- डॉ. सियाराम मीणा
शोध सार : झारखंड राज्य आंदोलन में आदिवासियों की राजनीतिक चेतना के स्वर स्पष्ट नज़र आते हैं। आदिवासियों का यह संघर्ष सदियों से चले आ रहे शोषण से मुक्ति पाने के लिए था। विनोद कुमार ने अपने इन दोनों उपन्यासों में झारखंड राज्य आंदोलन के ऐतिहासिक, सांस्कृतिक, आर्थिक एवं राजनीतिक संदर्भों का समावेश किया है।
बीज शब्द : आदिवासी, राजनीतिक, सामाजिक, जन चेतना, पुनर्जागरण, अस्मिता, अस्तित्व, संघर्ष, सृजन
मूल आलेख : उपन्यासकार विनोद कुमार ने ‘समर शेष है’ और ‘रेड ज़ोन’ उपन्यासों के माध्यम से स्वतंत्र भारत में आदिवासियों के द्वारा झारखंड राज्य की माँग को लेकर किये गए संघर्षों को चित्रित किया है। स्वतंत्रता प्राप्ति के साथ ही देश में क्षेत्रीय अस्मिताओं के आधार पर राज्यों के गठन की माँग उठने लग गई थी। जिसमें भाषा और भौगोलिकता के आधार पर अलग राज्यों की माँग तेज़ होने लगी जिसके चलते आंध्रप्रदेश, महाराष्ट्र और गुजरात जैसे प्रान्तों की स्थापना की गई। झारखंड राज्य की माँग इसके ठीक विपरीत थी। अलग झारखंड राज्य की माँग भाषायी आधार पर नहीं होकर आदिवासियों की राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक अस्मिता को लेकर उठ रही थी।
झारखंड राज्य की माँग स्वतंत्रता पूर्व से चली आ रही थी। जिसके बारे में वीर भारत तलवार लिखते हैं कि “उरांव ताना भगतों ने लगानबंदी का आंदोलन किया तो मोमिनों ने सीधे-सीधे झारखंड प्रांत की माँग का नारा दिया। पढ़े-लिखे नौजवानों ने 1912 ई. में झारखंड अलग करने के लिए लीग की स्थापना की।”1 अलग राज्य की माँग उठने के पीछे यहाँ के आदिवासियों के सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक हितों की रक्षा करना प्रमुख कारण रहा है। झारखंड के आदिवासी समूह अपनी अस्मिता और अस्तित्व के लिए कई शताब्दियों से संघर्ष करते आए थे। इसी संघर्ष से प्रेरित होकर अलग झारखंड राज्य की माँग उठने लगी। 1905 ई. में बंगाल विभाजन से आदिवासियों में भी एक तरह से राजनीतिक चेतना का प्रसार हुआ। औपनिवेशिक दौर में बाहरी लोगों के प्रवेश के चलते यहाँ के आदिवासियों को कई तरह की समस्याओं का सामना करना पड़ रहा था। जिसके ख़िलाफ़ आदिवासियों में सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक चेतना का उदय हुआ। बिरसा मुंडा के आंदोलन से प्रभावित होकर झारखंड में आदिवासी अधिकारों की रक्षा के लिए कई सामाजिक, सांस्कृतिक संगठन सामने आने लगे। जिसमें ‘आदिवासी महासभा’ नामक संगठन आदिवासियों के बीच बहुत तेज़ी से प्रसिद्ध हुआ। स्वतंत्रता के बाद संविधान सभा ने आदिवासियों के हितों लिए एक समिति का गठन किया। “जब समिति के सदस्य 1947 में रांची आए तो संपूर्ण छोटानागपुर क्षेत्र के आदिवासी बच्चे, बूढें, स्त्रियाँ, युवा अपने अस्त्र-शस्त्रों से सज्जित होकर रांची में जमा हुए और उन्होंने एक स्वर में अपनी माँग दुहराई- ‘हमें झारखंड राज्य चाहिए, हम झारखंड लेके रहेंगे।”2
इस तरह के प्रदर्शन दक्षिण बिहार और ओडिशा के आदिवासी क्षेत्रों में हुए। स्वतंत्रता पश्चात् झारखंड राज्य की माँग और तेज़ी से बढ़ने लगी। इस समय तक जयपालसिंह मुण्डा राष्ट्रीय स्तर पर आदिवासियों में एक लोकप्रिय नेता रूप में उभर चुके थे। जयपाल सिंह मुण्डा ने झारखंड आंदोलन को एक नई दिशा की ओर मोड़ दिया। जिसके बारे में वीर भारत तलवार लिखते हैं कि “1945 ई. में जयपालसिंह ने झारखंड पार्टी की स्थापना की। इस पार्टी की स्थापना सिर्फ़ चुनाव लड़ने के लिए नहीं हुई थी - इस पार्टी का एकमात्र उद्देश्य था झारखंड प्रांत की माँग के लिए लड़ना। पार्टी ने जयपालसिंह के नेतृत्व में बिहार, प. बंगाल, उड़ीसा में पड़ने वाले झारखंड के सभी इलाकों को (जिसमें बाद में मध्य प्रदेश में पड़ने वाले झारखण्डी इलाके भी शामिल थे) मिलाकर सोलह जिलों का एक झारखंड प्रांत का नक्शा तैयार किया था।”3 इस आंदोलन को जयपालसिंह का नेतृत्व मिलने के बाद झारखंड राज्य की माँग तेज़ी से बढ़ने लगी। जयपाल सिंह मुण्डा की लोकप्रियता के बारे में अक्सर यह माना जाता है कि ‘लोग उनको सुनने के लिए कई मील पैदल चलकर पहुँच जाते थे।’ वे अपने व्यक्तित्व और शिक्षण-प्रशिक्षण की प्रखरता के कारण आदिवासियों के बीच एक आदर्श नेतृत्व क्षमता के रूप में उभर रहे थे। जयपालसिंह मुण्डा के नेतृत्व में झारखंड आंदोलन को राजनीतिक रूप मिला। “चुनाव जीतकर झारखंड पार्टी के 32 विधायक बिहार विधानसभा में पहुँचे और अलग झारखंड राज्य का मुद्दा ठोस राजनीतिक माँग बन गया।”4 इसके बाद झारखंड राज्य की माँग विधानमंडल में तेज़ी से उठने लगी। “22 अप्रैल, 1954 को राज्य पुनर्गठन आयोग की टीम बिहार विधानसभा में थी। उस दौरान छोटानागपुर और संताल परगना के विधायकों ने राज्य पुनर्गठन आयोग को एक स्मार पत्र सौंप कर अलग राज्य की माँग थी।”5 झारखंड राज्य की माँग छोटानागपुर की आदिवासी संस्कृति और अस्मिता के लिए थी। जिसको ‘राज्य पुनर्गठन आयोग’ ने अस्वीकार कर दिया। जिसके कारण झारखंड की आदिवासी जनता को गहरा आघात लगा। इस माँग को अस्वीकार करने के पीछे राजनीतिक और आर्थिक कारण माने जाते हैं। अप्रैल,1954 में जब राज्य पुनर्गठन आयोग की टीम झारखंड गई तो बिहार के कांग्रेसी नेताओं के द्वारा जयपाल सिंह मुंडा को गुमराह करने की कोशिश की गई। जिसके तात्कालिक राजनीतिक कारणों की पड़ताल करते हुए अनुज कुमार सिन्हा लिखते हैं कि “इस दौरान जयपालसिंह को रांची में रहना था, ताकि वे अलग राज्य पुनर्गठन आयोग के समक्ष अलग राज्य के पक्ष में तर्क दे सके। इसी बीच कांग्रेस के नेताओं ने चाल चली। बिहार के तत्कालिक मुख्यमंत्री श्री कृष्णसिंह, केबी सहाय और विवेकानंद झा ने जयपालसिंह को सन्देश भिजवाया कि प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने उन्हें दिल्ली बुलवाया है। वहाँ उनको पता चला कि प्रधानमंत्री की ओर से ऐसा कोई बुलावा नहीं आया था। इस बीच राज्य पुनर्गठन आयोग की टीम जयपाल सिंह को खोज रही थी, पर वे दिल्ली में थे। उनकी अनुपस्थिति में जब सुशील कुमार बरगे, थियोडोर बोदरा और जगन्नाथ महतो कुरमी ने आयोग से बात करनी चाही तो आयोग ने यह कह कर इनकार कर दिया कि उन्हें सिर्फ़ जयपाल सिंह से बात करनी है। इसके बाद टीम लौट आई।”6 झारखंड के आदिवासियों की भावनात्मक एकता को भी जवाहरलाल नेहरू समझ रहे थे लेकिन वहीं दूसरी तरफ़ बिहार में कांग्रेस पार्टी की सरकार भी अलग राज्य के बनाने के पक्ष में नहीं थी। आदिवासियों की एकता को तोड़ने के लिए ‘राज्य पुनर्गठन आयोग’ ने अलग राज्य की माँग को अस्वीकार कर दिया। 1952 के विधानसभा चुनाव में बिहार के दक्षिणी क्षेत्र में ‘झारखंड पार्टी’ ने अपना दबदबा कायम कर किया और बिहार विधानसभा के प्रथम चुनाव में ‘झारखंड पार्टी’ की अप्रत्याशित जीत के बाद इस क्षेत्र में कांग्रेस का राजनीतिक वर्चस्व कम होना प्रारंभ होने लगा था। इस बदलती राजनीतिक स्थिति को में जवाहरलाल नेहरू गहराई से समझ रहे थे| जिसके चलते उन्होंने जयपाल सिंह मुंडा से समझौता करते हुए ‘झारखंड पार्टी’ का कांग्रेस में विलय कर लिया गया। जिसके कारण झारखंड राज्य आंदोलन की माँग में गतिरोध आने लगे| “जयपालसिंह ने 13 मार्च, 1970 को विलय के सात साल बाद रांची के बहुबाजार की सभा में यह स्वीकार किया था कि झारखंड पार्टी का विलय उनके जीवन की सबसे बड़ी भूल थी।”7 1970 में जयपाल सिंह मुण्डा के देहांत के साथ ही आदिवासी परम्परा और आधुनिकता के बीच समन्वय स्थापित करने वाला आंदोलन पूरी तरह से बिखर गया। झारखंड पार्टी का कांग्रेस में विलय के बाद कई छोटे-बड़े राजनीतिक संगठन अलग राज्य की माँग को लेकर सामने आए। जिनमें ए.ई. होरो ने ‘झारखंड पार्टी’ की स्थापना के साथ साथ बिहार राज्य हूल झारखंड, बिरसा सेवा दल आदि जैसे संगठनों ने झारखंड की माँग को जारी रखा। इन सबके बीच झारखंड के आदिवासी समुदाय में शिबू सोरेन एक नायक के रूप में उभर रहे थे। जिसने जयपाल सिंह मुण्डा के बाद छोटानागपुर (झारखंड, छत्तीसगढ़ और ओडिशा के आदिवासी बाहुल्य क्षेत्र) में आदिवासी अस्मिता और अस्तित्व के संघर्ष को एक नया आयाम दिया। विनोद कुमार ने अपने दोनों उपन्यासों ‘समर शेष है’ और ‘रेड ज़ोन’ में जयपाल सिंह मुंडा के बाद आदिवासी नेता शिबू सोरेन के द्वारा चलाए गए झारखंड आंदोलन के ऐतिहासिक सदर्भों को लेकर सामने आए हैं। जयपाल सिंह मुण्डा के बाद झारखंड में सबसे लोकप्रिय