शोध सार : स्वाधीनता आंदोलन के दौरान राष्ट्रवाद की अनेक अवधारणाएं पनपी और विकसित हुई। कुछ मामले में ये अवधारणाएं एक-दूसरे से संबद्ध थीं तो कुछ मामले में एक-दूसरे से पृथक भी थीं। गांधी, टैगोर, नेहरू, भगत सिंह, अम्बेडकर, सावरकर जैसे सरीखे नेताओं की अवधारणाओं को इस आलोक में देखा जा सकता है। प्रस्तुत शोध पत्र डाक्टर अम्बेडकर के राष्ट्रवाद की अवधारणा पर केंद्रित है। डॉक्टर अम्बेडकर के राष्ट्रवाद की अवधारणा समाज के सबसे निचले पायदान पर आने वाले जाति समूहों को अभिव्यक्ति प्रदान करती है। स्वतंत्रता आंदोलन में अम्बेडकर ने सीधे तौर पर राजनीतिक आंदोलन में भाग तो नहीं लिया लेकिन उनके कार्यों को दरकिनार नहीं कर सकते। वह ‘आंतरिक’ और ‘बाहरी’ दोनो शोषक ताकतों से मुक्ति चाहते थे और इसमें उन्होंने आंतरिक शोषण के खिलाफ लड़ाई को प्राथमिकता पर रखा। इनका मानना था कि अगर आंतरिक शोषण से निजात नहीं पा सकते तो हम विदेशी ताकत से कैसे जीत सकते हैं। ब्रिटिश हुकूमत के शोषण की वजह से राष्ट्रवाद का उभार हुआ और अम्बेडकर नीचे के वंचित ‘मूक’ समाज के लिए आवाज बनकर उभरे। यदि अम्बेडकर समाज के इस शोषण के विरुद्ध आवाज नहीं उठाते तो सामाजिक आधार पर राष्ट्रवाद कमजोर हो जाता ।
बीज शब्द : राष्ट्रवाद, सांप्रदायिकता, जाति-व्यवस्था, धर्मशास्त्र, स्वतंत्रता आंदोलन, छुआछूत, हाशिए का समाज, अंतिम जन, निम्न वर्ग।
मूल आलेख : राष्ट्रवाद वैचारिक रूप से अपने लोगों के प्रति प्रेम का एक उत्साहित रूप है जो अनिवार्यतः ‘अहं रक्षात्मक’ है तथा बाहरी लोगों के प्रति कुछ हद तक ‘भयपूर्ण नापसंदगी’ या ‘सकारात्मक शत्रुता’ को दर्शाता है।[i] दूसरे शब्दों में, राष्ट्रवाद राष्ट्रीयता की अवधारणाओं को मौलिक, राजनीतिक, नैतिक और सांस्कृतिक मूल्य प्रदान करने के लिए दृष्टिकोण, दावे और निर्देशों का समूह है और इन्हीं समूह द्वारा प्रदान किए गए मूल्यों से विशेष दायित्वों और अनुमतियों को प्राप्त करता है। राष्ट्रवाद के जरिए लोग अपने सकारात्मक आत्म-सम्मान को बनाए रखने के लिए, एक साधन के रूप में, अपने सामाजिक समूह के प्रति बहुत सकारात्मक दृष्टिकोण बनाए रख सकते हैं। इसी नजरिये से, अम्बेडकर की नजर में राष्ट्रवाद के मायने आंतरिक शोषण के साथ-साथ बाहरी अधिपत्य से आजादी है। वह नागरिक अधिकार, समानता और भाईचारे की भावना के विकास को संरक्षित करना चाहते थे। इसके लिए हिंदू समाज की निचली जातियों में कोई जगह नहीं है, जहां वे दास से भी बदतर जिंदगी जीने को विवश हैं। डॉ अम्बेडकर द्वारा भारतीय समाज में मौजूद शोषण की मुखर मुखालफत को अंग्रेजों के विरुद्ध चल रहे राष्ट्रीय आंदोलन में एक विभाजन के रूप में देखा गया। कई लोगों ने अम्बेडकर को ‘देशद्रोही’ करार दिया लेकिन वास्तव में ऐसा नहीं था। अम्बेडकर ने सिर्फ ‘बुनियादी’ मानव अधिकारों के हनन के खिलाफ पहल की वकालत की। इन्होंने कांग्रेस नेताओं का विरोध प्रतिनिधित्व के सवाल पर किया न कि आजादी को लेकर। इनका मानना था अंग्रेज ही हमें अधिकार दे सकते हैं, जातिगत भावना में जकड़े इन कांग्रेस के नेताओं से कोई उम्मीद नहीं। इसीलिए अम्बेडकर आजादी से पहले अपने प्रतिनिधित्व की मांग को आगे रखते थे। उन्होंने तर्क दिया कि कोई राष्ट्र वास्तव में स्वतंत्र नहीं हो सकता यदि उसके नागरिक सामाजिक और आर्थिक उत्पीड़न से मुक्त नहीं हैं। वे विशेष रूप से जाति व्यवस्था के आलोचक थे, जिसे वे आंतरिक उपनिवेशवाद के रूप में देखते थे।[ii]
