शोध आलेख : मनीषा कुलश्रेष्ठ का कथा साहित्य और जीवन परिवेश / डॉ. हुसैनी बोहरा

मनीषा कुलश्रेष्ठ का कथा साहित्य और जीवन परिवेश 
डॉ. हुसैनी बोहरा

शोध सार : अपने परिवेश से जुड़े मुद्दों को अपनी रचना में उकेरना रचनाकार का धर्म होता है। कोई भी रचनाकार रचना के इस पहलू को छोड़ नहीं सकता है। कई विद्वान तो यह भी मानते हैं कि रचनाकार अपने परिवेश की उपजहुआ करता है। रचनाकारों के संबंध में कही गई यह बात साहित्यकारों के संबंध में भी कही जा सकती है। यही कारण है कि जो भी साहित्यकार जिस विधा में लिखता है वह अपने आसपास के परिवेश को चित्रित करना बेहद जरूरी समझता है, चाहे वह काली दास द्वारा उज्जैन का वर्णन करना हो, प्रेमचंद द्वारा उत्तर प्रदेश के ग्रामीण अंचल का चित्रण करना हो या फिर महादेवी वर्मा के संस्मरणों में आये परिदृश्य हो। ये सभी किसी किसी तरह से अपने परिवेश का ही चित्रण करते हैं। मैलाँचल, आधा गाँव जैसे आंचलिक उपन्यासों में तो यह परिवेश केवल उस क्षेत्र का ही चित्र नहीं खींच रहा होता है, बल्कि अपने अंचल के माध्यम से पूरे देश के परिवेश को पाठक जगत् के सामने रख रहा होता है। मनीषा कुलश्रेष्ठ के कथा संसार पर अगर हम नजर दौड़ाएं तो वह भी कुछ ऐसा ही जान पड़ता है। खास कर उनके उपन्यास शालभंजिका, पंचकन्या और शिगाफ प्रमुख हैं। इन उपन्यासों में उल्लिखित नगरों का बहुत ही खूबसूरती से चित्रण किया गया है। ये तीनों उपन्यास तीन ऐतिहासिक नगरों के गौरवशाली इतिहास को चित्रित करने के साथ-साथ वहाँ की प्राकृतिक छटाओं को भी पाठकों से साझा करने का कार्य करते हैं। इन नगरों के बदलते परिवेश दुनिया में होने वाले परिवर्तनों को भी रेखांकित करने का कार्य करते हैं। इस तरह यह आलेख अपने परिवेश को पाठकों के सामने रखने के साथ-साथ वहाँ के प्राकृतिक, ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक पहलुओं को भी दृष्टिगत करता है।

बीज शब्द : देशकाल, लोक जीवन, विरासत, विविधता, जाति,  सौंदर्य,  केसर की क्यारियाँ, हाउसबोट आदि।

मूल आलेख : परिवेश का रचनाकार और उसकी रचना पर गहरा प्रभाव रहता है। परिवेश से असंपृक्त रहकर कोई भी रचनाकार समर्थ रचना करने में सफल नहीं हो सकता है। परिवेश के विविध रूप अनायास ही रचनाकार की रचना में आकर उसके कथ्य को वास्तविक और यथार्थ बनाते हैं। हर रचनाकार की रचना में यह परिवेश अनेक रूपों में रूपायित होता है। प्रकृति भी परिवेश का एक अंग है। रचनाकार उसे अपनी रचना में गाहे गाहे अभिव्यक्त करता ही है।

रचना और रचनाकार के सम्बन्ध में यह मान्यता राजस्थान के रचनाकारों के संबंध में भी खरी उतरती है। यहाँ जितनी विविधता है उतनी ही विविधता यहाँ के रचनाकारों में देखने को मिलती है। फिर भी यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि यहाँ के रचनाकार अपने परिवेश के प्रति पूरी प्रतिबद्धता दिखाते हैं। इस संबंध में डॉ. भेरुलाल गर्ग अपनी राय कुछ इस तरह से रखते हैं, “यह एक सुखद अहसास है कि राजस्थान के अधिकांश रचनाकारों ने अपने सामाजिक सरोकारों को भली भांति समझा है। रचना की सार्थकता उसकी सामाजिक  संलग्नता में ही अधिक है। यहाँ का रचनाकार कुंठित मानसिकता की ही वैयक्तिक धरातल वाली कहानियाँ नहीं कहता। इसे भले ही हमारे प्रबुद्ध आलोचक उनकी कमजोरी कहें लेकिन सामाजिक सम्बद्धता रचनाकार का महत्वपूर्ण दायित्व ही कहा जायेगा। इसे राजस्थान के रचनाकारों ने भली भांति निभाया भी है।”1

