शोध आलेख / ‘आत्मजयी’ में मृत्यु का मनोवैज्ञानिक अध्ययन / पीयूष कुमार एवं प्रो. बृज किशोर

आत्मजयीमें मृत्यु का मनोवैज्ञानिक अध्ययन
- पीयूष कुमार एवं प्रो. बृज किशोर 

शोध-सार : कितना आवश्यक होता है एक फूल में गंध का होना? या एक मकान में इंसान का होना? दोनों सवाल के मूल में वह स्रोत है जिससे उसकी पहचान या अस्तित्व का बखान किया जाता है और जिसके ना होने पर उसे मृतक घोषित किया जाता है। उसी तरह इंसान में आत्मा का होना आवश्यक होता है मृतक घोषित होने से पहलेतक। क्या होती है मृत्यु? इसकी मूल में आत्मा ही क्यों है? और क्या इसका मनोवैज्ञानिक अध्ययन संभव है? कुँवर नारायण केआत्मजयीकविता संग्रह जो कठोपनिषद के नचिकेता पात्र और उसके यम-मृत्यु संवाद पर आधारित है। वस्तुतः आत्मजयी में नचिकेता को आधुनिकता का प्रतीक बनाने पर जोर है परंतु मृत्यु को लेकर अनेक जगह मनोवैज्ञानिकता भी दिखती है। यहाँ मनोवैज्ञानिकता से तात्पर्य मन को ब्रहमांड की एक शक्ति से जोड़ने से है। जहाँ माना जाता है कि शांति के अलावा कुछ अस्तित्व ही नहीं रखता।ह मारा मन मूलतः तीन भाग में होता है। चेतन, अवचेतन और अचेतन मन। सामान्यतः चेतन मन होशो-हवास वाला मन होता है। अवचेतन मन वैसे तो स्वप्न या नींद वाले मन को कहते हैं; ध्यान के माध्यम से अवचेतन मन में जाया जा सकता है, इसलिए इसे हम आध्यात्मिक मन भी कह सकते हैं। अचेतन मन के बारे में अधिक जानकारी नहीं है सिवाय इसके कि यह चरम शांति की अवस्था है। मृत्यु भी चरम शांति की ही अवस्था है। प्रस्तुत प्रपत्र में मृत्यु की इसी प्रक्रिया कोआत्मजयीको केंद्र बना चेतन, अवचेतन और अचेतन मन से मृत्यु का अध्ययन करने की कोशिश है।

बीज शब्द : मृत्यु, आत्मा, मनोविज्ञान, आधुनिकता, चेतन, अवचेतन, अचेतन, आध्यात्मिक, शांति।   

मूल आलेख : “मृत्यु के चिन्तन से जीवन के प्रति निराशा ही पैदा हो, ऐसा आवश्यक नहींकोई नितांत मौलिक दृष्टिकोण भी जन्म पा सकता है। मृत्यु की गहरी अनुभूति ने जीवन को असमर्थ कर दिया हो, इससे कहीं अधिक महत्त्वपूर्ण ऐसे उदाहरण मिलेंगे जहां चिंतक की दृष्टि कुछ इस तरह पैनी हुई कि वह मृत्यु से भी अधिक शक्तिशाली कुछ दे जाने के प्रयत्न में जीवन को कोई असाधारण निधि दे गया।

आत्मजयी कविता संग्रह ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित साहित्यकार कुंवर नारायण के अनुभव का वह संग्रह है जहां एक और आधुनिकता का इतना तीव्र बोध है कि पात्र नचिकेता की स्वतंत्र अभिव्यक्ति का अस्तित्व है; तो वहीं दूसरी ओर मृत्यु को ले तर्क, विज्ञान, विचार एवं चिंतन की प्रधानता है।आत्मजयी मूलतः जीवन की सृजनात्मक संभावनाओं में आस्था के पुनर्लाभ की कहानी है।पात्र मिथकीय होते हुए भी उसे प्रासंगिक बनाने में और आधुनिक दृष्टि देने में लेखक ने कोई कसर नहीं छोड़ी है। यह संग्रह उस संघर्ष की भी बात करता है जहां नई पीढ़ी और पुरानी पीढ़ी के बीच में घिस रहे समाज का अस्तित्व है। नचिकेता को माध्यम बना असहमति के साहस को दिखाना उस आधुनिकता का भी प्रतीक है जहां समाज आज भी उसे स्वीकार करने की हिम्मत नहीं दिखाता। कठोपनिषद पर आधारित आत्मजयी कविता संग्रह पर कुंवर नारायण कहते हैं कि - “कठोपनिषद से लिए गए नचिकेता के कथानक में मैंने थोड़ा परिवर्तमृत्नयु किया है, लेकिन इतना नहीं कि आधार-कथा की वस्तुस्थितियाँ ही भिन्न हो गई हो। कथा को आधुनिक ढंग से देखा गया है, पौराणिक दिव्य कथा के रूप में नहीं”³

