- डॉ. प्रोमिला
शोध
सार : मध्यकाल
के
भक्ति
प्रधान
चरण
में
सूरदास
से
लेकर
रसखान
तक
का
संबंध
उस
भारतीय
लोकचित्त
से
रहा
है,
जिसमें
श्रीकृष्ण
भाव
का
स्थायी
निवास
है,
जिसने
मनुष्य
को
तोड़ा
नहीं,
जोड़ा
है।
तुच्छता
का
क्षय
कर
अथाह
मानुष-भाव
को
भरा
है।
इन
कवियों
ने
अभिजात्यवादी
काव्य
के
समस्त
अभिमान
को
चुनौती
देते
हुए
लोक
परंपरा
के
सत्व
से
अपनी
कवित्व
क्षमता
का
विकास
किया
है।
ये
सभी
सामाजिक
संकीर्णताओं
को
खंडित
कर
भागवत
भाव-रस
में
तन्मय
हुए
हैं
किंतु
देखना
रोचक
है
कि
मीरा
के
अतिरिक्त
स्त्रियों
और
विशेषकर
मुस्लिम
कवयित्रियों
पर
इसकी
क्या
छाप
पड़ीं? मीरा
के
लगभग
सौ
वर्ष
बाद
होने वाली ताज
ने
ब्रज
भाषा
को
अवलंब
बना
कैसे
हृदय
की
निर्भीकता
को
प्रमुखता
दी? धर्म
और
अभिजात्यवाद
की
कुंडली
से
बाहर
कैसे
प्रेम
का
उद्घोष
किया।
बीज
शब्द : प्रेम,
नवजागरण,
पितृसत्ता,
धर्मसत्ता,
कर्मकाण्ड,
कर्म,
राजभक्ति,
विद्रोह,
इस्लाम,
हिन्दू
धर्म,
रस,
सचेतना।
मूल
आलेख : कवयित्री
ताज
की
काव्य-भूमि
ऐसी
जटिल
सामाजिक-सांस्कृतिक
प्रक्रिया
की
उपज
है जिसके सौंदर्यशास्त्र, समाजशास्त्र की
आंतरिक
पड़ताल
में
प्रवृत्त
होना
ना
केवल
चुनौतीपूर्ण
कार्य
है
बल्कि इसके अपने
जोखिम
भी
हैं।
इन
जोखिमों
पर
दृष्टि
केंद्रित
करते
हुए
एक
पाठक
जब
काव्य
के
आंतरिक
संसार
में
प्रविष्ट
होता
है
तो
पाता
है
कि
ताज
की
संपूर्ण
मनोभूमि
की
निर्मिति
में
भक्ति
आंदोलन
की
प्रवृत्तियों
की
उल्लेखनीय
भूमिका
रही
है।
उनका
समय
सत्रहवीं
शताब्दी
के
उत्तरार्द्ध
के
आसपास
माना
जाता
है, जिसमें वैष्णव
भक्ति
से
संपृक्त
भक्ति
आंदोलन
के
परिणामस्वरूप
सामाजिक, सांस्कृतिक रूढ़ियां
जर्जर
हो
चुकी
थीं। ‘वैष्णवों के
सिद्धांत
मूलतः
उस
समय
व्याप्त
सामाजिक-आर्थिक
यथार्थ
की
आदर्शवादी
अभिव्यक्ति
थे।
संस्कृति
के
क्षेत्र
में
उन्होंने
नवजागरण
का
रूप
धारण
किया
था।
सामाजिक
व्यवस्था
और
अन्याय
के
विरुद्ध
अत्यंत
महत्वपूर्ण
विद्रोह
के
द्योतक
थे।’1 यानी बदलावों
का
क्रांतिकारी
चक्र
तेजी
से
घूम
रहा
था।
वर्ण
और
धर्म
से
संचालित
स्त्री
संबंधी
शास्त्रवादी
चिंतन
की
हदों
को
काटकर
नवजागरण
की
लोक-चेतना
का
प्रभाव
पसर
रहा
था।
