- आरती तिवारी
शोध सार : भक्ति-युग हिन्दी साहित्येतिहास का एक मात्र ऐसा काल है जिसने रचनात्मक प्रगतिशीलता के साथ-साथ सामान्य जन के सामाजिक, चारित्रिक एवं आध्यात्मिक उत्थान पर भी बल दिया। निर्गुण ब्रह्मोपासना हेतु अनुभवजन्य ज्ञान की काव्यात्मक अभिव्यक्ति ने इस ओर प्रथम चरण बढ़ाया। सहजोबाई ने भी अपने दोहों और पदों के माध्यम से जीवन को सरल और सुखमय बनाने के लिए निर्गुण-भक्ति का महत्व जन-जन को समझाया। किन्तु, सन्त साहित्य की मूल अभिव्यक्ति से जुड़ने के बाद भी इनकी रचनात्मकता कई रूपों में भिन्न एवं अप्रतिम है। गुरु महिमा, प्रेम और वैराग्य इनकी रचनाओं का केन्द्रीय विषय है। गुरु उनके लिए मात्र मोक्ष प्राप्ति का साधन नहीं अपितु ब्रह्म से भी ऊपर हैं। गुरु चरण की सच्ची सेवा के लिए वे राम अर्थात् साक्षात ब्रह्म को भी त्यागने हेतु तत्पर हैं। इनके अनुसार प्रेम-भाव अनुभूति के आत्मीय सुख का आरम्भ अहं और अहंकार के त्याग से ही होता है। सहजो मृत्यु को जीवन का सत्य मानती हैं और इसीलिए वे अपने पदों में यह बार-बार कहती नज़र आती हैं कि समय रहते इस सत्य को जानने और हरि चरण में नतमस्तक होकर मुक्ति के लिए श्रम करना ही जीवन की सार्थकता है। इस प्रकार सन्त काव्य परम्परा में सहजोबाई ने गुरु महिमा, प्रेम और वैराग्य की अनन्य गायिका के रूप में भक्ति काव्य के असाधारण पद लिखे और सन्त परम्परा को और अधिक समृद्ध बनाने में अपना योगदान दिया।
बीज शब्द : भक्ति-युग, हिन्दी काव्य, सहजोबाई, गुरु महिमा, प्रेम, वैराग्य, निर्गुण काव्य, सन्त साहित्य, भक्ति-काल, सन्त काव्य परम्परा, स्त्री सन्त कवयित्रियाँ।
मूल आलेख : कबीर द्वारा प्रस्तुत ‘भक्ति द्रविड़ उपजी, लाये रामानंद’ की यह उक्ति भक्ति के उद्गम स्थल (दक्षिण भारत) के साथ-साथ उत्तर भारत में उसे स्थापित करने वाले प्रथम आचार्य रामानंद के विषय में भी संकेत करती है। “भक्ति आंदोलन की जो लहर दक्षिण से आई उसी ने उत्तर भारत की परिस्थिति के अनुरूप हिन्दू मुसलमान दोनों के लिए एक सामान्य भक्तिमार्ग की भी भावना कुछ लोगों में जगाई।”[1] छठी-नवीं शताब्दी तक दक्षिण भारत में जो आलवार सन्तों द्वारा स्थापित आचार्य युग के नाम से जाना गया, वही साहित्यिक काल उत्तर भारत में ‘संवत् 1375 से संवत् 1600’ तक का समय ‘भक्ति-युग’ अथवा ‘भक्ति-काल’ के नाम से जाना गया। कालांतर में इसकी दो शाखाओं (निर्गुण एवं सगुण) की चार उपशाखाओं (निर्गुण : सन्त काव्य एवं सूफी काव्य, सगुण : राम काव्य एवं कृष्ण काव्य) में रचे गये साहित्य से इसका प्रचार-प्रसार भारत के सभी स्थानों में जन-जन के मध्य किया गया।
