शोध आलेख : भारत में जाति समस्या और राजेन्द्र यादव की संपादकीय / विनोद कुमार एवं डॉ. जितेन्द्र यादव

भारत में जाति समस्या और राजेन्द्र यादव की संपादकीय
- विनोद कुमार एवं डॉ.जितेन्द्र यादव

शोध सार : भारत विविधताओं का देश है यहां पर भिन्न -भिन्न जाति ,सम्प्रदाय एवं मजहब के लोग एक साथ निवास करते हैं। प्राकृतिक विविधताएं जहां इसकी खूबसूरती को बढ़ाती हैं ,वही पर अनेक जातियों में बंटा हुआ यहाँ का समाज हमारे देश की खूबसूरती में एक धब्बे के समान है। यहां पर जाति परम्परा की जड़ें इतनी गहरी हैं कि उसका अन्त असम्भव सा लगता है। सबसे आश्चर्य की बात है कि ये विभेद कब और कैसे हुआ और किसने किया इसका कहीं कोई प्रामाणिक साक्ष्य नही मिलता है,फिर भी ये विभेद लगातार समाज में चलता आ रहा है। प्रस्तुत शोध आलेख में इसी जाति विभेद के इतिहास को खोजने का प्रयास किया गया है , साथ ही साथ जाति विभेद के सम्बन्ध में प्रख्यात साहित्यकार एवं संपादक स्व0 राजेन्द्र यादव ने अपनी संपादकीय में क्या कहा है ? उसको रेखांकित करने का प्रयास किया गया है। 

बीज शब्द : भारत, जाति, ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य , शूद्र , विविधता, ऊँच, नीच, मानव।

मूल आलेख : भारत विविधताओं का देश है, यहां भौगोलिक विविधताओं के साथ ही धार्मिक और जातीय विविधता भी विद्यमान है। जिस प्रकार भारत 28 राज्यों और 8 केन्द्र शासित प्रदेशों का समूह होकर एक अखण्ड भारत के रूप में विद्यमान है, उसी प्रकार भारत में अनेक धर्मों और जातियों के लोग भी एक साथ रहते हैं। संवैधानिक रूप से एक देश के निवासी होने के बाद भी भारत में धार्मिक और जाति के आधार पर बहुत सारे विभेद मौजूद है, जो भारतीय समाज को खोखला बना रहे हैं। इन्ही विभेदों में से एक है जाति विभेद, जो विशेष रूप से हिन्दू धर्म के लोगों में मौजूद है, एक गम्भीर सामाजिक समस्या है। भारतीय नागरिक होनें के बाद भी धार्मिक आधार पर लोगों के रीति-रिवाज एवं त्योहार तो अलग है ही, रहन -सहन एवं पहनावा भी अलग है। भारत में हिन्दू समाज के लोग अनेक जातियों एवं उपजातियों में विभक्त है। विभाजन की जड़े इतनी गहरी है कि एक साथ रहने के बाद भी इनमें वैवाहिक सम्बन्ध, व्यवसाय आदि में विभेद किए जाते है। बहुत सारे जगहों पर आज भी धार्मिक आधार पर ही लोग रखे जाते हैं,जैसे मठ,मंदिर आदि। ‘जाति का जंजाल’ पुस्तक के संपादक रणजीत जी ने भारतीय समाज के विभेद पर अपनी पुस्तक में लिखा है  -

