास्ते से कॉलेज में चले जाते। वहाँ का यही जमा-जमाया रास्ता था। लगभग 5 साल की नियमित पढ़ाई के दौरान कोई पचास-साठ कक्षाएँ ही कुल मिलाकर पढ़ी। महाविद्यालयी शिक्षा को लेकर जितनी उमंग मन में थीं, बस वहाँ जाने भर की देरी थी। राजकुमार जी की भूगोल की कक्षा, बनवारी जी की कक्षा कभी-कभार हिंदी की सुशीला मेडम की कक्षा। बस! इतनी ही कक्षाओं से मेरा वास्ता रहा। कॉलेज जाते कक्षाओं में बैठे-बतियाते रहते पढ़ने का मन भी था, पर कभी कोई एकाध प्रोफेसर कक्षा लेने आते, बाकी अधिकतर कक्षाएँ खाली ही रहती। कभी थोड़ा सा पढ़ाया जाता, बाकी जैसे आते वैसे ही घर वापस जाते। अग्रजों से पूछने पर पता चला कि कॉलेज ऐसे ही चलते हैं। ये स्कूल थोड़े ही है कि लगातार सब कक्षाएँ व्यवस्थित चलती मिले?

अधिकांश प्रोफेसर्स आपसी तर्क-वितर्क में घंटों उलझे रहते, कोई कहीं नया मकान बनवा रहा है, कोई प्लॉट खरीद रहा। यहाँ आकर देखा कि सभी अपनी अलग-थलग दुनियाँ में ही जी रहे हैं। बालकों की वास्तविक मनोदशाओं से बिल्कुल अनजान।  बाहर से चमकते ओहदे, परंतु अंदर से अधिकांश खोखले। ऐसा सुना था कि ये कॉलेज के दिन लड़कों के दिल उलझने के थे, लेकिन यहाँ तो कुछ प्रोफेसर ही इनमें उलझे मिले। लड़के बिचारे क्लास में बैठे हैं कि कोई ज्ञान का घूंट पिला जाए, पर जैसे आये खाली वैसे ही वापस घर लौटते। जल्दी ही मेरा मन यहाँ से उचट गया। कॉलेज जाता तो भी पुस्तकालय के कारण। उन दिनों कॉलेज में पुस्तकालय में नयी किताबों को पढ़ने का चस्का भी लगा था। रोज पुस्तकालय जाने लगा एवं पढ़ने लगा। कितनी कौन-कौनसी किताबें उस समय पढ़ी, कितना याद रहा? ये हिसाब याद है, ही उसके बाद कभी लगाया। बस जो किताब मन को जंची, उठायी, पढ़ी और रख दी। आये दिन कॉलेज में हुड़दंग होता रहता। कॉलेज की हुल्लड़, गप्पबाजी में कभी शरीक नही रहा। साथी  गप्पे लगाते, कुछ लड़के सिगरेट का धुंआ भी उड़ाते, चाय की थड़ी पर घंटों चर्चाएँ होती, कोई किसी साथिन के इन्तजार में रहता तो कोई केवल उन्हें देखकर ही खुश है। मैं भी देखकर खुश होने वालों की श्रेणी में शामिल रहा। देश, राजनीति पर शुरू हुए मुद्दें लड़कियों की सुंदरता पर जाते फिर उनकी सुंदरता पर चर्चाएँ करते आदि। उन दिनों मेरा मन किताबों की रंगीन दुनियाँ में खोया हुआ था। पढ़ने में मुझे खूब रूचि थी, जब सभी साथ वाले सोए रहते, तब रात को तीन बजे उठकर अक्सर पढ़ने बैठ जाता था। इसी के चलते कॉलेज में प्रवेश सूची में 50वें पायदान पर होकर भी स्नातक अंतिम वर्ष उतीर्ण होने के समय पहले पायदान तक का सफर मुकम्मल हुआ। यह उस समय की संतोषजनक बात रही।

