"इस गांव का नाम फटपड़िया क्यों नहीं रख देते?
सुबह छः बजे से लेकर रात ग्यारह बजे तक गांव भर में बस एक ही शोर तो चलता है- फट पड़ फट पड़, फट पड़ फट पड़।"
सुगनी बड़ती-निकलती दिन में कई बार यह आप्त वाक्य दोहराती है पर उसकी बात को कोई नहीं सुनता। हालांकि यह तो शुद्ध झूठ है कि कोई नहीं सुनता मगर यह साव सच है कि उसकी इस बात पर कोई ध्यान कभी नहीं देता।
कारण? कारण यही कि इस 'फट पड़ फट पड़' के साथ सुगनी से ज्यादे ताजे और बेहतरीन बोल सुनने को मिले तो उसके बासी बोलों की गिनर कौन करे?
"सात किलो धान से पूरे पीपे की ठिगली लगती है आटे की। तेरी भूख धूळ खाने से मिटेगी, इतने भर आटे से क्या होगा? करमखोड़ला हर बार आटा रख लेता है।"
पीळे में लिपटी और गज भर घूंघट में घोट-मोट एक स्त्री इंजन के बाहर चिल्लाई।
"काटो तो काट ही स्यूं, थारा एक रिप्या सूं पार पड़े की? इंजन तेल से चलता है, पाणी से नहीं!"
"गिटले- बळ ले सारा तू ही!" वह पीपे को ठोकर मारकर चली गई।
थोड़ी दूर चलकर झटके के साथ मुड़ती हुई बोली-" तू जानता होगा एक तेरा ही इंजन है। तेरे जैसे सत्तर बीसी
हैं। तेरे जैसों को जूते तले रखती हूं।"- वह अपनी जांघ पर भरसक मार करती हुई बोली।
अपने सिर से पैर तक महीन आटे से आच्छादित एक सफेद भूत जैसी आकृति ने इंजन की कोठरी से मुंह निकाला और तत्क्षण स्वयं को ओझल कर लिया।
"गालियां क्या निकाल रही है बावळी राण्ड! माथा फोड़ भाटे से राण्डके का!"- सुगनी भुनभुनायी। पर हर बार की तरह इस बार भी उसे सुना-अनसुना कर दिया गया। सुगनी को फत्या फूटी आंख नहीं सुहाता।
अच्छा फत्या कौन? वही जिसने अभी थोड़ी देर पहले कोठरी से मुंह निकाला और तुरंत अंदर दुबक गया। डरपोक ! फत्या सुगनी का पड़ौसी है। सुगनी के घर और उसके बाड़े की बाड़ एक है। और चूंकि सुगनी फत्या के बाड़े से बेइंतहा मोहब्बत करती है सो उसे यह बाड़ घनानंद के 'हार पहार से लागत है' वाली तर्ज पर अखरती है। वह उस मिलन की घड़ी की प्रतिपल प्रतीक्षा करती है जब उसका घर और फत्या का बाड़ा एक हो जाए। इस मिलन में एक ही खलनायक है, एक नहीं दो, वे हैं फत्या और उसकी बहन नाथी। बाड़े की वास्तविक धीराणी तो नाथी ही है।
"दो रांडी-रंडवे हैं घर में पर पूरा बाड़ा दाबकर बैठे हैं। कई बार कहा पूण-पावली लेकर दे दे, पर नहीं! यहां ओसारे में भैंस पैर नहीं पसार पाती और बाड़ के उस तरफ की जमीन पर कबाड़ पसरी जा रही है।" सुगनी के तन-तन में आग लगती है।
