- डॉ. नेहा सिंह एवं डॉ. जितेंद्र यादव
शोध
सार : हिन्दी
के
चर्चित
लेखक
उदय
प्रकाश
की
कहानी
‘मोहनदास’ 2005 में हंस
में
प्रकाशन
के
साथ
ही
पाठकों
और
आलोचकों
का
ध्यान
आकर्षित
की
थी।
कहानी
कहने
की
जादुई
कला
उदय
प्रकाश
के
पास
है।
वह
किसी
भी
गंभीर
विषय
को
इतना
कौतूहल
ढंग से
प्रस्तुत
करते
हैं
कि
पाठक
कहानी
के
साथ
यात्रा
में
निकल
जाता
है।
कहानी
का
शिल्प
इतना
सशक्त
और
संप्रेषणीय
है
कि
पाठक
को
मंत्रमुग्ध
कर
देती
है।
2012 में साहित्य
अकादमी
द्वारा
‘मोहनदास’ कहानी को
पुरस्कृत
किया
गया
था।
पहली
बार
किसी
कहानी
पर
साहित्य
अकादमी पुरस्कार देने
के
लिए
विवश
हुआ
था।
यह
उदय
प्रकाश
के
अंदाज-ए-बयां
की
ताकत
है।
भ्रष्टाचार
जैसे
गंभीर
विषय
पर
कभी
व्यंग्यकार
हरिशंकर
परसाई
और
शरद
जोशी
अपने
ढंग
से
प्रहार
करते
रहे
हैं।
किन्तु
उदय
प्रकाश
‘मोहनदास’ कहानी में
मोहनदास
के
चरित्र
के
माध्यम
से
भ्रष्ट
व्यवस्था
की
जड़
तक
तहक़ीक़ात
किए
हैं।
ऊपर
से
लेकर
नीचे
तक
भारत
की
सरकारी
व्यवस्था
किस
तरह
आकुंठ
भ्रष्टाचार
में
डूबा
हुआ
है, यह विषय ’मोहनदास’ कहानी
में
बहुत
मार्मिक
तरीके
से
अभिव्यक्त
हुआ
है।
ऐसा
प्रतीत
होता
है
कि
‘मोहनदास’ कहानी
करमचंद
मोहनदास
गांधी
के
रुपक
में
लिखी
गई
है।
जहां
अब
गांधी
के
देश
में
सत्य
और
ईमानदारी
चूक
गई
है।
बेईमानी
ही
युग
का
सबसे
बड़ा
सत्य
हो
गया
है।
मोहनदास
जैसा
योग्य
व्यक्ति
जहालत
झेलने
के
लिए
मजबूर
है। इस लेख
में
‘मोहनदास’ कहानी
के
माध्यम
से
सरकारी
तंत्र
की
कार्यशैली
को
समझने
का
प्रयास
किया
गया
है।
बीज
शब्द : भ्रष्टाचार, सरकार ,मोहनदास, उदय प्रकाश, नौकरशाही ,न्यायपालिका
,राजनीति।
मूल आलेख
: संवेदना की धरातल
पर
‘मोहनदास’ कहानी हृदय
को
छू
लेती
है।
हमारे
रोजमर्रा
के
जीवन
का
हिस्सा
बन
चुका
भ्रष्टाचार
हमें
अब
आश्चर्यचकित
नहीं
करता
है।
किन्तु
इसका
रूप
कितना
भयावह
हो
चुका
है।
इसका
अंदाजा
शायद
हमें
नहीं
है।
इसलिए
उदय
प्रकाश
मोहनदास
के
चरित्र
के
माध्यम
से
इसकी
गहराई
की
तह
तक
गए
हैं।
भारत
की
आत्मा
बन
चुके
भ्रष्टाचार
की
सच्चाई
को
मार्मिकता
के
साथ
उजागर
किया
है।
मोहनदास
एक
दलित
युवक
है।
उसके
नाम
पर
नौकरी
करने
वाला
उसके
गाँव
का
ही
सवर्ण
युवक
है।
उदय
प्रकाश
ने
भारत
के
जाति
वर्चस्व
की
तस्वीर
भी
कहानी
में
चित्रित
की
है।
गांधी
के
आजाद
भारत
में
एक
पढ़ा-लिखा
दलित
अपनी
अस्मिता
और
पहचान
के
संकट
से
गुजर
रहा
है।
यह
कहानी
एक
बड़ी
विडम्बना
की
तरफ
संकेत
करती
है।
सरकारी
भ्रष्टाचार
पर
एक
कहानी
‘भोला
राम
का
जीव’ हरिशंकर परसाई
ने
लिखी
थी।
वहाँ
भी
समस्या
वही
है।
एक
सरकारी
कर्मचारी
सेवानिवृत्ति
के
बाद