रहने वाले आदिवासी नेता शिबू सोरेन का राजनीतिक जीवन ‘धानकटनी आंदोलन’ से प्रारंभ होता है। शिबू सोरेन व्यक्तित्व और शिक्षा-दीक्षा में जयपाल सिंह मुण्डा के ठीक विपरीत थे। जयपालसिंह मुण्डा की शिक्षा जहाँ विदेश में हुई, वहीं शिबू सोरेन सरकारी स्कूल से मैट्रिक भी पास नहीं कर पाए थे फिर शिबू सोरेन की समझ, आक्रामकता और तेवर जयपालसिंह मुण्डा से भी तेज़ मानी जाती रही है। जिसका मुख्य कारण यह भी माना जाता रहा है कि शिबू सोरेन आदिवासी जनजीवन की माटी से जुड़े रहे, उन्होंने उस आदिवासी जीवन संघर्ष को जीया है। शिबू सोरेन ने झारखंड के आदिवासी समुदायों में धानकटिया आंदोलन से महाजनी सभ्यता के ख़िलाफ़ संघर्ष और सामूहिक खेती, शराब बंदी व स्त्री सुधार, शिक्षा के प्रति जागरूकता जैसे अभियान चलाकर आदिवासियों में एक नई सामाजिक और राजनीतिक चेतना का प्रसार किया। इस आंदोलन के दौरान शिबू सोरेन बागुन सुम्बरई और कई स्थानीय मार्क्सवादी नेताओं के संपर्क से जुड़े। इस समय झारखंड में मजदूरों के लिए संघर्षरत कई मार्क्सवादी नेता अलग झारखंड के पक्ष में नहीं थे। जिसको चित्रित करते हुए विनोद कुमार ‘समर शेष है’ उपन्यास में लिखते हैं कि “कॉ. राय स्वयं झारखंड आंदोलन पर कभी गम्भीरता से विचार नहीं किया था। हाँ, कोयलांचल के मज़दूरों और ग्रामीण अंचलों के बीच लगातार जीवंत संपर्क की वजह से वे इस बात को तीव्रता से महसूस करने लगे थे कि झारखंड क्षेत्र देश का एक आन्तरिक उपनिवेश है और उसी रूप में इसका जघन्य शोषण हो रहा है।”8 मार्क्सवादी ए.के. राय प्रारंभिक दौर में अलग झारखंड राज्य के विरोध में थे, जिसका मुख्य कारण यह था के वे लगातार मज़दूर व किसान आन्दोलनों से जुड़े रहे। जिसके कारण वे अलग झारखंड की जगह शोषणमुक्त झारखंड की बात पर अधिक बल देते थे।
‘समर शेष है’ उपन्यास का पात्र शिबू सोरेन धान कटनी आंदोलन के साथ ही ‘झारखंड मुक्ति मोर्चा’ पार्टी का गठन करके अलग राज्य की माँग तेज़ कर देते हैं। नई पार्टी का उद्घाटन करते हुए ‘समर शेष है’ उपन्यास का पात्र शिबू सोरेन कहता है “हम लोग दुनिया के सबसे सताए लोगों में से है।... अपने अस्तित्व के लिए हमें निरन्तर संघर्ष करना पड़ा। हमें बार-बार अपने घर से, अपने जंगल से और ज़मीन से उजाड़ा जाता रहा है। लोग हमारे साथ जानवरों जैसा व्यवहार करते हैं। हमारी बहू-बेटियों की इज़्ज़त से खिलवाड़ किया जाता है। दिकुओं के शोषण-उत्पीड़न से तबाह हमारे लोग अपना गाँव-घर छोड़कर परदेश में मज़दूरी करने जाते हैं। हरियाणा-पंजाब के ईंट-भट्टों में असम के चाय बागानों में... पश्चिम बंगाल के खेत-खलिहानों में मांझी, संथाल औरतें, मर्द मज़दूरी करने जाते हैं और वहां भी उनसे बंधुआ मजदूरों जैसा व्यवहार किया जाता है... यह बात नहीं कि हमारे अपने गाँव में जीवन-यापन के साधन नहीं लेकिन उन पर बाहर वालों का कब्जा है। झारखंड की धरती का यहाँ के खदानों का दोहन करके...लूट-खसोट कर नए-नए शहर बन रहे हैं... कल कारखानों में, खदानों में सबसे कठिन काम संथाल ही करता है लेकिन उसे सबसे कम मज़दूरी, सबसे कम सुविधाएँ मिलती हैं। ... लेकिन अब यह अंधेर गर्दी नहीं चलेगी... इस अंधकार के ख़िलाफ़ हम संघर्ष करेंगे।”9 स्वतंत्रता के पश्चात् भी इन क्षेत्रों में आदिवासियों के प्रति राजसत्ता का उपनिवेशवादी रवैया दिखाई दे रहा था। शिबू सोरेन ने आदिवासियों पर बढ़ते शोषण और अत्याचार के ख़िलाफ़ आंदोलन को राजनीतिक रूप दे दिया। अलग झारखंड की माँग पर मार्क्सवादी नेता विनोद महतो और ए.के. राय भी सहमत हो जाते हैं। इस नवगठित पार्टी के नेतृत्व का सवाल आता है तो, ‘समर शेष है’ उपन्यास के पात्र ए.के. राय कहते हैं कि “झारखंड आंदोलन का नेतृत्व तो किसी आदिवासी के ही हाथों में होना चाहिए।”10 कॉमरेड ए.के. राय लंबे समय से झारखंड क्षेत्र में संघर्ष कर रहे थे और वे अच्छी तरह से जानते थे कि इस पार्टी का नेतृत्व शिबू सोरेन के पास रहेगा तो यह आंदोलन भावनात्मक रूप से आदिवासियों में तेज़ी से फैलेगा। इससे पहले ए.