19वीं सदी में अंग्रेजों की नीतियों और कानूनों की वजह से भारतीय जीवन में बहुत बदलाव आए। काफी अच्छी भारतीय आबादी में अंग्रेजी शिक्षा ग्रहण कर चुकी थी। इस वजह से भी सामाजिक-आर्थिक परिवर्तन हुए। भारतीय लोगों में अंग्रेजी भाषा के साथ-साथ अंग्रेजी मानसिकता की अच्छी खासी संख्या तैयार थी, जो बदलाव की वाहक भी थी। वे हिंदू जाति-व्यवस्था के उच्च वर्ग से संबंधित थे। यही लोग राष्ट्रवाद के प्रारंभिक चरण के स्तंभ भी थे। गौर से देखें तो प्रारंभिक चरण में ये लोग अपने हितों को साधने वाली अव्यवस्थाओं के खिलाफ आवाज बनकर उभरे। स्वाभाविक रूप से, राष्ट्रवादी, राष्ट्रवादी हितों के संदर्भ में बोलते थे, पर उनका मतलब अपने स्वयं के वर्गीय-हितों से भी था। भारतीय राष्ट्रवाद का यह ‘कम्यूनल’ चरित्र उच्च-समर्थक अभिविन्यास से मुक्त नहीं था। इसने ही सामाजिक-आर्थिक आंदोलन की एक नई धारा को जन्म देने में मदद की जो मुख्यधारा के आंदोलन के समानांतर थी। डॉ. अम्बेडकर इस प्रक्रिया की अभिव्यक्ति के निर्मिति थे। डॉ. अम्बेडकर ने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अनुसूचित जाति के सम्मान के दावे का विरोध किया, जिन्हें हिंदू सामाजिक व्यवस्था द्वारा दासता के सबसे अपमानजनक रूप में मजबूर किया गया था।[iii] अम्बेडकर राजनीति की समझ रखते थे। वे इस बात से भली-भांति वाकिफ थे कि दलित अकेले बहुमत नहीं पा सकते। लिहाजा दूसरे से गठबंधन करना ही पड़ता है। उनके इलाके में कांग्रेस का नेतृत्व ‘ब्राह्मणों’ के हाथ में था। उनसे जुड़ने का अर्थ था, एक ऐसे समूह से गठबंधन करना जो सामाजिक विषमता का कसूरवार था।[iv] इसीलिए 1920 में आयोजित शाहू छत्रपति द्वारा अंत्यज आंदोलन में अध्यक्षता करके पारस्परिक सहयोग की ओर कदम बढ़ाया। यह एक नए किस्म का सामाजिक गठजोड़ था।
डॉ. अम्बेडकर ने अपने आर्थिक लेखन में ब्रिटिश साम्राज्यवाद का भी विरोध किया। उनके राजनीतिक दल, स्वतंत्र मजदूर पार्टी के घोषणापत्र में भी उनके आर्थिक सुधारों को दर्शाया गया है। इसमें राज्य प्रबंधन, विनिर्माण उद्योग का राष्ट्रीयकरण, श्रमिकों के लिए काम के घंटे तय करना, पेंशन योजनाएँ और सामाजिक बीमा के सिद्धांत शामिल हैं। अपनी पढ़ाई पूरी करने के बाद जब वे कुछ करने की स्थिति में आए तो इसी को केंद्र में रखा। जब डॉ. अम्बेडकर कार्यकारी परिषद के सदस्य बने तो उन्होंने वेतन भुगतान के नियम में संशोधन करवाए, कारखाना नियमों में संशोधन करवाये, जिससे श्रमिक वर्ग जो मुख्यत: समाज का निचला तबका था उसके अधिकारों का हित हुआ। इस दिशा में, सबसे महत्वपूर्ण भारतीय ट्रेड यूनियन (संशोधन) विधेयक था, जिसके द्वारा कुछ शर्तों के तहत हर उद्यम में ट्रेड यूनियन की मान्यता देना अनिवार्य कर दिया गया था। वास्तव में, 1947 के बाद स्वतंत्र भारत में जिन श्रम कानूनों पर विस्तार से चर्चा की गई, उनमें से कई की शुरुआत अम्बेडकर ने अंग्रेजों के अधीन की थी।[v] आर्थिक समस्याओं के समाधान के लिए उनके नुस्खों में लोकतांत्रिक समाजवाद का विचार झलकता है।[vi] इसके साथ ही वे चाहते थे कि भू-राजस्व प्रणाली अधिक लचीली होनी चाहिए और समय-समय पर इसमें संशोधन किया जाना चाहिए। उन्होंने इसे कानूनी रूप में लाने की माँग की क्योंकि भारतीयों, विशेषकर हिंदुओं की, सामाजिक व्यवस्था दलितों के लिए आय के अवसरों तक समान पहुँच सुनिश्चित नहीं करती थी। वे कहते थे कि समान अधिकार तब तक पर्याप्त नहीं होंगे जब तक अवसरों में समानता सुनिश्चित न की जाय। उन्होंने ब्रिटिश शासन के विरुद्ध स्वशासन की वकालत की। उनका कहना था कि हमें ऐसी सरकार चाहिए जिसमें सत्ता में बैठे लोग देश के सर्वोत्तम हित के लिए अपनी अविभाजित निष्ठा दें।