निर्गुण एवं सगुण भक्ति धाराएँ इस सम्पूर्ण काल की वृहद विभाजक परिधि का रेखांकन करती हैं। निर्गुण भक्ति-शाखा के कवियों ने जहाँ एक ओर निर्गुण ब्रह्म की प्राप्ति हेतु ज्ञान और प्रेम मार्गी उपासना पद्धतियों से विशाल जनक्षेत्र को जोड़कर भेदभाव को मिटाने की ओर पहला कदम बढ़ाया, वहीं दूसरी ओर सगुण मार्गियों ने राम और कृष्ण के रूप में ईश्वर के सगुण और साकार रूप के प्रति लोगों में न केवल अनुराग उत्पन्न किया वरन् उन्हें सत्य, अहिंसा एवं सौहार्द भावों की जागृति हेतु भक्ति-भक्त-भगवान के अप्रतिम भाव से जोड़ने का भी कार्य किया।
भक्तिकाल का आरंभिक समय निर्गुण ब्रह्मोपासक सन्त कवियों एवं कवयित्रियों के भक्ति पदों से अनुगूँजित हुआ। “हृदयपक्षशून्य सामान्य अंतस्साधना का मार्ग निकालने का प्रयत्न नाथपंथी कर चुके थे....पर रागात्मक तत्व से रहित साधना से ही मनुष्य की आत्मा तृप्त नहीं हो सकती। महाराष्ट्र देश के प्रसिद्ध भक्त नामदेव (संवत् 1328-1408) ने हिन्दू मुसलमान दोनों के लिए एक समान भक्ति मार्ग का भी आभास दिया। उसके पीछे कबीरदास ने विशेष तत्परता के साथ एक व्यवस्थित रूप में यह मार्ग ‘निर्गुणपंथ’ के नाम से चलाया।”[2]
निर्गुण मार्गी सन्त काव्य-धारा का काव्य-संसार जीव, जगत्, माया, मोक्ष, मिथ्या, ब्रह्म एवं गुरु आदि को केंद्र में रखकर रचा गया है। इस सन्त काव्य ने उच्चकोटि एवं शास्त्रज्ञान पद्धति से रहित होते हुए भी साहित्य एवं समाज को न केवल रचनात्मक अपितु अनुभूति के स्तर पर भी उठाने का आरंभिक कार्य भक्तिकाल में किया। “सन्त मत में ऐसे ईश्वर की भावना मानी गयी, जो हिन्दू और मुसलमानों के धर्म में समान रूप से ग्राह्य हो सके। उसके कोई मुख-माथा, रूप-कुरूप नहीं है, वह एक है। वह निर्गुण और सगुण दोनों से परे रह कर भी पुष्प की सुगन्धि से भी सूक्ष्म है। वह सर्वशक्तिमय, सर्वव्यापक और अखंड ज्योति-स्वरूप है। उसे जानने के लिए आत्मज्ञान की आवश्यकता है।”[3]
समस्त जगत् में समन्वय और सरसता का भावबोध जागृत करने के लिए परंपरा से इतर जाकर भी परंपरा से पूर्णतया विलग न होकर इस काव्यधारा ने अपने भीतर सभी उपयोगी एवं सात्विक भावबोधों को स्थान प्रदान किया। “सन्त काव्यधारा के दार्शनिक-सांस्कृतिक आधार अनेक हैं, जिनमें से प्रमुखरूपेण उल्लेखनीय हैं : उपनिषद्, शंकराचार्य का अद्वैतदर्शन, नाथ पंथ, इस्लाम धर्म तथा सूफी दर्शन।”[4] सन्त साहित्य में ब्रह्म, जीव, जगत् और माया संबंधी विचार उपनिषदों की, आत्मा की अखंडता एवं अद्वैतता अद्वैतदर्शन की, शून्यवाद तथा हठयोग नाथ पंथ की, एकेश्वरवाद इस्लाम धर्म की तथा प्रेम भक्ति साधना सूफ़ीमत की देन स्वीकार की गई है। “यह सामान्य भक्तिमार्ग एकलेश्वर का अनिश्चित स्वरूप लेकर खड़ा हुआ जो कभी ब्रह्मवाद की ओर ढलता था और कभी पैगम्बरी खुदावाद की ओर।.... यह ईश्वर की भक्ति के लिए मनुष्य मात्र के समान अधिकार का स्वीकार था।”[5]