के. राय ने जयपाल सिंह मुण्डा के आंदोलन की तीव्रता को भी बहुत नजदीक से देख चुके थे। झारखंड राज्य आंदोलन आदिवासी अस्मिता और संस्कृति के लिए तेज़ी से उभरकर सामने आ रहा था। इससे पहले शिबू सोरेन ने बिना किसी राजनीतिक संगठन के सहयोग से ‘धानकटनी आंदोलन’ को सफल बनाया। शिबू सोरेन ‘धानकटनी आंदोलन’ से पूरे छोटानागपुर में प्रसिद्धि पा चुके थे। इस बात को ‘समर शेष है’ उपन्यास के पात्र ए.के. राय जान चुके थे कि शिबू सोरेन इस आंदोलन के सही नेतृत्व प्रदान कर सकता है। “झामुमो ने अपने चार लक्ष्य तय किए- महाजनी प्रथा के ख़िलाफ़ संघर्ष, विस्थापितों का पुनर्वास और कारखानों में आदिवासियों की बहाली का संघर्ष, वन क़ानून के विरोध में जंगल कटाई का आंदोलन और अलग राज्य के गठन के लिए आंदोलन।”11 झारखंड मुक्ति मोर्चा की स्थापना के बाद झारखंड के आदिवासी समुदायों एक फिर से ‘अबुआ दिशोम, अबुआ राज’ और ‘शोषण मुक्त’ राज्य का सपना देखने लग गए। झारखंड के आदिवासियों में यह आंदोलन में भावनात्मक जुड़ाव के कारण तेज़ी से बढ़ता गया।
‘झारखंड मुक्ति मोर्चा’ की स्थापना होने के बाद यह पार्टी आदिवासियों, किसानों और मजदूरों हितों के लिए संघर्ष करती हुई नज़र आती है। ‘आदिवासी सुधार समिति’ का ‘झामुमो’ में विलय होने के बाद से झारखंड राज्य आंदोलन तेज़ी से बढ़ने लगा। इस आंदोलन की तीव्रता इतनी अधिक थी कि इसने बहुत कम समय में दक्षिण बिहार की राजनीति में एक नई चेतना का प्रसार कर दिया। ‘समर शेष है’ उपन्यास का पात्र शिबू सोरेन अपना बागी जीवन छोड़कर संसदीय राजनीति में उतरने का फैसला करते हैं। शिबू सोरेन समझ चुके थे कि आदिवासियों की समस्या का समाधान लोकतांत्रिक संसदीय राजनीति से ही हो सकता है। 1980 के लोकसभा चुनाव में झारखंड मुक्ति मोर्चा ने बिहार की राजनीति में बड़ा उलटफेर कर दिया। झारखंड मुक्ति मोर्चा ने दक्षिण बिहार में अपनी पकड़ मजबूत कर ली। दुमका संसदीय क्षेत्र से शिबू सोरेन चुनाव जीतकर संसद पहुँच गए। शिबू सोरेन की नेतृत्व क्षमता से दक्षिण बिहार में झामुमो की लोकप्रियता बढती गई। शिबू सोरेन के नेतृत्व को स्वीकार करते हुए आदिवासियों में जयपाल सिंह मुण्डा के बाद एक बार फिर से आदिवासी समूहों में राजनीतिक और सामाजिक चेतना का प्रसार होने लगा। 1980 के बिहार विधानसभा चुनावों में झामुमो ने दक्षिण बिहार की राजनीति में सभी अन्य दलों की स्थिति कमज़ोर कर दी। “झामुमो के 13 प्रत्याशी विधायक बन गए। झारखंड आंदोलन को फिर से गरमाने में झामुमो की यह जीत ‘जाड़े में बोरसी’ की आग साबित हुई।”12
विनोद कुमार का ‘समर शेष है’ उपन्यास झारखंड के आदिवासियों के राजनीतिक संघर्ष की गाथा को यहीं तक ही चित्रित करता है। इसके बाद झारखंड की आदिवासी राजनीति के संघर्ष को विनोद कुमार ‘रेड ज़ोन’ उपन्यास में चित्रित करते हैं। ब्रिटिशकाल से चले आ रहे आदिवासी संघर्षों का तिलका मांझी से लेकर सिदो-कान्हू, बिरसा, जयपालसिंह, शिबू सोरेन जैसे जननायकों ने नेतृत्व किया। शिबू सोरेन ने झारखंड के आदिवासियों में धानकटनी आंदोलन के दौरान नई राजनीतिक चेतना का प्रसार करके एक नया आगाज़ किया। जिस धानकटिया आंदोलन की शुरुआत शिबू सोरेन ने की थी यह उसका ही परिणाम था कि झामुमो का राजनीतिक दबदबा बढ़ता गया। शिबू सोरेन ने आदिवासियों के सम्मान को एक बार फिर जीवित कर दिया। इस आंदोलन का महत्त्व झारखंड का आदिवासी समाज कभी भी नहीं भूल सकता। जिसके बारे में विनोद कुमार लिखते हैं कि “इस संघर्ष में निहित रचना के सूत्र पिछड़े और अप्रासंगिक माने जाने वाली आदिवासी संस्कृति की सामूहिकता, सहभागिता और समता पर आधारित जीवन दृष्टि के पुनर्जीवित हो सकने और नये समाज की रचना की संभावना को उजागर कर गये।”13 उपन्यास के पात्र शिबू सोरेन के नेतृत्व में झारखंड के आदिवासी विस्थापन और अलग राज्य के निर्माण की माँग को लेकर एकजुट होने लगे। संसद और बिहार विधानसभा में अलग झारखंड की माँग भी उठने लगी। 1982 में ‘छोटानागपुर विकास प्राधिकरण’ और ‘संथाल विकास प्राधिकरण’ के नाम से दो स्वायत संस्था बनाकर इस आंदोलन को कमज़ोर करने की कोशिश की। इन प्राधिकरणों की कार्य स्थिति के बारे में हेमंत लिखते हैं कि “उन प्राधिकरणों के गठन के तरीक़े से जाहिर हो गया कि सरकार की मंशा क्या है? अक्सर लोकतंत्र में जनता को मालिक समझने वाली सरकारें सत्ता के मद में ऐसे कदम उठाती है, जो उसके द्वारा जनता को या तो मूर्ख समझे जाने या फिर मूर्ख बनाए जाने का बोध कराते हैं। प्राधिकरणों के लिए मुख्यमंत्री को पदेन अध्यक्ष बनाया गया। 95 प्रतिशत सदस्यों को सरकार द्वारा मनोनीत किए जाने का नियम जोड़ा गया। स्थापना के पाँच साल बाद तक भी किसी को यह सूचना नहीं मिली कि उन प्राधिकरणों की एक बार बैठक हुई अथवा नहीं।”14
