शोध आलेख : आदि-हिंदू आंदोलन और जाटव : पहचान को लेकर एक विचारधारात्मक संघर्ष / रणजीत कुमार

आदि-हिंदू आंदोलन और जाटवपहचान को लेकर एक विचारधारात्मक संघर्ष
- रणजीत कुमार

शोध सार : इतिहास में विचारों को लेकर अक्सर मतभेद होते रहे हैं। दलित इतिहास भी वैचारिक मतभेदों से भरा हुआ है। 20वीं सदी में जहां एक तरफ कई दलित समुदाय अपनी सामाजिक जातिगत पहचान को लेकर चिंतित थे इसे सुधारने हेतु संघर्ष कर रहे थे। इनमें से कई तबकों ने एक नई हिंदू क्षत्रिय पहचान का दावा किया और वैदिक विचारधारा को स्वीकार कर अपने सामाजिक जातिगत उत्थान की तरफ कदम बढ़ाया। वहीं कई ऐसे समूह भी थे जो अपनी जातिगत पहचान यथावत रख अपनी सामाजिक पहचान में सुधार करना चाहते थे। ये वो लोग थे जो अपने सामाजिक उत्थान को लेकर संघर्षरत थे। वे चाहते थे कि समाज में समानता की स्थापना हो। इन्हीं सब वाद विवादों के इर्द गिर्द घूमती है आदि हिंदू आंदोलन और जाटव समाज की मतभेदता।

        यह वह समय था जब सामाजिक पहचान और वर्णव्यवस्था काफी महत्वपूर्ण हो गई थी। इस समय प्रत्येक जातिगत समूह अपनी सामाजिक पहचान एक दूसरे से अलग विशिष्ट तरीके से बयान कर रहे थे। हरेक समुदाय अपने शानदार इतिहास की शानदार ऐतिहासिकता का बखान कर रहा था। वर्ण आधारित श्रेष्ठता की यह लड़ाई हिंदुओं में तो थी ही, अब दलित जातियों में भी पनपने लगी। इसी लड़ाई का परिणाम था जाटव और चमारों में सामाजिक जातिगत पहचान की लड़ाई। यह वैचारिक लड़ाई जाटव आंदोलन के प्रथम चरण में ही महसूस कर ली गई थी। कालांतर में जाटवों और चमारों के बीच मतभेद बढ़ते चले गए और आपसी संबंधों की खाई और गहरी होती चली गई। 

बीज शब्द : आदि-हिंदू आंदोलन, वर्णाश्रम व्यवस्था, समानता, जाटव आंदोलन, दलित, क्षत्रिय पहचान, सामाजिक सुधार, वैदिक विचारधारा, आर्य समाज, स्वामी अछूतानंद।

वैचारिक मतभेद की शुरुआत - आदि-हिंदू आंदोलन और जाटवों के मध्य जो विचारधारा की लड़ाई थी वो सामाजिक पहचान को लेकर थी। जहां एक तरफ जाटवों, जिन्हें चमारों की ही एक उपसाखा बताया जाता है, ने दावा किया कि वे ऐतिहासिक रूप से क्षत्रिय हैं और उनकी ऐतिहासिकता यदुवंश से संबंधित है। उन्होंने खुद को शिवा गोत्र से जोड़कर बताया। इसके साथ ही उन्होंने कई ऐसे ऐतिहासिक स्रोतों का हवाला दिया जिनमें जाटवों की आनुवांशिकता (वंश) को क्षत्रियों वर्ण से संबंधित बताया गया है। दूसरी तरफ आदि-हिंदू आंदोलन मुख्यतः चमारों का आंदोलन था। इनका कहना था कि वे वर्णाश्रम व्यवस्था में क्षत्रिय तो हैं ही, साथ ही वे चाहते हैं कि समाज में सामाजिक समानता की स्थापना हो। उन्होंने वर्णव्यवस्था पर आधारित भेदभाव वाली प्रणाली का जोरदार विरोध किया। वे जाटवों से रुष्ट इसलिए थे क्योंकि जाटव विशुद्ध हिंदूवादी विचारधारा और वर्णव्यवस्था का अनुसरण कर रहे थे। 

        दीगर है कि 20वीं सदी की शुरुआत में चमार भी अपनी क्षत्रिय पहचान को पुनर्स्थापित करने के लिए लड़ रहे थे। 1920 में चमार महासभा की स्थापना हुई, लेकिन जैसे ही आदि-हिंदू महासभा का उदय हुआ तो चमारों का आंदोलन, जो कि एक क्षत्रिय पहचान को लेकर था, एक "अछूत पहचान (पवित्र पहचान)" के आंदोलन के रूप में परिवर्तित हो गया। कालांतर में चमार महासभा का आदि-हिंदू महासभा में विलय हो गया। अब सामाजिक समानता की स्थापना करना ही चमार आंदोलन का मुख्य लक्ष्य बन गया।

