संस्कृति की रोशनी में अहीरवाल क्षेत्र के लोकगीत
- सुनीता कुमारी एवं प्रो. गीता कपिल
शोध सार : लोकगीत प्रायः भारत के ही नहीं बल्कि दुनिया के सभी हिस्सों में अपने-अपने स्तर पर गाये जाते हैं, जो कि सामूहिक रचनाशीलता के परिणाम होते हैं। अहीरवाल क्षेत्र के लोकगीत यहाँ के सामाजिक जीवन में ऐसे प्रकाशपुंज हैं जो मानव-मन की अथाह अँधेरी गलियों तक को चमकाते व आलोकित करते हैं। लोकगीतों से सामाजिक व सांस्कृतिक जीवन के परिदृश्य कितने सजे-संवरे हैं, यह सब इन गीतों को सुनकर जाना जा सकता है। इस आलेख में अहीरवाल क्षेत्र के लोकगीतों के माध्यम से यहाँ के रीति-रिवाज, तीज-त्यौहार,
शादी-उत्सवों एवं उनके जन जीवन में आने वाली विड़म्बनाओं व घटनाओं का चित्रण किया गया है। जिससे यहाँ की संस्कृति को बखूबी जाना व समझा जा सकता है।
बीज शब्द : लोकगीत, अहिरवाल क्षेत्र, सांस्कृतिक, ऋतु संबंधी, सामाजिक प्रथाएं, धार्मिक आस्थाएं, रीति-रिवाज, पारिवारिक संबंध, राजनीतिक जीवन, दिनचर्या, राष्ट्र-प्रेम आदि।
मूल आलेख : लोकगीत लोककंठ की मौखिक परम्परा की धरोहर है। इसलिए इन्हें लोकमानस की विविध चित्तवृत्तियों का कोष कहा जाता है। लोकगीत साधारण जनमानस की अन्तर संवेदनाओं की लयात्मक अभिव्यक्ति है। ये लोकमानस की निष्छल अभिव्यक्ति और लोक प्रतिभा से ओतप्रोत हैं। लोकगीत भावाकुल हृदय की सहज, सरल अभिव्यक्ति है। ये समूची संस्कृति के पहरेदार हैं।
परिभाषाएं- लोकगीत में लोक और गीत दो शब्दो का मेल है जिसका अर्थ है लोक के गीत। लोकगीतों में मानव मन की सहज सरल अभिव्यक्ति साकार होती है। लोकगीत की निम्न परिभाषाएं दी गई हैं-
डॉ॰ सत्येंद्र अपनी पुस्तक ‘लोकवार्ता की पगडंडियों’ में लिखते है, ‘‘जब लोकमानस आनन्द से गद्गद् हो उठता है या वेदना का स्त्रोत प्रवाहित होने लगता है तो स्वतः प्रेरित भाव-लहरियाँ लोकमानस से प्रवाहित होने लगती हैं। यही लहरियाँ लोकगीत के नाम से अभिहित होती हैं। न इनकी रचना का स्वरूप है, न नियमावली,
न ही लोकगीतों के मूल रचियता का पता है।’’1
डॉ॰ श्याम परमार लोकगीत में मानव-संस्कृति की सरलता को रेखांकित करते हुए लिखते हैं-‘‘इन गीतों में विज्ञान की तरास नहीं, मानव संस्कृति का सरल और व्यापक भावों का उभार होता है। भावों की लडियाँ लम्बे-लम्बे खेतों सी स्वच्छ पेडों की नंगी डालो सी रफ और मिट्टी की तरह सत्य है।’’2
अहीरवाल क्षेत्र के लोकगीत
लोकगीत प्रायः भारत के ही नहीं बल्कि दुनिया के सभी हिस्सों में अपने-अपने स्तर पर गाये जाते हैं, जो कि सामूहिक रचनाशीलता के परिणाम होते हैं। जब भी हरियाणा की बात आती है, तब अहीरवाल क्षेत्र का जिक्र जरुर आता है। अहीरवाल क्षेत्र में जीवन से मरण तक के हर अवसर पर गीतों के गाने का प्रचलन है। इन गीतों को पुरूष व महिला दोनों ही गाते हैं। इन लोकगीतों के माध्यम से हम जन-जन के सुख-दुःख, लोकाचार, पारिवारिक संबंध,
