- विनीत कुमार यादव
शोध
सार : ग़ज़ल की
उत्पत्ति
7वीं
शताब्दी
के
आस-पास
अरब
में
हुई। इसका प्रारंभ
प्रायः
प्रेमाभिव्यक्ति
की
भावनाओं
को
शब्दबद्ध
करने
से
हुआ
परन्तु
धीरे-धीरे
कालांतर
में
सामाजिक, राजनीतिक और
आर्थिक
परिवर्तनों
के
कारण
मानव
मन
और
उसकी
संवेदना
जैसे
अन्य
विषयों
ने
अपनी
विशिष्ट
जगह
बना
ली।
समकालीन
समाज
में
इन
मनोवैज्ञानिक
पहलुओं
पर
एक
नया
विमर्श
तैयार
हो
रहा
है जिससे मानव
मन
के
अदृश्य
भावों
को
समझा
जा
सके। बढ़ते मनोवैज्ञानिक
संकट
की
जड़ें
बदलती
सामाजिक
संरचना
में
निहित
हैं। आधुनिक मनोविज्ञान
की
शब्दावली
में
एकाकीपन, अजनबीपन, विसंगति बोध
और
मृत्युबोध
जैसे
मनोभावों
को
आधार
बनाकर
साहित्य
सृजन
की
परम्परा
स्थापित
हो
चुकी
है।
अपनी
संक्षिप्तता
के
कारण
साहित्य
की
यह
विधा
सोशल
मीडिया
के
लिए
अति
उपयुक्त
भी
है।
हिंदी
गजल
के
पास
अपनी
विराट
शब्द-संपदा
है। जैसे- मिथक, मुहावरे, बिंब, प्रतीक, रदीफ और
काफिए
इत्यादि।
हिंदी
ग़ज़ल
ने
पिछले
पच्चीस
वर्षों
से
लगातार
मानव
मन
और
उसकी
संवेदनाओं
को
अपना
विषय
बनाकर
अपना
साहित्यिक
दायित्व
बखूबी
निभा
रही
है।
बीज
शब्द : हिंदी
ग़ज़ल, मनोविज्ञान , संवेदना, अजनबीपन, विसंगति बोध, मृत्युबोध।
मूल
आलेख : ग़ज़ल की
उत्पत्ति
7वीं
शताब्दी
के
आस-पास
अरब
में
हुई। ग़ज़ल की
शुरुआत
अरबी
भाषा
में
हुई
थी, परन्तु इस
विधा
को
सुव्यवस्थित
रूप
फ़ारसी
भाषा
में
मिला।
इसका
प्रारंभ
प्रायः
प्रेमाभिव्यक्ति
की
भावनाओं
को
शब्दबद्ध
करने
से
हुआ
परन्तु
धीरे-धीरे
कालांतर
में
राष्ट्रप्रेम
की
अभिव्यक्ति
के
साथ
ही
अन्य
विषयों
ने
अपनी
विशिष्ट
जगह
बना
ली।
आधुनिक
काल
में
सामाजिक, राजनीतिक और
आर्थिक
परिवर्तनों
के
कारण
हिंदी ग़ज़ल में
नये-नये
विषय
समाहित
होने
लगे।
साहित्य मानव
अनुभूतियों
और
संवेदनाओं
के
व्यवहार
का
दर्पण
होता
है।
मनोविज्ञान
का
क्षेत्र
और
विस्तार
हर
उस
जगह तक है, जहाँ
मानव
है।
मानव
मन
की
अभिलाषा, संवेदना, पीड़ा और
अंतर्द्वन्दों
का
चित्रण
साहित्य
की
सार्थकता
के
लिए
अनिवार्य
है।
साहित्य
में
साहित्यकार
की
भावना
होती
है, आत्माभिव्यक्ति
होती है, आत्मानुभूति होती
है, संवेदना होती
है।
ग़ज़लकार
अपनी
व्यक्तिगत
कल्पनाओं
और
प्रतीकों
के
आधार
