शोध आलेख : भारतेन्दु मण्डल के नाटककार राधाकृष्णदास और उनके सामाजिक नाटक / अमित कुमार

भारतेन्दु मण्डल के नाटककार राधाकृष्णदास और उनके सामाजिक नाटक 
अमित कुमार

शोध-सार : राधाकृष्णदास भारतेन्दु मण्डल के प्रमुख नाटककार, कवि, निबन्धकार और जीवन-चरित लेखक हैं। उनके नाटक प्रौढ़ तथा नवीन शैली में लिखे गए हैं वह अपने नाटकों में अपने समय के तत्कालीन सन्दर्भों को उठाते हैं। प्रस्तुत शोध पत्र में राधाकृष्णदास के सामाजिक नाटकों 'दुःखिनी बाला' और 'धर्मालाप' की चर्चा की गई है।दुःखिनी बाला नाटक की रचना स्त्रियों की समस्याओं, जैसे बालविवाह, जन्मपत्री देखकर विवाह, विधवा विवाह, विधवा व्यभिचार, अनमेल विवाह, स्त्री शिक्षा इत्यादि को केन्द्र में रखकर की गई है, साथ ही परम्परावादी, रूढ़िवादीब्राह्मणवादी और पितृसत्तात्मक समाज पर तीखा व्यंग्य है। लेखक का मुख्य उद्देश्य लोगों में समाज सुधार की भावना को जाग्रत करना है, जिससे स्त्रियों की दशा में सुधार हो सके। जबकि धर्मालाप में धर्मों और मतों में होनेवाले आपसी मतभेदों और झगड़ों का चित्रण किया है। साथ ही उनमें व्याप्त पाखण्ड, मिथ्याचार और कुरीतियों से समाज पर क्या प्रभाव पड़ रहा था; उसको दर्शाया गया है। 'धर्मालाप' नाटक धर्म के नाम पर राग अलापने वालों पर तीखा व्यंग्य है।

बीज शब्द : बालविवाह, विधवा विवाह, स्त्रीमुक्ति-प्रश्न, जन्मपत्री, लग्न, स्त्रीदुर्दशा, धर्मालाप, साम्प्रदायिक प्रतिरोध, साम्प्रदायिक अखण्डता, सनातन

मूल आलेख :

प्रस्तावना : राधाकृष्णदास हिन्दी साहित्य की अमूल्य निधि हैं, हिन्दी भाषा और साहित्य में उनकी सेवाओं को भुलाया नहीं जा सकता। राधाकृष्णदास भारतेन्दु मण्डल के प्रमुख नाटककार, कवि, निबन्धकार और जीवन-चरित लेखक हैं। हिन्दी नाट्य-आलोचकों से इनके नाटक अछूते रहे हैं तथा इनके नाटकों की आलोचना, समीक्षा देखने को नहीं मिलती है, क्योंकि इनके नाटकों की चर्चा विशेषरूप से आलोचकों ने नहीं की। इन्होंने मुख्यत: पाँच नाटक लिखे, जो क्रमश: ‘दुःखिनी बाला (संवत् 1937)’, ‘महारानी पद्मावती (संवत् 1939)’, ‘धर्मालाप (संवत् 1942)’, ‘महाराणा प्रताप सिंह (संवत् 1954)’ औरसतीप्रताप’ (भारतेन्दु हरिश्चन्द्र जी का अधूरा नाटक) हैं, जिसमें उनकेदुःखिनी बालाऔरधर्मालापसामाजिक समस्या प्रधान तथामहारानी पद्मावतीऔरमहाराणा प्रताप सिंहऐतिहासिक नाटक हैं।सतीप्रतापएक पौराणिक कथा पर आधारित नाटक है, जिसे भारतेन्दु जी के मरणोपरान्त राधाकृष्णदास जी ने पूरा किया। राधाकृष्णदास के सन्दर्भ में श्यामसुन्दर दास जी लिखते हैं- "गत ईसवीं शताब्दी के अन्तिम अंश में हिन्दी साहित्य सेवियों में बाबू राधाकृष्णदास का एक विशेष स्थान था। उन्होंने हिन्दी-भाषा और साहित्य की जो सेवा की वह बड़े महत्त्व की थी। हम यह भी कह सकते हैं कि भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द्र ने जिस नीति का आलम्बन कर देश हितैषी कार्यों की ओर ध्यान दिया था, उनकी उस परम्परा को बनाए रखने और उसी मार्ग पर अन्त समय तक चलने की दृढ़ता बाबू राधाकृष्णदास ने दिखाई थी।"1 राधाकृष्णदास अपने नाटकों में अपने समय के तत्कालीन सन्दर्भों को उठाते हैं। राधाकृष्णदास के नाटकों का मूल कथ्य देशप्रेम, गौरवशाली इतिहास का चित्रण, तत्कालीन सामाजिक स्थिति का चित्रण, एकता की भावना, देशहित, अँगरेजी राज्य की पहचान, स्त्रियों की दशा का चित्रण, विधवा विवाह की समस्याएँ, बाल विवाह, देश की अखण्डता, देश की दुर्दशा, स्वतन्त्रता संग्राम के लिए जनता का आह्वान, समाजसुधार की भावना इत्यादि हैं। अब इनके सामाजिक नाटकों में प्रस्तुत सन्दर्भों की चर्चा करेंगे। 