सन्त साहित्य ईश्वर की भक्ति से अधिक आत्मसाक्षात्कार, आत्मज्ञान और आत्मानुभूति पर आधारित साहित्य था और साधक का सम्पूर्ण जीवन मोक्ष प्राप्ति के सहज मार्गों को सांसारिकता में रहकर खोजने पर ही केंद्रित था। यही कारण है कि सन्त साहित्य को जीवन, जगत्, ब्रह्म, मोह, माया, सत्य, मिथ्या, प्रेम, वैराग्य, आत्मा और परमात्मा आदि वैचारिक आधारों के इर्द-गिर्द रचा गया और गुरु के महत्व को यत्र-तत्र-सर्वत्र उजागर किया गया। सभी सन्तों ने अपने पद एवं छंद इन्हीं विषयों पर रचे और इस प्रकार सन्त कवियों एवं कवयित्रियों की एक विशद परंपरा का प्रादुर्भाव हुआ। इन कवियों में कबीर, दादू, गुरुनानक, रैदास, मलूकदास, रहीम, चरणदास, दूलनदास, पलटूदास, सुंदरदास, रज्जब, धर्मदास तथा कवयित्रियों में लल्लेश्वरी, अण्डाल, जनाबाई, बहिणाबाई, सहजोबाई, दयाबाई आदि शीर्ष पर रहे।
भक्तिकाल का समय इतिहास की दृष्टि से मध्यकालीन समय था जब भारत भूमि पर सामंती शासन व्यवस्था अपनी जड़ें जमा रही थी और स्त्री समाज अपने ऊपर होते अत्याचारों से त्रस्त हो चुका था। “मध्यकालीन सामंती समाज जो अनेक प्रकार की जकड़बन्दियों में जकड़ा हुआ था और लोक पर परलोक की छाया हमेशा पड़ती रहती थी। ऐसे में अपनी इच्छा, आकांक्षाओं व बंधनों की अभिव्यक्ति ईश्वर को केंद्र में रखे बिना संभव नहीं थी। इसलिए मध्यकाल की सारी कवयित्रियाँ ईश्वर को आलंबन मान अपने सुख-दुख को अपनी रचनाओं में अभिव्यक्ति देती हैं।”[6] धीरे-धीरे यह अभिव्यक्ति मात्र सुख-दुख के भाव तक सीमित न रहकर ब्रह्म, माया, संसार, जीव और मोक्ष मार्ग की काव्यात्मक अभिव्यक्ति में परिणित होने लागी। ऐसे में स्त्रियों ने न केवल सांसारिक अपितु वैरागी जीवन को भी स्वीकार करने का साहस किया और बहुत सी वैरागी महिला सन्तों का प्रादुर्भाव हुआ। उनमें से ही एक महत्वपूर्ण एवं अविस्मरणीय सन्त के रूप में जानी जाती हैं- सहजोबाई।
गृहस्थ सन्त एवं देहरा (अलवर) के निवासी चरणदास की शिष्य परंपरा में जिन दो नारी सन्तों का नाम बारम्बार लिया जाता है उनमें एक थीं दयाबाई और दूसरी थीं सहजोबाई। सन्त सहजोबाई के आविर्भाव काल की यदि चर्चा की जाए तो भक्तिकालीन किसी भी अन्य सन्त के जन्म एवं मृत्यु तिथि और जीवन के संबंध में जितनी भ्रांतियाँ एवं किवदंतियाँ व्याप्त हैं उतनी ही सहजोबाई के संबंध में भी देखी जा सकती हैं। डॉ. रामकुमार वर्मा, ज्योति प्रसाद मिश्र एवं गरिमा श्रीवास्तव ने इनका जन्म वर्ष सं. 1800 वि., जन्म स्थान- मेवात (राजस्थान) एवं जाति- वैश्य स्वीकार की है। मिश्रबंधुओं के अनुसार, सहजो हरप्रसाद धूसर की दूसरी पुत्री थीं और इनका जन्म सं. 1817 वि. था तथा इनकी भाषा ब्रजभाषा थी। साहित्यकार वियोगी हरि द्वारा संपादित पुस्तक ‘सन्त-सुधा-सार’ के अनुसार इनका जन्म सं. 