अपनी
पेंशन
के
लिए
नौकरशाही
से
लड़
रहा
है।
जबकि
मोहनदास
अपनी
ही
नौकरी
के
लिए
नौकरशाही
से
जूझ
रहा
है।
इस
दोनों
कहानी
को
एक
साथ
पढ़ने
से
सरकारी
भ्रष्टाचार
की
मुकम्मल
तस्वीर
दिखाई
देती
है।
नारद
भोला
राम
के
पेंशन
के
बारे
में
जानकारी
के
लिए
दफ्तर
में
जाते
हैं
तो
वहाँ
का
बाबू
टके
से
जवाब
देता
है
–“भोला
राम
ने
तो
दरख्वास्तें
भेजी
थीं, पर उन
पर
वजन
नहीं
रखा
था, इसलिए कहीं
उड़
गई
होंगी”1
भारत
का
आम
नागरिक
आज
भी
कचहरी
से
लेकर
थाने
तक
या
किसी
भी
विभाग
में
काम
कराने
के
लिए
फ़ाइल
पर
‘वजन’ न रखे
तो
उसकी
फ़ाइल
उड़
जा
रही
है।
बाबूगिरि
और
नौकरशाही
से
आम
आदमी
पूरी
तरह
त्रस्त
है।
भ्रष्टाचार
यानी
भ्रष्ट आचरण करने वाला अर्थात् ऐसा आचरण जो किसी भी प्रकार से अनैतिक और अनुचित हो। सरकारी तंत्र से जुड़े हुए लोग जब धन, पद, प्रतिष्ठा के लिए अपने अधिकारों का दुरूपयोग करते हैं तब वह सरकारी भ्रष्टाचार की
श्रेणी में गिना जाता है। आज चिकित्सा क्षेत्र से लेकर शिक्षा व्यवस्था तक, नौकरशाही व्यवस्था से लेकर न्यायपालिका तक राजनीति से लेकर संचार जगत तक
में
किसी न किसी रूप में भ्रष्टाचार व्याप्त है। इस प्रकार के भ्रष्टाचार के विविध पहलुओं को उदय प्रकाश की कहानी ‘मोहनदास’ में बखूबी रूपायित किया गया है। यह कहानी सरकारी तंत्र के खोखलेपन को उजागर करती है,
जिसके अन्तर्गत, मोहनदास जैसे पढ़े-लिखे नौजवान बेरोजगारी एवं गरीबी की जिन्दगी जीने के लिए मजबूर हैं। वहीं दूसरी ओर बिसनाथों का एक ऐसा समूह भी है जो अनपढ़-गंवार और धूर्त किस्म के होने के बावजूद रुपये-पैसे और पैरवी के बल पर मोहनदास जैसे लोगों का हक मारकर सुख चैन की जिन्दगी बसर कर रहे हैं।
इस कहानी का प्रमुख पात्र मोहनदास कई बार साक्षात्कार में छाँट दिये जाने के बावजूद हिम्मत नहीं हारता, क्योंकि उसे अपनी
क्षमता पर पूरा भरोसा है जैसाकि वह कहता भी है ‘‘हिन्दूस्तान में भ्रष्टाचार बहुत है लेकिन
दस-बीस प्रतिशत लोग अपनी मेरिट और योग्यता के दम पर नौकरी पा जाते हैं।”2 इसी आस में सरकारी नौकरी की आयु रेखा समाप्तप्राय होने तक भी मोहनदास को नौकरी नहीं मिल पाती। अतः वह अपनी जीविका चलाने के लिए सरकारी रोजगार योजनाओं की मदद लेने
की कोशिश करता है,
परन्तु इसमें भी उसे सफलता नहीं मिल पाती।
इस समाज में मोहनदास जैसे पढ़े-लिखे
नौजवानों की कमी नहीं है,
जो निम्न वर्ग के होते हुए भी विभिन्न बाधाओं को पार कर यदि किसी तरह पढ़ लिख भी जाएं तो नौकरी के लिए साक्षात्कार तक जाते-जाते पैसा-पैरवी के अभाव में छाँट दिये जाते हैं। सारी योग्यताएं होते हुए भी ऐसे लोग गरीबी की मार झेलने के लिए मजबूर होते हैं। समस्या यहीं समाप्त नहीं होती बल्कि यदि वे कभी सरकार द्वारा चलाये गये विविध प्रकार की रोजगार योजना, पेंशन योजना, आवासीय योजना का लाभ भी उठाना चाहें,