दुःखिनी बालाएक दुखान्त नाटक -

दुःखिनी बालाराधाकृष्णदास का पहला नाटक है। यह नाटक राधाकृष्णदास जी ने बालविवाह, जन्मपत्री देखकर विवाह और विधवा-विवाह होना जैसी सामाजिक कुरीतियों को केन्द्र में रखकर लिखा है। साथ ही इस नाटक में  स्त्री मुक्ति के प्रश्नों को भी उठाया है। 1857 की क्रान्ति के बाद स्त्री-शिक्षा, बालविवाह का विरोध, सती प्रथा का विरोध, विधवा विवाह और स्त्री-स्वातन्त्र्य के विषय पर भारतेन्दु मण्डल के लेखकों ने बहुत लिखा। जो हिन्दी प्रदेश के नवजागरण का परिणाम था। फलस्वरूप उस समय स्त्री-विमर्श जैसी बातों पर चर्चा हो रही थी। यह नाटक संवत् 1937 (सन् 1880) में पहले 'विधवा विवाह' के नाम से 'हरिश्चन्द्र चन्द्रिका' में छपा था, बाद में इसका नाम 'दुःखिनी बाला' रखा गया। इस नाटक में कुल छः दृश्य हैं। हिन्दी का प्रारम्भिक नाटक होने के कारण इस नाटक को अंकों में विभक्त नहीं किया गया है तथा राधाकृष्णदास ने इसेरूपककी संज्ञा दी है। इस नाटक को लिखने का प्रमुख उद्देश्य लेखक सूत्रधार के माध्यम से नाटक में प्रस्तुत करता है, जैसे "सूत्रधारआज यह सभ्य जनों का समाज यहाँ एकत्र हुआ है। हमको इसमें अपने देश की बुराइयों को दिखलाना अवश्य है। आशाप्रद है कि हमारे दर्शक जन इसे देखकर इन बुराइयों को सुधारने में तत्पर होंगे, जिससे मेरा उत्साह भंग हो।"2 इस नाटक को लिखने के मुख्य उद्देश्य देश की सामाजिक बुराइयों को बताना और उनको लोगों के द्वारा सुधार करने की अपेक्षा रखना है। लेखक में समाजसुधार की भावना प्रबल है। इस नाटक के माध्यम से होनेवाले बालविवाह, विधवाविवाह करने से होनेवाले दुष्परिणामों को दिखाया है। साथ ही भारतीय समाज के परम्परावादी पितृसत्तात्मक लोगों पर व्यंग्य किया गया है और उनके द्वारा लिए गए निर्णयों के दुष्परिणामों को राधाकृष्णदास ने इस नाटक में बखूबी दिखाया है। इस नाटक के प्रमुख पात्र सरला, मोहिनी, गोवर्धनदास, मुनीबजी, मुहम्मदअली, बलदेवदास, लल्लू इत्यादि हैं। सरला इस नाटक की नायिका है, जिसके माध्यम से नाटक की कथा का विस्तार मिलता है। नाटक के अन्त में सरला की समस्याओं का हल मिलने के कारण, वह विष खाकर अपने प्राण दे देती है। इस तरह से नाटक का दुखान्त अन्त होता है। इसलिए यह एक दुखान्त (ट्रेजडी) नाटक है। दुखान्त नाटकों की शुरुआत भारतेन्दु युग से ही हो गई थी। डॉ. शान्ति मलिक दुःखिनी बाला नाटक के विषय में लिखते हैं-“दुःखिनी बाला सामाजिक नाटक है सारी कृति में बालविधवाओं की कारुणिक स्थिति पर आँसू बहाए गए हैं।3 सरला के माध्यम से इस नाटक के विविध प्रसंग उभरकर आते हैं, जो समाज में आज भी प्रासंगिक हैं। यह नाटक स्त्री-विमर्श के सन्दर्भों को खोलता हुआ, पुरुष वर्चस्व को सीधा चुनौती देता है।  

नाटक में अभिव्यक्त स्त्रीदुर्दशा के कारणबालविवाह, जन्मपत्री और अन्य सामाजिक दोष - 

बालविवाह भारतीय समाज का वह दोष है, जो वर्तमान समय में भी बना हुआ है। आज भी ग्रामीण क्षेत्रों में बालविवाह हो जाते हैं। जब राधाकृष्णदास जी इस नाटक को लिख रहे थे, तब अँगरेजी शासन और भारतीय सामाजिक ढाँचा बड़ा ही संकीर्ण था। सरला अभी सात वर्ष की है। उसके विवाह किए जाने की बात हो रही है-“हमारी लड़की 7 वर्ष की हो चुकी। शास्त्र में 7 वर्ष की लड़की का कन्यादान देना बड़ा पुण्य है…..4 बाल्यकाल में विवाह होने के कारण सरला उनके दुष्परिणामों को अन्त तक भोगती है। विवाह के बाद में सरला का पति उसपर तरह-तरह के प्रतिबन्ध लगाता है, उसे पढ़ाई करने और शुद्ध ढंग से बोलने पर खरी-खोटी सुनाता है। मारपीट करने की धमकी देता है। कुछ दिनों के बाद सरला के पति की मृत्यु हो जाती है जिससे वह बचपन में ही विधवा हो जाती है, कम उम्र के वैधव्य जीवन में स्त्रियों की जो दुर्दशा होती है वह समाज के लिए गहरा कलंक है, कहीं-कहीं स्त्रियों को सती होने पर मजबूर कर दिया जाता था। सरला भी जैसे-जैसे अपने यौवन को प्राप्त करती है, वैसे ही उसकी शारीरिक जरूरते बढ़ती हैं और वह व्यभिचार की ओर आकर्षित होकर गर्भवती हो जाती है, वैधव्य जीवन में गर्भवती होना सामाजिक दोष माना जाता है, जिसके भय से वह विष खाकर अपनी जान ले लेती है ताकि लोक-परिहास और सामाजिक निन्दा सहनी पड़े। इस तरह से सरला के माध्यम से बालविवाह को एक सामाजिक दोष बताया है और जो लोग बालविवाह होने के उत्तरदायी हैं, ऐसे  परम्परावादी, रूढ़िवादी ब्राह्मणों को सरला के माध्यम से लेखक बहुत कुछ सुनाते नजर आते हैं। जैसे- "हा! हमारा रोम-रोम ब्राह्मणों को श्राप देता है। हा! जो विपत्ति हमारे ऊपर पड़ी, किसी पर  पड़ी होगी। इसी जन्मपत्री ने हमारा विवाह उस कुरूप मूर्ख लड़के से कराया, अन्त में अब जन्मपत्री क्या हुई, मैं क्यों विधवा हुईवे पण्डित लोग कहाँ गए, जिन्होंने जन्मपत्री देखी थी .......5