सामाजिक प्रथाएं, धार्मिक आस्थाएं, राजनीतिक उथल-पुथल, ऋतुओं का आकर्षण, खेतों का दृष्य, कुएं और पनघट की चहल-पहल आदि सब लोकगीत के माध्यम से उजागर किए गए हैं। जो इस प्रकार है-
ऋतु संबंधी गीत
हरियाणा में लोकगीत अपनी विशेषताओं के कारण लोक-साहित्य की बहुमूल्य निधि माने गए हैं। पूरे भारतवर्ष में छः ऋतुओं का आगमन है। इन ऋतुओं में से फागुन और सावन के लोकगीतों की तो छटा ही निराली है। प्रदेश की मौज-मस्ती फागुन के गीतों में और प्रकृति की मुस्कान सावन के गीतों में साफ झलकती दिखाई देती है। फागुन के गीत होली के त्यौहार के आगमन की सूचना देते हैं। फागुन में होली-फाग का त्यौहार बडी धूमधाम से मनाया जाता है। सभी एक दूसरे को गुलाल लगाते हैं। फागुन मौज मस्ती का महीना माना जाता है। ऋतु संबंधी लोकगीतों में सावन के गीत भी विशेष महत्व रखते हैं। तीज का त्यौहार भी सावन के महिने में ही आता है। सावन मास में झूला झूलने का विशेष महत्व है। लडकियाँ और बहुएँ अपनी सखी-सहेलियों के साथ झूला झूलने जाती हैं। सावन के गीत इस प्रकार है-
आया री सास्सड सामण मास, पाटडी घडा दे चंदन रूख की री।
आया तै बहूअड आवण दे री, जाय घडाइए अपणै बाप कै री।
आया री सास्सड सामण मास, हमनै खन्दा दे म्हारै बाप कै री।
इबकै तो बहू म्हारी खेती का काम, कातक जाइयो अपने बाप कै री।
कोण तो बहूअड करेगा नलाव, कोण पीसैगा घर का पीसणा री।
सावन में पेड़ों पर झूले डलते हैं तो युवतियाँ ससुराल से मायके आ कर सावन का आनन्द उठाना चाहती हैं। परंतु कृषि कार्य का आधिक्य उसके मार्ग में अवरोध बन कर आ जाता है। सास सावन मास आने पर भी बहू को पीहर नहीं जाने देती और कार्तिक में भेजने का वायदा करती है। बहू कहती है कि तब तो उसके भाई का विवाह है। उस वक्त वह दौबारा चली जाएगी। सास को बहू का यह उत्तर पसंद नहीं आया और वह ओछे घर की लड़की कह देती है-
“कातक सासड बीरे का ब्याह री,
इतनै तो बैरण जान्गे दूसरे री।
सुण ले रे बेटा बहू के बोल,
ओछे घरा की रे बहूअड छोकरी”।3
सावन के गीतों में भाई-बहन का प्रेम, माँ के प्रति प्रेम,
कोथली (हरियाली तीज पर भाई द्वारा बहन को दिया गया उपहार) आदि का वर्णन देखने को मिलता है। प्रस्तुत गीत में बहन भाई की प्रतीक्षा कर रही है। वह अपने व्यवसाय के लिए बाहर गया है और सावन मास में आने वाला है। वह अपनी बहन के लिए कुछ ना कुछ अवश्य लाएगा। बहन उन सबका उल्लेख करती है-
बागां मै पपीहो बोल्यो, मै जाणी कुण आवै सै।
आवै सै यो हरसिंह बीरों, के के सौदा ल्यावै सै।
मां की तील भान को जोडो, बहू की रिमझिम लावै सै।