    कोई पासी, चमार, ब्राह्मण है 

    कोई जुलाहा, भिश्ती, पठान है

    कोई जैन है, कोई बौद्ध है

    कोई हिन्दू, कोई मुसलमान है

    जातियों और धर्मों के इस बियावान में 

    मैं खोज रहा हूँ 

    कितने ऐसे लोग हैं

    जो केवल इंसान हैं ?1

             भारतीय समाज में व्याप्त जाति परम्परा कब से शुरु हुई और किसने शुरु की, तथा इसके वर्गीकरण का क्या आधार था ? इसके विषय में कोई स्पष्ट जानकारी नही मिलती है। जाति के लिए पहले वर्ण शब्द का प्रयोग किया जाता था, यह वर्ण शब्द ही बाद में जाति शब्द हो गया। वर्ण रंग के आधार पर विभाजित था या किसी और आधार पर यह भी निश्चित नही है डा0 अम्बेडकर ने शोधपूर्वक यह मत निरूपित किया है कि – वेदों से यह प्रमाणित नही होता कि आर्यों का रंग दासो के रंग से भिन्न था। वर्ण का निर्धारण पहले व्यवसाय, स्वभाव, संस्कृति आदि के आधार पर ही था।-2 ऋग्वेद में तीन ही वर्ण है। शूद्र को चौथे वर्ण के रूप में वहां गिना नही गया। शतपथ ब्राह्मण और तैत्तिरीय ब्राह्मण भी तीन ही वर्णों की स्थिति बतलाते हैं। वैदिक धर्म चार वर्णों में विश्वास करता है और शूद्र को वह वेद – वेदान्त पढ़ने का अधिकार नही देता। वैदिक धर्म के अनुसार सन्यास का अधिकार भी केवल ब्राह्मण को है। महाभारत में उल्लिखित है कि – “ब्राह्मणों का वर्ण श्वेत, क्षत्रियों का लाल, वैश्यों का पीत और शूद्र का वर्ण श्याम होता है।”3 यह बात केवल महाभारत में कही गयी है अन्य कही भी इसका जिक्र नही मिलता है। प्रत्येक जाति को सदा के लिए किन्ही खास धन्धों से बांध देने का रिवाज वैदिक युग के बाद प्रचलित हुआ। जिसका स्पष्टतम उल्लेख मनुस्मृति में मिलता है – 

        वरं स्वधर्मों विगुणों न पारक्यः स्वनुष्ठितः ,

        परधर्मेण जीवन हि सद्यः पतति जातितः।4

अर्थात – अपना विगुण धर्म भी (यानी पैतृक परम्परा से प्राप्त कठिन धन्धा भी) दूसरों के धर्म से श्रेष्ठ है। दूसरों का सुविधाजनक धन्धा अपनाकर जीने वाला मनुष्य जाति से च्युत हो जाता है। 

              श्री जयचन्द विद्यालंकार ने लिखा है कि – जात- पांत की ठीक जात- पाँत के रूप में स्थापना 10वीं शताब्दी में आकर हुई और उसके बाद भी मिश्रण पूरी तरह बन्द नही हुआ, शहाबुद्दीन गोरी के समय तक हम हिन्दू जातों में बाहर के लोगों को सम्मिलित होते देखते हैं। सन् 1178 ई0 में गुरजात के नाबालिग राजा मूलराज द्वितीय की माता से हारकर गोरी की मुस्लिम सेना का बहुत बड़ा अंश कैद कर लिया था। उन कैदियों की दाढ़ी-मूँछ मुड़वाकर विजेताओं ने सरदारों को तो राजपूतों में शामिल कर लिया था और साधारण सिपाहियों को कोलियों, खाँटो, ब्राबियों और मेड़ो में।5   

          उपरोक्त बातों के आधार पर इतना तो स्पष्ट है कि भारत में किसी भी धार्मिक ग्रन्थ में जातीय परम्परा का स्पष्ट उल्लेख नही मिलता है फिर ये परम्परा कैसे शुरु हुई यह बहुत ही विचारणीय प्रश्न है। भारतीय सामाजिक परम्परा में धार्मिक परम्परा से ज्यादा मौखिक परम्परा प्रचलन में थी। इसका कारण ज्यादातर लोगों का अशिक्षित होना रहा है। इससे यह अनुमान लगाया जा सकता है कि उस समय समाज में उच्च कही जाने वाली जातियां जिनको कर्मों के आधार पर या शिक्षा के आधार पर उच्च पद या स्थान प्राप्त था उन्होनें बड़ी ही चालाकी से अपना आधिपत्य जमाकर उसे पीढ़ीगत बना दिया। सबसे बड़े आश्चर्य की बात यह है कि जो वर्ग काम नही करने वाला था उसे उच्च बना दिया गया और जो कामगार लोग थे उन्हे निम्न बना दिया गया जिससे भारतीय समाज का सामाजिक और आर्थिक नुकसान हुआ। रामधारी सिंह दिनकर ने संस्कृत के चार अध्याय में लिखा है कि – “ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य इनमें से किसी का भी सम्बन्ध शिल्प या कला कौशल से नही है। शिल्पी और कारीगर आर्यों के यहां शूद्र माने जाते थे। ” 6