1984 में इंदिरा गाँधी की हत्या के बाद देश की राजनीतिक स्थिति में तेज़ी से बदलाव आया। इस तक समय झारखंड मुक्ति मोर्चा राजनीतिक रूप से कांग्रेस के नजदीक रही। राजीव गाँधी के प्रधानमंत्री बनने के साथ ही झारखंड राज्य की माँग फिर से उठने लगी। झारखंड राज्य आंदोलन में छात्रों की भूमिका बढ़ती गई| कई आदिवासी छात्र संगठन आंदोलन का समर्थन करने लगे। जिसके बारे में विनोद कुमार ‘रेड ज़ोन’ उपन्यास में लिखते हैं कि “बेसरा ने असम आंदोलन में छात्रों की ऐतिहासिक भूमिका का उल्लेख करते हुए एक छात्र संगठन बनाने पर ज़ोर दिया। गुरूजी ने सभी झारखण्डी दलों की एकजुटता पर बल दिया, लेकिन झारखंड पार्टी के होरो साहब का कहना था कि संयुक्त कार्रवाई पहले शुरू हो, उसके अनुभव से ही एक हुआ जा सकता है। गुरूजी मुक्ति मोर्चा के छात्र संगठन के रूप में ऑल झारखंड स्टूडेंट्स यूनियन, आजसू की कल्पना करते थे। लेकिन वहाँ मुक्ति मोर्चा से इतर सभी राजनीतिक दलों और संगठनों की राय थी कि छात्र संगठन राजनीतिक दलों से अलग रहे, उसका स्वरूप निर्दलीय हो।”15 इस छात्र संगठन के प्रभाव बारे में हेमंत लिखते हैं कि “22 जून,1986 को जमशेदपुर में सूर्यसिंह बेसरा के नेतृत्व में असम छात्र संगठन ‘आसू’ की तर्ज पर ‘ऑल झारखंड स्टूडेंट्स यूनियन (आजसू) का गठन हुआ। आजसू के गठन से छात्रों और महिलाओं को झारखंड आंदोलन में भागीदारी के लिए बड़ा और व्यापक मंच मिला। उनकी भागीदारी से आंदोलन में तेज़ी आई और उसमें एक नया मोड़ आया। रैलियों और सभाओं की बाढ़ सी आ गई। साथ ही आंदोलन कुछ दलों की राजनीति और रणनीति के दायरे से निलककर आम जनता और बुद्धिजीवियों की चेतना और चिन्तन के दरवाजों पर ज़ोर-ज़ोर से दस्तक देने लगा।”16 इस समय झारखंड आंदोलन की फज़ा पूरी तरह से बदल चुकी थी। शहरों से निकलकर यह आंदोलन गाँवों की तरफ़ बढ़ चुका था। झारखंड मुक्ति मोर्चा के महासचिव निर्मल महतो की रहस्यमय मौत ने इस आंदोलन को और तेज़ कर दिया। निर्मल महतो हत्याकाण्ड के बाद आदिवासी वर्ग भावनात्मक रूप से इस आंदोलन से जुड़ने लगे। जिससे झारखंड की राजनीति में परिवर्तन आने लगे। इस घटना को चित्रित करते हुए विनोद कुमार ‘रेड ज़ोन’ उपन्यास में लिखते हैं कि “इस हत्याकाण्ड के बाद दक्षिण बिहार में, खास कर पश्चिमी सिंहभूम में स्थिति बेहद तनाव पूर्ण हो गयी और कुछ बहिरागत प्रतिक्रियात्मक हिंसा के शिकार हुए। फिर रामगढ़ में झारखंडी दलों और संगठनों की एक महत्त्वपूर्ण बैठक हुई और झारखंड समन्वय समिति का गठन किया गया। दो दिन के इस महा सम्मलेन में दर्जनों संगठनों ने भाग लिया और दक्षिण बिहार की राजनीति, सामाजिक और आर्थिक परिस्थितियों पर जमकर बहस हुई।”17 इस सम्मलेन में योजनाबद्ध तरीक़े से झारखंड आंदोलन की माँग के लिए गैर आदिवासी संगठनों को भी आंदोलन से जोड़ने पर ज़ोर दिया गया। झारखंड में आदिवासियों के अतिरिक्त बड़ी आबादी पिछड़े तबकों की होने के कारण झारखंड आंदोलन इनकी भूमिका भी महत्त्वपूर्ण मानी जाने लगी। वृहद् झारखंड राज्य निर्माण के लिए एक समन्वय समिति का गठन किया गया| जिसके बारे में अनुज कुमार और मंजू ज्योत्सना लिखते हैं कि “झारखंड को ऑर्डिनेशन कमेटी (जे.सी.सी.) ने 10 दिसम्बर,1987 को राष्ट्रपति को 23 सूत्री माँगपत्र भेजा। इसमें ‘झारखंड अलग राज्य’ की माँग प्रमुख थी जिसमें बिहार, बंगाल, उड़ीसा और मध्य प्रदेश के 21 जिलों को शामिल करने का सुझाव था। ये आदिवासी-बहुल क्षेत्र थे। 25 दिसम्बर, 1987 को झारखंड बन्द रखा गया जिसका गहरा असर रांची, चाईबासा, हजारीबाग, गुमला और जमशेदपुर में दिखाई पड़ा फिर 15 नवम्बर, 1987 को बिरसा दिवस पर रांची में एक विशाल रैली आयोजित हुई, जिसमें सभी झारखंडी दल शामिल हुए।”