फागुन का मस्ती भरा महीना गीतों की रंगबिरंगी पिचकारियाँ लिए आता है। तन-मन में उत्साह की हुक भर जाती है। बालक से लेकर बुढ़े तक एक प्रकार के नशे से में झूमने लगते हैं। इस गीत में वृद्ध-वृद्धाओं को भी फागुन के इन दिनों में विगत समय की सुहावनी यादें रोमांच प्रदान करती हैं। इस गीत में एक नवविवाहिता की पिया-मिलन की उत्कंठा भी है और एक वृद्धा की मस्ती भी-
“काच्ची अम्बली गदराई साम्मण मै, बुड्ढी लुगाई मसताई फाग्गण मै।
कहियो री उस ससुर मेरे नै, बिन घाल्ली ले जाय फाग्गण मै।
कहियो री उस बहुए म्हारी नै, च्यार बरस डट जाय फागण मै।
कहियो री उस जेठ मेरे नै, बिन घाल्ली ले जाय फाग्गण मै
कहियो री उस बहूए म्हारी नै, च्यार बरस डट जाय फाग्गण मै।
कहियो री उस देवर मेरे नै, बिन घाल्ली ले जाय फाग्गण मै
कहियो री उस भाभी म्हारी नै, च्यार बरस डट जाय फाग्गण मै”।4
इस गीत में सुहागन अपने पति के विरह में फागुन के महीने को ही कोस कर अपना रोष प्रकट करती है-
जब साजन ही प्रदेश गए मस्ताना फाग्गण क्यू आया।
जब सारा फाग्गण बीत गया तै घर मै साजन क्यू आया।
इसके विपरित जिनके पति साथ होते हैं। उनके आनन्द का कोई ठिकाना नहीं होता है। उनका मन खुशी से नाच उठता है और वे मिलकर गा उठती हैं-
दिन चार री सजनी ,
फाग्गण के दिन चार।
मद जोबण आया फाग्गण मै, फाग्गण भी आया जोबण मैं।
झाल उठै सै मेरे मन मै, जिनका आर न पार री सजनी।
इस प्रकार लाकगीतों के माध्यम से अपने मन के भवों को उजागर किया जाता है। गीतों के माध्यम से ऋतुओं का आनन्द और ज्ञान दोनों मिल जाते हैं।
सांस्कृतिक गीत
अहीरवाल लोकगीतों में सांस्कृतिक जागरण से संबंधित भी अनेक गीत गाए जाते हैं। इनमें जन्म-मरण,
विवाह, समाज सुधार,
धार्मिक जागृति और राजनीतिक चेतना के गीत सम्मिलित किए जा सकते हैं। ग्रामीण लोक-जीवन में बाल-विवाह, अनमेल-विवाह, दहेज-प्रथा,
नशा आदि कुरूतियों का मार्मिक चित्रण देखने को मिलता है। जैसे धन का लोभी पिता जब अपनी पुत्री का विवाह एक बूढे़ से कर देता है तो पुत्री गीत के माध्यम से कहती है-
“धन माया के लोभी बाप नै,
बुड्ढे कै ब्याह दी री,
बुड्ढा सिराणे बैठग्या, मै पाँदया नै बैठी री।
बुड्ढे का डाड्ढा न्यूँ हाल्लै, मैं डर-डर मरगी री,
बुड्ढा तो चाल्या रूस कै, मै मनावण चाल्ली री”।5
इस गीत के माध्यम से समाज में प्रचलित दहेज प्रथा और अनमेल विवाह का पता चलता है। इसी तरह जन्म से संबंधित गीत भी गाए जाते हैं। इनसे भी समाज में प्रचलित लड़के और लड़कियों के बीच भेद-भाव उजागर होता है। अहीरवाल क्षेत्र में भी पुत्री की अपेक्षा पुत्र प्राप्ति की कामना अधिक होती है। पुत्र का जन्म आनन्द और उल्लास का प्रतीक माना जाता है। पुत्र के जन्म पर माता-पिता अपनी खुशी प्रकट करते हुए कहते हैं कि खुशी का दिन तो वो होगा जब उनका बेटा दादा-दादी कहेगा और शरारते करेगा-
उब घडी शुभ घडी उस दिन जाणुगी,
म्हारा री होलर जब दादा कह कै बोलैगा।
