शोध आलेख : प्रमोद कुमार तिवारी के साहित्य में लोकतत्व और मिट्टी की खुशबू / डॉ. रेखा शेखावत

प्रमोद कुमार तिवारी के साहित्य में लोकतत्व और मिट्टी की खुशबू
- डॉ. रेखा शेखावत

शोध-सार : प्राचीन काल से मानव समाज में काव्य सृजन लोकानुभूति की संसृति है। लोक के भावों  से परिपुष्ट होकर कवि मन स्वयं प्रत्येक अनुभूति को जी लेता है। हमारे लोक को समझने के लिए पोथी की आवश्यकता नहीं है। लोक का जुडा़व सम्पूर्ण प्राणी जगत की सुखात्मक एवं दुखात्मक अनुभूति से होता है। मनुष्य जन्म से ही अपनी  प्रकृति, परिवेश एवं समाज से जुड़ा रहता है। कवि लोकजीवन से जुड़े अनुभवों को साहित्य की विरासत बनाते हैं। साहित्य वही है जो सभी का हित साधन एवं लोक कल्याण का भाव ग्रहण कर, स्वांत-सुखाय का संकल्प लेकर चले। कवि लोकतत्व को अपने काव्य में समाहित करते हैं लेकिन यह इतना आसान नहीं होता। लोक की अनुभूतियों में जीना पड़ता है। विश्व के सर्वश्रेष्ठ महाकाव्य लोकजीवन के राग-विराग का शाश्वत सत्य हैं। अपने अंचल से जुड़कर उसमें सृजन करना कवि की यथार्थवादी चेतना है। हिंदी साहित्य के प्राचीन एवं मध्यकालीन बहुतेरे प्रकृति प्रेमी साहित्य सृजकों ने अपने अंचल की सामाजिक संवेदनाओं को वैश्विक स्तर पर आदर्श रूप में प्रस्तुत किया है। आंचलिकता लोकतत्व का चित्रण कर, विद्यापति, कबीर, तुलसी, सूरदास, जायसी सहित आधुनिक-काल में भारतेंदु, केदारनाथ अग्रवाल, बाबा नागार्जुन और केदारनाथ सिंह आदि कवियों ने अपने काव्य के माध्यम  से, स्वानुभूतियों को लोकानुभूति बनाया है। इस श्रेष्ठ परिपाटी में प्रमोद कुमार तिवारी का काव्य लोकतत्व एवं आंचलिक संवेदनाओं को जीवंत करता है। प्रमोद की कविताओं में लोकतत्व एवं संस्कृति का नैसर्गिक सौन्दर्य बाँहें फैलाये ना केवल मनुष्य को बल्कि जीव-जन्तुओं को भी आलिंगनबद्ध करने का चिंतन प्रदान करता है। सम्पूर्ण प्राणी जगत में प्रेम का संगीत प्रसारित करता हुआ, इनका काव्य आधुनिक समाज को नैतिकता एवं मूल्य चेतना का पाठ पढ़ाता है, साथ ही अपने गाँवों के अंचल संस्कृति से जोड़ने का प्रयास करता है। इनकी कविताओं में आँचलिक जीवन की मार्मिकता विभिन्न कथाओं के माध्यम से प्रस्तुत हुई हैं। कवि अपने गाँव और समाज के प्रत्येक वर्ग,समुदाय एवं जाति के रीति-रिवाजों, परंपराओं, संस्कृति, उत्सव-त्योहारों आदि का सम्यक चित्रण करते हैं। 

बीज-शब्द: लोकतत्व,संस्कृति, बधिया, सितुही भर समय, ठेलुआ, आँचलिकता, लोक-चेतना, भोजपुरियत के थाती।

मूल आलेखभारत की संस्कृति गाँवों की मिट्टी में लोट-पोट होने पर ही मनुष्य को नैतिकता के रंगों की पहचान करवाती है।लोक एवं शास्त्र के तालमेल को गूंथकर आँचलिक अनुभूतियों का नवसृजन प्रमोद की कविताई विशेष रूप से करती है। गाँव से शहरी जीवन तक के यथार्थ को कवि ने स्वयं भोगा है और उसी को अपनी कविताओं में जीवंत कर दिया गाँवों के अपनत्व से लेकर शहर के अलगाववादी, रोबोटिक परिवेश में ये अपनी कविता के माध्यम से इन्द्रधनुषी रंग भरते हैं। हिंदी भाषा में लेखन के साथ-साथ, भोजपुरी भाषा में अंचल विशेष की चिरगहमा-गहमी इनक काव्य में मिलती है। इनको अनुभूत करते हुए मुझे रामधारी सिंह 'दिनकर'की पंक्तियाँ याद रही हैं-"कविता गाने नहीं, बिसूरने की चीज है। कविता ताली बजाने की नहीं, सुनकर अपने भीतर डूब जाने की वस्तु है। कविता आदमी का सुधार नहीं करती, वह उसे चौंकाना जानती है, धक्के देना जानती है, उसकी चेतना की मुँदी आँखों को खोलना जानती है। कविता सीढ़ियों नहीं छलाँगों की राह है।"1

