नहीं नहीं मेरी कहानी कोई नई कहानी नहीं है, बल्कि उसी कहानी का विस्तार है जो बरसों से आप सुनतेआ रहे है। हाँ, ये और बात है कि आप लोग सुन कर भी उसे इस तरह से नजरंदाज करते आए हैं जैसे कचोरी खाने के बाद अखबार। परेशानी उस समय और बढ़ जाती है जब आसपास के लोग ही पीड़ा को रद्दी अखबार समझने लग जाते हैं। चलो फालतू की बातें छोड़ कर मैं मुददे की तरफ ले जाती हूँ। मेरा जन्म एक ऐसे परिवार में हुआ है जो आज भी पुरानी हो चुकी टी शर्ट को पोचे के काम में लिया जाता है। माता-पिता ने स्कूल कभी नहीं देखा, लेकिन मुझे उन्होंने खुशी-खुशी स्कूल भेजा। मगर हां, उन्होंने भी ग्रामीण रस्म निभाते हुए मुझे कभी स्कूल तक छोड़ने की जहमत नहीं उठाई। बस्ता घसीटते या लटकाते हुए अकेले ही स्कूल गयी।
मैं अपने परिवार की सबसे बड़ी बेटी थी। इसलिए भी ग्रामीण रूढ़ियों की मार परिवार में मुझ पर सबसे पहले आई। पिताजी को अपने जवान भाई की चिंता सताती थी, इसीलिए अपनी बीवी को बताए बगैर ऊंट बैल का जोड़ा स्वीकार कर लिया। पाँचवी पढते-पढते ही मेरी सगाई कर दी। यह और बात है कि बड़े भाई ने मौका पाते ही अपने चूल्हे में आग देना शुरू कर दिया। यह तो सभी को पता है कि बेटियां पराई होती है और जितना जल्दी हो सके शादी करके ससुराल भेज दो। अपना घर बसाएगी। जन्म देने वाली माता ने पाल पोसकर बड़ा किया, वह भी अपनी बेटी को पराई कहती हैं। लड़की बड़ी हो गई है, इसकी चिंता पिता से ज्यादा समाज को रहती है। लड़की क्या करती है, क्या पहनती हैं, कहाँ जाती है, सबका पता रहता है इस समाज को। पिता भी इन सबके चलते लड़कियों की शादी जल्दी ही करवा देते हैं।
खैर, जैसे ही आठवीं पूरी हुई ब्याह की बात होने लगी। भविष्य पर मंडराते इस संकट से निजात दिलाने में मामा जी आगे आये। उन्होंने किसी तरह से मेरा विवाह होने से पिता को रोक दिया। एक-दो साल कोराना ने भी बचा लिया। लेकिन इसके बाद मुझे कौन बचाए? अब बड़ी हो गयी मोहल्ले वालों की नजर में। जात बिरादरी की नजरों में खटकने भी लगी। आखिरकार ग्यारहवीं में मामा जी ने ही ब्याह मांड दिया। मेरी अर्धवार्षिक परीक्षा और ब्याह दोनों साथ-साथ चले। जात-बिरादरी और परिवार वालों को परीक्षा से ज्यादा ब्याह की चिंता थी, सो मुझे परीक्षा छोड़नी पड़ी। मुझे यह शादी स्वीकार भी नहीं थी, लेकिन किसी को कह भी तो नहीं सकती थी। विदाई के समय सब फूट फूटकर रोए। पिताजी को पहली बार रोते हुए देखा। उनके हावभाव देखकर के यह भी समझ में आ गया कि वे मेरे इस रिश्ते से खुश नहीं हैं। लेकिन क्या करे? रूढ़िवादी समाज में शादी के समय एक मजबूर पिता की स्थिति क्या हो सकती है यह आप भी जानते हैं।
ब्याह को साल भर भी पूरा नहीं हुआ कि सासुजी स्वर्गलोक सिधार गए। लोकलाज के खातिर बिना कुछ सोचे समझे रिश्तेदारों ने जा डाला चारदीवारी के अंदर। अब क्या करूँ? बहुत बुरी फंस गयी मैं तो। एक तरफ बोर्ड परीक्षाओं की तैयारी और दूसरी तरफ सासु माँ के लिए पल्ला। हर रोज़ बस रोना, रोना, रोना। 12 दिन तक यही चलता रहा। पल्ला लेने के लिए दूर दूर से रिश्तेदार आते हैं और बैठ कर रोने लगते। सासु जी के दिन पूंगते करके जब पीहर आई तो समझती ही नहीं पाई कि कहाँ से पढ़ना शुरू करूँ। बहुत दिन हो गए थे किताबों को देखे हुए, इसीलिए पढ़ने में मन ही नहीं लग रहा था। उस चारदीवारी में रोज़ लोक दिखावाणी रो रो कर दिमाग सुन्न हो चुका था। एक तरह से मरे हुए भाग्य का पल्ला ले रही थी वहाँ पर। उस माहौल ने बहुत भारी प्रभाव डाला।