[vii] उन्होंने कई ऐसे कानूनों के बारे में बात की जिन्हें अंग्रेजों ने लागू किया था। उन्होंने ‘कम्यूनल अवॉर्ड’ के महत्व का विश्लेषण किया- “यह दर्शाता है कि संविधान को विभाजित करने में सामाजिक समस्याओं को नकारने वाले राजनेताओं को सामाजिक समस्याओं पर विचार करने के लिए मजबूर किया गया था। राजनीतिक संविधान को सामाजिक संगठन का ध्यान रखना चाहिए। और ‘कम्यूनल अवार्ड’ अप्राकृतिक है और यह अल्पसंख्यकों और नौकरशाही के बीच अपवित्र गठबंधन है।[viii]
"राष्ट्रवाद जाति भावना का निषेध है और जाति भावना और कुछ नहीं बल्कि गहरी जड़ें जमाए हुए सांप्रदायिकता है। जाति ने हिंदुओं को पूरी तरह से अव्यवस्थित और हतोत्साहित कर दिया है।"[ix] सामाजिक भावना के माध्यम से हम अपने हितों की रक्षा कर सकते हैं। उच्च जाति के हिंदुओं ने निम्न जातियों के हिंदुओं को उच्च वर्ग के सांस्कृतिक स्तर तक बढ़ने से रोका, जैसे सोनार और महाराष्ट्र के पठारे प्रभु। यह ‘स्व-हित’ हिंदू धर्म में किसी भी सुधार के साथ-साथ अन्य समूहों के साथ बातचीत करने से रोकता है, ताकि इसके उद्देश्य की रक्षा हो सके। रूढ़िवादी जाति व्यवस्था राष्ट्र में लोकप्रिय नेता के उभरने में बाधा डालती है। हर जाति अपने जाति के नेता को चाहती है और वोट देती है। इसलिए जाति व्यवस्था सार्वजनिक भावना, जनमत, सार्वजनिक दान को नष्ट कर देती है। अम्बेडकर का विचार है कि समाज स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व पर आधारित होना चाहिए। उनका यह विचार फ्रांस की क्रांति से लिया गया है। बंधुत्व का मतलब लोकतंत्र है और लोकतंत्र अनिवार्य रूप से अपने साथियों के प्रति सम्मान और श्रद्धा का एक रवैया है।[x] स्वतंत्रता का मतलब है जीविकोपार्जन के लिए आवश्यक चीजें उपलब्ध हों। समानता को, कम से कम, शासन सिद्धांत के रूप में स्वीकार किया जाना चाहिए। ये तीनों ‘व्यक्तिगत’ रूप से मनुष्य को मजबूत बनाते हैं जो किसी भी जाति से लड़ सकता है और यह किसी भी सामाजिक निकाय के लिए लाभकारी होगा। आनंद प्रकाश लिखते हैं कि अम्बेडकर की नजर में राष्ट्रवाद के लिए सामाजिक एकता जरूरी है और सामाजिक एकता के लिए राष्ट्रवादी विचार भावना एक महत्वपूर्ण जरूरत है। दोनों एक-दूसरे के बिना बहुत हद तक कमजोर है, अप्रासंगिक हैं और साथ ही अस्वीकार्य हैं।[xi] अर्थव्यवस्था के लिए, जाति व्यवस्था ने हिंदुओं को अपने हितों के आधार पर अपना भविष्य बनाने से रोका। वे अपनी खुद की वंशानुगतता के अनुसार व्यवसाय अपनाते थे। यह बेरोजगारी का एक बड़ा कारण हो सकता है और यह ‘व्यक्तिगत’ भावनाओं को भी बाधित करता है। अम्बेडकर के लिए, देशभक्ति सही दिशा में कदम उठाने और सभी गलत के खिलाफ प्रतिक्रिया की मांग करती है; साथ ही, एक राष्ट्रवादी नेता को साम्राज्यवाद, सामाजिक अत्याचार, जातिवाद और जबरन श्रम को खत्म करने के लिए खुद पर गहरा विश्वास होना चाहिए।