        हिन्दी साहित्य की दुनियां में राजेन्द्र यादव जी नें अपनी उपस्थिति एक बहुत ही चर्चित व प्रभावी साहित्यकार के रूप में दर्ज करायी हैं। कहानीकार एवं उपन्यासकार के रूप में  राजेन्द्र यादव एक नयी परम्परा की खोज के लेखक है। उनकी कहानियां व उपन्यास तत्कालीन गम्भीर सामाजिक समस्याओं की ओर जनता का ध्यानाकर्षण करती हैं। सामाजिक समस्याओं के प्रति वे एक बहुत ही निर्भीक व गम्भीर साहित्यकार के रूप में जाने जाते हैं। अचानक ऐसा क्या होता है कि लगभग सैकड़ो कहानियां व कई उपन्यास लिखने वाला साहित्यकार साहित्य लेखन की दुनियां यह कहकर छोड़ देता है कि अब मुझे भविष्य के सपने नही आते है। वे कहते हैं कि  – “ कहानी उपन्यास में एक रचनात्मक संतोष होता है लेकिन वहां एक अधूरापन लगता है क्योकि हम वहां जनता से सीधे संवाद नही कर पाते हैं।” 7

            अपने इस अधूरेपन को दूर करने के लिए राजेन्द्र यादव मुंशी प्रेमचन्द्र की पत्रिका हंस का 34 वर्ष बाद पुनः अगस्त 1986 से संपादन प्रारम्भ करते हैं और हंस की संपादकीय के माध्यम से वे जनता से सीधे संवाद करते हैं। हंस का पुनः प्रकाशन करते हुए वे कहते हैं कि –“हम इस हंस पत्रिका को प्रेमचन्द्र की परम्परा से ही जोड़ना चाहते हैं। सामाजिक असमानता, अन्याय और शोषण के विरुद्ध संघर्ष , रूढ़ियों और आडम्बरों के खिलाफ जिहाद, शक्ति और सत्ता की अनीतियों, अत्याचारों का प्रतिरोध – यही चिंताएं और प्रतिबद्धताएं प्रेमचन्द्र की भी थीं – अपने समय के संदर्भ में। हंस प्रेमचन्द्र की रूढ़ि से नही, परम्परा से प्रतिबद्ध है यानी प्रेमचन्द्र की दृष्टि से।प्रेमचन्द्र हमारे लिए मूर्ति या आदर्श से अधिक एक प्रेरणा और अंकुश है...ताकि प्रलोभनों और भटकाव के जंगलों में दिशा मिल सके।” 8

            जिस प्रकार कबीर अपनी कविताओं के माध्यम से भारतीय समाज की धार्मिक, राजनीतिक, सामाजिक, जातीय समस्याओं पर करारा चोट करते हैं उसी प्रकार राजेन्द्र यादव अपनी पत्रिका हंस की संपादकीय के माध्यम से समाज में व्याप्त सामाजिक असमानता व समस्या के प्रति अपनी लेखनी चलाते हैं। कांटे की बात -1 में रचना के ‘बदले नाम’ से लिखी भूमिका में राजेन्द्र यादव कहते हैं कि – “मेरा सारा लेखकीय संघर्ष जिस निर्भीक और निष्पक्ष स्वतंत्रता के लिए प्रतिबद्ध रहा है शायद उसमें समझौता नही किया। इसके पीछे सिर्फ बल यही लगता है कि न कुछ खोने का डर और न पाने की लालसा कम से कम लेखन से तो नही ही है , हाँ मान्यता और स्वीकृति की आकांक्षा रही हो तो कह नही सकता।” 9