        यजुर्वेद की तैत्त्तरीय संहिता की कठशाखा से संबंधित कठोपनिषद मृत्यु के रहस्य के लिए हिंदू मिथक में अत्यधिक महत्वपूर्ण स्थान रखता है।कठोपनिषद में ऐसे प्रश्न को उठाकर उत्तर दिया गया है जिसकी जिज्ञासा प्रत्येक मनुष्य को होती है। वह प्रश्न है कि मरने के बाद मनुष्य रहता है या नही।”⁴ एक कथा है जिसमें प्रेम है, बिछड़ने का भाव है, क्रोध कितना हानिकारक है वह बताता है तो इसी का एक और आयाम है; जहाँ जिज्ञासा है, आधुनिकता है, साहस है और अपनी उम्र को चुनौती देता वह वह सवाल है जो एक तरफ तो अस्वाभाविक है लेकिन दूसरी ओर बौद्धिक अतिक्रमण और साहस के सामने बौना लगता है।

            नचिकेता, कठोपनिषद का नायक एक छोटा-सा बालक शायद इसे बालक कहना सर्वथा उचित नहीं क्योंकि इसकी चिंतन की शक्ति एक बालक से कहीं अधिक है। अपने पिता वाजश्रवा  कोसर्ववेदस्नामक यज्ञ में कुछ बूढ़ी गायों को दान में देते देख श्रद्धा उत्पन्न होना या इसकी समझ रखना कि यज्ञ में बुढ़ी गायों को देना पाप है; और यह भाव जागृत होना कि यदि मुझे दान में दिया जाए तो शायद यह पाप मेरे पिता के सिर से हट जाएगा; यह जानते हुए भी कि उसके पिता बाद में अति क्रोधित होंगे, वह परिपक्वता और साहस दिखाते हुए अंततः अपने पिता से पूछ ही लेता हैमुझे आप किसे देंगे?’ नचिकेता के इस प्रश्न का उत्तर देने पर और नचिकेता का इस प्रश्न को बार-बार दोहराने पर जिससे पिता के अंदर क्रोधित भाव जग जाए और मुझे किसी किसी को दान में दें; ऐसी परिकल्पना भी उस उम्र का विरोध है। कथा में आगे देखने को मिलता है कि वाजश्रवा को क्रोध आता हैतुझे मैं मृत्यु को देता हूँमुख से निकलता है।

    पिता और पुत्र के प्रेम पर बहुत कम लिखा गया और शायद यह हिंदू मिथक में यह पहला विवरण होगा जहाँ एक पिता कोतुझे मैं मृत्यु को देता हूंकहने के बाद का पश्चाताप और एक पुत्र को इस पर विजयी भाव में शृंगार की भावना दिखती है। यह प्रेम का शायद चरम उदाहरण होगा जहां समर्पण का भाव इतना तीव्र है कि उनके सामने मृत्यु भी बौनी लगती है।