[xii] स्वतंत्रता आंदोलन के समय, जमींदार उच्च जाति के थे। कांग्रेस ने सीधे तौर पर जमींदारों के खिलाफ कोई आंदोलन नहीं चलाया जिससे जमींदारी शोषण के साधनों पर रोक लगाई जा सके। इससे स्पष्ट होता है कि कांग्रेस एक समय तक उच्च जाति के लोगों के साथ गठबंधन में थी और गरीब लोगों की अनदेखी कर रही थी जो मुख्यत: निचली जाति (दलित) से संबंधित होते थे। गौरतलब है कि अम्बेडकर इन सभी बिंदुओं को केंद्रीय चिंता में लाने के लिए और इस परिदृश्य में क्रांतिकारी रूप से सामाजिक ‘भाईचारे’ को फिर से हासिल करने के लिए जाति व्यवस्था के खिलाफ समानता के लिए लड़ रहे थे। कई विद्वान यह आरोप लगाते हैं कि अम्बेडकर ब्रिटिश शासन के हाथों की कठपुतली बने हुए थे। गोलमेज सम्मेलन में दलितों के प्रतिनिधि के रूप शामिल हुए अम्बेडकर ने अपनी बात रखी। उन्होंने अंग्रेजों द्वारा आयोजित प्रथम गोलमेज सम्मेलन में अपने लक्ष्य निर्धारित किए, अस्पृश्यता को समाप्त न कर पाने के लिए ब्रिटिश सरकार की आलोचना करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। [xiii] यह दिखाता है वे ‘मूक’ समाज की आवाज बनकर उभरे थे, उसको वे बखूबी से हर मोर्चे पर निभा रहे थे। ऐतिहासिक रूप से, वास्तविक अर्थों में, अम्बेडकर का यह कदम भारत को एक एकीकृत आधुनिक राष्ट्र के रूप में स्थापित करने की भावना को बढ़ा रहा था।
कई विद्वान डॉक्टर अम्बेडकर पर धर्म-विरोधी होने का आरोप लगाते है। हिंदू धर्म में, लंबे समय से निम्न जाति के लोगों का उच्च जाति के लोगों द्वारा अमानवीय हरकतों के साथ शोषण किया जा रहा था। वे कहते हैं, “जाति के विनाश का मतलब भौतिक बाधा का विनाश नहीं है। इसका मतलब राष्ट्रीय परिवर्तन है। हिंदू धर्म में लोग जाति का पालन करते हैं क्योंकि वे बहुत धार्मिक हैं, लेकिन उनके धर्म में वे शास्त्र गलत हैं जो उन्हें जाति का धर्म सिखाते हैं। इसलिए वास्तविक उपाय शास्त्रों की पवित्रता में विश्वास को नष्ट करना है।“[xiv] उन्होंने धर्म के नाम पर होने वाले वर्चस्व और उत्पीड़न का विरोध किया। 1932 में पूना पैक्ट न करते हुए सांप्रदायिक अवार्ड को स्वीकार करके आगे बढ़ सकते थे। लेकिन अम्बेडकर को भी समाज का इस प्रकार बंटना बर्दाश्त नहीं था और उन्होंने दलितों के हितों की रक्षा करते हुए हिन्दू एकता को बनाए रखा।[xv]
राष्ट्र सामाजिक श्रेणी के कुछ सिद्धांत के साथ एक आदर्श निर्माण हैं। यह वैचारिक त्याग और पुनः समाजीकरण एक स्वतंत्र राजनीतिक संरचना का गठन करने की पूर्व शर्त है। अम्बेडकर और गांधी दोनों ही अस्पृश्यता के मुद्दे पर अलग-अलग हैं। गांधी के लिए, अस्पृश्यता विशुद्ध रूप से एक धार्मिक प्रश्न था, जो हिंदू धर्म के लिए आंतरिक था। उन्होंने ‘हरिजन’ में लिखा- “अस्पृश्यता को दूर करने का आंदोलन शुद्धि में से एक है- आत्म-शुद्धि।“[xvi] अम्बेडकर ने इस समस्या को सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक सत्ता के ढांचे में दलितों के लिए स्वतंत्र राजनीतिक पहचान बनाने के संदर्भ में परिभाषित किया। डॉ. अम्बेडकर आरंभ में मंदिर आंदोलन के पक्षधर थे परंतु कालांतर में उनके विचार बदल गए। अम्बेडकर के अनुसार, मंदिर प्रवेश आंदोलन में शामिल होने का गांधीजी का उद्देश्य अछूतों और हिंदुओं के बीच की दीवार को नष्ट करके अछूतों के राजनीतिक अधिकारों के दावे के आधार को नष्ट करना था, जो उन्हें हिंदुओं से अलग करता था।