17 स्थानीय राजनीतिक दलों के साथ-साथ इस समय तक स्थानीय कांग्रेसी नेता और भाजपा भी अलग राज्य की माँग को उठाने लग गए थे। इसी दौरान तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गाँधी भी झारखंड के दौरे पर आए। जिसके बारे में विनोद कुमार ‘रेड ज़ोन’ उपन्यास में लिखते हैं कि “अपने एक भाषण में उन्होंने झारखंड राज्य की माँग को ख़ारिज करते हुए मंच से बयान दे डाला कि झारखंड सामाजिक-आर्थिक समस्या नहीं, बल्कि क़ानून व्यवस्था की समस्या है। प्रधानमंत्री के इस बयान ने आग में घी का काम किया और झारखंड अलग राज्य के आंदोलन में एक उबाल आ गया।”18 राजीव गाँधी के इस बयान से झारखंड की आदिवासी जनता की सांस्कृतिक और राजनीतिक अस्मिता को गहरा आघात लगा। जिसका परिणाम यह हुआ कि पूरे दक्षिण बिहार में आर्थिक नाकेबंदी की गई। औद्योगिक इकाईयों में स्थानीय मज़दूरों ने हड़ताल कर दी, छात्र शिक्षण संस्थानों से निकलकर सड़कों पर आ गए। इस समय ‘आजसू’ के नेताओं झारखंड में अनेक जनसभाएं की। इस आर्थिक नाकेबंदी का स्थानीय संगठनों और झामुमो ने समर्थन किया। इस बंद के कारण बिहार की राजनीतिक-आर्थिक स्थिति ख़राब होने लगी। “झामुमो के नेता और तत्कालीन विधायक सूरज मंडल ने केंद्र तक अपनी आवाज़ पहुँचाने की भड़काऊ राजनीतिक शैली का इस्तेमाल करते हुए कहा- ‘गाँधी की नीतियों से हमें झारखंड राज्य मिलने वाला नहीं।... यह सरकार (कांग्रेसी सरकार) गाँधीवादी भाषा न सुनकर लालडेंगा के हथियारों की भाषा सुनती है।”19 दक्षिण बिहार में आर्थिक नाकेबंदी को रोकने के लिए तत्कालीन केन्द्रीय गृहमंत्री बूटासिंह ने झारखंड का दौरा करके यहाँ राजनीति में बड़ा बदलाव कर दिया। “राजीव गाँधी की केंद्र सरकार ने 24 अगस्त, 1989 को एक 24 सदस्यीय ‘झारखंड मामलों की समिति’
(COMMITTEE ON JHARAKHAND MATTERS) का गठन किया, जिसके अध्यक्ष केन्द्रीय गृह मन्त्रालय के सयुंक्त सचिव, श्री एल.लाली थे। समिति के अन्य प्रतिनिधि थे : डॉ. रामदयाल मुण्डा, डॉ. अमर कुमार सिंह, डॉ. बिसेर प्रसाद केसरी, सन्तोष राणा, ए.ई. होरो, विनोद बिहारी महतो, प्रभाकर तिर्की, सूर्यसिंह बेसरा, शिबू सोरेन, शैलेन्द्र महतो, सूरज मण्डल, स्टीफन मरांडी, केन्द्रीय सरकार के प्रतिनिधि श्री जे.एल. आर्य, गृह सचिव एवं जनजाति कल्याण विभाग, बिहार सरकार के विशेषज्ञ डॉ. सुरेश कुमार सिंह, निर्देशक, भारतीय मानव विज्ञान सर्वेक्षण, डॉ. भूपेंद्र सिंह, भारत सरकार के भूतपूर्व अपर सचिव, अन्य प्रतिनिधि प्रो. लालचन्द्र चूड़ामणि नाथ शाहदेव (सदान विकास परिषद)।”20 इस समिति का गठन दक्षिण बिहार में उठ रही अलग राज्य की माँग को रोकने के लिए किया था। 1990 में बिहार विधानसभा चुनाव की घोषणा के साथ झारखंड राज्य की माँग एक बार फिर से तेज़ होने लगी। प्रारंभ में झारखंड की कई पार्टियों ने इस चुनाव का बहिष्कार किया। इस विधानसभा चुनाव के विरोध में ‘रेड ज़ोन’ उपन्यास का पात्र सूर्यसिंह बेसरा कहता है कि “जो लोग चुनाव लड़ना चाहते हैं वे दरअसल सत्ता के दलाल हैं। उन्हें झारखंड अलग राज्य आंदोलन से कोई लेना देना नहीं हैं। झारखंड की माँग आज की नहीं, वर्षों पुरानी है। सैकड़ों लोगों ने अलग झारखंड राज्य के आंदोलन में अपनी कुर्बानी दे दी, लेकिन कुछ झारखंडी नेता अपनी हवस और लालच के लिए झारखंड आंदोलन को बार-बार बेच रहे हैं। ... असम में छात्रों ने चुनाव बहिष्कार का नारा दिया और कामयाब हुए। हम भी झारखंड में उस वक्त तक चुनाव नहीं होने देंगे, जब तक झारखंड अलग राज्य नहीं बन जाता और जो लोग चुनाव मैदान में उतरेंगे, उनका हम सक्रिय विरोध करेंगे।”21 वहीं दूसरी तरफ़ ‘रेड ज़ोन’ उपन्यास के पात्र शिबू सोरेन लोकतांत्रिक तरीक़े से झारखंड राज्य की माँग के लिए आदिवासियों को जाग्रत करते हुए कहते हैं कि “एक बात समझ लो, जब तक झारखंडी अपनी राजनीतिक ताक़त नहीं बढ़ाएंगे, तब तक कुछ नहीं हो सकता। अलग झारखंड बने, हमारी सत्ता उस पर कायम हो, तभी हम अपने सपनों का झारखंड, शोषण मुक्त झारखंड बना सकते हैं। लेकिन इसके लिए पूरे झारखंड को जगाना होगा। झारखंडी वोट को एकजुट करना होगा। मुक्ति मोर्चा के विधायकों, सांसदों की संख्या बढ़ानी होगी।”