जो कुछ भी हो परीक्षा के समय हाजिर हो गयी और ठीक-ठाक नंबर से पास भी हो गई। इन नंबरों से परिवार वाले खुश भी थे। शायद यही कारण रहा कि मुझे अब आगे पढने के लिए मना नहीं किया। पर सामने फिर एक सवाल वापस आ खड़ा हुआ कि पढ़ने के लिए कहाँ भेजे? लड़कियों को ज़्यादा पढ़ाने से लोग डरते भी हैं। बाहरवीं पास हुई बस, अब और नहीं। लड़कियाँ ज्यादा पढ़ी होगी तो वह आगे अधिकार मांगेगी। एक दिन न चाहते हुए भी पढ़ाई के मुददे को लेकर के घरवालों से बात की। मना तो नहीं किया लेकिन ऐसा प्रश्न खड़ा किया है कि आज भी उसका कोई जवाब नहीं मिल पा रहा मुझे। एक तरह से ब्याह से बहुत खुश हूँ। क्योंकि कहते है कि दो-दो बार बर्तन नहीं धोए जाते। वो तो शिकार हो गईं लेकिन अपनी बहनों को बचा लिया।
बाहरवीं बाद ऐसी परिस्थिति आयी कि पढ़ाने के लिए घरवाले तैयार तो है लेकिन बाहर नहीं भेज सकते। क्यों भेज दे साहब? ससुराल थोड़े ही न है जो सरलता से भेज देंगे। एक तरफ समाज और दूसरी तरफ बेटी, आखिर क्या करें? पिताजी की हालत को समझकर उसने भी मना कर दिया। बड़ी बेटी जिम्मेदारी तो होगी ही। पढ़ाई के अलावा अभी तो दुनिया में बहुत कुछ है जिसे निभाना बेहद जरूरी है। अब मैं सोचती हूँ कि जाना तो उसी चारदीवारी के अंदर ही तो फिर क्यों न घरवालों से कह दूँ कि ससुराल ही भेज दें। ऐसा लगता है कि स्कूल कॉलेज जाने से ज्यादा आसान है ससुराल जाना।
लेकिन नहीं। माँ के ऑपरेशन में हुई हालत को देखकर बेजान शरीर में जान आ गई। छ: महीने पूरे छ: साल जैसे लगे है उसकी सेवा करते करते। घर की जिम्मेदारी निभाना बहुत मुश्किल है। नहीं चाहती कि जिस तरह माँ घुट घुटके जी रही है, उसी तरह से मैं भी जीऊँ। मेरा परिवार मेरे खातिर कर्ज लेने को तैयार है पढ़ाने के लिए। बस उनकी यही आशा है कि नौकरी आए या ना आए पर हमारी नाक मत कटवाना। समझ रहे हैं आप? नकटा समाज नाक न कटवाने की सलाह दे रहा है। मैं भी नहीं चाहती कि पिताजी को में कर्ज में डूबा हूँ। बल्कि में उनका सहारा बनना चाहती हूँ।
पर क्या एक बेटी को कभी परिवार का सहारा समझा जाएगा? खैर जो भी हो अब जो भी परिस्थितियाँ सामने आएंगी, उसका सामना करने के लिए मैं तैयार हूँ। उम्मीद के साथ कहना चाहती हूँ कि हाँ मैं लड़ने के लिए और आगे बढ़ने के लिए तैयार हूँ।
बैचेन मन
को
कहाँ
चैन
मिले!
यह
विडंबना
जीवन
को
कितना
मुश्किल
बना
देती
है।
आत्म
संघर्ष
के
दिन
जितने
खूबसूरत
और
अनुभव
भरे
होते
हैं, उतने
ही
मुश्किल
भी
होते
है।
समय
पग-पग
पर
हमारे
धैर्य
की
परीक्षा
लेने
से
पीछे
नहीं
हटता
है।
परिस्थितियाँ
हमेशा
भविष्य
की
योजनाओं
को
डगमगा
देती
है।
कई
चीजें
जीवन
में
ऐसी
हो
जाती
है
जिसका
अगर
हमें
रत्तीभर
भी
पूर्वानुमान
हो
जाए
तो
शायद
हम
दम
तोड़
चुके
होते,
लेकिन
लाख
हथकंडों
के
बावजूद
जीवन
अपने
मुताबिक
नहीं
चलता!