दादा कह कै बोलगा दादी री गोदी खेलैगा,
गायां रा बछडा होलर खुन्टे कै तै खोलैगा।
पुत्र को जन्म देने पर जच्चा अपने परिवार वालों को खूब दिल खोलकर खर्च करने को कहती है-
“कहियो-कहियो री होलर के दादा नै,
जोडा री जकोड्या आज खरचै।
म्हारै बाज रह्या थाल हुया नन्दलाल,
हुया नन्दलाल अर मुंसी सूबेदार”।6
इसके विपरीत पुत्री का जन्म बुरा माना जाता है। जब बहू की गोद हरी होने के लक्षण पडते हैं तो पत्नी फूली नहीं समाती, परन्तु उसका सारा हर्षोल्लास क्षण भर में खत्म हो जाता है जब पति ने चेतावनी के स्वर में कहा-
जे गौरी तनै जन्मी ए छोरी,
कौए काट ल्यांगे नाक अर कान।
इस प्रकार की धमकी केवल पति ही नहीं सास, ससूर, नन्द आदि परिवार के सभी सदस्य देते हैं। एक लोकगीत में पिता द्वारा दर्शाया गया दुःख-
“जिद्दिन लाडो तेरा जन्म हुया, हुई सै बजर की रात।
पहरे वाले लाडो सो गए, लग गए चंदन किवाड।
टूटे खटोले तेरी अम्मा,
वो पौढे बाबल गहर गंभीर।
गुड की पात तेरी अम्मा पीवै, टका भी खरच्या न जाय।
चौसठ दिवले बिटिया बालधरे,
तो भी गहन अंधेर सै”।7
इसी तरह विवाह के अवसर पर भी अनेक प्रकार के रीति-रिवाजों से संबंधि गीत गाए जाते हैं।
लगन के गीत-
लगन आया मेरे अंगना रघुनन्दन फुली ना समाय,
दादा सज गए ताउ सज गए, सज गयी सारी बरात,
रघुनन्दन तो सज गए ऐसे जैसे श्री भगवान।
लगन आया मेरे अंगना रघुनन्दन फुली ना समाय।।
भात के गीत-
बहन अपने भाई के यहाँ शादी का निमंत्रण देने जाती है उसको भात न्यौतना कहते हैं। बहन चाहती है की भाई भात में खूब सारा सामान लाए, ताकि उसे देखकर लोग उसके पीहर की प्रशंसा करें और परिवार में उसका सम्मान बढे, इसलिए वह अपने भाई से किसी भी प्रकार का लालच न करने को कहती है और कहती है-
“गरम दुस्साला मेरे सूसरे जी का लाइय्यो,
रेसमी-सी तील मेरी सासू जी की लाइय्यो,
बीरा लोभी रै लोभ मत करियो,
बीरा ज्ञानी रै ज्ञान तै आइयो।
गरम चद्दर मेरे जेठा जी की लाइय्यो,
पोत की साडी अपणी बहनड की लाइय्यो,
बीरा लोभी रै लोभ मत करियो,
बीरा ज्ञानी रै ज्ञान तै आइयो”।8
भातियों के द्वार पर आ जाने के बाद बहन स्त्रियों के साथ आ कर दीपक से भाई की आरती उतारती है और तिलक करती है। भाई बहन के लिए चूनरी लाता है और बहन को वह चूनरी उढ़ाता है। उस समय चूदड़ी गीत गाया जाता है-
“आज भाण मेरे बाग्गाँ मैं धूल उठी,
अरी भहना आयो मेरी माँ को जायो बीर।
हीरा बंध ल्यायो चूनदडी,
ओढू तो हीरा मोती झड पडै,
धरू तो ललचै मेरो जी, रै बीरा सादी क्यूँ ना ल्यायो चूनदडी”।9
लोकगीतों से जीवन की नीरसता मिटाने के लिए भी खूब सहायता ली जाती है। तीज-त्यौहार के अवसर पर तो इनसे जीवन में अजीब ही रंग आ जाता है। होली, तीज आदि त्यौहारों के मौके पर लोकगीतों की बहार आ जाती है। हर आदमी इनकी मस्ती में मस्त होकर झूमने लगता है। हरियाली तीज पर झूले पडते हैं। लड़कियाँ माँ से कहती हैं-