कॉलेज के इन्ही दिनों में राशमी के अड़ाना गाँव से आये मुरलीधर जी से मिलना हुआ। बहुत जीवट व्यक्तित्व है उनका, सोचते ही मन में श्रद्धा भर आती है। कुम्भानगर में रहते हुए परिचय हुआ। स्टडी सर्कल संस्थान में कुछ क्लासेज लेने के बदले में संस्थान की तरफ से उनकी कॉलेज की फीस का प्रबंध वहीं ऊँपर बने एक कमरे में उनके रहने का प्रबंध हो पाया था। बाद में केंद्रीय विद्यालय गांधीनगर में सहायक कर्मचारी का काम करते हुए हमें पढ़ाते रहे खुद भी पढ़ते रहे। वे हमें राजस्थान के इतिहास की रोचक कहानियाँ सुनाया करते। यहाँ से निकलने के बाद मधुवन मेंशांति निकेतनआवास में ऊँपर छत पर एक कमरा था, वहीं उनका संघर्ष भवन रहा। खूब मेहनत करते, पढ़ते, पढ़ाते। आये दिन नयी-नयी किताबें लाते एवं नोट्स बनाते रहते। लगातार की मेहनत से 2012 वरिष्ठ अध्यापक भर्ती में उनका चयन हो गया। हम लोग भी उनकी प्रेरणा से आगे बढ़ते गए एवं इसी अध्यापकीय क्षेत्र में शामिल हो गए।

मैंने सेन्थी में जगदीश भाई साहब के साथ कमरा लिया वहीं रहने लगा। मुझे तब रोटियाँ सही बनानी नहीं आती थी, इसलिए बर्तन धोने का काम और आटा लगाने की जिम्मेदारी मुझ पर रही। रोटियाँ बनती तब मैं सामान्य ज्ञान के प्रश्न पूछता रहता था। अधिकतर सब्जियाँ जगदीश भाई साहब सूखी वाली बनाते थे एवं उसी सूखी सब्जी में मसल कर रोटी खाते। खाना खाने का यह तरीका मेरा उनसे ही सीखा हुआ है जो आज भी अभ्यास में है। बाथरूम की सुविधा सही होने के कारण नहाना- धोना दिन में पास के हेंडपम्प पर कर लेते। पढ़ने, आराम करने के बाद शाम को घूमने जाते। घूमते हुए सुंदरता निहारना पुराना शगल रहा है, तब से मैं सुंदरता देखकर उसे पूर्णांक 10 में से नम्बर देता रहता हूँ। जैसे दिखने में सुंदर होने के साथ अगर बात करने का तरीका, आचरण भी ठीक है तो पूरे अंक। बाकी जो-जो कमी नजर आती नंबर कटते जाते। यह नम्बर देने की आदत तब से लेकर आज भी है।

सेन्थी में कुछ दिन जैसे-तैसे निकले पर घर से बाहर पहली बार रहने से मन बिल्कुल नहीं लगा। इसका एक कारण यह भी था कि जगदीश भाईसाहब पढ़ने के दौरान बात करना पसंद नही करते और इतनी जिज्ञासाएं लेकर शांत मुझसे बैठा नही जाता। कभी-कभी लड़ते रहते कि पहले थोड़ा पढ़ लेते है, फिर बातें करेंगे। उनका आधा समय कंप्यूटर कोर्स करने में निकलता, आधा पढ़ने में। इस प्रकार मैं अकेला बातूनी आदमी बहुत बौर होता।