            आज के मल्टीमीडिया युग की आपाधापी में मनुष्य के पास समय का अभाव बढ़ता जा रहा है। आज इन्टरनेट पर भिन्न-भिन्न रूपों में साहित्य परोसा जा रहा है, लेकिन इससे पुस्तकों को पढ़ने वालों की संख्या निरन्तर घट रही है जिनमें कविता पढ़ने वालों की संख्या में अधिक कमी आयी है हमारे आस-पास मौजूद सम्पूर्ण लोक की कथा-व्यथा, प्रमोद की कविता किसी बहाने से कह जाती है।

            वर्तमान में नई पीढ़ी को ऐसा साहित्य पढ़ने की आवश्यकता है जो हमें सीधे जनमानस से जोड़ता है। यह जुडा़व का कार्य केवल लोक-साहित्य कर सकता है। लोक के मर्मज्ञ कृष्णदेव कहते हैं कि "इतिहास की बड़ी-बड़ी पोथियों में लड़ाई-झगड़ों का वर्णन भले ही मिल जाये परन्तु किसी समाज की वास्तविक अवस्था को जानने के लिये उसके लोक-साहित्य का अनुसंधान वांछनीय है। आचार-विचार, खान-पान, रीति-रिवाज आदि का सच्चाचित्र देखने को मिलता है।"2 प्रमोद हमें नैतिक-सांस्कृतिक मूल्यों से जोड़ने का प्रयास करते हुए गाँवों की आदमियत से रू--रू करवाते हैं, जहाँ हमारी लोक संस्कृति साम्प्रदायिक सद्भावना का पाठ पढ़ाती नज़र आती है। इनकी कविता गाँवों के लोगों में सद्भावपूर्ण व्यवहार-कौशल का अंकन करती हुई समन्वय का संदेश देती है। 'कमरू चाचा बनाम कमरुआ' कविता में हिन्दू घरों में सभी के बाल काटने से लेकर, शादी-ब्याह सहित सभी मांगलिक कार्यों में मुस्लिम नाई कमरू चाचा की बहुत बड़ी भूमिका है। पूरे गाँव के चाचा हैं और सभी से आत्मीय जुड़ाव रखते हैं। यह कविता पढ़कर भावों का साधारणीकरण हुये बिना नहीं रहता, जहाँ मानवता गलबाहियाँ करती नज़र आती है कमरूचाचा केवल प्रमोद के गाँव वाले एक चाचा ही नहीं हैं बल्कि हमारे लोक में ऐसे बहुत से उदाहरण हैं। समय के साथ लोक की दृष्टि में बदलाव जाता है। प्रेम से गढ़े गये आत्मीय संबंध गौण रूप धारण कर लेते हैं, कवि लोक की व्यथा को इन पंक्तियों में स्पष्ट करते हुए कहते हैं - 

"कमरू चाचा बड़े इत्मीनान से 
नाखून-बाल काटकर बनाते हमें आदमी/..../
कमरू चाचा
कब कमरूद्दीन मियाँ
और कमरुआ हो गए
किसी को ख़बर नहीं हुई।"3

            गाँव के लोगों के दिलों में बिना हलचल किये, कब बदलाव की विषम लहर सभी के भीतर  पैठ गई, कुछ पता नहीं चला। समतामूलक कविमन बालक के समान सब देखता रहता है। इनकी कविता आँखों देखा हाल बयां करती है, कुछ कह जाती है, बहुत कुछ छुपा जाती है, बाकी पाठक पर छोड़ देती है। सामाजिक मर्यादाओं का बाना पहन कर बहुत सी बातें खुलकर  नहीं कह पाते हैं, वहाँ पाठक को एक साथ कई अर्थ निकालने पड़ते हैं। 'यादें' शीर्षक कविता में कवि कहते हैं कि यादें मनुष्य के जीवन का अटूट हिस्सा होती हैं। यादें शरीर में घुसे उस काँच  की तरह होती हैं जो दिखाई नहीं देता लेकिन अपनी सत्ता का अहसास हर पल दिलाता रहता है। अपन स्मृति पटल में संचित चित्रों को बिम्बों के सांचे में ढ़ाल कर कवि स्वयं को कटघरे में खड़ा पाते हैं और कहते हैं कि-

"पर लिखना मेरी जरूरत नहीं
मजबूरी है
जैसे/गहरा सदमा खाई स्त्री को
पीटकर रुलाना।"4

            लोकचेता साहित्यकार अपनी शिष्ट-संस्कृति के साथ लोक-संस्कृतिजन्य आँचलिकता का समावेश लोकमंगल के लिए करता है। कृष्णदेव उपाध्याय कहते हैं "लोकसंस्कृति से हमारा अभिप्राय जनसाधारण की उस संस्कृति से है जो अपनी प्रेरणा लोक से प्राप्त करती थी, जिसकी उत्सभूमि जनता थी और जो बौद्धिक विकास के निम्न धरातल पर उपस्थित थी।"5

            लोकतत्व हमारी जमीन का सहजीवी है। कविता में अपनी स्वानुभूति को लोकानुभूति का रूप देते हुए कवि कहता है कि- "कविता वह स्पेस है जहा खुलकर रो सकता हू या जहा चुप रहने का बैनर टंगा हो, वहां ठहाके लगा सकता हू, एक ऐसी जगह  जहा समझौते करने का कोई दबाव नहीं है या एक ऐसी जगह जहां तमाम प्रकार के दबावों के कारण झुकी हुई रीढ़ को सीधा करके सुकून पा सकता हू"6