समकालीन पुलिस रिपोर्टों फाइलों से जानकारी मिलती है कि 1920 में जाटव महासभा और चमार महासभा ने ग्रामीण इलाकों से लेकर शहरी इलाकों तक अपने-अपने समुदाय के लोगों को नए विचारों जातिगत चेतना से जाग्रत करने का प्रयास किया। 

जाटव मतभेदता के कारण -

जाटव, जो अपनी खोई हुई क्षत्रिय पहचान को पुनः स्थापित करने का प्रयास कर रहे थे, ऐसे किसी भी क्रियाकलाप पेशे में खुद को शामिल नहीं करना चाहते थे जो सामाजिक तौर पर प्रदूषित समझे जाते थे। जबकि चमार अभी भी कुछ हद तक चमड़े के कार्य में संलग्न थे, हालांकि अधिकांश संख्या में उन्होंने कृषि कार्य को अपना लिया था। जाटवों ने विशुद्ध क्षत्रिय आचरण को अंगीकार किया और आर्य समाज की विचारधारा को जीवन का आधार बनाया। वे उन सभी नियमों और परंपराओं को अपने दैनिक जीवन में अपनाते चले गए जो राजपूतों में प्रचलित थीं। ऐसी स्थिति में वे नहीं चाहते थे कि एक विशुद्ध क्षत्रिय पहचान को बनाए रखने के लिए चमारों से किसी भी प्रकार का संबंध रखा जाए। उन्होंने इसे जाटवों की नई पहचान के लिए हानिकारक समझा। सभी जाटव संगठनों ने भी इस बात पर जोर देकर कहा कि जाटव समाज का कोई भी व्यक्ति आदि-हिंदू आंदोलन या ऐसी किसी भी गतिविधि में हिस्सा नहीं लेगा जो स्वामी अछूतानंद द्वारा संचालित की जा रही हों। अगर कोई ऐसा करता है तो उसके खिलाफ कठोर कार्यवाही की जाएगी।[1]

जाटव आंदोलन की औपचारिक शुरुआत 1917 से हुई। आगरा में जाटव समुदाय के कुछ पढ़े लिखे उच्च शिक्षा प्राप्त लोगों ने जाटव महासभा की स्थापना की। इन लोगों में बाबू खेमचंद बोहरे, डॉ. मनिकचंद जाटव वीर, पं. सुंदरलाल सागर, पं. लालाराम नीम, पं. प्रभुदयाल व्यास, पं. छेदीलाल कणिक, दीपचंद जी, गोपीचंद पीपल आदि शामिल थे। का उद्देश्य अपनी जातिगत पहचान को चमारों से अलग कर एक हिंदू राजपूत जाति के रूप में स्थापित करना था। इसी उद्देश्य से जाटवों ने आर्य समाज की वैदिक विचारधारा का अनुसरण किया और एक साफ- सुथरा जीवन जीना शुरू किया।[2]

कुछ समाजशास्त्री इन पढ़े लिखे उच्च शिक्षा प्राप्त जाटव लोगों को चमार समुदाय का ही हिस्सा मानते हैं। इनका मानना है कि ये वे लोग थे जो जाति के आधार पर हो रहे भेदभाव और छुआछूत से परेशान होकर अपने इतिहास और वर्तमान को एक नए और सुदृढ़ ढंग से समाज के सामने पेश कर रहे थे। दीगर है कि "चमार" शब्द को हमेशा से ही एक घृणित जाति उदबोधन के तौर पर इस्तेमाल किया जाता रहा है इसीलिए चमारों के एक पढ़े लिखे तबके ने इस घृणित शब्द को त्यागकर एक नए "जाटव" शब्द को अपनी जाति के रूप में अंगीकार किया।

इस तथ्य को खुद जाटवों ने अन्य सामाजिक कार्यकर्ताओं ने सिरे से खारिज कर दिया कि जाटव चमारों की ही उपजाति हैं। इसके जवाब में जाटवों ने खुद को यदुवंशी क्षत्रिय बताया, और कहा कि "जाटव" शब्द "यादव" शब्द का अपभ्रंश है। इसके प्रमाण चंदवरदाई कृत "पृथ्वीराजरासो" में उद्धरित हैं। इसीलिए हम देखते हैं कि कई मौकों जगहों पर "जाटव महासभा" को "यादव महासभा" के नाम से भी संबोधित किया गया है। जाटवों ने अपने यदुवंशी होने की पुष्टि कई ऐतिहासिक स्रोतों के माध्यम से की, जैसे कि चंदवरदाई द्वारा रचित "पृथ्वीराजरासो", महर्षि आत्माराम द्वारा रचित "ज्ञानसमुद्र" और नेपाली ग्रंथ "लोमस रामायण" इत्यादि। इसके साथ ही उन्होंने जे. सी. नेसफील्ड की पुस्तक "ब्रीफ व्यू ऑफ कास्ट सिस्टम ऑफ नॉर्थ वेस्टर्न प्रोविंसेज एंड अवध" का हवाला दिया जिसमें जाटवों के यदुवंशी होने की पुष्टि की गई है। नेसफील्ड कहते हैं कि "Jatavs may be an occupational off shoot from the Yadu tribe from which lord Krishna came". इस प्रकार नेसफील्ड ने जाटवों को भगवान कृष्ण की वंशावली से जोड़कर उनके यदुवंशी होने की पुष्टि की है।[3]