   नचिकेता यम के दरबार पहुंचता है, तीन रात्रि बिना खाए पीए प्रतीक्षा के बाद यम से भेंट करना और अपने भोलेपन के भाव से इस प्रकार मोहित करना कि यम भी उन्हें वरदान देने पर विवश हो जाएँ। यहां यह अस्वभाविक होते हुए भी स्वाभाविक लगता है। नचिकेता को तीन वरदान मिलते हैं। पहले वरदान में नचिकेता ने मांगा किमेरे पिता की चिंता दूर हो जाए, वह मेरे प्रति क्रोध रहित हो और मेरे लौटने पर मुझे पहचान कर मेरा स्वागत करें।”⁵ ध्यातव्य है कि एक और जहां इस वरदान में पिता के लिए वह प्रेम दिखता है तो वहीं दूसरी ओर पुनर्जन्म की भी संकल्पना दिखती है। नचिकेता यहां अपना बौद्धिक चातुर्य इतना अधिक दिखाता है कि वह इसी वरदान में अपने घर वापस लौटने की योजना बना लेता है क्योंकि यमराज इस वरदान को स्वीकार कर लेते हैं। पर यहां पर दान की धारणा शायद गलत साबित होती है क्योंकि वाजश्रवा ने नचिकेता को यम को दान में दिया है!

            दूसरे वरदान में नचिकेता यज्ञ करने की साधनभूत अर्थात् यज्ञ करने का ज्ञान प्राप्त करना चाहता है। यमराज ने उसे पूर्ण विवरण के साथ यज्ञ की प्रक्रिया समझाई। यज्ञ की प्रक्रिया को जब नचिकेता ने हूबहू प्रकट किया तो यम अत्यंत प्रसन्न होकर एक अतिरिक्त वरदान देते हैं। वे नचिकेता के नाम से ही अग्नि को जानने का वरदान दे देते हैं।भारतीय मिथको के प्रत्येक पात्र का नाम भी उसके गुणों के अनुकूल ही रखा गया है।”⁶ नचिकेता के संदर्भ में यह उद्धरण कहां तक उचित है अभी तक शायद यह एक सवाल ही है क्योंकि नचिकेता का संबंध अग्नि से तो दूर-दूर तक नहीं है या शायद उस अग्नि से तो नहीं जिसे हम स्वाभाविक मानते हैं।

    अब बारी तीसरे वरदान की है नचिकेता वरदान मांगते हुए कहता है किमरने के बाद मनुष्य का क्या होता है इस विषय में संदेह है और लोगों के भिन्न-भिन्न मत हैं, कुछ तो कहते हैं कि वह रहता है, कुछ कहते हैं नहीं रहता”⁷ नचिकेता वरदान में मांगता है कि वास्तव में क्या होता है? स्वाभाविक था कि यम तो पहले परीक्षा ही लेते। यम ने परीक्षा ली; तरह-तरह के प्रलोभन देकर नचिकेता को इस प्रश्न के स्थान पर कुछ और मांगने के लिए दबाव बनाया। नचिकेता इस ज्ञान का अधिकारी है या नहीं, यम जानना चाहते थे नचिकेता सभी प्रलोभन को ठुकरा अपने प्रश्न पर ही अडिग रहा। यमराज ने उसे अंततः आत्मज्ञान का उपदेश दे ही दिया जो कठोपनिषद का मुख्य विषय है।           

मृत्यु का मन से संबंध - 

किसी रूप का स्वरूप क्या होता होगा? या किसी स्पर्श की गहराई कितनी होगी? हम नींद में कब सोए? और कब स्वप्न में गए? कैसे गए? यह कुछ वैसे ही सवाल है जैसे मृत्यु कैसे होती है? कैसी होती है? या क्या बीतता है उस जीव पर, जब मृत्यु के वो करीब होता है?

 “आत्मा तड़पाती है
वस्तुओं को विभाजित करने कि रेखाएँ अँधेरे में
रंग हीन एक रंग हो
मुझे वस्तुओं के आकर्षण से अलग कर देती है
और इतिहास मुझे छोड़ कर आगे बढ़ता है…”⁸

            मृत्यु को लेकर पूरे समाज की सामान्य धारणा भय के रूप में या एक रहस्य के रूप में देखी जाती है। पर वहीं राहुल सांकृत्यायन कहते हैं कि, ‘‘मृत्यु को नाहक ही भय की वस्तु समझा। यदि जीवन में कोई अप्रिय वस्तु है, तो वह वस्तुतः मृत्यु नहीं है, मृत्यु का भय है।”⁹ तो क्या हमें आज तक मृत्यु का भय था?; या धड़कन के रुकने का? परंतु धड़कन अप्रिय वस्तु तो नहीं!