            कविता में मनुष्य व्यष्टि बोध से समष्टि तक पहुचने की ऊर्जा प्रसारित करता है। वह मनुष्य समाज से ही नहीं संपूर्ण प्राणी जगत एवं प्रकृति से जुड़कर अपने भावों का साधारणीकरण कर देता है। इनकी कविता 'कवि की मुश्किल', शब्द और कवि', 'क्या तो कवि' में कवि-कर्म के कठिनत्तर दायित्व बोध को स्पष्ट किया गया है। प्रत्येक कविता बहुत सारी कथाएँ कहती चलती हैं 'शून्य और समय', 'सितुही भर समय ''माँ', 'दोस्त', 'यादें', 'डर', 'शोर' जैसी कविताए आज के भाग-दौड़ भरे युग में रिश्तों, परिवार एवं समय की बहुमूल्यता की ओर संकेत करती हैं। इनकी कविता हमें सीधे लोक से जोड़ने का काम करती हैं 'सितुही भर समय' में कवि कहते हैं कि-

"काश, गुल्लक में 
जमा कर पाते कुछ खुदरा समय
मुसीबत के समय निकाल
बगैर हाँफें चढ़ जाते बस पर"7

            इनकी सभी कविताए लोक की चितवृतियों का लेखा-जोखा व्यक्त करती नज़र आती हैं। प्रमोद ने 'सितुही भर समय'में लोकतत्व की अनुभूतियों ऊर्जावान संचयन िया है। लोक जीवन के मार्मिक पहलुओं, चरित्रों, प्रकृति और सौंदर्य-बोध की निराली छटा बिखेरती उनकी कविताओं में मानवतावाद सर्वोपरि है। कवि ने मनुष्य को आंचलिक संस्कृति एवं मिट्टी से जुड़ने का संदेश कविताओं के माध्यम से दिया है। नगरीय भावबोध को ओढ़े वह लोग जो अपने गाँवों से दूर जा चुके हैं, उनकी स्मृतियों में अपने गावों की यादें ताजा करने का संकल्प इनकी कविताओं में दिखाई देता है। मल्टीप्लेक्स शहरी जीवन की ओर संकेत मात्र करते हुए गा के संयुक्त परिवारों सहित सभी प्राणियों को आश्रय देने वाले घर पर लिखी 'बभनी' कविता में कवि स्मृतियों का सृजन करते हैं- 

"वह घर था
घर जिसमें
सभी सदस्यों के लिए होती थी पर्याप्त जगह 
कुत्ते, बकरी, बिस्तुइया से लेकर 
आन गांव से आने वाले
सारंगी बजाते बाबा तक के लिए।"8

            बचपन की स्मृतियों में बसे अपने गा का चित्रण करते हुए कवि ने कहा है कि परिवार के सदस्यों सहित संपूर्ण लोक में रहने वाले प्राणी पालतू पशु-पक्षी, आस-पास के गांव से आने-जाने वाले राहगीरों सहित, गरीब, जरूरतमंद लोगों की मदद भी गा के लोग करते थे। वे सभी को अपने परिवार का सदस्य मानकर, उनकी सेवा के लिए तत्पर रहते थे। मनुष्य की संवेदनाएं बहुत नाज़ुक होती हैं, वह सुंदर भावों का सृजन करती हैं, सहज-सरल सौम्य जीवन में ही मूल्यों का लोक बसता है। आचार्य शुक्ल कहते हैं -"मनुष्य की प्रवृत्तियों की तह में अनेक प्रकार के भाव ही प्रेरक के रूप में पाए जाते हैं। शील या चरित्र का मूल भी भावों के विशेष प्रकार के संगठन में ही समझना चाहिए, लोक-रक्षा और लोक-रंजन की सारी व्यवस्था का ढाँचा इन्हीं पर ठहराया गया है।"9

            प्रमोद की कविताओं को जब पढ़ते हैं तो गा-देहात के कई विषय-प्रसंग उनमें एक साथ चलते दिखाई देते हैं, जो अपनी चित्रात्मक उपस्थिति दर्ज वाते प्रतीत होते हैं। कविता में लोक का चिंतन है, साथ ही प्रकृति एवं प्राणी मात्र के प्रति सहज रहना इनकी कविता का गुण-धर्म है। कविता की सादगी सर्वत्र एक सहज लोक का निर्माण करती प्रतीत होती है। कवि ने मुक्त भाव का रस काव्य में घोल दिया है। आचार्य शुक्ल कविता क्या है? निबंध में कहते है -"जिस प्रकार आत्मा की मुक्तावस्थाज्ञानदशाकहलाती है। उसी प्रकार हृदय की यह मुक्तावस्थारसदशाकहलाती है। हृदय की इसी मुक्ति की साधना के लिए मनुष्य की वाणी जो शब्द विधान करती आयी है, उसे कविता कहते हैं।....कविता ही मनुष्य के हृदय को स्वार्थ-संबंधों के संकुचित मंडल से ऊपर उठाकर लोक-सामान्य भाव-भूमि पर ले जाती है।"10 