इस नाटक में सरला के विवाह के लिए दो लड़कों का प्रस्ताव आता है। पहला चौदह वर्षीय लड़का जो अँगरेजी पढ़ा लिखा है; सुन्दर-सुशील है परन्तु उसकी जन्मपत्री सरला की जन्मपत्री से नहीं मिलती, दूसरा छः वर्ष का लड़का है, जिसका रंग काला, आँख से कानाकुरूप, हठी, मूर्ख, अनपढ़ है, परन्तु उसकी जन्मपत्री सरला की जन्मपत्री से मिल जाती है। इसलिए सरला का विवाह उस छः वर्ष के लड़के से हो जाता है। उन दोनों के विवाह का कारण केवल जन्मपत्री ही है। राधाकृष्णदास जन्मपत्री देखकर विवाह करने को एक बड़ा दोष मानते हैं। जन्मपत्री पर निर्भर होकर अपने बच्चों का विवाह करना, अन्धकूप में डालने के समान है। इसलिए समाजसुधार की भावना से वह इस व्यवस्था को बनानेवाले लोगों पर व्यंग्य करते हैं-"ब्राह्मणों ने खाने का यह भी एक ढंग निकाला है क्योंकि वेद पुराण शास्त्र किसी में जन्मपत्री  देखकर विवाह करना नहीं लिखा है"6 सरला के पिता गोवर्धनदास को भय सताता है कि कहीं जन्मपत्री देखकर विवाह किया, तो उसकी बेटी के साथ कुछ गलत हो जाए। कहीं वह विधवा हो जाए इसलिए जिस छः वर्ष के बालक; जिसके साथ जन्मपत्री मिल रही होती है उसी से विवाह कर दिया जाता है। जबकि गोवर्धनदास के मित्र बलदेव उसे समझाते हुए कहते हैं कि,"जिनका विवाह जन्मपत्री दिखाकर होता है वे क्यों विधवा होती हैं? क्यों उनको सन्तान नहीं होती? क्यों उनको शारीरिक और मानसिक सुख नहीं मिलता? क्यों उनमें आपस में लड़ाईयाँ होती रहती हैं? निदान यह कि जन्मपत्री दिखाने से कुछ लाभ नहीं होता।"7

भारतीय समाज में लग्न देखना, अर्थात शुभ मुहूर्त देखने की परम्परा आज भी विद्यमान है। बिना लग्न (शुभ मुहूर्त या शुभ दिन) देखे विवाह नहीं किया जाता। इसे भी राधाकृष्णदास एक सामाजिक दोष मानते हैं। यह परम्परा देशभर में अपनाई जाती है, चाहें वह पढ़े लिखों का ही समाज क्यों हो अथवा चाहें गवारों का समाज। इस दोष को सुधारने के लिए वह कहते हैं-"एक ही लग्न एक ही मुहूर्त में सैकड़ों लड़के होते हैं उनमें से कोई राजाधिराज हो जाता है, कोई भीख ही माँगता रहता है तो फिर जन्मपत्रों का क्या फल हुआ, "सब धान बाइस पसेरी।"8

पुत्रोत्पत्ति पर व्यर्थ का व्यय -

नाटक में राधाकृष्णदास जी ने पुत्र के पैदा होने की ख़ुशी में फ़िजूल खर्च को भी दर्शाया है। भारतीय समाज में यह सब सदियों से चला रहा है और आगे भी चलता रहेगा। आज के समय में व्यक्ति सन्तान प्राप्ति के बाद बड़ी-बड़ी दावतें (पार्टियाँ) रखता है। यदि वह ऐसा नहीं  करता है तो समाज में उसकी कोई प्रतिष्ठा नहीं मानी जाती और दिखावे तथा प्रतिष्ठा के लिए वह व्यर्थ में धन का व्यय करता है। राधाकृष्णदास गोवर्धनदास के माध्यम से उसका चित्रण करते हैं जैसे- गोवर्धनदास के घर लड़का पैदा होनेवाला है और मुनीबजी गोवर्धनदास से धूम मचाने के लिए कहता है तब गोवर्धनदास कहता है-"अच्छा तो सब तैयारी कर रखो। 21 भाँत की मिठाई होय और नौबतखाना जरूर बजे और 7 तायफा रण्डी, दो गोल भाँड़ की और भी सब  बात ऐसी होय कि आज तक किसी ने किया होय।"9 