[xvii] अम्बेडकर के अनुसार, अछूतपन धार्मिक व्यवस्था से अधिक एक आर्थिक मामला था जो एक स्वामी वर्ग और सेवा वर्ग का निर्माण करता है। बहुसंख्यक समूह द्वारा सत्ता और प्रतिष्ठा का एकाधिकार ‘धर्म’ में निहित है जो राष्ट्रीय एकता की मजबूत भावना के विकास में बाधा बनेगा। हालाँकि, अनुसूचित जातियाँ रूढ़िवादी हिंदुओं की जाति व्यवस्था के अंतर्गत आती थीं। यही कारण है कि राष्ट्रीय आंदोलन में उनका कोई प्रतिनिधित्व नहीं है और न ही उन्हें कोई अधिकार है। गांधी ने नस्लवाद के खिलाफ बड़ी मजबूती से लड़ाई लड़ी, लेकिन उन्होंने इस मामले के खिलाफ समान रूप से कार्रवाई नहीं की। अम्बेडकर के राजनीतिक रुख ने राष्ट्रवादी आधिपत्य के लिए एक वास्तविक खतरा पैदा कर दिया, जिसके बाद गांधी अछूतों के मुद्दे को अपने तरीके से उठाने के लिए आगे बढ़े।[xviii] अम्बेडकर को गांधी ने सराहा ही नहीं बल्कि उनका सम्मान किया और यह भी सच है कि अम्बेडकर ने ‘जल सत्याग्रह’(महाड़ ) के लिए गांधीवादी मॉडल को अपनाया। यह नकारा नहीं जा सकता कि गांधी कांग्रेस में पहले नेता थे जिन्होंने इस मुद्दे को पहचाना, भले ही उन्होंने इससे अलग तरीके से निपटा हो। ताज्जुब की बात है “देश की स्वतंत्रता जैसे बड़े राजनीतिक लक्ष्य के सामने गांधी जी के अछूतोद्धार जैसे सामाजिक लक्ष्य के महत्व को तत्कालीन नेतृत्व नहीं समझ रहा था।“[xix]
जो लोग अम्बेडकर को कांग्रेस के नेतृत्व वाले स्वतंत्रता आंदोलन के कट्टर विरोध के लिए दोषी ठहराते हैं, वे भारतीय राष्ट्रवाद के सामाजिक विकास को समझने में विफल हैं। राष्ट्रवाद के सामाजिक विकासों ने सभी देशवासियों को ‘समान’ स्वतंत्रता दिलाई। डॉ अम्बेडकर की इसमें अहम भूमिका मानी जानी चाहिए। अम्बेडकर एक ऐसी प्रतिभा हैं जिनकी करुणामयी संलग्नता और गहन कल्पना ने गैर-भेदभाव और प्रेम पर आधारित एक आदर्श समाज की स्थापना की कल्पना की थी। अम्बेडकर यह भी प्रमुख रूप से जानते थे कि ब्रिटिश साम्राज्य निम्न जातियों के शोषण, अस्पृश्यता और अन्य सामाजिक मुद्दों पर ध्यान नहीं देगा। इसलिए वे लोगों को केवल ‘अपने’ हितों पर ध्यान देने और उनसे लाभ उठाने पर भी बल दे रहे थे क्योंकि दो विरोधाभासी प्रक्रियाएँ काम कर रही थीं। पहला, आधुनिक संबंधों- रेलवे, संचार टेलीग्राफ और कुछ कारखानों की शुरूआत ने पुरानी संरचना को कमजोर करने की प्रवृत्ति को बढ़ाया, और इसके साथ ही जाति संबंधों को भी कम किया। दूसरे, सामंती व्यवस्था से राजनीतिक और आर्थिक समर्थन प्राप्त करने के लिए तथा पुराने भूमि संबंधों को बनाए रखने में औपनिवेशिक शक्तियों के महत्वपूर्ण हितों का मतलब जाति संस्था के ताने-बाने को समर्थन देना था। इस तरीके से अंग्रेज अपना हित देख रहे थे।
स्वतंत्रता संग्राम के समय अम्बेडकर स्वतंत्रता को निरपेक्ष मूल्यों के रूप में देखते थे और उन्होंने इसे स्वराज से अधिक लाभकारी माना। उनका कहना है कि स्वराज के तहत हिंदुओं की जाति व्यवस्था की रक्षा करना सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न है। मेरी राय में, जब हिंदू समाज एक जातिविहीन समाज बन जाता है, तभी वह खुद को परिभाषित करने के लिए पर्याप्त ताकत की उम्मीद कर सकता है। ऐसी आंतरिक शक्ति के बिना, हिंदुओं के लिए स्वराज गुलामी की ओर एक कदम मात्र साबित हो सकता है। अम्बेडकर का मानना था कि हिंदुओं की असामाजिक भावना और समतावाद विरोधी प्रकृति सांस्कृतिक रूप से विविध लोगों को एकता में नहीं बांध सकती जो राष्ट्रवाद की एक महत्वपूर्ण शर्त है। अत: इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि स्वतंत्रता आंदोलन में निचली जातियों के बीच दो धाराएं थी। “जाति को भारतीयों का आंतरिक मामला माना जाता था, जो अपने बीच सभी मतभेदों और असमानताओं के बावजूद, बुर्जुआ नेतृत्व के तहत देश की स्वतंत्रता के लिए सबसे पहले लड़ने की उम्मीद करते थे। और एक और धारा थी जो मानती थी कि जाति में असमानता के कारण भारत स्वतंत्रता के लिए अयोग्य है।”[xx]