और
चलना
भी
नहीं
चाहिए।
क्योंकि
हर
चीज
में
ट्विस्ट
ढूंढनें
वाले
हम
लोगों
को
अगर
जीवन
में
ट्विस्ट
न
मिले
तो
ये
हमारे
साथ
अन्याय
से
कम
थोड़ी
होगा।? कुछ
तीखे
जायकों
का
स्वाद
हमें
पानी
के
अभाव
में
भी
लेना
ही
पड़ता
है।
ऐसे कई
सीन
सामान्य
है
जो
लगभग
हम
सभी
के
जीवन
की
स्क्रिप्ट
का
हिस्सा
होते
हैं
जिन्हे
हम
सब
अपने
अपने
अनुभव
से
सीखते
हुए
प्रोड्यूस
करते
हैं।
सिखने
का
यह
दौर
कहीं
न
कहीं
बचपन
में
ही
शुरू
हो
जाता
है।
हमारे
हिस्से
का
संघर्ष
हमें
ही
जीना
होता
है।
इसका
कोई
अल्टरनेटिव
नहीं
होता
है।
मुझे
यह
बात
जानने
में
एक
लंबा
समय
लगा।
मगर
जब
इस
चीज
की
अनुभूति
हमें
हो
जाती
है
तो
हम
स्वयं
से
परेशान
होना
कम
हो
जाते
हैं।
मैं
अगर
अपने
शब्दों
में
कहूँ
तो
ये
समय
हमारे
जीवन
में
कंस्ट्रक्शन
का
दौर
होता
है।
निर्माण
की
यह
प्रक्रिया
सबके
पैरामीटर
पर
अलग-अलग
यूनिट
दर्शाती
है।
सबके
जीवन
में
यह
अलग-अलग
रूपों
में
आता
है।
मैं
अपने
बीते
दिनों
में
झांकता
हूँ
तो
कई
बार
भावुकता
हावी
हो
जाती
है।
लेकिन
कहीं
न
कहीं
ये
ही
हमारे
जीवन
में
परिवर्तन
का
कारण
बनती
है।
मैं यदि
अपने
कों
उस
समय
में
लेकर
जाता
हूँ
जहाँ
से
मेरे
जीवन
में
बहुत
कुछ
पीछे
छूटने
की
शुरुआत
हुई
तो
सबसे
पहले
मुझे
मेरा
गाँव
और
दादी
ही
याद
आते
है।
बेशुमार
प्यार
करने
वाली
दादी
जिसके
प्यार
ने
ममत्व
को
पीछे
छोड़
दिया।
दादी
जो
मेरे
लिये
पूरी
बस्ती
से
लड़
जाती
थी।
अपने
पेंशन
के
पैसे
से
मुझे
हर
15 अगस्त और 26 जनवरी कों
यूनिफार्म
दिलाया
करती
और
हर
होली-दशहरे
के
मेले
घुमाने
ले
जाती
थी।
जिस
दादी
के
रहते
मुझे
मम्मी
और
पापा
के
बाहर
आने-जाने
का
अहसास
तक
न
होता
था।
जिसके
साथ
मम्मी-पापा
से
ज्यादा
मेरा
बचपन
का
समय
बीतता
था।
उस
दादी
की
तबियत
होली
के
दिनों
में
ही
थोड़ी
नासाज
हुई।
इधर
मेला
लग
रहा
था, अब मेला
दिखाने
वाला
कोई
नहीं
था
क्योंकि
मम्मी-पापा
गेहूं
कटाई
की
मजदूरी
में
व्यस्त
थे।
मगर
बालहठ
के
आगे
वे
थके-हारे
एक
रात
मेला
दिखाने
ले
गए।
थोड़ा
घुमाया
और
जल्दी
घर
वापिस
ले
आये।
मेले
की
थकान
के
मारे
मानों
वापसी
में
नींद
को
साथ
लेकर
गए
थे।
घर
जाते
ही
नींद
ने
झकड़
लिया।
सुबह
नींद
खुली
तो
सहसा
रोने
की
आवाज
सुनाई
दी।
वो
दादी
जो
मेरे
बहुत
करीब
थी,
अब
मुझसे
बहुत
दूर
जा
चुकी
थी।
सब
कुछ
उस
समय
समझ
में
नहीं
आया
लेकिन
धीरे-धीरे
लोगों
की
बढती
भीड़
भीतर
सन्नाटा
भर
रही
थी।
“’जाना’ हिंदी की
सबसे
खौफनाक
क्रिया
है,"
केदारनाथ
सिंह
के
ये
शब्द
पढ़े
बाद
में
लेकिन
इनको
महसूस
अगर
मैंने
किसी
दिन
किया
तो
शायद
वही
दिन
था।
दादी के
जाने
के
बाद
घर
ख़ाली
ख़ाली
सा
रहने
लगा
था।
मैं
उनके
लिए
हामिद
न
बन
पाया, मगर
वे
मेरे
लिए
दादी
अमीना
से
कई
ज्यादा
बढ़कर
थी।
कुछ
समय
बाद
ही
पापा
और
मम्मी
को
एक
सीमेंट
ईंट
प्लांट
पर
काम
मिला।
इन
सबके
बीच
मेरा
स्कूल
गाँव
से
शहर
कब
आ
गया
था,
उसका
आभास
तक
न
हुआ।
अब
मम्मी-पापा
नए
वाले
कारखाने
में
काम
पर
जाना
शुरू
हो
गए
थे।
कुछ
दिनों
तक
घर
से
रोजाना
आने-जाने
के
बाद
उन्होंने
फैसला
किया
कि
अब
वे
वही
रहेंगे
और
सब
व्यवस्थित
हो
जाने
के
