संस्मरण : इराक के पेन का बाप (अतीत-बोध) / डॉ. हेमंत कुमार

इराक के पेन का बाप (अतीत-बोध)
- डॉ. हेमंत कुमार

 

इराक का पेन तो आप जानते ही होंगे। वही जो इराक नाम के देश में नहीं बनता। मतलब इराक का पेन इराक का मूल निवासी नहीं है। परिचय यह है कि यह फाउंटेन पेन परिवार का सदस्य है। वही फाउंटेन पेन जिसके जनक का नाम छठी क्लास की विज्ञान की पोथी के 'आविष्कार और आविष्कारक' वाली सारणी में दर्ज था। अब याद आया? फाउन्टेन पेन 'सन ऑफ' वाटरमैन।

शुरूआत तो पाटी (स्लेट) - बड़ते से होती थी। तीसरी क्लास में पचास पैसे की एक बॉलपेन की रिफिल आती थी जिसे हम लोग 'गुळी' कहते थे, जिसकी कीमत थी चाराने (पच्चीस पैसे)! पूरा पेन एक रुपये में आया करता। यह रिनोल्ड का बौना पेन था। इसी कंपनी के कद्दावर पेन के दो रुपये लगते थे। नीचे की सफेद नली पर गहरे आसमानी रंग का क्लिपदार ढ़क्कन ऐसे लगता जैसे सफेद चोला-पाजामा पहने दुबले-लम्ब तड़ंग आदमी ने छुरंगा छोड़कर सिर पर नीली स्यापी(गमछा) बाँध रखी हो। थोड़ी बड़ी क्लास के बच्चों के पास ऐसे पेन होते थे जिनके गर्भ में जुड़वां रिफिल हुआ करती। एक लाल तो दूजी नीली स्याही वाली। वह च्यारेक रुपये का पड़ता। प्रश्न लिखने में लालती 'गुळी' काम आती तो उत्तर लिखने में काळती। लोकल फाउंटेन पेन भी खूब इस्तेमाल होते। ये फाउन्टेन पेन 'स्याही वाले पेन' कहाते। ये भी दो रुपये से लेकर पाँच रुपये की कीमत में जाते। मगर इराक का पेन! वह तो सपना था। उसकी कीमत दोनों हाथों को दाएँ-बाँए सीधा फैलाकर ही बताई जा सकती थी- 'त्ते पैसे!'  स्याही वाले लोकल पेन गाँव के लोगों सरीखे ही थे। काम पड़ने पर अड़ोसी-पड़ोसी से उधार लेन-देन चलता रहता था। जब बीच क्लास में स्याही रित जाती और दवात पास में होती तो पड़ोसी पेन से झट उधार ली जा सकती थी। पड़ोसवाला आधी 'कोठी' सहर्ष रिता देता। जर्दा खानेवाला जिस तरह जर्दा फाँकते ही होठ मसूड़ों के बीच दबने से रह गए जर्दे के कतरों को थूककर जर्दा एडजस्ट करता है वैसे ही स्याही भरते ही फाउंटेन पेन से एक-दो बार स्याही थुकाई जाती, तब जाकर वह पेन को हजम होती।

इराक का पेन शहरी बाबू था। बड़े तामझाम थे। शूट-बूट, टाई-वाई वाले आदमी की तरह। बारीक निब और बारीक 'बड़ता' स्याही भरी जानेवाली कोठी में से एक और कोठी निकलती, स्टील की। जिसका पेट एक तरफ से अधखुला होता। उस पर भी एक स्टील की पत्ती लगी होती। जैसे ऊँट खेळी में मुँह लगाकर गर्दन तक पानी भर लेता है कुछ-कुछ वैसे ही इराक के पेन के पेट में स्याही भरी जाती। दवात की खेळ में पेन का मुँह डुबाकर कोठी के पेट पर लगी पत्ती को दबाकर धीरे-धीरे छोड़ने पर पेन भरपेट स्याही पी लेता। इराक का पेन स्याही उधार ले तो सकता था पर देने की कुव्वत नहीं रखता था। पेन का ढ़क्कन सोने का बना जान पड़ता। सुनहली चमक लिए ढ़क्कन के नीचे गीली मेंहदिया रंग की हल्की मुटिआई कोठी! ढ़क्कन के निचले हिस्से पर बारीक अंग्रेजी अक्षरों में इराक के पेन का पासपोर्ट बना होता 'मेड इन चाइना।' बचपन में दुर्लभ सपना रहा यह पेन बरसों बाद जब मिला तो ऐसे हाल में मिला कि लेते बने, छोड़ते।