1740 वि., मृत्यु सं. 1820 वि., जन्म स्थान- डेहरा गाँव (मेवात, राजस्थान), पिता- हरिप्रसाद, जाति- ढूसर बनिया, भेष- ब्राह्मचारिणी तथा एकमात्र रचना ‘सहज-प्रकाश’ जिसे संवत् 1800 में परीक्षितपुर, दिल्ली में सहजोबाई ने पूर्ण किया, मान्य किया गया है। इसके अतिरिक्त ‘आचार्य परशुराम चतुर्वेदी’ के द्वारा भी इनका जीवन-काल सं. 1740-1820 वि. स्वीकार किया गया और “सं. 1800 की फागुन सुदी 8 बुद्धवार के दिन इन्होंने अपनी रचना सहज-प्रकाश को समाप्त किया”[7] तथा इन रचनाओं के अतिरिक्त इनकी अन्य दो रचनाओं ‘शब्द’ और ‘सोलह तत्व निर्णय’ की भी जानकारी दी गयी है। किन्तु सहजोबाई रचित एक छंद में उनके गुरु का संक्षिप्त जीवन परिचय दिया गया है जो कुछ इस प्रकार है -
ढूसर कुल में प्रगट हुए हैं, बाजत अनँद बधाई॥
भादो सुदी तीज दिन मंगल सात घड़ी दिन आये।
संवत् सत्रह साठ हुए तब सुभ समयो सब पाये॥
***
गुरु शुकदेव नाँव धरि दीन्हौं, चरन दास उपकारी।
सहजोबाई तन मन वारे, नमो नमो बलिहारी॥”[8]
इन पंक्तियों के अनुसार चरणदास का जन्म सं. 1760 में हुआ था और वे सहजोबाई के पूर्व जन्मे थे अतः सहजो का जन्म सं. 1740 मानना त्रुटिपूर्ण प्रतीत होता है। वहीं बलदेव वंशी के मतानुसार सहजोबाई का जन्म श्रावण मास की पंचमी को संवत् 1782 वि. (15 जुलाई, सन् 1724 ई.) को हुआ था और मृत्यु माघ शुक्ल पंचमी संवत् 1862 वि. (24 जनवरी, 1804 ई.) को हुई थी। इनके पिता हरिप्रसाद एवं माता अनूपीबाई थीं। 11-12 वर्ष की अल्पायु में ही इन्होंने सन्यास ग्रहण कर लिया था। इनके संन्यास धारण करने के विषय में एक रोचक कथा इस प्रकार है कि इनके माता पिता ने 11-12 वर्ष की आयु में इनका विवाह भार्गव कुल के सम्पन्न परिवार में तय किया। विवाह के दिन ही वे सजी-सँवरी बैठी थीं तभी उनके ममेरे भाई एवं प्रसिद्धि पा चुके सन्त चरणदास वहाँ आए और सहजो से कहा -
इन वचनों ने सहजोबाई की चेतना पर आघात किया जिसके फलस्वरूप उन्होंने विवाह न करने और आजीवन ब्रह्मचर्य का पालन करने का निर्णय लिया। कुछ ही क्षणों में वर की मृत्यु का समाचार लेकर बाराती भी रोते हुए आ पहुँचे। यह देख कर सहजोबाई के पिता ने अपनी पत्नी व चारो पुत्रों व पुत्री सहित चरणदास की शरण में चले गये और उनके शिष्य हो गये।
कालांतर में सहजोबाई ने अपने गुरु चरणदास द्वारा चलाई गयी चरणदासी (शुकदेव) परम्परा का पर्याप्त विकास किया और अपने आठ शिष्यों (श्यामविलास, कर्तानन्द, आगमदास निर्मोही, गुरु निवास, राम प्रसाद, सन्त हजूरी, हरनाम दास और रघुनाथ स्नेही) व दो शिष्याओं (लक्ष्मीबाई और सुमतिबाई) को इस परम्परा में दीक्षित किया। सन्त चरणदास के देहावसान (सं. 