            सेन्थी में वहाँ रहते मन लगा मुश्किल से 4-5 दिनों बाद ही `धाकड़ भवन' जो कि रोड नम्बर 12 पर बापूनगर में है, वहाँ दोस्तों के टोले में गया। वहाँ पहले से ही हडमतिया जागीर के 2 लड़के, शौकीन नाम के रहते थे। सब उनको मड़यों शौकीन और जाड़ो शौकीन कहकर बुलाते, मुझे अजीब सा लगा पर किसी से कुछ नही कहा। समूह में रहने की आदत होने के कारण मैं हमेशा दो दोस्तों के साथ ही कमरा लेकर रहा। मैनें रामनिवास जी राजपुरा एवं जीवन जी जयसिंहपुरा के साथ संयुक्त रूप से कमरा लिया। बाद में विष्णु जी भी शामिल हुए। तीनों जिंदादिल आदमी। यहाँ मन लगने लगा मजे से दिन निकलने लगे। यहाँ शहर में रहते हुए भी गाँव जैसा ही माहौल रहा। कमरा लेने के पहले दिन साफ सफाई करके सालों से बंद कमरें में प्रवेश किया, तब छोटे चमगादडों ने स्वागत किया। यहाँ का अलग ही माहौल था। कुल आठ कमरों में हम ग्यारह से बारह लड़के रहते थे। पीने से नहाने तक का पानी बाहर के हेंडपम्प से लाना पड़ता। सभी काम होडा-होड़ी में करते, खूब पढ़ाई करते, साथ ही खूब मस्ती भी करते। यहाँ इसी मकान में एक तरफ एक बड़ा सा खड्डा था जिसमें कचरा पड़ा रहता। सभी ने एक दिन उसे साफ कर दिया। नहाने का काम खुले में ही होता। जो पानी ढुलता वो खड्डे में गिरता रहता। यही एक दिन मैंने गेहूं के दाने भी डाले जो उगे, बड़े हुए एवं जब उनमें बालियाँ आयी और उन्हें सेक कर खाया भी। ये भी एक छोटी-सी पर आश्चर्य करने वाली बात रही।

एक घटना याद आती है जिस पर हँसे बिना नही रहा जाता। इसी खड्डे में एक कटोरी कब से पड़ी थी। जब भी नजर पड़ती दिख जाती। हम मे सें किसी ने उसे नही निकाला, ही कोशिश की। रोज उसे देखते थे। हुआ यूं कि एक दिन हम सबने देखा उसमें तेल भरा है। एक बार देखा तब सामान्य लगा, पर जब रोज देखने लगे। कभी वह खाली, किसी दिन वापस भरी हूई दिखती। सभी सोचते कौन ऐसा करता है? एक दिन नीचे खड्डे में उतरा। जब  कटोरी उठायी तो उसमें तेल होकर पेशाब भरा था। बहुत दिनों तक उस बात पर हँसी आती रही, बाद में पता चला कि वहाँ का पड़ोसी आदमी रात को उसी खड्डे में पेशाब करता है जिससे कभी कटोरी में गिरने से वह कटोरी भर जाती है।

यहाँ से गलियों में होते हुए कॉलेज जाते थे। जाते समय देखते निकलते कि किस -किस के मकान में ठीक-ठाक आकर के पपीते लग रहे हैं। दो-तीन बार रात के समय को तोड़ लाये। अखबार में लपेट उन्हें पका लेते। पकने पर जब खाते, तब भी रात को अंदर का किवाड़ लगाकर खाते, ताकि पास में रहने वाले दोस्तों को भनक भी लगे। 

         यहाँ रहते हुए हम हमारे पड़ौसियों की दया का पात्र अवश्य बन गए थे। पास-पडौसी कभी-कुछ, कभी-कुछ खाने-पीने की सामग्री देते रहते। शुरू में पानी भरना, नहाना कभी भी हेंडपम्प पर कर लेते थे, परंतु जब आसपास वाले जानने - पहचानने लगे तब ये काम अंधेरे में सुबह या शाम को करने लगे। किसी के भी शादी ब्याव के खाने में जीम आते थे। पर एक दो बार पास वाले अंकल जी खाने में मिल गए और पूछा तब जवाब देते बना। फिर बिना जान-पहचान वालों के वहाँ जीमने का काम बंद कर दिया। यहाँ सामने के मकान में जयपुर के मनमोहन जी रहते थे। उनके बड़े भाई राजेन्द्रजी राठौड़ जो भू-जल विभाग में कार्यरत थे, कभी-कभी उनसे मिलने आते रहते थे। उनसे हमारी बात अक्सर हो जाया करती। जब भी वे हमें देखते बोलते- ‘आज काई की सब्जी बनाई?

