- महावीर सिंह एवं डॉ. कविता मीणा
शोध सार : मूलतः प्रेमिल काव्य विधा ग़ज़ल अब वैयक्तिक प्रेम और विरह वेदना का मन बहलाने वाला मृदुल मंद्र सप्तकी गान भर नहीं है। अपितु अपने समय और समाज से रूबरू समकालीन हिंदी ग़ज़ल सामयिक विद्रूप व्यवस्था से उपजी समस्याओं और चुनौतियों का दिल के संग दिमाग को झकझोरने वाला झंझावती तार सप्तकी स्वर है। स्वातंत्र्योत्तर दौर में दुष्यंत कुमार ने हिंदी ग़ज़ल को नया व्यक्तित्व प्रदान करते हुए उसे सामाजिक-राजनीतिक चेतना से संबद्ध किया तथा उसे आजादी के बाद की आम जिंदगी की दुश्वारियों की अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया। दुष्यंत के पथ पर आगे बढ़ते हुए हिंदी ग़ज़ल अब साम्प्रतिक दौर में राजनीतिक-प्रशासनिक,सामाजिक, आर्थिक क्षेत्र में विद्यमान समस्याओं व चुनौतियों को न केवल स्पष्ट रूप में उजागर करती है। वरन उन समस्याओं के मूल कारकों व कारणों को बेनकाब करते हुए उनके उन्मूलन का क्रांतिकारी संदेश भी देती है। आजादी के बाद हमारे देश ने आधारभूत संरचना के विकास के साथ शिक्षा, स्वास्थ्य, कृषि, उद्योग, विज्ञान, अंतरिक्ष, सामाजिक कल्याण आदि विभिन्न क्षेत्रों में काफी तरक्की की है। लेकिन यथेष्ट उन्नति अभी तक नहीं हुई है तथा आजादी के पचहत्तर वर्षों बाद भी भारतीय लोकतांत्रिक समाज के समक्ष भ्रष्टाचार, सांप्रदायिकता, आतंकवाद, सामाजार्थिक विषमता, गरीबी, बेरोजगारी एवं महँगाई जैसी कई गंभीर समस्याएँ एवं चुनौतियाँ सुरसाई मुँह बाये खड़ी है। प्रस्तुत शोध आलेख का उद्देश्य स्वतंत्र्योत्तर भारतीय समाज की समस्याओं व चुनौतियों को चिन्हित कर उन्हें उजागर करने तथा उनके उन्मूलन की चेतना जाग्रत करने में हिंदी ग़ज़ल की भूमिका को रेखांकित करना है।
बीज शब्द : समकालीन हिंदी ग़ज़ल, भ्रष्टाचार, गरीबी, बेरोजगारी,
महँगाई, आर्थिक
विषमता, आतंकवाद, साम्प्रदायिकता, वंचित समाज- किसान, मजदूर,
स्त्री, पर्यावरण।
मूल आलेख : काव्य जीवन की समीक्षा या आलोचना है। सरल शब्दों में कहें तो कविता वह दर्पण है, जिसमें जीवन-जगत के श्वेत-श्याम सभी तरह के चित्र प्रतिबिंबित होते हैं। युग बोध से संपृक्तता एवं सम्पन्नता हर कवि का अनिवार्य गुणधर्म है, क्योंकि कवि का कला धर्म उसके जीवन बोध से पृथक नहीं हो सकता है। जिसकी अभिव्यक्ति प्रसिद्ध ग़ज़लकार कुँअर बेचैन अपने एक शेर में इस प्रकार करते है- “जो वक्त की आँधी से खबरदार नहीं हैं/ कुछ और ही होंगे वो कलमकार नहीं हैं।”[1] हिंदी ग़ज़ल के शिखर पुरुष दुष्यंत कुमार की इसी युगबोध संपन्न दृष्टि के प्रभावस्वरूप हुस्न और इश्क के काल्पनिक रंगीन ख्यालों में खोई रहने वाली परम्परागत ग़ज़ल राजनीतिक व सामाजिक चेतना से संबद्ध होती है तथा अपने समय व समाज का आईना बनती है। दुष्यंत के समकालीन व उनके परवर्ती ग़ज़लकारों की लेखनी से निसृत समकालीन हिंदी ग़ज़ल युग आलोचना के दायित्व का निर्वहन करती हुई जीवन सौंदर्य के खूबसूरत चित्रों के साथ सामयिक जीवन की तमाम विद्रूपताओं व अव्यवस्थाओं तथा उनसे उपजी समस्याओं एवं चुनौतियों का न केवल अंकन करती है। अपितु उनके उन्मूलन की चेतना जाग्रत कर बेहतर जीवन की संभावनाओं का क्षितिज रचती है। आज के ग़ज़लकारों की रचनादृष्टि मुख्य रूप से अपने समय व समाज की विसंगतियों, मूल प्रश्नों, समस्याओं व चुनौतियों पर ही टिकी है। इसलिए सामयिक जीवन की विसंगतियों, समस्याओं और चुनौतियों का जितना सघन व मुखर स्वर समकालीन हिंदी ग़ज़ल में विद्यमान है। वह अन्यत्र इस रूप में शायद ही दृष्टिगत होता है। इसमें कोई दोराय नहीं है कि आज की हिंदी ग़जल आजादी के बाद के भारत की तमाम तरह की चुनौतियों एवं समस्याओं को न केवल स्पष्ट रूप में रेखांकित करती है। अपितु उनके मूलोच्छेदन के लिए जन चेतना भी जाग्रत करती है।
दरअसल हमारे देश का स्वाधीनता
संग्राम पराधीन भारत की विद्रूप तस्वीर को स्वतंत्रता के
पश्चात रामराज्य के स्वप्नों के यथार्थ से विस्थापित करने के उद्देश्य से किया गया
राष्ट्रीय आंदोलन था। स्वतंत्रता के पश्चात हमारे
राष्ट्रनायकों ने इस दिशा में कदम भी उठाये, जिसके
परिणामस्वरूप देश ने बहुत प्रगति की है। परंतु उन्नति अभी तक भी अपेक्षित
स्तर तक नहीं पहुँची है। तथा आजादी के सात दशक बाद
भी भारतीय समाज अनेक राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक समस्याओं
एवं चुनौतियों से जूझ रहा है। इसका कारण यह है कि राष्ट्रीय स्वतंत्रता संग्राम राष्ट्रप्रेम व राष्ट्रीयता की जिस आदर्श भावना के साथ लड़ा गया था। स्वतंत्रता के पश्चात हमें उन उच्च आदर्शों को हमारे देश की शासन-प्रशासन की कार्यप्रणाली व सामाजिक जीवनाचारण में स्थापित व संपोषित करने की दिशा में कदम बढ़ाने की जरूरत थी। परंतु आजादी के बाद का हमारा राजनीतिक नेतृत्व एवं समाज इसके ठीक विपरीत दिशा की ओर गतिमान है। हमारे राष्ट्रीय राजनीतिक नेतृत्व ने स्वाधीनता आंदोलन के नायकों व सेनानियों के उन राष्ट्रप्रेमिल उच्च आदर्शों को भूला स्वजनप्रेम व स्वार्थपरता को अपना आदर्श बना लिया है, जिसके परिणामस्वरूप राजनीतिक जीवन तथा उसके अनुकरण से सामाजिक जीवन में भी मूल्यों की पतनशीलता वर्तमान भारतीय लोकतंत्रात्मक समाज की पहचान बन गई है। इस संबंध में