नवीन शिक्षा का विरोध - 

इस नाटक में अँगरेजी पढ़ने का तात्पर्य नवीन शिक्षा पद्धति से ही है, जिसको पढ़ने से लोगों में थोड़ी-बहुत नवीन चेतना जाग्रत हो रही थी। भारतीय परम्परावादी लोग उस शिक्षा का खण्डन कर रहे थे। राधाकृष्णदास जी ऐसे ब्राह्मणवादी, परम्परावादी, भाग्यवादी, रूढ़िवादी लोगों को तीखी बातें सुनाते हैं और देश की दुर्गति का कारण इन्हीं लोगों को मानते हैं। वह बलदेव के माध्यम से कहते हैं-"हा! इन्हीं मूर्खों ने देश को चौपट कर रखा है निसन्देह ईश्वर का पूर्ण क्रोध इसी देश पर है जिससे यहाँ के लोगों की ऐसे बुद्धि हो रही है।"10 नवीन शिक्षा पद्धति के प्रति राधाकृष्णदास जी सजग थे। इसलिए अँगरेजी शिक्षा पर बल देते हैं। साथ ही स्त्रियों की शिक्षा पर भी बल देते हैं।

स्त्री मुक्ति के प्रश्न –

भारतीय समाज का पारिवारिक ढाँचा प्रारम्भ से अब तक पितृसत्तात्मक रहा है। इस पितृसत्तात्मक समाज में पुरुषों का वर्चस्व अधिक और स्त्रियों का के बराबर है। यदि आज से लगभग 25 साल पीछे चले जाएँ, तो स्त्रियों की दशा देश में कुछ अच्छी नहीं थी, जिसका सबसे बड़ा कारण पुरुष मानस की विकृत सोच थी। पुरुषों ने स्त्रियों पर इतने प्रतिबन्ध लगा दिए थे कि वह अपने हक के लिए कुछ कह नहीं पाती थी। लेकिन धीरे-धीरे सामाजिक ढाँचे बदले और स्त्री मुक्ति के प्रश्न उठने लगे। इसकी शुरुआत उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध समय में हो गई थी। जब "1848 . में कुछ प्रखर महिलाओं ने बाकायदा एक सम्मेलन करके नारी मुक्ति से सम्बन्धित एक वैचारिक घोषणापत्र जारी किया। इन महिलाओं में एलिजाबेथ कैण्डी, स्टैण्टन, लुक्रेसिया काफिनमोर प्रमुख हैं इस सम्मेलन में यह निर्णय किया गया कि पत्नी को सम्पूर्ण और बराबर के कानूनी हक दिए जाएँ। उसे पढ़ने का मौका, बराबर मजदूरी और वोट देने का अधिकार इत्यादि क्रान्तिकारी माँगे पारित की गई।"11

भारत में स्त्री मुक्ति आन्दोलन की जड़ें उन्नीसवीं शताब्दी से ही देखी जा सकती हैं। इस आन्दोलन में पण्डित रमाबाई और सावित्रीबाई फुले की महान भूमिका रही है और भारतेन्दु युगीन साहित्यकार, विचारकों एवं भारतेन्दु मण्डल के नाटककारों ने स्त्री शिक्षा, स्त्री मुक्ति, स्त्रियों को समान अधिकार, विधवा पुनर्विवाह किए जाने पर जोर दिया और समाजसुधार की भावना को जाग्रत करते हुए बालविवाह, बहुविवाहसतीप्रथा का खण्डन किया। राधाकृष्णदास जी भी दुःखिनी बाला नाटक में स्त्री-मुक्ति के प्रश्नों को उठाते हैं और अपने समय में व्याप्त पितृसत्तात्मक सोचवालों पर प्रश्न चिन्ह लगाते हैं। इस नाटक के मुख्य उद्देश्य स्त्री के प्रति सहानुभूति ही नहीं है अपितु समाज के ढाँचे में परिवर्तन लाना है। राधाकृष्णदास जी पर स्त्री मुक्ति आन्दोलन का भी प्रभाव है, जिसे उन्होंने बँगाल के विचारकों से लिया। इस नाटक का चौथा दृश्य स्त्री मुक्ति की दृष्टि से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। सरला शादी के बाद भी पढ़ना चाहती है, परन्तु उसका पति लल्लू उसे पढ़ने-लिखने से रोकता है और सरला जब सभ्य भाषा में बात करती है तो उस पर भी प्रतिबन्ध लगाता है। बोलने पर उसका पति कहता है-"फिर बके जाथी हम करी सो का करी? अरे कहे जाइथै कि पढ़ै लिखे का कूछ नाही है अपने लोग जैसे बोलति चालित हैं वैसा बोला कर। संसकीरित छाँटथो, घर बहैयें अपने यार के चिट्ठी लिखिहें।"12 सरला इन बातों को सुनकर गुस्से में लल्लू से कहती है-"मैं पढ़ना लिखना छोड़ सकती हूँ पर बोली नहीं बदल सकती जो चाहे सो हो।"13 लल्लू उसे मारने-पीटने की धमकी देकर चला जाता है। यह भारतीय सामाजिक ढाँचा है जहाँ स्त्रियों को आज भी ऐसा ही समझा जाता है। भारत जैसे पितृसत्तात्मक देश में पुरुष वर्चस्ववादी समाज में आज भी औरतें हीन समझी जाती हैं। घर में अपमान और शोषण का शिकार बनती हैं। ऐसे में सरला जैसी स्त्रियाँ भारत के हत भाग्य पर केवल विलाप ही करती हैं। अपने माता-पिता को कोसती हैं, देश में ऐसी व्यवस्था बनानेवालों को उनका पालन करनेवालों को और तथाकथित पालन करानेवालों को श्राप देती हैं। सरला के माध्यम से यह दर्द व्यक्त होता है-“हाय! हमारी यह दशा क्यों हुई? जन्मपत्र और बालविवाह से! यदि जन्मपत्र होता तो क्यों ऐसे मूर्ख से मेरा विवाह होता? यदि बाल्यविवाह होता तो क्यों मैं स्वयं अपनी भलाई-बुराई को समझकर अपनी इच्छानुसार पति करती? मुझको उस समय कौन रोक सकता था?”14 