पर, यथार्थ के
धरातल
पर, मानवीय संवेगों
को
संजोकर
ही
शे'र कह पाता है।
मानव
मन
और
उसकी
संवेदना
को
समझने
की
कोशिश
का
इतिहास
काफी
पुराना
है।
परम्परागत
साहित्य
में
वर्णित
मानव
मन, रचनाकार की
कल्पना
से
उत्पन्न
होता
रहा
है।
प्रायोगिक
अध्ययन
के
एक
क्षेत्र
में
मनोविज्ञान
की
शुरुआत
1854 में
जर्मनी
के
लीपज़िग
में
हुई
जब
गुस्ताव
फेचनर
ने
पहला
सिद्धांत
बनाया
कि
संवेदी
अनुभवों
के
बारे
में
निर्णय
कैसे
किए
जाते
हैं
और
उन
पर
प्रयोग
कैसे
किया
जाए। कालांतर में
सिग्मन
फ्रायड
ने
मानव
मन
के
तीन
स्तर- चेतन,
अवचेतन
और
अचेतन
का
सिद्धांत
प्रस्तुत
किया। यंग ने
कुछ
प्रसिद्ध
मनोवैज्ञानिक
अवधारणाओं
जैसे
'सिंक्रोनसिटी', 'आदर्श घटना', 'सामूहिक अचेतन', 'मनोवैज्ञानिक परिसर', 'बहिर्मुखता' और 'अंतर्मुखता' का सिद्धांत
प्रस्तुत
किया।
तब
से
लेकर
आज
तक
मनोविज्ञान
ने
कई
सिद्धांत
प्रस्तुत
किये
हैं जिससे मानव
मन
की
परतें
समझी
जा
सकें।
इक्कीसवीं
सदी
में
मनोविज्ञान
से
जुड़े
मानव
मन
और
उसकी
संवेदनाओं
से
सम्बंधित
कई
सिद्धांत
और
मानक
स्थापित
हो
चुके
हैं।
समकालीन
समाज
में
इन
मनोवैज्ञानिक
पहलुओं
पर
एक
नया
विमर्श
तैयार
हो
रहा
है, जिससे मानव
मन
के
अदृश्य
भावों
को
समझा
जा
सके। बढ़ते मनोवैज्ञानिक
संकट
की
जड़ें
बदलती
सामाजिक
संरचना
में
निहित
हैं।
भारत
में
शहरीकरण
तीव्र
गति
से
बढ़
रहा
है।
संयुक्त
राष्ट्र
की
एक
नवीनतम
रिपोर्ट
के
अनुसार, वर्ष 2050 तक
भारत
की
आधी
आबादी
महानगरों
और
शहरों
में
रहने
लगेगी।
शहरों
की
जीवनशैली
और
इससे
संबंधित
मनोभाव
को
रामकुमार
निजात
अपनी
ग़ज़ल
के
माध्यम
से
अभिव्यक्त
करते
हुए
कहते
हैं-
“हो
गया
कितना
पराया
इस
शहर
का
आदमी।
हो के
अपना
हो
ना
पाया
इस
शहर
का
आदमी।।
तुम सुनोगे
तो
सुनाएंगे
हम
अपने
तजुर्बात-
हो गया
है
एक
साया
इस
शहर
का
आदमी।।
एक जंगल
हो
गया
है
आदमी
का
ये
शहर-
आदमी ने
बेच
खाया
इस
शहर
का
आदमी।।”[1]
आधुनिक मनोविज्ञान
की
शब्दावली
में
एकाकीपन, अजनबीपन, विसंगति बोध
और
मृत्युबोध
जैसे
मनोभावों
को
आधार
बनाकर
साहित्य
सृजन
की
परम्परा
स्थापित
हो
चुकी
है।
हिंदी
ग़ज़ल
ने
भी
इक्कीसवीं
सदी
की
मनोवैज्ञानिक
सच्चाई
को
अपना
कथ्य
बनाया
है।
हिंदी
ग़ज़ल में
एकाकीपन का
चित्रण -
एकाकीपन