बाद
मुझे
भी
ले
जायेंगे।
तब
तक
मुझे
गाँव
में
ही
रहना
था।
बीच-बीच
में
मिलने
के
लिए
आया
करेंगे।
धीरे-धीरे
मैं
अकेला
हो
गया
था।
पापा-मम्मी
के
व्यवहारिक
पक्ष
के
चलते
गाँव
में
कभी
कुछ
समस्या
नहीं
आई।
लेकिन
मम्मी
कों
हमेशा
मेरी
पढाई
की
चिंता
सताती
रहती
थी।
इसका
एक
कारण
मेरे
गाँव
में
शिक्षा
के
माहौल
का
न
होना
था।
अचानक
एक
दिन
मम्मी-पापा
आये
और
मुझे
साथ
ले
गए।
मेरे
लिए
दादी
सहित
गाँव
भी
बहुत
पीछे
छूट
गया।
अब मैं
एक
अनजान
जगह
और
एक
दम
नए
माहौल
में
था।
पापा
का
कार्य
स्थल
एकदम
सुनसान
जगह
था।
जहाँ
आस-पास
न
कोई
घर, न कोई
गाँव
और
न
कोई
शहर
था।
हाइवे
से
सटा
हुआ
एक
सुनसान
इलाका।
जहाँ
पर
पापा
के
सहकर्मी
और
मेरा
परिवार
था।
कुछ
दिनों
तक
असहज
रहने
के
बाद
स्वीकार्य
हो
रहा
था
कि
अब
यही
दुनिया
है।
अब
मुझे
यहाँ
से
स्कूल
जाना
था
जो
कि
लगभग 15 किलोमीटर
की
दूरी
पर
था।
स्कूल
जाना
शुरू
किया
तो
कई
मुश्किलें
आई
जिनमे
सबसे
ज्यादा
परिवहन
की
समस्या
थी।
कभी
बस
का
समय
पर
न
आना, कभी
बस
वाले
का
न
रोकना
और
मुख्यतः
राजस्थान
रोडवेज
का
बिना
स्टैंड
के
न
रुकना।
हैरत
होती
थी
कि
तालीम
पर
बड़े-बड़े
भाषण
देकर
और
आगे
जाकर
राज
हासिल
करने
वाले
लोग
इतना
नियम
न
बनवा
सकते
कि
विद्यार्थी
की
पहचान
होने
पर
बिना
स्टैंड
के
बस
रुकने
का
नियम
पास
करवा
सके।
आने-जाने
की
दुविधा
बढती
जा
रही
थी।
जिस
जगह
से
मैं
बस
पकड़ता
था
उस
क्षेत्र
में
अब
एक
नवोदय
विद्यालय
संचालित
होता
है
और
बस
स्टैंड
भी
विकसित
हुआ
है, लेकिन
इस
समस्या
का
आज
भी
कोई
समाधान
नहीं
है।
हाँ,
विकास
के
नाम
पर
ये
है
कि
अब
कुछ
नीजी
बसों
के
चलने
से
"ऊँट के मुंह
में
जीरा"
जितनी
सहूलियत
हुई
है।
मेरा
रोजाना
आना
जाना
मुश्किल
होता
जा
रहा
था, अब
समस्या
का
समाधान
यही
था
कि
स्कूल
बदला
जाए।
तब
पास
के
एक
गाँव
का
पता
चला
जहाँ
12वीं
तक
का
विद्यालय
था।
यह मेरा
चौथी
बार
बदला
जाने
वाले
वाला
विद्यालय
था।
यहाँ
तक
और
यहाँ
से 2 साल
आगे
तक
मेरा
किसी
विद्यालय
से
इतना
लगाव
नहीं
बन
पाया
था
जितना
बसेड़ा
से 11वी
और 12 वी
के
दौरान
हुआ
था।
इस
स्कूल
में
भी
मेरा
कक्षा
नौं
और
दस
के
दौरान
का
हासिल
बस
इतना
ही
रहा
था
कि
बहुत
बढ़िया
दोस्त
मिल
गए
थे
जिनके
साथ
चार
किलोमीटर
की
साइकिलिंग
का
सफ़र
ख़ूब
बातों
के
साथ
होता
था।
अब
जीवन
में
कुछ
बढ़िया
दोस्त
आ
गए
थे
जो
हमेशा
साथ
रहते
थे।
स्कूल
समय
में
फ्री
होकर
घर
जाना
होता
तो
थोडा
पापा-मम्मी
का
जितना
संभव
हो
पाता, उतना
हाथ
बटाता।
रविवार
या
अवकाश
का
दिन
होता
तो
पूरी
शिप्ट
भी
कर
लेता।
ऐसे
करते-करते
मेरी
10वीं
तक
की
पढ़ाई
पूरी
हुई।
दसवीं कक्षा
उत्तीर्ण
होते
ही
सामान्यतः
उत्तीर्ण
होने
वाले
विद्यार्थी
से
आस-पास
के
लोगों
और
परिवार
सहित
दोस्तों
तक
का
जो
पहला
सवाल
होता
है,
वह
यही
होता
है
कि
आगे
की
पढ़ाई
किस
विषय
से
जारी
रखोगे।
जो
विद्यार्थी
जितना
मुश्किल
विषय
चुनता
है
उसे
उतना
ही
होशियार
और
योग्य
समझा
जाता
है।
लेकिन
इन
सभी
सवालों
में
से
एक
का
भी
जवाब
हमारे
पास
नहीं
था।
सच
कहें
तो
ये
सारे
सवाल
ही
मेरे
लिए
बहुत
अलग
थे।
क्योंकि
विषय
का
चयन
तो
तब