22 इस तरह से शिबू सोरेन लोकतांत्रिक रास्ते से झारखंड राज्य की माँग का नारा चुनाव में देते हैं। जिसका असर झारखंड की जनता पर पड़ता हैं। इस चुनाव में “121 सीटों के साथ जनता दल सबसे बड़े दल के रूप में सामने आया। कांग्रेस को मात्र 71 सीटों से सन्तोष करना पड़ा। भाजपा को 39, भाकपा को 23, झामुमो को 19, आइपीएफ को 7 और भाकपा को 6 सीटें मिली।”23 इस चुनाव में जनता दल के सबसे बड़े दल के रूप में आने के बाद मुख्यमंत्री पद के लिए खींचातानी शुरू हो गई। जनता दल की तरफ़ से तीन लोग मुख्यमंत्री पद के लिए मुख्य दावेदार माने जा रहे थे। इसमें रामसुन्दर दास (दलित वर्ग), रघुनाथ झा (सवर्ण वर्ग) और लालूप्रसाद यादव (पिछड़ा वर्ग) नेताओं ने मुख्यमंत्री पद के लिए दावेदारी पेश करने लगते हैं। यह माना जाता रहा है कि रामसुंदर दास को वी.पी. सिंह और जार्ज फर्नांडिस का समर्थन प्राप्त था, वहीं चंद्रशेखर, रघुनाथ झा के पक्ष में थे। दूसरी तरफ़ पिछड़े वर्गों की राजनीति के समर्थक ताऊ देवीलाल चौधरी और शरद यादव का खेमा लालू प्रसाद यादव को मुख्यमंत्री बनाना चाह रहे थे। “वी.पी. सिंह लालू यादव के मुख्यमंत्री बनने के ख़िलाफ़ थे। वे चाहते थे कि कोई दलित मुख्यमंत्री बने।”24 इस खींचतान में नीतीश कुमार और शिबू सोरेन की सहायता से लालू प्रसाद यादव मुख्यमंत्री बन गये। इस राजनीतिक घटनाक्रम के बारे में यह माना जाता है कि झामुमो ने अलग झारखंड की माँग पर ही जनता दल को अपना समर्थन दिया था। इस चुनाव के बाद झारखंड आंदोलन एक नए मोड़ पर आकर रूक गया। जिसके बारे में विनोद कुमार ‘रेड ज़ोन’ उपन्यास में लिखते हैं कि “लालू और गुरूजी की अवसरवादी राजनीति की गांठ खुल गयी। लेकिन झारखंडी राजनीति तो 18 ज़िलों के अलग राज्य की माँग की दिशा में बढ़ रही है। दादा ने तो आज स्पष्ट कर दिया कि तीन राज्यों को काटकर अलग राज्य का गठन संभव नहीं, वे बिहार के 18 आदिवासी बहुल जिलों को मिला कर वनांचल अलग राज्य की माँग का आंदोलन तीव्र करने जा रहे हैं।”25
लालू यादव ने ‘झारखंड आंदोलन’ को वृहत् झारखंड आंदोलन में बदल दिया। जो लालू यादव अभी तक बिहार विभाजन के विरोध में थे वे अचानक वृहत्तर झारखंड राज्य की माँग के लिए तैयार हो गये। इस वृहत्तर झारखंड में पश्चिम बंगाल, उड़ीसा, बिहार और मध्यप्रदेश के आदिवासी बाहुल्य क्षेत्र थे। उस समय पश्चिम बंगाल में वामदल, उड़ीसा में जनता दल, बिहार में जनता दल और मध्य प्रदेश में भाजपा की सरकार थी। इस चुनाव के बाद दक्षिण बिहार में भाजपा और कांग्रेस की स्थिति कमज़ोर होती चली गई। “चुनाव में पिटे झारखंडी नेता अलग राज्य की माँग को लेकर एक बार फिर से मैदान में उतर आए। कांग्रेस और भाजपा के नेताओं को लगा कि आदिवासी बहुल इलाकों में राजनीति चमकानी है तो अलग झारखंड राज्य के आंदोलन तीव्रता से करना होगा।”26 बिहार के तत्कालीन मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव और झामुमो की दूरियां भी बढ़ने लगी। जिसके बारे में विनोद कुमार ‘रेड ज़ोन’ उपन्यास में लिखते हैं कि “लालू की बेवफाई से नाराज गुरूजी ने जब 20 जिलों के अलग झारखंड का नारा बुलन्द किया तो लालू ने साफ कह दिया - ‘अलग झारखंड मेरी लाश पर बनेगा।”27 लालू प्रसाद यादव के इस कथन की पुष्टि करते हुए हेमंत लिखते हैं कि “माना जाता रहा है कि 11 सितम्बर, 1992 को तत्कालीन मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव दिल्ली में प्रधानमंत्री से कहा था कि बिहार का विभाजन उनकी लाश पर ही होगा।”28 जिसका मुख्य कारण यह भी माना जा सकता है दक्षिणी बिहार खनिज सम्पदा से संपन्न होने के साथ-साथ यहाँ की जनसंख्या का बड़ा भाग आदिवासियों और पिछड़ी जातियों है। लालू यादव जो कि उस समय पिछड़े वर्गों की राजनीति के सहारे उभर रहे थे, अलग झारखंड राज्य बनाना एक तरह से उनकी पार्टी वोट बैंक को कम करना था। इसी कारण से लालू यादव अलग झारखंड राज्य के विरोध में थे। 1995 के बिहार विधानसभा चुनाव से पूर्व लालू यादव सरकार ने ‘झारखंड स्वायत्त परिषद’ बिल पास करके आदिवासी और पिछड़े वर्गों का वोट बैंक को साधने का प्रयास किया। “9 जून,1995 को जैक (झारखंड क्षेत्र स्वशासी परिषद) गठित हुआ और शिबू सोरेन को अध्यक्ष और सूरज मंडल को उपाध्यक्ष मनोनीत किया गया।”