एक
मनोभाव
है
जिसमें
लोग
बहुत
तीव्रता
से
खालीपन
और
अलगाव
का
अनुभव
करते
हैं। एकाकीपन का
अनुभव
करने
के
लिए
अकेले
होने
की
आवश्यकता
नहीं
है।
इसे
भीड़
भरे
स्थानों
में
भी
अनुभव
किया
जा
सकता
है।
इसे
पहचान
का
संकट, असंगत समझ या दया
के
अभाव
के
रूप
में
वर्णित
किया
जा
सकता
है। एकाकीपन के
भाव
को
कथ्य
बनाकर
कुमार
विनोद
शे'र कहते
हैं-
“कोई
मेरा
अपना
नहीं
शहर
में
लेकिन
जाने किसने
दरवाज़े
पर
दस्तक
दी
है”[2]
एकाकीपन
में
असहनीय
अलगाव
की
भावना
पैदा
होती
है।
यह
अलगाव
प्राप्त
भौतिक
साधनों
के
साथ
साथ
जीवन
से
भी
हो
सकता
है। यह परित्याग, अस्वीकृति, निराशा, असुरक्षा, चिंता, नैराश्य, निकम्मापन, अर्थहीनता और
आक्रोश
की
भावना
में
भी
बदलता
रहता
है। हिंदी ग़ज़ल
में
इसी
भावबोध
से
प्रमाणित
शे'र है-
“एक
अनजाना सा डर, उम्मीद
की
हल्की
किरण
कुल मिलाकर
ज़िन्दगी
से
क्या
मिला, कुछ भी
नहीं”[3]
विनय
मिश्र
की
ग़ज़लों
में
एकाकीपन
और
पहचान
का
संकट
स्पष्ट
झलकता
है।
एक
ही
ग़ज़ल
के
विभिन्न
शे'रों में
एकाकीपन
के
कई
आयाम
समेटते
हुए
उनकी
ग़ज़ल
है-
“दीन
का
ईमान
का
संकट
है बड़ा
इंसान
का
संकट
किस तरह
खुलकर
हँसी
आए
हो जहां मुस्कान का
संकट
जिंदगी की
बात
पीछे
है
सबसे आगे
जान
का
संकट”[4]
“अमेरिकन
सोशियोलॉजिकल
रीव्यू
में
2006 के
एक
अध्ययन
में
पाया
गया
कि
अमेरिकियों
के
औसतन
केवल
दो
करीबी
दोस्त
थे
जबकि
1985 में
औसतन
तीन
थे।
विश्वासपात्र
रहित
लोगों
का
प्रतिशत
10% से
बढ़कर
लगभग
25% हो
गया
और
अतिरिक्त
19% ने
कहा
कि
उनका
केवल
एक
विश्वासपात्र
(अक्सर उनके पति
या
पत्नी)
है, इससे रिश्ता
खत्म
होने
की
स्थिति
में
गंभीर
अकेलेपन
का
जोखिम
बढ़
जाता
है।”[5] ऐसे
और
भी
कई
अध्ययन
हैं
जो
इक्कीसवीं
सदी
में
बढ़ते
एकाकीपन
को
सिद्ध
करते
हैं।
यूनिवर्सिटी
ऑफ़
एरिज़ोना
के
वैज्ञानिकों
द्वारा
जर्नल
ऑफ़
रिसर्च
इन
पर्सनालिटी
के
सितम्बर
2023 अंक में प्रकाशित
एक
अध्ययन
के
अनुसार
एक
विस्तृत
अध्ययन
से
स्पष्ट
होता
है
कि
एक
औसत
आदमी
दिन
के
66 प्रतिशत समय में
अकेला
ही
रहता
है, पर एकाकीपन
का
गंभीर
अहसास
तब
होता
है, जब यह
समय
75 प्रतिशत से अधिक
हो
जाता
है। इक्कीसवीं सदी
की
हिंदी
ग़ज़ल
ने
समकालीन
समाज
की
इस
सच्चाई
को
भी
कथ्य
बनाया
