शोध
सार
: इस
शोधपत्र में
कथा-आलोचना
की सामाजिकता और उसमें निहित यथार्थ किस तरीक़े से परिवर्तित
हो रहा है, इस
पर बात की
जाएगी। आरंभ में आलोचना काव्य तक ही सीमित थी धीरे-धीरे इसके क्षेत्र में विस्तार हुआ और इसने कथा साहित्य में प्रवेश किया। मूलतः
कथा साहित्य
का आरंभ
पश्चिम में
17 वीं 18 वीं
शताब्दी में
हुआ। मगर हिंदी
साहित्य जगत
में आलोचना
उन्नीसवीं सदी के
नवजागरण अर्थात् आधुनिक युग से प्रारंभ हुई। कथा आलोचना
की शुरुआत
पाश्चात्य आलोचक फ्लाबेर और हेनरी
जेम्स से मानी जाती है। यथार्थवाद के
उदय के फलस्वरूप
पश्चिम में
उपन्यासों का
उदय हुआ।
जहाँ एक तरफ़ मध्यकालीन, रीतिकालीन
रम्याख्यानों में दरबारी
प्रेम, सामंती प्रेम
का बोलबाला
था, वहीं
यथार्थवाद के
आने पर साहित्य में आम जनजीवन
रचनाओं का
आधार बना यह औद्योगिकीकरण और मध्यवर्ग के संघर्षों का ही परिणाम है।
बीज
शब्द : आलोचना, पाश्चात्य, रम्याख्यानों, दरबारी
प्रेम, सामंती
प्रेम, यथार्थवाद, पूँजीवाद, बाजारवाद, उपभोक्तावादी
संस्कृति, भूमंडलीकरण, समाज, पर्यावरण, मध्यकाल, रीतिकाल, आपातकाल, अस्मितामूलक, उपनिवेशवाद, औपनिवेशिकता, सूचना प्रौद्योगिकी, संचार क्रांति।
मूल
आलेख : हिंदी
साहित्य में
आलोचना पाश्चात्य
आलोचकों की
देन है। आलोचना
का कार्य
रचना की व्याख्या, विश्लेषण, मूल्यांकन
करना है। एक
अच्छी आलोचना
रचना की सार्थकता
की खोज करती है। साहित्य समाज
को आर्थिक, राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक सभी
तरीक़े से
प्रभावित करता
है। मैनेजर
पांडेय ने
लिखा है- “आलोचनात्मक
चेतना के
निर्माण और
विकास के
लिए यह जरूरी
है कि आलोचक
अपने समाज
की स्थितियों
और उन स्थितियों
में जीते-मरते मनुष्य
की दशाओं
के बारे
में सजग और
सचेत हो, वह अपने
समय और समाज
की सामाजिक-राजनीतिक वास्तविकताओं
की जटिल
समग्रताओं का
बोध अर्जित
करे। तभी
ऐसी आलोचनात्मक
चेतना विकसित
होती है जो
रचना और समाज
की संबंध
भावना के विभिन्न पक्षों
की सही पहचान
और व्याख्या
कर सकती
है।’’1 रचना और समाज का सीधा संबंध होता है। जीवन के वास्तविक यथार्थ का चित्रण रचना द्वारा किया जाता है। आयन वॉट के अनुसार- “उपन्यास में चित्रित यथार्थवाद इस बात इस बात में निहित नहीं है कि इसमें किस प्रकार के जीवन का निरूपण किया गया है बल्कि इस बात में निहित है कि उसे किस ढंग से रुपायित किया गया है।”2
