- काजल
शोध
सार : 'आईनासाज़'
का
अर्थ
है
'आईना बनाने वाला'
या
'दर्पणकार'।
प्रश्न
उठता
है
कि
उपन्यास
का
नाम
'आईनासाज़' ही
क्यों?
वर्तमान
को
मध्यकालीन
आईने
में
देखने
का
जो
सिलसिला
अनामिका
ने
शुरू
किया
है;
वह
अपने
आप
में
विशेष
स्थान
रखता
है।
अनामिका
ने
दो
अलग-अलग
कालखंडों
के
माध्यम
से
अतीत
और
वर्तमान
को
एक-दूसरे
के
समक्ष
रखकर
जीवन
के
सामाजिक-राजनीतिक
दांवपेंचों
को
खूबसूरती
से
रेखांकित
किया
है। उपन्यास
में
मध्यकाल
को
उपन्यासिका
के
रूप
में
लिया
गया
है,
जिसमें
मध्यकाल
एवं
आधुनिक
काल
को
एक-दूसरे
के
बरक्स
दो
कालों
के
बीच
मौजूद
स्त्री
जीवन
की
स्थिति
पर
प्रकाश
डाला
गया
है।
अनामिका
के
जीवन
अनुभवों
एवं
सामाजिक
अनुभूतियों
का
अद्वितीय
चित्रांकन
हमें
‘आईनासाज़’ में
देखने
को
मिलता
है।
सूफ़ी
भाव
से
ओतप्रोत
यह
रचना
अनेक
विधाओं
को
अपने
में
समेटे
हुए
है।
कविता,
शायरी,
पत्र-शैली
के
माध्यम
से
कहानी
अपने
उद्देश्य
को
सिद्ध
करती
हुई
आगे
बढ़ती
है।
आईनासाज़
उपन्यास
जहां
सभी
युग,
धर्म,
जाति,
लिंग,
वर्ग
और
संप्रदाय
से
परे
मानवता
की
स्थापना
पर
बल
देता
है,
वहीं
यह
हिंदू-मुस्लिम
सभ्यता
और
संस्कृति
में
व्याप्त
स्त्री
शोषण
के
महीन
धागों
को
भी
चिह्नित
करने
से
नहीं
चूकता।
स्त्री
किस
प्रकार
हर
युग
में
पुरुषवादी
सोच
का
शिकार
होती
है
इसकी
बखिया
उधेड़ने
तथा
सूफ़ी
रिश्तो
के
माध्यम
से
एक
चटाई
पर
बैठ,
सभी
भेदभावों
और
मनमुटावों
को
मिटाने
का
संदेश
देता
है।
उपन्यास
में
मध्यकालीन
एवं
आधुनिक
परिवेश
में
स्त्रियों
की
पारिवारिक,
सामाजिक
एवं
राजनीतिक
स्थिति
को
चित्रित
किया
गया
है।
मध्यकाल
में
खुसरो, पद्मावती, कायनात
और
आधुनिक
काल
में
सपना
जैन,
ललिता
चतुर्वेदी,
सरोज
किंडो
एवं
श्यामा
मुखर्जी
के
माध्यम
से
स्त्री
के
सार्वभौमिक
सत्य
को
समझने
का
प्रयास
किया
गया
है।
पात्रों
के
माध्यम
से
सूफी
मन
लिए
हुए
स्त्री-पुरुष
प्रेम
संबंधों
का
संदेश
देती
यह
रचना
वर्तमान
में
अपना
विशिष्ट
स्थान
रखती
है,
जिसका
क्रमवार
विश्लेषण
किया
गया
है।
बीज
शब्द : स्त्री
अस्मिता, मध्यकालीन एवं
आधुनिक
परिवेश, स्त्री
की
राजनीतिक
और
सामाजिक
स्थिति, स्त्री
की
सांस्कृतिक
और
आर्थिक
स्थिति।
मूल आलेख
: अस्मिता को यदि
सामान्य
अर्थ
में
समझें
तो
इसका
मतलब
है
‘स्वयं की पहचान’।
अस्मिता
संबंधी
विचारधारा
वर्तमान
परिवेश
की
देन
है,
जब
मनुष्य
पर
पहचान
का
संकट
घिरने
लगा,
तब
अस्मिता
संबंधी
विमर्श
अस्तित्व
में
आए।
अस्मिता
शब्द
‘अस्मि’ से बना
है
अर्थात्
‘मैं हूं’।
अनामिका
अपने
लेख
में
लिखती
हैं
“‘अस्मि’ का मतलब
ही
है
‘मैं हूं’-मैं
भी
हूं-जरा
देखो
इधर
‘हम भी मुंह
में
जबान
रखते
हैं/
कोई
पूछे
कि
मुद्दा
क्या
है
…’पर ‘मैं हूं’
का
व्यंजनात्मक
विस्तार
‘मैं हूं न’
का
आश्वासन
देता
हुआ
पत्ता-पत्ता, बूटा-बूटा
सोच
आता
है।
अस्मिता
आंदोलन
में
भी
स्त्री-आंदोलन
ने
अपने
‘अस्मि’ की परिधि
हमेशा
विराट
रखी।
छठे
दशक
में
निःशस्त्रीकरण
का,
सातवें
में
नेग्रिच्यूड
का,
आठवें
में
सिविल
राइट्स
का,
नवें
में
भूमंडलीकरण
और
पर्यावरणगत
समस्याओं
का
बृहत्तर
मुद्दा
स्त्री
आंदोलन
के
आंचल
तले
ही
पला।”1
यदि
‘आईनासाज़’ उपन्यास
के
संदर्भ
में
मध्यकाल
एवं
आधुनिक
परिवेश
का
विश्लेषण