अम्बेडकर दूसरी धारा का प्रतिनिधित्व करते थे। यहीं प्रसंगवश, एक तीसरी धारा भी थी जो राजनीतिक आंदोलन को महत्वपूर्ण हुए भी सामाजिक आंदोलन को इससे कमतर नहीं मानती थी। इस धारा में बुद्धजीवी लेखकों का महत्वपूर्ण स्थान था जो आजादी को लक्ष्य मानकर जाति-प्रथा और वर्ण व्यवस्था के अंतर्गत व्याप्त शोषण और छुआछूत को दूर करने पर जोर दिया। “हालांकि वर्ण व्यवस्था और जाति-प्रथा के सवाल पर इन लोगों के विचार शुरू से आखिरी तक एक नहीं रहे। इनके विचारों में सकारात्मक बदलाव हुए। इनके विचारों के विकास में तत्कालीन सामाजिक- राजनीतिक परिस्थितियों का भी प्रभाव रहा है। प्रेमचंद इन्हीं बुद्धिजीवी-लेखकों में से एक थे।“[xxi]
प्रेमचंद द्वारा इन मुद्दों को अपने लेखन में गहनता से उठाया गया है। इसी कारण डॉक्टर अंबेडकर की तरह प्रेमचंद को भी अपने दौर में तीखी आलोचना झेलनी पड़ी।
निष्कर्ष
: अंततः, सामाजिक स्थिति, धर्म और संपत्ति सभी शक्ति और अधिकार के स्रोत हैं जिनके द्वारा एक व्यक्ति को दूसरे की स्वतंत्रता को नियंत्रित करना होता है। यह भारत का आंतरिक मुद्दा था जिसमें वे अपने लोकतांत्रिक तरीके से सुधार करना चाहते थे। डॉक्टर अम्बेडकर ने अपने सामुदायिक सुधार की मांग को क्रांतिकारी तरीके से अमल में लाने के लिए अपना धर्म भले ही बदल लिया हो, लेकिन उन्होंने कभी देश से अलग होने की मांग नहीं की। वे वंचित वर्ग के नागरिक अधिकारों की रक्षा करना चाहते थे क्योंकि हिंदू समाज के अधिकतर नेता इसकी उपेक्षा कर रहे थे। स्वतंत्रता के बाद, किसी को भी यह अंदाजा नहीं था कि दलितों को नागरिक अधिकार और समानता मिलेगी। जिस अधिकार के लिए ज्योतिबा फुले ने शुरुआत की थी उसे अम्बेडकर ने मुख्य बिंदु तक पहुँचाया। कोई भी राष्ट्र और राष्ट्रवाद किसी एक समूह को सामाजिक और राजनीतिक गतिविधि की मुख्यधारा में आने से वंचित नहीं कर सकता है। समाज में समानता और बंधुत्व एक लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था के लिए आवश्यक है। उनका मानना था कि राजनीतिक सुधार सामाजिक सुधार के बिना आकार नहीं ले सकता। दलित लोग सामाजिक सुधार के बिना राजनीतिक सुधार से वंचित रहेंगे। उन्होंने भारत के साथ-साथ बाहर से भी कई उदाहरण दिए जैसे शिवाजी के नेतृत्व में राजनीतिक क्रांति से पहले महाराष्ट्र के संतों द्वारा लाए गए धार्मिक और सामाजिक सुधार हुए थे। यह एक महत्वपूर्ण बिंदु है जो बाबासाहेब को कांग्रेस से अलग करता है। कांग्रेस मुख्यतः राजनीतिक सुधार की वकालत कर रही थी जबकि डॉ अम्बेडकर प्रथमतः सामाजिक सुधार को रख रहे थे। सही मायनों में अम्बेडकर ने 18वीं सदी के यूरोप खासकर फ्रांस के विचारों से प्रेरणा ली और इन सामाजिक समस्याओं को दूर करने की दिशा में जुटे रहे। इस प्रकार से अम्बेडकर ने अपने सामाजिक-आर्थिक सुधार के फार्मूले के साथ ‘दलितों’ के लिए मुख्यधारा की राजनीति में जगह बनाने में मदद की। डॉक्टर अम्बेडकर के राष्ट्रवाद का यह महत्वपूर्ण आयाम है।
[i]आशीष नंदी, “नेशनलिज्म, जेनुइनएंड स्प्रियस: ए वेरी लेट ऑबिट्री ऑफ टू अर्ली पोस्ट नेशनलिस्ट स्ट्रेंस इन इंडिया,” ओकेशन: इंटरडिस्पलीनरी स्टडीज इन द ह्यूमेंटीज, वॉल्यूम 3(2012): पृष्ठ 6 ।
[ii]रजत चौधरी, माई सोशल फिलॉसफी: राष्ट्रवाद पर डॉ. भीमराव आंबेडकर के क्या विचार थे?