कुलीन, अकुलीनधर्मी, विधर्मी, छूत, अछूत के
कल्पित
बंधन
आधार
खो
रहे
थे
और
इसी
समय
ताज
की
संपूर्ण
भावभूमि
भक्ति
आंदोलन
की
प्रबल
चेतनाप्रदता
से
पितृसत्ता, धर्मसत्ता के
अंकुशों
को
ठोकर
मारकर
अपना
विद्रोही
व्यक्तित्व
तराश
रही
थी।
हालांकि
ताज
कौन
थी? के संबंध
में
अनेक
किवदंतियां
प्रचलित
हैं। विद्वानों में
कई
प्रकार
के
मत-वैभिन्नय
रहे
हैं।
शिवसिंह
सरोजकार
ने
उन्हें
पुरुष
कवि
माना
है। ‘पूरब ले
जनम
कमाई
जिन
खुब
करी’ कहकर ताज
ने
स्वयं
को
पूरब
प्रांत
से
संबंधित
बताया
है।
पुष्टि
संप्रदाय
के
वार्ता-साहित्य
में
वह
बादशाह
अकबर
की
पत्नी
स्वीकृत
हुई
हैं।
गुजराती
विद्वान
कवि
गोविंद
गिल्लाभाई
ने
ताज
को
करौली
गांव
की
मुसलमान
स्त्री
करार
दिया
है।
मथुरा
के
कविराज
चौबे
नवनीत
उन्हें
पंजाब
की
रहने
वाली
बताते
हैं। किंतु इन
सबके
बीच अन्तःसाक्ष्यों, किंवदंतियों और
बहिःसाक्ष्यों
के
आधार
पर
आज
यह
सर्वमान्य
हो
चुका
है कि मध्यकाल
में
ताज
नामक
एक
मुगलानी
स्त्री
ने
धार्मिक
संकीर्णता
और
सामाजिक
बंधनों
के
विरुद्ध
खुला
विद्रोह
किया
था।
सुमन
राजे
स्पष्ट
कहती
हैं
कि उनमें मीरा
जैसा
तेवर
तो
नहीं
है, फिर भी, मुसलमान होते
हुए
भी, खुल्लम-खुल्ला
कृष्ण
प्रेम
में ‘हिंदूआनी’ ही काम
माना
जाएगा।2
जिससे
भारतीय
धार्मिक
समरसता
का
अनूठा
उदाहरण
प्रस्तुत
होता
है।
इस्लाम
के
एकेश्वरवाद
में
अपने
आध्यात्मिक
प्रश्नों
के
उत्तर
न
मिलने
पर ‘नन्दजू को
प्यारा
जिन
कंस
को
पछारा/वह
वृन्दावन
वारा, कृष्ण साहेब
हमारा
है॥’ कहकर तत्कालीन
समस्त
कट्टरपंथी
शक्तियों
की
भर्त्सना
के
समक्ष
डटकर
खड़ी
ताज
कृष्ण
के
प्रति
अपने
प्रेम
और
समर्पण
भाव
की
उद्घोषणा
करती
है।
यद्यपि
भावनाओं
की
प्रतिक्रिया
के
परिणाम
रूप
में
हिन्दू
धर्म
पर
कवयित्री
का
यह
विश्वास
तो
उतना
आश्चर्यजनक
प्रतीत
नहीं
होता
तदापि
यहां
यह
सवाल
अवश्य
स्थान
पा
जाता
है
कि
कृष्ण
ही
क्यों, निर्गुण भगवान
या
राम
क्यों
नहीं? सावित्री सिन्हा
लिखती
हैं, ‘कृष्ण के
बाल
तथा
किशोर
रूप
के
साथ
भक्ति
मार्ग
की
भाव
प्रधानता
नारी
हृदय
की
वृत्तियों
के
अनुकूल
पड़ी।
माधुर्य
और
वात्सल्य
दो
ऐसी
वृत्तियां
हैं
जो
प्रकृति
की
ओर
से
वरदान
स्वरूप
नारी
को
प्राप्त
हैं।
जिस
समर्पण