करें
तो
पायेंगे
कि
दोनों
ही
अपने
युग
में
महत्वपूर्ण
स्थान
रखते
हैं।
एक
ओर
मध्यकाल
के
केंद्र
में
जहां
धर्म,
ईश्वर,
राजदरबार
एवं
राजाओं
का
शासन
था।
सामान्य
जनता
का
जीवन
धर्म
से
संचालित
होता
था।
मानवजीवन
के
केंद्र
में
ईश्वरीय
भय
काम
कर
रहा
था।
जनसामान्य
का
जीवन
राजाओं
की
कृपा
दृष्टि
पर
निर्भर
करता
था।
वहीं
आधुनिक
काल
में
धर्म
का
स्थान
विज्ञान
ने
ले
लिया।
मनुष्य
अपनी
बुद्धि
के
अनुसार
कार्य
करने
लगा।
ईश्वर
की
जगह
मनुष्य
का
जीवन
केंद्र
में
आ
गया।
भूमंडलीकरण,
बाज़ारवाद
एवं
सूचना
क्रांति
ने
मनुष्य
के
जीवन
को
चहुमुखी
विस्तार
दिया।
मध्यकाल
में
शासन
की
शक्ति
राजाओं
के
हाथ
में
थी,
सामान्य
जनता
राजा
के
अधीन
थी
जबकि
आधुनिक
काल
में
लोकतांत्रिक
व्यवस्था
के
तहत
लोगों
का
शासन,
लोगों
द्वारा
शासन,
लोगों
के
लिए
शासन
पर
निर्भर
करता
है।
अतः
सत्ता
एवं
शक्ति
का
विकेंद्रीकरण
हुआ
जिससे
तानाशाही
एवं
सामंती
व्यवस्था
का
विघटन
हुआ।
मध्यकाल
में
खुसरो
खड़ी
बोली
के
सबसे
चर्चित
एवं
लोकप्रिय
कवि
थे
“उनके बहत्तर वर्ष
लंबे
जीवन
में(1253-1325)
दिल्ली
के
इस
युग
के
सतत्
डगमगाते
तख्त
पर
आठ
दस
सुलतान
आए
गए
और
कमाल
की
बात
है
कि
खुसरो
सभी
के
चहेते
बने
रहे।
जो
भी
नया
बादशाह
आया,
उसकी
तारीफ़
में
मसनवी
(अर्थात् सिर्फ छोटी-मोटी
स्तुति
वंदना
या
क़सीदा
नहीं
बल्कि
पूरा
महाकाव्य)
रचने
में
उन्होंने
कोताही
नहीं
की।”2
अनामिका
ने
खुसरो
के
ऐतिहासिक
जीवन
को
आधार
बना
कल्पना
मिश्रित
सचरित्र
खुसरो
की
छवि
गढ़ी
है।
हालांकि
यह
सर्वविदित
है
कि
खुसरो
न
सिर्फ
खड़ी
बोली
हिंदी
के
प्रथम
प्रयोगकर्ता
थे
बल्कि
कला
एवं
संगीत
प्रिय
कवि
भी
थे।
वे
कई
वाद्ययंत्रों
(कव्वाली, सितार, रागरागिनी)
के
आविष्कर्ता
थे,
किंतु
अफसोस
की
बात
है
कि
इसका
कोई
ऐतिहासिक
प्रमाण
नहीं
मिलता।
अनामिका
ने
बिना
किसी
लाग-लपेट
के
अपने
मन
का
खुसरो
गढ़ा
है,
जो
जनप्रिय
कवि
होने
के
साथ-साथ
एक
सहृदयी
पति,
पिता
एवं
गुरु
हैं।
अमीर
खुसरो
कला
प्रेमी
होने
के
कारण
स्त्रियों
के
प्रति
भी
सम्मान
का
भाव
रखते
हैं।
अनामिका
इतिहास
और
कल्पना
का
प्रयोग
कर
मध्यकाल
एवं
आधुनिककाल
की
घटनाओं
एवं
परिस्थितियों
को
सूफियाना
ढंग
से
जोड़ने
का
प्रयास
करती
है।
“आईनासाज़ खुसरो
की
आत्मकथात्मक
सामग्री
पर
लिखा
गया
है
लेकिन
उसके
रग–रेशे
वर्तमान
के
भी
हैं,
बल्कि
वर्तमान
के
रेशे
कुछ
ज्यादा
उभरे
हुए
हैं
और
ज्यादा
कहते
हैं
पुराने
प्रसंगों
की
घटनाएं
व्यंजनाओं
के
सहारे
वर्तमान
के
अर्थ
संकलित
करने
लगती
हैं।
इस
उपन्यास
में
यह
कला
की
तरह
नहीं,
सहज
भाव
से
काम
करती
है।”3
आधुनिककाल
में
जैसे-जैसे
सूचना-संचार
एवं
बाजारवाद
का
विस्तार
हुआ
सामाजिक
संबंधों
एवं
जीवन
शैली
में
आए
बदलाव
ने
व्यक्ति
के
जीवन
को
जटिल
बना
दिया।
मध्यकाल
में
शोषण
का
केंद्र
धर्म
एवं
राजसत्ता
थी,
आज
भी
परिस्थिति
ज्यादा
नहीं
बदली
है।
राजनीतिक
फायदे
के
लिए
धर्म
का
प्रचार-प्रसार
कर
मनुष्य-मनुष्य
में
ईर्ष्या,
घृणा
और
सांप्रदायिक
दंगे
को
जन्म
दिया
जा
रहा
है।
मध्यकाल
में
जहां
स्त्रियां
मात्र
सौंदर्य
की
देवी,
भोग्या
तथा
जीतने
वाली
संपत्ति
मानी
जाती
थी,
वहीं
वर्तमान
के
परिप्रेक्ष्य
में
देखें
तो
स्त्री
का
देह
पुंसवादी
परंपरा,