उन्नीसवीं शताब्दी कथा विधा का स्वर्णिम युग है। इस काल में गद्य का प्रादुर्भाव हुआ। इस युग के प्रमुख उपन्यासकारों ने अपनी रचना में समाज की वास्तविकता का चित्रण किया। कथा साहित्य के साथ-साथ उसकी आलोचना भी विकसित हुई। आलोचक अपने-अपने नज़रिए से रचनाओं को कटघरे में रखने लगे। जैसे- मार्क्सवादी पद्धति, मनोविश्लेषणात्मक पद्धति, ऐतिहासिक आलोचना पद्धति, सौंदर्यवादी आलोचना पद्धति आदि। गुस्ताव फ्लाबेयर, हेनरी जेम्स, थॉमस हार्डी, डी. एच. लॉरेंस, एम. फॉस्टर जैसे प्रमुख उपन्यासकारों ने कथा आलोचना को समृद्ध किया। हेनरी जेम्स ने उपन्यास के सिद्धांतों पर बात करते हुए उसे मनुष्य और समाज के व्यापक प्रश्नों को एक साथ जोड़कर देखा। उन्होंने उपन्यास को कलात्मक स्वतंत्रता, लचीलापन, यथार्थवादी तथा मानव चेतना को जोड़ने वाला बतलाया। उपन्यास में प्रयोग के आधार पर ही उसका अस्तित्व एवं सामाजिक चेतना जीवित रहती है। ‘द फ्यूचर ऑफ नॉवेल’ में हेनरी जेम्स ने लिखा है- “उपन्यास सबसे अधिक व्यापक और सबसे अधिक लचीला है, उसकी गति सर्वत्र है, यह किसी भी चीज़ को निर्द्वंद्व भाव से अपनी गुंजलक में लपेट सकता है, इसमें ज़रूरत है केवल विषय और चितेरे की। किंतु जहाँ तक विषय का सवाल है, यह बड़े गौरव के साथ कहा जा सकता है कि संपूर्ण मानव-चेतना इसकी परिधि के अंतर्गत आ जाती है।’’3 उपन्यास के साथ ही कहानियाँ भी लिखी जाने लगी थी। जिसमें हॉफ़मैन, इविंग एडगर एलन, तुर्गनेव, अंतोन चेखव आदि प्रमुख थे जिनपर आलोचकों का ध्यान जाने लगा था। सर्वप्रथम भारत में बंगला नॉवल में ‘उपन्यास’ शब्द का प्रयोग भूदेव मुखोपाध्याय ने किया। पश्चिम और बंगला से प्रभावित होकर कथा साहित्य हिंदी जगत में प्रवेश किया। जिसपर आरंभ में पाश्चात्य प्रभाव दिखाई भी देता है। लाला श्रीनिवासदास का परीक्षा गुरु एक अंग्रेज़ी ढंग का उपन्यास माना जाता है। बालकृष्ण भट्ट ने ‘उपन्यास’ नामक शीर्षक के अपने पहले लेख में लिखा है- “हम लोग जैसा और सब बातों में अंग्रेज़ों की नकल करते आए हैं वैसा ही उपन्यास का लिखना भी उन्हीं के दृष्टान्त पर सीख रहे हैं।’’4
आरंभ में औपनिवेशकता से ग्रस्त उपन्यास थे, जिसमें- तिलिस्म, ऐय्यारी, जासूसी, कौतूहल, जादू-टोने आदि। कथाकार प्रेमचंद से पूर्व हिंदी उपन्यास में यथार्थ का उस तरीक़े से प्रयोग नहीं हुआ था। अधिकतर उपन्यासकार ब्रिटिश साम्राज्य का गुणगान करते थे उन्हीं की नकल पर रचनाएँ भी करते थे। गाँधीवादी स्वाधीनता आंदोलन संग्राम का प्रभाव प्रेमचंद पर था। प्रेमचंद ने अपने समय-समाज की समस्याओं को अपनी रचनाओं के केंद्र में रखकर सामाजिक, राजनीतिक स्तर पर योगदान दिया। जिसकी वजह से देश में हो रहे अन्याय, शोषण, अत्याचार के विरुद्ध पाठक वर्ग तक अपनी बात को पहुँचा सके। गोपालराय के अनुसार- “प्रेमचंद के पूर्ववर्ती और समकालीन (1901-20)
