मुझे आज भी वह दिन याद है, जब मेरी बात प्रो. सुरेंद्र सुमन से उनके आवास पर ही हो रही थी और वहीं डॉ. राम बाबू आर्य जी भी बैठे थे। शोध विषय को लेकर चर्चा हो रही थी। मेरी उत्सुकता ऐसे शोध विषय में थी जिसके माध्यम से गहन साहित्यिक–सामाजिक विमर्श से जुड़ने का अवसर मिल सके। प्रो. सुमन जी ने सवाल किया कि आपका पसंदीदा क्षेत्र क्या है, किस विधा में आपकी रुचि है? हालांकि शोध के लिए मैं साहित्य की सैद्धांतिकी व वैचारिकी पर काम करने का विचार कर रहा था। ये बातें मैंने सुमन सर को बताईं। उन्होंने मुझे लोकधर्मी आलोचक चौथीराम यादव जी के विषय में बताया। ‘लोक और वेद आमने–सामने’, ‘उत्तरशती के विमर्श’ पर विस्तार से बताने के बाद उन्होंने सुझाव दिया कि आप स्वयं चौथी बाबू से मिल लें तो अप्राप्य सामग्रियों को उपलब्ध कराने में भी उनसे सहयोग मिल जाएगा, जो शोध यात्रा के प्रारंभ में सही दिशा का बोध कराने में बहुत आवश्यक है। उनसे मिलना सही दिशा बोध के लिए बहुत जरूरी है। यह वह क्षण था जब चौथी बाबू का मेरे जीवन में औपचारिक रूप से प्रवेश हुआ। तत्पश्चात चौथी बाबू की कृतियों के सघन पाठ के उपरांत उनसे मिलने का निर्णय और सुदृढ़ हो गया। मैं उनकी रचनाओं से अभिभूत था। आलोचना जगत में ऐसा विरल काम दुर्लभ है। चौथी बाबू के लेखन में वह जनसंपृक्ति है कि आप उनके लेखन से सहज ही जुड़ जाते हैं। चौथी बाबू आलोचना में किस वैचारिक जमीन को तैयार करने में संलग्न थे, यह जानना मेरे शोध की बुनियाद हो सकती है। 24 अगस्त 2023 की वह शाम मेरे लिए अपरिमित अन्वेषण और अथाह उत्साह का प्रभात छुपाए हुए थी। कोर्स वर्क की क्लास के बाद ट्रेन से मैं बनारस के लिए निकल चुका था। सच कहूँ, अबतक मुझे बिल्कुल पता नहीं था कि चौथी बाबू मेरे जीवन का अभिन्न हिस्सा हो चुके हैं। कभी कल्पना भी नहीं की थी कि उनसे इतना गहरा जुड़ाव हो जाएगा।
अगली सुबह वाराणसी सिटी स्टेशन पर उतरा। यह बनारस कबीर का था। यह बनारस चौथी बाबू का था। बनारस तो गलियों का शहर है। यहाँ नवागंतुक रास्ता न भूले ऐसा होता है कहीं भला। मेरे पास चौथी बाबू के घर का पता था लेकिन रास्ते को लेकर पर्याप्त उलझन थी। ऑटो वाले भैया की कृपा से चौथी बाबू के आवास से बहुत आगे तक बनारस मुझे देखना पड़ा, वह किस्सा अलग है। चौथी बाबू को हमने फोन मिलाया। वे फोन पर रहे जब तक घर मिल नहीं गया। क्या मार्ग तलाशना और इस क्रम में गलियों और रास्तों में भटकना हम शोधार्थियों की नियति नहीं है? यदि चौथी बाबू जैसे मार्गदर्शक मिल जाएँ तो रास्ते का पता जीवन में थोड़ा जल्दी चल जाता है। हालांकि यहाँ कोई शॉर्टकट नहीं है। इन एहसासों में डूबता–उतरता मैं उनके समक्ष बैठा