दूसरी तरफ चमारों ने जाटवों की इस नई पहचान के दावे को कभी स्वीकार नहीं किया। उन्होंने जाटवों को अवसरवादी और धोखेबाज तक कहा है। जाटव खुद को चमारों सहित अन्य सभी दलित जातियों से श्रेष्ठ मानते हैं और खुद को राजपूतों के समकक्ष रखते हैं। इसी वैचारिक मतभेद का परिणाम यह हुआ कि जाटव और चमार कभी भी संगठित नहीं हो पाए। 

स्वामी हरिहरानंद, जिन्होंने 1905 में आर्य समाज की सदस्यता ग्रहण की और वैदिक विचारधारा को कर्म का आधार बनाया, कई आर्य समाजी स्कूलों में पठन-पाठन का कार्य किया। जब स्वामी हरिहरानंद ने देखा कि आर्य समाज के सम्मेलनों, स्कूलों और अन्य अनुष्ठानिक कार्यों में दलित जातियों को सवर्णों से अलग बिठाया और खिलाया जा रहा है तभी उनका आर्य समाज से मोह भंग हो गया। व्यथित होकर उन्होंने आर्य समाज को छोड़ दिया।[4] 1917 में स्वामी अछूतानंद ने आगरा में सबसे पहले एक सम्मेलन में आदि-हिन्दू आंदोलन का विचार रखा। 1920 में उन्होंने आदि-हिंदू महासभा की औपचारिक स्थापना की और पूरे संयुक्त प्रांत सहित अन्य कई राज्यों में भी आदि-हिंदू शाखाएं खोलकर समाज सुधारक आंदोलन चलाना शुरू किया।

स्वामी हरिहरानंद ने अछूतों को नए ढंग से परिभाषित किया। उन्होंने अछूत उसे कहा जो "छुआ गया हो" अर्थात "पवित्र" इसी अछूत पहचान को उन्होंने दलित जनांदोलन का आधार बनाया और अपना नाम स्वामी हरिहरानंद से स्वामी अछूतानंद रख लिया।[5] आर्य समाज के दलितों के प्रति भेदभाव वाले रवैये का अछूतानंद जी ने जोरदार विरोध किया। कालांतर में आदि-हिंदू महासभा एक आंदोलन के रूप में उभरी। शीघ्र ही संपूर्ण देश में जगह-जगह आदि-हिंदू सभाओं और संस्थाओं की स्थापना की गई, भाषण दिए गए और संपूर्ण दलित समुदायों को एक हो जाने का आवाहन किया गया।

क्षेत्रीय घटनाक्रम -

समाजशास्त्रियों के अनुसार आदि-हिंदू आंदोलन का उदय चमार राजनीति के पहले चरण का सबसे रूढ़िवादी चरण माना जा सकता है। मंगल सिंह जाटव आदि-हिंदू आंदोलन और स्वामी अछूतानंद की कई महत्वपूर्ण गतिविधियों को व्यक्त करते हैं। उन्होंने एक महत्वपूर्ण घटना का जिक्र कर कहा कि दिसंबर 1923 में लगभग 20 हजार दलित इटावा में इकट्ठा हुए। इसी सम्मेलन में स्वामी अछूतानंद ने आदि-हिंदू आंदोलन की औपचारिक शुरुआत की। रामदयाल जाटव इसके अध्यक्ष चुने गए।[6]  इस सभा में अछूतानंद जी ने इस बात पर जोर देकर कहा कि जिन्हें भारत में अछूत समझा जाता है वही असल मायने में भारत के मूल निवासी हैं। जबकि अन्य लोग जैसे कि हिंदू, मुस्लिम और ईसाई इत्यादि सभी विदेशी आक्रमणकारी हैं। अतः वे सब विदेशी हैं भारतीय नहीं। संपूर्ण देश के दलितों ने अछूतानंद के इस तर्क का व्यापक समर्थन किया। 

अछूतानंद ने भारतीय सरकार से पुलिस और सेना में दलित युवकों को भर्ती करने की अपील की। इसके साथ ही उन्होंने दलितों के पंचायती अधिकारों की मांग बेगारी व्यवस्था को खत्म करने की अपील की। उन्होंने सभी दलित समुदाय के लोगों से आवाहन किया कि बेगारी प्रथा जैसी बुराइयों का जोरदार तरीके से विरोध किया जाए।[7]