है।
हिंदी
ग़ज़ल में
अजनबीपन का
चित्रण -
मनोविज्ञान
में
अजनबीपन
का
अर्थ
एक
विशेष
प्रकार
के
मनोभाव या मनः
स्थिति
से
है।
अजनबीपन
व्यक्ति
की
सामाजिक-मनोवैज्ञानिक
स्थिति
को
दर्शाता
है
जिसमें
उसके
सामाजिक
अस्तित्व
के
कुछ
पहलुओं
से
उसका
अलगाव
शामिल
है।
अन्य
अर्थों
में
इसे
'पहचान
का
संकट' भी कहा
जाता
है।
अजनबीपन
की
अवधारणा
का
संबंध
आधुनिक
साहित्य
के
अतिरिक्त
राजनीतिक
दर्शन, अस्तित्ववादी दर्शन, मनोविश्लेषण, मनोविज्ञान और
समाजशास्त्र
से
भी
है।
अजनबीपन
आधुनिक
युग
का
कटु
सत्य
है।
इस
युग
में
व्यक्ति
की
महत्त्वाकांक्षायें
इतनी असीम
और
सशक्त
हैं
कि
वह
वर्तमान
में
रहते
हुए
भी
भविष्य
कि
ओर
अग्रसर
रहता
है।
व्यक्ति
का
मन
वर्तमान
से
विच्छिन्न
होकर
भविष्य
या
भूतकाल
में
गतिशील
रहता
है।
इस
प्रक्रिया
की
अतिशय
अधिकता
उसके
अस्तित्व
बोध
को
प्रभावित
करती
है, जिसकी परिणति
अजनबीपन
है।
मार्क्सवाद
के
अनुसार
अजनबीपन
के
लिए
पूंजीवादी
व्यवस्था
जिम्मेदार
है।
पूंजीवादी
समाज
में
लगातार
काम
कराने वाली सामाजिक
व्यवस्थाओं
ने
श्रमिक
को
अलग-थलग
कर
दिया।
वे
उसे
सार्थक
और
रचनात्मक
अस्तित्व
के
अवसर
प्रदान
करने
में
विफल
रहे।
श्रमिकों
को
न
तो
अपने
काम
से
संतुष्टि
मिलती
है
और
न
ही
उसे
अपने
श्रम
का
पूरा
उत्पाद
मिलता
है।
इन
कारणों
से
श्रमिक
अपने
मूल
व्यक्तित्व
से
कट
जाता
है।
इस
प्रकार
उत्पन्न
हुआ
पहचान
का
संकट
ही
अजनबीपन
कहलाता
है। आगे चलकर
अजनबीपन
का
शिकार
हो
जाता
है।
विज्ञान
व्रत
की
ग़ज़लों
में
इसे
इस
प्रकार
व्यक्त
किया
गया
है-
मैं कुछ
बेहतर
ढूँढ
रहा
हूँ
घर में
हूँ
घर
ढूँढ
रहा
हूँ[6]
आधुनिक
मनोविज्ञान
के
अनुसार
वर्तमान
कार्य
शैली, जिसमें इंसानों
से
ज्यादा
मशीनों
से
होता
संवाद, महानगरों का
एकाकी
जीवन, एक ही
प्रकार
का
कार्य
करते
रहने
की
विवशता
आदि
अजनबीपन
के
लिए
जिम्मेदार
कारक
हैं।
मुनव्वर
राणा
की
गजलों
में
ऐसे
कई
शे'र मिलते
हैं
जिनमें
समकालीन
समाज
का
अजनबीपन
दृष्टिगोचर
होता
है
।
उदाहरणार्थ-
“अच्छी
से
अच्छी
आबो
हवा
के
बग़ैर
भी
जिंदा है
कई
लोग
दवा
के
बगैर
भी
सांसों का
कारोबार
बदन
की
ज़रूरतें
सब कुछ
तो
चल
रहा
है
दुआ
के
बग़ैर
भी
बरसों से
इस
मकान
में
रहते
हैं
चंद
लोग
एक दूसरे
के
साथ
वफा