उपन्यासकारों में देश की पराधीनता के यथार्थ का सही और तीखा बोध नहीं था। अधिकतर पूर्ववर्ती उपन्यासकार तो ब्रिटिश शासन का गुणगान ही कर रहे थे; और जिन्हें ब्रिटिश शासन की वास्तविकता का बोध हो चुका था, वे भी उनके आतंक और दमन से त्रस्त थे।”5 प्रेमचंद मुख्यतः यथार्थवादी उपन्यासकार थे। जिन्होंने एक बड़ा पाठक वर्ग तैयार किया और नया दृष्टिकोण विकसित किया तथा आगे के रचनाकारों ने भी उस पर विचार करते हुए अपनी-अपनी रचनाओं में उन सभी समस्याओं को उठाया जो मध्यवर्गीय जीवन के केंद्र में थे जिससे उपन्यास में आधारभूत परिवर्तन हुआ। मधुरेश के अनुसार- “वे उपन्यास को उसकी इकहरी बुनावट से निकालकर, उसकी बाह्य स्थूलता को काट-छाँटकर, एक संश्लिष्ट कला-रूप की प्रतिष्ठा दिला पाने में सफल होते हैं क्योंकि मानसिक तनावों और अंतर्द्वंद्व के कारण उनके पात्र सहज और स्वाभाविक ही नहीं लगते, हमारे बहुत निकट भी लगते हैं।”6 उनकी रचनाओं से मध्यवर्ग का जुड़ाव हुआ।
1960 का वह दौर जब भारत बाहरी युद्धों से प्रभावित था। कहीं चीन तो कहीं पाकिस्तान आदि से युद्ध हो रहे थे देश में आपातकाल लागू था। उस समय भीषण अकाल, महंगाई, भुखमरी, काला बाजारी, भ्रष्टाचार आदि वजहों से न सिर्फ राष्ट्रीय स्तर पर देश को नुकसान हुआ अपितु साहित्य जगत में भी ह्रास हुआ। विदेशों से कर्ज बढ़ते जा रहे थे। राजसत्ता और अर्थव्यवस्था पूरी तरीक़े से चरमरा गई थी। लोगों का सत्ता से मोह भंग हो रहा था। आज़ादी के तुरंत बाद ही युद्ध, आपातकाल, साम्प्रदायिकता, आतंकवाद जैसी परिस्थितियों ने लोगों को अंदर तक झकझोर दिया था। इधर विदेशी आंदोलनों की भी गूँज यहाँ तक सुनाई देने लगी थी। परिणामतः न सिर्फ राजनीति और साहित्य जगत में अपितु सामाजिक जीवन में भी नया दौर शुरू हुआ,
संबंधों में बदलाव आया। हिंदी कथा साहित्य की व्यवस्थित आलोचना नई कहानी आंदोलन से ही प्रारंभ हुई जिससे नई कहानी, साठोत्तरी कहानी, अ-कहानी, सहज कहानी, सचेतन कहानी, समानांतर कहानी, जनवादी कहानी आदि आंदोलनों का स्वर सुनाई देने लगा। इसने एक नई भाषा और बहस को जन्म दिया। फलस्वरूप कथाकारों की एक लंबी शृंखला चल पड़ी। उस समय नामवर सिंह, रामविलास शर्मा, देवीशंकर अवस्थी, विजयमोहन सिंह, मार्कण्डेय, सुरेन्द्र चौधरी, कमलेश्वर आदि प्रमुख आलोचक कथा आलोचना की नींव रख रहे थे। मधुरेश ‘हिंदी कहानी का विकास’ में लिखते हैं- “राजनीति के प्रति एक व्यापक मोहभंग और इसी के परिणाम स्वरूप व्यंग्य और विद्रूप की बढ़ती संभावनाएँ नई कहानी के दौर से ही शुरू हो चुकी थी। अ-कहानी तक आते-आते राजनीति के प्रति मोह भंग और हताशा का यह भाव और भी सघन होता दिखाई देता है। राजनीति और नेताओं को लेकर उसकी आक्रामकता भी उसी अनुपात में बढ़ती है- लेकिन कुल मिलाकर अ़-कहानी का मूल स्वर राजनीति के प्रति उदासीनता और अस्वीकार का है।’’