https://www.themooknayak.com/bahujan-nayak/my-social-philosophy-what-were-dr-bhimrao-ambedkars-views-on-nationalism#google_vignette ( 12/05/2024 को 2.25 अपराह्न को देखा गया) ।
[iii]एस.एम. गायकवाड़, “आंबेडकर एंड इंडियन नेशनलिज्म”, इकोनॉमिक एंड पॉलिटिकल वीकली, वॉल्यूम 33, नंबर 10( 1998): पृ. 516 ।
[iv]गणेश मंत्री, गांधी और आंबेडकर, (नईदिल्ली: प्रभात प्रकाशन, 2018): पृ. 120 ।
[v]क्रिस्टोफ जफरलोट, आंबेडकर अगेंस्ट नेशनलिज्म
https://carnegieendowment.org/posts/2016/04/ambedkar-against-nationalism?lang=en ( 13/042024 को 9.30 अपराह्न पर देखा गया) ।
[vi]कुणाल देवनाथ, “आंबेडकर’स आइडियाज ऑफ नेशन बिल्डिंग”, स्टडीज इन पीपल हिस्ट्री, (2018): पृ. 108 ।
[vii]आर.सी. भट्ट, “ए स्टडी ऑफ डॉक्टर आंबेडकर’स आइडिया ऑफ नेशनलिज्म इन द कॉन्टेक्ट ऑफ इंडिया’स फ्रीडम स्ट्रगल मूवमेंट”, आईजेएलटीएमएस, वॉल्यूम 7 ( 2018): पृ. 19
[viii]बी.आर. आंबेडकर, एनिहिलेशन ऑफ कास्ट विथ ए रिप्लाई टू महात्मा गांधी, (अमृतसर: द आंबेडकर स्कूल ऑफ थॉट्स,1945), पृ. 11 ।
[ix]आर.सी. भट्ट, “ए स्टडी ऑफ डॉक्टर आंबेडकर’स आइडिया ऑफ नेशनलिज्म इन द कॉन्टेक्ट ऑफ इंडिया’स फ्रीडम स्ट्रगल मूवमेंट”, आईजेएलटीएमएस, वॉल्यूम 7(2018): पृ. 19 ।
[x]बी.आर. आंबेडकर, एनिहिलेशन ऑफ कास्ट विथ एरिप्लाई टू महात्मा गांधी, (अमृतसर: द आंबेडकर स्कूल ऑफ थॉट्स,1945), पृ. 36 ।
[xi]आनंद प्रकाश, राष्ट्रवाद और आंबेडकर: ‘कोई भी राष्ट्र तब तक मजबूत नहीं हो सकता जब तक कि वह सामाजिक रूप से एक ना हो’
https://hindi.theprint.in/opinion/br-ambedkar-ambedkar-jayanti-2022-nationalism-and-ambedkar/307787/?amp (14/05/2024को 3.28 अपराह्न को देखा गया) ।
[xii] आर.सी. भट्ट, “ए स्टडी ऑफ डॉक्टर आंबेडकर’स आइडिया ऑफ नेशनलिज्म इन द कॉन्टेक्ट ऑफ इंडिया’स फ्रीडम स्ट्रगल मूवमेंट”, आईजेएलटीएमएस, वॉल्यूम 7(2018): पृ. 19 ।
[xiii] अपर्णा जोशी, डॉक्टर बी आर आंबेडकर नेशन एंड नेशनलिज्म
https://www.researchgate.net/publication/344123092_Nation_Nationalism ।
[xiv]बी.आर. आंबेडकर, एनिहिलेशन ऑफ कास्ट विथ एरिप्लाई टू महात्मा गांधी, (अमृतसर: द आंबेडकर स्कूल ऑफ थॉट्स,1945), पृ. 58 ।
[xv]डॉ. शिवबालक मिश्र, अम्बेडकर के विचारों का भारत, एक राष्ट्रवादी देश होता
https://www.gaonconnection.com/ambeddkr-ke-vicaaron-kaa-bhaart-ek-raassttrvaadii-desh-hotaa- ( 08/05/2024 को 4.28 अपराह्न पर देखा गया) ।
[xvi]डी.आर. नागराज, द फ्लेमिंग फीट: ए स्टडी ऑफ दलित मूवमेंट इन इंडिया, (बंगलौर: साउथ फोरम प्रेस इन एसोसिएशन विथ आईसीआरए,1993), पृ. 10 ।
[xvii]आर.सी. भट्ट, “ए स्टडी ऑफ डॉक्टर आंबेडकर’स आइडिया ऑफ नेशनलिज्म इन द कॉन्टेक्ट ऑफ इंडिया’स फ्रीडम स्ट्रगल मूवमेंट”, आईजेएलटीएमएस, (2018): पृ. 20 ।