डॉ. अनिलकुमार शर्मा की
यह टिप्पणी द्रष्टव्य है- "जनतंत्र मानव-कल्याण
का वाहक होता है, किंतु ऐसा लगता है कि भारतीय जनतंत्र की समूची ऊर्जा ही आज जैसे स्खलित-सी
हो गई है। जैसे-जैसे लोकतंत्र आयु की सीढ़ियों पर चढ़ता जा रहा है, वैसे-वैसे इसकी
आंतरिक विकृतियाँ विकराल रूप लेती जा रही हैं। डरावना यथार्थ तो यह है कि जिन लक्ष्यों
के लिए और जिन मूल्यों के संबल के साथ इसकी स्थापना की गई थी, वे वर्तमान राजनीति की
गतिविधियों के कारण पूरी तरह लुप्त होते जा रहे हैं।"[2] स्वतंत्रता संग्राम के हमारे नेतृत्व और स्वातंत्र्योत्तर राजनीतिक नेतृत्व के चारित्रिक अंतर को व्यक्त करते हुए दुष्यंत कुमार अपने एक शेर में प्रतीकात्मक शैली में लिखते है- “दुकानदार तो मेले में लुट गए यारो!/ तमाशबीन दुकानें लगाके बैठ गए।”[3] वर्तमान दौर में यह मूल्यहीनता जीवन के हर क्षेत्र को आक्रांत करके हमारे लोक व्यवहार का अनिवार्य अंग बन गई है और यही आज देश की बहुत सी समस्याओं व चुनौतियों की मूल है। स्वातंत्र्योतर भारतीय समाज की तमाम तरह की समस्याएँ एवं चुनौतियाँ तथा इनके कारणों
की गहरी जाँच पड़ताल समकालीन हिंदी ग़ज़ल में बखूबी दर्ज
है। जिनको इस प्रकार रेखांकित किया जा सकता है-
राजनीतिक -प्रशासनिक चुनौतियाँ-
भ्रष्टाचार - स्वतंत्रता के पश्चात हमारे देश में राजनीतिक मूल्यों का तीव्र गति से ह्रास हुआ है। जिसके कारण आजादी बतौर महज सत्ता स्थानान्तरण विदेशियों की शोषक सत्ता को विस्थापित करने वाली अपनों की शोषणकारी व्यवस्था बनकर रह गई
है। आजादी की तीन-चौथाई शताब्दी गुजरने के बाद भी आम जनता की स्थितियों में वांछित खुशहाल बदलाव नहीं आया है। इसका कारण यह है कि जनसेवा के पवित्र भाव से पूरित राजनीति आजादी के पश्चात सत्ता एवं स्वार्थ पूर्ति का साधन बन गई है। वर्तमान की राजनीति एक ऐसा प्रिज्म बन गई है जिसके एक और बेचैनियों से संत्रस्त अवाम है, तो दूसरी ओर सत्ता के आश्वासनों का जाल, एक और सत्ता की वाहवाही है, तो दूसरी ओर जनता की आह, कसक, पीड़ा। आमजन की इन फटेहाल जीवन स्थितियों का कारण राजनीतिक व प्रशासनिक तंत्र में व्याप्त भ्रष्टाचार व रिश्वतखोरी की समस्या है, जिसका समाधान हमारे लिए एक बड़ी चुनौती है।
भ्रष्टाचार की दीमक ने हमारे राजनीतिक-प्रशासनिक तंत्र में गहराई से घर कर लिया है। यह राष्ट्र के विकास की नींव को निरंतर खोखला कर रही है।
देश की मेहनतकश आम जनता के खून-पसीने की कमाई एवं मध्यम वर्ग के टैक्स के पैसे से चलने वाली विकास
योजनाओं का एक बहुत बड़ा हिस्सा राजनीतिक प्रशासनिक तंत्र में व्याप्त भ्रष्टाचार एवं
रिश्वत की भेंट चढ़ जाता है तथा बहुत कम अंश ही लक्षित आमजन एवं लक्षित जगहों तक पहुंच
पाता है। जिसके बारे में (विकिपीडिया स्रोत के आधार पर) पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गाँधी
ने कहा था कि जनकल्याणकारी योजनाओं का 15 फ़ीसदी पैसा ही आमजन तक पहुँच पाता है। इसी
तरह हिंदी ग़ज़लकार ज़हीर कुरेशी विकास योजनाओं की आमजन तक पहुंँचने वाले राशि को 25
प्रतिशत तथा भ्रष्टाचार में भोग होने वाली राशि को 75 फीसदी बताते हुए अपने एक शेर
में कहते हैं- “पचहत्तर फ़ीसदी वे खा गए/ हमारे
हाथ तब अनुदान आया।”[4] देश के विकास की पंचवर्षीय नदियाँ राजनीतिक- प्रशासनिक तंत्र में विद्यमान भ्रष्टाचार के अदृश्य ब्लैकहॉल में समाकर आमजन तक पहुँचने से पहले ही सूख जाती है और आम जनता प्यासी की प्यासी रह जाती है। आजादी के पतहत्तर वर्षों में इस भ्रष्टाचारी राजनीतिक-प्रशासनिक तंत्र के समुद्र ने देश के कितने ही विकासी-सावनों के बरसाती धन-जल को विकास योजनाओं की नदियों के मार्ग से बिना हलचल के अपने भीतर समाहित कर लिया है। जिसके कारण रोटी,
कपडा व पक्का मकान जैसी मूलभूत आवश्यकताओं के साथ बिजली, पेयजल, सड़क जैसी आधारभूत सुविधाओं से वंचित देश के भाग्य विधाता मेहनतकश आमजन की जिंदगी विकास के धन-जल के अभाव में सूखी नदी का रेतीला रास्ता एवं दुश्वारियों की धूप से विदीर्ण होती धरती बनकर रह गई है। यह आमजन सात दशक से विकास के सावन का इंतजार कर रहा है। जिसके मूल में भ्रष्टाचार की आँधी की गंभीर चुनौती है। हिंदी ग़ज़लकारों ने भ्रष्टाचार की समस्या को समुद्र, नदी, धरती आदि प्रतीकों के सहारे मार्मिक ढंग से बखूबी उद्घाटित किया है -
“यहाँ तक आते-आते सूख जाती हैं कई नदियाँ,
मुझे मालूम है पानी कहाँ ठहरा हुआ होगा।”[ 5] (दुष्यंत कुमार)
“हर विकास की नदी कहाँ खो जाती है
क्यूँ धुंधले समृद्धि चित्र ये पहचानो।”[6] ( महेश कटारे ‘सुगम’)
“इक समंदर ले गया घर अपने बारिश को समेट
और बची है धूप में धरती दरकने के लिए।”[7] (विनय मिश्र)
“बे-मेहर हुक़्काम था सब कुछ उठा कर ले गया