उस बरस दो बैसाख थे। फागुन- चेत में रोहिड़े के लाल-पीले फूल खिलकर झड़ चुके थे। छंगी हुई खेजड़ियों पर निकल आई गोभळ्यों की कोमल कोंपलें खोतर्यों (पतली टहनियाँ) में बदल चुकी थी। इकाँतरे(एक दिन छोड़कर) दो दिन से अनखार (हल्की धूलभरी आँधी) आती। दिन लंबोतरे मुँह वाले थे। रातें चंद्रमुखी। दिन सुलगते हुए, रातें जगर-मगर रतजगों वाली। दूसरे बैसाख में सैं (ठीक) आखातीज के दिन मेरा ब्याह था। कोई ढाई बरस पहले मेरी नौकरी लग चुकी थी। मास्टर की नौकरी। दो बरस नौकरी का प्रोबेशन रहा। एक बरस शादी का। साल भर सगाई चली। शादी तो अब भी चल रही है, नौकरी भी। नौकरी जहाँ लगी वह जगह अगर सीधे चलो तो मेरे गाँव से दो गाँव फलांगते ही पड़ती थी। मगर आवागमन का सीधा साधन था। सौ-सवा सौ घरों की बस्ती थी वह। बस्ती में ज्यादातर जाट किसानों और दलितों की बसावट थी। एक तीन कमरों की जर्जर पुरानी हवेली में एक ब्राह्मण परिवार था। इसी परिवार के एक संन्यासी पूर्वज के नाम पर बस्ती का नाम था - 'चैनदास की ढाणी' चैनदास कोई बाबा थे, जिनके पास सीकर में किसी मंदिर की महंतई थी। मंदिर के खर्चे के लिए गाँव की जमीन थी। आजादी के बाद जमीन भी आजाद हो गई।

गाँव के बाहर गाँव के दो निर्माण थे। एक छोटी सी गुमटी थी, जिसमें शराब का ढ़ेका चलता था। गुमटी बस स्टैंड के एकदम पास थी। जिसे बनाते समय यह ध्यान रखा गया था कि वहाँ आसानी से पहुँचा जा सके। किसी बच्चे को भेजकर भी पेय मंगवाया जा सके। दूसरा निर्माण था स्कूल। उसे बनाते समय भी ध्यान रखा गया था कि सुपात्र और विद्यानुरागी ही वहाँ पहुँच सके। इसी कारण प्राथमिक स्कूल को बस्ती से एक-डेढ़ किलोमीटर की दूरी पर बनाया गया था। स्कूल सीकर-सालासर रोड पर थी। जिस तरह गाँवों में औरतें अक्सर खेत में खाना खाते या चाय पीते बखत मर्दों के पूठ (पीठ) देकर बैठती थीं वैसे ही स्कूल ने रोड के पूठ दे रखी थी।  बस्ती ने स्कूल के पूठ दे रखी थी। स्कूल रो की तरफ नहीं देखती थी तो बस्ती स्कूल की तरफ। मास्टर बच्चों की तरफ तो बच्चे किताबों की तरफ। किसी का एक-दूसरे की तरफ देखना सब देखते थे और सब चुप रहते थे। अब धीरे-धीरे स्थितियाँ कुछ-कुछ बदलने भी लगी थीं