था। जिनसे मिलने के लिए मैं 10 घंटे लंबी रेल यात्रा की थी, जिनकी आभा को उनके लिखे शब्दों में महसूस किया था, वे मेरे सामने उपस्थित थे। यह मेरे लिए किसी ख्वाब के पूरे होने से कम नहीं था। मेरी पीठ पर भागलपुर जिले के सुदूर ग्रामीण इलाके के सरकारी विद्यालय के संभावनाविहीन दिनों की याद अभी बरबस पसीने की तरह बह रही थी। मेरे लिए ये पल सचमुच बहुत खास थे।
मैं प्रश्नावली तैयार कर के घर से नहीं चला था, न ही साक्षात्कार करने का कोई इरादा ही था। क्योंकि मैं इस बात को महसूस कर रहा था कि एक–दो बैठक से कुछ नहीं होने वाला। चौथी बाबु से सबसे पहले मुलाकात हो और परिचय हो जाए फिर आगे लंबी संगत करनी होगी। उनकी शांत देहभाषा बतला रही थी वे बातचीत के लिए तैयार हैं। “साहित्य में अस्मिताओं के उभार को कैसे समझा जाए सर?" मेरे यह पूछने पर उन्होंने एक लंबा उत्तर दिया। जो कुछ वैचारिक सूत्र मेरे हाथ लगे उसे यों कहा जा सकता है कि साहित्य का जनतांत्रीकरण बहुत आवश्यक है। विमर्श को केवल अस्मिताओं के उभार तक ही सीमित करके नहीं देखना चाहिए बल्कि इन विमर्शों ने साहित्यिक चिंतनधारा में पुनर्विचार की शुरुआत की है। यह देखने की आवश्यकता है कि तात्कालिकता से इतर ये विमर्श साहित्य और समाज में क्या बदलाव चाहते हैं। इसी तरह एक अन्य जिज्ञासा को शांत करते हुए उन्होंने बतलाया कि एक सही विश्वदृष्टि के लिए न तो मार्क्सवाद के महत्व को कम करके आंका जा सकता है न ही अंबेडकरवाद को। सभी अंतर्विरोधों के साथ हमें इस वैचारिक युग्म को समझने की सलाहियत पैदा करनी होगी।
उनका व्यवहार इतना आत्मीय, इतना सहज था कि मानो मैं अपने घर में हूँ। बहुत स्नेह से भोजन कराने के पश्चात उन्होंने आराम करने को कहा। उनकी दवाइयों का समय हो रहा था। जाते–जाते उन्होंने कहा, ‘फिर मिलना होगा. मिलते रहना होगा। आप लिखिए। कभी मेरी जरूरत महसूस हो तो मैं हूं।’ आज इन शब्दों के पीछे छिपा जीवन सत्य नजर आता है तो एक भयावह निरीहता घर कर लेती है मुझमें। यह मेरी उनसे पहली मुलाकात थी। चौथी बाबू आराम करने जा चुके थे। थोड़ी देर बाद उनके कहे अनुसार मुझे स्टेशन पहुँचा दिया गया था। वापसी के पूरे रास्ते मैं तीर्थ से लौटने वाले भाव से भरा रहा।
विश्वविद्यालय परिसर में अब भी मेरी शामें प्रायः उनके व्याख्यानों को सुनते हुए बीतती हैं। वहाँ से आने के बाद फोन पर बात हुई। आवाज की वो खनक भूलती नहीं मुझे। अंतिम बार उन्हें स्त्रीकाल के ऑनलाइन कार्यक्रम में सुनने का अवसर बना किंतु तकनीकी दिक्कत की वजह से उनका वक्तव्य नहीं हो पाया। संचालक संजीव चंदन जी ने अगली बार उनसे विस्तृत बातचीत का वादा लिया था। अब तो सिर्फ स्मृतियाँ ही शेष हैं..