जिस तरह दरियाओं का पानी समंदर ले गया।”[8] (ज्ञान प्रकाश विवेक)
“एक सावन की मैं अब भी राह तकता हूँ
आज भी सूखी नदी का एक रस्ता हूँ।”[9] (विनय मिश्र)
भ्रष्टाचार का यह संक्रामक रोग लोकतंत्र के विधायी व कार्यकारी अंगों के साथ इन अंगों के द्वारा किये जाने वाले भ्रष्टाचार को नियंत्रित करने के दायित्व का निर्वहन वाले लोकतंत्र के प्रतिरक्षक अवयवों-
न्यायपालिका और मीडिया को भी अपनी चपेट में लेकर उन्हें भी रुग्ण कर रहा है। और धीरे-धीरे असाध्य होता जा रहा है।
भ्रष्टाचार के कारण न्यायपालिका का न्याय भी बिकाऊ हो, आमजन के लिए मृग-मरीचिका बन गया है तथा अपराधियों को कठघरे में खड़ा करने वाली अदालतें मुजरिमों के पक्षों में फैसला देकर खुद कठघरे में खड़ी हैं। लोकतंत्र का चतुर्थ स्तंभ मीडिया भी बिकाऊ हो गया है। वर्तमान मीडिया सत्ता से सुविधा शुल्क लेकर उसकी विरुदावली गाने वाले चारणों की भूमिका में आ गया है तथा सत्ता का चरणगामी व अनुगामी होकर रह गया है। स्वस्थ व समृद्ध लोकतंत्र के लिए न्यायपालिका व मीडिया के भ्रष्टाचारमुक्त संविधान रक्षक स्वरूप को स्वस्थ रखा जाना वर्तमान समय की आवश्यकता के साथ एक चुनौती भी है। समकालीन हिंदी ग़ज़लकार अपनी ग़ज़लों के सूक्ष्मदर्शी यंत्र से न्यायपालिका व मीडिया के बिगड़ते स्वास्थ्य के कारक भ्रष्टाचार के जीवाणु को जगजाहिर करते हैं-
“बड़े आराम से वो क़त्ल करके घूमता है
उसे मालूम है जज भी तो पैसा सूँघता है।”[10] (डी. एम. मिश्र )
“विलंबित
औ' बिकाऊ फै़सलों पर
ये कैसी न्याय पाने की सनक है।”[11] (विनय मिश्र)
“वक़्त
की चुनौती से कटा हुआ मीडिया
सत्ता के क़दमों में बिछा हुआ मीडिया
सेठों
की मेहर पर टिका हुआ मीडिया
डालर
के भोंपू का ‘हुआ-हुआ’ मीडिया।”[12] (राम मेश्राम)
भ्रष्टाचार देश के समुचित विकास में बहुत बड़ी बाधा है।
इसका अंत हमारे समाज के लिए आज एक बहुत बड़ी आवश्यकता के साथ गंभीर चुनौती भी है। क्योंकि इस संबंध में सरकारों द्वारा किए गए तमाम प्रयासों एवं भ्रष्टाचाररोधी कानूनों के बावजूद यह समस्या कम नहीं हो रही है, बल्कि लगातार बढ़ती जा रही है।
दृष्टि आईएएस की वेबसाइट एवं दैनिक भास्कर (अॉनलाइन) में 30 जनवरी 2024 को प्रकाशित ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल द्वारा जारी भ्रष्टाचार बोध सूचकांक में भारत विश्व के 180 देश में विगत वर्ष 2022 के 85वें स्थान से 8 पायदान खिसककर 2023 में 93वें स्थान पर पहुंच गया है। जो देश में बढ़ते भ्रष्टाचार की पुष्टि करता है। लोकतंत्र के भ्रष्टाचार प्रतिरक्षी अंग- न्यायपालिका व मीडिया भी इस रोगाणु से क्षयग्रस्त हो गए हैं। ऐसे में जन क्रांति की शल्य चिकित्सा से ही इस समस्या का समाधान संभव हो सकता है। हिंदी ग़ज़लकार निरंतर बलवती होती जा रही भ्रष्टाचार की समस्या के समाधान के लिए क्रांति को आवश्यक मानते हुए आमजन को, विकास की किरणों के चुनिंदा जगहों पर ही ठहराव के कारणों को लेकर सत्ता से सवाल करने के लिए प्रेरित कर भ्रष्टाचार के खिलाफ प्रतिरोधी ज्वाला जाग्रत करते हैं-
“सूरज की हर किरण कहाँ आकर ठहर गयी
उन कारणों की बात हो, भूलों की बात हो।”[13] (वशिष्ठ अनूप)
“हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए,
इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए।
मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही,
हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिए।”[14] (दुष्यंत कुमार)
आतंकवाद - यद्यपि आतंकवाद आज हमारे देश की ही नहीं, अपितु संपूर्ण विश्व के लिए एक बहुत बड़ी चुनौती बन गई है। फिर भी हमारे लिए यह कहीं ज्यादा गंभीर समस्या एवं चुनौती है क्योंकि हमारा देश आजादी के बाद से ही पड़ोसी देश द्वारा प्रायोजित आतंकवाद से जूझ रहा है। तथा शांति-सुलह के तमाम प्रयासों के बावजूद भी पड़ोसी इससे बाज नहीं आ रहा है। पड़ोसी देश ने
आतंकवादियों के संगठित नेटवर्क को संरक्षण दे रखा है, जो जम्मू कश्मीर एवं संपूर्ण देश में आतंकी गतिविधियों को अंजाम देकर निर्दोष जनता का खून बहाते हैं। इसके अतिरिक्त आतंकवादी मानसिकता से प्रभावित हो जम्मू कश्मीर और नक्सल प्रभावित राज्यों के बहुत से पढ़े-लिखे नौजवान भी धर्म के नाम पर या गरीबी, बेरोजगारी एवं अन्य कारणों से आतंकवादियों-नक्सलवादियों के गिरोह में शामिल हो निर्दोष जनता पर कहर बरपाते हैं। देश के मस्तक एवं धरती के स्वर्ग- कश्मीर की धरती आतंकवादियों की मानवता विरोधी आतंकी गतिविधियों के कारण केसर के लाल रंग की जगह खून से सिंक्त हो गयी है तथा वहाँ बारूदी फसलें उग रही है जिससे वहाँ के निवासियों का जीवन बड़ा नारकीय हो गया है। आतंकवाद आज जम्मू कश्मीर ही नहीं सम्पूर्ण देश तथा सम्पूर्ण विश्व को अपनी जद में ले चुका है। हमारे देश की संसद पर (2001 ई.), मुम्बई में (2008 ई.) तथा वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर (2001ई.) में हुए आतंकी हमले इसकी पुष्टि करते हैं। आतंकवाद इक्कीसवीं सदी में तकनीक की ताकत से निरन्तर और भी भयावह होता जा रहा है। सम्पूर्ण देश एवं विश्व पर आतंक का साया मंडरा रहा है तथा कोई भी कहीं भी सुरक्षित नहीं है। यह आतंकवाद व नक्सलवाद आज हमारे देश के लिए बहुत बडी़ चुनौती बनी हुई है। हिंदी ग़ज़लकारों ने जम्मू कश्मीर में आतंकी गतिविधियों के कारण होने वाली बर्बादी के खौफनाक मंजर को चित्रित करते हुए इक्कीसवीं सदी में इसके विकराल होते मानवता विरोधी दानवी स्वरूप को लेकर चिंता व्यक्त की है-