खैर, बात थी ब्याह की। तो 15 मई को ब्याह था। 16 मई, सवधू मैं घर पहुँचा। 17 मई को ब्लॉक ऑफिस से परवाना गया कि मेरी जनगणना में ड्यूटी है, गोया मेरे ब्याह से देश की जनसंख्या में कोई आमूलचूल परिवर्तन आनेवाला हो। ठीक-ठीक याद नहीं, सत्रह या अट्ठारह मई, 2010 को मैंने अपने स्कूल से जनगणना की निर्देशिका, नजरी नक्शा और दूसरे कागजात प्राप्त कर लिए। जनगणना विभाग ने आधे गाँव की मनसबदारी मेरे नाम कर दी। बाकायदा पटवारी या ग्राम सेवक का बनाया नक्शा मिला था। उस नक्शे में निर्दिष्ट घरों की जनगणना का काम मुझे करना था। जनगणना युद्ध घोषणा की तरह थी। मेरी मनःस्थिति मेवाड़ के उस चूड़ावत सरदार सरीखी थी, जिसे विवाह की रात ही युद्ध का बुलावा मिला था। मगर मैंने कोई सैनाणी नहीं माँगी, 'हाड़ी राणी' ने दी।

हमारी तरफ पुरानी कैबत (कहावत) है कि दूल्हे के जूते जितने जल्दी टूटें ब्याह का कर्ज उतना जल्दी उतरता है। कहावतें लाक्षणिक होती हैं। जूते कब टूटेंगे? जब काम धंधे के लिए खूब भागदौड़ करेंगे। ज्यादा मेहनत और ज्यादा काम करेंगे तो कमाई भी ज्यादा होगी। ज्यादा आमदनी से कर्ज जल्दी उतरेगा। नवविवाहित 'अलि कलीहि' से बँध जाए इसलिए लोक ने यह कहावत गढ़ी। मगर एक समय बाद मूल मंतव्य कहीं खो जाता है और रह जाते हैं, सिर्फ़ शब्दों के छिलके। ब्याह में ज्यादातर चीजें किराये की होती हैं। मसलन घोड़ी, बाजा, शेरवानी, साफा, कटार, बस गैरह। दुल्हन प्रायः कर्ज की होती है। दूल्हा तो बेहद 'कर्जीला' होता है। शादी की फिजूलखर्ची सही अर्थों में 'फिजूलकर्जी' होती है। तो मैं चला मन में ब्याह के बाद का अकथनीय संकोच पहने। पैरों में वही शेरवानी वाली सुनहली कागजी जूतियाँ जो कर्ज उतरने का सर्टिफिकेट अगले दो ही दिन में देने वाली थीं। स्कूल जाना नहीं था सो सूठोठ गाँव से सिध पकड़ी। चैनदास की ढाणी पहुँचने में पंद्रह मिनट लगे। अब कहाँ जाऊँ? ढाणी के बीचोंबीच वही पुरानी जर्जर हवेली खड़ी थी। ऊँची ड्योढ़ी। सफेद से भूरा होकर काला पड़ चुका चूने का प्लस्तर। बीच-बीच में आड़े-तिरछे करनियों के निशान। नीचे झाँकती अधघिसी, अधखायी, अधफूटी बेढ़ब ईंटें। ड्योढ़ी और सीढ़ियों के साँवले खुरदरे पत्थर। दीवार के पास इकट्ठे किए गए चंद डगळे और अधवाड़े (आधी ईंट)! कुल मिलाकर एक खामोश कहानी, जिसे चूने के लेवड़े मिटने से रोकने की नाकाम कोशिश में लगे थे। 

तभी हवेली से मुकेश बाहर निकला। पैर छुए और भीतर बुला ले गया। अंदर बड़े-बड़े पायों वाली चारपाई, पत्थर के पाटिए पर बने परिंडे में ढककर रखी पानी की बाल्टी और घड़े। पक्की रसोई के ताबदान से झाँकता बूढ़ा धुआँ! मुझे घर की इकलौती स्टूल पर बिठाया गया। ममता, ललिता, आशा की आँखें मेरे हाथों की ब्यावली मेंहदी को चुपके-चुपके ताक रही थीं। ये दोनों बच्चियाँ स्कूल में चौथी कक्षा की मेरी छात्रा थीं तीसरी आशा उसी स्कूल से पाँचवीं पास आउट होकर आठवीं क्लास में सुठोठ के निजी स्कूल में पढ़ रही थी। इन बच्चों की बुआ और मामा को मैं सरकारी सेवा में आने से पहले पढ़ा चुका था। इनकी माएँ जो सगी बहनें थीं, हमारी स्कूल में पोषाहार पकाती थीं। इस तरह इस घर के भीतर रहनेवालों से मैं थोड़ा-थोड़ा पूर्व परिचित था। घर की दीवारों से पहली दफा परच रहा था।