और
त्याग
की
साधना
भक्तों
का
ध्येय
था।
जिन
अनुभूतियों
की
कल्पना
भक्त
कवि
अपने
पौरुष
की
कठोरता
में
नारी
की
कोमलता
का
आरोपण
करके
कर
रहे
थे, वह नारी-हृदय
की
मूल
प्रकृति
थी।
अतः
भारतीय
नारी
के
लिए
निर्गुण
की
दुरूह
साधना
की
अनुभूति
का
अनुमान
भी
कठिन
था।
कृष्ण
के
आकर्षण
के
साथ
वात्सल्य
और
प्रेम
की
अनुभूति
की
प्रधानता
ने
नारी
को
स्वत:
ही
अपनी
ओर
आकर्षित
किया।
लौकिक
जीवन
की
प्रधान
अनुभूतियों
के
आध्यात्मिक
आरोपों
में
उसे
अपने
जीवन
की
एक
झलक
दिखाई
दी।’3 मीरा ने
कृष्ण
के
प्रेम
की
अनन्यता
और
भक्ति
में
लोकलाज, कुल-श्रृंखला
को
तजने
की
घोषणा
की।
ताज
ने
निरंकुश
निडरता
से
राधा
की
बांदी
बन
‘तुर्कनी’ नाम छोड़ ‘गोपिका’ बनना स्वीकार
किया।
यों
तो
मध्यकाल
में रसखान भी
अपनी
कुलीनता
और
इस्लामानुयायी
पृष्ठभूमि
के
चलते
एक
अपवाद
रहे
हैं
पर
संवेदना
के
अनेक
स्तरों
पर
ताज
भी
किंचित कम नहीं
ठहरती
है।
ताज
का
रचना-कर्म
केवल
भक्तिपरक
नहीं, यह भक्ति
से
पहले
सामंती
मर्यादा
और
धार्मिक
सीमाओं
के
विरुद्ध
एक
स्त्री
के
विद्रोह
की
अलौकिक
अभिव्यक्ति
बनता
है।
सामाजिक
विभेद, असमानता और
वर्गीकृत
व्यवस्था
के
जटिल
रूपों-
लिंग
और
धर्म
को
पार
करते
हुए
ताज
श्रीकृष्ण
के
माधुर्य
भाव
को
भक्ति
का
आधार
चुनती
है, साथ ही
उनके
ऐश्वर्य
का
भी
बखान
करती
है।
ऐश्वर्य
और
माधुर्य
ज्ञान
में
बारीक
अंतर
है।
ऐश्वर्य
ज्ञान
में
भक्त
आदर
के
भाव
से
अभिभूत
रहता
है।
माधुर्य
भाव
रखने
पर
वह
वात्सल्य, प्रेम आदि
भावों
को
खोता
नहीं।
ज्ञान
में
लोक
तथा
शास्त्र
की
परिधि
से
परे
नितांत
निजी
अनुभव
के
आधार
पर
ताज
की
कृष्ण
के
पवित्र
राजनीतिज्ञ, उपदेशक और
उद्धारक
रूप
में
अडिग
आस्था
दर्ज
होती
है
-
साहेब 'सिर ताज' हुआ नंदजू
के
आप
पूत,
मारी जिन
असुर
करी
काली
सिर
छाप
है।
कुन्दन पुर
जाय
के
सहाय
करी
भीषम
की,
रुकमिनी
की
टेक
रखी
लगी
नही
खाप
है।।
पाण्डव की
पच्छ
करी
द्रौपदी
बढ़ाय
चीर,
दीन से
सुदामा
की
मेटी
जिन
ताप
है।
निहचे करि
शोधि
लेहु
ज्ञानी
गुणवान
बेगि
जग में
अनूप
मित्र
कृष्ण
का
मिलाप
है।।4
साध
ही
उनके
प्रति
उससे
भी
अधिक
तीव्र
प्रेमानुभूति
निरूपण
पाती
है।
ताज
को
केवल
राधा
के
गोपाल
का
भरोसा
है, ‘मोको तो