“जहाँ केसर महकता था, जहाँ खुशबू पनपती थी
उगीं बारूद की फसलें वहीं बंकर निकल आए।”[15] (कमलेश भट्ट कमल)
“ये जाफ़रान के खेतों से पूछना होगा
कि झील किस तरह बारुद से है मिल जाती।”[16] (देवेन्द्र आर्य)
“दिलों में घाव, माथे पर तिलक है
वही जो कल तलक था आज तक है
कहाँ हँसता है कोई वादियों में
वहीं बस चीख़ है डर है कसक है।”[17] (विनय मिश्र)
“आतंक युद्ध, भूख ने इतने सितम किये
किसको गले लगायेगी इक्कीसवीं सदी
बारूद सर पे लादकर बारूद ओढ़कर
बारूद ही बिछायेगी इक्कीसवीं सदी।”[18] (माधव कौशिक)
साम्प्रदायिकता-
अंग्रेजों की ‘फूट डालो और राज करो’ नीति का दुष्परिणाम हमारे देश का धर्म के आधार पर दो राष्ट्रों में विभाजन एवं आजादी के पश्चात देश में सियासी स्वार्थ के लिए सांप्रदायिकता की शुरुआत के रूप में हुआ। आजादी के पश्चात सभी राजनीतिक दलों ने सत्ता प्राप्ति के लिए धर्म, संप्रदाय, जाति, भाषा, क्षेत्र व प्रांत आदि के नाम पर लोगों को तरह-तरह से लड़ाकर अपनी सियासी रोटियां सेकी हैं। चौरासी के सिक्ख दंगे व बाबरी मस्जिद विध्वंस ऐसे ही सत्ता प्रायोजित सांप्रदायिक दंगों के उदाहरण है। जिनमें सियासी साजिश की शिकार होकर निरपराध व बेकसूर जनता दम तोड़ती रही हैं और नेता रक्त से सिंचित जमीन पर वोटों की फसलें उगाते आ रहे हैं। विभिन्न धर्मों के ठेकेदार बने धर्मगुरु भी अपने स्वार्थों के लिए इन सांप्रदायिक दंगों को हवा देते रहते हैं। आज भी आए दिन धर्म के नाम पर होने वाले साम्प्रदायिक दंगों तथा मॉब लीचिंग की घटनाओं में जान माल की काफी क्षति होती है तथा सामाजिक सौहार्द बिगड़ता है। सामाजिक समरसता एवं इंसानियत को राख के ढेर में तब्दील करने वाली निरन्तर विकराल होती सांप्रदायिकता की यह आग स्वातंत्र्योत्तर समाज की एक प्रज्वलित चुनौती है। सामाजिक समरसता के पैरोकार हिंदी ग़ज़लकार इस बढ़ती सांप्रदायिकता को अभिव्यक्त कर इसके प्रति चिंता एवं इसके लिए जिम्मेदार सत्ताधीशों एवं धर्मगुरुओं पर व्यंग्य प्रहार करते हैं-
“वल्लाह, किस जुनूँ के सताये हुए हैं लोग
हमसाये के लहू में नहाये हुए हैं लोग।”[19] ( अदम गोंडवी)
“वहाँ अल्लाह-हो-अकबर यहाँ श्रीराम की जय-जय
इधर गुरुओं की पौबारह उधर रहबर बहुत खुश है।”[20] (रामकुमार कृषक)
“आग भड़की, खून पानी हो गया
ख़ौफ़ में, दिल ब्रह्मज्ञानी हो गया।”[21] (राम मेश्राम)
आर्थिक चुनौतियाँ-
गरीबी -आजादी के सूर्योदय के साथ ही आमजन को अपनी फटेहाल दशा से निजात पाने तथा समृद्ध एवं खुशहाल जीवन की उम्मीद जगी थी। लेकिन जनता का यह रामराज्य का स्वप्न दिवास्वप्न ही बनकर रह गया। आजादी के बाद सरकारों द्वारा गरीबी हटाओ के नारों के शंखनाद के साथ गरीबी उन्मूलन की अनेक योजनाएं बनाई गई, लेकिन भ्रष्टाचार
व अन्य कारणों से उनका वास्तविक लाभ समाज में आखिरी पंक्ति में खड़े जरूरतमंद गरीब आमजन को नहीं मिला और वह आज भी गरीबी में जीवनयापन कर रहा है। आँकड़े कहते हैं कि आज भी भारत की लगभग 18-20 फीसदी जनसंख्या गरीबी की सीमा रेखा में आती है तथा बिहार जैसे राज्यों में तो इस गरीबी की लक्ष्मण रेखा ने आधी से अधिक आबादी को वर्षों से अपनी भीतर कैद कर रखा है। दृष्टि आईएएस वेबसाइट पर 12 जुलाई 2023 को अपडेट बहुआयामी गरीबी सूचकांक के अनुसार भारत में अभी भी 230 मिलियन से अधिक लोग गरीब हैं। सरकारें भले गरीबी उन्मूलन के लाखों दावे करें, पर सच यही है कि आजादी के 75 वर्ष बाद भी हमारे देश में लाखों-करोड़ों लोग भूखे-नंगे चिथड़ों में लिपटकर फुटपाथ पर सोने को विवश है। आज भी गरीबी हमारे देश के लिए एक बहुत बड़ी चुनौती बनी हुई है। हिंदी ग़ज़लकार देश व्यापी गरीबी की करूण तस्वीर खींचते हैं-
“उनका दावा मुफ़लिसी का मोर्चा सर हो गया।
पर हकीकत ये है मौसम और बदतर हो गया।”[22] (अदम गोंडवी)
“यह कैसा हाल है इस मुल्क में आजादी का
ग़रीब जो था वो आज भी ग़रीब है यारो।”[23] (वशिष्ठ अनूप)
“कल नुमाइश में मिला वो चीथड़े पहने हुए
मैंने पूछा नाम तो बोला कि हिंदुस्तान है।”[24] (दुष्यंत कुमार)
“यह हमारा देश है फुटपाथ पर सोया हुआ
लाज को ढँकने से ज्यादा पेट की चिंता लिए।”[25] (विनय मिश्र)