अधिकतर बार उनके इस सवाल का जवाब हमारी ओर से होता - ‘दाल हम दाल इसलिए भी ज्यादा बनाते कि इसमें हमारे खर्चा नही लगता। जब भी गाँव जाते, थैला भर कर आते। कभी कभी वो कहते - ‘छोरा गणा मेहनती है, एक दन जरूर याँकी नौकरी लाग जासी।’ जब भी हम ये सुनते हमारे हौसले बुलंद हो जाते। फिर उमंग से पढ़ते रहते। जब उनके भाई साहब उनके पैतृक गाँव जाते, मकान हमारे ही सुपुर्द करके जाते। उनसे हमारा परिवार सा रिश्ता बना।

बापूनगर का यह मकान सुविधा-विहीन था। अभावों में भी यहाँ चार साल कैसे निकल गए, पता ही नही चला।  कोई नया लड़का हमारी तरफ का पढ़ने आता, जब तक उसके रहने का ठीक प्रबंध हो जाता, उसकी आश्रय स्थली यही रहती। रोड नम्बर ग्यारह पर पंडित ज्यूस सब्जी वाले के वहाँ सुबह-शाम दोनों बार जाते थोड़ी माथा-फोड़ी करने के बाद वहाँ ज्यूस पीते सब्जी लाते। किराने का सामान लक्ष्मी किराना से लेने जाते, वहाँ से सामान खरीदने की मोहमाया केवल इतनी रही कि देर तक पढ़ने के बाद दो-चार बातें लक्ष्मी से करना। असल मे दुकान का नाम उसी के नाम पर रखा था। उसकी मोहक मुस्कान देख आना जरूरत की चीजें खरीद लाना यही उद्देश्य था। बाकी इससे आगे कोई रिश्ता नही बढ़ा। ही वह पांच सालों में जान पायी कि मेरा या हम में से किसी का भी नाम क्या है।  अंत मे दो-तीन साल बाद एक बार उस दुकान पर गए तब जरूर उसने कहा कि अब गाँव शिफ्ट हो गए क्या आप लोग? बहुत दिनों से दिखायी नही दिए।  तब हमनें बताया कि हमारी मंडली के ज्यादातर लोग नौकरी लग गए है। वे गाँव चले गए। अब एकाध साथी बचे हुए हैं, उनसे मिलने आना होता है।

सालों बाद चित्तौड़ की यादों में कमरें की याद के साथ सूरजमल जी, चमन जी, कैलाश जी, शोभ जी, देवीलाल, कैलाश भाई, शौकीन जी, चुन्नीभाई, प्रकाशजी ,अशोक जी, परमानंद जी, दिनेश जी, अरुण भैया, लोकेश जी, प्रहलाद जी, बबलू भाई, अनिल जी, गणपत भाई, तरूण भाई की यादें बसी है जिनसे अब तक जुड़ाव है। सबका अलग-अलग व्यक्तित्व। सबकी अलग-अलग रुचियाँ, पर मन से सब एक। एक-एक के बारे में फिर कभी बताऊंगा।

उन दिनों लिखी ये पंक्तियाँ उन दिनों का अहसास करवाती है -

 

यादें है यादों का क्या"
हो गया हूँ घर से दूर ;
घर का फिर अहसास मिला है।
मुझको कोई शिकवा है,
ही है अब कोई गिला है।
मैं किस्मत का मारा हूँ पर!
फिर भी कुछ का प्यारा हूँ।
किस्मत पढ़ना मैं जानु,
फिर भी मैं इतना तो मानु।
अब भी सब-कोई याद करे तब..
कैसे में शिकवा फिर मानु।
दुःख के साथी सुर,शोभ और
सत्तू जी के हाल मैं जानु,
फिर चाय बनाने खातिर क्यों ना!
लक्मी शॉप को जरिया मानु।
जाकर आऊँ उससे पहले,
चमन बन्ना को खड़ा मैं पाऊं।
चमन बन्ना और कैलाश जी को
रहती नहीं कभी भी  फ़िक्र,
बाते उनकी घूमकर आती,
करती नाहरगढ़ का जिक्र!”