वैसे परिवार बसाने का मन किसका नहीं करता पर नाथी लाख कोशिश कर ले फत्तू के घर में कोई भी अल्ला की बंदी छः माह से ज्यादा टिकती नहीं। फरजाना नाम की औरत उसे भर जवानी में छोड़ गई थी। कई वर्षों तक बहन भाई 'रंडवे-रोट' पकाते रहे। नई औरत के लिए 'रूपचंद' जी चाइए। रूपचंद जी पल्ले तो सभी काम चल्ले। पर यहां तो दिन भर इंजन के फटफटाट से पेट ही नहीं भरता, जोरू के लिए पैसा कहां से आए? तंग आकर उसने इंजन छोड़ दिया और दिल्ली की राह ली। नाथी को बिना बताए भाग गया मगर छः माह बाद आया तो साथ में एक बीवी और चार बच्चे भी लाया। बीवी फत्या को आए दिन पीटती और छोरे-छोरी नाथी को। चार-छः महीने गांव वालों का मनोरंजन करके खुवातिन भाग गई। अकेले बच गए 'रांडी-रंडवा'।
फत्तू ने फिर से धंधा जमाया। लो-लक्कड़, पिलास्टिक और रद्दी खरीदी की दुकान की। अब उसका नाम ‘फत्तू कबाड़ी’ था। कबाड़ी के पीछे फिर एक जनानी आई- जमीला। जमीला ने आते ही नाथी को धक्का मारकर बाहर किया। "बगैरत औरत मुफ्त में मेरे मर्द का माल उड़ाती है।" अब घर में वही टक्के से दो इंसान। रांड्यो परणिज्यो मां मरगी, रिया दोय का दोय। जमीला नाथू से दुगुनी उम्र की है, लिहाजा घरबार की चिंता आधी हो चुकी है पर वह उससे दिन भर 'उठ बंदरी बैठ बंदरी' करवाती है।
"कल की आई लुगायी से डर गई? ऐसे तो बड़ी सांड बनी घूमती है!" - भूरी नाथी से बोली।
"देखते ही भाटे फेंकती है।"
"तो पंच क्यूं नहीं बुलवाती? आखिर तेरा भी तो सीर है!"
"फिर वो
फत्तू को छोड़ भागेगी!"
"जा, आगी बळ! सती हो जा फत्तू पर।"
नाथी सब कुछ सहन कर सकती है पर फत्तू का दु:ख नहीं। चार-पांच साल की ‘लट’ था जब नाथी ने उसे अपने आंचल की छांव दी। सात बहनों में सबसे छोटा और लाडला भाई था।
कलाळों की धापती-खाती गुवाड़ी थी। काके, बाबे, भाई, भौजाई और टाबर-टिंगर इतने कि कान काटे कुआ भर जाए। वैसे तो इस जात का पुश्तैनी काम रावळे में दारू परोसना और महफिलों में रंगत जमाना था पर नाथी ने अपनी आखों से न प्याले देखे न सुराही। ठाकुर खुद भूख से बाथ्यां आ रहे थे तो महफिल किसके बाप की सजाते? हां, उसके घर की औरतें आटा पीसने जरूर जाती। सत्रह बीघा पक्की जमीन थी बेगारी में मिली। कोठी-कुएं और बैल परिवार की शोभा थे।
नाथी को नानके भाई से बड़ा लगाव था। ससुराल गई तो भाई ने भी संग जाने की जिद्द की। नाथी साथ खिलाती, साथ पिलाती, साथ सुलाती।
एक रात मनहूस जलजला आया। सब उठ-उठकर भागने लगे। नाथी सुबह जागी तो वह भी फत्तू को कंधे चढ़ाकर भागी। किधर जाना है, कुछ नहीं जानती। बस मायके का रास्ता जानती थी, उधर ही दौड़ी। घर आकर देखा तो परिंडे की हंडियां उल्टी, माचे बिछे हुए और हुक्के-चिलम रेत में लुढ़के हुए मिले।
भंवरू काके का परिवार गाड़ियां लाद रहा था, उन्हीं के साथ हो ली। एक गांव ही लांघ पाए कि तारगढ़ के ठाकुर घोड़ा रोककर आड़े फिर गए।
"किधर जाते हो?"
"अपनी जलमभौम छोड़ते हुए लाज नहीं आती?"