जिनके वे असली हकदार हैं तब भी इनके हाथ बहुत कुछ नहीं आ पाता,
गाहे-बेगाहे यदि कोई जरूरतमंद इन योजनाओं तक पहुँच भी जाए तो दलाल और बिचौलिए की
मदद
से आधा-तिहा लाभ ही इन्हें मिल पाता है। मोहनदास भी इन्हीं जरूरतमन्दों में से एक है परन्तु विविध प्रकार के
सरकारी हथकंडे
एवं जाति-बिरादरी के अटकलों के कारण वह चूक जाता है और ग्रेजुएट मोहनदास मजदूरी करने के लिए बेबस हो जाता है। इतनी विसंगतियों से जूझने के उपरान्त मोहनदास अब इस वास्तविकता से अवगत हो
जाता
है कि ‘‘असली जिन्दगी दरअसल खेल
का ऐसा मैदान है, जहाँ वही गोल बनाता है जिसके पास दूसरे को लंगड़ी मारने की ताकत होती है और यह ताकत सोर्स-सिफारिश, जोड़-तोड़ रिश्वत, संपर्क, जालसाजी वगैरह तमाम ऐसी अवैध और अनैतिक चीजों से बनती हैं जिसमें से एक भी मोहन दास की पहुँच के
भीतर न थी।”3 यहाँ सबसे बड़ा प्रश्न यह है कि क्या मोहनदास और उसके परिवार को सुख चैन की जिन्दगी जीने का हक नहीं है? उसकी माता जो
पहले
ही मुफ्त के चिकित्सा शिविर में मोतियाबिन्द के आपरेशन के दौरान अपनी
आँखे
गवाँ चुकी हैं और पिता मुफ्त की दवा मिले बिना टी0वी0 की बीमारी से जूझ रहा है, क्या इन्हें अपने अच्छे स्वास्थ्य की कामना करना व्यर्थ है? प्रत्येक माता-पिता अपने बच्चों को पढ़ा-लिखा कर योग्य बनाते हैं जिससे समाज में उन्हें प्रतिष्ठित जिन्दगी जीने का अवसर मिल सके और जिसके सहारे वे अपनी बाकी का जीवन आसानी से काट सकें। लेकिन इतनी विषमताओं को देखते हुए मोहनदास और उसके परिवार वालों की यह आशा समाप्त हो चुकी है अब वे किसी प्रकार अपना गुजर-बसर करने
के
लिए
बाध्य
हैं।
इन्हीं संघर्षों के मध्य ओरिएन्टल कोल माइन से आने वाला साक्षात्कार पत्र मोहनदास के निराश जीवन में आशा की नयी किरण ले आता है,
परीक्षा के विविध प्रकार की
औपचारिकताओं में सफल होने के उपरान्त केवल नियुक्ति पत्र मिलने की देरी रहती है इतने पर ही वह और उसका परिवार गरीबी से उबरने का ख्वाब देखने लगते हैं। देखें भी क्यों नहीं?, सरकारी नौकरी लगते ही घर की विविध समस्याएँ दूर होंगी, वे सभी चैन भरी जिन्दगी जी सकेंगे, मोहनदास का ग्रेजुएट होना अब सार्थक होगा, कोई उसके पढ़ाई का अब मजाक नहीं बनाएगा....,लेकिन नियुक्ति पत्र के इन्तजार में धीरे-धीरे ये सारी आशाएँ धरी की धरी रह जाती हैं और मोहनदास की