झूलण जांउगी हे माँ मेरी बाग मै,
हे री कोई संग सहेली चार।।
झूलण जांउगी हे माँ मेरी बाग मै,
कोई पंद्रह की कोई बीस की।।
हे री कोई संग सहेली चार,
झूलण जांउगी हे माँ मेरी बाग मै
अहीरवाल में हो रहे सामाजिक परिवर्तन लोकगीतों में साफ नजर आते हैं। साथ में यह परिवर्तन कितनी गहराई तक पहुँचा है, लोकगीतों से इस बात का भी अंदाजा लगाया जा सकता है। पहले हमारे यहाँ ससुराल में स्त्रियों पर कितने ही जुल्म हो, कितनी ही पीडा हो, उसके मुहँ से आह तक ना निकले,
सास-ससुर तथा अन्य परिवार वालों के सामने वह सिर झुकाए खड़ी रहे यही खानदानी बहु की पहचान मानी जाती थी। इससे स्त्रियों की विड़म्बनाओं के बारे में जानकारी मिलती है। प्रस्तुत लोकगीत में स्त्री की स्थिति में बदलाव देखने को मिलता है-
दिन-रात कमाई मन्नै हसलर घडाई।
ले गए चोर अर मेरे सिर लगाई।
सुसरा तै लडूँगी पीठ फेर कै लडूँगी।
आजा हे सासु तनै खुटी कै धरूँगी।
जेठ तै लडूँगी गाती खोल कै लडूँगी।
आजा हे जेठानी तेरी सोड सी भरूँगी।
इस तरह से बहू अपने उपर लगे गलत आरोप को स्वीकार नहीं करती है और सबसे लड़ने को तैयार हो जाती है।
लोकगीतों में समस्त भौतिकता को भेद कर परमार्थ के दर्शन होते हैं। इन्हें सुन कर मन सोचने पर विवश हो जाता है कि यह वही संसार है जिसमें एक-दूसरे के बिना मर-मिटने का वादा किया जाता है और प्राण पखेरू उड जाने पर वही बाहर निकालने की जल्दी करते हैं। इस गीत में यह बहुत अच्छे से दर्शाया गया है-
“इतनै तेल दिये बिच बाती, जगमग-जगमग हो रही हो राम।
बल गया तेल निपटगी बाती, ले चलो, ले चलो हो रही हो राम।
अपने बाबल की मै बोहत प्यारी,
वो भी कहे,
ले चलो, ले चलो हो राम।
अपने भाई की मै बोहत प्यारी,
वो भी कहे,
ले चलो, ले चलो हो राम।
अपने कुणबे की मै बोहत प्यारी,
वो भी कहे,
ले चलो, ले चलो हो राम।
कोरा-सा करवा, गंगाजल पाणी, इससे मेरी काया नुहाई हो राम।
एक गज धरती सवा गज कपडा, यो मेरे जीवडे का साथी हो राम”।10
अहीरवाल क्षेत्र में अतिथि की सेवा, बडों का आदर सम्मान और लोकोपकार के कार्य करना यहाँ के लोग अपना नैतिक कर्त्तव्य मानते हैं। धर्म कर्म में ये लोग बहुत विश्वास करते हैं। तीर्थ यात्रा करना, पवित्र अनुष्ठानिक कार्यों में भाग लेना, पवित्र सरोवरों में स्नान करना, व्रत करना, दान पुण्य करना, पितरों का पिंड दान करना आदि यहाँ के धार्मिक रीति-रिवाज हैं। इनके बारे में कुछ इस तरह कहा गया है-
“धर्म-कर्म भाई सदा रहैं सैं म्हारे देस हरियाणे म्हं,
जनम-जनम के पाप कटें सैं कुरूक्षेत्र के न्हाणे म्हं।
बणभेरी देवी के मन्दिर लोग लुगाई आवैं सैं,
रामराय अर पिंडारे पितरां के पिंड भरावैं सैं।
जंगा-जंगा पै मेले लागे हँस-हँस कै बतलावैं सैं