मनीषा कुलश्रेष्ठ अपने उपन्यासों में प्राकृतिक परिवेश के विभिन्न रूपों के साथ साथ सामाजिक परिवेश को भी को चित्रित करती हैं। राजस्थान में पली-बढ़ी मनीषा जी ने अपने लेखन से हिन्दी कथा साहित्य को समृद्ध किया है। समकालीन महिला कथाकारों में मनीषा कुलश्रेष्ठ अपनी खास कथ्य शैली के लिए जानी जाती हैं। उन्होंने अपने कथा लेखन में विधायी नवाचार को अपनाया है। वर्तमान जीवन परिवेश के विविध पहलुओं को उनके कथा साहित्य में सहज ही देखा जा सकता है। आपने अनेक कहानियों के साथ उपन्यासों की भी रचना की हैं। उनके उपन्यासों में कथानक के परिवेश वही हैं जहाँ-जहाँ उन्होंने समय व्यतीत किया है। राजस्थान में बिताये समय के अनुभवों को उन्होंने पंचकन्या, शालभंजिका जैसे उपन्यासों में परिवेश चित्रण के माध्यम से स्पष्ट किया है। वहीं कश्मीर के अनुभवों का प्रमाण उनके शिगाफ उपन्यास में देखने को मिलता है।

कथानक की प्रामाणिकता देशकाल के चित्रण से होती है। बिना देशकाल के प्रामाणिक विवेचन के कथ्य की प्रामाणिकता संदिग्ध ही रहती है। एक सफल रचनाकार इस तथ्य का हमेशा ध्यान रखता है कि देशकाल का चित्रण प्रामाणिक होना चाहिए। देशकाल के अन्तर्गत परिवेश और प्रकृति का चित्रण सम्मिलित ही रहता है। मनीषा कुलश्रेष्ठ यथास्थान जीवन परिवेश और प्रकृति का चित्रण करती हैं। इन्होंने अपने उपन्यासों में कथा के परिवेश और वहाँ की प्रकृति का जीवंत वर्णन किया है। जीवन परिवेश और प्रकृति का चित्रण एक दृष्टि से लोकजीवन का अंग ही होता है। लेखिका का संबंध राजस्थान से रहा है, अतः उनके दो उपन्यासों में राजस्थान के उदयपुर चित्तौड़गढ़ का उल्लेख मिलता है। कथानक के अनुरूप भी परिवेश का स्थान विशेष की इमारतों का वर्णन भी अपेक्षित होता है। निम्नलिखित उदाहरण में उदयपुर शहर के भीतरी अंग का वर्णन है,

अभी मैं जहाँ खड़ा हूँ, वह शहर का पुराना घंटाघर है। कभी यह शहर दिल हुआ करता था, इसी शहर के बाहर जातीं गलियाँ, भीतरी गलियाँ धमनियों और शिराओं की तरह फैली रहती थीं। यह शहर का दिल तो अब भी है, मगर अब बूढ़ा दिल है। अवरुद्ध-सा, पेसमेकर लगा। गहरी उसाँसें भरते हुए पुराने शहर का दिल। मन्दिरों, कूड़े के पहाड़ों, चौक और गलियों के बासीपन को कुछ कम करती चटकदार धूप ऊपर तक चढ़ आयी है, बेतरतीब बने घरों की छतों, दीवारों के ऊपर तक और चमकती रही पिछोला झील के हरे-नीले पानी में, रुपहले-सुनहरे रंगों में। उजाला इन गलियों में खेलता है सितौलिया, सूरज की गेंद से... गलियाँ किलकती हैं।”2 यह उदाहरण जहाँ उदयपुर की गलियों का भौतिक वर्णन करता है, वही पाठकों को पुराने शहर के महत्त्व को भी रेखांकित करता है। कोई भी शहर उनकी गलियों के बिना शहर नहीं बन सकता है ठीक उसी तरह से कोई भी शरीर बिना उनकी धमनियों के अकल्पनीय होता है। लेखिका ने शहर की गलियों को धमनियों से तुलना कर इस शहर के जीवित होने का प्रमाण प्रस्तुत किया है।