जाटव आंदोलन में मेरठ का स्थान भी अतुलनीय है। यहां आंदोलन से जुड़े कई महत्वपूर्ण फैसले लिए गए। 1924 में मेरठ में एक सभा हुई। मान सिंह तोफापुरिया, बख्शीराम कविरत्न (कानपुर), बाबू इनामलाल, स्वामी छमानंद (इटावा), छेदलाल और हृदय प्रकाश इत्यादि जैसी कई जानी मानी हस्तियों ने इस सभा में हिस्सा लिया। इन नेताओं के अलावा भी कई मुस्लिम नेताओं ने इस सभा में भाग लिया। इस सभा में सबसे महत्वपूर्ण बात यह थी कि इसमें हिंदू धर्म को त्यागकर इस्लाम धर्म को अपनाए जाने का निर्णय लिया गया। स्वामी अछूतानंद ने इस विचार को स्वीकार नहीं किया। इसके प्रत्युत्तर में उन्होंने कहा कि "हम तो हिंदू हैं और ही मुसलमान, हम तो आदि-हिंदू हैं" इसी समय स्वामी अछूतानंद जी ने आदि-हिंदू आंदोलन को "सम्मान आंदोलन" का नाम दिया। संपूर्ण प्रदेश में उन्होंने अछूतों के लिए कई स्कूल, लाइब्रेरियां छात्रावास बनवाए।[8]

1925 तक आदि-हिंदू आंदोलन लोकप्रियता में भरी इजाफा हुआ और इसका प्रत्यक्ष प्रभाव आर्य समाज के शुद्धि आन्दोलन पर पड़ा और जल्दी ही शुद्धि आन्दोलन को बंद करना पड़ा। आंदोलन जैसे-जैसे आगे बढ़ा उसका दायरा और व्यापक होने लगा। कालांतर में स्वामी अछूतानंद ने सिक्खों अन्य समुदायों की तर्ज पर सरकार से दलितों के लिए भी प्रथक प्रतिनिधित्व की मांग कर डाली। उन्होंने कांग्रेस के "स्वराज मैनिफेस्टो" की आलोचना की और इसे दलितों के लिए हानिकारक बताया।[9]

आंदोलन के दूसरे चरण में जब जाटवों की नई क्षत्रिय पहचान को उच्च वर्गीय हिंदुओं ने स्वीकार नहीं किया तो कई मौकों पर उन्होंने स्वामी अछूतानंद के प्रथक प्रतिनिधित्व की मांग के दावे का समर्थन करना शुरू कर दिया। इसका उदाहरण अप्रैल 1927 में देखा जा सकता है जब आगरा में लगभग दो हजार जाटवों की सभा हुई। इस सभा में यह घोषित किया गया कि जिस प्रकार सिख हिंदुओं से अलग हैं वैसे ही जाटव और अन्य दलित समुदाय भी हिंदुओं से अलग हैं।[10]

1927 के इलाहाबाद सम्मेलन में अछूतानंद ने सभी दलितों को हिंदू प्रभुत्व के खिलाफ एक हो जाने का आवाहन किया। उन्होंने जोर देकर कहा कि अछूतों को ऐसे हिंदू देवी देवताओं और वेदों की कोई आवश्यकता नहीं है जिसकी व्यवस्था ही भेदभाव के इर्द-गिर्द हुई है।[11] आगे उन्होंने कहा कि वे अपनी ऐतिहासिक परंपराओं के साथ जुड़े हुए हैं और अपने महान ऋषि मुनियों गुरुओं जैसे कि कबीर और रविदास आदि के बताए हुए वैचारिक रास्ते पर चल रहे हैं। इस प्रकार स्वामी अछूतानंद ने जातिगत भेदभाव पर आधारित हिंदूवादी व्यवस्था के विरुद्ध अपनी कौम को जाग्रत करने का प्रयास किया। 

दिसंबर 1927 को अखिल भारतीय आदि-हिंदू महासभा की पहली कांफ्रेंस इलाहाबाद में आयोजित की गई। आंदोलन से जुड़े कई मुद्दों पर इस सभा में चर्चा हुई। इसी सभा में आदि-हिंदू आंदोलन से जुड़े नेताओं ने प्रथक प्रतिनिधित्व की मांग को साइमन कमीशन के सामने रखने का विचार बनाया। इसके साथ ही उन्होंने सरकार से विधायी मामलों, सरकारी नौकरियों शैक्षिक संस्थानों में दलितों को उचित प्रावधान करने की मांग की। बाद में वही मुद्दे आंदोलन के एजेंडे का हिस्सा बने।[12] गणेश शंकर विद्यार्थी सहित कई अन्य समाचार पत्र पत्रिकाओं ने इस कांफ्रेंस को कवर किया। विद्यार्थी ने अपने अखबार "प्रताप" के माध्यम से दिल्ली से लेकर कानपुर तक आदि-हिंदू आंदोलन की लोकप्रियता और उसकी कई महत्वपूर्ण गतिविधियों को रेखांकित किया है।