दूर देस तै आवैं मुसाफिर उनका मान बढावैं सैं।
गहण के ऊपर मेला लागै, या खास बात हरियाणे म्हं”।11
देश-प्रेम संबंधी गीत-
भारत भूमि सदियों तक पराधीन रही है। देश को आजादी दिलाने में गांधी जी का बहुत योगदान रहा है। यह सब देश-प्रेम के कारण ही हुआ। इन्होनें समाज में प्रेम की भावना उत्पन्न की और लोगों को संदेश दिया-
गांधी जी ने आण बजाई ए सखी, आजादी की बाँसुरी।
फिर जिन्हें-जिन्हें सुण लई बाँसुरी,
उसके कटे छटी के फंदे हे सखी,
मातृभूमि को स्वाधीन कराने के लिए जनता ने गाँधीजी के नेतृत्व का अनुसरण किया और आत्म बलिदान दिया। महात्मा गांधी के समान ही नेताजी श्री सुभाषचन्द्र को भी लोकगीतों में स्थान मिला है जिसने भारत माता के लिए अपने प्राण दे दिए।
भारत माता तेरे फिकर मैं बाबू चंदर बोस गया।
बेरा ना पाट्टै कित फिरै भरमता,
होकर तेरा पूत गया।
महात्मा गांधी-जवाहर नू कहैं, म्हारा भरा-भराया लाल गया।
भारत माता तेरे फिकर मैं बाबू चंदर बोस गया।
राष्ट्र-प्रेम एवं देश-भक्ति अहीरवाल क्षेत्र के लोगों में खूब देखने को मिलती है। एक गीत में परिवार के सभी सदस्यों को अपने कुलदीपक के बलिदान पर सदैव नाज होता है, जिसने शत्रु को छठी का दूध पिलाया। गीत की पंक्ति इस प्रकार है-
बीर मेरा बिस्तर बांध्यै आग्गै फिर रह्यी छोटी बाहण।
बीर थारी गैल चालूँगी,
जीतूँगी चीन अर पाकिस्तान।
बीर मेरा जैहिन्द बोल्लै,
पाच्छे तै बोल्लै सारी फौज।
बीर मेरा सिंघणी का कह्वाग्या, कोन्या लजाया माँ का दूध।
देश भक्ति के गीतों के द्वारा माताएँ भी देश की रक्षा के लिए अपने लाड़ले पुत्रों को प्रेरित करती हैं-
कर देश की रक्षा चाल्या लाल मेरा सजधज कै।
अरि दल नै सीमाएँ तेरी च्यारूँ ओर तै आकै घेरी।
के इसका नहीं ख्याल लाल मेरा सजधज कै।
जिस दिन खातर तनै दूध पिलाया वो आज लाडले आया।
करकै दिखा कमाल लाल मेरे सजधज कै।
धार्मिक गीत
अहीरवाल क्षेत्र के गाँव-गाँव में धार्मिक मंदिर पाए जाते हैं। यहाँ धर्म के प्रति अधिक आस्था है। इसलिए इसे ‘रामभजिया का देस’ कहा जाता है। मनुष्य एक भोजन मात्र से जीवित नहीं रहता, इसके अलावा मनुष्य को आध्यात्मिक भोजन की आवश्यकता रहती है। सांसारिक संघर्षों से परेशान होकर वह मानसिक शांति के लिए ईश्वर की शरण में जाता है। भजन द्वारा वह अपने कष्टों को भूल कर परमात्मा के चरणों में समर्पण की भावना से नत हो जाता है। आस्थाशील व्यक्ति अपनी-अपनी आस्था के अनुसार भगवान की भक्ति में लीन रहते हैं। कोई गुरू भक्ति में, कोई देवी-देवताओं की भक्ति में अपने आप को समर्पित कर देते हैं। उदाहरण के लिए कुछ गीत संक्षिप्त में इस प्रकार हैं-
“चालो हे भैणाँ रामभजनियों के देस।
लोभ माह उडै दानों ए कोन्याँ धर्म तुलै सै रोज,
चालो हे भैणाँ रामभजनियों के देस।