आर्थिक विषमता - स्वतंत्रता के लिए संघर्ष करते समय देशभक्तों ने यह स्वप्न देखा था कि आजादी के बाद सभी को जीवन के लिए आवश्यक मूलभूत सुविधाएँ प्राप्त होगी तथा सभी को अपने जीवन में उन्नति व समृद्धि के समान अवसर प्राप्त होंगे। जिससे समाज में सामाजिक-आर्थिक समता स्थापित होगी। इस स्वप्न को हकीकत में तब्दील करने की सोच के साथ ही हमारे देश में आजादी के बाद समाजवादी मिश्रित अर्थव्यवस्था अपनाई गयी थी, लेकिन आजादी के बाद समाज के अग्रपांक्तेय चरित्रहीन राजनीतिक नेतृत्व व साम्राज्यवादी पूँजीपति वर्ग में नैतिक व अनैतिक तरीकों से अधिकाधिक अर्थ संग्रह की होड़ मच गई। धन संचयन की इस आकाशी लालसा ने समाज में आर्थिक विषमता का ऐसा डिवाइडर पैदा कर दिया है जिसके दोनों ओर दो विपरीत जीवन शैलियाँ विकसित हो रही है- एक तरफ का समाज खाता-पीता, अघाता
है तथा ऐशोआराम पर धन का अपव्यय करता है, तो दूसरी तरफ का समाज अभाव, दीनता व दरिद्रता से जूझ रहा है। एक तरफ बिना मेहनत के भोग विलास पूर्ण जीवन शैली है, तो दूसरी तरफ हाड़ तोड़ मेहनत के बावजूद नारकीय जीवन है। एक तरफ अंधकार ही अंधकार है, तो दूसरी और कृत्रिम रोशनी की चकाचौंध है। एक और ऊंची- ऊंची
अट्टालिकाओं की संख्या व ऊंचाई निरंतर बढ़ रही है, तो दूसरी ओर फुटपाथी झोपड़ियों की संख्या भी लगातार बढ़ रही है। पूंजीपति मालिक निर्धन श्रमिकों का आर्थिक शोषण कर निरन्तर धनी होते जा रहे हैं और गरीब और भी गरीब होते जा रहे हैं। इस आर्थिक विषमता की गहरी व खौफ़नाक घाटी का अनुमान इंडियन एक्सप्रेस(ऑनलाइन) में 16 जनवरी 2023 को प्रकाशित आॅक्सफेम रिपोर्ट के आँकडों से लगाया जा सकता है, जिसके अनुसार भारत में कुल आबादी के केवल 5% अमीरों के पास 70%
से अधिक संपत्ति है, वही निचली 50% आबादी के साथ सिर्फ 3% संपत्ति है। अमीरी और गरीबी की निरंतर गहरी होती जा रही यह खाई भारतीय समाज के लिए एक भयंकर समस्या एवं गंभीर चुनौती है। हिंदी ग़ज़ल के कैमरे में समाज को दो हिस्सों विभाजित करने वाला आर्थिक विषमता का यह डिवाइडर (भेदक रेखा) बहुत ही स्पष्ट एवं सूक्ष्म रुप में कैद हुआ
है-
“किसी की आय पर लगती कोई लगाम नहीं
किसी के पास में रोटी का इंतजाम नहीं।”[26] (महेश कटारे सुगम)
“लगी है होड़-सी देखो अमीरों और गरीबों में
ये गाँधीवाद के ढाँचे की बुनियादी ख़राबी है।”[27] (अदम गोंडवी)
“आप कहते हैं सराफा गुलमुहर है ज़िंदगी
हम गरीबों की नज़र में इक कहर है ज़िंदगी।”[28] (अदम गोंडवी)
बेरोजगारी - स्वतंत्रता प्राप्ति के साथ ही यह सपना देखा गया था कि देश के हर नागरिक को योग्यतानुसार काम के समान व पर्याप्त अवसर उपलब्ध होंगे। परंतु जनसंख्या में बेतहाशा वृद्धि तथा गलत सरकारी नीतियों के कारण आजादी के 75 वर्ष बाद भी देश के हर हाथ को काम मिलने की बात तो दूर, आज बड़ी संख्या में उच्च शिक्षा प्राप्त युवा भी काम की तलाश में दर-दर भटक रहे हैं। तमाम दावों व प्रयासों के बावजूद भारत की लगभग 8-10 प्रतिशत आबादी आज भी बेरोजगारी की समस्या से जूझ रही है। हमारा देश विश्व में सबसे अधिक युवा आबादी वाला देश है। लेकिन निरंतर बढ़ रहे श्रमबल के अनुपात में नौकरियों के कम सृजन व कौशल की कमी के कारण बेरोजगार युवाओं की संख्या निरंतर बढ़ती जा रही है। इनमें भी पढ़े-लिखे बेरोजगारों की संख्या तीव्र गति से बढ़ रही है। रोजगार नहीं मिलने के कारण दर-दर भटक रहा युवा वर्ग सड़कों पर आंदोलन करने या आपराधिक गतिविधियों में लिप्त होने को मजबूर हो रहा है। बेरोजगारी स्वातंत्रयोत्तर हमारे समाज की एक बहुत बड़ी समस्या एवं चुनौती है। हिंदी ग़ज़लकार बेरोजगारी की समस्या एवं बेरोजगारों की पीड़ा को प्रकट करते हुए कहते हैं-
“मिलेगा काम-धन्धा हर किसी को
ये दावा फिर हवाई हो गया है।”[29] (वशिष्ठ अनूप)
“डिग्रियों की कोख से जन्मी
बुद्धिमत्ताएं सड़क पर है।”[30] (ज़हीर कुरेशी)
“करोड़ों हाथ खाली हैं, इन्हें कुछ काम तो दे दो
थमा देगी नहीं तो ड्रग्स या पिस्तौल बेकारी।”[31] (कमलेश भट्ट कमल)
“करोड़ों नौजवाँ हैं और नौकरियाँ है थोड़ी सी
फिर उसके बाद होती जगहँसाई मार देती है।”[32] (वशिष्ठ अनूप)
महँगाई- स्वातंत्र्योत्तर भारतीय समाज के लिए महँगाई भी एक बहुत बड़ी समस्या एवं चुनौती बनी हुई है। हर बार आम चुनावों में महँगाई बड़ा चुनावी मुद्दा बनती है और तमाम राजनीतिक दल व सरकारें इसके नियंत्रण के दावे करते हैं, परंतु अब तक ये सब दावे खोखले व असफल साबित हुए हैं। आजादी के सात दशक बाद भी जनसंख्या वृद्धि, कालाबाजारी – मुनाफाखोरी, उपभोक्तावादी व पूँजीवादी संस्कृति एवं गलत सरकारी नीतियों के कारण महँगाई सुरसा के मुँह की तरह निरंतर बढ़ रही है। यह महँगाई समाज में हाशिए पर खड़े आमजन व मध्यम वर्ग के लिए एक बहुत बड़ा सिरदर्द बनी हुई है। महँगाई के कारण समाज के निम्न वर्ग को ठीक ढंग से दो जून की रोटी का जुगाड़ करने के लिए भी संघर्ष करना पड़ता है। महँगाई पर नियंत्रण भी वर्तमान सरकारों के लिए एक चुनौती है। हिंदी ग़ज़लकार महँगाई की समस्या को रेखांकित करते हुए लिखते हैं-
“मंहगाई अभी सुरसा के मुँह जैसी
अब भी पसरी घर घर में कंगाली है।”[33] (महेश कटारे ‘सुगम’)
“मंहगाई की बात मत करो
रोज बढ़ रहे दामों वाली।”[34] (महेश कटारे ‘सुगम’)
“मंहगाई का आलम ये है
रोटी भी कैसे खाएंगे।”[35] (महेश कटारे ‘सुगम’)