            'फागुन' कविता के माध्यम से ऐसी नवविवाहिता स्त्री के मनोभावों का चित्रण कवि ने किया है जिसका पति आजीविकापार्जन हेतु घर से दूर कमाने परदेश चला जाता है, प्रिया का विरही-मन प्रतिपल संयोग की बेला में विचरण करने चला जाता है -

"किसके सवांग नहीं जाते बाहर
पडा़ रहने दो
खेत को रेहन
नहीं चाहिए मुझे चापाकल
ढो लूँगी सिवान के कुएँ से पानी"11

            वह घर के काम-काज में ही व्यस्त रहने का प्रयास करती है और अपने भावों  को संयमित रखत हुये पति की स्मृतियों में ही पूरा दिन बीता देती है। फागुन का महीना प्रेमिल भावों में उद्दीपन का कार्य करता है। यह लज्जा एवं मर्यादा का भाव हमारे भारतीय लोक में सर्वत्र व्याप्त है। प्रेम एवं रोमांस की प्रवृत्ति यादें, हंसी, चेहरा, खाली प्लेटफार्म, फागुन गया क्या?, होना, क्या तो अर्थ आदि कविताओं में मिलती है। सभी कविताओं में नवीन उपमानों एवं प्रतीकों को नये सांचे में ढाल कर गढ़ना "भोजपुरियत के थाती" नाम से प्रसिद्ध प्रमोद की दीगर उपलब्धि है।

            'खा़ली प्लेटफ़ार्म' एक छोटी सी कविता है, लेकिन जीवन का एक अध्याय जो मनुष्य के ह्रदय में हमेशा के लिए प्रेम का बीज-वपन कर व्यक्ति को नवीन राग-विराग से जोड़ने का कार्य करता है, बखूबी नज़र आता है-

 "थी मेरी जिदंगी
एक खा़ली प्लेटफार्म
तुम किसी ट्रेन की तरह आईं 
 और रह गया
 खा़ली प्लेटफार्म।"12

            प्रकृति लोक के प्राणों में रचती-बसती है। लोकतत्व के संदर्भ में डॉ.सत्येंद्र कहते हैं कि "लोक तत्व जीवन व्यापी है और प्रत्येक मानव में उसके जन्म से ही बद्धमूल है। ये उसकी प्रकृति के ही अंग हो गए हैं।"13

            कवि ने गावों की संजीदगी को वहाँ के रीति-रिवाजों, उत्सव-पर्व आदि के माध्यम से प्रस्तुत किया है। 'इनार का विवाह' शीर्षक कविता में प्रकृति एवं मनुष्य की प्रजनन क्षमता में वृद्धि के साथ-साथ पानी बचाने का संदेश लोक में प्रचलित विभिन्न पारम्परिक आस्थाओं के आधार पर प्रस्तुत किया है। इनार 'कुआँ' को कहते हैं कुआँ की शादी लकड़ी से बन दुल्ह ('कलभुत') से करवायी जाती है। औरतें ढोलक की थाप के साथ गीत गाती हुई इनार की ओर जाती है। कुंवारे कुंऐ का पानी नहीं पिया जाता, इस कारण उसका विवाह किया जाता है-

"कि भूल कर भी नहीं पीना चाहिए
 कुँआर इनार का पानी
 विवाह से पहले
नए लकड़ी के बने 'कलभुत'(दुल्हा) को
 विधिवत् लगाई गई हल्दी।"14

            लोकतत्व का सुन्दर दृष्टांत 'दइतरा बाबा' कविता में दिखाई देता है। लोक संस्कृति की खुशबू से सराबोर 'दइतराबाबा' कविता में कवि ने लोक द्वारा निर्मित आस्था के केंद्र, देवताओं का चित्रण कर अपने अनुभव को जीवंत किया है। ग्रमीणों के लोकदेवता भी अलग होते हैं। वे सर्वहारा के देवता है, वहाँ जातिवाद-क्षेत्रवाद भी हावी है, वहाँ के लोगों  के आर्थिक हालातों का मुआयना उनके लोकदेवता कर लेते हैं। अन्धविश्वासों को ओढ़े हुए लोग अपने ब्रह्मबाबा के अनुसार कार्य करते हैं। लोकदेवता आस्था का केन्द्र होते हैं-

"ग़ज़ब के बाबा है ये
 कई बार राहगीरों को रोक
माँग लेते हैं खैनी
यूँ बाबा भी जानते हैं
खैनी और लँगोटी से ज़्यादा
देने को है ही क्या
उनके भक्तों के पास"15

            'कौवे की काँव' कविता गाँव की सकारात्मक ऊर्जा एवं शगुन-शास्त्र के अनुरूप जब घर की मुंडेर पर कौवा बोलता है तो बहुत शुभ माना जाता है और उसके लिए भाँति-भाँति के उपमान गढ़े जाते हैं, आवभगत की जाती है। कोई उसे बिना खीर-मिष्ठान खिलाये जाने नहीं देता। कवि ने शानदार बिम्बों के माध्यम से लोक को जीवंत कर दिया है-

"अपने हिस्से का प्रसाद खिलाया
शोख़ रमवतिया ने
चुपके से 
रँगे हाथ पकड़ी गई
रामदई काकी
सोना से चोंच मढ़वाने की रिश्वत देती।"16