जनगणना के भी मेरी तरह दो चरण थे। पहले चरण में गाँव के तमाम निर्माण शामिल थे। सभी मकानों, दुकानों, कुआँ-बावड़ी, मंदिर, स्कूल की गिनती करके, उनकी छत, दीवार और आँगणे के कच्चे-पक्के होने का विवरण रजिस्टर में दर्ज करते हुए उन मकानों पर नंबर मांडने थे। इसके लिए काली स्याही का मोटा मार्कर पेन मिला था। मकान गणना के बाद फिर से नज़री नक्शा बनाना था। अगले चरण में परिवार के सदस्यों के नाम, आयु, जन्मतिथि, जन्मस्थान और परिवार के मुखिया से संबंध, व्यवसाय, आय, वाहन है या नहीं, इस तरह के ब्योरे लिखे जाने थे। एक चरण दूसरे चरण से जुड़ा था। सरकारी नियम भले ही लंगड़ी टांग के खेल थे, जिसमें पहले पहली टांगड़ी टेक कर अधर-पधर चलना था तो बाद में दूसरी टांग टेक कर। मगर व्यवहार में दोनों चरण एक साथ छूने थे। दोनों चरण साथ छूने के एवज में ही उस परिवार से इतनी जान-पहचान निकल आई थी। मुझे लगता है अध्यापक द्वारा अपने विद्यार्थी को ढ़ाने के कॉर्स में विद्यार्थी का परिवार भी शामिल होता है। छात्र की कमजोरी और होशियारी की जड़ें उसके परिवार तक फैली होती हैं। कोई ध्यान से देखेगा तो उन जड़ों पर परिवार की आर्थिक, सामाजिक हालात की दीमक चिपकी मिलेगी। बेधुली सलवट भरी सलवार माँ के माथे की सलवटों का अनुवाद नजर आएगी तो नुचे-मुचे निकर की थेगलियों में बाप की बेजारगी का छंद उधड़ा पड़ा होगा। कोई अगर अध्यापकी के इतिहास के  लुप्त साक्ष्यों को खंगालेगा तो पाएगा कि विद्यार्थी की कमजोरी की अंकतालिका में जहाँ करुणा लिखा जाना था, वहाँ अनजाने में अध्यापक का गुस्सा अंकित हो गया। जहाँ पीठ पर हमदर्दी का हाथ रखा जाना था, वहाँ पंजे का निशान या छड़ी की छाप मंड गई। अध्यापकी के पेड़ से यदि प्रेरणा के फल की बजाय झिड़कियाँ झड़ने लगें तो समूची शिक्षा व्यवस्था चिंता के दायरे में जाती है।

वहाँ से मुकेश मुझे दूसरे घर ले गया। इस घर से भी कोई अनाम रिश्ता निकल आया। सरकारी नौकरी से पहले बी.. में ढ़ते वक्त मैं जिस निजी स्कूल में पढ़ाया करता था, उस स्कूल के संचालक की अनुज वधू का मायका था यह। संचालक के अनुज के साले वहाँ आते-जाते रहते थे तो उन्होंने मुझे पहचान लिया। अच्छी आवभगत हुई। वहाँ से निकला तो इस घर से उस घर, उस घर से उस घर। यानी घर-घर घूमता रहा। वहाँ सुनील मिला। स्कूल में गायकी में सबसे अच्छा कंठ उसी का था। मैंने पंद्रह अगस्त के कार्यक्रम के लिए उस दौर के एक लोकप्रिय राजस्थानी गीत -'भाई रे तेरे दो- दो साळी…' पर जो 'सनी देओलिया देशभक्ति' की पेरोडी लिखी थी, उसके अंतरे की दो पंक्तियाँ भर याद हैं इस वक्त-

       " जैपर, दिल्ली, बैंगलोर मं दस्तक देग्या है।

         बम्बई मं आके देखो के-के करग्या है…."