“पेट्रोल और
डीजल अब
आसमान
के तारे हैं।”[36] (महेश
कटारे ‘सुगम’)
सामाजिक चुनौतियाँ
समाज में बढ़ती अपराध वृत्ति- इक्कीसवीं सदी में उदारीकरण व भूमंडलीकरण के कारण भारतीय समाज के सामाजिक और सांस्कृतिक जीवन में क्रांतिकारी विचलन आया है। यह परिवर्तन भारतीय समाज में पूँजीवादी, बाजारवादी व उपभोक्तावादी संस्कृति के आगमन व उसके आत्सातीकरण के रूप में आता है, जिसके कारण जीवन मूल्यों को वरीयता देने वाला हमारा समाज येन केन प्रकारेण धन प्राप्ति को ही जीवन का एकमात्र लक्ष्य मान बैठा है। इसके दुष्प्रभावस्वरूप मानवीय मूल्यों का ह्रास हुआ है तथा समाज में अपराध वृति की निरन्तर बढ़ोतरी हुई है। पूँजीवाद व उपभोक्तावाद ने आज व्यक्ति की नजर व नजरिए को दाम (पैसा) और काम (सेक्स) पर ही केंद्रित कर दिया है, जिसकी परिणतिस्वरूप बलात्कार,
अपहरण, हत्या,
डकैती, लटपाट, हिंसा जैसी आपराधिक घटनाएँ हर नगर-गाँव की हर दिन की आम कहानी हो गई है। तमाम कानूनी प्रतिबंधों व कार्रवाइयों के बावजूद लगातार बलवती एवं बेलगाम होती यह अपराध प्रवृत्ति संगठित अपराध का रूप धर उद्योग(व्यवसाय) बनती जा रही है। अपराधियों के संगठित गिरोह(गैंग) बनते जा रहे हैं, जो पुलिस प्रशासन की नाक के नीचे खुलेआम दिनदहाड़े इन आपराधिक प्रवृत्तियों को अंजाम दे रहे हैं। बलात्कार एवं हत्या जैसी आपराधिक घटनाएँ चुनावी मुद्दा बनने लगी है जो इन आपराधिक घटनाओं के प्रसार एवं इनके बेकाबू होने का संकेत हैं। इसके साथ ही अपराधियों ने तकनीक के
सहारे अपराधों का डिजीटलाइजेशन भी कर लिया है, और अदृश्य रूप में ही साइबर अपराधों को अंजाम दे रहे हैं, जिनकी गिरफ्त में आज हर स्मार्टफोन यूजर(उपयोगकर्ता) है। यह अपराधवृति आज के दौर की उभरती हुई चुनौती है, जिस पर नियंत्रण किया जाना आवश्यक है।
हिंदी ग़ज़लकार समाज में बढ़ती आपराधिक घटनाओं एवं अराजकता के प्रति चिंता व्यक्त करते हैं-
“दिनदहाड़े रैप, हत्याकांड, डाके
आजकल सड़कें ये मंजर देखती हैं।”[37] (ज़हीर कुरेशी)
“अपहरण था जुर्म कल तक आज इक उद्योग है
इस नयी तकनीक का भी बाहुबल अद्भुत लगा।”[38] (विनय मिश्र)
“यहाँ पर वारदातों के गड़े हैं हर तरफ़ तम्बू
दिखाएँ क्या किसी को आज के हालात का चेहरा।”[39] (ज्ञान प्रकाश विवेक)
“तरह-तरह के दिखे रोज़ ‘नेट’ पर हमले
नई सदी में हुए आम ‘साइबर’ हमले।”[40] (ज़हीर कुरेशी)
वंचित समुदायों की समस्याएँ-आजादी के पश्चात सामंतवादी मानसिकता के कारण समाज में लंबे समय तक हाशिए पर रहे स्त्री व दलित वर्ग की दशा में सुधार हेतु अनेक सरकारी प्रयास किए गए हैं और इस दिशा में काफी प्रगति भी हुई है। लेकिन अभी भी इस दिशा में बहुत किये जाने की आवश्यकता है।
आजादी के 75 वर्ष बाद भी स्त्रियों व दलितों के प्रति समानता की मानसिकता का विकास नहीं हो पाया है। अशिक्षित व दूरदराज इलाकों की बहुसंख्यक महिलाएं आज भी परंपरागत स्त्रियों की भांति शोषित व उपेक्षित जीवन जी रही हैं। यद्यपि पढ़ी लिखी स्त्रियों ने आज घर की दीवारों से बाहर निकल नौकरियों व राजनीति में भी कदम बढाए हैं, लेकिन इसके बावजूद उनकी स्थिति स्वतंत्र निर्णय की न होकर पुरुषों की अधीनता की ही है। पुरुषों का स्त्री के प्रति भोगवादी व वासनात्मक दृष्टिकोण आज भी बरकरार है। इसी तरह दलितों की स्थिति में भी काफी सुधार हुआ है, फिर भी आज भी दूर दराज के इलाकों में उनके प्रति अस्पृश्यता व असमानता की मानसिकता बरकरार है।
औद्योगीकरण व अन्य कारणों से अपने परंपरागत प्राकृतिक संसाधनों- जंगल, जमीन से बेदखल आदिवासी समुदाय का विस्थापन भी एक बड़ी समस्या है। इसके अतिरिक्त बालश्रम संबधी कानूनों एवं सरकारी प्रयासों के बावजूद गरीबी के कारण लाखों बच्चे कल-कारखानों, होटलों व अन्य जगहों पर बंधुआ मजदूरों के रूप में काम करने के लिए मजबूर है। ताजा आंकडों के अनुसार भारत में 10 मिलियन से अधिक बाल श्रमिक है। उपभोक्तावादी संस्कृति के कारण उपजे स्वार्थी दृष्टिकोण ने वृद्धों के जीवन को असहाय व दर्दनाक बना दिया है। जिनकी पुष्टि बढ़ते वृद्धाश्रमों से होती हैं। इन वंचित समुदायों- स्त्री, दलित, बाल, वृद्ध की समस्याएं भी वर्तमान भारतीय समाज के समक्ष एक चुनौती है। हिंदी ग़ज़लकार इन वर्गों के प्रति सहानुभूति व्यक्त करते हुए लिखते हैं-
स्त्री-
“ हिंदुस्तानी औरत यानी
घर भर की ख़ातिर कुर्बानी
गृहलक्ष्मी पद की व्याख्या है
चौका- चूल्हा-रोटी -पानी।”[41] (शिव ओम अंबर)
“लछमिनिया थी चुनी गई परधान मगर
उसका ‘पती प्रधान’ देखकर आया हूँ।”[42] (डी. एम. मिश्र)
“कहीं
तलाक, कहीं अग्नि परीक्षाएँ है
आज
भी इन्द्र है, गौतम है, अहल्याएँ हैं।”[43] (वशिष्ठ
अनूप)
दलित-
“लाख दलित सरकारी है
बाभन सब भर भारी है।”[44] (राम मेश्राम)
आदिवासी-
“जंगलों, नदियों, पहाड़ों, के निधन का प्रश्न
है ही,
अपने
घर में पिट रहे बनवासियों का प्रश्न है।”[45]
(वशिष्ठ अनूप)
बाल श्रम-
“ होटल में काम करते हुए बन गए बुजुर्ग