बाज़ारवाद,
भूमंडलीकरण
के
कारण
लैंगिक
एवं
दैहिक
उत्पीड़न
का
केंद्र
बन
गया
है।
इसके
परिणाम
स्वरूप
अनेक
अस्मिता
विमर्श
उभर
कर
सामने
आए
जो
आधुनिककाल
की
देन
है।
लेखिका
उपन्यास
में
खुसरो
की
छवि
के
माध्यम
से
वर्तमान
पीढ़ी
को
समधर्म-समभाव
होने
की
प्रेरणा
देती
हैं।
रोहिणी
अग्रवाल
लिखती
हैं
“इक्कीसवीं सदी
का
बदहवास
इंसान
भी
जान
ले
कि
कुल
आठ
सदी
पहले
उसी
का
हम
बिरादर
था
ऐसा
कोई
इंसान
जो
प्रेम
से
नफ़रत
को
जीतने
का
हुनर
जानता
था;
जो
तरक्की
की
बातों
के
ढोल
नहीं
पीटता
था,
तरक्कीपसंद
खयालों
को
अपनी
ताकत
बनाकर
अवरोधी
ताकतों
के
सामने
तन
जाया
करता
था।
अमीर
खुसरो
का
किताब/इतिहास
के
पन्नों
में
होना
दरअसल
असल
जिंदगी
में
अमीर
खुसरो
जैसे
इंसानों
के
न
होने
को
बहुत
गहरे
रेखांकित
कर
देता
है।”4
वर्तमान
समय
में
मनुष्य
ने
जितना
विकास
किया
उसकी
भूख
उतनी
ही
बढ़ती
गई
तथा
इससे
मानवीय
भावना
क्रुद्ध
हुई
है,
मनुष्य
मशीनी
जीवन
जीने
को
अभिशप्त
है।
मनुष्य
ने
विज्ञान
का
आविष्कार
अपने
जीवन
को
सरल-
सहज
बनाने
के
लिए
किया
किंतु
अधिक
लालसा
ने
विज्ञान
को
मनुष्य
जाति
के
लिए
विध्वंसक
बना
दिया।
युद्ध
और
दंगे,
आधुनिकतावाद
की
देन
है।
इस
समाज
में
स्त्री
की
जिंदगी
और
भी
दोयम
दर्जें
की
हो
गई
है।
मीडिया
बाजार
ने
उसे
मनुष्य
रूप
में
नहीं
देह,
लिंग
और
कामुकता
को
बढ़ाने
वाली
वस्तु
एवं
सौंदर्यमूलक
प्रसाधन
के
रूप
में
परिभाषित
किया
है।
उपन्यास
में
अनामिका
इसी
मंशा
से
मध्यकाल
एवं
आधुनिककाल
को
जोड़
कर
स्त्री
छवि
में
आए
बदलाव
के
कारण
जटिल
होती
उसकी
स्थिति
को
चिन्हित
किया
हैं।
इस
तथ्य
को
इस
कथन
के
माध्यम
से
समझा
जा
सकता
है
कि
“स्त्री स्वतंत्रता
और
रूढ़ी
विरोध
के
स्वर
तो
हर
कहीं
मिलते
हैं,
लेकिन
जीवन
में
डाल
कर
नित्य-प्रतिदिन
के
महीन
संघर्षों,
स्त्री
की
कोमल
भावनाओं
के
आपसी
द्वंद्व,
प्रेम
और
मातृत्व
के
आपसी
संघर्ष,
देह
और
आदर्श
के
विरोधाभास
और
अन्य
अवचेतनात्मक
स्तरों
पर
अनामिका
की
रची
स्त्री
अभिव्यक्त
होती
है।
न
केवल
आधुनिक
और
सजग
स्त्री
बल्कि
मध्यवर्ग
की
नैतिकता
के
मकड़जाल
में
फंसी
स्त्री
और
हाशिये
की
स्त्री
को
समानांतर
लाने
में
अनामिका
सिद्धस्त
हैं।”5
‘आईनासाज़’
उपन्यास
मध्यकाल
के
लोकप्रिय
पात्र
खुसरो
एवं
आधुनिक
काल
के
संघर्षरत
स्त्री
पात्र
सपना
जैन
के
माध्यम
से
सामाजिक-राजनीतिक
जीवनशैली
एवं
परिस्थितियों
में
जहां
समानता
दिखती
है
वहीं
अंतर
भी
स्पष्ट
दिखता
हैं।
सूफी
भावना
के
माध्यम
से
सभी
प्रकार
के
वर्ण,
वर्ग,
जाति,
लिंग,
धर्म
आदि
में
बंटे
मनुष्य
को
एक
चटाई
पर
बैठ
आपसी
सुख-दु:ख
को
साझा
करने
का
मंच
दिखाती
चलती
हैं।
अपने
उपन्यास
के
माध्यम
से
अनामिका
ने
जिस
सर्वसमावेशन
की
भावना
का
बीज
सूत्र
बोया
है
उसे
उनके
ही
शब्दों
में
जाना
जा
सकता
है
“अस्मिता आंदोलन भी
अहंकार
विलयन
की,
सबको
एक
चटाई
पर
बिठाकर
घरेलू
बिंबों
में
अपना
अनुभूत
सत्य
कहने
की,
बढ़ाते-बढ़ाते
सर्वसमावेशी
कर
ली
जाती
है।
दास्य
और
मधुरा
भक्ति
में
यह
प्रक्रिया
उल्टी
चलती
है।
अहम
की
सरहद
घटाते-घटाते
उस
शून्य
पर
ले
आई
जाती
है
जिसके
आगे
राह
नहीं
है,
पर
सर्वसमावेशन
उसमें
भी
वैसा
ही
होता
है।”6
अर्थात
रास्ते
अनेक
हो
सकते
हैं
लेकिन
मंजिल
एक
है;