फिर मिलना उनसे
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एक ही दुनिया के बाशिंदे अक्सर मिल ही जाते हैं। यह कहने में मुझे कोई गुरेज नहीं कि हमारी दुनिया एक थी। साल बीतते–बीतते चौथी बाबू से मिलने का दुबारा सुयोग बन पड़ा। जन संस्कृति मंच ने अपने राज्य सम्मेलन में मुख्य वक्ता के तौर पर प्रो. चौथी बाबू को आमंत्रित किया था। उन्होंने भी सहज ही स्वीकृति दे दी थी। यहाँ एक बात गौर करने की है, वे जीवन भर जनपक्षधर अभियानों के अन्यतम पैरोकार रहे। उनकी जनपक्षरता कभी आयु, स्वास्थ्य या अन्य कारणों से डिगी नहीं।
जन संस्कृति मंच के आमंत्रण पर उनका गया आगमन हुआ। गया में उनके सान्निध्य में रहने का मुझे सौभाग्य प्राप्त हुआ। उनके साथ बीते वे दिन मैं कभी भुला नहीं पाऊंगा। बोध गया के ऊंचे पहाड़ सर्दियों में कोहरे से लिपटे हुए थे। अगर अलसुबह आपकी नजर किसी पहाड़ पर चली जाए तो वहाँ से नज़रें हटाना मुश्किल है! कितना वैभव है प्रकृति की गोद में। चौथी बाबू जब गया पहुँचे तो हवाओं में नमी थोड़ी बढ़ गई थी। उनके स्नान के लिए गर्म पानी की व्यवस्था करवाई गई। अल्पाहार के बाद हम सब उनके कमरे में जमे हुए थे। हमें उनको सुनना था। उस समय कमरे में जसम के राज्य सचिव प्रख्यात रंगकर्मी दीपक सिन्हा तथा कार्यक्रम के विशिष्ट अतिथि मशहूर रंगकर्मी–नाटककार राजेश कुमार थे। वर्तमान राजनीति पर बातें हो रही थीं। इसी दरम्यां उन्होंने कला और सत्ता–संबंधों पर मानीखेज टिपण्णी की। उन्होंने बहुत सहजता से कहा, 'वर्तमान सत्ता समझती है सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की आड़ में वह साहित्य को ब्लैकमेल करके अपनी कुत्सित इच्छाओं को पूरी करवा सकती है। इसमें वह अंशतः सफल हो भी जाए लेकिन साहित्य को अपना पिछलग्गू बनाने का ख्वाब देखना वह छोड़ दे। ऐसा होने नहीं वाला।' एक सचेत प्रतिरोधी चेतना चौथी बाबू के व्यक्तित्व का अभिन्न हिस्सा थी यद्यपि उनके मन में किसी के प्रति घृणा नहीं थी। उनका आलोचकीय विवेक करुणा का सहगामी था। वे वंचित वर्ग से आने वाले उन लोगों से भी घृणा नहीं करते थे जो आज की तारीख़ में बहुजन हितों की हत्यारी शक्तियों की सेवा में लगे हैं, कुछ लाभ के लिए सामाजिक हितों का सौदा कर रहे हैं। चौथी बाबू से निजी बातचीत में इस विषय में चर्चा हुई थी। मुझे ठीक याद है बनारस की मुलाकात में उनसे पूछा था, ‘जिन लोगों का दमन हो रहा, अधिकार छीने जा रहे हैं वही सत्ता का अंधानुकरण कर रहे हैं। ऐसे में किस सामाजिक परिवर्तन की कल्पना की जा सकती है?’ इससे पहले हम उत्तर प्रदेश के हाथरस में दलित बच्ची के साथ हुए अन्याय पर चर्चा कर चुके थे। चौथी बाबू शांत बने रहे। उन्होंने कहा, ‘जनता मिथ्या चेतना की शिकार है। वह अपना शक्तियों को भूल सकती है लेकिन किसी के चरणों में विसर्जित नहीं करती है। बहुमत को जनता का वास्तविक चरित्र कह देना उचित नहीं होगा। बहुजन समाज को बरगलाने के लिए कॉरपोरेट और हिंदुत्व ने अरबों–खरबों रुपए समाज में निवेश किए हैं। समाज में शोर और अंधेरा पैदा किया गया है। इसलिए लोग दिशा भटक रहे हैं। समाज का परित्याग करने के बजाए हम जैसे लोगों को जनाधिकारों पर डटे रहना है। यथार्थवादी प्रगतिशील जनचेतना के निर्माण के लिए काम करना है।’ स्वाभाविक है कि मेरा प्रश्न नैराश्य से उपजा था। आज जिस समय यह आलेख लिखा जा रहा है, चौथी बाबू के कहे शब्दों को समाज में घटित होते हुए हम देख सकते हैं। तमाम शोशेबाजी के बावजूद विशालकाय कॉरपोरेट व हिंदुत्ववादी शक्तियों को पूरे अयोध्या मंडल में शिकस्त झेलनी पड़ी। चौथी बाबू जनता के मिजाज को समझ रहे थे।