 उदयपुर शहर अपनी ऐतिहासिक विरासत के लिए दुनिया भर में प्रसिद्ध है। यहाँ की दीवारों पर जो कांच का कार्य किया गया है, वह यहाँ के महलों के वैभव को दर्शाता है। यह शहर अपने यहाँ फैली झीलों, फव्वारों एवं हरियाली के लिये दुनिया भर में प्रसिद्ध है। ये सभी इस शहर की खूबसूरती किस तरह से बढ़ा रहे हैं इसे लेखिका ने कुछ इस तरह से व्यक्त किया है, “गलियारे... कमरें... गलियारें... फव्वारें, गलियारों की दीवारों पर पुरानी श्वेत श्याम तस्वीरें लगी थीं। दावतों की, शिकार की, शादियों की, परिवार की सामूहिक। रंगीन काँच के झरोखे, झूमर।”3  मेवाड़ की राजधानी रहे उदयपुर शहर के संबंध में यह उदाहरण केवल प्राकृतिक वर्णन ही नहीं करता है, बल्कि इशारों इशारों में वहाँ के सामंती वैभव, लोगो के रहन सहन के तरीके और एक दूसरे के बीच संबंध को दर्शाते हुए वहाँ मौजूद अलग-अलग कलाओं को भी उकेरने का कार्य करता है। और अगर यहाँ यह कहा जाए कि उदयपुर के वर्णन के समय यह सब नहीं हो तो इस शहर का चित्रण कुछ कुछ झूठा जान पड़ता है।

यह भी एक तथ्य यह है कि उदयपुर में मौजूद विशाल इमारतें, महल, किले यहाँ की वास्तुकला को प्रदर्शित करते हैं। इन बड़े-बड़े भवनों में सैकड़ों वर्षों तक राजशाही फलती फूलती रही है। शासकों के लिए जरूरत को ध्यान में रखते हुए यहाँ की वास्तुकला का जिस तरह से प्रयोग हुआ है वह देखते ही बनता है। शालभंजिका उपन्यास में आए इन प्रसंगों को पाठकों के सामने भी रखा गया है, “भैरव विलासयह एक सुन्दर, राजपुताना शैली में बनी विला थी; जिसकी बॉलकनियाँ झील के पानी से बतियाती थीं। बल्कि कोई पुरानी हैरिटेज इमारत थी, दीवारे गेरुए रंग से पुती थीं, प्रवेशद्वार पर बड़ा लकड़ी का गेट, दोनों तरफ ताखों में भैरव की काली मूर्तियाँ डटी थीं, द्वारपाल बन। उन पर पुता सिन्दूर और कौड़ियाली आँखें.... बहुत रहस्यमय लग रही थीं।”4

उदयपुर की भूमि जहाँ महाराणा प्रताप की संघर्ष की भूमि रही है, वही कुंभलगढ़ उनकी जन्मभूमि रही है। ऊंची ऊंची पहाड़ियों के बीच बना यह किला राजस्थान की आंख कहलाता है। यह किला जितना समृद्ध हैं उतनी ही समृद्ध है यहाँ की वनस्पतियाँ। यहाँ के घने जंगल और अलग अलग तरह के पेड़ राजस्थान की उस बनी बनाई छवि को खंडित करते हैं जिसके बारे में कहा जाता है कि राजस्थान केवल धोरों की धरती है। लेखिका अपने उपन्यास में कुंभलगढ़ के इर्द-गिर्द मौजूद परिवेश पर अपनी टिप्पणी करते हुए बताती हैं, “कुंभलगढ़ का यह जंगल ठीक उसी तरह रहस्यमय है। यहाँ की सुबह और शामों के घनेरे में अंतर है। सुबह पंछियों की काकली में गूंजता है यह जंगल, तो दोपहर में यही जंगल सुस्ता रहे तेंदुए साल लगता है।”5

कुंभलगढ़ के जंगली परिवेश के संबंध में जिस तरह का सजीव चित्रण लेखिका ने यहाँ किया है, वह यह स्पष्ट करता है कि भारतीय समाज में वनस्पति को भी एक सजीव रूप में स्वीकार किया गया है। कुंभलगढ़ के आसपास का ये सजीव जंगल पूरी अरावली की पहाड़ियों के बीच फैला हुआ है जो रणकपुर की सीमा पार करते हुए समाप्त होता है।