"सब ओर ‘बैधे’ (दंगे) हो रहे हैं। आपकी काली गाय हैं अन्नदाता! हमें निकल जाने दीजिए।"
"पोळ के किवाड़ खोलो।" सब चुपचाप पीछे हो लिए।
महीने भर बाद ठाकर ने डेरे को गांव की ओर मोड़ दिया।
"जाओ अपना घरबार और खेती बाड़ी संभालो।"
पीछे रहे लकवाग्रस्त मांगू बाबे की औरत सोटी लेकर द्वार पर खड़ी हो गई।
"सूना समझा है क्या जो जब मन किया चल दिए,जब मन किया मुंह उठा कर आ गए। अपने मां जाए भाई को अकेला छोड़ भागे गद्दार! क्यों लौट आए पाकिस्तान से? जहां से आए हो वहीं निकल जाओ मुर्दों! मैं अपनी गुवाड़ी के बाहर तुम्हें भीख भी न मांगने दूं।"
गांव ठाकर भी नाराज हो चले, बिना बताए गांव छोड़ने पर आखिर बदनामी किसकी हुई? ठाकर ही की!
"तो वापस पति के पास क्यूं नहीं गई?" बास (मोहल्ले) के लड़कों ने पूछा।
"वो तो खुद पाकिस्तान भाग गया। दूसरी शादी कर ली उसने वहीं।"
"और तुम्हारी बहनें?"
"चार पाकिस्तान भाग गई धणियों के साथ। एक यहां बची है। सबसे छोटी गुम गई या मर गई , मालिक जाने।"
"यहां तुम्हारा पीहर है न ससुराल, फिर कैसे आ धमकी?"
"अंधी बुआ थी। मैंने उसे मांगकर रोटी दी और उसने मुझे आसरा।"
"मतलब न यह गांव तेरा है न ही यह बाड़ा"- दूर चूहतरे पर बैठा धोळू मीणा अपनी लाठी पर तेल रगड़ता हुआ हड़ककर बोला।
नाथी ने सुना। गरम तेल के छींटे से लगे। बिना कुछ बोले वह उठकर चली गई।
बिराणी कई दिनों से बुला रही है, नाथी बाई किसी रोज आओ तो लटाण के बर्तन उतारकर साफ कर जाओ।
नाथी लटाण के एक-एक बर्तन को नल के नीचे बनी चौकड़ी में डालने लगी। कभी पीतल का लोटा टन्न से गिरता तो कभी कांसे की थालियां गिरती पड़ती।
"नाथी बाई पटके-पछाड़े क्यों कर रही हो? भोजाई ने फिर से कुटाई कर दी क्या?"- बिराणी चुटकी लेकर बोली।
"उस धोळे का जाए सत्यानाश! दो हाथ जमीं पर भी सुकून से नहीं सोने देता। कहता है- जमीं उसे बेच दूं वरना डांग के जोर ले लेगा!"
"हम तो कबसे कह रहे हैं जमीं के वाजिब दाम ले ले और कलह मेट! मीणों ने दाब ली तो कहीं दाद है न पुकार।"
नाथी गर्दन हिलाती हुई बस राख रगड़ती जा रही थी।
"मालिक सबको
देखेगा।"
"जाने दो तुम अपना जीव सोरा रखो। जाते समय यह कोथळी ले जाना।"
बिराणी ने खूंटी की ओर इशारा करते हुए कहा।
पाक शुद्धि के चलते वह मौसर के लावणें घर में नहीं रखती, ड्योढी में ही टांग देती है। इस पर नाथी का हक है।
गर्मियों के मझान बारह बजे थे और नाथी घर जाने को उतावली थी। यही सही समय होगा कि उसकी तेराताळी भौजाई मोहल्ले में हांडने निकलेगी और वह चुपके से फत्या को कोथळी दे सकेगी।
नाथी कोठरी के बाहर ठिठक गई। भीतर से पुरुषों की आवाज आ रही थी।
"दीन की भलाई के लिए आप इतना तो कर ही सकते हैं"- किसी बाहरी इंसान की आवाज थी।
"हिंदुओं के पास अपने मंदिर हैं, अपने पास मस्जिद नहीं होनी चाहिए? मेरे तो छोरे का काम के नहीं वरना अल्लाह ताला की खिदमत में सबसे
पहला नाम मैं लिखवाता"- यह, यह आसू तेली की आवाज है।
"कल को हमारे बच्चे भी तालीम लेंगे, दीन सीखेंगे, पांच टेम अजान लगेगी। तुम कहो तो तुम्हारे नाम की पट्टी लगा देंगे,और बोलो!"