1839 वि.) के पश्चात् 23 वर्षों तक उनके उपदेशों का प्रचार करती रहीं। इनके द्वारा ही सहजोबाई ने अपने जीवन की सार्थकता का परम् सत्य जाना और इसलिए उनकी दृष्टि में गुरु का जो सहज और अप्रतिम स्वरूप साकार हुआ वह उनके काव्य को अनुभूति एवं समर्पण के स्तर पर गुरु भक्ति में श्रेष्ठता के शिखर पर लाकर उन्हें खड़ा कर देता है। कबीर जब असमंजस में थे कि ‘गुरु गोविंद दोऊ खड़े, काके लागूँ पाएँ’ तब उस क्षण में सहजो किसी असमंजस में न पड़कर गुरु के सम्मुख ईश्वर को त्यागने के लिए भी सज्ज दिखाई देती हैं क्योंकि उनके लिए गुरु हरि नाम और हरि रूप से भी अधिक वंदनीय है और वे ही मुक्ति मार्ग के पथ-प्रदर्शक भी हैं। वे कहती हैं-
सहजो के जीवन में अज्ञानता के अंधकार को दूर कर ज्ञान के प्रकाश से जो आवागमन मुक्ति का मार्ग दिखाया और उनके भक्ति तथा मुक्ति पथ के समस्त भ्रमों को दूर किया उससे उनमें गुरु के प्रति अनन्य समर्पण एवं महिमा गायन का भाव जागृत हुआ किन्तु गुरु के विराट स्वरूप के महिमा गायन में स्वयं की असमर्थता वे कुछ इस प्रकार प्रकट करती हैं-
धरती का कागद करूँ, गुरु-अस्तुति न समाय॥”[11]
सहजो के अनुसार गुरु की अनुपस्थिति में संसार का कोई भी कार्य सिद्ध नहीं किया जा सकता और न ही ब्रह्म की प्राप्ति की जा सकती है इसलिए समस्त सांसारिक बंधनों का त्याग करके गुरु के चरणों में चित्त लगाकर हरि सुमिरन से ही मोक्ष प्राप्ति संभव है और यह अवसर बार-बार नहीं मिलता है-
हरि तो गुरु बिन क्यों मिलैं, समझ देख मन माहिं॥
***
सकल बिकल सब छोड़कर, गुरु चरनन चित लाव।
सहजो निस्चै हरि जपो, बहुरि न ऐसो दाव॥”[12]
वे कहती हैं भले ही हरि चरण मुक्ति पथ गामी हैं किन्तु वे स्वयं कभी प्राप्त नहीं होते। परम् ब्रह्म की प्राप्ति भी गुरु कृपा से ही संभव है क्योंकि ईश्वर स्वयं उनके घर में ही निवास करते हैं। यही कारण है कि गुरु का स्थान उन्होंने परमेश्वर से भी बड़ा माना और कहा-
इस प्रकार वे गुरु चरणदास को एक समर्थ गुरु की संज्ञा देते हुए उनकी अनुकम्पा को पुनः वर्णित करते हुए कहती हैं-
जैसे को तैसा मिले, रीता छोड़े नाहिं॥”[14]
किन्तु सहजोबाई का मानना है कि एक योग्य गुरु का कृपा-पात्र बनने के लिए शिष्य में भी वैसा समर्पण एवं ज्ञान के प्रति जिज्ञासा होनी चाहिए क्योंकि-
तात्पर्य यह है कि जो शिष्य मिट्टी, पत्थर अथवा लकड़ी के समान होगा यानि अयोग्य एवं समर्पणरहित होगा उसे पारसमणि की भाँति मिले गुरु भी स्वर्ण में परिणित नहीं कर सकते हैं अर्थात् ज्ञान के प्रकाश से आपूरित नहीं कर सकते। इस प्रकार सहजोबाई ने सरल उपमानों के असाधारण प्रयोग से अपने काव्यों के अनेक पदों में गुरु-शिष्य के अलौकिक तथा अविभाज्य सम्बन्ध को शाब्दिक अभिव्यक्ति से अलंकृत किया है।
सहजो ने न केवल अपने गुरु से आध्यात्मिकता और आत्मज्ञान का पाठ सीखा अपितु प्रेम की अलौकिकता का गूढ़ रहस्य भी जाना। अन्यत्र वे कहती भी हैं-