 मेसा के पठार पर स्थित चित्रकूट दुर्ग यानी चित्तौड़गढ़ किला अपनी ऐतिहासिकता के लिए विश्व प्रसिद्ध है। राजपूती शौर्य हेतु प्रसिद्ध यह किला अपने आसपास की प्राकृतिक खूबसूरती के लिए भी दुनिया भर में चर्चित है। यह किला इतना विशाल है कि दुनिया भर में जीतने भी अग्रतम लिविंग पोर्ट है उनमें इसका भी नाम अग्रणी है। इस किले पर मौजूद यहाँ की वनस्पति ओर प्राकृतिक भूभाग सूर्यास्त के समय कैसे लगते हैं, इसे लेखिका ने बहुत ही रोचक ढंग से बताने का प्रयास किया है, “सूर्यास्त ने एक बड़े चित्रकार की तरह पहले आकाश में अलग अलग टेक्सचर के रंग चित्रा दिए, फिर उन्हें धीरे धीरे मिक्स करके कोई रूप दे रहा था। दूर एक गांव के अंधेरे के ब्लैक हॉल में घुसता जा रहा था। उनके पीछे सड़क के पास लंगूरों का एक झुंड था जो दिनभर की थकान और खीझ से भरा था। सीताफलों के पेड़, बंदरबांटी के पेड़ और चट्टानें किकयाहटों और खौंखियाने की आवाजों से भर गए थे।”6 प्राकृतिक परिवेश पर अपनी कलम चलाने के बाद लेखिका यहाँ के जंगली जीवों पर बात करते हुए ऐतिहासिक परिदृश्य पर अपनी टिप्पणी करते हुए बताती हैं, “नील गाय , चीतल, छोटे भालू, बारासिंगा तो बहुत बार दिखे मगर मैंने नाहर कभी नहीं देखा। एक बार मुझे वहाँ भटकते हुए कुषाण युग के दो सिक्के मिले और पुराने सिक्कों के संग्रह में रुचि लेने वाला मैं रोज़ वहाँ जाने लगा। बाद में कुछ वर्षों में, हाँ सच में मैंने वो गुफाएँ देंखी, उनमें बने भित्ति चित्र देखे। वहाँ बकरियाँ चराता, मैं वे चित्र देखता गौर से, काल्पनिक दिमाग था मेरा, उन लोगों के बारे में सोचता हुआ पुराने संसार का हिस्सा होने लगता, उन चित्रों में बाघ था, बच्चे थे, चौपाये थे, समूह में नाचते नर्तक और नगाड़ा वादक थे।”7 यह उदाहरण स्पष्ट करता है कि लेखिका ने अपने लेखन के माध्यम से केवल अपने वर्तमान पर रोशन डालने का प्रयास किया है, बल्कि अतीत से भी दो चार होने का पूरा प्रयास किया है। चित्तौड़गढ़ जैसे ऐतिहासिक किले पर मौजूद वहाँ की ऐतिहासिक धरोहर समाज को नई दिशा देने का कार्य करती हैं। अपने इस उदाहरण के माध्यम से लेखिका ने गौरवमय अतीत को देखते देखते अपने वर्तमान तक की यात्रा की है।