नाथी इन आवाजों से कुछ नहीं समझ पाई किंतु पंद्रह दिन बाद बाड़े की कूंट पर चलती जेसीबी ने सब समझा दिया। फत्या बाड़े का एक भाग मस्जिद के लिए दे चुका था।
नाथी की काया खन्नाट कर उठी। बोली- "पंचायत में पगड़ी बांधकर तो ढिंकड़चंद और पूंछड़चंद बैठते हैं। फिर मस्जिद की टैम फत्या क्यों याद आया? 'उल्लो हू रे चौधरी आधो बगड़ बुहारतो सारो ही बुहार'!" मुल्लाजी और पंचों ने आंखें तरेरी।
वह जोर-जोर से रोना-चिल्लाना चाहती थी मगर बिरादरी की भीड़ उसे यह हक कतई नहीं दे सकती थी। नाथी चुपचाप टल गई।
दूर किसी पेड़ की छांव तले गिरती सी बोली-" तुम गरीब को खाते हो, तुम्हें राम खाए!"
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फत्या की बूढ़ी बीवी भाग गई। कबाड़ी उठ गई और नाथी कोठरी में आ गई। नाथी को रोटी-कपड़े की कमी नहीं, गांव में जिस दरवाजे खड़ी हो जाए,कुछ न कुछ मिल ही जाता है। पर रोटी ही तो सबकुछ नहीं। फत्तू को बीड़ी बंडल के पैसे कौन दे?
"नाथी भुआ, ओ नाथी भुआ! जीती है या समा गई?"- पोखर ठिठोली करके बोला।
बापकणे! समाये तेरा बाप। नाथी पर मालिक की मेहर है।" वह मच्छर मारते हुए बोली।
"बिना बात की तालियां क्यों बजा रही है?"
"तुम पड़ोसियों का मातम मना रही हूं। कीचड़ भरी नालियों से मच्छरों ने जीना मुहाल कर दिया है।"
"नाथी भुआ तेरा ब्याह करवा दें क्या?"
"चल बापकणा!"- नाथी ठुळिया ठोकती हुई बोली।
"ले भुआ! ताती क्या होती है! सल्या फकीर रंडवा, डालू तेली रंडवा, बाबू कसाई रंडवा, जो पसंद आए उसीको फूफा बना लें।"
इस बार उसने लाठी उठा ली पर उसका चेहरा बता रहा था कि वह शरमा गई है।
मुंह घुमाकर बोली- "मैं तेली, फकीरों के क्यों जाऊं?"
"फकीर तेली क्या बुरे हैं?"
"बुरे न हों पर बिरादरी के तो हों!"
"देख हमारे लिए तुम मुसलमान 'गंगाणी संगाणी' सब एक जैसे।
बातों
बातों में पोखर कोठरी के भीतर आकर चुपके से बोला-"सुन! तेरे बाड़े में मीणों की भैंस बंध गई है। दो आदमी बुलाकर नाट दे वरना हाथ से निकल जायेगा बाड़ा।"
नाथी सब जानते हुए भी चुप है, ‘बल बिना बुध बापड़ी’ होती है। हरफ हिला नहीं कि सुगनी छिड़ी नहीं।
फत्तू को फिर कहीं बाहर जाने की धुन लग गई है। "बुढ़ापे में कहां पड़ता फिरेगा? पेट भरने लायक मजूरी तो गांव में ही मिल जायेगी।"
"मांगतोड़ों की चांटाचूड़ छूटे तब न। जब चैन की रोटी ही न खा सके तो गांव छोड़ना ही बेहतर।" जिस रात फत्तू रफ्फू चक्कर हुआ उसी रात के सन्नाटे में कहीं एक साथ पत्थर गिरने की आवाज हुई। नाथी की कुकर नींद उचट गई। एक दो तीन.. रात भर ट्रैक्टर चलते रहे और पत्थर उलळते रहे। सुबह तक बाड़ा पत्थरों के ढेर से अटा पड़ा। नाथी ढेर पर बैठकर जोर-जोर से अल्डाते हुए छाती कूटने लगी।
"अरे बा
रे! मीणा खायगा रे! गरीब की बोट्या नोच खाई
रे! सुगनड़ी थारो जाय सत्यानाश! मालिक थारा मोट्यार की माटी कर दे! बुरी गार धोळ्या थारी बा'र मेलूं बार!