            नचिकेता अपना सारा जीवन यम, या काल, या समय को सौंप देता है। दूसरे शब्दो में वह अपनी चेतना को कार्य-सापेक्ष समय से मुक्त कर लेता है : वह विशुद्धअस्तिबोधरह जाता है जिसेआत्माकहा जा सकता है। आत्मा का अनुभव तथा इन्द्रियों द्वारा अनुभव, दो अलग बातें मानी गयी हैं।10

        जिस तरह जीवन जीने से पहले इस सृष्टि में आने की एक प्रक्रिया होती है, उसी तरह यहाँ से जाने की भी होती है। फर्क जानकारी के अभाव को लेकर ही है; जीवन को लेकर दर्शन और दार्शनिक का अंबार लगा हुआ है परंतु मृत्यु को लेकर दर्शन का आकार एक छोटे बुलबुले जितना ही मिलता है जिस पर ठोस होने का दूर-दूर तक कोई प्रमाण नहीं मिलता। जीवन और मृत्यु को नदी का एक-एक किनारा ही समझना चाहिए। वैसे माना जाता है कि जीवन की उम्र बढ़ने से जीवन मृत्यु के करीब होता चला आता है। उपर्युक्त उद्धरण में नचिकेता अपने को यम के हवाले करता है और फिर भी वह जीवन्त है; इस बात की गहराई में आत्मा का एक नया रहस्य खुलता है कि आत्मा जो जीवन के साथ है और ही मृत्यु के साथ!

क्योंकि उन सबसे
कहीं अधिक भयानक है यह छल
जो जीवन मृत्यु
केवल एक दुविधा है दोनों के सहारे।”¹¹
          
एनं वेत्ति हन्तार यश्चैनं मन्यते हतम्।
उभौ तौन विजानीतो नायं हन्ति हन्यते॥

            जो इस आत्मा को मारने वाला समझता है तथा जो इसको मरा मानता है, वे दोनों ही नहीं जानते; क्योंकि यह आत्मा वास्तव में तो किसी को मारता है और किसी के द्वारा मारा जाता है।”¹²

      तो फिर मृत्यु है क्या? सामान्यतः तो सांस का थमना, हृदय का रुकना या शरीर से आत्मा के निकलने को मृत्यु माना जाता है।

संसार आग्रह किसी स्वप्न का-
जो मुझ पर ही आश्रित है-
जिसमें मैं बसा नहीं, किन्तु वशीभूत हूं
मुझसे उत्पन्न और मुझमें विलीन
एक निंद्रा भर मेरी है।”¹³

      साहित्य के बड़े विद्वान की एक पंक्ति है-मन का हो तो अच्छा और हो तो और भी अच्छा क्योंकि जब आपके मन का नहीं होता है तो उस अलौकिक शक्ति के मन का होता है।हमारे मन का संबंध इस धरा से तो है ही परंतु उस संसार से भी माना जाता है जिसके बारे में अधिक जानकारी तो नहीं परंतु एक अटूट आस्था के साथ विश्वास है कि कोई ऐसी तो शक्ति है जिसने इस पूरे ब्रह्माण्ड का सृजन किया और उसी के अंश हम सब में है। तो कहीं वो अंश हमारा मन तो नहीं? हो भी सकता है क्योंकि मन असंभव को भी संभव बना सकता है।खजाना आपके भीतर है।आपके अवचेतन मन के पास सारी समस्याओं के जवाब हैं। अगर आप सोने से पहले अवचेतन मन से कहें, ‘मैं सुबह छह बजे उठना चाहता हूँ,’ तो यह आपको ठीक उसी समय जगा देगा।14 अर्थात् हमारे अंदर भी एक दुनिया है जिससे शायद बाहर की दुनिया उत्पन्न होती हो! हमारा मन कभी शांत नहीं रह सकता, वह कुछ कुछ हमेशा सोचता रहता है और यहाँ तक कि कुछ नहीं सोचना को भी एक सोच माना गया है क्योंकि आप उस वक्त ये सोच रहे हैं कि मैं कुछ नहीं सोच रहा। क्योंकि हर चीज एक प्रक्रिया है तो मृत्यु भी एक प्रक्रिया है। प्रक्रिया हमारे चलते-फिरते शरीर, अशांत हृदय की गति को उस चरम शांति तक ले जाना; जहाँ से जीवन का मृत्यु से संबंध विच्छेद होता है। मृत्यु की इस प्रक्रिया पर ध्यान दें तो यह पूरी प्रक्रिया चरम शांति को पाने की प्रक्रिया है।