कुछ प्रश्न दीपक सिन्हा जी ने भी किए। चाय की चुस्कियाँ लेते हुए हम उम्मीद और रोशनी के साहचर्य के आनंद में डूबे थे। शाम होने वाली थी, हम सबके साथ चौथी बाबू भी कमरे से बाहर आए। शायद लंबे समय तक बातचीत करने की थकान के कारण या अपने स्वाभावनुरूप कार्यक्रम स्थल के परिसर में कुछ देर मौन टहलते रहे। हम सबकी निगाह उन्हीं पर थी, हमें अहसास था कि चौथी बाबू कुछ समय लेंगे। गौधुली बीत चुकी थी। शाम अच्छी तरह उतर आई थी। चौथी बाबू अपने फोन में कुछ लिख–पढ़ रहे थे।
अगले दिन जसम बिहार के राज्य सम्मेलन के दिन उनके वक्तव्य की घड़ी आई। उन्होंने सधे हुए स्वर में बोलना शुरू किया। उनका पहला वाक्य भूलना कठिन है। उन्होंने कहा कि बिहार प्रतिरोध की धरती है और आज जहाँ हम एकजुट हुए हैं, गया की यह धरती बुद्ध की धरती मानी जाती है। बुद्ध स्वयं प्रतिरोध का सबसे बड़ा प्रतीक हैं। आधुनिक कबीर बाबा नागार्जुन की यह धरती रही है। आज के समय में प्रतिरोध करने वालों को या तो जेल में बंद कर देते हैं या उनकी हत्या कर दी जाती है। यहाँ दिनकर, नेपाली और बाबा नागार्जुन रहे हैं। यहाँ हमेशा प्रतिरोध की बुलंद आवाज उठती रही हैं। आज यह समझने की आवश्यकता है कि अम्बेडकरवाद और मार्क्सवाद एक ही जमीन पर खड़ा है। मार्क्स मनुष्यता की मुक्ति के लिए सर्वप्रथम आर्थिक मुक्ति को अनिवार्य समझते थे लेकिन भारतीय परिप्रेक्ष्य में आर्थिक एवं सामाजिक मुक्ति के बीच के अंतर्संबंधों को हल किए बगैर किसी भी प्रकार की मुक्ति संभव नहीं है। इसके लिए अम्बेडकर के जाति का विनाश को आत्मसात किए बगैर जाति और वर्ग के अंतर्संबंधों तथा समाजार्थिक अंतर्गुत्थियों को नहीं समझा जा सकता है। इसलिए भारतीय मुक्ति का रास्ता निश्चय ही अम्बेडकरवाद से गुजरते हुए मार्क्सवाद तक पहुँचेगा। उन्होंने वर्तमान समय पर तीखे व्यंग्य किए। उन्होंने अनेक उदाहरणों से प्रतिरोध की सुदीर्घ परंपरा की चर्चा की। यह सब सुनते हुए मेरी निगाहें उनके चेहरे पर टिकी थीं। दर्शकदीर्घा में खामोशी थी। लोगों के लिए चौथी बाबू का वक्तव्य अनेक अर्थ प्रदान कर रहा था लेकिन उद्देश स्पष्ट था– शोषण और दमन से आम अवाम की मुक्ति कैसे होगी?
चौथी बाबू हमेशा कहते थे दलित मुक्ति और स्त्री मुक्ति मनुष्यता की मुक्ति के प्रवेश द्वार हैं। यह दर्शन अनेक संभावनाओं के विषय में सोचने को विवश करता है। शाम में सत्र समाप्त हुआ। चौथी बाबू बनारस के लिए रवाना होने वाले थे। हम सब उन्हें कार्यक्रम स्थल से गाड़ी तक साथ–साथ लाए। गाड़ी में बैठते हुए उन्होंने मुस्कुरा कर हम सबको देखा और हवा में मुट्ठी तानी। श्रद्धेय ने कह दिया था, मेरे जाने का समय हो चला है। संघर्ष जारी रहे!
गया की याद अब भी ताजा थी कि एक दिन सूचना मिली चौथी बाबू संसार से विदा हो गए। मृत्यु भी कैसी? दो घंटे पहले तक सोशल मीडिया पर सक्रिय थे। कोई पोस्ट लिख रहे थे। बस डेढ़–दो घंटे में चले गए। अचानक! किसी का ध्यान नहीं खींचा, किसी को आहट नहीं हुई और चले गए। देश जब भीषण संकटों के दौर से गुजर रहा है, चौथी बाबू नहीं चाहते होंगे कोई संघर्ष, कोई आंदोलन, कोई बैठक उनके शोक में स्थगित हो.. शायद इसलिए बेहद खामोशी से रुखसत हो गए!