भरोसो
एक
प्रीतम
गोपाल
को’, वही उसके
एकमात्र
तारणहार
हैं, ‘मेरे तो
अधार
के
एक
नंद
के
कुमार
हैं।’ वह अपना इस्लाम
धर्म
ही
नहीं
त्यागती
बल्कि
बिना
डरे, बिना दबे
अपना
पहनावा
भी
सूथने
के
स्थान
पर
घाघरा-चुनरी
के
रूप
में
कृष्ण
की
गोपियों-सा
धार
लेती
है। ताज के
माधुर्य
में
लीला, रूप तथा
प्रेम
का
सामंजस्य
मिलता
है।
किसी
प्रकार
की
उच्छृंखल
रसिकता
नहीं।
भावों
में
तीव्र
वेग
नहीं
बल्कि
एक
शांत
प्रवाह
दिखता
है।
प्रेम
की
धीर-गंभीर
और
अथक
यात्री
ताज
कभी
भी ‘ओ री
सजनी’ या ‘हे री
सखी’ की मुनादी
करते
हुए
अपनी
प्रीतिमयी
अनुभूतियों
का
बखान
नहीं
करती
है।
कवयित्री
की
कृष्ण-भावना
अनन्यता
पर
खड़ी
है
-
“नेह
करो
इक
ही
हरि
सो
मति
अन्तर
में
अब
और
कुँ
छीजो।
की मया
एक
वही
जग
में
गुन
गाय
कै
तो
अति
प्रेम
सों
पीजो।।
लीजिए मान
बड़ो
गुणवान
हैं
दीन
को
दान
कछू
नित
दीजो।
जो तुमसो
कवि ‘ताज’ कहै तुक
चारहि
आदि
के
अक्षर
दीजो।।”5
ताज
ऐसी
सहज
प्रफुल्ल
कवयित्री
के
रूप
में
अवलोकित
होती
है
जो
विषम
परिस्थितियों
में
भी
जीवन-राग
सींचती
है।
कृष्ण
के
प्रति
अलौकिक
प्रेम
तो
व्यंजना
पाता
ही
है
पर
कवयित्री
का
संवेदनशील
हृदय
लौकिक
रसिक
नायक
के
रूप
में
कृष्ण
की
प्रतिष्ठा
भी
करता
है। ‘ताज के
माधुर्य
में
किसी-किसी
स्थल
पर
लौकिक
श्रृंगार
की
भावनाओं
का
प्रभाव
प्रधान
होता
दिखाई
देने
लगता
है।
कालिंदी
के
तट
पर
स्थित
निकुंज
के
मध्य
पंकज
शैया
प्रस्तुत
कर
राधा
की
प्रतीक्षा
करते
हुए
कृष्ण
तथा
राधा
की
चटक-मटक
पर
अटकी
हुई
आंखें
कल्पना-जगत्
की
सुंदर
निर्माण
हैं।
परंतु
इस
प्रसंग
में
आलंबन
की
अपार्थिवता
ही
नैसर्गिक
है, भावनाओं तथा
वातावरण
की लौकिकता में
काम
का
स्पंदन
है।’6
“कालिंदी
के
तीर
नीर-निकट
कदंब
कुंज, मन कछु
इच्छा
कीनी
सेज
सरोजन
की।
अंतर के
यामी, कामी, कँवल के
दल
लेके, रची
सेज
तहाँ
शोभा
कहा
कहौ
तिनकी।
तिहिं समै ‘ताज’ प्रभु दंपति
मिले
की
छवि, बरन सकत
कोऊ
नाही
वाही
छिनकी।
राधे की
चटक
देखे, अँखियाँ अटक
रही, मीन को
मटक
नाहिं
साजत
वा
दिन
की॥”7
यहां
स्पष्ट
है
कि
ताज
भावों
की
विवृत्ति
में
दक्ष
है।
आत्मानुभूति
के
प्रतिफलन
से
सीधा-सादा
काव्य
भावों
की
लड़ियों
में
पिरोया
हुआ
जान
पड़ता