प्रेम न केवल संसारिक जगत् का अनिवार्य तत्व है वरन् ब्रह्मोपासना के मार्ग में भक्त और भगवान एवं आत्मा और परमात्मा के शाश्वत संबंध का भी परिचायक है। ईश्वर प्राप्ति की साध में यह भी एक साधन की भाँति कार्य करता है। प्रेम के इस रूप को भक्ति की और साधक को भक्त की संज्ञा दी जाती है। योगी जिसे (ईश्वर अथवा ब्रह्मसवरूप को) योग-साधना से और ज्ञानी अपने ज्ञान-विचार से प्राप्त करता है वे स्वयं उसे भक्ति मार्ग से प्राप्त करती हैं जिसका आधार योग और प्रेम है-
इनके द्वारा भक्ति के रागात्मक पक्ष जिसमें प्रेम की प्रधानता होती है पर विशेष छंद निर्विकार भाव के साथ रचे गये। प्रेमवश इनका हृदय सांसारिकता से परे होकर भी ब्रह्म वियोग में उसी प्रकार व्यथित होता है जैसे किसी प्रेमिका का प्रेमी से वियोग की अवस्था में होता है। इस वियोगाविधि के अंत का कोई ओर-छोर न पाकर वे हरि दर्शन की आस लिए व्याकुल हृदय से कहती हैं-
सहजोबाई का प्रेम मात्र प्राप्ति का विषय नहीं है अपितु वह पूर्णरूपेण समर्पण का द्योतक है। समर्पण भी ऐसा कि जिसमें प्रेमी मन अपने आत्म, अहंकार और अहं भाव को त्याग कर अपने आराध्य के रंग में रंग जाए। ना उसे अपने अस्तित्व का कोई स्मरण रहे और ना ही जाति-वर्ण का भान हो। प्रेम की उस अवस्था की प्राप्ति हो जिसमें मुख पर प्रसन्नता और नेत्रों में तृप्ति की अनुभूति का सुख रूपी अश्रु हों-
सहजोबाई का प्रेम लौकिकता से अलौकिकता के उत्कर्ष पर जब पहुँचता है तब वे आनन्द से परमानन्द की ऐसी स्थिति में आ जाती हैं जहाँ वे स्वयं को पूरी तरह विस्मृत करके सांसारिक मोह-माया के बंधन से मुक्त हो जाती हैं-
इस प्रकार रागात्मक प्रेम की भावनात्मक अभिव्यक्ति के पद रचकर इन्होंने सन्त साहित्य में सूफी काव्यधारा का न केवल स्वीकार्य पक्ष उकेरा अपितु अपने आत्म से परे जाकर परमात्म तत्त्व की सहज प्राप्ति का मार्ग भी बतलाया। यह प्रेम भी साधना है जिसके लिए मात्र एक के प्रति समर्पण एवं अनुराग का स्वीकार्य तथा शेष समस्त संसार से विरक्त होकर वैराग्य धारण करना पड़ता है।
सन्त साहित्य में वैराग्य कभी जीवन के प्रति विरक्ति का विषय नहीं बना वरन्, भक्ति एवं साधना पथ से भटकाने वाले माया जगत् के सत्य का बोध है जिससे भक्त साधक नश्वरता एवं शाश्वतता का भेद समझकर संसार रूपी भवसागर से पार पा सकता है। क्योंकि जब तक मोह माया रूपी आवरण में जीव उलझा रहता है तब तक मुक्ति प्राप्त नहीं होती और आवागमन लगा रहता है। सहजो के शब्दों में-
सहजो कहती हैं कि जग की मिथ्या माया और मोह जीवन और जीव के लिए अतिरिक्त भार से अधिक और कुछ नहीं हैं इसलिए जब तक शरीर उस बोझ को धारण करे रहेगा तब तक वह सांसारिकता के बंधनों से मुक्त नहीं हो पायेगा, क्योंकि जल में हल्का तिनका ही तिर पाता है न कि भारी पत्थर-