यह वह समय था जब इतने कम समय में आदि-हिंदू आंदोलन की लोकप्रियता सातवें आसमान पर थी। आदि-हिंदू आंदोलन की शाखाएं उत्तर प्रदेश में ही नहीं बल्कि राजस्थान, पंजाब, हरियाणा, दिल्ली, मध्यप्रदेश इत्यादि में भी स्थापित की गईं। अध्ययन से ये पता चलता है कि आदि-हिंदू आंदोलन संपूर्ण दलित समाज का आंदोलन नहीं था, कई अन्य दलित समुदाय भी जाटवों की तरह इस आंदोलन से खुद को दूर किए हुए थे। सामाजिक स्थिति और जातिगत पहचान को लेकर कई प्रश्नों पर स्थिति विवादास्पद थी।

सामान्य तौर पर आदि-हिंदू आंदोलन की पूरे देश में अनेकों शाखाएं खोली गईं लेकिन यह आंदोलन उत्तर प्रदेश में अधिक प्रभावशाली रहा खासकर सेंट्रल यूपी में। इस आंदोलन को जिस प्रकार की सफलता उत्तर प्रदेश के अन्य भागों में मिली वैसी सफलता पश्चिमी उत्तर प्रदेश में नहीं मिली। इसका एक मुख्य कारण रहा पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जाटवों की बहुलता का होना। इस क्षेत्र में जाटवों और आदि-हिंदू आंदोलन का सबसे विवादित प्रकरण तब हुआ जब अछूतानंद आगरा में एक दलित सभा को संबोधित कर रहे थे। उन्होंने अपने संबोधन में कहा कि दलित जातियों को आपसी मतभेद भुलाकर सामाजिक जातिगत एकता स्थापित करने हेतु एक-दूसरे समुदाय से अंतर्जातीय विवाह करना चाहिए। इससे भेदभाव वाली प्रवुत्ति का अंत होगा। अछूतानंद के इस वक्तव्य का आगरा के जाटवों ने जोरदार विरोध किया। उन्होंने जोर देकर कहा कि हम अंतर्जातीय विवाह करके किसी अन्य जाति या धर्म में विलीन होना नहीं चाहते। इसका दुष्परिणाम यह होगा कि हम एक बार फिर अपनी पहचान को खो देंगे।[13] इसके साथ ही जाटव नेताओं ने आदि-हिंदू आंदोलन और स्वामी अछूतानंद के प्रति तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए उन्हें तुरंत आगरा छोड़ने के लिए कह दिया।[14]

इस घटना के बाद जाटव नेताओं और आदि-हिंदू आंदोलन से जुड़े नेताओं में आपसी टकराव की स्थिति और बढ़ गई। दोनों समुदायों के बीच जो संबंध पहले से ही खराब चल रहे थे वो और ज्यादा खराब होते चले गए। अब आदि-हिंदू आंदोलन से जुड़े नेताओं ने जाटव महासभा और उसकी गतिविधियों का प्रत्येक मंच पर खुलेआम विरोध करना शुरू कर दिया। ऐसा ही प्रकरण 1928 में हुआ जब साइमन कमीशन की लखनऊ कांफ्रेंस में आदि-हिंदू आंदोलन के नेताओं ने जाटव महासभा की सभी मांगों दावों का डटकर विरोध किया।[15]

इस समय तक जाटवों ने काफी हद तक अपनी एक नई और अलग जातिगत सामाजिक पहचान बना ली थी। ऐसी धारणा है कि यदि आगरा में स्वामी अछूतानंद का जाटवों ने इतना तीखा विरोध किया होता तो वे शायद साइमन कमीशन की इतनी महत्वपूर्ण कांफ्रेंस में जाटव महासभा के सभी महत्वपूर्ण दावों का विरोध नहीं करते और जाटवों को उनके अलग जाति के आंदोलन को इसी कांफ्रेंस में सफलता मिल गई होती, 1942 तक नहीं जाना पड़ता। हालांकि जाटवों और आदि-हिंदू आंदोलन में गतिरोध काफी समय से चल रहा था। तो ये कोई आकस्मिक परिणति नहीं थी।