सूफी
प्रेम
के
द्वारा
सहयोग-साहचर्य
एवं
सखी
भाव
की
स्थापना।
‘आईनासाज़’
की
स्त्री
पात्र
प्रोफेसर
ललिता
चतुर्वेदी
शिक्षित
एवं
आत्मनिर्भर
होने
के
बावजूद
भी
पति
की
हिंसा
का
शिकार
होने
को
मजबूर
है
सिर्फ
अपने
बेटे
और
मां-सास
के
लिए।
वह
घर
तोड़ने
से
ज्यादा
जोड़ने
में
विश्वास
रखती
है।
ललिता
चतुर्वेदी
का
पति
न
सिर्फ
व्यापार
में
असफल
होता
है
बल्कि
अपने
वैवाहिक
जीवन
को
भी
निभाने
में
असफल
रहता
है
और
इन
सबका
दंश
झेलती
है
ललिता
चतुर्वेदी।
अर्थात्
स्त्री
को
कितने
भी
कानूनी
अधिकार
मिल
जाए
लेकिन
उसकी
स्थिति
तब
तक
नहीं
बदल
सकती
जब
तक
समाज
में
पुंसवादी
विचारधारा
का
अंत
नहीं
होता।
अनामिका
ने
अपने
पूरे
उपन्यास
में
मध्यकाल
से
वर्तमान
काल
तक
चली
आ
रही
स्त्री
की
उस
दयनीय
स्थिति
का
चित्रण
किया
है
जिसमें
हजारों
साल
बाद
भी
उसकी
स्थिति
नहीं
बदलती,
जस
की
तस
दिखाई
देती
है
बल्कि
उससे
ज्यादा
ही
खराब
हो
गई
है।
अब
स्त्री
न
सिर्फ
घर
की
चहारदीवारी
में
बल्कि
उसके
बाहर
भी
पुरुषवादी
सोच
की
शिकार
होती
दिखाई
देती
है।
स्त्री
की राजनीतिक
स्थिति -
मध्यकाल
हो
या
वर्तमान
काल
स्त्रियों
को
राजनीतिक
स्तर
पर
कभी
भी
मुख्य
भूमिका
में
नहीं
आने
दिया
गया।
राजनीति
में
आरक्षित
सीटों
पर
वर्तमान
समय
में
स्त्रियों
का
नाम
तो
दर्ज
हो
रहा
है
किंतु
उसके
पीछे
सत्ता
की
बागडोर
पुरुष
के
ही
हाथों
में
होती
है।
ऐसा
मान
लिया
गया
है
कि
स्त्रियां
कोमल
भाव
वाली
मंदबुद्धि
होती
है
अतः
वह
इतनी
बड़ी
जिम्मेदारी
संभालने
की
क्षमता
नहीं
रखती
इसलिए
स्त्रियों
को
इसमें
या
तो
जगह
ही
नहीं
दी
गई
और
जब
दी
गई
तो
समाज
ने
उसे
उस
रूप
में
स्वीकार
नहीं
किया।
इसके
बावजूद
भी
लंबे
संघर्ष
के
बाद
स्त्रियां
मुख्य
भूमिका
में
नज़र
आ
रही
है।
संविधान
में
स्त्रियों
को
स्वतंत्रता
और
अधिकार
तो
पुरुषों
के
समान
मिले
किंतु,
वह
वातावरण
नहीं
मिल
पाया
है
जहां
वे
अपनी
प्रतिभा
दिखा
पाती।
और
राजनीति
क्षेत्र
में
स्थान
भले
मिल
जाए
लेकिन,
उसके
पीछे
पुरुष
ही
मुख्य
भूमिका
में
होता
है।
अर्थात्
रमणिका
गुप्ता
कहती
है
कि
“सच है! आजादी
के
50 वर्षों में हमने
एक
प्रधानमंत्री,
एक
राष्ट्रपति,
चार
मुख्यमंत्री,
और
दो
तीन
दर्जन
मंत्री
बनने
का
मौका
स्त्रियों
को
दिया
लेकिन,
यह
भी
सच
है
कि
आज
भी
हमारे
देश
में
अमीना
बेची
जाती
है,
भंवरी
बाई,
फूलन
देवी,
निर्भया
आदि
बलात्कार
का
शिकार
होती
है।”7
उपन्यास
के
दोनों
भागों
में
राजनीतिक
स्तर
पर
स्त्री
कहीं
भी
मुख्यधारा
में
नज़र
नहीं
आती
बल्कि,
राजनीतिक
क्षेत्र
में
एकाधिकार
के
तौर
पर
पुरुष
ने
अपने
वर्चस्व
का
ऐलान
कर
दिया
हो।
स्वयं
को
उदारमना
दिखाने
के
लिए
वह
स्त्री
को
जगह
तो
देता
है
किंतु
प्रत्यक्ष
रूप
से
राजनीति
में
काम
करने
की
जगह
नहीं
दे
पाता।
राजनीति
पद
पर
स्त्री
का
नाम
भले
हो
लेकिन
साधन
की
शक्ति
व
बागडोर
हमेशा
पुरुषों
के
हाथ
में
ही
रही
है।
राजनीतिक
क्षेत्र
में
स्त्रियों
की
कोई
मुख्य
भूमिका
नहीं
दिखाई
देती।
मध्यकालीन
स्त्री
पात्रों
में
पद्मावती,
मेहरु
और
कायनात
तथा
आधुनिक
काल
में
सपना
जैन,
ललिता
चतुर्वेदी,
सरोज
किंडों
तथा
श्यामा
मुखर्जी
सभी
समाज
के
अलग-अलग
क्षेत्र
में
कार्यरत
एवं
संघर्षशील
स्त्री
पात्र
हैं
जो
अपने
अतीत
में