               कहा जाता है कि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है और समाज से ही उसका सर्वांगीण विकास होता है। बिना समाज के मनुष्य का कोई अस्तित्व नही है किन्तु समाज के कुछ स्वार्थी व धूर्त व्यक्तियों व वर्गों द्वारा अपने निजी स्वार्थ व लाभ के कारण ऐसे असामाजिक और अप्रमाणिक मानक व मनगढ़न्त  सामाजिक स्थापनाएं बनायी गयी जो हमारे समाज को रीढ़ विहीन बना रही है, ऐसी स्थापनाओं का पुरजोर विरोध करना सभी जागरूक व्यक्तियों का नैतिक एवं अनिवार्य कर्तव्य है। स्वामी विवेकानन्द जी के अनुसार शिक्षा में रूढ़िवादी और रचनात्मक दोनों पहलू शामिल होने चाहिए और हमे प्रगतिशील विचार और जीवन के नए मूल्य देकर समाज में बदलाव लाना चाहिए। शिक्षित व्यक्ति की जिम्मेदारी तय करते हुए वे कहते है कि -“जब तक देश में लाखों लोग भूखे और अनपढ़ हैं मै हर उस आदमी को देशद्रोही मानता हूँ, जो पढ़ने और काबिल बनने के बाद भी उनकी मुसीबतों पर जरा भी ध्यान देने को तैयार नही हैं।”10  भारत एक प्रजातांत्रिक देश है , जिसको संचालित करने के लिए एक संविधान की रचना की गयी है। भारतीय संविधान स्पष्ट घोषणा करता है कि भारत एक धर्म निरपेक्ष राज्य है। भारत में  किसी भी व्यक्ति के साथ लिंग,जाति,भेद ,सम्प्रदाय के आधार पर कोई विभेद नही किया जा सकता है। यदि कोई भी व्यक्ति ऐसा करता है तो वह अपराध कारित करता है। किन्तु सच्चाई इसके बिल्कुल विपरीत है, भारत में धर्म, लिंग जाति के आधार पर समाज का निर्माण हुआ है यद्यपि आजादी के बाद धीरे -धीरे जैसै -जैसे शिक्षा का दायरा बढ़ा है इस विभेद में कुछ कमी आयी है किन्तु वास्तविकता यही है कि इसकी जड़े इतनी मजबूत है कि आज भी ये पूरी तरह से समाज में अपनी उपस्थित बनाए हुए है। किसी भी सामान्य व्यक्ति का पहला परिचय उसकी धर्म और जाति के आधार पर ही कराया जाता है। बड़े आश्यर्य की बात है कि भारतीय समाज द्वारा महापुरुषों को भी जातियों के आधार पर अपनी – अपनी जाति का नायक घोषित कर लिया गया है। ऐसे समाज की सामाजिक समस्याएं कितनी भयावह हो सकती है उसकी कल्पना नही की जा सकती है। ऐसे समाज में  जहां साहित्य को समाज का दर्पण कहा जाता है, वहाँ एक साहित्यकार के रूप में किसी व्यक्ति की जिम्मेदारी कई गुना बढ़ जाती है। किन्तु राजेन्द्र यादव एक साहित्यकार के रूप में अपने इस दायित्व का निर्वहन करने में अपने को असमर्थ पाते हैं। उन्हे एक संपादक के रूप में अपने दायित्व को निभाना सहज व प्रभावी मालूम हुआ और वे अपने एक बड़े और प्रभावी साहित्यिक जीवन को छोड़कर हंस पत्रिका के संपादक के रूप में समाज में अपनी एक प्रभावी उपस्थिति दर्ज कराते हैं।