हो
जब
विषय
और
रुचि
के
बारे
में
जानकारी
हो।
लेकिन
मेरे
लिए
ये
सब
अधूरे
होमवर्क
जैसा
था, जो
न कोई पूरा
करवाने
वाला
था
और
न
ही
स्वयं
की
क्षमता
इतनी
क्षमता
थी।
धीरे-धीरे
जानकारी
जुटाई
तो
पता
चला
कि
विज्ञान
ऐसा
विषय
है
जो
सोसाइटी
प्रिय
भी
है
और
पढ़ाई
के
प्रति
गंभीर
अधिकांश
विद्यार्थियों
की
दूसरी
पसंद
रहता
है।
ये
बात
अलग
है
कि
वो
पसंद
कई
बार
प्रेशर
के
रूप
में
आती
है।
मैंने
भी
तय
कर
लिया
विज्ञान
का
विद्यार्थी
बनने
का,
मगर
बार-बार
विद्यालय
बदलने, रोजाना
30 किलोमीटर की
यात्रा
और
अन्य
कई
कारणों
के
चलते
संभव
नहीं
हो
सका।
अंततः बेमन
ही
सही
लेकिन
मैंने
उसी
विद्यालय
में
कला
संकाय
विषय
में
प्रवेश
लिया।
बेमन
इसलिए
क्योंकि
बहुत
सारे
दोस्तों
ने
विज्ञान
विषय
वाले
स्कूल
में
प्रवेश
ले
लिया
था
और
ऐसा
लग
रहा
था
कि
अब
वे
समाज
की
मुख्य
धारा
के
विद्यार्थी
बन
चुके
थे।
कला
विषय
में
एडमिशन
लेने
के
बाद
भी
हमारे
मन
में
कहीं
न
कहीं
ये
बात
चल
रही
थी
कि
अगर
विज्ञान
विषय
में
प्रवेश
लिया
होता
तो
शायद
कुछ
बेहतर
कर
पाते।
कहीं
न
कहीं
इन
सबके
पीछे
का
एक
कारण
विज्ञान
और
गणित
विषय
में
पढ़ने
वाले
विद्यार्थियों
को
मिलने
वाली
अतिरिक्त
तवज्जों
भी
थी।
मगर
पसंद
का
विषय
न
ले
पाने
और
इसी
के
चलते
स्कूल
जाने
का
मन
भी
कम
होने
लगा।
मई-जून
की
गर्मी
का
लंबा
अवकाश
भोगने
के
बाद
वापिस
स्कूल
जाना
शुरू
किया
तो
पता
चला
कि
तीन
विषय
के
अध्यापक
नये
आए
हैं।
इससे
पहले
के
विद्यालय
जीवन
का
कुछ
खास
हासिल
रहा
नहीं
तो
आगे
के
विद्यालय
जीवन
से
भी
कुछ
विशेष
अपेक्षाएँ
रही
न
थी।
अध्यापकों
से
भी
सिलेबस
पूरा
करवाने
से
अधिक
कुछ
विशेष
उम्मीदें
न
बंधती
थी।
जो मिला
उसी
में
संतुष्टि
जाहिर
करते
हुए
मैंने
विद्यालय
जाने
में
नियमितता
बरती। विद्यालय पहुंचे
और
कक्षाएँ
ली
तो
धीरे-धीरे
आभास
होने
लगा
कि
नए
वाले
सर
के
पढ़ाने
का
तरीका
और
बात
करने
का
लहज़ा
थोड़ा
अलग
है।
खैर
प्रत्येक
अध्यापक
का
अपना-अपना
तरीका
होता
है।
लेकिन
मेरे
लिए
ये
पहला
अनुभव
था।
इनकी
नज़र
में
सिलेबस
पूरा
करवाने
से
इतर
विद्यार्थी
के
जीवन
और
परिवार
में
क्या
माहौल
है? ये
चीजें
भी
अहमियत
रखती
थी।
वैसे
प्रेम
पर
कोई
नियम
लागू
नहीं
होता
है,
लेकिन
कहते
है
कि
आप
जिस
किसी
को
जो
भाव
देंगे
आपको
भी
बदले
में
वही
मिलेगा।
प्रेम
भी
इस
नियम
से
वंचित
नहीं
है।
इसीलिए
हमारे
और
अध्यापकों
के
बीच
भी
प्रेम
बढ़ता
गया
और
दूरियाँ
कम
होती
गई
पहले
की
बनी
हुई
कई
धारणाएँ
जो
थी, वो
भी
ध्वस्त
होने
लगी।
अब
यही
विद्यालय
परिवार
लगने
लगा
था
।
जहाँ
शुरूआती
समय
में
जिस
स्कूल
में
जाने
का
मन
नहीं
करता,
अब
उसी
विद्यालय
से
आने
का
मन
नहीं
करता।
अध्यापकों
की
संगत
रास
आने
लगी
थी।
आगे चलकर
शिक्षक
दिवस
का
दिन
आया
जिसमें
आरोहण
वाले
आसिफ
भैय्या
सहित
उनकी
पूरी
म्यूजिक
टीम
आई।
वैसे
शिक्षक
दिवस
हर
वर्ष
आता
था
लेकिन
उसमें
बच्चों
की
भागीदारी
बहुत
कम
रहती,
खासकर
मेरी
तो
कतई
नहीं।
मगर
इस
बार
कुछ
नया
उत्साह
था।
पहली
बार
मंच
की
जिम्मेदारी
मिली
थी।
इससे
पहले
का
कोई
अनुभव
न
मंच
का
था
और
न
ही
माइक
का।
खूब
जोर-शोर