29 यह माना जाता रहा है कि इस परिषद से झारखंड के आदिवासी हितों में कोई ख़ास सुधार नहीं आया। “इससे सही अर्थ में आंदोलनकारियों के लक्ष्य की पूर्ति नहीं हुई। नियम-अधिनियम बनाने के अधिकार बिहार सरकार के पास थे। बिहार सरकार के अनुमोदन के बिना कुछ भी नया काम नहीं हो सकता था। मात्र तीसरे और चतुर्थ वर्ग के कर्मचारियों की नियुक्ति और स्थानांतरण का अधिकार कांउसिल के पास था।”30 जैक के गठन के बाद भी झारखंड राज्य की माँग बढ़ती गई। इस दौरान केंद्र सरकार और झामुमो के बीच हुई सौदेबाजी की खबरें भी सामने आयी। जिसको चित्रित करते हुए विनोद कुमार ‘रेड ज़ोन’ उपन्यास में लिखते हैं कि “कौंसिल के गठन के बाद सबसे पहले अपनी रिहायशी सुविधा जुटाने में मुक्ति मोर्चा के लोग लग गये हैं। लेकिन साथ ही सीबीआई ने राव सरकार के अविश्वास प्रस्ताव के वक्त मुक्ति मोर्चा के सांसदों की खरीद-फ़रोख्त वाले मामले की जाँच का काम शुरू कर दिया।”33 इस मामले की सीबीआई जाँच में कई चेहरे सामने आए जो रिश्वतकांड से जुड़े हुए थे। जिसके बारे में बारे रामशरण जोशी लिखते हैं कि “राव के शासनकाल (1991-1996)
में भी सांसदों की खरीद-फ़रोख्त का मामला उछला था। झारखंड मुक्ति मोर्चा के सदस्यों पर आरोप लगा था कि उन्होंने लाखों रुपये की कथित घूस खाकर राव सरकार को गिरने से बचाया था।”31 इसी रिश्वतकांड के आरोप में तत्कालीन प्रधानमंत्री नरसिंह राव और केन्द्रीय मंत्री बूटासिंह को सन् 2000 में न्यायालय ने दोषी करार देकर तीन-तीन वर्ष की सज़ा सुनाई थी। इसके साथ झामुमो के कई सांसदों को क़ानूनी कार्रवाई का सामना करना पड़ा था। इस रिश्वत कांड ने झारखंड की आदिवासी संस्कृति और अस्मिता पर कलंक लगा दिया। झारखंड की आदिवासी जनता का झामुमो पर विश्वास कम होने लगा। जिसके बारे में विनोद कुमार ‘रेड ज़ोन’ उपन्यास में लिखते हैं कि “लेकिन झारखंडी जनता ने मुक्ति मोर्चा को माफ़ नहीं किया। कुछ ही महीने के बाद लोकसभा चुनाव हुए। हमेशा की तरह गुरूजी ने पूरे इलाके में ज़ोरदार दौरा किया। अनगिनत चुनावी सभाएं लेकिन परिणाम उनकी आशा के बिलकुल प्रतिकूल हुआ। आदिवासी जनता ने साबित कर दिया कि वह बेवकूफ नहीं, भुच्च नहीं। मुक्ति मोर्चा के तमाम प्रत्याशी चुनाव हार गये। चारों सांसद भूतपूर्व हो गये। गुरूजी बड़ी मुश्किल से अपनी सीट बचा सके।”32 इसी समय बिहार की राजनीति में उठापटक चल रही थी। राज्य में राजद पार्टी की सरकार के सामने बहुत संकट आ पड़े थे। इसी स्थिति में शिबू सोरेन सरकार को गिरने से बचाने के लिए राजद को समर्थन देते हैं। झामुमो के समर्थन के पीछे यह माना जाता रहा है कि लालू यादव ने बिहार विधानसभा में अलग झारखंड राज्य प्रस्ताव पारित किये जाने की शर्त पर समर्थन दिया था। लालू यादव ने अपनी सरकार को गिरने से बचाने के लिए इस प्रस्ताव को मान लिया। बिहार में लालू की कमज़ोर पड़ती ताक़त को झामुमो ने एक बार फिर से सहयोग दिया। केंद्र सरकार ने ‘बिहार (पुनर्गठित) अधिनियम,
2000’ पास करके अलग झारखंड राज्य की घोषणा कर दी। 15 नवम्बर, 2000 को बिरसा जयंती के दिन झारखंड भारत के 28वें राज्य के रूप में सामने आया। इस घोषणा से झारखंड में एक तरफ़ ख़ुशी का माहौल था तो दूसरी तरफ़ इस आंदोलन में सैकड़ों आदिवासियों का बलिदान भी था।
निष्कर्ष : झारखंड राज्य आंदोलन को छोटानागपुर के आदिवासी समूहों में सांस्कृतिक-राजनीतिक पुनर्जागरण में महत्त्वपूर्ण माना जा सकता है। विनोद कुमार के इन दोनों उपन्यास में झारखंड राज्य आंदोलन के ऐतिहासिक संदर्भों का समावेश किया गया है। ‘समर शेष है’ उपन्यास में अस्मिता एवं अस्तिव के लिए संघर्षरत आदिवासियों का ऐतिहासिक आख्यान हैं तो ‘रेड ज़ोन’ में मौका परस्त राजनीति की कड़वी सच्चाई को उजागर करता है। दोनों उपन्यासों को 1970 के दशक से लेकर झारखंड राज्य के निर्माण तक की राजनीति के जीवंत दस्तावेज माने जा सकते हैं।
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के.एस. गांगड़या इंडियन ऑयल, छारेड़ा, जिला दौसा, राजस्थान
srkmeena92@gmail.com, +91- 7048203602
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