दूध और दही का उडै घाटा ए कोन्याँ मक्खन तुलै से हमेस,
चालो हे भैणाँ रामभजनियों के देस”।12
इस प्रकार राम को अपना परम परमेश्वर मानकर अपनी भक्ति भावना को उजागर किया है। अहीरवाल के अधिकतर लोग आस्तिक हैं। भक्ति भावना से वो ओत-प्रोत होते हैं किसी भी शुभ कार्य पर अपने इष्ट देवता की पूजा करना नहीं भूलते है। किसी भी कार्य को आरम्भ करने से पहले गणेश जी की पूजा करी जाती है। गणेश जी को ऋद्धि-सिद्धि और मनाकामनाएं पूरा करने वाला माना जाता है।
“नमो जी गणेश, नमो हनुमन्ता,दोनों योद्धा बडे बलवन्ता,
गणेश जी न ध्यावे नर अर नारी, हनुमत नै ध्यावै परजा सारी”।13
कृषि एवं दिनचर्या के गीत
हरियाणा कृषि प्रधान प्रदेश है। हरियाणा के अधिकतर लोग खेती करते हैं। कृषि में किसान अपना खून-पसीना एक कर देता है। ईख की खेती तो बहुत ही कठिन होती है। कृषक महिला ईख नलाने से बड़ी परेशान रहती है। क्योंकि ईख की पाती शरीर पर लग कर कष्ट पहुँचाती है। दूसरा चक्की का पीसना स्त्रियों के लिए कष्ट का कार्य होता है, और सिर पर दोघड़ रख कर पानी भरना भी बड़ा मुश्किल होता है। ग्रामीण स्त्रियाँ बहुत ही परिश्रमी होती हैं। घर का काम करने के साथ-साथ खेतों में भी किसानों का हाथ बटाती हैं।
एक कृषक पत्नी का ईख के प्रति यह रोष कितना सहज और स्वाभाविक है-
“बोहत सताई ईखडे रै,
तन्नै बोहत सताई रै।
बालक छोडे रोवते, तन्नै बोहत सताई रै।
डाली मै छोड्या पीसणा और छोडी लांगड गाय।
कातनी में छोड्या कातणा और छोडे बाप अर माय।
नगोडे ईखडे तन्नै बोहत सताई रै”।14
चक्की-चरखे के गीतों में नारी-समाज की दैनिक,
सामयिक और सामाजिक समस्याओं का चित्रण हुआ है। नारी गृह कार्यां तक सीमित रहती हैं। अतः इन कार्यां के गाये जाने वाले गीतों में उसकी वेदना दिखाई देती है-
“मै तो माडी होगी राम, धन्धा कर करकै इस घर का।
बखत उठकै पीसणा पीसूँ,
सवा-सवा पहर का तडका।
चूल्हे मै आग बाली, छोरे नै दे दिया धक्का।
बासी कूस्सी टिकडे खागी, घी कोन्या घर का।
सास-नणद निगौडी न्यू कहैं, तन्नै फेरया क्यूँ ना चरखा।
सास निगोडी न्यूँ कहैं, ना मानै बैठी मारै सपडका।
मैं हठीली हठ की पूरी, कहा ना मानूँ किसे का।
सारा कुणबा रल कै पीटण लाग्या,
नास करा लिया सिर का”।15
निष्कर्ष : इस प्रकार हम देखते है कि लोकगीतों के माध्यम से हम समाज के हर पहलुओं से अवगत होते हैं। उनके रीति-रिवाज,
आचार-विचारों के बारे में जान पाते हैं। कहा भी गया है कि अगर किसी राष्ट्र की संस्कृति को जानना है तो वहा के लोकगीतों को सुने और जाने। इस आलेख में भी अहीरवाल क्षेत्र की संस्कृति को लोकगीतों के माध्यम से उजागर किया गया हैं। इनके माध्यम से यहाँ की सामाजिक मान-मर्यादा, सांस्कृतिक, धार्मिक, देश के प्रति प्रेम तथा जागरूकता, यहाँ के लोगों की जीवन शैली, उनके