राजेन्द्र यादव एक बेवाक एवं निडर संपादक के रूप में जाने जाते हैं। जिस प्रकार प्रेमचन्द्र अग्रेजी हुकूमत के सामने निडर होकर अपनी बात करते रहे उसी प्रकार राजेन्द्र यादव भारतीय राजनीत के धुरंधरों के बीच बिना डरे और बिना किसी दबाव के अपनी बात सीधी और स्पष्ट रूप से करते रहे तथा जनता के प्रभावी व मह्त्वपूर्ण मुद्दों के लगातार उठाते रहे। राजेन्द्र यादव ने अपनी सम्पादकीय के माध्यम से स्त्री -विमर्श और दलित विमर्श को हिन्दी साहित्य के केन्द्र में लाने का प्रयास किया गया। राजेन्द्र यादव स्पष्ट कहते हैं कि – “ बिना जातियों के भारतीय समाज पर बात करना बेमानी और बेईमानी है। जीवन संघर्ष का जिक्र आते ही ‘काहू की जाति बिगारहु न सोऊ ’ की शिकायत तुलसीदास ने ही नही की कबीर ‘जुलाहा’ और रविदास ‘चमारा’ की घोषणाए करते रहे।”11

            एक गम्भीर सम्पादकीय दायित्व का निर्वहन करते हुए राजेन्द्र यादव ने अपने समाज की जड़ता, निष्क्रियता और बौद्धिक आलस्य को झकझोरने का बीड़ा उठाया है और हजारो सालों से जातीय व्यवस्था जो समाज में एक घुन की तरह समाज को खोखला बना रही थी, जिस पर समाज में बहस होनी चाहिए और उसके निराकरण का उपाय खोजना चाहिए, लेकिन भारतीय समाज में यदि जातियों पर चर्चा किया जाय तो चर्चा करने वाला व्यक्ति जातिवादी कहलाने लगता है जबकि भारतीय समाज में कोई भी काम बिना जाति देखे नही होता है, जहाँ जाति देखकर योग्यता भी निर्धारित कर दी जाती है उस समाज में जाति पर बात करने पर इतना संकोच क्यों किया जाता है यह बात समझ से परे है, इस पर अपनी स्पष्ट प्रतिक्रिया देते हुए राजेन्द्र यादव ‘इत्र कैसे बनता है’ नामक संपादकीय में कहते हैं कि – अजीब बात है कि पारिवारिक संबन्धों से लेकर नियुक्तियों- नौकरियों और राजनीतिक चुनावों में हम हर कहीं, हर क्षण जातिवादी समीकरण बैठाते हैं। भारतीय राजनीति, चाहे वह किसी भी रंग की हो, बिना इस जातिवाद के एक कदम नही चल सकती। रोज जातिवादी संगठन अपने अधिवेशन करते हैं , पत्रिकाएं निकलती है और गाँव-गाँव में अलग- अलग जातियों की पंचायतें सक्रिय हैं, वहाँ बिना जाति पूँछे अनजान आदमी को पानी तक नही पिलाया जाता है। इस सामाजिक स्थिति को लेकर देश-विदेश में न जाने कितने विश्लेषण – शोध प्रबन्ध लिखे गये हैं, एलीट क्लास की जातिवादी बनावट पर न जाने कितने अध्ययन आए है, सांस्कृतिक, सामाजिक, राजनीतिक – क्षेत्र में एक ही वर्ण के वर्चस्व पर समाज वैज्ञानिकों से लेकर राजनीति शास्त्रियों ने दर्जनों पोथे लिखे हैं – वही सवाल साहित्य में आते ही वर्जनीय क्यों हो उठता है ?........ साहित्य में उस समय हंगामा ही हो गया था जब मैने हिन्दी प्रदेश की वैचारिक दरिद्रता पर बात करते हुए इस संयोग पर ध्यान दिलाया कि 1850 से 1950 तक सौ सालों का साहित्य क्यों मुख्यतः ब्राह्मणों तक ही सीमित रहा है, शेष जातियों का योगदान कुछ प्रतिशत से अधिक नही है। दलित महिलाएं और अल्पसंख्यक तो लगभग हैं ही नही। जहाँ समाज की संरचना ही वर्गों और वर्णों से बनी हो वहाँ एक ही वर्ण का वर्चस्व वैचारिक ऊर्जाहीनता, ठहराव या सड़ाँध तो पैदा करेगा ही – उस यथास्थिति को बनाए रखने के न्यस्त स्वार्थ भी पैदा होंगे और उसे ही सबकी सम्पत्ति या सर्वश्रेष्ठ घोषित करने के तर्क भी तलाशे जाएँगे।”12