जगह पर बिसनाथ जैसे आयोग्य अनपढ़, बदमाश को छल-बल से नौकरी मिल जाती है। वह मोहनदास के नाम पर नौकरी करने लगता है और इस प्रकार एकबार पुनः मोहनदास घूस-सिफारिश जैसे अनीतियों के कारण सरकारी नौकरी से वंचित रह जाता है। लेकिन
कई वर्षों बाद इस सच्चाई का पता चलने के बाद वह हार नहीं मानता बल्कि कोल माइन के ऑफिस जाकर अपनी
डिग्रियों द्वारा अपना परिचय साबित करने का पूरा प्रयत्न करता है लेकिन
शासन तंत्र की अनीतियों एवं समाज की
धूर्तता के मध्य वह अपना परिचय साबित करने में नाकाम रहता है। नौकरी, ओहदा, इज्जत, चैन-सूकून की बात तो दूर जब एक व्यक्ति का असली परिचय ही उससे छीन लिया जाय तो उसकी क्या हालत होगी? मोहनदास के नाम पर नौकरी करने वाले
बिसनाथ की असलियत जानकर भी आम जनता शान्त, बिसनाथ का समाज समर्थन एवं एस0के0 सिंह जैसे अफसर अनदेखा करते हैं।
इसी समाज में मध्यवर्गीय परिवार से सम्बन्धित हर्षवर्द्धन सोनी जैसा चरित्र भी है जो पेशे
से वकील है। पारिवारिक जीवन के उत्थान-पतन ने उसको स्वतंत्र वैचारिकी वाला बना दिया है जिसका भाई इंजीनियरिंग की डिग्री धारण करने के बावजूद कई वर्ष तक बेरोजगारी की मार झेलता रहा। अन्ततः उसने आत्महत्या कर ली। इस घटना के उपरान्त हर्षवर्द्धन सोनी ने शायद मोहनदास जैसे लाचार लोगों को न्याय दिलाने की ठान ली। वह मोहनदास जैसे लोगों का दर्द भली-भाँति समझ सकता था क्योंकि वह भी कहीं न कहीं इस दौर से गुजर चुका था। इसलिए वह अपना पैसा लगाकर भी मोहनदास का केस लड़ने के लिए तैयार हो जाता है। जैसाकि ज्ञात है, हमारे यहाँ
न्यायपालिका का खर्च वहन करना गरीब आदमी के बस की बात नहीं है। रही बात हर्षवर्द्धन सोनी की तो वह अपने ईमानदार व्यक्तित्व एवं स्वतंत्र वैचारिकी के कारण ऐसा वकील है जिसके पास मोहनदास जैसे लोग ही केस लेकर
आते हैं और इस प्रकार इनका केस उसे स्वयं अपना पैसा लगाकर लड़ना पड़ता है। शायद इसीलिए न्यायपालिका पर गाँधी जी ने यह टिप्पणी की है, ‘‘अदालत न हो तो हिन्दुस्तान में न्याय गरीबों को मिलने लगे।’’4
न्यायपालिका का इतना लम्बा खर्च साथ ही लम्बी प्रक्रिया गरीबों के धैर्य
को झकझोर देने वाली होती है और जब इन प्रक्रियाओं से व्यक्ति गुजर भी जाए तो न्याय के नाम पर उसे कुछ नहीं मिल पाता, क्योंकि इसके पीछे भी कहीं न कहीं वकीलों, न्यायाधीशों की अन्धनीति रहती है। जैसा कि संजीव की कहानी ‘अपराध’ में इसका खुलेआम जिक्र किया गया है, ‘‘जो जितने भयंकर अपराधी को, जितनी जल्दी निरपराध सिद्ध कर दे, वह उतना ही सफल वकील है। फिर जज का दिल और दिमाग, न्याय की व्यवस्था भी कम करामाती नहीं है। एक कोर्ट से जो हार जाए, दूसरी कोर्ट से जीत जाता है। पेनलकोड में कई धाराएं तक त्रुटिपूर्ण हैं, यानी न्याय वह तरल पदार्थ है जिसे जिस पात्र में ढाल दें, वैसा ही ढल जाए।’’5