के
बग़ैर
भी”[7]
इक्कीसवीं
सदी
के
समाज
का
एक
संकट
यह
भी
है
कि
व्यक्ति
अपने
वर्तमान
जीवन
से
संतुष्ट
नहीं
है।
वह
जीवन
में
कुछ
और
ही
करना
चाहता
था
परंतु
उसे
कुछ
और
ही
करना
पड़
रहा
है।
इससे
वह
संतुष्ट
नहीं
है।
ममता
किरण
ने
जीवन
की
इस
विसंगति
को
तथ्य
बनाकर
ग़ज़ल
कही
है-
“दायरे
से
वह
निकलता
क्यों
नहीं
जिंदगी के
साथ
चलता
क्यों
नहीं
बोझ सी
लगने
लगी
है
जिंदगी
ख़्वाब इक आंखों में
पलता
क्यों
नहीं
कितने दिन
भागेगा
खुद
से
दूर
वह
साथ आखिर
अपने
चलता
क्यों
नहीं”[8]
इक्कीसवीं
सदी
के
समाज
में
अपने
परिवेश, अपनी स्थिति
से
कटकर
अजनबी
हो
जाना, अपने लोगों
से
कटकर
अकेला
हो
जाना
मानवीय
अस्तित्व
की
प्रमुख
समस्या
बनी
हुई
है।
हिंदी
ग़ज़ल
समाज
के
इस
पक्ष
के
प्रति
सचेत
है
और
यह
इसके
कथ्य
में
शामिल
भी
है।
इक्कीसवीं
सदी की
हिंदी ग़ज़ल
में मृत्युबोध का चित्रण
-
मृत्यु
एक
शाश्वत
सत्य
है।
मृत्यु
पूर्ण
और
निश्चित
है। मृत्यु अपरिहार्य, अननुमेय और
अनिश्चित
होने
के
कारण
रहस्यमयी
भी
है।
फिर
मृत्यु
पर
शोक
क्यों? यह प्रश्न
प्रत्येक
जीव
के
समक्ष
उपस्थित
रहता
है। मृत्युबोध जीवन
और
जगत
की
निस्सारता
की
अनुभूति
कराता
है।
इस
मृत्युबोध
के
कारण
ही
अस्तित्ववादी
दर्शन
का
प्रादुर्भाव
हुआ।
अस्तित्ववादी
विचारधारा
में
मृत्यु
को
जीवन
का
एक
अनिवार्य
अंश
स्वीकार
किया
गया
है।
आधुनिक
काल
के
साहित्य
में
अस्तित्ववाद
का
व्यापक
प्रभाव
देखने
को
मिलता
है।
इसमें
चिन्तनशील
मनुष्य
की
प्रश्नाकुलता
को
व्यक्त
किया
गया
है।
कुँवर
नारायण
ने
लिखा
है
- "मानव जीवन
के कुछ
रहस्य जो
उसे अनादिकाल
से आतंकित, आह्लादित
करते रहे
हैं। उनमें
से एक
मृत्युबोध अथवा
मृत्यु-भय।
मृत्यु एक
ऐसा शाश्वत
सत्य है
जिसका कोई
वरण नहीं
करना चाहता
पर प्रत्येक
व्यक्ति को
मृत्यु का
वरण करना
ही पड़ता
है क्योंकि
मृत्युबोध के
कारण ही
जीवन और
जगत की
अनुभूति होती
है।[9]"
हिंदी
गजलों
में
मृत्यु
बोध
कई
तरह
से
परिलक्षित
होता
है।
यह
कभी
मृत्यु
के
डर
के
रूप
में, कभी मृत्यु
की
स्वीकार्यता
के
रूप
में, कभी मृत्यु
की
शाश्वतता
का
बखान
करते
हुए, कभी जीवन
के
अधूरेपन
का
एहसास
तो
कभी
अब
तक
के
जीवन
के
प्रति
कृतज्ञता
प्रकट
करते
हुए
ग़ज़ल
का
हिस्सा
बनता
है।
मुनव्वर