है।
हृदय
की
सहज
अनुभूति, सरसता और
मधुरता
में
संयोग
और
वियोग
दोनों
की
व्यंजना
यहां
स्थान
पाती
है।
ताज
के
मन
को
चैन
नहीं
मिलता
है।
उसकी
स्थिति
पलंग
पर
कुम्लाई
पड़ी
चंपक
की
माला
के
समान
है।
मिलन
की
प्रतीक्षा
के
बीच
लंबी
रात्रि
को
शेष
देखकर
विरहिणी
का
मन
भारी
हो
जाता
है
और
सूने
भवन
में
जलते
दीपक
का
प्रकाश
अंगों
को
सूर्य
की
भांति
जलन
देता
है,
“चैन
मन
में
न
मलीन
सुनैन
परे
जल
में
न
तई
है।
‘ताज’ कहै
परयंक
यों
बाल
ज्यों
चंपकी
माल
बिलाय
गई
हैं।।
नेकु बिहाय
न
रैन
कछू
यह
जान
भयानक
भारि
भई
है।
भौन पैं
भानु
समान
सुदीपक
अंगन
में
मानों
आगि
दई।।”8
कवयित्री
की
वेदनानुभूति
में
कृष्ण
के
लिए
निरन्तर
तलाश
लक्षित
होती
है।
उनके
नयनों
को
तभी
सुकून
मिलता
है, जब वे
श्रीकृष्ण
को
देख
लेते
हैं।
“रोसे
हैं
छबीले
लाल
छल
की
जो
बात
करें
मेरे चाह
चौगुनी
तलास
दिन
रैन
हैं।
मन में
उमंग
तने
कोमले
कनक
रंग
------------------------------------
कहै छवि
'ताज' मित्त मानिए
हमारी
किधौं
नैननि तें
देखू
जब
नैननि
में
चैन
है।।”9
किंतु
इतना
होने
पर
भी
क्योंकि
ताज
की
चित्तवृत्ति
वियोग
भाव
में
नहीं
रमती
अतएव
वह
संयोग
की
कवयित्री
ठहरती
है
न
कि
विरह
की।
भाव-सौन्दर्य
उनके
काव्य
में
श्रृंगार
रस
के
संयोग
से
सम्बन्धित
रचनाओं
में
अधिक
दिखलाई
पड़ता
है।
सर्वप्रथम
ताज
की
चेतना
में
कोई
वस्तु
भाव
रूप
में
परिणत
होकर
उसे
आस्वाद
प्रदान
करती
है।
फिर
उस
अनुभूति
को
दूसरों
तक
प्रेषित
करने
के
लिए
वह
शैली, भाषा, अलंकार-विधान, छन्द तथा
संगीत
सज्जा
आदि
का
सहारा
लेती
है।
ताज
की
फुटकर
रचनाओं
के
अलावा
उनका
हास्य
व्यंग्य
प्रधान
एक
संग्रह
'बीबी
बांदी
का
झगरा' भी बताया
जाता
है, जिसे अगरचन्द
नाहटा
ने
संपादित
किया
है
किंतु
इस
पर
आपत्ति
दर्ज
है
कि
उक्त
ग्रन्थ
भक्त
कवयित्री
ताज
का
लिखा
हुआ
नहीं
है।
गोसाईं
विट्ठलनाथ
की
इस
शिष्या
की
साढ़े
बारह
धमारें
पुष्टि
सम्प्रदाय
में
भी
मान्य
हैं।
इसी
तरह
ताज
की
एक
पुस्तक गोविंद गिल्लाभाई
को
मिली
बताई
जाती
है, जिसमें गणेश स्तुति, सरस्वती
स्तुति, भवानी वंदना, हरदेव की
प्रार्थना, दशावतार वर्णन, मुरलीधर के
कवित्त, होली फाग, बारहमासा और
भक्ति
के
पदों
के
साथ
कुछ
फुटकर