[xviii]एस.एम. गायकबाड़, “आंबेडकर एंड इंडियन नेशनलिज्म” इकोनॉमिक पॉलिटिकल वीकली, वॉल्यूम 33, नंबर 10(1998): पृ. 516 ।
[xix]राजीव रंजन गिरि, अथ साहित्य: पाठ और प्रसंग, (दिल्ली: अनुज्ञा बुक्स,2014), पृ. 101 ।
[xx] बी. टी. रणवदे, “कास्ट क्लास एंड प्रॉपर्टी रिलेशन”, इकोनॉमिक्स एंड पॉलिटिकल वीकली, वॉल्यूम 14, नंबर 7/8 (1979): पृ. 337 ।
[xxi]राजीव रंजन गिरि, अथ साहित्य: पाठ और प्रसंग, (दिल्ली: अनुज्ञा बुक्स,2014), पृ. 98 ।
दिल्ली विश्वविद्यालय से इतिहास विषय में स्नातक और परास्नातक
संप्रति- शोध एवं लेखन
इतिहास विभाग, सामाजिक विज्ञान संकाय, दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली-110007
बहुत ही शानदार तरीके से बाबासाहेब का सामाजिक सुधार को लेकर दृष्टिकोण और अन्य राजनेताओ के सन्दर्भ में उनके विचारों को दर्शाया गया है | बाबासाहेब के सम्पूर्ण सामाजिक कार्यों को मानो चंद शब्दों में प्रत्येक बिंदु पर प्रकाश डालते हुए अत्यंत सराहनीय लेख लिखा गया है |
जवाब देंहटाएंडां अम्बेडकर पर बढिया शोध पत्र है। वैभव जी ने अम्बेडकर जी के विचार के हर पहलू को उजागर किया है। गांधी, अम्बेडकर और कांग्रेस के सभी दृष्टिकोण को साझा किया है। जातिव्यवस्था हमारे देश की सच्चाई है इससे कोई इनकार नहीं कर सकता, फिर भी जाति व्यवस्था में जो कमियाँ थी या अभी भी है अम्बेडकर जी उसके खिलाफ लडे और निम्न जाति या कहे तो अछूत उन्हें जागरूक करने का काम किया। वे ये भी जानते थे कि अग्रेज, गांधी और कांग्रेस के सहारे दबे- कुचली जातियों का उद्धार नहीं हो सकता। वे गांधीजी की मुखर आलोचना कर चुके थे और कहा था गांधीजी क्षणिक भूत की भातिं धूल उठाते हैं स्तर नहीं। अम्बेडकर जी जिस समानता, बन्धुत्व और स्वतंत्रता की बात करते थे वही तो रामराज्य है। अम्बेडकर जी यह भी जानते थे अपने रहते दलितों, शोषितों के लिए संविधान में अधिकार दिला दे नहीं तो कांग्रेस में शहरी उच्च जातियों के दबदबे के कारण कही काग्रेस अपने कर्तव्य से विमुख न हो जाए। अम्बेडकर जी महिलाओं की स्वतंत्रता पर भी सबका ध्यान आकृष्ट किया और कहा मैं किसी देश की प्रगति वहाँ की महिलाओं की प्रगति से आंकता हूँ। अंत में यही कहूंगा किसी भी महापुरुष को लेकर मन में उनके प्रति शंका उत्पन्न हो तो उनकी लिखी किताब को पढे तब सब दूध का दूध और पानी का पानी अलग हो जाएगा। हमें कुछ शक्तियां भ्रमित रखे रहती है क्योंकि उन्हें वहाँ से ताकत मिलती है अपने लिए या अपनी जाति के लिए। इसलिए हमें हमेशा तर्क और मानवधर्म पर चलना चाहिए और उसी पर विश्वास करना चाहिए, इसी में सबका कल्याण भी निहित है।
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