से
शिक्षक
दिवस
मनाया
गया।
यहाँ
से
पहले
बोलने
के
प्रति
जो
झिझक
की
दिवार
थी
विशेषकर
मंच
की, वह ढहने
लगी।
अब
सभी
कर्रिकुलम
एक्टिविटीज
में
मेरे
सहित
कई
दोस्तों
की
भागीदारी
रहने
लगी
थी।
स्कूल में
कई
सारी
नई-नई
गतिविधियाँ
होने
लगी।
सन्डे
लाइब्रेरी, सैटर-डे
स्पीच
जैसे
नए-नए
प्रयोग
से
स्कूल
सुर्ख़ियों
में
था।
बच्चों
और
मास्टर
जी
दोनों
की
खुशियों
का
ठिकाना
न
था। इसी बीच
सर
का
बच्चों
के
घर
तक
संपर्क
सधने
लगा
था।
मैंने
सर
कों
हिचकिचाते
हुए
चाय
का
न्योता
दिया
तो
तीनों
सर
का
घर
पर
आना
हुआ।
इत्तेफाक
से
जब
सर
का
आना
हुआ
तो
पापा-मम्मी
काम
पर
ही
थे।
घर
आने
और
चाय
तक
की
चर्चा
के
बीच
में
सर
द्वारा
कहे
गए
वे
शब्द
आज
भी
मुझे
याद
है
कि
"बेटा इस छवि
को
अच्छे
से
कैद
कर
लेना, तुम्हारे
लिए
इससे
बड़ा
कोई
मोटिवेशन
नहीं
है!"
उसके
बाद
से
सर
का
घर
पर
आना
जाना
लगा
ही
रहता
था।
बसेड़ा
स्कूल
के
अंतिम
इन
दो
वर्षों
में
मैनें
बहुत
कुछ
सिखा।
यहीं
से
जेएनयू, बीएचयू, डीयू
जैसी
यूनिवर्सिटी
में
पढ़ाई
के
माहौल
और
वातावरण
के
बारे
में
जाना।
मेरा
मन
भी
ऐसी
युनिवेर्सिटी
में
एडमिशन
लेकर
बाहर
पढने
की
ओर
आकर्षित
होने
लगा।
समय
बीतता
गया, अब
वे
दिन
आ
गए
थे
जब
स्कूल
लाइफ
समाप्त
होने
वाली
थी
और
कॉलेज
की
ज़िन्दगी
शुरू
होने
वाली
थी।
ये
जीवन
में
आये
अनेक
मोड़ों
में
से
एक
था।
प्राइवेट
कॉलेज
सहित
डिग्री
और
डिप्लोमा
करवाने
वाले
के
साथ
ही
12
वी
फ़ैल
विद्यार्थी
अपना
साल
बचाए
जैसे
विज्ञापन
के
पर्चे
नज़र
आने
लगे।
विश्वविद्यालयों
के
एंट्रेंस
टेस्ट
के
नामांकन
और
परीक्षाएँ
होने
लगी।
चार
युनिवर्सिटी
के
नामांकन
और
परीक्षा
टेस्ट
के
परिणाम
के
बाद
का
हासिल
यह
रहा
कि
महात्मा
गाँधी
अंतर्राष्ट्रीय
हिंदी
विश्वविद्यालय
के
इतिहास
ओनर्स
विभाग
की
सूचि
में
मेरा
भी
नाम
दिखाई
दिया।
ख़ुशी
और
उल्लास
था।
पापा
मम्मी
सहित
कई
साथियों
की
बधाईयाँ
और
शुभकामनाएँ
मिली।
कई
अडचनों
को
पार
कर
विश्वविद्यालय
जाना
हुआ।
कई
नए
दोस्त
बने।
मन
जावेद
अख्तर
साहब
की
उक्त
पंक्ति
"कभी जों ख्वाब
देखा
था
वो
पा
लिया
है"
की
धुन
में
बह
रहा
था।
लेकिन
अगले
ही
कुछ
दिनो
में
तबियत
ख़राब
हुई
और
कई
कारणों
के
चलते
विश्वविद्यालय
छूट
गया।
इस
बात
का
मलाल
बहुत
हुआ, लेकिन
परिस्थितियाँ
प्रतिकूल
थी।
यदि
अब
तक
के
जीवन
में
सबसे
स्याह
दिनों
का
जिक्र
हो
तो
उसमें
अव्वल
दर्जा
जिनका
होगा
वो
इन्हीं
दिनों
का
होगा।
एक
बेहतर
यूनिवर्सिटी
जिसमें
सिलेक्शन
के
बाद
पढ़
न
पाने
का
जो
मलाल
था
वह
पिक
पर
था।
एक निराशा
के
साथ
घर
वापसी
हुई।
तब
से
लेकर
स्वास्थ्य
के
प्रति
एक
लंबा
संघर्ष
जारी
है।
जीवन
में
कई
टर्निंग
पॉइंट
आये।
लेकिन
अपनों
की
बदौलत
ज़िन्दगी
जिंदाबाद
है।
अभी
जीवन
में
बहुत
कुछ
देखना
और
करना
बाकी
है।
अभी
का
अपडेट
यही
है
कि
ज़िन्दगी
कंस्ट्रक्शन
वाले
दौर
से
गुजर
रही
है।
निर्माण
की
इस
प्रिक्रिया
का
कोई
निश्चित
समय
नहीं
है।
भविष्य
के
लिए
कई
सारी
योजनाएँ
है।
इसी
के
बिच
जब
खुद
कों
बहुत
ज्यादा
परेशान
पाता
हूँ
तब
कन्हैया
लाल
‘नंदन’ की ये
पंक्तिया
मेरे
भीतर
ऊर्जा
का
काम
करती
है!