ऐसे करोड़ों बच्चों में बचपन खुला नहीं।”[46] (ज़हीर कुरेशी)
किसान एव मजदूर वर्ग की समस्याएँ- आजादी के सात दशक बाद भी वंचित समुदाय के अन्तर्गत किसानों व मजदूरों की दीन हीन जीवन दशाएं हमारे देश के लिए एक बहुत बड़ी समस्या एवं शर्म की बात है। भारत एक कृषि प्रधान देश है। यहाँ की लगभग
55% आबादी कृषि कार्य में लगी हुई है। परंतु सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी)
में उसका योगदान मात्र
15 से 20 प्रतिशत है। आजादी के 75 वर्ष बाद भी ऋणग्रस्त संतप्त जीवन भारतीय किसानों की स्थाई पहचान बनी हुई है। आज भी भारतीय किसान कृषि संसाधनों जैसे खाद, बीज आदि की अनुपलब्धता, अधिक लागत के बाद खेती से होने वाली कम आमदनी व ऋण के बोझ आदि कारणों से बदहाल नारकीय जीवन जी रहे हैं,
और मजबूरन आत्महत्या कर रहे हैं। भारतीय किसानों के जीवन की यह बहुत बड़ी विडंबना है कि सबको जीवन के लिए पोषण देने वाले अन्नदाता किसान अपने खुद का पेट नहीं भर पा रहे हैं। परिणामस्वरूप वे खेती को छोड़कर मजदूर बनने को मजबूर हैं। लेकिन मजदूरों की भी कमोबेश यही हालत है। बड़ी-बड़ी विदेशी कंपनियाँ और पूँजीपति मजदूरों का शोषण करते हैं। और यह मजदूरों की जिंदगी की भी सच्चाई एवं विडंबना है कि कारखानों में सबके लिए वस्त्र बनाने वाला मजदूर खुद निर्वस्त्र रहता है। और पूंजीपतियों के लिए बड़े-बड़े कोठी बंगले बनाने वाला शिल्पी-
मजदूर फुटपाथ पर खुले आसमान के नीचे सोता है। किसानों और मजदूरों की यह दयनीय स्थिति आज भी भारतीय लोकतंत्र की एक बहुत बड़ी समस्या बनी हुई है। हिंदी ग़ज़लकार किसानों- मजदूरों के जीवन की विडंबना व उनके जीवन दर्द को वाणी देते हुए लिखते हैं
-
“सब को जीवन देने वाले
भूखे दुखी किसान खड़े हैं।”[47] (महेश कटारे ‘सुगम’)
“बीज बोए थे खुशी के ख़ुदकुशी बोई न थी
चार कंधों पर फ़सल ऐसी कभी ढोई न थी।”[48] (रामकुमार कृषक)
“यहाँ अट्टालिकाएँ रोज बनती जा रहीं लेकिन
बनाने वाला क्यों फुटपाथ या छानी में रहता है।”[49] (वशिष्ठ अनूप)
पर्यावरणीय चुनौतियाँ-
आजादी के बाद तेजी से बढ़ते नगरीकरण, औद्योगीकरण एवं कृषि भूमि के लिए वनों को लगातार काटा जा रहा है। इसके अतिरिक्त विकास योजनाओं के नाम पर प्राकृतिक संसाधनों का अंधाधुंध दोहन किया जा रहा है, जिससे पर्यावरण प्रदूषण जैसी विश्वव्यापी समस्या से हमारा देश भी जूझ रहा है। विशेष रूप से महानगरों में प्रदूषण की समस्या निरन्तर बढ़ती जा रही है। दृष्टि आईएएस वेबसाइट पर 8 जनवरी, 2022 को प्रकाशित पर्यावरण प्रदूषण सूचकांक के अनुसार दुनिया के 180 देशों में भारत का स्थान अंतिम स्थान है, जो बहुत चिंताजनक है। दिल्ली की गिनती दुनिया के सबसे प्रदूषित शहरों में होने लगी है और वहाँ सर्दियों में साँस लेना भी दूभर होता जा रहा है। जीवनदायिनी नदियों का पानी प्रदूषण के कारण विषाक्त होने से पीने लायक भी नहीं रह गया है। सबको मुक्ति देने वाली गंगा अपनी मुक्ति के लिए तरस रही है। गंगा को स्वच्छ करने एवं प्रदूषण को नियंत्रित करने के लिए सरकारों द्वारा अनेक कदम उठाए गए हैं, फिर भी यह समस्या लगातार बढ़ती जा रही है। इस बढ़ते प्रदूषण पर नियंत्रण हमारे लिए एक आवश्यकता के साथ गंभीर चुनौती भी है। हिंदी ग़ज़लकारों ने पर्यावरण प्रदूषण की समस्या को अभिव्यक्त करते हुए इसके प्रति चिंता व्यक्त की है। महानगरों में वायु प्रदूषण एवं गंगा के प्रदूषण पर एक-दो शेर उदाहरणस्वरूप प्रस्तुत है-
“ इस कदर फैला हवाओं में जहर है
धुंध में डूबा हुआ सारा शहर है”[50] (रोहिताश्व अस्थाना)
“वो दिन आएगा जब बच्चे कहेंगे
सुना है बहती
थी भारत में गंगा।”[51] (देवेन्द्र
आर्य)
निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि आजादी के बाद हमारे देश ने हर क्षेत्र में काफी प्रगति की है। परन्तु भारतीय समाज व लोकतंत्र के सामने आज भी अनेक समस्याएँ व चुनौतियाँ है। युग चेतना से पूरी तरह वाबस्ता समकालीन हिंदी ग़ज़ल की केन्द्रीय दृष्टि सामयिक भारतीय समाज के परिवर्तित मूल्यों, उसकी दुश्वारियों, समस्याओं एवं चुनौतियों पर ही केंद्रित है। साम्प्रतिक समाज जिन समस्याओं एवं चुनौतियों से जूझ रहा है, समकालीन हिंदी ग़ज़ल भी उन्हीं से जूझ रही है। यही कारण है कि समकालीन हिंदी ग़ज़ल के नाभिक में स्वातंत्र्योत्तर भारतीय समाज की समस्याओं एवं चुनौतियों का प्रामाणिक एवं प्रभावी अंकन हुआ है।
संदर्भ सूची :
- कुँअर बेचैन, आँधियो धीरे
चलो, वाणी प्रकाशन,
दिल्ली,
तृतीय
संस्करण
2014, पृ. 69
- ज़हीर कुरेशी एवं डॉ. मीनाक्षी दुबे
(संपादक), सादगी का सौंदर्य: वशिष्ठ अनूप का सृजन, साहित्य भंडार, प्रयागराज,
2023, पृ.142
- दुष्यंत कुमार,
साये
में
धूप,
राधाकृष्ण
प्रकाशन,
दिल्ली,
पाँचवी
आवृत्ति
2013, पृ. 23
- ज़हीर कुरेशी,
भीड़
में
सबसे
अलग,
मेधा
बुक्स,
दिल्ली,
2003, पृ. 39
- दुष्यंत कुमार,
साये
में
धूप,
राधाकृष्ण
प्रकाशन,
दिल्ली,
पाँचवी
आवृत्ति,
2013, पृ. 15
- महेश कटारे
‘सुगम’,
अय
हय
हय,
काव्या
पब्लिकेशंस,
भोपाल,
पृ.