     मृत्यु की प्रक्रिया मनोविज्ञान के चेतन, अवचेतन और अचेतन मन के गुण के समानान्तर ही है। चेतन मन चंचल होता है, अवचेतन मन स्थिर तो वहीं अचेतन मन पूर्णतः शांत होता है। मृत्यु भी गति से शांति की ओर जाने वाली प्रक्रिया है। हम जीवन को चेतन अवस्था में जीते हैं और अवचेतन मन में जाने वाले किरदार को अपने से बड़ा समझते हैं। उपर्युक्त वर्णन से स्पष्ट है कि इसे हम अध्यात्मिक मन भी कह सकते हैं क्योंकि ध्यान के माध्यम से इसमें जाया जा सकता है, तो वहीं अचेतन मन अवचेतन मन से भी अधिक शांत होता है। कुंवर नारायण ने सपष्ट किया है, -

यह मन अशांत है
हिंसा के पागलपन से।15
ऐसा तो नहीं कहीं यह सब
मेरे ही मन में छिपा चोर
मेरा भय हो?”16

    शरीर की भौतिक बनावट से तो हमारा परिचय है परंतु अभौतिकता का क्या? जैसे हमारी भावनाएँ, हमारी सोच आदि। मन का संबंध उस अलौकिक शक्ति से भी है जिससे हमारा अस्तित्व का संबंध भी है।

मृत्यु का चेतन मन से संबंध :-

अणोरणीयान् मध्तो महियान् आत्मास्य जन्तोर्निहितो गुहायाम्।
तमकतुः पश्यति वीतशोको धातुप्रसादान्महिमानमात्मनः॥

            सूक्ष्म से अधिक सूक्ष्म, महान से अधिक महान् आत्मा इस प्राणी की (हृदय रूपी) गुफा में स्थित है। कामना रहित (व्यक्ति) शोक-रहित होकर (मन आदि) इन्द्रियों के शांत हो जाने से उस आत्मा की महिमा देखता है।17

     चेतन मन मूलतः तार्किक मन होता है; जिसका कार्य विकल्प को चुनना होता है। मृत्यु के संबंध में चेतन मन का कार्य खुद को सुरक्षित रखने के साथ-साथ उस विकल्प को भी तलाशने का भी होता है, जो जीवन का अपना अनुभव और मृत्यु की जानकारी पर आधारित होता है।

जिन दिशाओं में संसार होते
उनमें आत्माएं बंधक हैं
मैं मृत्यु-वश
उनका नहीं हो सकता
उनसे मैं विविक्त हूं।18

            मृत्यु की प्रक्रिया चेतन मन से ही शुरू होती है; चेतन मन अपने होशो-हवास में जीवन को चुनता है परंतु मृत्यु उसे अपने साथ ले बहना चाहती है। चेतन मन अपने को अस्थिर कर या अपने अनुभव की जानकारी से तार्किक रूप से उससे लड़ता है।तप रहा अंधेरा बिना ज्योति।19 चेतन मन के पास अपनी सीमित ऊर्जा होती है जिसके प्रयोग से अपना बचाव कर पाता है परंतु एक बार यह ऊर्जा समाप्त होने के बाद यह कार्य चेतन मन से अवचेतन मन में चला जाता है। इसे हम अच्छे से अवचेतन मन में समझ पाएंगे।

लेकिन तू आत्मा की
एक ऐसी स्वायत्तता बना
जिसमें जीवन को
वस्तुओं के शासन से मुक्त जी सके
जहां अपनी इच्छाओं के अंतर्विरोधों से
समाप्त होकर नहींउन्हें समाप्त करके
जीवन का कोई संतुष्ट अर्थ दे सके
मरने से पूर्व।20