मोहल्ले भर की भीड़ जमा हो गई।
"हमें तो पहले दिन से मालूम था, इसकी जमीं यही खायेगा। मस्जिद के लिए एक कूंट देने में इसकी जान निकल गई थी। अब रो अपनी मारांड को!" -फकीरनियां खुसफुसा रही थी।
"अकेली औरत गाय होती है। गाय को सताकर पाप ले रहा है धोळ्या। अकेली देखकर सांड बन रहा है।"
एक नया वर्ग अलग राय रख रहा था। दो-चार स्त्रियां नाथी को पुचकार रही थी तो कुछ शुभचिंतक उकसा भी रहे थे।
"गांव इकट्ठा कर। ऐसे तो ये तुझे जीने भी न देंगे। आज तेरे साथ हुआ है, कल हमें कौन छोड़ेगा?"
अब तक जब्त किए बैठी सुगनी का धैर्य धड़ से टूटा।
"डट राण्ड तुझे मैं बताती हूं तिरिया चिरत दिखाना!
वह फुंफाड़ करती हुई दौड़ी ।
"पैसे लेकर तो छाती में दाब लिए, अब चली है लोगों के बीच बापड़ी बनने।"
"अरे बा रे झूठी.. झूठी.. हळाहळ झूठी!" नाथी ने आवेश में आकर पत्थर फेंक दिया।
"ठहर बोदी राण्ड तुझे मैं देखता हूं।"- धोळ्या अपने सिर पर कसे अंगोछे को झटके से उतार फेंककर सोटी उठाने दौड़ा। हिड़के कुत्ते के खाए की तरह वह घर के कोनों को नोचने लगा। आखिर लटाण पर चढ़कर बाप-दादाओं के हाथ की तेल पिलाई डांग निकाली और दोनों हाथों से कंधे के पीछे लहराता हुआ नाथी की और दौड़ा।
"अरे पूतकाटे! तुझे तेरे टाबरों की सोगन जो उसको छुआ। गाय कुत्ता खायेगा अगर आगे बढ़ा।"
क्रोध में धोळे के कानों ने काम करना बन्द कर दिया था मगर भीड़ ने पीछे से डांग छीन ली। वह पागल की तरह नाथी पर झपटा और उसकी लकड़ी से ही धें- धां कूटने लगा।
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"साथ कौन है इसके?"- थानेदार ने गरजकर पूछा।
"हम हैं साब!"- परसू मेहतर बोला।
"तू क्या लगता है?"
"पड़ौसी"
"घर से कौन है?"
"कोई नहीं"
"बिरादरी से ?"
कोई नहीं
"तू क्यों आया?"
"साब मिनख की पीड़ ले आई।"
किसीने नाथी के भानजे को खबर की। वह ‘धरम का धाया’ पाटा पूळी करवाकर
घर ले गया।
"अब यहीं रह, टुकड़ा ही तो चाहिए तुझे, मैं दे दूंगा।"
मगर अगली सुबह लोगों ने उसे कोठरी में देखा। "अपने गांव में मांगकर खाऊं या उघाड़ी घूमूं, कोई कहने वाला नहीं पर ब्याही-सगों में पड़ी रहूं तो भद न हो?"
"घण जितनी चौड़ी और लठ जैसी लंबी है, मांगकर खाते हुए शरम नहीं आती?"
रावळों से रोटियां लेकर लौटती
नाथी को पड़ोसन भूरी ने मेणा मारा।
"जुजमानी भीख कैसे हुई, मेरा हक है। बुआ के टेम से रोटी बंधी है।"
"जुजमानी मुजमानी की टेमें गई! अब यह काम मंगतवाड़े में आता है।"
"तो भाटे फोड़ने कहां जाऊं?"