कहते हुए आंखें सजल हो जाती हैं, वे हमारे भीतर की अदम्य इच्छाशक्ति और जिजीविषा के प्रतीक थे। ग्रामीण पिछड़े इलाकों से आए हम जैसे निर्धन पृष्ठिभूमि के छात्रों को विद्यालय से लेकर विश्वविद्यालय तक कितनी अवहेलना, उपेक्षा और द्वेष का शिकार होना पड़ता है, बताने की जरूरत नहीं है। मेरे जैसे जाने कितने नौजवानों को रोजमर्रा के जीवन में जाति दंश का शिकार होना पड़ता है। हमारी आँ खों के सामने संवैधानिक अधिकारों को बहुत निर्दयता से कुचला जाता है और हम चुपचाप देखने को विवश होते हैं। ऐसे में हमें ऐतिहासिक हीनभावना से निर्भार करने में चौथी बाबू जैसे रेडिकल प्रगतिशील लेखक, विचारक की अद्वितीय भूमिका है। उनसे मिलकर यह विश्वास दृढ़ हो गया कि पढ़ाई–लिखाई से आत्मसम्मान की रक्षा की जा सकती है। मैं और मेरे जैसे तमाम छात्र–नौजवान जाति–वर्ग, क्षेत्र आदि की बाधाओं को पार कर उज्ज्वल भविष्य बना सकते हैं। वंचितों के अधिकारों के लिए ताउम्र संघर्ष करने वाले प्रो. चौथी बाबू के प्रति मेरे जैसे छात्र हमेशा कृतज्ञ रहेंगे क्योंकि उन्होंने हमें ख़्वाब देखना सिखाया, हमारे सुंदर स्वप्नों की रक्षा की।
सच पूछिए तो उनके जाने से एक रिक्ति पैदा हो गई है जीवन में.. उनकी किताबें उलटते–पलटते उनका मुस्कुराता चेहरा सामने आ जाता है। उनका बनारस उन्हें याद करता है। आंदोलनों, संगोष्ठियों में उनकी कमी शिद्दत के साथ महसूस की जाती है। यह कहने में मुझे कोई गुरेज नहीं कि चौथी बाबू जन संस्कृति मंच के बेहद करीब थे बल्कि तमाम प्रगतिशील जनवादी संगठनों के वे अभिन्न साथी थे। दलित लेखन के पक्ष में लिखने के कारण उन्हें अस्मितावादी कहा जाने लगा मगर उनकी प्रतिबद्धता नहीं बदली। वंचितों को आगे बढ़ते देखने की उनमें गहरी लालसा थी। इसी लालसा ने जीवन भर उनकी कलम को विराम नहीं दिया। आज चौथी बाबू जीवित होते तो निश्चित रूप से किसी प्रतिवाद मार्च, सभा, संगोष्ठियों में होते। कितना कुछ कहना था अभी उन्हें, कितने प्रश्न अनुत्तरित रह गए, कितनी इच्छाएँ अधूरी रह गईं.. उन्हें मिथिला का सुप्रसिद्ध मखाना का खीर खिलाना था। बनारस जाते समय इच्छा हुई थी कि बना के ले लिया जाए फिर मन मार कर छोड़ दिया था।
एक शाश्वत सत्य है कि विचार कभी मरते नहीं हैं। उन्होंने जितना कुछ लिखा है, वो समाज को आलोकित करता रहेगा। आज उनके विचारों को आम जनमानस में ले जाने की जरुरत है। यदि हम सहिष्णुता, भाईचारा और सौहार्द बचाना चाहते हैं तो बकौल चौथी बाबू, ‘समाज में ठोस जनपक्षधर वैचारिक जमीन तैयार करनी होगी।’ क्योंकि वे बतला गए हैं, ‘बगैर वैचारिकी के हम सामाजिक और संवैधानिक संकटों का मुकाबला नहीं कर सकते।’
चौथी बाबू हमेशा आमजन के संघर्षों में याद आएंगे। जीवन ने उन्हें थोड़ी मोहलत और दी होती तो शायद बड़े सामाजिक बदलावों के वास्ते थोड़ा और काम कर पाते। यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि उन्होंने समाज को अपना सर्वस्व दिया। मनुष्यता में अटूट विश्वास ने उनके सामने मौजूद सभी दीवारों को तोड़ दिया। उन्होंने स्वयं को निरंतर डिक्लास कर आम आवाम के साथ एकमेक कर दिया।
चौथी बाबू की स्मृति को इंकलाबी सलाम! अलविदा श्रद्धेय!! आप बहुत याद आएँगे!
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