छंद
भी
शामिल
हैं।
एक
कवित्त
में
ताज
तुलसीदास, कबीर नानक
मूलकदास, रैदास, मीरा, सूरदास, दादू दयाल
का
नामोल्लेख
करती
है, जिससे अन्य
भक्त
कवियों
के
प्रति
कवयित्री
की
सोच
का
खुलासा
होता
है।
राजशक्ति
से
स्वतन्त्र
रहकर
अपनी
आध्यात्मिक
शक्ति
पर
भरोसा
करने
की
प्रवृत्ति
से
युगीनबोध
की
जो
नयी
चेतना
प्रस्फूटित
हुई, उससे दृष्टि
पाकर
ताज
अपने
पदों
में
बिना
उलहाना
दिए
जीवनानुभवों
को
अगोपन
करती
है और इस
क्रम
में समाज के
ऐतिहासिक
अन्तर्विरोधों
की
पहचान
से
भी
वह
अछूती
नहीं
रहती।
ताज
के
रचना-कर्म
में
हिन्दू
धर्म
की
रूढ़ियों
और
बाह्य
कर्मकाण्ड
की
अनेक
बार
सहज
भाव
से
विवेचना
प्रत्यक्ष
होती
है।
साधना
निर्भय
के
अनुसार, “हिंदू
धर्म
में
प्रचलित
आडम्बरों
पर
जो
आक्षेप
किये
हैं, उनमें व्यंग्य
और
लांछना
नहीं
है, परंतु उनकी
मीठी
वाणी
में
निहित
संकेत
इन
उपहासप्रद
वस्तुओं
की
महत्वहीनता
सिद्ध
करने
के
लिए
पर्याप्त
हैं।”10 कवयित्री कहती
है, किसी को
वेदों
के
पढ़ने
में, किसी को
गंगा
स्नान
में, किसी को
विभिन्न
देवों
के
पूजन
में, किसी को
भगवान
शंकर
की
उदारता
में, किसी को
रत्नादि
के
पाने
में
तो
किसी
को
शूरवीरों
पर
भरोसा
है,
“काहू
को
भरोसो
वेद
चारो
जो
पड़ै
होत,
काहू को
भरोसो
गंगा
न्हाये
सहस्र
धार
को।
--------------------------------------------
काहू को
भरोसो
मनि
पाये
मिले
पारस
को,
काहू को
भरोसो
सूर
बीरन
के
लार
को।”11
एक
अन्य
पद
में
वह
इसी
विचार
को
विस्तार
देती
है
कि
किसी
भक्त
को
बद्रीनाथ
धाम
पर
भरोसा
है।
किसी
को
श्री
जगन्नाथ
जी
के
प्रसाद
का, किसी को
काशी
में
पिंड
दान
करने
पर
भरोसा
है।
किसी
को
सवेरे
उठ
कर
वट
वृक्ष
के
दर्शन
का, किसी को
सेतुबंध
में
जाकर
भगवान
रामेश्वर
की
पूजा
करने
पर
ही
भरोसा
है
और
किसी
को
द्वारका
का
तथा
किसी
को पुष्कर में
दान
करने
का
भरोसा
है।
ऐसे
पदों
से
ताज
के
हिन्दू
जनों
की
मानसिकता
और
आचार-व्यवहार
से
परिचित
होने
का
स्पष्ट
संकेत
मिलता
है,
“काहू
को
भरोसो
बद्रीनाथ
जाय
पाँय
परे,
काहू को
भरोसो
जगन्नाथ
जू
के
भात
को।
काहू को
भरोसो
काशी
गया
मे
ही
पिण्ड
भरै,
--------------------------------------
काहू को
भरोसो
द्वारावती
गये
जात
को।
काहू को