एक
लंबे
शोषण
का
शिकार
रह
चुकी
हैं
और
अब
समाज
में
पीड़ितों
को
इससे
उबारने
के
लिए
प्रयासरत
हैं
जो
हर
परिस्थिति
में
शोषण
के
लिए
अभिशप्त
है
किंतु,
स्वतंत्रता
के
नाम
पर
इन्हें
इनकी
औकात
याद
दिलाई
जाती
है।
स्त्रियों
को
कभी
भी
उनका
हक
सहजता
से
नहीं
मिला
बल्कि
छीन
कर
लेना
पड़ा
है।
मध्यकाल
से
गुजरते
हुए
वर्तमान
तक
पहुंचने
में
भी
स्त्रियों
की
यह
दुर्गति
हुई
है
कि
“युद्ध हो या
दंगे-फसाद
सबका
क्रूरतम
कोप
झेलता
हैं
औरत
का
शरीर,
उसका
मन,
उसकी
संवेदना।”8
समाज
कितना
भी
विकास
कर
ले
लेकिन
वह
इतना
उदार
कभी
नहीं
हो
पाया
कि
आधी
आबादी
को
अपने
बराबर
सम्मान
दे
सके।
सदियों
से
शक्ति
पर
पुरुषों
का
एकाधिकार
रहा
है
और
वह
इस
शक्ति
का
विभाजन
कभी
भी
करने
के
पक्ष
में
नहीं
रहा
है।
“भारतीय समाज में
पुरुषों
का
जो
लंबा
शासन
भौतिक
तथा
मानसिक
दोनों
रहा
है
उसके
तले
तालीम
भारतीयों
को
सदा
दी
जाती
रही
कि
वे
चाहे
स्त्री
हो
या
पुरुष
उनका
नैतिक
कर्तव्य
है
कि
पुरुषसम्मत,
पुरुषप्रेरित
तथा
पुरुषपोषित
इस
शासन
के
स्थायित्व
को
पुख्ता
बनाने
की
दृष्टि
से
हर
काम
करें।”9 वह
चाहे
स्वतंत्रता
संग्राम
हो
या
देश
विभाजन
या
राजनीतिक
दांव
पेज
में
लिया
जाने
वाला
बदला।
सभी
स्तरों
पर
स्त्रियों
की
ही
जहालत
होती
है।
अर्थात्
वर्तमान
परिस्थिति
में
ज्यादा
बदलाव
नहीं
आया
है।
आज
बाजारवाद
के
इस
युग
में
स्त्री
माल
के
रूप
में
परोसी
जा
रही
है।
इससे
उसकी
अस्मिता
का
संकट
और
गहरा
हुआ
है।
जरूरत
है, स्त्रियों के
सशक्त
भागीदारी
की
जिससे
वह
अपना
पक्ष
मजबूत
कर
सके।
स्त्री
की सामाजिक
स्थिति -
स्त्री,
मध्यकाल
हो
या
आधुनिक
काल,
सामाजिक
स्तर
पर
वह
हमेशा
से
अपनी
पहचान
एवं
अधिकारों
के
लिए
संघर्षरत
रही
है।
इसी
प्रकार
देखा
जाए
तो,
उपन्यास
के
प्रथम
भाग
में
उपस्थित
हैं
पद्मावती,
मेहरू
और
कायनात
जो
अपने
स्तर
पर
अपनी
इच्छानुसार
जीने
के
लिए
संघर्ष
करती
नज़र
आती
है।
रतनसेन
युद्ध
भूमि
में
वीरगति
को
प्राप्त
होता
है,
पद्मावती
आत्मरक्षा
एवं
शत्रु
की
कैद
से
बचने
के
लिए
जौहर
कर
लेती
है।
पति
की
मृत्यु
के
बाद
आदर्श
पत्नी
उसे
ही
माना
जाता
है
जो
अपने
आत्मसम्मान
एवं
सतीत्व
को
बचाने
के
लिए
जौहर
कर
ले।
यहां
प्रश्न
यह
उठता
है
कि
क्या
पुरुष
की
गैरहाजरी
में
स्त्री
को
स्वेच्छा
से
जीवन
जीने
का
अधिकार
नहीं
हो
सकता?
उसका
अपना
विचार
या
निर्णय
नहीं
हो
सकता?
स्त्रियों
को
धन
की
तरह
लूटकर
लाना
उस
दौर
में
राजा
की
वीरता
मानी
जाती
थी,
स्त्रियों
को
भी
धन-दौलत
की
तरह
गिना
जाता
था
ऐसे
में
अलाउद्दीन
खिलजी
का
सिंहासन
पर
विजय
प्राप्त
कर,
स्त्रियों
को
भी
अपनी
संपत्ति,
दासी
समझना
उपन्यास
का
गंभीर
पक्ष
है।
“औरत पर जमीन
के
टुकड़े
की
तरह
कब्जा
कर
लेने
की
बहशत
जरा
भी
ठहरकर
नहीं
सोचती
कि
जमीन
की
तरह
औरत
बेजान
नहीं
होती।”10
दूसरी
ओर,
सपना
जैन
एक
संघर्षशील
आधुनिक
स्त्री
नायिका
है
जो
माता-पिता
की
मृत्यु
के
बाद
पितृसत्तात्मक
समाज
में
लगातार
मानसिक
एवं
शारीरिक
स्तर
पर
शोषण
का
शिकार
होती
है।
किंतु,
उसका
प्रतिकार
भी
वह
अपने
ढंग
से
करती
है।
स्त्री
की
देह
पर
विजय
प्राप्त
करने
की
लालसा
पुरुषों
में
इतनी
ज्यादा
होती
है
कि
कई
बार
रिश्तों
को
ताक
पर
रखकर
वह
अपनी
कामवासना,
कुंठा,