गांव के बाहर नाडी में सिरकारी काम चल रहा है। दो घंटे जा और कमाई का खा।"
"कागज ही नहीं!"
"कागज मांगे किसने? मेरे साथ चलना, दिन के सौ रूपए खरे!"
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आजकल दिखणादी नाडी में खूब हलचल है, छोटा टेंट लगा है,पानी के ढोल रखे हैं, बच्चों के लिए पालनों तक की व्यवस्था है। दो-चार घंटे शादी विवाह सा माहौल रहता है।
"भला हो सिरकार वालों का जो दुपहरी में तो चौरासी के चक्कर से मुक्ति मिली।"- मंगली खेजड़ी की छांव में मेणिया बिछाती हुई बोली।
"सरपंच के गुण गा जो मंढ में बैठी मटरके कर रही है।"- दूर छांव में चिलम सिलगाता आसू मेट खंखारकर बोला।
मंगली ने छांव में अपनी भायलियों की जगह रोक ली है, अगले घंटे-अध घंटे में नाडी की सभी छायादार खेजड़ियों के नीचे रंग-बिरंगी पीले-पोमचों वाली लुगाइयों का जमावड़ा होगा। कोई ओढ़नी में फूल डालेगी, कोई गोटा जड़ेगी, कोई नाडी के खुले ताल में धान उफनेगी तो कोई बैठकर नाड़े गूंथेगी।
सखी सहेलियों में मन की बाफ निकालेगी तब तक दो-चार घंटे फुर्र हो जायेंगे और उसी के साथ सब लुगाइयां भी फुर्र।
भूरी भुआ के पास कोई काम नहीं या यूं कहें काम के लिए फुरसत ही नहीं। बातों के फटकारों में ही टेम निकल जाता है। एकली जीव है, गाय न बाछी नींद आवे आछी। पर एक दिन भतीजे की बहू ने मुंह मरोड़कर कह दिया -"भुआ जी सींत के रोट खाकर पड़ी रहती हो, कम से कम बकरियों को तो लीला चुंटा लाया करो! बापड़ी जिनावर थोड़ी उल्ली हो जायेगी।"
अगले रोज भुआ सिर पर तगारी रखकर ज्यों ही बाहर निकली, बकरियां आगे हो ली। भुआ क्या कहती? जिसकी खाए बाजरी उसकी बजानी पड़े हाजरी! मगर ये बकरियां भी हिंद निकली। भूरी भुआ को टिकने ही न दे। कभी किसी की बाड़ी कूदे तो कभी किसी का खेत! नींद और बातों में भांगा पड़ गया। अब नाथी ने जीवारी कर दी।
भुआ बातों के बताशे जीमती है और नाथी करती बकरियों की रखवाली। वहां बैठी लुगाइयों की सेवा टहल भी कर देती है। दिन के पांच-दस रुपए किसीको भारी नहीं लगते। वे कौनसे फावड़े चलाकर कमाती हैं।
सींत को चनण घस ले लाल्या
तू ही लगा ले ओरां ने बुला ल्या
नाथी बाई! तुम्हारा सिर कहां से फूटा?
नाथी बाई ! तुम्हारी भौजाई कहां भागी?
नाथी बाई ! तुम्हारे भाई ने घर में किसको डाल रखा है?
नाथी बाई ! तुमको मीणों ने क्यों मारा?
नाथी बाई! नाथी बाई!! नाथी बाई!!!
"तुम्हारी कांव-कांव खतम हो गई तो उस मेट की सुन लो, पांच-पांच सौ रुपए मांग रहा है, कल जेसीबी आएगी।" भूरी भुआ भन्नायी।
"पर बात तो एक ध्यानगी की हुई थी! सौ लुगाइयों से पांच सौ लेगा तो घर में कितने डालेगा?"