     स्वायत्तता उस शक्ति को कहते है जिसमे किसी को अपना स्वंय पर फैसला लेने का अधिकार मिलता है। चेतन मन इच्छाओं से बंधा होता है जिसमें जीवन जीने की तलब सबसे अधिक होती है। यह मन जीवन की भौतिक सुख-सुविधा आदि तो होता ही है परंतु माया का स्वरूप यहाँ सबसे अधिक देखने को मिलता है और यही वजह है कि मृत्यु का संघर्ष सबसे अधिक चेतन मन के साथ होता है, क्योंकि अवचेतन मन उस मिट्टी की तरह है जो हर बीज को स्वीकार कर लेती है और अचेतन मन के लिए शांति से अधिक कुछ और मायने नहीं रखता।एक बीज अकुलाता, आदिम अँधेरों में…”²¹ चेतन मन का आग्रह अमरता को लेकर झलकता है। राहुल सांकृत्यायन कहते हैं किमनुष्य का यह भारी-भरकम स्थायी हड्डियों और अस्थाई मांस वाला शरीर ऐसा बना हुआ है कि उसे जराहीन नहीं बनाया जा सकता, इसलिए मानव मृत्युंजय नहीं हो सकता।"²²


मृत्यु का अवचेतन मन से संबंध :-

नींद
गहरी नींद
थकती पलक
मानो सह पाती हो
सहस्त्रों सूर्यों की झलक…”²³

            अवचेतन मन वह कड़ी है जो जीवन और मृत्यु के बीच संतुलन स्थापित करने का कार्य करती है। जब चेतन मन की ऊर्जा समाप्त हो जाती है और वह अवचेतन मन के हवाले हो जाता है, तब संघर्ष जीवन और मृत्यु के बीच के संतुलन बनाने में बढ़ जाता है क्योंकि अवचेतन मन जितना चेतन मन को समझता है उतना ही अचेतन मन को भी। ग़ौरतलब है कि ऊर्जा चेतन मन से अवचेतन मन में आने के बाद अवचेतन मन अपनी ऊर्जा से उसे चेतन मन में ही भेजना चाहता है क्योंकि अवचेतन मन उस संतुलन को कायम रखना चाहता है जहां चेतन मन से आई हुई ऊर्जा को चेतन मन में और अचेतन मन से आई हुई ऊर्जा को अचेतन मन में भेजने का प्रयास करता है।

जैसे मन गहरे अंधेरे को चीर फाड़
ऊपर को खींचता हो24

            किसी स्थिति में यह सफल होता है और किसी में नहीं! यह चेतन मन के द्वारा बनाई गई परिस्थिति पर भी निर्भर करता है। उदाहरण के लिए जब एक मुर्गे को हलाल करते हैं, तो वह छटपटाता है यह छटपटाने की स्थिति चेतन मन है। परंतु चेतन मन की ऊर्जा समाप्त होने के पश्चात वह अपने आप को स्थिर करता है जो अवचेतन मन है। अवचेतन मन फिर से उसे चेतन मन में भेजना चाहता है। इसलिए वह अपनी ऊर्जा को चेतन मन में भेजने के लिए प्रयोग करता है। अगर हम ध्यान से उस प्रक्रिया को देखें तो समझ में आता है कि मुर्गा कुछ देर शांत होने के पश्चात एक से दो बार और छटपटाता है जिसे हम अवचेतन मन की शक्ति का प्रयोग कह सकते हैं।

केवल मन को कर संयमित
उसे तू नया अर्थ दे - नया माध्यम
आत्म-शक्ति पर निर्भर हो कर।
तु पाएगा
बाहर के इस अंधकार से
कहीं बड़ा भीतर प्रकाश है!
तेरे होने और होने का
बाहर से अधिक पुष्ट
भीतर प्रमाण है।25