पेरोडी में आतंकी घटनाओं में खत्म हुए लोगों के परिजनों की पीड़ा का भावुकतापूर्ण वर्णन था। सुनील ने यह पैरोडी जब मार्मिक स्वर में गायी श्रोता खासा प्रभावित हुए। आज सुनील के घर गया तो मालूम हुआ कि सातवीं में पढ़ने वाले सुनील के पिता बरसों पहले किसी हादसे में गुजर चुके हैं। होने को एक बड़ा भाई भी है पर घर सुनील की 'बाई' चलाती है। सुनील अपनी माँ को बाई कहता है। अब माँ हों या बाप, जो कुछ भी है 'बाई' ही है। उस दिन जाना कि चाहे सुरीला कंठ उसे कुदरतन मिला हो पर उसमें भाव किसी अभाव ने ही भरे हैं। विजय सिंह जी के घर पहुँचा। वे पुलिस विभाग से रिटायर्ड थे। मकान गाँव के हिसाब से अच्छा खासा था। शीशम के ऊँचे दरख्तों की छाँव में नया मकान। इस घर से सरकारी स्कूल में कोई बच्चा नहीं आता था। फिर भी उन्होंने सम्मान दिया। चाय बनाने के लिए भीतर आवाज़ लगाई। मैंने मना किया तो कहने लगे, "कुछ तो लेना ही पड़ेगा।"

मैंने कहा , "चाय की जगह 'छाय' पिला दीजिए।"

वे बोले ऐसे क्या करते हो मास्टर जी! हमारे साथ एक होलदार था बजरंगा! जेब में कागज की पुड़िया में लपेटकर मीठी गोलियाँ रखता। जब हमारे साथ तफ़्तीश पर जाता तो चाय के लिए पूछे जाने पर कहता, "चाय तो मैं पीऊँ कोनी। माथा दुख रहा है। एक गोळती (टेबलेट) लेणी है। एक गिलास दूध गरम करवा दो।"

अब पुलिस को कौन इनकार करे।जब गरम दूध आता तो पहले कटोरी में थोड़ा दूध फूँक मारकर ठंडा करता। कागज की पुड़िया से मीठी गोली फाँक कर दूध का कुल्ला भरकर गर्दन को ऐसे हिलाता जैसे वास्तव में कड़वी दवा निगली हो। फिर घूँट-घूँट गरम दूध पीता। आप भी उसकी तरह फिर छाछ क्या दूध पी लो। मई की सुलगती दोपहर में मुझे छाछ ही बेहतर विकल्प लगा। जनगणना के दस-पंद्रह दिन में लगभग एक जैसी सामाजिक-आर्थिक हालत वाले घरों में अलग-अलग जिंदगियाँ मिलीं एक खेत में एक कच्चे झूँपे का घर मिला।  झूँपे में एक वृद्धा मिली। झूँपा पाल (घास-फूस की दीवार) और घेरदार छत में लदक (पिचकना) पड़ने से आगे इतना झुक आया था कि अंदर-बाहर जाने वालेवाले को लगभग मुर्गा बनना पड़ता था। बुढ़िया माँ की कमर भी झूँपे की तरह ही झुकी थी। बाहर से आती तो झूँपा और वृद्धा दोनों एक-दूसरे के पगाँ लागते (चरणस्पर्श) प्रतीत होते।