आगे वे हंस के जनवरी – फरवरी अंक के संपादकीय ‘स्त्री का भविष्य ’ में जातीय विभेद पर चर्चा  करते हुए लिखते हैं कि – “ भारतीय संदर्भों में जातीय विभाजनों के कारण एक ही आर्थिक वर्ग के भीतर मौजूद अनेक सांस्कृतिक, सामाजिक वर्ग है, उनकी अलग-अलग जातीय जीवन की पद्धतियां हैं, अलग -अलग प्रगति के पैमानें है।”13 इसी प्रकार जातीय विभेद पर चर्चा करते हुए वे अपनी संपादकीय मेरी तेरी उसकी बात नाम से हंस के अंक मार्च 1998 में लिखित जो हंस के सितम्बर 2021 अंक में ‘बांझ बुद्धिजीवियों की पनाहगाह’ नाम से प्रकाशित हुआ, में राजेन्द्र यादव भारतीय जाति व्यवस्था पर चर्चा करते हुए कहते हैं कि –“ हिन्दू समाज की ट्रेजडी दूसरी है। यह समाज न जाने कितने वर्णों और वर्गों में बँटा हुआ है, जिनके बींच निरंतर आन्तरिक संघर्ष चलता रहता है। यह संघर्ष सत्ता और वर्चस्व को लेकर है। होना यह चाहिए था कि इस सत्ता विमर्श में सभी वर्ग शामिल होते और वही प्रजातांत्रिक समझ समाज में भी विकसित होती जो एक परिवार में होती है। मगर ऐसा नही हुआ तो वर्चस्व सिर्फ एक ही वर्ण का हो गया, चाहे तो उसे ब्राह्मणवाद कह लें। जब सदियों से एक ही वर्ण या वर्ग के आचार – विचार, चिंतन शास्त्र, संस्कृति साहित्य सारे समाज पर छाए रहे या इनमें शेष सारे समाज की कहीं हिस्सेदारी ही न रहे तो स्वभावतः सास्कृतिक तानाशाही विकसित हो जाती है।” 14 

        इस प्रकार हम देखते हैं कि भारत में जाति व्यवस्था के वर्गीकरण का कोई भी स्पष्ट आधार परिलक्षित नही होता है, हो सकता है तात्कालीन समाज में लोग अपने गुणों,योग्यता व रुचि के आधार पर अलग-अलग व्यवसाय करने लगे हों, जो मानव जीवन के लिए जरूरी भी था। अलग-अलग व्यवसाय में लगे हुए लोगों को अन्य लोगों द्वारा उनके व्यासायिक नामों से पुकारने लगे हों और बाद में यही नाम रूढ़ हो गया हो। क्योकि यहां हर जाति की अपनी एक विशिष्ट व्यावसायिक योग्यता है।अपनी दीर्घकालीन निरंतरता में मिथक एक स्वतंत्र अस्तित्व ग्रहण कर लेता है। इस तथ्य का सबसे जीता -जागता उदाहरण भारतीय जाति- व्यवस्था से जुड़ा मिथक है, जो भारत के सबसे गहरे विभेद और विभाजन की जड़ मे है। भारतीय समाज में जाति व्यवस्था जिस घुन की तरह लगा हुआ है उसका निराकरण बिना उस पर बात किए सम्भव नही है। सत्यता यही है कि जो व्यक्ति अपने को जितना गैर जातिवादी सिद्ध करता है वह उतना ही जातिवादी है। उसका यह रूप किसी खास अवसर पर अपने आप खुल जाता है। जाति पर बात करने वाला व्यक्ति जातिवादी नही बल्कि इस गम्भीर सामाजिक समस्या के निराकरण का प्रयास करने वाला होता है। राजेन्द्र यादव ने जिस गम्भीरता एवं बेवाकी से इस बात को अपनी संपादकीयों के माध्यम से उठाया है, वह हमे एक दृष्टि और दिशा देती है। एक साहित्यकार का यह परम कर्तव्य है कि वह कल्पना की दुनिया से उतरकर वास्तविक धरातल की समस्याओं पर अपनी लेखनी चलाए। इस दिशा में राजेन्द्र यादव निश्चित रूप से एक संपादक के रूप में सफल रहे। 