            भारतीय लोकपरंपरा में प्रियतम के आने का संदेश देने वाले कौवे के प्रति अगाध प्रेम आस्था को यह कविता प्रकट करती है। लोक के ह्रदय में महकने वाली एक मुक़म्मल सौन्दर्यानुभूति इनकी कविताओं का वितान है। रामस्वरूप चतुर्वेदी कहते हैं कि -"नयी कविता का संबंध शुरू से ही मानव जीवन की सामान्य-सी दिखने वाली घटनाओं और स्थितियों से रहा है। प्रगतिवाद जहाँ घोषित रूप से किसान-मजदूर का पक्षधर है, नयी कविता वहाँ चुपचाप मामूली आदमी की आम स्थितियों का चित्रण करती है। इसलिए एक में आवेग की प्रधानता है तो दूसरी में संसक्ति की।"17 

            लोक का एक पक्ष गावों की औरतों की गालियाँ भी प्रकट करतीहैं। स्त्रियाँ आकंठ डूबकर गाली गाती हैं और इस कार्य में उन्हें असीम सुख मिलता है। लोक परम्पराओं के अहाते में अपने दुखों को विस्मृत कर देने वाली गालियाँ शादी-ब्याह एवं अन्य उत्सवों में गायी जाती है। कवि ने यहाँ लोक का अपना अनुभव साझा किया है-

"खेतों खलिहानों तक फैलते जा रहे थे
 गालियों के सुर
जाने क्या जादू था गाली में
 कि सासू की मार भूल गई फुलमतिया
 नये पाहुन को गरियाने का आमंत्रण पा कर।"18

            जहाँ प्रकृति सहचरी है, प्रेम है, तप है, सौन्दर्यमयी और अमृतदायिनी शक्ति है वहीं आधुनिक बनने की नकल में हम अपने उस प्रेम से विमुखीकरण चाहते हैं। हमारी उड़ान उन संवेदनाओं से परे की रह गई है।

            प्रकृति हमारे लोक को बचाने की मुहिम  में प्रमोद  ने सड़क पर बहुत कविताएँ लिखी हैं। सड़क यहाँ स्त्री का प्रतीक है जो हमेशा से रोंदी और कुचली गई है। स्त्रियों का यह शोषण पुरातन से कुछ अलग रूप लेकर आया है जहाँ उसे आधुनिक बना दिया गया है। आधुनिकीकरण या कहें कि विकास के नाम पर जो प्रकृति का दिनों-दिन दोहन बढ़ रहा है उसका पूर्ण निरूपण इन कविताओं में किया गया है। गहरी चोट खाई आहत संवेदनाओं के साथ उनका सोचना है कि हम अपनी जमीन से बहुत दूर जा रहे हैं। आधुनिक होने के साथ हम प्रेम से रिक्त हो चुके रिश्तों को मजबूरी में चला रहे हैं। वे कहते हैं कि सड़क के नीचे की जमीन  कसमसाती हुई घुटन महसूस करती है और उसे अपने हरे खेतों की याद सताती रहती है। सड़क की अभिव्यक्ति में ये कहते हैं-

"दिनों दिन मोटी होती जाती है सड़कें
अपने अकेलेपन में डूबी
जमीन सोचती है
लोगों को जमीन की नहीं
बस सड़कों की जरूरत है।"19

            'सड़क पर प्रेम' कविता को मात्र एक कविता भर कहना उचित सा नहीं लगता, सड़क यहाँ स्त्री का प्रतीक है। जिस पर गुजरने के सपने पुरूष देखते हैं। सड़क वाली स्त्री से मात्र स्वच्छंद प्रेम, जो केवल आकर्षण की आंशिक पूर्ति मात्र होता है। सड़क को स्त्री सरीखा बताते हुए ये कहते हैं कि-

"सड़क वाली स्त्री से प्रेम करने आते हैं मर्द
इस तरह/ कि सड़क को पता न चले
इस बात से बेखबर
कि सड़क भी स्त्री है।
खुल कर प्रेम करती स्त्रियों को
जब सड़क बताने पर तुला होता है समाज
चकित होती है सड़क।"20

            सड़क को लेकर लोकसंवेदना से जुड़ी बहुत सी कविताएँ इन्होंने लिखी हैं। नये युग में कामयाबी की ऊँचाई पर चढ़कर जब हमअपने मूल को देखते हैं तो वह कहीं गहरी खाई में ज़र्जर सा नज़र आता है। प्रमोद ने अपनी कविताओं में सामंती मूल्यों एवं पूँजीवादी सोच के विरुद्ध व्यंग्यात्मक प्रतीकों के आश्रय में मजदूर श्रमिक समाज के यथार्थ का प्रस्तुतिकरण किया है। सर्वहारा की भावभूमि उदात्तता से सिंचित रहती है, इनके सत्य एवं न्याय का सर्वदा दमन होता है। शोषण चक्र में पिसते-पिसते ये जीवन से कुंठाग्रस्त हो जाते हैं। कवि ने 'ठेलुआ' कविता के माध्यम से समाज के निम्न-वर्ग का सूक्ष्म बिम्बात्मक चित्रण किया है। प्रगतिवादी चेतना से ओत-प्रोत 'ठेलुआ' 'बधिया' कविता बाबा नागार्जुन की याद ताजा कर देती है। 'ठेलुआ' कविता पढ़कर महसूस हुआ जैसे मेहनत-मजदूरी करने वाले लोगों के लिए उनके नाम रखने के कोई मायने नहीं हैं। मजदूर वर्ग अपने कर्म को ही महत्व देता है, नाम की सार्थकता इनके लिये अनावश्यक-सी है। 'बधिया' कविता में जातिवाद पर व्यंग्य सहित विवश मजदूर वर्ग की पीड़ा को उभारा गया ै। ज़मींदार की नृशंसता से प्रतिभाओं का दमन पूँजीवाद द्वारा किस प्रकार किया जाता है? कवि सर्वहारा के आत्मीय रूदन को 'बधिया' कविता  के माध्यम से प्रस्तुत कर रहे हैं, यहाँ लोक की विवशता दमन की पीड़ा से कराह उठती हैं जिसे कवि व्यक्त  कर रहे हैं-