राना
की
गजल
है
-
जब कभी
धूप
की
शिद्दत
ने
सताया
मुझको
याद आया
बहुत
एक
पेड़
का
साया
मुझको
मेरी ख्वाहिश
थी
कि
मैं
रोशनी
बाँटूँ
सबको
जिंदगी तूने
बहुत
जल्द
बुझाया
मुझको
सख्त हैरत
में
पड़ी
मौत
यह
जुमला
सुनकर
आ ! अदा
करना
है
साँसों
का
किराया
तुझको
शुक्रिया
तेरा
अदा
करता
हूं
जाते
जाते
जिंदगी तूने
बहुत
रोज
बचाया
मुझको[10]
मृत्युबोध
शाश्वत
सत्य
होने
के
बावजूद
हर
मनुष्य
के
लिए
एक
अबूझ
पहेली
रहा
है।
रचनाकार
अपनी
कल्पना
शक्ति
अथवा
अनुभवों
द्वारा
इसे
व्यक्त
करने
का
प्रयास
करता
है। जीवन और
मृत्यु
विरोधाभासी
होते
हुए
भी
एक
दूसरे
के
पूरक
जान
पड़ते
हैं।
लोक
जीवन
के
कई
विरोधभास
ग़ज़ल
में
विसंगतिबोध
का
आभास
कराते
हैं।
राजेश
रेड्डी
की
ग़ज़लों
में
मृत्युबोध
और
विसंगतिबोध
साथ-साथ
चलता
है
-
घर छूट
जाएगा
यूँ
ही
घर
के
हुए
बग़ैर
इक रोज़
मर
ही
जाएँगे
हम
भी
जिए
बग़ैर
सब चाहते
हैं
मंजिलें
पाना, चले बग़ैर
जन्नत भी
सबको
चाहिए
लेकिन
मरे
बग़ैर
मैनें ही आईने
को
बनाया
है
आईना
वर्ना था
वो
तो
काँच
का
टुकड़ा
मेरे
बग़ैर[11]
समाज
को
सही
दिशा
दिखाना
भी
साहित्य
का
दायित्व
है।
अच्छा
साहित्य
जीवन
मूल्यों
की
शिक्षा
भी
देता
है
एवं
कालखंड
की
विसंगतियों, विद्रूपताओं एवं
विरोधाभासों
को
रेखांकित
कर
समाज
को
संदेश
भी
प्रेषित
करता
है, जिससे समाज
में
सुधार
आता
है
और
सामाजिक
विकास
को
गति
मिलती
है।
ऐसे
कई
उदाहरण
हैं
जब
साहित्य
ने
मानव
मन
की
घनघोर
निराशा
में
उमंग
और
आत्मविश्वास
के
बीज
बोये
हैं।
हिंदी
ग़ज़ल
में
यदि
वर्तमान
समाज
का
नैराश्य, कुंठा, विसंगति बोध, अजनबीपन आदि
का
चित्रण
है
तो
वहीं
दूसरी
ओर
आशावादी
ग़ज़लें
भी
कही
गयीं
हैं
जिनमें
आत्मबल, उमंग, उत्सव, उत्साह के
साथ
जीवन
के
प्रति
आशावादी
दृष्टिकोण
की
अभिव्यक्ति
होती
है।
राजेंद्र
तिवारी
की
ग़ज़ल
इसका
उदाहरण
है
-
क्यों घुटन, नैराश्य, कुंठा, त्रास की
बातें
करें ।
एक तिनका
ही
सही, विश्वास की
बातें
करें।।
साथ रहते
दूरियां
लेकर
बहुत
दिन
जी
लिए,
दूर होकर
भी
दिलों
से
पास
की
बातें
करें
।।
खौफ़ के
बादल
छटें
हर
स्वप्नदर्शी
आँख
से-
इंद्रधनुषी
रंग
की, मधुमास
की
बातें
करें ।।[12]
साहित्य
अतीत
से
प्रेरणा
लेता
है, वर्तमान को
चित्रित
करने
का
कार्य