निष्कर्ष : उपरोक्त विवरण को आधार बनाने के बाद निष्कर्ष रूप में यह कहा जा सकता है कि भारत में आज जाति विभेद की यह समस्या जो हमारे सामाजिक,आर्थिक एवं राजनीतिक जीवन को बहुत गहराई से प्रभावित करता है, इसकी जो परम्परा है वह कभी जन्म के आधार पर थी ही नही, बल्कि कार्य के आधार पर वर्गों का विभाजन किया गया था, किन्तु बाद में व्यक्तिगत, पारिवारिक एवं सामूहिक हित के लिए कुछ अज्ञात स्वार्थी लोगों द्वारा इसे जन्म के आधार पर मान्यता प्रदान कर दी गयी, जिसके कारण हमारे देश एवं समाज का बहुत ज्यादा आर्थिक,सामाजिक नुकसान हुआ है। इस विभेद की तरफ राजेन्द्र यादव ने भी बड़ी वेबाकी से अपनी बात रखी है जिसका जिक्र ऊपर किया गया है।यह विभेद दिनों -दिन देश एवं समाज को खोखला बनाता जा रहा है,जिस पर बौद्धिक वर्ग को हस्तक्षेप करने की आवश्यकता है।  

संदर्भ :
  1. जाति का जंजाल – सं- रणजीत, पृष्ठ सं0- 5
  2. संस्कृत के चार अध्याय – रामधारी सिंह ‘दिनकर’ – पृष्ठ सं0- 56
  3. संस्कृत के चार अध्याय – रामधारी सिंह ‘दिनकर’ – पृष्ठ सं0- 56
  4. संस्कृत के चार अध्याय – रामधारी सिंह ‘दिनकर’ – पृष्ठ सं0- 57
  5. संस्कृत के चार अध्याय – रामधारी सिंह ‘दिनकर’ – पृष्ठ सं0- 60
  6. संस्कृत के चार अध्याय – रामधारी सिंह ‘दिनकर’ – पृष्ठ सं0- 49
  7. प्रसार भारती यूट्यूब चैनल – साहित्य सृजन 
  8. कांटे की बात, भाग-12 – पृष्ठ सं0-36
  9. कांटे की बात, भाग-1 – पृष्ठ सं0- 09
  10. हिन्दी वेब दुनिया।
  11. कांटे की बात, भाग-12, पृष्ठ सं0- 18 
  12. कांटे की बात, भाग-12, पृष्ठ सं0- 15, 18 
  13. हंस, जनवरी -फरवरी 2000 , पृष्ठ सं0- 4
  14. हंस, सितम्बर 2021 , पृष्ठ सं0- 8

   

विनोद कुमार
असि0 प्रोफेसर (हिन्दी), 
लाल बहादुर शास्त्री पीजी कालेज, मुगलसराय, चंदौली
vinodhemayadav@gmail.com, 9621674298

डॉजितेंद्र यादव
असिस्टेंट प्रोफेसरहिन्दी विभाग
सकलडीहा पी.जीकॉलेज सकलडीहा चंदौली
jitendrayadav.bhu@gmail.com9001092806

चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक ई-पत्रिका 
  अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-52, अप्रैल-जून, 2024 UGC Care Listed Issue
सम्पादक-द्वय : माणिक-जितेन्द्र यादव चित्रांकन  भीम सिंह (इलाहाबाद विश्वविद्यालय)

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