बहरहाल, कमीशन ने जाटवों के अलग और क्षत्रिय जाति के दावे को तो सरकारी मान्यता नहीं दी पर उन्हें जाति के रूप में "जाटव" शब्द अपनाने की अनुमति जरूर दे दी। इससे जाटव आंदोलन को काफी बल मिला। 1930 में जाटवों ने आंदोलन में नई जान फूंकने हेतु "अखिल भारतीय जाटव युवक परिषद" की स्थापना की और आंदोलन को नए और सुदृढ़ तरीके से गतिशील किया। थोड़े ही समय में जाटव युवक परिषद की अनेकों शाखाएं दिल्ली, मध्यप्रदेश, हरियाणा, पंजाब, राजस्थान इत्यादि प्रदेशों में खोली गईं।[16] 

आंदोलन के इस संक्रमणकालीन दौर में जब हिंदुओं ने जाटवों की नई क्षत्रिय पहचान को मान्यता नहीं दी तब उन्होंने अपने आंदोलन को एक नया मोड़ दिया। अब उन्होंने अपने क्षत्रिय पहचान के आंदोलन को दलित जातियों की सूची में एक अलग जाति के आंदोलन के रूप में परिवर्तित कर दिया। 1930 के बाद जाटव खुद को सरकारी रिकार्ड में चमारों से अलग जाति के रूप में दर्ज करवाने हेतु लड़ रहे थे। दीगर है कि अभी उन्होंने हिंदुओं का विरोध नहीं किया था क्योंकि उनको यह विश्वास था कि कभी कभी वे उनकी क्षत्रिय पहचान को स्वीकार कर लेंगे, हालांकि ऐसा हुआ नहीं। इसीलिए 1938-39 में जब उन्होंने ब्रिटिश सरकार में बैठे भारत सचिव जेटलेंड से पत्र व्यवहार किया तो उन्होंने पत्रों के माध्यम से अपनी सामाजिक स्थिति से उन्हें अवगत कराया। जाटवों ने अपनी वर्तमान सामाजिक और जातिगत स्थिति के लिए उच्च वर्गीय हिंदुओं को दोषी ठहराया। उन्होंने बताया कि किस प्रकार ब्राह्मणों ने उनके शानदार इतिहास को खराब करके उन्हें अछूत श्रेणी में डाल दिया जबकि वे ऐतिहासिक रूप से क्षत्रिय हैं औरयदुजाति के वंशज हैं।[17]

बदलते घटनाक्रमों के मध्यनजर जाटव और चमारों के संगठित होने का कोई रास्ता नजर नहीं रहा था। जहां एक तरफ स्वामी अछूतानंद वर्णव्यवस्था के खात्मे की बात कर रहे थे। उन्होंने दलितों को बताया कि हम लोग ही भारत के सच्चे मूल निवासी हैं और वर्णव्यवस्था बाहर से आए विदेशी आक्रमणकारियों के द्वारा थोपी गई है। वहीं दूसरी तरफ जाटवों ने खुलेआम वर्णव्यवस्था का समर्थन किया और खुद को जाटव राजपूत की संज्ञा दी। इससे स्थिति और ज्यादा बिगड़ती चली गई। इसमें संजीवनी का काम किया डॉ. बी. आर. अंबेडकर ने। उनके कुछ व्यक्तिगत प्रयासों ने काफी कुछ बदल डाला।

दृष्टिकोण में बदलाव -

जाटव आंदोलन के तीसरे चरण में कुछ सामाजिक परिवर्तन दिखाई दिए। जाटवों के इस बदलते दृष्टिकोण का प्रेणता डॉ. बी. आर. अंबेडकर को माना जा सकता है। अंबेडकर के समाज सुधारक आंदोलन और उनकी विचारधारा में जाटवों की गहरी आस्था थी। दूसरी तरफ हिंदू उन्हें क्षत्रिय मानने को तैयार नहीं थे इसीलिए जाटव नेताओं ने भी अंबेडकर द्वारा चलाए जा रहे समाज सुधारक आंदोलनों में बढ़ चढ़कर भागीदारी की। हालांकि वे अपनी अलग जाति की पहचान के प्रति निष्ठावान बने रहे उसकी प्राप्ति हेतु अपने प्रतिवेदनों को इंग्लैंड भेजते रहे।

जाटवों और आदि-हिंदू आंदोलन में गतिरोध की स्थिति स्वतंत्रता प्राप्ति तक चलती रही। डॉ. अंबेडकर ने कुछ हद तक दोनों समुदायों को एक साथ लाने का प्रयास जरूर किया। ऐसे कई मौके भी आए जब जाटव संगठनों और आदि-हिंदू महासभा ने साझा बयान दिए, जैसे कि गोलमेज सम्मेलन के दौरान गांधी जी के बजाय डॉ. अंबेडकर को अपना नेता चुनना, प्रथक निर्वाचन के मुद्दे पर अंबेडकर का समर्थन करना, कई सामाजिक बुराइयों, सरकारी नौकरियों विधानसभा में दलित आरक्षण इत्यादि के मुद्दे पर साझा दृष्टिकोण। 