करता
है
और
भविष्य
का
मार्गदर्शन
करता
है।
एक
भावपूर्ण
हिंदी
ग़ज़ल
लोक
मानस
के
प्रेरणा
का
स्रोत
भी
बन
सकती
है।
साहित्य
की
पारदर्शिता
समाज
के
नवनिर्माण
में
सहायक
होती
है।
साहित्य
समाज
की
कमियों
को
उजागर
करने
के
साथ
उनका
समाधान
भी
प्रस्तुत
करता
है।
ग़ज़ल
के
शिल्प
में
यह
विशेषता
होती
है
कि
उसका
प्रत्येक
शे'र अपने
आप
में
पूर्ण
होता
है।
समकालीन
समाज
में
ऐसे
कई
शे'र हैं
जो
लोगों
को
प्रोत्साहित
करने
के
लिए
मुहावरों
की
तरह
प्रयोग
किये
जाते
हैं।
निदा
फ़ाज़ली
कहते
हैं
-
उठ के
कपड़े
बदल
घर
से
बाहर
निकल
जो
हुआ
सो
हुआ,
रात के
बा'द दिन
आज
के
बा'द कल
जो
हुआ
सो
हुआ
।।
जब तलक साँस है
भूख
है
प्यास
है
ये
ही
इतिहास
है,
रख के
काँधे
पे
हल
खेत
की
ओर
चल
जो
हुआ
सो
हुआ।।
जो मरा क्यूँ मरा
जो
लुटा क्यूँ लुटा जो
जला
क्यूँ जला,
मुद्दतों
से
हैं
ग़म
इन
सवालों
के
हल
जो
हुआ
सो
हुआ
।।
मंदिरों
में
भजन
मस्जिदों
में
अज़ाँ
आदमी
है
कहाँ,
आदमी के
लिए
एक
ताज़ा
ग़ज़ल
जो
हुआ
सो
हुआ[13]।।
इक्कीसवीं
सदी
का
मानव
जीवन
अपने
युग
की
परिस्थितियों
द्वारा
नियंत्रित
जान
पड़ता
है।
प्रत्येक
व्यक्तित्व
का
एक
मनोवैज्ञानिक
पक्ष
होता
है।
साहित्य
के
माध्यम
से
यह
व्यक्तिगत
सत्य
समष्टिगत
सत्य
बन
जाता
है। साहित्य के
माध्यम
से
सिर्फ
तथ्यात्मक
नहीं
रह
जाता
बल्कि
व्यावहारिक
बन
जाता
है।
इक्कीसवीं
सदी
की
हिंदी
ग़ज़लें
समाज
के
इस
सत्य
को
उद्घाटित
और
रेखांकित
करते
हुए
आशा
की
किरण
भी
पैदा
कर
रहीं
हैं।
एक
सभ्य, स्वस्थ और
सुसंस्कृत
समाज
के
निर्माण
में
हिंदी
ग़ज़लों
की
भूमिका
काफी
सराहनीय
है।
इक्कीसवीं
सदी
में
हो
रहे
तकनीकी
परिवर्तन
की
गति
काफ़ी
तेज़
है।
साहित्य
की
अन्य
विधाओं
की
तरह
हिंदी
ग़ज़ल
को
भी
बदलते
समय
के
साथ
ख़ुद
को
बदलना
पड़ेगा।
नोबेल
पुरस्कार
विजेता
बेलारूस
की
लेखिका
श्वेतलाना
एलेक्सीविच
कहती
हैं-
"यह नया
युग है। इस
समय हम
जो अनुभव
कर रहे
हैं,
वो न
सिर्फ हमारे
ज्ञान की
पहुंच से
बाहर है, बल्कि वह
हमारी कल्पना
से परे
की चीज़
है। आज
हमारे साथ
जो घटित
हो रहा
है,
उस पर
जल्दी विश्वास
नहीं होता।
यह सब
कुछ बहुत
तेज गति
से हो
रहा है।[14]" हिंदी ग़ज़ल
ने
भी, थोड़ी देर
से
ही
सही, आज के
वर्तमान
साहित्य
धर्म
को