किराना, सब्जी वाले के साथ ही  नाकोड़ा होटल के समोसे का स्वाद आज भी याद है। उन दिनों कॉलेज परिचय पत्र से कैरोसिन मिलता था। तब कैरोसिन लेकर सीधे नाकोड़ा होटल पहुचते एवं दो लीटर दे देते। कुछ बार कॉलेज की टंकी से केरोसिन में पानी मिलकर भी दे दिया। एक दिन उसको पता चल गया तब उसने हमें सुनाकर उस अज्ञात व्यक्ति को खूब गालियाँ दी, जिसने पानी मिलाया था। हमने भी समझ लिया कि वो अज्ञात व्यक्ति कोई ओर नही है -सिवाय हमारे। उसके बाद पानी मिलना बंद कर दिया। कैरोसिन के पैसों से वहीं समोसा पार्टी हो जाया करती।

पहली बार उसी होटल पर  पोहे खाते समय एक दोस्त हीरालाल ने कहा कि रसोई का सामान खरीदों तब चम्मच नही खरीदना, चम्मच यही से पोहे खाओ ले जाओ। मुझे आज भी याद है हमनें यही किया। पोहे खाये चम्मच जेब में, उस बात से आज भी हँसी जाती है।

महाराणा प्रताप पी.जी. कॉलेज से स्नातक होने के बाद 2011 में  गांधीनगर बी.एड. कॉलेज मिला। वहाँ रोज जाना पड़ता था। आने-जाने के बीस रुपये टेम्पो वाला लेता था। इस खर्चे से बचने के लिए मैं कोटा गया। वहाँ से परम् मित्र चुन्नी भाई, प्रतापपुरा की साईकल ले आया जो उसके अब काम नही रही थी। इसी साईकिल से ही शहर में गांधीनगर से लेकर सुभाष चौक, भेरूसिंह जी का खेड़ा, पुरानी नयी पुलियाँ, जिंक कॉलोनी, चंदेरिया, शास्त्रीनगर, मीरा नगर, कुम्भानगर, प्रतापनगर, बापूनगर, सेन्थी, मधुवन, सेंगवा, बोजंदा तक की सभी गलियों में खूब घुमा।

 

"मुझे जब भी वो गलियाँ और वो रस्ता याद आता है,
कोई धुँदला सा मंज़र है जो उजला याद आता है" (नजमा शाहीन खोसा)
 

साईकिल होने से आने-जाने की चिंता खत्म हो गयी थी।  महीने में एक फ़िल्म  सिनेमाघर में भी देख आता। जब भी मन उचड़ जाता पढ़ाई में नही लगता, तब किला घूमना मुझे सबसे प्रिय  लगता था। किले पर कितनी बार गया, इसकी गिनती ही नही है- पैदल, गाड़ी, टेम्पो सभी से, अनगिनत बार। कुछ दिन बंटी भाई के साथ तैरना सीखने किले के चित्रांगद मौर्य तालाब पर ही जाते रहे। फिर एक दिन यह सुना कि यहाँ मगरमच्छ भी रहते है, तब वहाँ जाना बंद कर दिया। किले के बारे में क्या ही लिखूं -

अद्भुत किला है। सच में किलों का सिरमौर हैं- चित्तौड़गढ़ का किला। यहाँ जो भी आता है- बिना रोमांचित हुए नही रह पाता है। जयमल-पत्ता, वीरवर कल्ला राठौड़, बाघसिंह की छतरियाँ वीरता की प्रतिमूर्तियाँ है। कितने साहसी थे, कल्पना करना भी मुश्किल है।  कुंभा महल, कुंभश्याम मंदिर का सौंदर्य वैभव अदभुत है। मीरा मंदिर रैदास की छतरी देखते ही मन मे भक्तिभाव आध्यात्मिकता का प्रस्फुटन स्वतः हो जाता है। सब कुछ अद्भुत है यहाँ का। कुंभा द्वारा मालवा के महमूद खिलजी पर विजय के उपलक्ष्य में बनवाया गया विजय स्तंभ सभी को रोमांचित करता है। कीर्ति स्तम्भ, सतबीस देवरी, मीरा महल, कुम्भ श्याम, मोकल मंदिर, गोमुख, कुंभा महल, पत्ता हवेली, कालिका माता मंदिर, पद्मिनी महल सभी अभिभूत करते है। बार-बार देखने पर भी एक  बार और देखने की चाह हमेशा बनी रहती है।