भरोसो
'ताज' पुष्कर में
दान
किए।।”12
भक्ति
की
राह
में
ताज
के
यहां
कर्म
का
वर्जन
नहीं
है
बल्कि
भारतीय
दर्शनानुसार
वह
कर्मोपदेश
के
प्रति
निष्ठावान
है।
उनका
मत
है
कि
सारा
विश्व
कर्म
के
सूत्र
में
बँधा
हुआ
है।
कर्म
ही
परम
धर्म
है।
सब
कुछ
कर्म
के
अधीन
है
किन्तु
कर्म
किसी
के
वश
में
नहीं
है।
इसके
सामाजिक
आयामों
का
खुलकर
वर्णन
करते
हुए
कर्म
से
ही
सब
कुछ
सुलभ
होने
को
पुष्ट
करती
वह
कहती
है, ‘कर्म सों
'ताज' मिले सुख
देह
को
कर्म
सो
प्रीति
पतंग
ज्यु
दीवे।/कर्म के
योंही
आधीन
सबै
अरु
कर्म
कहूँ
के
आधीन
न
होवे।।13
इसी
प्रकार
प्रकृति
और
प्राणी
ही
नहीं
एक
अन्य
कवित्त
में
मानव-संसार
को
भी
कर्म
से
बंधा
बताती
है,
“कर्म
सो
राय
औ
रंग
बने
अरु
कर्म
सों
ठाकुर
जो
नर
होई।
कर्म सो
साध
सती
सत
है
अरु
कर्म
सो
वीर
बड़े
नर
होई।।
कर्म सो
मीत
मिले
मन
लाल
सों, कर्म सों
'ताज' कहूँ सुख
होई।।
कर्म बड़े
लघु
तू
मति
जानियो
कर्म
करे
सु
करै
नहि
कोई।।”14
ताज
के
काव्य
में
भाव-पक्ष
का
उत्कर्ष
तो
है
ही,
शिल्प-विधान
के
चुनाव
में
भी
वह
स्थापित
लीक
की
शत-प्रतिशत
राही
नहीं
बनती।
कृष्ण
के
प्रति
अनुभूति
की
गहनता
के
कारण
इस
काव्यधारा
के
कवियों
की
रचनाएं
अधिकांशतः
मुक्त
पदों
में
मिलती
हैं
पर
ताज
के
रचनाकर्म
में
क्योंकि
अनुभूतियों
के
स्रोत
का
प्रवाह
स्वच्छंद
और
निर्बाध
नहीं
है, अतएव चिरपरिचित
पद-शैली
का
अनुसरण
न
करके
वह
कवित्त, सवैया, दोहा धमार
एवं
पद
प्रचुर
मात्रा
में
लिखती
हैं, जिनमें कोई
उल्लेख
योग्य
दोष
लक्षित
नहीं
होता
है
और
न
ही
काव्य
में
प्रयुक्त
शैली
की
प्रांजलता, छन्द-लय
और
संगीत
का
प्रयोग
एक
मध्यकालीन
साधारण
नारी
के
लिए
सहज
लगते
हैं।
परंपरा
प्रचलित
उपमानों
में
अपनी
भाव
गहनता
से
सौंदर्य
की
अभिव्यंजना
ताज
के
काव्य-कर्म
का
अनूठा
कौशल
बनती
है।
अनेक
स्थानों
पर
सानुप्रास, उत्प्रेक्षा, उपमा, संदेश आदि
अलंकारों
के
प्रयोग
सुंदर
बन
पड़ा
है।
ताज
के
आरंभिक
काव्य
में
जहां
एक
ओर
उर्दू
पंजाबी
शब्दों
का
प्रयोग
मिलता
है, वहीं दूसरी
ओर बाद के
कवित्त, सवैये तत्सम,
तद्भव
शब्दों
से
सुसज्जित
ब्रजभाषा
में रचे गए
हैं। ज्योतिप्रदास मिश्र ‘निर्मल’ का कथन
इस
संबंध
में
दृष्टव्य
है, ‘हम कह