जनजातीय दृष्टि से राजस्थान काफी समृद्ध है। यहाँ भील मीणा, शहरिया, दामोर, गरासिया, कालबेलिया जैसी  आदिवासी एवं घुमंतू जातियाँ निवास करती है। कालबेलिया जाति आदिवासी समुदाय से कुछ अलग जान पड़ती है। यह एक ऐसी जाती है जो अपने आप को मुख्य समाज का अंग कहलाने वाली जातियों के बीच इसके संबंध रहे हैं। प्राचीन समय में अपनी बहादुरी से दूसरों को कायल करने वाली यह जनजाति मौजूदा दौर में अपने नृत्य के माध्यम से दुनिया भर को अपनी तरफ खींचने में सफल रही है। नृत्यांगना गुलाबो इसी जाति से आती है। अपने उपन्यास में लेखिका कालबेलिया जाति के परिवेश का चित्रण करते हुए लिखती हैं, “उनके थिरकते नंगे पैरों से ज़रा दूर पर आंकड़ा और थूर उगा था। रेत खुरदरी सही, गर्म तो वो होगी। दूर कुछ फूस की झोपड़ियाँ बनी थी। एक रोइड़े का पेड़ था, उनके नीचे चबूतरा था और लिपि पोती जमीन थी। तंबू और बैलगाड़ियों के घरों में चूल्हे जल रहे थे।”8 कालबेलिया जाति के आवास एवं उनके रहन सहन पर टिप्पणी करते हुए लेखिका आगे बताती हैं, “चार फुट मिट्टी की गोबर लिपी दीवार खींची थी जिसके भीतर दो लोहे के जंग लगे मोटे पलंग थे और छत के नाम पर प्लास्टिक और तिरपाल का तंबू बांध रखा था। वहाँ 40 के करीब तंबू थे, अस्थायी घरों जैसे। उन घरों के बाहर गड्ढो में आग जलाई जाती थी। उनके घरों में सामान में था ही क्या? कुछ बोरे, कनस्तर, दो पतिले और रस्सी पे टंगे कपड़े। रोज़ पीसो, रोज़ खाओ के मुहावरे को जीती यह जाति।”9 कालबेलिया समाज की इस जीवन पद्धति को देखकर प्रेमचंद की विचार यहाँ उद्धृत करना उचित होगा, मनुष्य जाति के लिए मनुष्य ही सबसे विकट पहेली है। वह खुद अपनी समझ मैं नहीं आता। किसी रूप में वह अपनी ही आलोचना किया करता है अपने ही मनो रहस्य खोला करता है। जी इसलिए हुआ कि मनुष्य अपने को समझें। अध्यात्म और दर्शन की भाँति साहित्य भी इसी सत्य की खोज में लगा हुआ है, वह इस उद्योग में रस का मिश्रण करके उसे आनंद पर्व बना देता है। इसीलिए अध्यात्म और दर्शन केवल ज्ञानियों के लिए है, मात्र के लिए।”10 जिस तरह का जीवन संघर्ष कालबेलिया समाज का इन पंक्तियों में देखने को मिला है वह कर्म के प्रति समर्पण और प्रकृति के द्वारा दिए गए संसाधनों के महत्त्व को रेखांकित करता है। इन सब बातों को जितनी बारीकी से लेखिका ने देख कर उनके परिवेश को पाठकों के सामने रखा है वह साहित्यकार के संवेदनशील होने के साथ साथ परिवेश के प्रति अपनी समझ को भी दिखाता है। इन सबके अतिरिक्त लेखिका ने मनुष्य के उस  लालची दृष्टिकोण को भी उबारा है जो संसाधनों को इकट्ठा करने में विश्वास रखता है।जितना जिसे हम निम्न वर्ग कहते हैं वह अपने जीवन व्यापन करने जैसे ही संसाधन एकत्र करने में विश्वास रहते हैं जबकि उच्च वर्ग जिसके पास खरीदने के लिए बहुत कुछ है वह भी गोदाम भरने में विश्वास करता है जो सामाजिक असंतुलन को भी बढ़ाता है।

थान के जनजीवन का यथार्थपरक चित्रण राजस्थान को साक्षात् करने में समर्थ है। लेखिका का अपने जीवन परिवेश से साहचर्य होना स्वाभाविक है।

'ऐसा है कश्मीर, वह देश जो आध्यात्मिक शक्ति से तो जीता जा सकता है लेकिन सैन्य शक्ति से नहीं; जहाँ के निवासी दूसरी दुनिया के परिणामों से अधिक डरते हैं; जहाँ जाड़ों में गर्म स्नान हैं, नदी के किनारों पर आरामदायक विश्राम स्थल हैं, जहाँ नदियाँ पानी के जीवों से मुक्त हैं और इसलिए कभी उनमें सड़न नहीं होती, जहाँ इस एहसास के साथ कि उसके पिता द्वारा बनाई गई धरती गर्मी बर्दाश्त नहीं कर सकती, सूरज गर्मियों में भी उसके सम्मान में नर्म रहता है। अध्ययन, ऊँचे घर, केसर, बर्फीला पानी, अंगूर जैसी चीजें जिनको स्वर्ग में पाना भी मुश्किल है, यहाँ हर जगह सहज उपलब्ध हैं।"11 कश्मीरनामा नामक चर्चित पुस्तक से उद्धृत ये पंक्तियाँ कश्मीर की खूबसूरती के साथ साथ वहाँ की ऐतिहासिकता धार्मिकता एवं सांस्कृतिकता को भी प्रस्तुत करती है कश्मीर धरती का जन्नत अगर कहलाता है तो इसके पीछे की सांस्कृतिक और ऐतिहासिक विविधता के साथ साथ प्राकृतिक खूबसूरती निर्णायक भूमिका निभाती है। यहाँ के मौसमी बदलाव और जलवायु इसकी खूबसूरती के लिए महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। मनीषा कुलश्रेष्ठ जब कश्मीर के परिवेश में रहती हैं तो वे उसी जीवन परिवेश को आधार बनाकर शिगाफ उपन्यास की रचना करती हैं जिनमें कश्मीर का जीवन और वातावरण सहज ही जाता है। लेखिका के साथ पाठक भी कश्मीर के  जीवन परिवेश से रूबरू हो जाता है। शिगाफ़ उपन्यास का एक परिवेश स्पेन का और दूसरा भारत का कश्मीर यानी श्रीनगर है। अतः लेखिका ने कथानक को जीवंत बनाने के लिए प्रकृति और परिवेश का चित्रण इस प्रकार से करती हैं,