यहाँ आने पर मन में एक टीस दुःख हमेशा रहा है कि पुरातात्विक ऐतिहासिक स्मारकों की देखभाल साज संभाल ठीक से होना। इन धरोहरों के प्रति ऐसा उपेक्षित रवैया पुरातात्विक विभाग के प्रति मेरे मन में असहिष्णुता क्रोध का भाव जगाता है।

चाय पीने एवं अखबार पढ़ने रावला चौक जो सेन्थी में है, वहाँ दिन में 3 बार जाता। दिन में कभी कभी तो 5-6 बार चाय पीने जाता, पप्पू भैया की चाय का सानी भी मुझे आज तक नही मिला। उनसे बातें करके दिन भर की थकान मिट जाती। दिन भर पढ़ने के बाद चाय पीकर शाम को कभी छतरी वाली खान जिसका आजकल नाम राजीव गांधी पार्क हो गया है वहाँ, तो कभी शनि मंदिर, कभी दोस्तों के कमरें पर घूमने जाता पढ़ाई की, गाँव- गुवाड़ी की, इधर उधर की बातें करते, फिर कमरें पर सब्जी लेकर लौट आता। यही रोज की दिनचर्या रही। शेष बातें फिर कभी

 वो लम्हा जो गुज़रते मौसमों में साथ ठहरा है,

मुझे ख़ुद भी नहीं मा'लूम कितना याद आता है।

 
धाकड़हरीश

मु. पो. - स्वरूपगंज, तहसील- छोटीसादडी, जिला-प्रतापगढ़(राज.)
9950306410

चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक ई-पत्रिका 
  अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-52, अप्रैल-जून, 2024 UGC Care Listed Issue
सम्पादक-द्वय : माणिक-जितेन्द्र यादव चित्रांकन  भीम सिंह (इलाहाबाद विश्वविद्यालय)

13 टिप्पणियाँ

  1. बहुत ही सुंदर लेख लिखा हरीश भाई ने चित्तौड़ में हम सब ने साथ में बिताए समय की यादें ताजा हो गयी।

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  2. बहुत सुन्दर

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  3. घर से बाहर नौकरी की तैयारी करने वाले अधिकांश युवाओं की जीवंत कहानी बेहतरीन सीधे ,सरल एवं आसान शब्दों में 👌👌

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  4. क्या बात हैं भाई यादें ताज़ा कर दी.. 🎉🎊

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  5. डॉ. कृष्ण कुमार जाँगिड़अगस्त 05, 2024 9:22 pm

    आपका संस्मरण दिल को छू गया हरीश जी👌👌❤️

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  6. Ati sundar hai dil ko chu liya sir ji Harish ji 🎉🎂🎂🥳

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  7. Sir ji aapka lakh bahut hi achha sangarshbhara v prerana strota hai

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  8. संस्मरण पढ़ने के बाद महाविद्यालयी जीवन को जीवंत महसूस किया l
    इसी तरह जीवन की यादें सांझा करते रहे l
    लगे रहे भाई

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  9. शानदार संस्मरण

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  10. Main bhi aap wale area senti mein rahakar padhaai ki thi aapke dwara bataye Gaye sabhi jagahon ko main bhi acchi tarah jaanta hun aapka sansmaran padhakar bahut achcha Laga

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  11. वो लम्हा जो गुज़रते मौसमों में साथ ठहरा है,
    मुझे ख़ुद भी नहीं मा'लूम कितना याद आता है।---

    बहुत सुंदर यादें साझा की हैं आपने... चित्तौड़गढ़ आँखों में उतर आया। आपके छोटे-छोटे मजेदार किस्से चेहरे पर मुस्कान ले आने का हुनर जानते हैं

    नज़ीर केसर जी का शेर- "कोई पुराना शहर है जिस का
    खुलता है दरवाज़ा मुझ में।"👌

    सुंदर लेखन के लिए हार्दिक बधाई आपको...

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  12. हरीश जी आपका संस्मरण पढ़कर चित्तौड़ में बिताए उन हसीन लम्हों को हरा कर दिया है
    सोचता हूं जब कुछ नहीं था पर सब कुछ था दोस्तो की वजह से,और आज सब कुछ होते हुए भी कुछ नहीं है दोस्तों को कमी से।
    चितौड़ की धारा का ऐसा सजीव चित्रण काबिले तारीफ़ हैं।

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