अजब सी छटपटाहट,घुटन, कसकन, है असह पीड़ा
समझ लो
साधना
की
अवधि
पूरी
है
अरे घबरा
न
मन, चुपचाप
सहता
जा,
सृजन में
दर्द
का
होना
जरूरी
है।
शुक्रिया।
दीपक
‘अपनी
माटी’ मण्डली
बड़ी तेज गति से जा रही हैं। चाहकर भी न कुछ रोका जा सकता है न उससे लड़ा जा सकता हैं, न बांधा जा सकता हैं समय को परिधि में, बस जो है जहाँ हैं उसे जी लो दूसरे पल का इंतजार किये बगैर। साल 2024 का जून बीत रहा हैं यानी आधा साल।
पलक झपकते
ही
बीत
गया।
आप
लोगों
में
से
कितनों
की
छःमाह
की
प्लानिंग
सफल
हुई
मुझे
नहीं
मालूम, लेकिन
मैंने
तो
की
ही
नहीं
थी
जैसा
कि
आपको
पहले
की
डायरी
में
बताया
था
कि
मेरी
और
प्लानिंग
की
बनती
नही।
सोचते
कुछ
है,करते
कुछ
है
और
होता
कुछ
अलग
ही
हैं।
गुजरे
प्रथम
तीन
माह
का
विवरण
पहले
आपसे
साझा
कर
चुकी
हूँ।
अप्रैल
-मई शादियों
में, जिमण में, नींद में
गुजरा।
एक
स्थिरता
का
अभाव
खलता
रहा
फिर
भी
चलता
रहा।
बचपन
में
शिकायत
रहती
थी
कि
कोई
मुझे
कहीं
लेकर
नहीं
जाता
लेकिन
अब
घर
पर
रहने
का
अभ्यास
हो
चुका
था, कही
जाने
का
मन
नहीं
होता
और
अब
स्थिति
इसके
विपरीत
हैं।
अब कोई
घर
पर
नहीं
छोड़
रहा
था
जो
भी
कहीं
जाए,
साथ
लेकर
जाते
है
मैं
मना
करूँ
तो
भी।
दूसरी
बार
मना
नहीं
करती।
ढल
जाती
हूं
परिस्थिति
के
अनुसार
और
जल्दी
घुल
मिल
जाती
हूं,
खैर
-- बीच-बीच में
किताबों
में
सुकून
ढूंढ
लेती
हूँ,कोई-कोई
रचना
दिल-
दिमाग
में
ऐसे
घर
करती
हैं
कि
मानो
मुग्ध
हो
जाती
हूं
अभी के
लिए
मुंशी
प्रेमचंद
रचित
गोदान
----------आहा ! चल
रहा।
माणिक जी सर के कहे अनुसार नहीं पढ़ पाई उनके द्वारा भेजी गई बुक को इसका खेद है। इधर से उधर छलांग लगाने की आदत पुरानी बनी हुई हैं जो छोड़ना मुश्किल हैं, क्रमवार पढ़ना मुझसे नहीं होता। मई में गांव में रामकथा चली, मैं पूरे समय नहीं गई बस कुछ समय। आप लोग सोच रहे होंगे कि यह प्रसंग यहाँ क्यों जोड़ा जा रहा? परन्तु इसका मेरे पास सार्थक कारण है जो आपसे साझा करना चाहूंगी मैंने रामायण को बहुत सी बार देखा लगभग याद भी हैं। सीता और राम को हम भगवान के रुप में मानते हैं और राम को हर संबंध में एक आदर्श रूप में स्थापित करते हैं। इतना होने पर भी मैं दशरथ पुत्र राम को एक दोषी के रूप में देखती थी कि हर संबंध में अच्छा किया परन्तु सीता का त्याग क्यों किया? एक अच्छे पति नहीं बन पाये राम। माता सीता ने विवाह उपरांत कोई सुख नहीं भोगा, परन्तु इस रामकथा में जाना कि माता सीता ने जो भी निर्णय लिए, वे स्व इच्छा से लिए। जाना कि हर संबंध कितनी मर्यादा में बंधा हुआ था और कितनी गरिमा बनी हुई थी शब्दों में। मेरी सभी शंकाओं का समाधान हुआ और महसूस हुआ कि अधूरी जानकारी से हमेशा दूरी बनाकर रखनी चाहिए, किसी को जानो तो पूरा, वरना कोशिश मत करो जानने की। एक मॉडल हैं रामकथा कि कैसे निवास किया जाए धरती पर मानवता पूर्ण। जो बना रहेगा युगोयुगान्तर तक चाहे माने या ना माने।