विधवा पुनर्विवाह- समाजसुधारक की दृष्टि -

भारतीय समाज में कहीं--कहीं विधवा पुनर्विवाह को लेकर आज भी प्रश्न चिन्ह उठाए जाते हैं। राधाकृष्णदास जी के समय में समाज में विधवा विवाह करना एक अभिशाप माना जाता था। इसको लेकर बड़े-बड़े विचारकों ने अभियान चलाए, जिसमें हेनरी लुईस, राजा राममोहन राय, ईश्वरचन्द्र विद्यासागर, भारतेन्दु हरिश्चन्द्र इत्यादि आते हैं। हेनरी लुईस 'हिन्दू विधवा' लेख में विधवाओं की स्थिति का चित्रण करते हुए लिखते है-"सतीप्रथा, दु: का ही एक तरह से तमाशा है जो तमाशबीनों को अन्ततः अन्धविश्वासों और पुरोहितों के नानाविधि कर्मकाण्डों के शरणागत होने के लिए बाध्य करता है। धर्म के ये तथाकथित ठेकेदार इन बेचारी विधवाओं को स्वर्ग में स्थान और करोड़ों वर्ष की काल्पनिक खुशी का झाँसा देकर, इस अमानवीय कृत्य के लिए उत्प्रेरित करते हैं।.......वे विधवाएँ जो सती होने से इनकार करती हैं, उनमें इस तथाकथित अबाधित जीवन का वास्तविक चेहरा क्या है?....घरेलू माहौल में उनका स्थान नितान्त अपमानजनक और निकृष्ट होता है। उन्हें उतने से ज्यादा भोजन अभी नहीं दिया जाता, जिससे महज उसका जीवन रक्षण हो सके। उन्हें नंगी धरती पर ही सोना पड़ता और परिवार के कनिष्ठतम व्यक्ति का रुतबा भी उससे ऊपर का होता।"15 ईश्वरचन्द्र विद्यासागर विधवाओं का विवाह होना चाहिए, इसके समर्थन में लिखते हैं-"विधवा विवाह की प्रथा प्रचलित होने के कारण जो अनिष्ट हो रहा है। वह सभी को मालूम है। बहुत से लोग अपनी-अपनी विधवा कन्या का पुनर्विवाह कर देने के इच्छुक हैं। बहुत से लोग यह कदम उठाने का साहस नहीं रखते, लेकिन यह मानते हैं कि इस प्रथा का प्रचलित होना आवश्यक है।"16 ठीक ऐसी स्थित इस नाटक के पात्रों की है, जिसमें सरला विधवा विवाह का समर्थन करती है तो कभी उसको स्वीकार नहीं करती। स्त्रियों के विधवा होने के कारण सती प्रथा का प्रचलन हुआ। राधाकृष्णदास जी ईश्वरचन्द्र विद्यासागर से विधवा विवाह को लेकर  पूर्णतः प्रेरित, प्रभावित और आन्दोलित नज़र आते हैं, इसलिए नाटक में इनका नाम इज्ज़त के साथ उद्धृत भी करते हैं-

"हा! विधवा विवाह में इन लोगों ने मालूम क्या दोष निकला है? यह तो वेद पुराण सब में लिखा है कि विधवा विवाह करना चाहिए। देखिए पण्डित ईश्वरचन्द्र विद्यासागर ने क्या निर्णय किया...."17

राधाकृष्णदास जानते थे कि विधवाओं की स्थिति देश में कुछ अच्छी थी। वे व्यभिचार की ओर आकर्षित होतीं, दु: उठातीं, उनकी स्थिति का कारण कहीं--कहीं धर्मशास्त्र, पुराणपुरुषवादी, ब्राह्मणवादी और परम्परावादी संकीर्ण सोच थी। सतीप्रथा, बालविवाह, जन्मपत्री, लग्न आदि को देखकर विवाह करना, कहीं--कहीं इन परम्परावादियों की सोच का नतीजा है। इस नाटक के सन्दर्भ में डॉ. सोमनाथ गुप्ता अपनी पुस्तकहिन्दी नाटक साहित्य का इतिहासमें लिखते हैं-"ब्राह्मण और परम्परा के अन्धानुयायियों के कारण समाज में कुरीतियाँ फैली हुई थीं उन्हीं के विरोध में उठनेवाली ध्वनि का नाटकीय प्रदर्शन है।"18 राधाकृष्णदास का मानना है कि देश में व्याप्त कुप्रथाओं, पाखण्डों और कुरीतियों को नष्ट होना चाहिए, जिससे देश की स्त्रियों की दशा में सुधार हो सके और देश की स्वतन्त्रता में स्त्रियाँ बढ़चढ़कर भागीदार बनें। भारतीय समाज को स्वच्छ, सुन्दर बनाने के लिए स्त्री-पुरुष में समानता लानी होगी, स्त्रियों को भी समान दर्जा देना पड़ेगा। इसके लिए शिक्षा और जागरुकता बहुत ही जरूरी है। ताकि भारतीय स्त्रियों का अन्त इस नाटक की तरह दुखान्त हो। स्त्री पराधीनता से मुक्त होगी, तभी देश पराधीनता से मुक्त होगा। ऐसी कामना करते हुए राधाकृष्णदास लिखते हैं-