झूँपा अकेला पूरा घर था। गेस्ट रूम, बेड रूम, स्टोर रूम, किचन सब! वृद्धा भी अकेली पूरा परिवार थी। मुखिया से सदस्य तक सब! पति उसकी आँखों की जोत की तरह विलोप हो गया था। सास-सासुर मुँह के दाँतों की तरह कबके झर चुके। बेटे पोते हैं पर सबने घुटनों की तरह जवाब दे दिया। हप्ते-दस दिन से एक पोती आटा पीपे में रख जाती है। वह अंदाजे से टटोलकर दोनों भखत(वक्त) की दो रोटी एक साथ सेक लेती है। वृद्धा अपने आप में अपना अतीत ही नहीं, संयुक्त परिवारों का भयावह भविष्य भी थी। जमीन,जायदाद और आमदनी बताने के लिए हर्गिज तैयार नहीं हुईं। जैसे बाप की औलाद, औलाद की फिर औलाद होती है। वैसे ही गाँव की ढाणी और ढाणी की फिर ढाणी होती है। चैनदास की ढाणी की मुख्य बस्ती से जो लोग अपने-अपने खेतों में जा बसे थे, उनकी एक-एक, दो-दो परिवार की ढाणियाँ थीं। स्कूल के दक्षिण में सीकर-सालासर रोड के परली पार की ढाणियों में जनगणना के चरण पड़ने थे। सड़क के पार एक कच्चा गोवा (रास्ता) जाता है।

रेतीला पथ! उतरते बैसाख की अगन-तन धूप राह की रेत को सूरज की आँच में सेक रही थी। आक के पत्ते पहले पीले पड़े, फिर पापड़ की तरह सिक कर झड़ गए थे। निपाते आक सींव की रखवाली कर रहे थे, पास खड़ी खींप खामोश थी। हाँफती लू जैसे फूँकणी मुँह से सटाए कनपटियों पर फूँक मार रही थी। भर (रेत का पहाड़नुमा लम्बा टीला) के तले एक खेत में दो जुड़वाँ ढाणी थी, जिनमें दो सगे भाइयों को दो सगी बहनें ब्याही गई थीं। ढाणी के बाहर गाय-भैंसों की खूँटों बँधी ढाणी थी। ठाणों (पशु बाँधने का स्थान) में रखी ल्हासें खाकले और रजके घास के मिश्रण से भरी थी। जोड़ली बहनों में से एक घूँघट काढ़े बैठी थी, दूजी उघाड़े मुँह लोहे की चादर से बने उठाऊ चुल्हे में चाय बना रही थी। घूँघटवाली की तबीयत खराब लग रही थी, शायद उसका सिर दुख रहा था। कमरों की दीवार से सटाकर ढाळे गए एक मझोले मचले (चारपाई) पर एक बारह-तेरह साल का लड़का नीली बारीक चेक्स का आधी बाँह वाला गुलाबी कमीज पहने पड़ा था। उसकी आँखों पर माँ का सूती ओढ़ना पड़ा था तो नाभी से घुटनों तक बाप का रेजी (मोटा सूत) का तोलिया लिपटा था।

       उघाड़े मुँहवाली की उदास आवाज़ ने बताया, " बाळ्यो स्याणू! छोरा बहुत हुँश्यार था पढ़ने में। सातवीं की 'परिक्ष्या' नहीं दे पाया। न्हईं तो इस साल बोरड (आठवीं बोर्ड) में होता। बच्चों के साथ किरकेट खेलते समय गिंडी (गेंद) की लग गई। बच्चे ने लगातार पेट दर्द की शिकायत की तो सेवद दिखा दिया। ठीक नहीं हुआ, तो गूजरों की ढाणी में बाबाजी से झाड़ा लगवाया। बूझा करवाई, आखे दिखाए, स्याणे-भोपों के चक्कर काटे। उनसे 'आरा-टीमला (तंत्र-मंत्र)' करवाया। देई-देवताओं के फेरी-परकमा,जात-वात दी। फिर सीकर ले गए। राठी (सीकर के प्रसिद्ध सर्जन) को दिखा दिया। उसने भी जैपर (जयपुर) रेफर कर दिया। वहाँ जाँच में 'कंसर' बणगी। डाकटर जाब (जवाब) दे दियो। इसके पापा को इराक गए दस महीने हुए थे। बीच मुसाफिरी वापस आना पड़ा। मकान बनाने से पैसे सिर (कर्ज) हो गए। इराक के बीजे (वीजा) के पैसे लग गए। अब ये कर्जा और ये बीमारी! उसने जरा सा तोलिया हटाकर बच्चे के पेट में नाभी के नीचे एक गूमड़ दिखाया। स्पर्श से भयभीत बच्चे ने आँखों से ओढ़नी हटाकर मेरी ओर देखा। उसकी आँखों में दुनिया भर की पीड़ा, बेबशी और लाचारी उमड़ आई।