इसी महीने
सीतामाता
अभ्यारण्य
गई।
प्राकृतिक
छटा
बिखेरता
हुआ
एकदम
शांत
मनोहर
वातावरण।
उछल
कूद
करती
वानर
सेना
ध्यान
खींच
रही
थी।
पेड़-पौधे, घाटीनुमा रास्ता, घने पेड़ों
के
बीच
कहीं-कहीं
आती
धूप, एक
ओर
ऊंचे
पहाड़
और
दूसरी
ओर
संकरा
रास्ता,
उबड़खाबड़।
सहसा
देखे
तो
डर
जाए!
उन्हीं
के
बीच
शीतल
पानी
की
जलधारा
जो
8-10 किलोमीटर की
सारी
थकान
छू-
मंतर
कर
देती
हैं, मोबाइल डेटा
एकदम
बंद
रहता
हैं
उस
जगह।
ये
सबसे
प्रभावशाली
और
राहत
वाली
बात
हैं।
आप
उसी
को
जिये
जहाँ
खड़े
है।
बाकी
धार्मिक
महत्त्व
तो
बना
ही
हैं
जगह
का।
बाकी
दिनचर्चा
चल
रही
हैं
जो
आप
सभी
को
पूर्व
ज्ञात
हैं।
हाल ही
में
भीलवाड़ा
में
आयोजित
शिविर
किया।
पहले
मन
नहीं
था
जाने
का
लेकिन
बाद
में
विचार
बदल
गया।
काफी
अच्छा
अनुभव
रहा।
पहले
दिन
की
बातें
ऊपर
से
गई
फिर
पुराना
याद
आता
गया।
बीच-बीच
में
नींद
भी
आ
भटकती
थी,
लेकिन
गोष्ठी
सार्थकता
लिए
थी।
यहीं
कहना
चाहूंगी
कि
जरूरी
नहीं
हम
पूरे
शिविर
की
बातों
को
अमल
में
ला
पाये
लेकिन
एक
या
दो
बातों
को
भी
अगर
व्यवहार
में
ले
आये
तो
भी
बहुत
सुधार
हो
सकता
हैं।
मैंने
कृतज्ञता
को
अच्छे
से
समझा
और
स्वयं
में
सुधार
करना।
बाकी
सात
दिनों
में
अनुभवी
लोगों
की
संगत
का
प्रभाव
तो
जरूर
पड़ा
हैं, वो
आज
नहीं
तो
कल
जरूर
नजर
आयेगा
जो
अदंर
समाहित
होता
है।
किसी
न
किसी
रूप
में
बाहर
आता
ही
हैं।
हमारा
माहौल
थोड़ा
ज्यादा
समय
लेगा
बाहर
लाने
में।
हरियाणा का एक परिवार बहुत अच्छा लगा और उनके व्यवहार में आत्मियता का भाव बहुत अच्छा था। बहुत सारे नये-नये लोगों की संगत मिली, पुरानों से दूसरी बार मिलना अलग ही खुशी देता है। संकोच कहीं गायब हो जाता है कि हम इनसे मिलें थे। और नये दोस्त बने हैं वहाँ। बाकी अपने बदलाव आखिरी दिन की शेयरिंग में साझा किये थे सभी से। कुमुद विहार इलाक़ा बहुत मनोहर था। सुबह सत्र शुरू होने से पहले और खत्म होने के बाद पर्याप्त फोटोग्राफी की जो मोबाइल के कैमरे में केद करके लाए हैं। तस्वीरेँ एक साल बाद देखेंगे। मोती भैया, वंदन भैया, सुनील भैया के प्रति कृतज्ञता और माणिक जी सर और नाना के प्रति दुगुनी कृतज्ञता का भाव।
अगले महीने
24 में प्रवेश
कर
रही
हूँ
क्या
अनुभव
रहे
अभी
तक
के
साझा
करना
चाहती
हूं
पर
समयाभाव
और
मोबाइल
सही
से
काम
नहीं
कर
रहा
इसीलिए
अपनी
कलम
यहीं
रोकती
हूँ।
धन्यवाद।
- टीना सेन,
बसेड़ा
‘अपनी
माटी’ मण्डली
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