7 अ-कहानीकार में गंगाप्रसाद विमल, रवींद्र कालिया, महेंद्र भल्ला आदि आते हैं। इन्होंने मध्यवर्गीय जीवन के गिरते मूल्यों, अवसाद, अंतर्विरोध, विसंगतियों, बदलती संवेदनाओं को आधार बनाया मगर सतही चीज़ों में उलझे होने की वजह से परिवेश और स्थितियों के प्रति उदासीन ही रहे। सुरेन्द्र चौधरी ने लिखा है- “कहानी ने इतना ज़रूर किया था कि पिछले दौर की औपचारिकताओं से कहानी को मुक्त कराया। ये औपचारिकताएँ कहानी के सभी स्तरों पर प्रकट होती थी। यथार्थ नंगा होकर भी अपने ऊपर से बहुत-सा भार उतार नहीं सका था। कहानी सब-कुछ उतारकर भी अपनी नग्नता नहीं उतार पाई। नंगा होना उसका सच तो न था। मानव नियति को सच के हवाले करके कोई बड़ी रचनात्मक प्रक्रिया जन्म लेती है, रचना का इतिहास इसे सिद्ध नहीं करता। इसके विपरीत, मानव का संकट जब-जब गहराया है, साहित्य ने उसकी चुनौतियाँ स्वीकार की हैं।’’8 प्रेम, आपसी संबंध, रिश्तों आदि से भिन्न मध्यवर्गीय जीवन, समाज को लेकर रचनाएँ होने लगीं। नई तरह की उम्मीद भी जगी, बावजूद इसके जल्दी ही इससे लेखक और पाठक ऊब सा गया, बहुत सारी विसंगतियों ने घेर लिया। देवीशंकर अवस्थी ने लिखा है- “स्पष्ट है कि प्रेम, परिवार, पति-पत्नी संबंध, पड़ोसी, व्यवहार आदि के पुराने स्थापित आदर्शों से यह स्थिति भिन्न है। स्वतंत्रता के बाद नवलेखन में ‘कल उगने’ का जो आशावादी रोमैंटिक झोंका आया था, वह 60 तक पहुँचते-पहुँचते निराशा, अनास्था, ऊब, बुराई, अनैतिकता आदि के सिग्निफिकेंस को स्पष्ट करता है।”9 यह वह दौर था जिसमें नई किरण दिखती थी लेकिन कथाकार जल्दी ही उससे बोझिल हो जाता है।
1967 में नक्सलबाड़ी आंदोलन प्रारंभ हो गया, जिसके फलस्वरूप भारतीय समाज में नई पृष्ठभूमि की गूँज युवाओं के भीतर सुनाई देने लगी। अ-कहानी का प्रभाव घटा। कहानियों का रूप भी परिवर्तित होने लगा। नक्सलबाड़ी आंदोलन एवं जनवादी कहानी का दौर आरंभ हुआ, आयरनी को भी स्थान दिया जाने लगा, जिसमें ज्ञानरंजन, काशीनाथ सिंह, शेखर जोशी आदि प्रमुख कथाकार थे। जनवादी कहानी न सिर्फ यथार्थ का चित्रण करती है बल्कि उसके खिलाफ़ उनमें आक्रोश और विद्रोह का स्वर की भी अभिव्यक्ति दिखाई पड़ती है। डॉ. नामवर सिंह ने लिखा है- “सन् 1967 के आसपास संविद सरकारें बनी, टूटी, जनता का मोहभंग हुआ और नया परिवर्तन आया। उसके बाद जो नक्सलबाड़ी आंदोलन आरंभ हुआ, जिसने महानगरों के नितांत वैयक्तिक संत्रास पर लिखे जाने वाले साहित्य का खोखलापन उजागर किया, लोगों की दृष्टि गाँवों की ओर गई, कहना चाहिए कि वर्ग चेतना प्रखर हुई, ज़रूरी नहीं कि ये लोग नक्सलवादी विचारधारा से सहानुभूति रखते हो, लेकिन उनके लिए एक ‘कैटेलिटिक एजेंट’ के रूप में काम किया और फिर अंदर-अंदर चलने वाला जो मोहभंग था, वह धीरे-धीरे अपने से बाहर निकल करके इस दुनिया को देखने समझने की ओर बढ़ा। उस दौर की उन परिस्थितियों में दबाव और उस परिवर्तन के कारण, के तहत ज्ञान(ज्ञानरंजन) और काशी(काशीनाथ सिंह) में यह परिवर्तन आया।”10