"किसी तरह अंडकोश कुटवा दो इसका
सब ठीक हो जाएगा
कुछ समझा नहीं मालिक
अरे बुड़बक
एक मानसिक अंडकोश भी होता है।"
21

            जिस प्रकार से छड़े का बधिया करवाकर उसकी ताकत को समाप्त कर दिया जाता है, उसी तरह से गा के मजदूर का बच्चा जब आगे पढ़ने की बात करता है तो जमींदार उसका मानसिक रूप से बधिया करवा देने की बात करता है ताकि अपने पूर्वजों की तरह वह भी मजदूर बना रहे।

            स्त्री मन के अनछुए भावों को कवि बहुत मार्मिक अभिव्यक्ति देते हैं। कवि ने स्त्री जीवन के अनेक पहलुओं का प्रकटीकरण कविताओं में किया है, जिनमें 'माँ', 'दीदी', 'जीभ थी ही नहीं तो कटी कैसे? ''फसल औरतें और गीत', 'जे.एन.यू. की लड़की' कविताएँ शामिल हैं। इनमें स्त्री जीवन के भिन्न-भिन्न पहलुओं को प्रकट करते हुए चूल्हे-चौके से लेकर खेतों में काम करती हुई स्त्री नज़र आती है। शिक्षा के क्षेत्र में क्रांतिकारी प्रदर्शन करती स्त्री एवं किसान ललना के रूप में खेत-खलियानों में श्रम करती स्त्री के भावों को यहाँ आधार बनाया है। समाज द्वारा जबरन डायन घोषित हुई स्त्रियों को दर्शाकर महिलाओं में संवेदनशील चेतना जागृत करने का संदेश प्रेषित किया है सोनभद्र जिले, उत्तर प्रदेश के करहिया गाँव की उस जागेश्वरी के लिए कवि एक व्यंग्यात्मक कविता लिखते जिसकी जीभ पंचायत में 3 अगस्त,2010 को काट दी गई हमारा लोक ऐसी कुप्रथाओं से संघर्ष करता नज़र आता है, इसी का एक उदाहरण यहाँ मैं रख रही हूँ-

"इन पंचों के पूर्वजों के पूर्वजों ने
सदियों पहले कर दी थी व्यवस्था
साफ़ बात है
जब जीभ थी ही नहीं
तो कटी कैसे
ये सब साज़िश है
पंचपरमेश्वरों
और सभ्य पुरुषों को
बदनाम करने की।
22

            इन पंचों के पूर्वजों से चली रही लोक-रूढ़िया, सामाजिकता की जकड़न, अंधविश्वास, झाड़-फूंक, स्त्री विमर्श का रूप जिसमें नारीमन की पीड़ा, पुरुष प्रधान समाज द्वारा निर्मित बेड़ियों को काटने के निरर्थक से अथक प्रयास स्त्री-मन की वेदना को रौंदते दिखाई देते हैं। स्त्री जीवन में पौरुष का अट्टाहास सर्वत्र सुनाई देता है। समाज के रूपक स्त्रियों को पीड़ा देने के लिए ही बने हैं। सदियों से मौन रहने वाली स्त्री सत्य बोलने का निरर्थक प्रयास मात्र भी नहीं कर सकती 'जीभ थी ही नहीं तो कटी कैसे?', 'इनार का ब्याह 'कविता में मारे आस-पास रहने वाली स्त्रियाँ ही हैं जो घरों में कैदी का जीवन व्यतीत करती हुई हमारे गा-गुवाड में ही डायन की पदवी धारण करने लेती हैं। प्रमोद की कविताओं के स्त्री पात्रों में खेत खलिहानों में श्रम से थक कर गीत गाने वाली स्त्रियाँ, सड़क किनारे पत्थर तोड़ती स्त्रियाँ, चूल्हे के पास धुएं के बहाने अपनी पीड़ा खों से बहाती स्त्रियाँ और स्वतंत्र होने के सपने देखने वाली स्त्रियाँ ती हैं। इनकी कविताओं में आंचलिक परिवेश के पात्र, उसी के अनुरूप उनके नामकरण, अनुकूल बिम्ब एवं लोकभाषा के रंग सर्वत्र बिखरे पड़े हैं।