इस प्रकार जाटव आंदोलन के तीसरे चरण में जहां कुछ साझा हितों के मुद्दों पर आदि-हिंदू आंदोलन जाटवों में तन्मयता देखने को मिली वहीं अलग जातिगत पहचान के प्रति जाटवों की लगन में कोई कमी नहीं आई। स्वतंत्रता प्राप्ति से ठीक पांच वर्ष पूर्व 1942 में अंग्रेजों ने जाटवों को दलित जातियों की सूची में एक अलग जाति के रूप में परिभाषित कर दिया। दूसरी तरफ आदि-हिंदू आंदोलन सामाजिक समानता की स्थापना हेतु जारी रहा। 15 अगस्त 1947 में स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद डॉ. बी. आर. अंबेडकर के अथक प्रयासों ने भारतीय संविधान में छुआछूत को समाप्त कर सामाजिक समानता की स्थापना की। अब अस्पृश्यता को कानूनन अपराध घोषित कर दिया। यह जीत डॉ. अंबेडकर आदि-हिंदू आंदोलन के अनवरत प्रयासों सहित समस्त दलित समाज की सबसे बड़ी जीत थी। इसके साथ ही भारतीय समाज से अस्पृश्यता रूपी दाग धुल गया और एक नए ऐतिहासिक युग की शुरुआत हुई।

निष्कर्ष : निष्कर्षतः इस बात को प्रमाणिक तौर पर कहा जा सकता है कि जाति व्यवस्था में उच्च स्थान पाने के लिए जाटवों ने वर्णव्यवस्था को स्वीकार किया। इसके लिए उन्होंने खुद को चमारों से उनके द्वारा अपनाए जाने वाले व्यवसायों से दूर रखा। उन्होंने एक नई सांस्कृतिक वैदिक विचारधारा को अपने जीवन का हिस्सा बनाया और उसी के आधार पर अपनी जीवनचर्या को बनाए रखा। इसके तहत उन्होंने क्षत्रिय परंपराओं, नियमों, आचरण और त्यौहारों इत्यादि को अपनाना शुरू किया। उनके इस कृत्य में आर्य समाज ने बढ़ चढ़कर उनका साथ दिया। आर्य समाज ने जाटवों की नई पहचान को स्वीकार किया और उसे वैदिक शिक्षा इत्यादि के माध्यम से बढ़ावा भी दिया।

दूसरी तरफ चमारों ने भी 20वीं सदी की शुरुआत में क्षत्रिय पहचान का दावा किया और आर्य समाज की विचारधारा को स्वीकार किया। 1920 में चमार महासभा की स्थापना हुई। इसी दौरान 1920 में ही आर्य समाज की भेदभाव वाली प्रवृत्ति से व्यथित होकर स्वामी अछूतानंद ने आदि-हिंदू महासभा की स्थापना की। बाद में चमार महासभा का आदि-हिंदू महासभा में विलय हो गया। आदि-हिंदू महासभा का उद्देश्य वर्णाश्रम व्यवस्था पर आधारित हिंदूवादी समाज का विरोध सामाजिक समानता की स्थापना करना था। आगे चलकर आदि-हिंदू महासभा एक आंदोलन के रूप में परिवर्तित हो गई। सामाजिक जातिगत छुआछूत का खात्मा कर दलितों को सम्मान जनक स्थान दिलाना ही आंदोलन का मुख्य लक्ष्य बन गया। 

जाटवों ने प्रत्येक स्तर पर स्वामी अछूतानंद से दूरी बनाए रखी। इसका सबसे बड़ा कारण यह था कि जाटव आदि-हिंदू आंदोलन को चमारों का आंदोलन समझते थे। इसके साथ ही वे चमारों आदि-हिंदू आंदोलन को अपनी नई क्षत्रिय पहचान के लिए खतरा मानते थे। दूसरी तरफ चमारों आदि-हिंदू आंदोलन से जुड़े नेताओं ने जाटवों को कभी क्षत्रिय नहीं माना और उनके इस दावे की प्रत्येक स्तर पर आलोचना की। इन्हीं सब गतिविधियों के चलते दोनों ही समुदायों में आपसी टकराव की स्थिति बनी रही। 

आगे चलकर अखिल भारतीय जाटव महासभा, अखिल भारतीय जाटव युवक परिषद, जाटव समिति इत्यादि ने चमारों आदि-हिंदू आंदोलन से जुड़ी किसी भी गतिविधि में जाटवों के भाग लेने पर पूर्ण प्रतिबंध लगा दिया। हालांकि कई जाटव समूह ऐसे भी थे जिन्होंने स्वामी अछूतानंद के कुछ महत्वपूर्ण विचारों का समर्थन भी किया था। 