हिंदी साहित्य में इन कहानी आंदोलनों की वजह से सक्रियता और ऊर्जा दिखी लेकिन आलोचकों ने इसकी कड़ी निंदा की। इस पर आरोप भी लगे कि कहानी अपने मूल मुद्दों से भटक गई है। इन कहानी आंदोलनों की वजह से ही कहानी में हो रहे सामाजिक, सांस्कृतिक परिवर्तनों के यथार्थ की वास्तविक जीवन में एक छोर से दूसरे छोर की यात्रा कर रहे थे। परिवार में हो रहे संबंध-विच्छेद, घुटन, हताशा, रिश्तों में उत्पन्न तनाव की स्थितियों को भी कथाकारों ने अपनी लेखनी के केंद्र में रखा। विजयमोहन सिंह ने लिखा है- “परंतु यह सच है कि यह कहानी अपने पूर्व की कहानी से कहीं अधिक सामाजिक है। उसमें संबंध अचानक ही महत्त्वपूर्ण नहीं हुए हैं… मानवीय स्थिति से मानवीय संबंध की ओर विकास सामाजिक चेतना का विस्तार है: अधिक रागात्मक और अधिक प्रामाणिक। नया कथाकार तथाकथित मनोवैज्ञानिकता पर आधारित मानव स्वभाव का विश्लेषण नहीं करता। वह मनोवैज्ञानिक तथ्यों पर आधारित विश्लेषण के खोजे नहीं अलगाता। वह एक ऐसे बिंदु पर पहुँच गया है जहाँ बाह्य परिवेश अपनी दूरी का परित्याग कर वैयक्तिक संबंधों के विश्लेषण में घुल गया है। आज की कहानी का संबंधों पर अधिक बल देना इसी विकास यात्रा का एक परिचायक है।”11
1980 में हिंदी कहानियों को समकालीन कहानी का दर्जा प्राप्त होता है, जिसमें लेखक अपनी भाषा के प्रति सजग है। अपनी बात को कहने के लिए उसे किसी माध्यम की ज़रूरत नहीं पड़ती है। समकालीन कहानीकार ने जीवन मूल्यों और उसमें निहित अंतर्विरोधों को कथात्मक बनाया। उन बेबाक सवालों को सामने लाया जो राष्ट्र और समाज के हित में थे। आठवें दशक की कहानी ने जन समान्य उसके दुःख-दर्द, आशा-हताशा, विश्वास और संघर्षों से जोड़ा। कहानी जो ‘नई कहानी’ और ‘अकहानी’ जैसे आंदोलनों के कारण यथार्थवादी परंपरा से अलग हो गई थी, पुनः प्रेमचंद की समृद्ध परंपरा से जुड़ गई। परन्तु इन कहानियों कलात्मक संयम का अभाव हमें दिखाई पड़ता है। चंचल चौहान के अनुसार- “आठवें दशक की हिंदी कहानी का सार तत्व है शोषण से मुक्ति की वह तड़प जो धीरे-धीरे तमाम मेहनतकश अवाम की चेतना का हिस्सा बनती जा रही है। इसी अर्थ में वह उस समूची मुक्तिकामी परंपरा से जुड़ती है जिनकी जड़ें स्वाधीनता आंदोलन के वक़्त प्रेमचंद ने मजबूत की थी।”