तजि मूर्खता उन्नति करहि निज देश में शुभ गति रहै।
समुचित विवाह प्रथा रहीं कुलनारिगण आनन्द लहै।
फैले सुविद्या देश में गृह कलह मिथ्यालास बहै।
यह दासपन आधीनता तुब कृपा ते छिन मैं दहै।"19 

धर्मालाप-साम्प्रदायिक प्रतिरोध -

राधाकृष्णदास का धर्मालाप दूसरा सामाजिक नाटक है। इस नाटक के सन्दर्भ में ब्रजरत्न दास जी लिखते हैं-"धर्मालाप में भारत के प्राचीन सनातन धर्म तथा अन्य धर्मों के माननेवालों के, नई पुरानी रोशनी के, आपस में कथोपकथन हैं, जो संवत् 1942 में लिखा गया था। पहिले यह 'धर्मामृत पत्र' में छपा और बाद को पुस्तकाकार निकाला। इसमें भारतेन्दु जी के पद अधिकतर लिए गए हैं।"20 यह नाटक संवाद मात्र है, जिसमें तत्कालीन समाज की विचारधाराओं का प्रतिरोध देखने को मिलता है अथवा यह कहें कि सभी मतानुयायी अपनी डुगडुगी बजाते हैं। इस नाटक के सन्दर्भ में दशरथ ओझा लिखते हैं-"धर्मालाप में केवल संवाद चमत्कार है। वार्तालाप द्वारा सनातनी, वेदान्ती, वैरागी, शैव, कौल, वैष्णव, आर्य-समाजी, ब्रह्मसमाजी और थियासोफिस्टों के गुण-दोष दिखाए गए हैं।"21 इस नाटक में राधाकृष्णदास ने भारतीय समाज में व्याप्त विविध मतों, उनके मिथ्याचारों, पाखण्ड, कुरीतियों का पर्दाफाश किया है। कैसे भारतीय समाज को ये विचारधाराएँ और सम्प्रदाय प्रभावित कर रहे थे, इसका अच्छा उदाहरण इस नाटक में देखने को मिलता है।

 भारत एक विविधता में एकतावाला देश है। यहाँ अनेक धर्म आए और आकर यहीं के हो गए, जिससे भारतीय संस्कृति का निर्माण हुआ। उन धर्मों के विचारों को भारतीय जनता ने ग्रहण किया, उसके अनुयायी बने और उनको अपने जीवन में धारण किया, चाहे वह सनातन धर्म हो, चाहे वह ईसाई, मुस्लिम, शैव, जैन और बौद्ध इत्यादि। जब इन धर्मों और विचारधाराओं में संकीर्णता आने लगी, तब पाखण्ड, अन्धविश्वास, ढोंग, खोखली मान्यताएँ, रूढ़ियाँ, कुरीतियों ने जन्म लेना शुरू कर दिया। इन धर्मों और मतों सम्प्रदायों में परस्पर विरोध का भाव गया, जिससे भारतीय संस्कृति को भारी नुकसान उठाना पड़ा। राधाकृष्णदास के इस नाटक पर भारतेन्दु हरिश्चन्द्र जी का प्रभाव साफ-साफ दिखाई पड़ता है। भारतेन्दु ने 'वैदिक हिंसा हिंसा भवति' नाटक लिखा, जिसका कथ्य धर्मालाप जैसा ही है। जहाँ शैव, वेदान्ती, पुरोहित, बँगाली, वैष्णव इत्यादि पात्र आते हैं, जिनका आपस में प्रतिरोध देखने को मिलता है।  ठीक इस नाटक में भी इन सम्प्रदायों के मत का पालन करनेवालों का आपसी प्रतिरोध मिलता है। प्रत्येक अनुयायी अपने को श्रेष्ठ समझता है पण्डित लोग अपने शास्त्रों को कामधेनु मानते हैं और लोगों के जीवन का शुभ-अशुभ मुक्त करने का उपाय धर्म शास्त्रों में ढूँढते हैं। वह अपना पेट पालने के लिए पाँच पैसे में भी गोदान करवाते हैं और अपने धर्म के लिए एक दूसरे से झगड़ते भी हैं। वेदान्ती ब्रह्म को पहचानने का दावा करते और संसार को मिथ्या जाल से छुड़वाते हैं। वैष्णवों ने प्रसाद बटवाया, शैव लोग पूजा-पाठ करते हैं और शिव जी पर जल चढ़ाने के अलावा वैष्णवों को लाखों गालियाँ देते हैं और समय आने पर वैष्णवों का सिर काटने के लिए भी तैयार रहते हैं। शाक्य लोग तन्त्र-मन्त्र और चण्डीपाठ में व्यस्त रहते हैं। वैष्णव और कौल अपने-अपने में मस्त हैं। वैष्णवों में गुरु की सेवा को महत्त्व देते हैं। इस तरह सभी मत अपने-अपने मतों में व्यस्त रहते हैं। यदि देश की संस्कृति को मजबूत और अखण्ड बनाना है तो सभी को एक होना पड़ेगा लेकिन नहीं, उन्हें अपने-अपने मतों से मतलब है इसलिए राधाकृष्णदास जी इन मतों के आपसी झगड़ों के बारे में कहते हैं-

 