            'जे एन यू की लड़की' कविता स्त्री के मुक्त रहने के सपने एवं सदियों के शोषण की कथा कविता के बहाने बयां करती है। राजधानी की सदियों पुरानी' चीरहरण' जैसी भयावह घटनाओं का सिलसिला आज तक किसी ना किसी रूप में बना हुआ है। आज महिला पूर्णतः सशक्त है, आत्मनिर्भर है, वह जिम्मेदारी नहीं बल्कि जिम्मेदार बनकर अपने परिवार का भरण-पोषण करती है। महिला सशक्तिकरण को जीवंत करती कविता में प्रमोद तिवारी कहते हैं कि-

"तन कर खड़ी थी मंच पर
लगा दादी ने ले लिया बदला
जिसकी कमर टेढ़ी हो गई थी
रूढ़ियों के भार से।"
23

            'फसल औरतें और गीत' कविता में महिलाओं के श्रम का आंकलन आनंद एवं उल्लास के रंगों में रंग कर किया है खेतों में काम करने वाली स्त्रियाँ गीत गाकर अपनी पीड़ा बाँटती नज़र आती हैं। ससुराल में प्रताड़ना झेलती स्त्रियों का मानसिक रूदन उनके ह्रदय से संगीत की स्वरलहरी को जन्म देता है, मानो राग-विराग के वे सुर एक साथ मिलकर सदियों की दासता को ललकार रहे हो लेकिन उनकी आवाज कभी रुंधे कंठ से तो कभी नगाड़े के रूप में सस्वर सुनाई देती है। हमारे लोक में स्त्रियों संबंधित बहुत सी रूढ़ियाँ गाँव-देहात में आज भी जस की तस है। कुछ पंक्तियाँ हम देखते हैं, जहाँ मुझे लगता है कवि उन स्त्रियों के साथ उनके दर्द का गीत गा रहे हैं --

"कि कैसे रोपी जा रही हैं उसकी सहेलियाँ
नइहर से उखाड़कर
अपेक्षाओं से लदे ससुराल में
भारी काम के लंबे दर्द को
हर रहा है गीतों का सुरीलापन
मरहम लगा रहे हैं
सदियों की दासता को आवाज़ देने वाले शब्द।"
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            यहाँ चोट खाई हुई बेबस और आहत प्रत्येक उस स्त्री का गान है जो हमारे लोक में सदियों से बंदिनी का जीवन व्यतीत कर रही है। आज हमारा देश बहुत तरक्की की दौड़ में है, महिलाओं की स्थिति बहुत सम्मानजनक है, इसके बावजूद भी गाँव-देहात, जहाँ हमारा बचपन बीता है वहाँ आज भी महिलाएँ दासत्व की पीड़ा हर दिन भोगती हैं। प्रमोद कुमार तिवारी की कविताई जन-मन की महिमा का गायन करती है। कवि अपने बालपन की स्मृतियों से युवा होने तक के सभी पायदानों से गुजरते हुए लोक के अनुभावित सौन्दर्य का अभिभूतिकरण कर उसे मानव ह्रदय से अनुस्यूत करते हैं। 

निष्कर्ष: लोक-चिंतन एवं लोक-संस्कृति के प्रति गहरी रुचि रखने वाले प्रमोद तिवारी ने यथार्थ के धरातल से जुड़ी अपनी कविताई में सामाजिक उलझनों को सुलझाने का प्रयास किया है। लोक का आनंद देशीपन एवं खरी-खरी में ही सुकून देता है। प्रगतिशील चेतना की पताका को फहराती हुई इनकी कविताएँ समाज के प्रत्येक वर्ग को शोषण से मुक्ति का स्वप्न दिखाती है, जिनमें सामाजिक समानता का स्वर प्रमुख है, जिसे कवि ने बखूबी प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से प्रस्तुत किया है। शोषण के प्रति आक्रोश अनुभूतिजन्य है। ठेलुआ, जीभ थी नहीं तो कटी कैसे? जैसी कुछ कविताएँ हैं, जो वर्ग विशेष के साथ ही उनके साथ होने वाले अन्याय के प्रति संवेदनशील बनाती हैं भाषा में सहजता का गुण सर्वत्र व्याप्त है, कवि की भाषा में कहीं भी आडंबर का लेश मात्र नज़र नहीं आता। देशज शब्दों की मौजूदगी भाव को और अधिक संवेदनशील रूप प्रदान कर, पाठक के समक्ष मीनी हकीकत को प्रस्तुत करने में कारगर साबित हो रही है। इनकी कविताओं में उक्ति-वैचित्र्य के दाहरण है, साथ ही भोजपुरी के शब्द ठेठ रूप में प्रस्तुत हुए हैं भाषा सहज रूप से मानव मन की अनकही को प्रभावी ढंग से प्रकट कर जाती है। कहीं-कहीं भोजपुरी अंचल के शब्द, अर्थ में दुरुहता पैदा करते हैं। पारंपरिक-उत्सव, लोकगीत और प्रकृति चित्रण अधिकांश कविताओं में होने के कारण प्रतीकात्मकता और मानवीकरण से सौन्दर्य में वृद्धि हुई है। कविता की भाषा प्रतीकों, बिंबों सहित नये मुहावरे एवं लोकोक्तियों के सहयोग से रोचक और व्यापक अर्थ प्रदान करने वाली है, जितना उनकी कविता शब्द-बद्ध प्रतीत होती है उससे कहीं ज्यादा अर्थ प्रकट करती नज़र आती है। पाठक के समक्ष बहुत जगह ठेठ-देशीपन से  बोधगम्यता बाधित होती है लेकिन हमारा लोक से गहरा जुड़ाव है, हम सभी जमीन से जुड़े हुए हैं इसलिए शब्दों का ठेठ देशीपन होने पर भी पाठक वहाँ तक पहुँच जाता है।