बड़ी अम्मी कहती थीं, बर्फ खुदा की नियामत हैकोशरकी फिजां के लिए। यही बनफ्शे और दूसरी जड़ी-बूटियों में जान फूँकती है। सर्दियों के आखिरी दिन हैं। चिनारों ने पंजे की शक्ल के लाल कत्थई रत्ते धरती पर बिछा दिए हैं। अधनंगी शाखें कुछ आसमान में उठी थीं तो कुछ धरती को सहला रही हैं। पेड़ों के नीचे जंगल में जहाँ कत्थई-पीला कालीन बिछा है।”12  धरती का जन्नत कहलाने वाले कश्मीर के संबंध में लिखा गया यह एक एक शब्द सही है। कश्मीर के लोगों के लिए बर्फ़ बारी मैदानी क्षेत्रों में होने वाली बरसात की तरह बेहद जरूरी होती है। इसी पर इस क्षेत्र की सारी अर्थव्यवस्था, कृषि, लोक संस्कृति, उत्सव और दिनचर्या निर्भर होती है।

 कश्मीर जहाँ बर्फीली पहाड़ियों के साथ साथ खूबसूरत झीलों के लिए प्रसिद्ध है वहीं यह प्राचीन शेव दर्शन की स्थली भी मानी जाती है, इसीलिए कश्मीर का परिदृश्य बिना कश्मीरी पंडितों के अधूरा जान पड़ता है। राजनीतिक उथल पुथल के कारण भले ही यहाँ से कश्मीरी पंडित पलायन कर चूके हैं, पर अतीत की साझी विरासत के चलते यहाँ पर जो प्रतीक बनाए गए थे वे आज भी यहाँ की जमीन पर उस प्राचीन गौरवमय साझे इतिहास को प्रदर्शित करता है। इस इतिहास और प्राकृतिक सौंदर्य को इन पंक्तियों के द्वारा हम कुछ जानने का प्रयास कर सकते हैं,

बर्फ ढके पहाड़ के चक्करदार रास्ते में, घने देवदारें के नीचे गुनगुने अंधेरे में छिपा जो पार्वती का उजड़ा हुआ पुराना मन्दिर है, उसके गर्भगृह में दो मिट्टी के दीये जल रहे थे, उनके क्षीण प्रकाश में पार्वती के कालिका स्वरूप की मूर्ति रहस्यमय लग रही थी। चाँदनी रात में मन्दिर की काई लगी काली दीवारें आकाश की तरफ मुँह बाये खड़ी थीं।”13