मोहनदास का केस हर्षवर्द्धन सोनी की बदौलत किसी तरह कोर्ट में फाइल हो जाता है और वह बखूबी मेहनत और ईमानदारी से अपना केस लड़ता भी है। अदालत में असली मोहनदास कौन है? प्रश्न से चारों ओर खलबली मच जाती है। स्थानीय अखबारों में यह खबर धुएँ की तरह फैल जाती है परन्तु कितने प्रयास के बाद भी यह खबर प्रान्तीय एवं राष्ट्रीय खबर नहीं बन पाती। कारण यह कि संचार जगत भी भ्रष्टाचार से अछूता नहीं रहा है। यहाँ भी भ्रष्टाचार अपना
पैर
पसारे है, अतः
कहा
जा
सकता
है
कि
खबर जब तक बड़े नेता, करोड़पति, अफसर का न हो उसका प्रान्तीय अथवा राष्ट्रीय खबर बनना मुमकिन नहीं है।
धन, पद, प्रतिष्ठा के चक्कर में संचार जगत अपनी तटस्थता खो दी है,
ये वही खबर प्रसारित करते हैं जिन्हें प्रसारित करने के लिए इन्हें कहा जाता है। इनमें से यदि कुछ ईमानदार हैं
भी तो वे अपने क्षेत्र
में संघर्षरत हैं, उनकी कोई खास प्रतिष्ठा नहीं है, उन्हें खबर नहीं मिल पाती या उनकी खबर को कोई अखबार या चैनल वाले
प्रसारित नहीं करना चाहते। एक उदाहरण के तौर पर चुनाव का समय ही ले
लीजिए, उस समय प्रत्येक अखबार, टी0वी0 चैनल तथा संचार के जितने भी अन्य माध्यम हैं, वे जनता को अपने वोट के प्रति जागरूक करते हैं और उपर्युक्त प्रत्याशी चुनकर अपने वोट का सही इस्तेमाल करने का सुझाव देते रहते हैं,
लेकिन
वे इस बात को विशिष्टता नहीं देते कि यदि किसी व्यक्ति को कोई भी प्रत्याशी शासन के लिए उपयुक्त ना लगे तो वे वोट के लिए ‘नोटा’ का
विकल्प भी चुन सकते हैं। जबकि गौर किया जाय तो इसके
तहत भी जनता अपना मत प्रकट कर सकती है। इसके आँकड़ें द्वारा भी जनता का मन्तव्य समझा जा सकता है। आखिर कोई व्यक्ति क्यों नोटा
का विकल्प चुनता है? क्या वह किसी भी प्रत्याशी को शासन के लिए उपयुक्त नहीं समझता यदि नहीं तो क्यो? इसके तहत इस तरह के कई प्रश्न उभरकर सामने आ सकते हैं परन्तु ऐसे प्रश्न का उत्तर देने में सत्ता असमर्थ है। शायद इसीलिए ऐसा सवाल उठाने का यह मौका ही नहीं देना चाहती।
अब रही बात मोहनदास के केस की तो इसे हर्षवर्द्धन की
ईमानदारी से न्याय मिलने का पूरा भरोसा है। इस केस की जाँच प्रक्रिया भी लम्बी चलती है जैसा कि इस प्रशासनिक परिपाटी के अन्तर्गत, ‘‘अगर कोई अदालत
कलेक्टर
को किसी जाँच का आदेश देती थी तो कलेक्टर
नोट लगाकर उस आदेश को अपने मातहत सम्बन्धी इलाके के एस0डी0एम0 को भेज देता था। एस0डी0एम0 उसे तहसीलदार और तहसीलदार उसे नायाब के सुपुर्द कर देता था। इस तरह रेवेन्यू इन्सपेक्टर उर्फ आर0आई0 उर्फ कानूनगों से होते हुए आखिर में वह आदेश पटवारी के पास पहुँच जाता था,