सहजो तृन हलका तिरै, डूबै पत्थर भार॥”[22]
यह संसार मात्र एक भ्रम है, जिसमें सुख और दुख उसी प्रकार इस जीव को घेरे रहते हैं जैसे कोई लोहे की छड़ तप्त अग्नि और शीतल जल में बार-बार पड़ती रहती है। अर्थात् सुख-दुख के प्रति मोह रखने वाला भ्रमित मन कभी मुक्ति की बात नहीं सोचता और निरंतर पीड़ा को झेलता रहता है। अतः यदि जीव और ब्रह्म का एकाकार करना है तो इस सुख-दुख के पार जाकर समर्पण भाव से मुक्ति पाने के लिए इच्छाओं और आकांक्षाओं का त्याग करना होगा। यह सब कुछ मिथ्या है इस संसार में जन्मा सर्वस्व नश्वर है, दुख देने वाला है इसलिए त्याज्य है-
जीवन प्रति क्षण नष्ट हो रहा है और जीवात्मा जग की नश्वरता से अनभिज्ञ, मृत्यु के सत्य से परिचित होते हुए भी, हरिनाम एवं ईश्वर शाश्वत स्वरूप से विलग आवागमन में लीन है। काल दिन-रात जीवन के समय को घटाता जा रहा है किन्तु जो अज्ञानी अपनी भोग निद्रा में लीन रहता है वह सदैव दुख और त्रास को भोगता रहता है और चैतन्य अवस्था में जो साधक मनुष्य रहता है वह सदैव व्यथित रहता है और मोक्ष प्राप्ति हेतु साधनारत रहता है-
इसलिए सहजोबाई कहती हैं कि यदि जग में पग रखने के बाद जीवन को व्यर्थ भोग-विलास में लिप्त रखा और राम नाम को विस्मृत कर दिया तो जीवन में निश्चय ही हानि होगी और जीवात्मा त्रास और दैन्य से पीड़ित होकर मरणोपरांत भी इस संसार से मुक्ति नहीं प्राप्त कर पायेगी-
निष्कर्ष : सहजोबाई ने गुरु सान्निध्य एवं गुरु कृपा को प्राप्त कर न केवल जीवन का सत्य और प्रेममयी भक्ति साधना का मर्म जाना अपितु राम नाम के आश्रय को प्राप्त कर ब्रह्म स्वरूप का साक्षात्कार भी किया। जिसके फलस्वरूप हुए परमानन्द के अनुभव ने उनमें सांसारिक मोह, माया एवं नश्वर बंधनों के प्रति विरक्ति का भाव जागृत किया और यही कारण है कि इन्होंने जीवन, जगत्, जीव, ब्रह्म, प्रेम और वैराग्य के सत्य से अवगत कराने वाले गुरु चरणदास की महिमा का गायन अपने सम्पूर्ण काव्य के आत्मतत्व रूप में प्रस्तुत किया है। वे न केवल स्वयं इन अनुभूतियों को भोगती हैं बल्कि अपने काव्य संसार के माध्यम से जनभाषा में इनका लिप्यांतरण कर उन्हें भी इसे अनुभव करने हेतु प्रेरित कर उस पर चलने का सहज मार्ग भी प्रशस्त करती हैं। अभिव्यक्ति की यही सहजता उन्हें अन्य सन्त कवियों एवं कवयित्रियों से पृथक करती है।
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आरती तिवारी
शोधार्थी, हिन्दी और अन्य भारतीय भाषा विभाग, महात्मा गांधी काशी विद्यापीठ, वाराणसी, उ. प्र.
arti.tiwari791@gmail.com, 9369062182
इस शोध आलेख के लिए आरती दीदी को शुभकामनाएं💐🙏
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