बड़ी
ही
सहजता
और
सजगता
से
निभाया
है।
अपनी
संक्षिप्तता
के
कारण
साहित्य
की
यह
विधा
सोशल
मीडिया
के
लिए
अति
उपयुक्त
भी
है।
उपर्युक्त
विश्लेषण
से
यह
स्पष्ट
है
कि
इक्कीसवीं
सदी
की
हिंदी
ग़ज़ल
में
नए
विषयों
का
समावेश
हुआ
है।
ग़ज़ल, अपने शाब्दिक
अर्थ
-प्रेमिका से
वार्तालाप, से बहुत
आगे
निकल
चुकी
है।
हिंदी
गजल
के
पास
अपनी
विराट
शब्द-संपदा
है, मिथक, मुहावरे, बिंब, प्रतीक, रदीफ और
काफिए
हैं।
आज
के
राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक और
तकनीकी
परिवर्तन
भी
इसकी
पृष्ठभूमि
में
हैं।
हिंदी
ग़ज़ल
ने
पिछले
25 वर्षों
से
लगातार
मानव
मन
और
उसकी
संवेदनाओं
को
अपना
विषय
बनाकर
अपना
साहित्यिक
दायित्व
बखूबी
निभा
रही
है।
[1] नवीनतम हिंदी ग़ज़लें, सं. रोहिताश्व अस्थाना, सामयिक प्रकाशन नई दिल्ली ,2016 पृ. 93
[2] हिंदी ग़ज़ल की नयी चेतना : ज्ञानप्रकाश विवेक, प्रकाशन संस्थान नई दिल्ली 2021 पृ 236
[3] हिंदी ग़ज़ल की नयी चेतना : ज्ञानप्रकाश विवेक, प्रकाशन संस्थान नई दिल्ली 2021 पृ 234
[4] लोग ज़िंदा हैं : विनय मिश्र, लिटिल बर्ड पब्लिकेशन नई दिल्ली, 2022 , पृ 33
[5] McPherson, Miller; Smith-Lovin, Lynn; Brashears, Matthew E (2006). "Social Isolation in America: Changes in Core Discussion Networks over Two Decades"
[6] हिंदी ग़ज़ल की नयी चेतना : ज्ञानप्रकाश विवेक, प्रकाशन संस्थान नई दिल्ली 2021 पृ 243
[7] मुनव्वरनामा : सं सचिन चौधरी, मंजुल प्रकाशन भोपाल संस्करण 2016 पृष्ठ 115
[8] आंगन का शजर: ममता किरण, किताब घर प्रकाशन, सं 2020 पृष्ठ 32
[9] नई कविता में उदात्त तत्व : राकेश शुक्ल, आशीष प्रकाशन, कानपुर, 2008, पृ. 230
[10] मुनव्वारनामा : सं सचिन चौधरी, मंजुल प्रकाशन भोपाल संस्करण 2016 पृष्ठ 169
[11] वुजूद : राजेश रेड्डी, वाणी प्रकाशन नई दिल्ली 2014 ,पृ 58
[12] नवीनतम हिंदी ग़ज़लें, सं. रोहिताश्व अस्थाना, सामयिक प्रकाशन नई दिल्ली, 2016 पृ. 95
[13] साभार : kavitakosh.org/kk/उठ_के_कपड़े_बदल_/_निदा_फ़ाज़ली
[14] हिंदी ग़ज़ल की नयी चेतना : ज्ञान प्रकाश विवेक, प्रकाशन संस्थान नई दिल्ली, संस्करण 2018, पृ.33
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