उघाड़े मुँहवाली बोली, "कल आते ही बाप-बेटे लिपटकर बेजाँ (बहुत) रोए।"

मैंने एक नज़र घूँघटवाली को देखा। उसकी तबीयत खराब थी पर उसका  माथा शायद नहीं, यकीनन दुख रहा था। दुख रहा था रोम-रोम। रो रहा था रोम-रोम, कराह रहा था रोम-रोम। वह घूँघट के भीतर बेआवाज़ रो रही थी। नियति  दुख का भारी भाटा (पत्थर) उसकी छाती पर रखकर फोड़ रही थी और उस अभागन ने 'उफ' का भी गला घोंट दिया था। बच्चे की कुणार (कराह) के साथ कोई अनजानी सूई उसके कलेजे को बेंध जाती थी। पंद्रह-बीस दिन बाद जनगणना का दूसरा चरण शुरू हो गया था। पर उधर बढ़ते हुए पग धूजते थे। एक भभका सा पेट से उठता, रोंगटे खड़े होने के साथ हल्की सिहरती ठंड जिस्म को जकड़ लेती। मगर जाना तो था। सड़क पर खड़े नाराण जी और हरदेव जी बस उडीकते (इंतजार) मिल गए। मैंने पूछा,"उस बच्चे का क्या हुआ?"

नाराण जी बोले , "भोत दुख पाया। अमल (अफीम) देने से ऊँट भी बेहोश हो जाता है। पण उस पर अमल भी असर नहीं करता था।"

हरदेव जी बोले, "हमारी ढाणी आधी कोस है पर कभी-कभी रात को यहाँ तक चिल्ली (चीख) सुनती थी। अपने करमों का बदला चुकाने आया था बिचारा, बदला चुकाकर चला गया।"

मैं सड़क पार कर आधी-पौन कोस सुन्ना होकर चलता रहा। भर की बाँह तले बसी जुड़वां ढाणी कब गई पता ही चला। ढाणी इतनी खामोश, जैसे गूँगी हो गई हो। गाय, भैस ठाण पर चुपचाप। घर भर के आँसू रीत गए थे। जब दुख का अतिरेक विलम्बित लय में ढलता है तो आँसू आँखों में ही सूख जाते हैं। रुदन गूँगा होकर कलेजा फाड़ने वाला हो जाता है। घर भर के गले में जैसे किसी ने उदासी का ताबीज बाँध दिया था।  मैंने बिना बोले बस हाथ जोड़े। जवाब में उस आदमी से ठीक-ठीक हाथ भी जुड़ सके। गोद में रखे हाथों की अँगुलियाँ मिलाने की हल्की सी कोशिश हुई। आवाज़ कंठ से निकलने-निकलने को होकर कंठ में डूब गई।  सिर्फ गर्दन में हल्की सी जुम्बिश हुई। सूचनाएँ  करीब-करीब पहले चरण में ही गई थी, जो रह गई थीं, वे नोट करनी थी बस। मैंने लिखने के लिए पेन निकाला। पर स्याही चुक गई थी। वह पैंतालीस से पचास के बीच का आदमी। उसके सिर पर वही रेजी का तोलिया बँधा था।  लगभग सफेद आंशिक काली दाढी डबशूलों (नुकीले काँटे) की तरह बेतरतीब बढ़ी थी। जबाड़े बैठ रखे थे। अपनी सूजी और सूनी आँखों से उसने मुझे देखा। मेरे बिना कुछ कहे उसने मरी-सी आवाज़ में पुकारा, " बेटा पे…."