यानी अन्ततः पटवारी ही
कलेक्टर
की आँख-नाक बन जाता है।”6 और इस तरह गाँव के पटवारी को बिसनाथ जैसे लोगों द्वारा खरीदे जाने में ज्यादा समय नहीं लगता। एक बॉटल दारू, मुर्गा और दस हजार रुपये में पटवारी कुछ भी साबित करने के लिए तैयार है। जैसा कि वह स्वयं स्वीकारता है, ‘‘अरे आप लोगों का हुकुम हम कभी टालेंगे
भला? इतने अमाउंट में तो हम ससुर : मूस को हाँथी,खेत
को सड़क अउर छक्का को छः बच्चों की अम्मा बना दें।”7 इस तरह यहाँ नौकरशाही व्यवस्था का नंगा नाच देखने को मिलता है जिसका शिकार मोहनदास जैसे लोग आये दिन हुआ करते हैं। ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन की देन यह अफसरशाही व्यवस्था आज भी जनता के हितों के प्रति प्रायः उदासीन है।
पराधीन भारत में नौकरशाही व्यवस्था का मुख्य मकसद भारतीय जनता का शोषण कर ब्रिटिश शासन को अक्षुण्ण बनाये रखना था लेकिन आज आजादी के इतने वर्षों बाद भी यह अफसरशाही मानसिकता ज्यादा बदल नहीं पायी है। फर्क सिर्फ इतना है कि उस समय वे ब्रिटिश शासन के लिए जनता का शोषण किया करते थे और अब अपने निजी स्वार्थ के लिए करने लगे हैं।
इस प्रकार झूठी गवाही और जाँच की गलत रिपोर्ट के चलते एक बार फिर मोहनदास को हार का सामना करना पड़ता है परन्तु हर्षवर्द्धन अभी भी हिम्मत नहीं हारता और इस केस के सुनवाई करने वाले प्रमुख जज (मुक्तिबोध) से मिलने पहुँच जाता है, इसलिए कि उसे मुक्तिबोध साहब के ईमानदारी पर भरोसा था। रही बात मुक्तिबोध साहब जैसे प्रमुख न्याय दण्डाधिकारी की तो वे भी किसी न किसी रूप में सत्ता द्वारा शोषित रहे हैं। ईमानदार व्यक्तित्व के चलते ही इनकी नियुक्ति किसी ऐसे इलाके में कर दी जाती है जहाँ कोर्ट में जल्दी कोई केस ही न पहुँच पाये और यदि भूले-भटके कोई केस आ भी जाय तो इनकी
तटस्थता के कारण किसी महान आत्मा का नुकसान न होने पाये। अतः न्याय का असली हकदार होने पर भी मोहनदास को न्याय नहीं मिल पाना मुक्तिबोध साहब जैसे जज के ऐसे व्यक्तित्व पर प्रश्नचिह्न लगा देता है। जिसके जवाब में वे अपनी वैचारिकी को कुछ इस प्रकार व्यक्त करते हैं, ‘‘अब पूरी व्यवस्था ढह चुकी है। न्यूयार्क के जुड़वा मिनारों की तरह अब प्रजा और गरीबों के सामने सिर्फ अराजकता और विनाश ही बचा है मुझे लगता है, हम पूँजी और सत्ता के एक बिल्कुल नये रूप के सामने हैं, मोहनदास इस बीइंग डिनाइड ऑफ अ सिम्पल एशोसियल लीगल जस्टिस, क्योंकि वह न्याय को खरीद नहीं सकता।’’8