            अवचेतन मन स्वप्न वाला मन है या ध्यान वाला मन है। दोनों ही स्थितियों में  हमें शांति की तरफ अग्रसर करना होता है। हम यह मान सकते हैं कि अवचेतन मन की अगली सीढ़ी अचेतन मन है अर्थात् एक नया आयाम यह हो सकता है कि अवचेतन मन अचेतन मन को शायद गहरे से समझे। किसी भी स्वरूप को हम लंबाई, चौड़ाई और गहराई से देखते हैं। अवचेतन मन का अपने को स्थिर रखना या शांत रखना, यह इशारा जरूर हो सकता है कि अवचेतन मन अचेतन मन के ज्यादा निकट है अर्थात् वह मृत्यु के ज्यादा निकट है। 


मृत्यु का अचेतन मन से संबंध :-

वह अनुभव जिसे मैं जी चुका
एक जीवन था
वह जीवन जिसे मैं मर चुका
एक रोमांचकारी अनुभव था
जागृति यह
सृष्टि के आरंभ वाले शांति जैसे।26

    मृत्यु की प्रक्रिया का आखिरी पड़ाव अचेतन मन है। अचेतन मन उस चरम शांति की अवस्था है जिसे मृत्यु भी कहा जा सकता है। मृत्यु इसलिए भी क्योंकि सामान्यतः मृत्यु के लिए धड़कन का रुकना आवश्यक होता है। गौरतलब है कि धड़कन जब गति में होती है तो एक शोर को प्रकट करती है; और अचेतन मन के लिए वह शोर बाधक के रूप में कार्य करता है। तत्पश्चात हृदय का रुकना अचेतन मन में जाने की ओर भी संकेत करता है और सामान्यतः मृत्यु को भी रेखांकित करता है।

वे शब्द नहीं -केवल प्रयास।
भाषा की केवल गूंज मात्र
कुछ अर्थ
शब्द सीमाओं से बाहर के भी
पहुंचने का नहीं सफल प्रयत्न।
नर-मुंड एक सर्वज्ञता
कुछ बतलाता!”27

     जीवन की प्रक्रिया मृत्यु की प्रक्रिया से जितनी भिन्न है उतनी ही इसमें समानताएं भी हैं क्योंकि ऊपर हम स्पष्ट कर आए हैं, कि मन का संबंध उस अलौकिक शक्ति से है जिसमें आस्था के साथ विश्वास का भी छौंका लगा होता है। सवाल जीवन और मृत्यु की भिन्नता और समानताओं का है। एक और जहां जीवन में शोर, उथल-पुथल के साथ-साथ अजनबीपन है; वहीं मृत्यु के लिए बस एक शांति है। यह कहने में कोई अतिशयोक्ति नहीं है कि कोई भी मनुष्य या कोई भी जीव अंततःशांति भरी मृत्यु चाहता है। परंतु ऐसा महसूस होता है कि पूरा जीवन एक जेल में सजा काटने के बाद रिहा होने का तात्पर्य उस मोक्ष से है; जिसका संबंध उस अलौकिक मन से है या उस शक्ति से जिसके कारण मृत्यु को लेकर अफवाहें भय के रूप में या एक रहस्य के रूप में बनाई गई हैं।

एक लम्बी सज़ा बाद
पहचानी गयी कोई बेगुनाह सच्चाई
जो बंद थी
भीतर के अंधेरे में कहीं।28

निष्कर्ष प्राचीनतम उपनिषदों में से एक कठोपनिषद मृत्यु की व्याख्या दैवीय तौर-तरीके से करता है जहां कर्म की प्रधानता है; वहीं आत्मजयी में मृत्यु की परिभाषा वैज्ञानिक चिंतन के मनोवैज्ञानिक शाखा के बहुआयामी रूप में देखने को मिलती है। मृत्यु को अगर खतरे के आकर्षण में देखा जाए तो बहुत कुछ सह लिया जाता है। इसका साक्ष्य वह समय बनता है जो सबसे पहले अनुभव है। मृत्यु को सिर्फ आत्मा तक यदि केंद्रित करें तो वह कभी बाहर ही नहीं सकती जो हमारे भीतर हो ही नहीं। तो वस्तुतः मृत्यु एक प्रक्रिया है जो मूलतः मन के चेतन, अवचेतन, अचेतन मन के गुण के समान है। मृत्यु का पहला पड़ाव जीवन जीना है जिसे मन के संदर्भ में चेतन मन कहा जाता है और आखिरी पड़ाव मृत्यु की शांति है जिसे मन के संदर्भ में अचेतन मन कहा जाता है। कुंवर नारायण के आत्मजयी में मृत्यु के साथ चेतन, अवचेतन और अचेतन मन-तीनों का गहन विश्लेषण किया है।