यौन
इच्छाएं,
शांत
करने
के
लिए
बेटी
समान
स्त्री
को
भी
उसी
निगाह
से
देखने
लगते
हैं
जैसे
अन्य
स्त्रियों
को।
ऐसी
स्थिति
में
कई
अन्य
रिश्तों
को
बचाने
के
लिए
स्त्री
स्वयं
की
बलि
चढ़ा
देती
है।
सामाजिक
दबाव
एवं
इसके
लिए
स्वयं
को
दोषी
ठहराए
जाने
के
डर
से
वह
चुप
रह
जाती
है।
मौसाजी
द्वारा
किए
गए
दुर्व्यवहार
से
सपना
भी
ऐसे
ही
विचलित
होती
है।
किसी
तरह
मौसा
के
चंगुल
से
जैसे-तैसे
निकल
शहर
की
चकाचौंध
के
बीच
अहमद
के
जाल
में
फंस
जाती
है।
वहां
से
निकलने
में
सिद्धू
उसकी
मदद
करता
है।
आजीवन
सामाजिक
स्तर
पर
अपनी
जगह
बनाने
के
लिए
वह
जद्दोजहद
करती
है।
पुरुष
जब
कठोरता
से
स्त्री
को
जीत
नहीं
पाता
तो
भावनात्मक
रूप
से
उसे
अपने
वश
में
कर
सफलता
की
सीढ़ी
के
रूप
में
प्रयोग
करने
की
कोशिश
करता
है।
ऐसे
ही
किया
शक्ति
चौधरी
ने।
अपने
सपनों
को
पूरा
करने
के
लिए
वह
सपना
का
उपयोग
करना
चाहता
है।
“सुना है फाउंडेशन
का
नया
प्रेसिडेंट
सौंदर्य
का
उपासक
है
और
तुम
तो
हो
ही
सौंदर्य
की
प्रतिमूर्ति।
सौंदर्य
की
द्रावक
ममता
कुछ
भी
कर
सकती
है,
अब
तक
तुम
यह
अच्छी
तरह
जान
चुकी
हो……।
तो
बस
एक
बार
हमारे
साथ
भविष्य
के
नाम
पर
तुम
एक
बार
जुआ
खेल
जाओ।
बस
अंतिम
दफा।”11
अर्थात्
आत्मनिर्भर
स्त्री
दोहरे
स्तर
पर
शोषण
का
शिकार
होती
है
घर-बाहर
की
चुनौतियां
उसे
और
भी
दोयम
दर्जे
का
बना
देती
है।
स्त्री
की सांस्कृतिक
स्थिति -
पितृसत्तात्मक
ढांचे
के
अनुरूप
हमारी
संस्कृति
और
सभ्यता
ने
घर
को
दो
भागों
में
बांट
दिया
है।
जहां
घर
के
भीतर
स्त्री
है
तो
घर
के
बाहर
पुरुष।
पुरुष
घर
और
बाहर
दोनों
जगह
अपनी
सुविधानुसार
स्वतंत्र
है
तो
स्त्री
घर
में
भी
अन्या
है
और
बाहर
तो
वह
है
ही।
इसे
हम
वर्चस्व
का
एकाधिकार
कह
सकते
हैं।
स्त्री
की
भूमिका
हर
क्षेत्र
में
आरंभ
से
ही
गौण
रही
है
जबकि
पुरुष
हर
क्षेत्र
में
मुख्य
भूमिका
में
उपस्थित
है।
घर
का
मुखिया
पुरुष
है,
निर्णय
लेने
का
अधिकार
पुरुष
के
पास,
स्त्री
जीवन
का
संरक्षक
पुरुष
(पिता, पति और
पुत्र
की
भूमिका
में)।
स्त्री
ताउम्र
अपनी
पहचान
एवं
अपनी
स्वतंत्रता
की
तलाश
में
रहती
है।
बचपन
से
ही
उसमें
लिंग
आधारित
हीनताबोध
भर
दिया
जाता
है।
संस्कार
के
नाम
पर
उसे
झुकने
एवं
दबे
रहने
की
शिक्षा
दी
जाती
है।
कम
बोलने,
कम
हँसने
तथा
उठने-बैठने
का
तरीका
सिखाया
जाता
है
किंतु
पुरुष
को
सिखाने
की
जरूरत
नहीं
पड़ती
क्योंकि
वह
आने
वाले
समय
का
पिता,
पुत्र,
पति
यानी
घर
का
मालिक
होता
है।
इससे
पता
चलता
है
कि
सिद्धांत
और
व्यवहार
में
अंतर
ही
शोषण
का
मुख्य
कारण
है।
प्रजनन
की
क्षमता
सिर्फ
स्त्रियों
के
पास
होती
है
किंतु
इसे
भी
उसका
कमजोर
पक्ष
ही
समझा
जाता
रहा
है।
उसके
ममत्व,
करुणा
और
त्याग
को
भी
कमजोरी
समझा
जाता
है
जबकि
हमारे
शास्त्रों
में
भी
स्त्री
को
शक्तिस्वरूपा
माना
गया
है।
धरती
को
भी
पिता
न
कहकर
धरती
मां
कहा
जाता
है
अर्थात्
त्याग,
दृढ़
सहनशक्ति,
अर्धनारीश्वर
का
सिद्धांत
ही
स्त्री
छवि
को
प्रबलता
से
स्थापित
करता
है।
स्त्री
में
ही
सबको
साथ
लेकर
चलने
की
भावना
होती
है।
इसके
विपरित
यदि
देखा
जाए
तो
सैद्धांतिक
पक्ष
से
स्त्री
शक्ति
का
प्रतीक
है
जबकि
व्यवहारिक
रूप
में
वह
निंदनीय
है।
इस
प्रकार
स्त्री
की
छवि
पुरुषवादी
समाज