जाहिर है कि इस वक्तव्य द्वारा जज साहब स्वयं व्यवस्था के खोखलेपन को व्यक्त करते हैं। यही नहीं गुप्त प्रक्रिया द्वारा जाँच कार्य अपने हाथ में लेते हुए वे हर्षवर्द्धन से मोहनदास को न्याय दिलाने के लिए निश्चिन्त भी करते हैं। पुनः गुप्त एवं पारदर्शी जाँच प्रक्रिया शुरू होती है। फलस्वरूप बिसनाथ धोखाधड़ी के
मामले
में दोषी पाया जाता है और उसे जेल हो जाती है। साथ ही इस केस से सम्बन्धित कोल माइन के सभी अफसर, कर्मचारियों पर कार्यवाही का आदेश होता है। इस खबर से चारों ओर अफरा-तफरी मच जाती है। इस प्रकार सभी घूसखोर अफसर व कर्मचारी साथ ही बिसनाथों का समाज जो न जाने कितने दिन से मोहदास जैसे लोगों का हक मारकर बैठे रहे सबकी हवा गुम हो जाती है, परन्तु इसी दौरान जज साहब का पुनः तबादला कर दिया जाता है। फलतः यह अफरा-तफरी भी थम जाती है। भ्रष्ट शासन तंत्र व अपने छल-बल से बिसनाथ को जेल से जमानत मिल जाती है। इस प्रकार दोषी होते हुए भी उसकी जीत हुई और बिसनाथ के कहने पर निर्दोष
मोहनदास को पुलिस के हाथों पिटते रहने की सजा मिली। पुलिस मार-मार कर मोहनदास की हालत इतनी बुरी कर देती है कि अब वह अपने जीवन की भीख माँगने लगता है यही नहीं अब वह अपना असल परिचय भी त्यागने के लिए तैयार हो जाता है जिसको सिद्ध करने के लिए वह आजीवन संघर्षरत रहा। यह हाल मोहनदास का ही नहीं बल्कि हजारों ऐसे लोगों का है जो बेरोजगारी, गरीबी, जातिगत भेदभाव से पीड़ित होने के साथ-साथ सरकारी तंत्र से हारे हुए उच्चवर्गीय संवेदनहीनता के शिकार हैं। अन्ततः पुलिस की मार खाकर जिस प्रकार मोहनदास विक्षिप्त सा हो जाता है। उसी प्रकार ‘तिरिछ’ कहानी में आम लोगों की अमानवीयता ने बाबू रामस्वारथ का हाल बना दिया। यद्यपि इन दोनों घटनाओं के वातावरण में अन्तर है परन्तु एक बात तो बिल्कुल साफ है कि दोनों किसी न किसी रूप में संवेदनहीनता के शिकार हैं। संवेदना ही ऐसी कड़ी है जो व्यक्ति में मनुष्यता का प्रसार करती है। लेकिन शासन तंत्र से जुड़े लोगों में यह मानवीयता कभी-कभी नदारद लगती है,
जैसा कि महेश कटारे की कहानी ‘मुर्दा स्थगित’ में देखने को मिलता है, शाही बारात के दौरान पुलिस प्रशासन की सबसे बड़ी चिन्ता यह रहती है कि कहीं गाँव में मरे हुए मल्लाह की शवयात्रा से शाही यात्रा प्रभावित न हो जाये नहीं तो नगर निरीक्षक के सामने इसका गलत असर पड़ सकता है और उनकी प्रशासनिक छवि धूमिल हो सकती है इसलिए ‘‘प्रशासन के समक्ष गहरी समस्या उपस्थित हो गयी है कि
पहले
मुर्दा जाय या शाही सवारी और प्यारे भाई! जब प्रशासन का दिमाग काम करना बन्द कर देता है तो लाठी काम करने लगती है।’’9