कश्मीर का वर्णन हो और वहाँ की डल झील के साथ-साथ केसर की क्यारियों का वर्णन ना हो तो वहाँ के परिवेश का चित्रण अधूरा जान पड़ता है। कश्मीर में उगाई जाने वाली केसर दुनिया भर के बाजारों में अपनी पहचान रखती है। सोनमर्ग, बारामूला और पांपोर के क्षेत्र केसर की क्यारियों के लिए प्रसिद्ध हैं। इन सब में पांपोर काका केसर उत्पादन क्षेत्र अपना विशिष्ट स्थान रखता है। लेखिका इस उपन्यास में लिखती हैं, “पतझड़ आया नही कि पाम्पोर-करेवा का पठार, श्रीनगर के दक्षिण पूर्व का पच्चीस कि.मी. तक का इलाका जामुनी रंग में नहा जाता है। लाखों केसर के फूल क्यारी-दर-क्यारी खिल जाते हैं। जामुनी रंग के जादू में नहाई सैकड़ों चम्पई रंग की कश्मीरी औरतें अपनी पीठ पर बेंत की टोकरी लादे इन्हें चुनती दिखाई देती हैं। वे पुराने लोकगीत, जिनमें प्रेम सबसे ज़्यादा होता है, गुनगुनाती हैं।”14 कहना गलत होगा की लेखिका ने कश्मीर की क्यारियों के साथ साथ यहाँ की प्रमुख मजदूर संस्कृति पर भी दृष्टिपात किया है। देश के अन्य भागों की तरह है लोकगीतों में डूबे प्रेम को चित्रित करने वाले गीत यहाँ की औरतें भी काम करते वक्त गुनगुनाती है। इससे यह स्पष्ट होता है कि कश्मीर भारतीय संस्कृति से कितनी मजबूती से जुड़ा हुआ है। इन सबके अलावापी डल झील में खड़ी हाउस बोट ओर उन में तैरते शिकार का वर्णन बी इस उपन्यास में विस्तार से हुआ है। यहाँ पैदा होने वाले सूखे मेवे जिनमें अखरोट, चेरी और बादाम प्रमुख हैं, उन सब पर भी अपनी बात रखने का प्रयास इस उपन्यास में हुआ है।

निष्कर्ष : प्राकृतिक विविधताओँ से भरे हुए भारतीय भौगोलिक परिवेश अपने ऐतिहासिक और सांस्कृतिक रूप में भी काफी विविधता लिए हुए हैं। इन सबके बावजूद किसी किसी तरह की भावात्मक एकता भारतीय समुदाय को आपस में जोड़े हुए रहती है। मनीषा कुलश्रेष्ठ के इन तीनों उपन्यासों में भारत के गौरवमय अतीत एवं बहुरंगी लोक संस्कृति के साथ साथ यहाँ की प्राकृतिक प्रचुरता का भी उल्लेख विस्तार से देखने को मिलता है। राजस्थान के तीन प्रसिद्ध स्थानों उदयपुर, चित्तौड़गढ़ और कुंभलगढ़ का जिस खूबसूरती से परिवेश का चित्रण हुआ है वह अतुलनीय है। ठीक इसी तरह से धरती का स्वर्ग कहे जाने वाले कश्मीर के संबंध में जो भौगोलिक एवं सांस्कृतिक जानकारियाँ शिगाफ़ उपन्यास में देखने को मिलती है, वह किसी किसी रूप से लोक की जीवंतता को प्रदर्शित करती है। कहना गलत होगा कि मनीषा कुलश्रेष्ठ ने अपने इन उपन्यासों में उल्लेखित स्थलों के परिवेश को बड़ी संजीदगी से उभारने का सफल प्रयास किया है। 

संदर्भ :
1. माधव हाड़ा एंव भैरूलाल गर्ग (संपा) : राजस्थान का हिन्दी साहित्य, राजस्थान साहित्य अकादमी उदयपुर, 1993, पृ.  71
2.मनीषा कुलश्रेष्ठ: शालभंजिका, भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली, 2012 पृ.34
3. वही, पृ.46
4. वही पृ.44
5. वही, पृ.49
6.मनीषा कुलश्रेष्ठ: पंचकन्या, सामयिक प्रकाशन, नई दिल्ली, 2014, पृ.21
7. वही, पृ.23
8. वही, पृ.129
9. वही, पृ. 111
10. प्रेमचन्द कुछ विचार, मलिक एंड कंपनी, जयपुर 2015 पृ. 15
11. अशोक कुमार पांडेय : कश्मीरनामा, राजपाल प्रकाशन नई दिल्ली, द्वितीय संस्करण, 2019, पृ.15
12.मनीषा कुलश्रेष्ठ: शिगाफ, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, 2010, पृ.103
13. वही, पृ.9
14. वही, पृ.186
 
डॉ.हुसैनी बोहरा
सहायक आचार्य, हिन्दी विभाग, भूपाल नोबल्स विश्वविद्यालय, उदयपुर, 313004
 

चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक ई-पत्रिका 
  अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-52, अप्रैल-जून, 2024 UGC Care Listed Issue
सम्पादक-द्वय : माणिक-जितेन्द्र यादव चित्रांकन  भीम सिंह (इलाहाबाद विश्वविद्यालय)

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