12 समकालीन कहानीकारों ने परिवेश में उपजी साम्प्रदायिकता, आतंकवाद, नारी, दलितों के शोषण संबंधी समस्या को पहचाना उसे अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया। आम आदमी को रचनाओं में जोड़ा। वर्तमान समय की कहानियों में आर्थिक, सामाजिक विसंगतियों में आज का मानव दिखाई देता है। बदली हुई मान्यताओं के साथ आज कहानियों में शहरी सभ्यता, महानगरीय जीवन में होने वाली विसंगतियाँ, शोषण, मज़दूरों की समस्या, तनावग्रस्त जीवन, बेरोज़गारी, असमानता, पीढ़ियों का टकराव आदि को अपनी कहानी के माध्यम से उजागर किया है। आपातकाल सन्नाटे के बाद नवें दशक में नए ढर्रे के उदय के साथ पुरानी प्रतिष्ठित चलन को एक नई ऊर्जा के साथ रचनात्मक सक्रियता मिली। प्रेमचंद परंपरा की अगली कड़ी में इस दशक की कहानियाँ सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक परिवेश को प्रस्तुत करने के साथ ही गाँव में रहने वाले आम आदमी के जीवन, युवाओं के अंतर्मन तथा ग्रामीण आंचलिक यथार्थ को आगे बढ़ाया है। जिसमें कथाकार उदय प्रकाश, शिवमूर्ति, संजीव, विवेकी राय आदि प्रमुख हैं। युवा मन पर बात करते हुए डॉ. शिवदास पांडे लिखते हैं- “समकालीन युवा मानसिकता वस्तुतः समाज के शीर्ष पर स्थापित तथा भ्रष्टाचार से लिप्त शोषण पर आधारित व्यवस्था के प्रति विरोध का तेवर छोड़ चुकी है तथा इस बात के लिए प्रयत्नशील है कि चाहे जैसे भी हो वह सुख के उन साधनों का प्रयोग कर सके, जो सत्ता के शीर्षस्थ लोगों को प्राप्त है अथवा पूँजीवादी व्यवस्था पर आधारित समाज के अग्रणी लोगों को प्राप्त है।”13
बीसवीं सदी के अंत में सोवियत संघ के विघटन के फलस्वरूप न सिर्फ़ अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बदलाव हुए अपितु राष्ट्रीय स्तर पर भी व्यापक परिवर्तन हुए। बाबरी मस्जिद के विध्वंस से साम्प्रदायिकता तथा समाजवाद का सपना टूटने लगा। बाज़ारवाद, उदारीकरण, भूमंडलीकरण, आधुनिकता, निजीकरण ने अपनी पकड़ मजबूत बना ली। उपभोक्तावादी संस्कृति, पूँजीवाद और बाज़ारवाद ने पूरी तरह आर्थिक और सामाजिक व्यवस्था को उलट-पुलट दिया। मनुष्य बाज़ार की गिरफ़्त में आ गया। रचनाओं से गाँवों का पलायन होने लगा। शहरी मध्यवर्ग पर रचनाएँ होने लगी। रामदरश मिश्र ने लिखा है- “हमारी सभ्यता ने हमारे ऊपर इतने कृत्रिम आवरण डाल रखे हैं कि हम मनुष्य की तरह ज़िंदगी न जी कर यंत्र की तरह जीते हैं। हमारे पाप-पुण्य दोनों बहुत बनावटी हो गए हैं। किसी चीज़ को सही समझकर भी हम उसे सही नहीं कह पाते। धीरे-धीरे बनावटी जीवन मूल्यों और पद्धतियों को हम ओढ़ बैठे हैं। आज का कहानीकार कभी-कभी सहज संवेदना, सहज मस्ती की ओर ले जाकर कृत्रिम जीवन मूल्यों