इसके इतर जातिगत पहचान के नाम पर जाटवों ने कभी भी खुद को चमारों के साथ जोड़कर नहीं देखा। जहां तक कि आज भी वही स्थिति बनी हुई है। इसका सबसे अच्छा और महत्वपूर्ण उदाहरण था मेरा आगरा और मेरठ में किया गया क्षेत्रीय कार्य। इस दौरान मेरी मुलाकात दोनों समुदाय के लोगों से हुई। जहां चमार आज भी जाटवों को अवसरवादी बताते हैं तो वहीं जाटव आज भी खुद को जाटव राजपूत की संज्ञा देते हैं। वे आज भी अपनी क्षत्रिय पहचान को लेकर उतने ही सजग हैं जितने की स्वतंत्रता प्राप्ति के पहले थे।

संदर्भ :

1). ओवन एम. लिंच, पॉलिटिक्स ऑफ अनटचेबिलिटी: सोशल मोबिलिटी एण्ड सोशल चेंज इन सिटी ऑफ इंडिया, कोलंबिया यूनिवर्सिटी प्रेस, न्यू यॉर्क, 1969, पृष्ठ. 167.
2). रामनारायण यादवेन्दु, यदुवंश का इतिहास, नवयुग साहित्य निकेतन, आगरा, 1942, पृष्ठ. 98-99; लिंच, पॉलिटिक्स ऑफ अनटचेबिलिटी, पृष्ठ. 69.
3). पं. सुंदरलाल सागर, यादव जीवन, श्री जाटव महासभा, आगरा, 1929, पृष्ठ. 21.
4). प्रो. अँगने लाल & डॉ. राहुल राज, उत्तर प्रदेश में दलित आंदोलन, गौतम बुक सेंटर, दिल्ली, 2011, पृष्ठ. 25.
5). लाल & राज, उत्तर प्रदेश में दलित आंदोलन, पृष्ठ. 23.
6). मंगल सिंह जाटव, श्री 108 स्वामी अछूतानंद जी का जीवन परिचय, सरस्वती प्रेस, ग्वालियर(एम.पी.), 1997, पृष्ठ. 14; राजपाल सिंह "राज", अछूतानंद हरिहर, राजलक्ष्मी प्रकाशन, दिल्ली, 2003, पृष्ठ. 41.
7). रामनारायण सिंह रावत, रीकॉन्सिडरिंग अनटचेबिलिटी: चमारस एंड दलित हिस्ट्री इन नार्थ इंडिया, इंडियाना यूनिवर्सिटी प्रेस, 2012, पृष्ठ. 147-148.
8). लाल & राज, उत्तर प्रदेश में दलित आंदोलन, पृष्ठ. 25.
9). रावत, रीकॉन्सिडरिंग अनटचेबिलिटी, पृष्ठ. 148.
10). रावत, रीकॉन्सिडरिंग अनटचेबिलिटी, पृष्ठ. 149; अभ्युदय, 24 अप्रैल 1926, 14 अप्रैल 1928,       लीडर, 14 अप्रैल 1926, वीकली पुलिस एब्सट्रेक्ट ऑफ इंटेलीजेंस, 23 अप्रैल 1927 तथा 21 अप्रैल 1928.
11). जाटव, श्री 108 स्वामी अछूतानंद जी का जीवन परिचय, पृष्ठ. 14.
12). रावत, रीकॉन्सिडरिंग अनटचेबिलिटी, पृष्ठ. 159; रिपोर्ट ऑफ ऑल इंडिया आदि-हिंदू कॉन्फ्रेंस, 7 जनवरी 1928.
13). लिंच, पॉलिटिक्स ऑफ अनटचेबिलिटी, पृष्ठ. 75.
14). लिंच, पॉलिटिक्स ऑफ अनटचेबिलिटी, पृष्ठ. 76.
15). इयान डंकन, "दलितस एंड राज: परसिस्टेंस ऑफ जाटवस इन यूनाइटेड प्रोविन्सेस", इंडियन इकोनॉमिक & सोशल हिस्ट्री रिव्यु, वॉल्यूम-56, .02, 22 मई 2019, पृष्ठ. 133.
16). यादवेन्दु, यदुवंश का इतिहास, पृष्ठ. 107-112; लिंच, पॉलिटिक्स ऑफ अनटचेबिलिटी, पृष्ठ. 80.
17). यादवेन्दु, यदुवंश का इतिहास, पृष्ठ. 137.
 
रणजीत कुमार
शोधार्थी, इतिहास विभाग, दिल्ली विश्वविद्यालय
ranjeet77727@gmail.com, 9625183161, 8383058829

चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक ई-पत्रिका 
  अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-52, अप्रैल-जून, 2024 UGC Care Listed Issue
सम्पादक-द्वय : माणिक-जितेन्द्र यादव चित्रांकन  भीम सिंह (इलाहाबाद विश्वविद्यालय)

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