"भए सब मत वारे मतवारे
अपुनो अपुनो मत है लै लै सब झगरत जो भटियारे।
कोउ कछु कहत ताहि कोइ दूजो खण्डत निज हठधारे
आपुस में पहले सब मिलि निश्चयै करि होई न्यारे।"22

बाबू साहब, साव जी और लाला इत्यादि के माध्यम से इन मतों का समाज पर क्या प्रभाव पड़ रहा है? उसका वर्णन राधाकृष्णदास जी करते हैं। जैसे- मारवाड़ी बिना पुरोहित की आज्ञा से कोई काम नहीं करता, साव जी रोज गंगा में नहाने जाते हैं और घाट पर रहने वाले को एक पैसा देते हैं, और एकादशी के दिन एक ब्राह्मण को दान-पुण्य करते हैं। इन झगड़ों के कारण लोग धर्म परिवर्तन की ओर आकर्षित हो रहे हैं  ऐसे में तत्कालीन समाज में हो रहे धर्म परिवर्तन पर राधाकृष्णदास लिखते हैं-

 

"लोग क्रिस्तान भए जाथै बनथै साहेब कैसा
अब युग धरम गंगा नहाना कैसा।"23

जो लोग ईसाई हो गए हैं। उन्हें भारतीय धर्म से कोई लेना-देना नहीं था, ही सनातनियों, शैवों, वैष्णवों, वेदान्तियों की तरह धर्म का पालन करना पड़ता था। ऐसी स्थिति में उनके आलस्य-जीवन को सन्दर्भित करते हुए कहते हैं-

 

"सिजदे में गर विहसत मिलै दूर कीजिए
दोजख ही सही सिर का हिलाना नहीं अच्छा 
धोती भी पहिने जब कोई गैर पिन्हा दे
उम्रा को हाथ पैर हिलाना नहीं अच्छा।"24 

साम्प्रदायिक अखण्डता -

राधाकृष्णदास तत्कालीन स्थितियों को समझ रहे थे। वह जान रहे थे, कि पुराने धर्ममत अब टूट रहे हैं और देश में नई-नई विचारधारावाले मत और सम्प्रदाय बन रहे हैं। इसका प्रमुख कारण यूरोपीय और भारतीय संस्कृति की टकराहट थी। आर्यसमाज, ब्रह्मसमाज, प्रार्थनासमाज, थियोसोफिकल समाज, भारतीय ईसाई और नास्तिकों का समाज इत्यादि मतों का जन्म हुआ। फलस्वरूप उनके विचारों में टकराहट होना स्वाभाविक था। जहाँ दयानन्दी लोग मूर्ति पूजा और कंठीमाला का खण्डन कर रहे थे। वहीं ब्रह्मसमाज के लोग आपसी भाईचारा को बढ़ावा दे रहे थे। थियोसोफिकल लोग संसार को योगी बनाना चाह रहे थे और नई दुनिया के लोग ' यु ओल्ड फूल्स' कहकर पुरानी दुनिया के लोगों का मजाक उड़ाते हैं और अपने मत स्थापित करने के लिए कहते हैं-"या संसार असार के चार वस्तु है सार, जुआ मदिरा मांस अरु नारी संग बिहार।"25  ईसाई लोग मानते हैं कि जिस दिन ईसा पर विश्वास करोगे, उस दिन से देश की तरक्की होगी। वहीं नास्तिकों का अपना मत है कि जिस दिन लोग ईश्वर का भ्रम छोड़ देंगे, उसी दिन से देश जाग्रत हो जायेगा। इस तरह सभी मतवाले अपनी-अपनी डुगडुगी बजाते हुए अलाप करते नजर आते हैं। अन्त में राधाकृष्णदास जी प्रेम को महत्त्व देते हैं और प्रेम को बड़ा धर्म स्थापित करने का प्रयास करते हैं। सभी मतों को झगड़े करने को कहते हैं-"नाहि इन झगरन में कछु सार, क्यों लरि-लरि कै मरो बावरे बादन फोरि कपार।"26 सभी को अखण्डता बनाए रखने को कहते हुए लिखते हैं-"जाति पाति पूछै नहिं कोई हरि को भजै सो हरिका होई।"27 अन्त में आग्रह करते हुए लिखते हैं-"प्यारे भाइयों, इन सब बखेड़ों में क्या रखा है? शान्त भाव धारण करो, भगवान के श्री चरणों में चित्त लगाओ, देखो सब मंगल ही होगा।"28 नाटक के अन्त में इतना समझाने के बाद भी आपस में लड़ते हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि मतों, धर्मों और सम्प्रदायों का झगड़ा कभी समाप्त होगा। इस नाटक में सनातन धर्म भारतीयता का प्रतीक बनकर आया है। देश विभिन्न मतों, सम्प्रदायों, धर्मों, विचारधाराओं में अभी भी विभक्त है। यदि देश को अखण्ड, विजेता और विकसित देश बनाना है तो हमें इन आपसी झगड़ों को मिटाना होगा, और प्रेमभाव से सभी के साथ चलना होगा। यही इस नाटक को और अधिक प्रासंगिक बना देता है। 