से मुक्ति का एहसास कराता है तो कभी इन सहज संवेदनाओं और मस्ती के ऊपर पर्त की पर्त बिछी हुई विवशताओं और चेतनाओं का विश्लेषण कर मूल संवेदना की झलक दिखाता है, कभी यंत्र-युग की संक्रांत सभ्यता का उद्घाटन करता है। कुल मिलाकर आज की कहानी आज के जीवन की बड़ी तीखी यथार्थ-चेतना की अभिव्यक्ति है। हर कहानीकार अपने-अपने अनुभव के अनुसार शहर, कस्बे, गाँव पिछड़े हुए वन्य या पहाड़ी अंचल के जीवन जुड़े सत्यों को और टूटते-बनते जीवन-मूल्यों को रुपायित कर रहा है।”14 कथा आलोचक के रूप में गोपाल राय, मधुरेश, श्याम कश्यप आदि प्रमुख थे। जिन्होंने बीसवीं सदी में हो रहे परिवर्तनों को अपनी रचनाओं का आधार बनाया।
उपनिवेशवाद के अंत में तथा उत्तर आधुनिक काल के आरंभ में हिंदी साहित्य में विमर्शों ने जगह ले ली। स्त्री विमर्श, दलित विमर्श, पर्यावरण विमर्श, वृद्ध विमर्श आदि केंद्र में रहा। इन विमर्शों के फलस्वरूप ही जिन अधिकारों से ये वंचित थे, उन अधिकारों के प्रति सजगता और चेतना विकसित हुई, उनके द्वारा किए गए संघर्षों को व्यापक फलक पर पहचान भी मिली। आलोचकों ने इन मुद्दों को उठाया। समाज में उन्हें दर्जा दिलाने के लिए प्रयासरत भी रहे। अनामिका ने लिखा है-
“ये ही तो मंशा है अस्मिता विमर्श की कि जो कभी नहीं बोले, वे बोलें, अपना दुःख-दर्द कहें ताकि उन अंधों की आँख और बहरों के कान जिनके बारे में बाइबिल में बहुत पहले लिखा गया है-
Seeing that don’t see, hearing they don’t hear.”15 डॉ. धर्मवीर, तुलसीराम आदि आलोचकों ने दलित विमर्श के सैद्धांतिकी और विकास पर कार्य किए। स्त्री कथाकारों ने स्त्री निर्मिति की वास्तविक छवि गढ़ी, जिसमें मन्नू भंडारी, प्रभा खेतान, रमणिका गुप्ता, कृष्णा सोबती, मैत्रेयी पुष्पा, सुजाता, कात्यायिनी आदि प्रमुख हैं। स्त्री को व्यक्तिगत और सामाजिक जीवन में पहचान मिली। “आलोचना का यह नया विमर्शवाद, नए मनुष्य को परिभाषित करने की कोशिश कर रहा है। यहाँ हताशा निराशा की कोई जगह नहीं है।”16 विमर्शों के दौर में उन सभी प्रश्नों को आवाज़ मिली जो कहीं दब से गए थे, जिनपर किसी का ध्यान नहीं जाता था।
निष्कर्ष : आलोचक अपने-अपने दृष्टिकोण से यथार्थवाद का चित्रण करते हैं, जिसमें समाज निहित होता है। तेजी से बदलते सामाजिक यथार्थ को जिस तरह लेखकों ने अपने साहित्य का आधार बनाया उससे कई महत्त्वपूर्ण प्रवृत्तियाँ, सामाजिक समूह एवं उनकी चेतना का विस्तार हुआ। भूमंडलीकृत अर्थव्यवस्था, बाजारवाद, पूँजीपति वर्ग, साम्राज्यवाद, सूचना प्रौद्योगिकी, संचार क्रांति जिस तरह प्रभावी हुआ उसकी छाप साहित्य में भी दिखाई पड़ी जिससे मध्यवर्गीय जीवन, आपसी संबंध, आर्थिक व