            भाव चेतना के सहज प्रतीकों, बिम्बों, मिथकों एवं रूपकों के माध्यम से प्रकृति को अपनी प्रेरक-आराध्या बनाकर, लोक को अपनी संवेदनाओं से कवि ने रू--रू करवाया है लोकचेता साहित्यकार अपनी शिष्ट-संस्कृति और लोक-संस्कृति के तत्वों का समावेश सदैव लोकमंगल के लिए करता है, इसी परिप्रेक्ष्य में प्रमोद तिवारी का काव्य-चिन्तन गहन आत्म-विश्लेषण के क्षणों का परिणाम है, जो युवा पीढ़ी को संवेदनशील बनाने में मददगार साबित होगा। इनके साहित्य में मात्र भोजपुरी लोक ही नहीं अपितु समस्त लोक की संस्कृति और संस्कारों के शंखनाद सहित मिट्टी की अंतरंग खुशबू मानवतावाद का संदेश प्रेषित कर रही है। 

संदर्भ :
1.रामधारी सिंह'दिनकर'- शुद्ध कविता की खोज, उदयादित्य प्रकाशन, आर्यकुमार रोड़, पटना, प्रथम संस्करण- मार्च,1956, पृष्ठ संख्या- 17
2.कृष्णदेव- भोजपुरी  लोक-साहित्य  का अध्ययन, हिन्दी प्रचारक पुस्तकालय, मान मन्दिर, वाराणसी, संस्करण-1960, पृष्ठ संख्या- 3
3. प्रमोद कुमार तिवारी- 'सितुही भर समय'(कविता संग्रह), साहित्य अकादेमी प्रकाशन, नई दिल्लीप्रथम संस्करण-2016 पृष्ठ संख्या- 107-109
4. वही, पृष्ठ संख्या-30
5.पं. राहुल सांकृत्यायन, डॉ. कृष्णदेवउपाध्याय,संपा. हिन्दी साहित्य का वृहत् इतिहास, भाग-16, नागरी प्रचारिणी सभाकाशी, संवत्- 2017, पृष्ठसंख्या- 4
6.प्रमोद कुमार तिवारी-'कुछ कविताएँ कुछ बात, कविता में होना'आलेख से, 'अपनी माटीपत्रिकाचितौड़गढ़,1 नवंबर, 2021
7.प्रमोद कुमा तिवारी - 'सितुही भर समय'(कविता संग्रह), साहित्य अकादेमी प्रकाशन, नई दिल्लीप्रथम संस्करण-2016 पृष्ठ संख्या- 21
 8.वही, पृष्ठ संख्या- 65-66
9.. रामचंद्र शुक्ल- चिन्तामणि- भाग-1, अनु प्रकाशन, जयपुर, संस्करण-2004,पृष्ठ संख्या-2
10. वही पृष्ठ संख्या-82
11.प्रमोद कुमार तिवारी - 'सितुही भर समय'(कविता संग्रह), साहित्य अकादेमी प्रकाशन, नई दिल्लीप्रथम संस्करण-2016 पृष्ठ संख्या- 38
12.वही, पृष्ठ संख्या-34
13.डॉ. सतेन्द्रलोकसाहित्य विज्ञान- शिवलाल अग्रवाल एण्ड कम्पनी, आगरा, प्रथम सं. 1961, द्वितीय संशोधित संस्करण- 1971, पृष्ठसंख्या- 47
14.वही, पृष्ठ संख्या-97
15.वही, पृष्ठ संख्या-63
16.वही, पृष्ठ संख्या-17
17.चतुर्वेदी रामस्वरूप - 'नयी कविताएँ: एक साक्ष्य', लोक भारती प्रकाशन, इलाहाबाद। चतुर्थ संस्करण- 2015, पृष्ठ संख्या- 16
18.प्रमोदकुमार तिवारी- सितुही भर समय, पृष्ठ संख्या-50
19.राकेश बिहारी-संपादक- पुस्तकनामा, वार्षिकी: 2023, चेतना का देशराग (प्रमोद कुमार तिवारी की कविताएँ- सड़क पर प्रेम) पृष्ठ संख्या-161
20. वही, पृष्ठ संख्या-161
21.वही, पृष्ठ संख्या-76
22.वही, पृष्ठ संख्या-47
23.वही, पृष्ठ संख्या-27
24.वही, पृष्ठ संख्या-102

  

डॉ. रेखा शेखावत
सहायक प्रोफ़ेसर, हिन्दी, राजकीय स्नातकोत्तर,महाविद्यालय सतनाली, महेंद्रगढ़, हरियाणा।
 
चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक ई-पत्रिका 
  अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-52, अप्रैल-जून, 2024 UGC Care Listed Issue
सम्पादक-द्वय : माणिक-जितेन्द्र यादव चित्रांकन  भीम सिंह (इलाहाबाद विश्वविद्यालय)

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