गुण-दोष, रीति-रिवाज, परम्पराएं, लोकविश्वास, लोकाचार आदि की जानकारी मिलती है। लोकगीत अहीरवाल क्षेत्र की सांस्कृतिक पहचान हैं। इन गीतों में यहाँ की सभ्यता-संस्कृति एवं संस्कार झलकते हैं। ये गीत इस क्षेत्र की आत्मा के गीत हैं। इनके बिना यहाँ हर एक कार्य अधुरा माना जाता है। ये लोकगीत यहाँ के जन-जीवन के संस्कारों में रमे हुए हैं। यहाँ के लोकगीत जीवन और संस्कृति का ऐसा ऊर्जा स्त्रोत है,
जो जीवन की अनवरत विड़म्बनाओं एवं घटनाओं के बीच भी आत्म-विश्वास रूपी संजीवनी प्रदान करते हैं।
1. सूर्यकरण पारीक, राजस्थानी लोकगीत, हिन्दी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग, 1999, पृष्ठ-18
2. डॉ॰ दीपिका वालिया, हरियाणा और संस्कृति शब्दों का अर्थ, परिभाषा और स्वरूप विश्लेषण, संजय प्रकाशन, दिल्ली, 2021, पृष्ठ-185
3. जगदीश नारायण एवं भोलानाथ शर्मा, हरियाणा प्रदेश के लोकगीतों का सामाजिक पक्ष, संजय प्रकाशन, नई दिल्ली, 2021, पृष्ठ-77
4. डॉ॰ जयभगवान गोयल, हरियाणा पुरात्त्व, इतिहास, संस्कृति, साहित्य एवं लोकवार्ता, प्रथम संस्करण, आत्माराम एंड संस, दिल्ली, 1996, पृष्ठ-181
5. डॉ॰ बाबू राम, हरियाणा के लोकगीत, आत्माराम एंड संस, दिल्ली, 1996, पृष्ठ-184
6. डॉ॰ के. सी. यादव, अहीरवाल का इतिहास एवं संस्कृति, खंड-1, मनोहर पब्लिशर, नई दिल्ली, 1992, पृष्ठ-14
7. डॉ॰ बाबू राम, हरियाणा के लोकगीत, आत्माराम एंड संस, दिल्ली, 1996, पृष्ठ-189
8 .पूर्णचन्द शर्मा, हरियाणा की लोकधर्म नाट्य परंपरा, हरियाणा हिस्टॉरिकल सोसाइटी, गुडगाँव, 2000, पृष्ठ-16
9. जगदीश नारायण एवं भोलानाथ शर्मा, हरियाणा प्रदेश के लोकगीतों का सामाजिक पक्ष, संजय प्रकाशन, नई दिल्ली, 2021, पृष्ठ-121
10. डॉ. दीपिका वालिया, हरियाणाः संस्कृति के विविध परिदृष्य, संजय प्रकाशन, दिल्ली, 2021, पृष्ठ-183
11. वही, पृष्ठ-167
12. डॉ॰ पूर्णचन्द शर्मा, हरियाणवी और उसकी बोलियों का अध्ययन, हरियाणा पब्लिकेशन ब्यूरो, अम्बाला छावनी, पृष्ठ-24
13. रामनिवास मानव, हरियाणवी बोली और साहित्य, अमित प्रकाशन, गाजियाबाद, 2009, पृष्ठ-46
14. डॉ॰ गुणपाल सिंह सांगवान, हरियाणवी लोकगीतों का सांस्कृतिक अध्ययन, हरियाणा साहित्य एवं संस्कृति अकादमी, पंचकूला, पृष्ठ-61
15. डॉ. दिलबाग सिंह, हरियाणवी और ब्रज लोक गीतों का सांस्कृतिक अध्ययन, दिल्ली, श्री नटराज प्रकाशन, 2019, पृष्ठ-87
सुनीता कुमारी
शोधार्थी, हिन्दी एवं आधुनिक भारतीय भाषा विभाग, वनस्थली विद्यापीठ, निवाई, राजस्थान, भारत
9416842598, 8053952283, sunitajataula@gmail.com
प्रो. गीता कपिल
शोध निर्देशिका, हिन्दी एवं आधुनिक भारतीय भाषा विभाग, वनस्थली विद्यापीठ, निवाई, राजस्थान, भारत
9501387621, geetakapil14@gmail.com
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