ने
अपने
हित
में
गढ़ी
तथा
इसे
प्रकृति
का
नाम
दे
दिया।
स्त्री-
पुरुष
को
एक
ही
सिक्के
के
दो
पहलू
माना
जाता
है
लेकिन
उपयोग
के
वक्त
पूरा
सिक्का
ही
पुरुषों
के
हिस्से
चला
जाता
है,
वह
जिस
भी
तरह
से
देखें
उसकी
दृष्टि
ही
सत्य
होती
है।
अतः
यह
न्याय
के
द्वंद्वात्मक
रूप
को
प्रस्तुत
करता
है,
जहां
तराजू
का
एक
पलड़ा
नीचे
तो
दूसरा
ऊपर
है।
इस
प्रकार
समाज
में
भी
स्त्री-पुरुष
के
बीच
अंतर
बना
हुआ
है।
अर्थात
जब
तक
यह
अंतर
बना
रहेगा
संतुलन
स्थापित
नहीं
हो
सकता।
कारण
हमारी
संस्कृति
में
घर
गृहस्थी
के
नियम
में
गड़बड़ी
है।
स्त्री
हमेशा
से
पुरुष
के
लिए
रही
है
उसके
संगी-साथी,
दासी
और
भोग्या
के
रूप
में
है
किंतु,
पुरुष
स्त्री
के
लिए
कहीं
भी
किसी
संगी-साथी
की
भूमिका
में
नहीं
दिखता,
उसका
क्षेत्र
मित्रता
की
जगह
हमेशा
से
वर्चस्व
का
ही
रहा
है।
पहले
जब
स्त्रियां
चहारदीवारी
में
कैद
घर
के
मालिक
कहे
जाने
वाले
पुरुषवादी
सोच
से
संचालित
होती
थी
तब
उसे
अपनी
अभिव्यक्ति
की
स्वतंत्रता
का
भान
नहीं
था।
किंतु,
वह
जैसे-जैसे
घर
से
बाहर
निकली,
शिक्षित
हुई,
श्रम
क्षेत्र
में
भाग
लिया,
उसे
अपनी
परतंत्रता
का
भान
हुआ
तथा
वह
अपनी
व्यक्तिगत
स्वाधीनता
(सामाजिक, आर्थिक, पारिवारिक)
की
मांग
करने
लगी।
ऐसे
में
परंपरा
से
चले
आ
रहे
पितृसत्तात्मक
ढांचे
एवं
सामंती
रूढ़ियों
से
पीड़ित
समाज
में
स्त्रियों
की
मांग
को
स्वीकार
नहीं
किया
गया।
जिससे
स्त्री-पुरुष
के
बीच
आपसी
मनमुटाव
एवं
संघर्ष
सामने
आए।
इसमें
“दोषी पुरुष नहीं
है
पितृसत्तात्मक
व्यवस्था
है,
जो
जन्म
से
लेकर
मृत्यु
तक
पुरुषों
को
लगातार
एक
ही
खांचे
में
ढालती
दिखती
है
कि
स्त्रियां
उनसे
हीनतर
है,
उनके
भोग
का
साधन
मात्र
है।”12
इस
अंतर
को
तब
तक
नहीं
खत्म
किया
जा
सकता
जब
तक
पितृसतात्मक
ढांचा
पूरी
तरह
नहीं
टूटता,
स्त्री
विमर्श
इसी
ढांचे
को
तोड़ने
की
ओर
अग्रसर
है।
स्त्री
की आर्थिक
स्थिति -
आईनासाज़
के
पहले
भाग
में
जहां
मुख्य
रूप
से
तीन
पात्र
पद्मावती,
मेहरू
और
कायनात
देखने
को
मिलती
है,
वहीं
दूसरे
भाग
में
सपना
जैन,
ललिता
चतुर्वेदी,
सरोज
किंडो
इत्यादि
प्रमुख
पात्र
के
रूप
में
सामने
आती
हैं।
एक
ओर
जहां
पद्मावती
रानी
है
वही
वह
आर्थिक
रूप
से
अपने
परिवार
पर
निर्भर
भी
है।
रानी
होने
के
कारण
धन-वैभव
पर्याप्त
है
किंतु
उनका
स्वयं
का
निजी
कुछ
नहीं।
वह
रतनसेन
की
रानी
है,
रतनसेन
के
संरक्षण
में
अपना
जीवन
बसर
करती
है।
रतनसेन
की
मृत्यु
के
बाद
उसकी
अस्मिता
का
संकट
गहरा
जाता
है।
वहीं
मेहरू
जो
कि
खुसरो
की
बेग़म
है
स्त्री
स्वतंत्रता
की
पक्षधर
भी।
वह
स्त्री
के
पहचान
पर
बल
देती
है
तथा
अपनी
कला-कौशल
को
समाज
के
सामने
लाने
की
हिमाकत
करती
है
किंतु,
वह
कुछ
भी
हो
खुसरो
के
खिलाफ
जाकर
नहीं
करना
चाहती।
इसलिए
वह
खुसरो
के
घर
से
बाहर
जाने
के
बाद
घर
में
संगीत-गायन
की
महफिल
जमाती
है।
किंतु,
जैसे
ही
खुसरो
इस
बात
से
मुखातिब
होते
हैं
उन्हें
विश्वास
नहीं
होता
कि
मेहरु
उनके
साथ
बगावत
कर
सकती
है।
“घर में घुसा
तो
देखा
कि
मेरी
बैठक
में
मेरे
ही
गावतकिए
पर
मेरी
बेग़म
शान
से
बैठी
हुई
दर्जनों
भर
नए
शायरों
को
इस्लाह
दे
रही
हैं।….
मुझसे
यह
लुकाछिपी
कैसी?
क्या
मैं
जरूरत
से
ज्यादा
ही
सख्त
तो
हो
गया
हूं?