         पेन पकड़ा सकने वाला बेटा तो जा चुका था, बहुत दूर। वह जिंदा मगर बेजान आदमी इस तरह उठा जैसे जिंदगी में आखिरी बार उठ रहा हो। भीतर से आया तो उसके हाथ में एकदम 'नया अटाण' चमचमाता हुआ इराक का पेन था। पेन मेरे हाथ में देते वक्त अनायास उससे मेरी नजरे टकरा ईं अपने होठों से फूटी फफकी को उसने रेजी का कमछा मुँह में ठूँसकर वापस गले में धकेल दिया। इराक का पेन पकड़ाते वक्त लगा कि वह आदमी पेन नहीं बल्कि अपना बेटा मुझे दे रहा हो अपने आप से काटकरचैनदास की ढाणी में मुझे ज्यादातर बेचैनदास मिले। मुखिया से ज्यादा दुखिया मिले। मगर वह इराक का पेन और इराक के पेन का बाप, जिसकी दरकती छाती पर दुख की 'भर' उग आई थी, भूलने के काबिल है।

 

डॉ. हेमंत कुमार
सहायक आचार्य (हिंदी)श्री कल्याण राजकीय कन्या महाविद्यालयसीकर (राजस्थान)
hemantk058@gmail.com, 9414483959

चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक ई-पत्रिका 
  अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-52, अप्रैल-जून, 2024 UGC Care Listed Issue
सम्पादक-द्वय : माणिक-जितेन्द्र यादव चित्रांकन  भीम सिंह (इलाहाबाद विश्वविद्यालय)

7 टिप्पणियाँ

  1. विष्णु कुमार शर्माअगस्त 04, 2024 6:23 pm

    अद्भुत। आपकी लेखनी और उससे साकार हुई करुणा प्रणम्य है।

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  2. हर बार की तरह इस बार भी अपनी माटी (यूजीसी केयर लिस्टेड ई जर्नल) के जुलाई अंक में डाक्टर भाई हेमंत कुमार का अद्भुत संस्मरण। 💐💐
    जनगणना के माध्यम से विद्यार्थियों के लोक को आलोकता एक करुणावान शिक्षक और उसकी लेखनी से निसृत एक समर्थ रचना।

    🙏

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  3. पढ़ते वक्त गांव ढाणियों की इस यात्रा को महसूस किया। सचमुच आंख सी भर आई। अध्यापकी की भूमिका वाला पैरेग्राफ जेहन पर अंकित हो गया। हेमंत जी जैसे करुणामय शिक्षक जब तक व्यवस्था में है एक आस बनी रहती है।

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  4. अपनी माटी में छपा आपका सस्मरण पढ़ा। अभी आधी रात में हॉस्टल की छत पर टहल रहा हूं, अब जल्दी नींद नहीं आने वाली हैं। पिछली बार छपा आपका सस्मरण पढ़ा था तब स्कूल की अच्छी यादों तक पंहुचा था इसलिए आंसू आए थे। इस बार आपने राजस्थान के आंचलिक दर्द को लिखा है, इस बार के आंसू आंचलिक सुनहरी यादों के आंसू नहीं, आंचलिक दर्द के आंसू हैं।
    आपको पढ़ने के बाद लगातर गहरा होता जा रहा यह विश्वास कमज़ोर पड़ता है कि ’हम संवेदनहीन होते जा रहे है।’ आपका लेखन पाठको की संवेदनशीलता को उजागर करता है, रुलाता है।
    शुक्रिया इतना अच्छा सस्मरण लिखने के लिए।

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  5. आज पढ़ पाया इस संस्मरण को। यह संस्मरण धीरे-धीरे जिस तरह से अपने जादू में जकड़ते हुए मुझे बांधता चला गया पता ही नहीं चला की कब में अपने आप को डॉ.हेमंत कुमार के रूप में देखने लग गया। आधा पढ़ने के बाद पाठक किसी भी सूरत में इसे बीच में छोड़ने किया ताकत नहीं रखता है। और इसके अंत ने तो इतना भावुक कर दिया कि मन इराक के पेन के बाप से मिलने की ज़िद करने लगा।
    इतना अच्छा संस्मरण साझा करने के लिए धन्यवाद लेखक महोदय।

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  6. मैं आपका सहकर्मी हूँ। आपकी रचनात्मक प्रतिभा से परिचित हूँ। यह रचना भावनाओं को जगाती है। जिस तरह से आप भावनाओं को व्यक्त करते हैं, वह मुझे बहुत पसंद है। रचना की शुरुआत ने मेरे होठों पर हल्की मुस्कान ला दी, लेकिन अंत ने मुझे झकझोर दिया।

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