सांस्कृतिक ह्रास हुआ। समाजवाद का सपना टूट गया। समाजवाद के सपने को पुनः साकार करने के लिए रचनाओं में समय-समय पर यथार्थ स्वरूप भी बदलते रहें। आज के समय में हिन्दी साहित्य में कई तरह से परिवर्तन हो रहे हैं, लेकिन यह परिवर्तन विकास की दिशा तय करें यह ज़रूरी नहीं है। आरंभ में बहुत सारे आंदोलन साहित्य में आए उन्हीं आंदोलनों ने परिवर्तित होकर विमर्शों का रूप धारण कर लिया। इस विमर्श और सूचना प्रौद्योगिकी के दौर ने आलोचना के तरीक़े को भी बदला है। कथा आलोचना पर आलोचकों का ध्यान कम गया है। आलोचना साहित्य की दिशा तय करती है, उसे स्थापित करने में महत्वपूर्ण भूमिका भी निभाती है। आने वाले दिनों में कथा आलोचना का गैप भरेगा उसके स्वरूप में वृद्धि होगी जो साहित्य और समाज के लिए सहायक सिद्ध होगा।
4. हिन्दी प्रदीप, मासिक पत्रिका, इलाहाबाद, संपादक- बालकृष्ण भट्ट, जनवरी, 1883
5. गोपाल राय : हिंदी उपन्यास का इतिहास, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, आठवां संस्करण 2022, पृष्ठ संख्या 132
6. मधुरेश : हिंदी उपन्यास का विकास, लोकभारती प्रकाशन, नई दिल्ली, नवम् संस्करण 2021, पृष्ठ संख्या 34
7. मधुरेश : हिंदी कहानी का विकास, लोकभारती प्रकाशन, ग्यारहवां संस्करण 2022, पृष्ठ संख्या 124
8. सुरेन्द्र चौधरी : हिंदी कहानी: रचना और परिस्थिति-2, उदयशंकर (संपादक), अंतिका प्रकाशन दिल्ली, 2009, पृष्ठ संख्या 29
9. देवीशंकर अवस्थी : रचना और आलोचना, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली 2009, पृष्ठ संख्या 136
10. कहानी : आज की कहानी, (संपादक)- ज्ञानरंजन, कमला प्रसाद, डॉ. नामवर सिंह से सुरेश पांडेय की बातचीत, पहल पत्रिका, अंक- 27, 1984, पृष्ठ संख्या 04
11. विजयमोहन सिंह : आज की कहानी, राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली, 2002, पृष्ठ संख्या 87
12. चंचल चौहान : हिन्दी कथा साहित्य: विचार और विमर्श, साहित्य भंडार इलाहाबाद, संस्करण 2011, पृष्ठ संख्या 68
13. ऋषिकेश और राकेश रेणु (संपादक) : समकालीन हिंदी कहानियाँ, सीतामढ़ी (बिहार) परिभाषा, 1992, शिवदान पाण्डेय का लेख, पृष्ठ संख्या 215
14. रामदरस मिश्र : आलोचना का आधुनिक बोध, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, 2013, पृष्ठ संख्या 234
15. हंस, जनचेतना का प्रगतिशील कथा-मासिक: संपादक- राजेंद्र यादव, नवंबर- 2009, वर्ष: 24, अंक: 4, पृष्ठ संख्या 56
16. कृष्णदत्त पालीवाल : समकालीन साहित्यिक विमर्श, परमेश्वरी प्रकाशन, दिल्ली, 2018, पृष्ठ संख्या 103
Wow Amazing
जवाब देंहटाएंसुंदर लेख ❣️
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