सकते
हैं
कि
ताज
ने
प्रथम
ब्रज
भाषा
से
पूर्ण
परिचित
ना
होने
के
कारण
अपनी
पंजाबी
और
फारसी
प्रभावित
हिंदी
(जो आगे चलकर
उर्दू
का
रूप
धारण
करती
है)
का
ही
उपयोग
किया
है।… कृष्ण काव्य
की
परंपरा
तथा
ब्रज
भाषा
से
परिचय
प्राप्त
हो
जाने
पर
ताज
ने
बड़ी
ही
सुंदर
रचना
की
है।
इसने
पद
शैली
का
अनुसरण
न
कर
के
दरबारी
कवियों
की
(जिनसे इसका संपर्क
होना
अधिक
संभावित
है)
कवित-सवैया
वाली
शैली
का
प्रयोग
किया
है।
कवित
इसके
शुद्ध
और
जोरदार
हैं।
भाषा
भी
अलंकृत
और
सानुप्रासिक
है।
खड़ी
बोली
का
भी
रूप
इसके
किसी-किसी
छंद
में
मिलता
है।”15
निष्कर्ष : अन्ततः “कहना अनुपयुक्त न होगा कि ताज अपने युग की एकमात्र सचेष्ठ कलाकार थी। मीरा की अनुभूतियों की प्रखरता ही कला बन गई थी, उनकी भावनाओं के अजस्र स्रोत के प्रवाह में सुन्दर मुक्ताएं मिलती हैं परन्तु ताज की अनुभूतियां उनकी प्रतिभा तथा कला के स्पर्श से कुंदन बन गई हैं।”16 तभी तो, “सुनो दिल जानी मेरे दिल की कहानी तुम,/दस्त ही बिकानी बदनामी भी सहूँगी मैं।/.../तेरे नेह दाग में निदाग ह्वै दहूँगी मैं।/नन्द के कुमार कुरवान ताणी सूरत पै,/हौं तो तुरकानी हिन्दुआनी ह्वै रहूँगी मैं॥”17 कहने वाली ताज की अगाध चेतना निःसंदेह उसे मीरा के समकक्ष स्थान देती है। ब्रज में गोवर्धन पर्वत के समीप सुरभि कुंड पर आज भी ताज की समाधि स्थापित है। किंतु इतना होने पर भी भारतेंदु द्वारा रसखान को लक्षित कर लिखे वाक्य, ‘इन मुसलमान हरिजनन पर कोटिन हिन्दू वारिए’ से उनकी दूरी सवाल बनती है। आज भी ताज की उपेक्षा विद्वानों के समक्ष चुनौती खड़ी कर खंगाल के गवाक्ष खोलती है।
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पुस्तक भंडार, प्रयाग, 1931, पृ.19-20
- सावित्री
सिन्हा : मध्यकालीन
हिन्दी कवयित्रियां, हिन्दी अनुसंधान
परिषद,
दिल्ली विश्वविद्यालय, प्रकाशक आत्माराम
एंड संस, प्र.सं.
1953, पृ.193
- सुधा
सिंह : स्त्री-काव्यधारा, (संकलन, संपा.
जगदीश्वर चतुर्वेदी), अनामिका प्रकाशन, प्र.सं.
2006, पृ.47-48
1042 स्काईलार्क अपार्टमेंट, सेक्टर 06, प्लॉट नं.35, द्वारका, नयी दिल्ली-110075
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