50
- विनय मिश्र,
तेरा
होना
तलाशूँ,
लिटिल
बर्ड
पब्लिकेशंस,
दिल्ली,
चतुर्थ
संस्करण
2020, पृ. 90
- ज्ञान प्रकाश
विवेक,
गुफ़्तगू
अवाम
से
है,
वाणी
प्रकाशन,
दिल्ली
2008, पृ. 44
- विनय मिश्र,
ज़िंदगी
आने
को
है, लिटिल बर्ड
पब्लिकेशंस,
दिल्ली
2023, पृ. 76
- डी. एम.
मिश्र,
आईना-दर-आईना,
नमन
प्रकाशन
दिल्ली,
2016, पृ. 111
- विनय मिश्र,
सच
और
है,
लिटिल
बर्ड
पब्लिकेशंस,
2020, पृ. 42
- राम मेश्राम,
आग
में
उड़ान,
अंतिका
प्रकाशन,
गाजियाबाद,
2024 पृ. 94
- वशिष्ठ अनूप, छंद तेरी हँसी का,
वाणी प्रकाशन, दिल्ली, 2023, पृ. 140
- दुष्यंत कुमार,
साये
में
धूप,
राधाकृष्ण
प्रकाशन,
दिल्ली,
पाँचवी
आवृत्ति
2013, पृ. 30
- वशिष्ठ अनूप,
रोशनी
खतरे
में
है,
उद्भावना
प्रकाशन,
दिल्ली
2006, पृ. 10
- वही, पृ.
10
- विनय मिश्र,
सच
और
है,
लिटिल
बर्ड
पब्लिकेशंस,
2020, पृ. 42
- लालचंद गुप्त
मंगल(सं),
माधव
कौशिक:सृजन
की
समीक्षा,
विजया
बुक्स,
दिल्ली,
2022, पृ. 50
- ओम निश्चल(सं),
धरती
की
सतह
पर,
यश
पब्लिकेशंस,
दिल्ली,
2020, पृ. 50
- रामकुमार कृषक,
पढ़िए
तो
आँख
पाइए,
राजकमल
प्रकाशन,
दिल्ली
2022, पृ. 148
- राम मेश्राम,
आग
में
उड़ान,
अंतिका
प्रकाशन,
गाजियाबाद,
2024 पृ. 110
- अदम गोंडवी,
समय
से
मुठभेड़,
वाणी
प्रकाशन,
दिल्ली,
पांँचवा
संस्करण
2022, पृ. 51
- वशिष्ठ अनूप,
तेरी
आँखें
बहुत
बोलती
है,
विजया
बुक्स,
दिल्ली
2014, पृ. 86
- दुष्यंत कुमार,
साये
में
धूप,
राधाकृष्ण
प्रकाशन,
दिल्ली,
पाँचवी
आवृत्ति
2013, पृ. 57
- विनय मिश्र,
लोग
जिंदा
है,
लिटिल
बर्ड
पब्लिकेशंस,
दिल्ली,
2021, पृ. 72
- महेश कटारे
‘सुगम’, प्यार
के
साये,
नोशन
प्रेस,
इंडिया,
2022, पृ. 60
- अदम गोंडवी,
समय
से
मुठभेड़,
वाणी
प्रकाशन,
दिल्ली,
पांँचवा
संस्करण,
2022, पृ. 10
- वही, पृ.
84
- ज़हीर कुरेशी एवं डाॅ. मीनाक्षी
दुबे (संपादक), सादगी का सौंदर्य: वशिष्ठ अनूप का सृजन, साहित्य भंडार, प्रयागराज,
2023, पृ.68
- ज़हीर कुरेशी,
एक
टुकड़ा
धूप,
विद्या
प्रकाशन,
कानपुर,
द्वितीय
संस्करण
2016, पृ. 17
- ज्ञान प्रकाश
विवेक,
हिंदी
ग़ज़ल
की
विकास
यात्रा,
हरियाणा
ग्रंथ
अकादमी,
पंचकूला
2012, पृ. 121
- वशिष्ठ अनूप, छंद तेरी हँसी का,
वाणी प्रकाशन, दिल्ली, 2023, पृ. 56
- महेश कटारे ‘सुगम’, कुछ तो है,
काव्या पब्लिकेशंस, भोपाल 2019, पृ. 30
- वही, पृ. 58
- महेश कटारे
‘सुगम’,
अय
हय
हय,
काव्या
पब्लिकेशंस,
भोपाल,
पृ.
25
- महेश कटारे
'सुगम',
ख़्वाब
मेरे
भटकते
रहे,
काव्या
पब्लिकेशंस,
भोपाल,
2019, पृ. 76
- ज़हीर कुरेशी,
एक
टुकड़ा
धूप,
विद्या
प्रकाशन
कानपुर,
द्वितीय
संस्करण
2016, पृ. 24
- विनय मिश्र,
तेरा
होना
तलाशूँ,
लिटिल
बर्ड
पब्लिकेशंस,
दिल्ली,
चतुर्थ
संस्करण
2020, पृ. 51
- ज्ञान प्रकाश
विवेक,
घाट
हजारों
इस
दरिया
के,
वाणी
प्रकाशन,
दिल्ली
2008, पृ.
30
- ज़हीर कुरेशी,
निकला
न
दिग्विजय
को
सिकंदर,
अंजुमन
प्रकाशन,
इलाहाबाद,
2016, पृ.71
- शिव ओम
अंबर,
विष
पीना
विस्मय
मत
करना,
पांचाल
प्रकाशन,
फर्रुखाबाद,
2018, पृ. 7
- डी. एम.
मिश्र,
आईना-दर-आईना,
नमन
प्रकाशन,
दिल्ली,
2016, पृ. 29
- वशिष्ठ अनूप,
रोशनी
खतरे
में
है,
उद्भावना
प्रकाशन,
दिल्ली,
2006 पृ. 17
- राम मेश्राम,
आग
में
उड़ान,
अंतिका
प्रकाशन,
गाजियाबाद,
2024 पृ. 38
- वशिष्ठ अनूप, छंद तेरी हँसी का,
वाणी प्रकाशन, दिल्ली, 2023, पृ. 106
- हरेराम नेमा
‘समीप’,
समकालीन
हिंदी
ग़ज़लकार
एक
अध्ययन,
भावना
प्रकाशन,
दिल्ली,
2017, पृ.
336
- महेश कटारे ‘सुगम’, कुछ तो है,
काव्या पब्लिकेशंस, भोपाल 2019, पृ. 32
- रामकुमार कृषक,
पढ़िए
तो
आँख
पाइए,
राजकमल
प्रकाशन,
दिल्ली
2022, पृ. 98
- वशिष्ठ अनूप, छंद तेरी हँसी का,
वाणी प्रकाशन, दिल्ली, 2023, पृ. 42
- हरेराम नेमा
‘समीप’,
समकालीन
हिंदी
ग़ज़लकार
एक
अध्ययन
खंड
3, भावना प्रकाशन,
दिल्ली,
2018, पृ.
191
- हरेराम नेमा ‘समीप’, हिन्दी ग़ज़ल की पहचान
एनीबुक 2017, पृ. 282
शोधार्थी, हिंदी विभाग, राजकीय कला कन्या महाविद्यालय, कोटा
कोटा विश्वविद्यालय, कोटा
डॉ.कविता मीणा
शोध पर्यवेक्षक एवं सह आचार्य-हिंदी, राजकीय कला कन्या महाविद्यालय, कोटा
बहुत ही बेहतरीन शोध आलेख
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