इस प्रकार इनकी संवेदना पूरी तरह समाप्त हो जाती है और भ्रष्टाचार का अंकुर फूट पड़ता है,
जिसके अन्तर्गत जाने कितने बिसनाथ, विजय तिवारी, एस0के0 सिंह अपना उल्लू सीधा करते हैं।
निष्कर्ष
-
‘मोहनदास’
कहानी
जिस
भ्रष्टाचार
की
समस्या
को
आधार
बनाकर
रची
गई
है।
उसकी
स्थिति
दिन
प्रतिदिन
भयावह
होती
जा
रही
है।
इसलिए
कहानी
अपने
समसामयिकता
और
प्रासंगिकता
को
बनाए
हुए
है।
पढ़ा-लिखा
बेरोजगार
युवा
पहले
से
ज्यादा
निराश
हुआ
है।
इधर
बीच
सरकारी
भ्रष्ट
तंत्र
द्वारा
परीक्षा
का
लीक
होना
भी
युवाओं
के
मनोदशा
पर
प्रतिकूल
प्रभाव
डाला
है।
भ्रष्ट
तंत्र
की
चक्की
में
आम
आदमी
ही
पिसता
है,
जिसकी
कोई
पहुँच
और
सिफ़ारिश
नहीं
होती
है।
हम
ऐसे
युग
में
जी
रहे
हैं
जहां
ईमानदारी
अब
मूर्खता
का
पर्याय
बन
चुकी
है।
क्योंकि
ईमानदार
आदमी
सबसे
ज्यादा
परेशान
होता
है। धूमिल के
शब्दों
में
–‘तो
यहाँ
एक
ईमानदार
आदमी
को
अपनी
ईमानदारी
का
मलाल
क्यों
हैं
/जिसने सत्य कह
दिया
उसका
बुरा
हाल
क्यों
है’ उदय
प्रकाश
ने
अपनी
कहानी
में
भ्रष्टाचार
का
एक्सरे
किया
है।
जहां
दिखाया
है
कि
बेईमानी
ने
व्यवस्था
को
पूरी
तरह
से
अपने
चपेट
में
ले
लिया
है
और
उसी
के
सहारे तेजी
से
फल-फूल
रही
है।
ऐसी स्थिति
में
‘मोहनदास’ कहानी
समाज
को
आईना
दिखाती
है
और
सरकारी
व्यवस्था
पर
एक
सवालिया
निशान
छोड़
जाती
है।
1. परसाई हरिशंकर,भोला राम का जीव, एक दुनिया समानान्तर, संपादक राजेन्द्र यादव, राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशन, दिल्ली 2001 पृष्ठ संख्या – 376
2. प्रकाश उदय, कहानी मोहनदास,वाणी प्रकाशन ,नई दिल्ली 2009 पृष्ठ संख्या -22
3. वही, पृष्ठ संख्या -14
4. श्रेष्ठ हिन्दी कहानियाँ (1960-1970), सम्पादक-केवल गोस्वामी, प्रकाशन पीपुल्स पब्लिशिंग हाउस, नई दिल्ली 2010, पृष्ठ संख्या -8
5 .श्रेष्ठ हिन्दी कहानियाँ (1970-1980), सम्पादक-स्वयं प्रकाश, प्रकाशन पीपुल्स पब्लिशिंग हाउस, नई दिल्ली 2010, पृष्ठ संख्या-10
6. प्रकाश उदय, कहानी मोहनदास,वाणी प्रकाशन ,नई दिल्ली 2009 पृष्ठ संख्या-56
7. वही, पृष्ठ संख्या-48
8. वही, पृष्ठ संख्या-39
9.श्रेष्ठ हिन्दी कहानियाँ (1980-1990), सम्पादक-लीलाधर मंडलोई, प्रकाशन पीपुल्स पब्लिशिंग हाउस, नई दिल्ली 2010, पृष्ठ संख्या-5
10.धूमिल पाण्डेय सुदामा, पटकथा, हिंदवी
असिस्टेंट प्रोफेसर, हिन्दी विभाग, इस्माईल नेशनल महिला पी. जी. कॉलेज, मेरठ
neha8047@gmail.com
डॉ. जितेंद्र यादव
असिस्टेंट प्रोफेसर, हिन्दी विभाग, सकलडीहा पी.जी. कॉलेज सकलडीहा चंदौली
jitendrayadav.bhu@gmail.com, 9001092806
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