"जितना डाले उसकी मर्जी, तुम्हे छूट दी कि नहीं।"
किचकिचाट और शोरशराबा बढ़ा। दल बने। मेट ठगाई कर रहा है पर वे कौन ईमानदार हैं? जहर से जहर दबता है।"
हर खेजड़ी के नीचे हो हल्ला होने लगा कि अचानक गांव की ओर से आती हुई आवाजों ने शोर में खलल डाला।
"नाथी का घर जल रहा है, नाथी का घर जल रहा है..."- सब दौड़े।
नाथी को जैसे जड़ें चल गई। वह धप्प से वहीं बैठ गई। देर बाद उसके कोठरी तक पहुंचने तक आग बुझ चुकी थी। सब को पता था, नाथी को भी पता था, आग कैसे लगी पर कोई कुछ न बोला।
चबूतरे पर पड़ी टूटी खटिया बच गई थी, नाथी ने उसी को दो गज के ओसारे में डाला और पसर गई।
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नाथी ने अब दम साध लिया। घर उदक दिया। उसकी सुबह गोपी चाय वाले की थड़ी पर, दोपहर गांव की चौपाल वाले पीपल तले और रात जलकर काली पड़ी कोठरी के ओसारे में कटती।
एक रोज किसीने उसकी कोठरी के बाहर एक मेले कुचेले आदमी को देखा। दाढ़ी बढ़ी हुई, बाल गुंथे हुए, कपड़े मैल और तेल में चिकट। मोहल्ले के बच्चे दौड़े।
"नाथी बाई! तुम्हारी कोठरी के बाहर एक बावला खड़ा है,आते जातों को पत्थर मार रहा।"
"वही होगा सुगनड़ी का खसम! उसकी बार घालूं!" नाथी हल्की सी आंख उघाड़कर बोली और फिर से सो गई।
सात बहनों के झूलरे और मां बाप, काके-बाबों के बीच पली बढ़ी नाथी अब अनाथ है, यह बात गांव के कुत्ते भी जानते हैं। जिस ओर निकलती है, कुत्तों का झुंड पीछे हो लेता है। नाथी के पास जो लाठी थी वह भी थाने वालों ने रख ली, हड़काए भी तो किससे?।
"अब तू बूढ़ी हो चली और धोळ्या पागल! अब तो थाणे से कागज उठा ले।"- चाय की थड़ी पर बैठे लोग चुटकियां लेते।
"जब तक लाठी नहीं मिलेगी, कागज न उठाउंगी।" सब ठठाकर हंसते।
एक रोज नाथी न चाय की थड़ी पर चाय पीने पहुंची न आई रावळे रोटी लेने। वह ओसारे में ही ठंडी पड़ गई।
"इसके धरम वाले उठाएंगे। मरती-करती का धरम भिष्ट क्यों करना।"
"धरम की होने से क्या हुआ, हमारी बिरादरी की थोड़े थी"-कसाई बोले। फकीर पीछे हट गए, तेली अपनी कब्रें देने से नट गए।
"जब तक जीती रही,मस्जिद के सामने खड़ी होकर गालियां निकालती रही। उसका जनाजा भी इधर से न लाना।"- मुल्लाजी भड़के।
काली कोठरी के बाहर पोखर ने खड्डा खोदा, गांव वालों ने अर्थी बांधी, मुहल्ले की लुगाइयों ने चूनड़ी ओढ़ाई। अर्थी कंधे पर आते ही थंभियों के मुख से निकला- 'राम नाम सत है।'
"अरे अरे क्या करते हो? अल्ला नाम सत बोलो!"
हँसी का जोरदार ठहाका गूंज उठा। रोने के लिए तो कोई था ही नहीं!
नाथी के नाम पर न कबर बनी न चबूतरा। कोठरी की दीवार पर अलबत्ता मदरसे के शरारती बच्चों ने बड़े-बड़े अक्षरों में कोयले से लिख दिया था- 'नाथी का बाड़ा।'
नीलू शेखावत
दिमाग भन्ना देनेवाली कहानी! मैंने इस भाषिक अंदाज की राजस्थानी पृष्ठभूमि वाली कोई कहानी नहीं पढ़ी। इतनी उद्दाम जिजीविषा वाली नाथी की सारी जीवटता अंत में इस तरह अकारथ हो उठना देर तक टीसता रहेगा। कहानी की भाषा खासतौर से ध्यान खींचती है। लेखिका की प्रतिभा विस्मित करती है।
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