संदर्भ :-
1-:कुंवर नारायण, आत्मजयी, भारतीय ज्ञानपीठ, ग्यारहवाँ संस्करण (पेपरबैक) 2023, भूमिका, पृ.सं. 7
2-: वही,पृ.सं. 9
3-: वही,पृ.सं.9
4:- महेश चंद्र, भारतीय कठोपनिषद, विमल प्रकाशन, प्रथम संस्करण -1974, भूमिका, वही,पृ.सं. VIII
5:- वही,पृ.सं.- IX
6:- विद्यावाचस्पति, डॉ उषा पुरी, भारतीय मिथकों में प्रतिकात्मकता, सार्थक प्रकाशन, प्रथम संस्करण 1997, पृ.सं. प्राक्कथन
7:- महेश चंद्र, भारतीय कठोपनिषद, विमल प्रकाशन, प्रथम संस्करण -1974,भूमिका, पृ.सं. lX
8-: वही,पृ.सं. 77
9-: सांकृत्यायन, राहुल, धुमक्कड़ शास्त्र, राधाकृष्ण प्रकाशक, पहला संस्करण-2023, पृ.सं. 124
10-: कुंवर नारायण, आत्मजयी, भारतीय ज्ञानपीठ, ग्यारहवाँ संस्करण ( पेपरबैक ) 2023, पृष्ठ संख्या -भूमिका
11-: वही,पृ.सं. 60
12-: श्रीमद्भगवद्गीता, गीताप्रेस, अध्याय -2, श्लोक संख्या -19
13-: कुंवर नारायण, आत्मजयी, भारतीय ज्ञानपीठ, ग्यारहवाँ संस्करण (पेपरबैक ) 2023, पृष्ठ संख्या -56
14-: मर्फी, डॉ जोसेफ, आपके अवचेतन मन की शक्ति, मंजुल पब्लिशिंग हाउस, नौवाँ संस्करण 2013, पृ.सं. 31
15-: कुंवर नारायण, आत्मजयी, भारतीय ज्ञानपीठ, ग्यारहवाँ संस्करण (पेपरबैक) 2023, पृ.सं.90
16-: वही,पृ.सं. 83
17-: महेश चंद्र, भारतीय कठोपनिषद, विमल प्रकाशन, प्रथम संस्करण -1974, प्रथम अध्याय, द्वितीय वल्ली, श्लोक संख्या -20
18-: कुंवर नारायण, आत्मजयी, भारतीय ज्ञानपीठ, ग्यारहवाँ संस्करण (पेपरबैक) 2023, पृ.सं. 55
19-: वही,पृ.सं.  82
20-: वही,पृ.सं. -103
21-: वही,पृ.सं. 108
22-: सांकृत्यायन, राहुल, धुमक्कड़ शास्त्र, राधाकृष्ण प्रकाशक, पहला संस्करण-2023, पृ.सं. 120
23-: कुंवर नारायण, आत्मजयी, भारतीय ज्ञानपीठ, ग्यारहवाँ संस्करण (पेपरबैक) 2023, पृ.सं. 113 
24-: वही,पृ.सं.108
25-: वही,पृ.सं.100
26-: वही,पृ.सं.116
27-: वही,पृ.सं.84
28-: वही,पृ.सं.37\

पीयूष कुमार
शोध प्रविधि अध्येता
9304823491, piyushvijay0987@gmail.com

प्रो.बृजकिशोर
हिन्दी विभाग, मोतीलाल नेहरु महाविद्यालय (सांध्य) दिल्ली विश्वविद्यालय
brijkishorevashishta@gmail.com

चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक ई-पत्रिका 
  अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-52, अप्रैल-जून, 2024 UGC Care Listed Issue
सम्पादक-द्वय : माणिक-जितेन्द्र यादव चित्रांकन  भीम सिंह (इलाहाबाद विश्वविद्यालय)

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