निष्कर्ष : अतः राधाकृष्णदास के नाटकों के अध्ययन, विवेचन और आलोचनात्मक विश्लेषण करने के पश्चात् पता चलता है कि भारतेन्दु युग का सामाजिक ताना-बाना कैसा था। जहाँ एक तरफ समाज में स्त्रियाँ अपने अस्तित्व को बचाने के प्रयास में परम्परावादी और पुरुषसत्ता से टकराकर दम तोड़ रही थीं, स्त्रियों की स्थिति में सुधार हो सके, उनको भी पुरुषों के समान दर्जा मिल सके उसके लिए समाज-सुधारक प्रयास कर रहे थे, जो इस दुखान्त नाटक दुःखिनी बाला में दिखाया गया है। दूसरे नाटक धर्मालाप में तत्कालीन समाज में साम्प्रदायिक टकराहट और विचारधाराओं की उधेड़बुन देखने को मिलती है। प्रत्येक सम्प्रदाय-धर्म और उनके मत, दूसरे धर्म और मतों पर हावी होना चाहते हैं। प्रत्येक धर्म और सम्प्रदाय अपने आपको श्रेष्ठ और दूसरे को हीन समझता है। राधाकृष्णदास के 'धर्मालाप' नाटक को 'लघु से लघुअर्थात् 'अल्प नाटक' की संज्ञा देनी चाहिए, क्योंकि तो यह एकांकी जैसा प्रतीत होता है और ही यह पूर्ण नाटक जैसा, परन्तु नाटक के सारे गुण विद्यमान हैं। दोनों शीघ्र खत्म होनेवाले नाटक हैं। अल्प नाटकों की रचना भारतेन्दु मण्डल के नाटककार ने बहुत की, जिनमें राधाकृष्णदास, राधाचरण गोस्वामी, काशीनाथ खत्री, ठाकुर जगमोहन सिंह इत्यादि हैं।दुःखिनी बाला और धर्मालाप' इन दोनों नाटकों की भाषा आम बोलचाल की भाषा है और ब्रजभाषा की छाप देखने को मिलती है, इन नाटकों की शैली व्यंग्य प्रधान है। इन दोनों नाटकों में भारतीय सामाजिक ढाँचे का रूप देखने को मिलता है। अतः यह दोनों नाटक अपने आप में पूर्ण और शानदार रचनाएँ हैं। 

सन्दर्भ :
1.    श्यामसुन्दर दास (सम्पादक), राधाकृष्ण-ग्रन्थावली खण्ड- 1, इण्डियन प्रेस लिमिटेड प्रकाशन, संस्करण 1930, पृष्ठ 1
2.    वही, पृष्ठ 553
3.    डॉ. शान्ति मलिक, भारतेन्दु युग के नाटकों की शिल्पविधि, नेशनल पब्लिशिंग हाउस, संस्करण 1996, पृष्ठ 111
4.    श्यामसुन्दर दास (सम्पादक), राधाकृष्ण-ग्रन्थावली खण्ड- 1, इण्डियन प्रेस लिमिटेड प्रकाशन, संस्करण 1930, पृष्ठ 555
5.    वही, पृष्ठ 561
6.    वही, पृष्ठ 555
7.    वही, पृष्ठ 555
8.    वही, पृष्ठ 557
9.    वही, पृष्ठ 554
10.  वही, पृष्ठ 558
11.  हेमन्त कुकरेती, हिन्दी साहित्य का इतिहास, किताब घर प्रकाशन, संस्करण 2015,  पृष्ठ 479
12.  श्यामसुन्दर दास (सम्पादक), राधाकृष्ण-ग्रन्थावली खण्ड- 1, इण्डियन प्रेस लिमिटेड प्रकाशन, संस्करण 1930, पृष्ठ 559-60
13.  वही, पृष्ठ 560
14.  वही, पृष्ठ 561
15.  शम्भुनाथ (सम्पादक), सामाजिक क्रान्ति के दस्तावेज, वाणी प्रकाशन, संस्करण 2017, पृष्ठ 86
16.  वही, पृष्ठ 96
17.  श्यामसुन्दर दास (सम्पादक), राधाकृष्ण-ग्रन्थावली खण्ड- 1, इण्डियन प्रेस लिमिटेड प्रकाशन, संस्करण 1930, पृष्ठ 563
18.  सोमनाथ गुप्ता, हिन्दी नाटक साहित्य का इतिहास, हिन्दी भवन प्रकाशन, संस्करण 1951, पृष्ठ 114
19.  श्यामसुन्दर दास (सम्पादक), राधाकृष्ण-ग्रन्थावली खण्ड- 1, इण्डियन प्रेस लिमिटेड प्रकाशन, संस्करण 1930, पृष्ठ 566
20.  ब्रजरत्न दास, हिन्दी नाट्य साहित्य, हिन्दी साहित्य कुटीर प्रकाशन, संस्करण सं. 2001 वि., पृष्ठ 102
21.  डॉ. दशरथ ओझा, हिन्दी नाटक उद्भव और विकास, राजपाल प्रकाशन, संस्करण 2022, पृष्ठ 158
22.  श्यामसुन्दर दास (सम्पादक), राधाकृष्ण-ग्रन्थावली खण्ड- 1, इण्डियन प्रेस लिमिटेड प्रकाशन, संस्करण 1930, पृष्ठ 635
23.  वही, पृष्ठ 636
24.  वही, पृष्ठ 636
25.  वही, पृष्ठ 637
26.  वही, पृष्ठ 638
27.  वही, पृष्ठ 638
28.  वही, पृष्ठ 639

 

अमित कुमार
शोधार्थी, हिन्दी विभाग, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय वाराणसी।
पता- ग्राम राजेपुर साण्डी रोड हरदोई, जिला हरदोईउत्तर प्रदेश


चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक ई-पत्रिका 
  अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-52, अप्रैल-जून, 2024 UGC Care Listed Issue
सम्पादक-द्वय : माणिक-जितेन्द्र यादव चित्रांकन  भीम सिंह (इलाहाबाद विश्वविद्यालय)

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