क्या
यह
बगा़वत
का
आगाज
है?”13
वही
दूसरे
भाग
में
सपना
जैन
माता-पिता
की
मृत्यु
के
पश्चात्
मौसा-मौसी
पर
आर्थिक
रूप
से
निर्भर
होती
है।
मौसा
द्वारा
किए
जाने
वाले
दुर्व्यवहार
से
वह
विचलित
और
चकित
होती
है
किंतु,
मौसी
से
कह
नहीं
पाती,
क्योंकि
दोनों
आर्थिक
रूप
से
मौसा
जी
पर
निर्भर
है
तथा
मौसी
का
करुण
वाक्य
उसे
कभी
भी
सच
कहने
का
मौका
नहीं
देते
“मेरी मुश्किल
यह
थी
कि
इस
वितृष्णाकारी
चूमाचाटी
की
बातें
मैं
मौसी
को
बता
भी
नहीं
सकती
थी
क्योंकि
मौसी
अपना
ही
आप्तवाक्य
रह-रह
कर
हवा
में
उछालती
थी;
‘देख बेटी’ मौसा
जी
की
जबान
कड़वी
है
पर
दिल
के
यह
बुरे
नहीं।”14
स्त्री
हर
जगह
आर्थिक
परतंत्रता
एवं
भावनाओं
के
वश
में
ठगी
और
प्रताड़ित
की
जाती
रही
है।
यदि
सपना
आत्मनिर्भर
होती
तो
शायद
वह
इसका
विरोध
करने
में
सफल
होती।
बाद
में
वह
अपना
आर्थिक
पक्ष
मजबूत
कर
स्वयं
को
सशक्त
रूप
में
खड़ा
करती
है।
ललिता
चौधरी
इस
उपन्यास
की
शिक्षित
एवं
आर्थिक
रूप
से
आत्मनिर्भर
स्त्री
है
जो
प्रेम
विवाह
करती
है
किंतु
उसकी
असफलता
का
दोहरा
दंश
अकेले
झेलती
है।
पति
को
व्यापार
में
मिली
असफलता
की
खीझ
एवं
मानसिक
प्रताड़ना
को
चुपचाप
झेलते
चले
जाने
के
पीछे
बेटा
और
मां-सांस
का
भावनात्मक
लगाव
होता
है
जो
उसे
कभी
भी
परिवार
तोड़ने
की
नहीं,
जोड़ने
की
शिक्षा
देते
हैं।
वह
हमेशा
अपनी
अस्मिता
से
समझौता
कर
घर-परिवार
के
लिए
अपने
सपनों
और
अपनी
आजादी
को
किनारे
करती
जाती
है।
ऐसे
में
स्त्री
अपने
संस्कारों
से
बंधी
दूसरो
की
जिंदगी
का
नर्क
अकेले
भोगती
है,
जिसकी
जिम्मेदार
भी
हमेशा
वह
खुद
होती
है।
“दिन भर फोन
पर
लगी
रहती
है….
पाखाने
की
टंकी
कौन
ठीक
कराएगा
रे….
तेरा
बाप?
जब
देखो
तब
तुझे।”15
अर्थात्
स्त्री
कितनी
भी
पढ़ी-लिखी
आत्मनिर्भर
हो
जाए,
रहती
आखिर
पुरुष
से
कमतर
ही
है।
यह
धारणा
प्राचीन
काल
से
चली
आ
रही
है
कि
स्त्री,
पुरुष
से
कम
बुद्धि
वाली
एवं
कम
शक्तिशाली
है।
लैंगिक
भेद
ही
उसकी
निर्बलता
का
कारण
है
जिसका
कोई
मनोवैज्ञानिक
आधार
नहीं
है
और
न
हो
सकता
है।
निष्कर्ष
: इस प्रकार कहा
जा
सकता
है
कि
स्त्री
अस्मिता
का
प्रश्न
उनके
उपन्यास
का
केंद्रीय
बिंदु
है।
उपर्युक्त
सभी
स्त्री
पात्र
युगों
के
लंबे
अंतराल
के
बावजूद
भी
अपने
जीवन
के
निजी-सामाजिक
एवं
राजनीतिक
पक्ष
में
पितृसत्तात्मक
सोच
से
पीड़ित
एवं
शोषित
दिखाई
देती
हैं।
किंतु
पद्मावती
हो
या
कायनात
या
मेहरू
अपने
स्तर
पर
सभी
अपनी
मुक्ति
के
लिए
विचलित
दिखाती
देती
है।
मध्यकालीन
स्त्रियों
का
विरोध
पद्मावती
का
जौहर,
मेहरू
का
बिना
इजाजत
महफिल
जमाना
और
कायनात
का
शाहिद
से
प्रेम
करना
आदि
रूप
में
देखा
जा
सकता
है।
वहीं
दूसरी
ओर
सपना
जैन
का
तमाम
संघर्षों
के
बाद
भी
हार
न
मानना,
ललिता
चतुर्वेदी
का
भावनात्मक
लगाव
के
कारण
संबंध
विच्छेद
न
करना
और
सरोज
का
सामूहिक
बलात्कार
के
बाद
कानूनी
रूप
से
न्याय
की
गुहार
इत्यादि
स्त्री
के
वर्तमान
संघर्ष
को
रेखांकित
करता
है।
आज
परिस्थितियां
बदली
हैं
तो
चुनौतियां
भी
बढ़ी
हैं।
पहले
स्त्री
घर
के
भीतर
ही
शोषण
का
शिकार
होती
थी
किंतु
आज
बाहर
भी
वह
कुत्सित
पुरुष
मानसिकता
से
दो
चार
हो
रही
है।
इससे
इंकार
नहीं
किया
जा
सकता
कि
पहले
की
तुलना
में
स्त्री
ज्यादा
जागरूक
एवं
सशक्त
हुई
है,
अब
वह
शोषित
होने
को
तैयार
नहीं
हैं।
संदर्भ
:
- अनामिका
: स्त्री भक्त
कवि:अस्मिता
विमर्श के
आईने में,
साखी अंक
34,
उत्तर प्रदेश,
जुलाई 2021,
पृष्ठ 38
- हरीश
त्रिवेदी : ‘दुराए
नैना बनाए
बतियां’:
अमीर खुसरो
की धरोहर,
इतिहास से
उपन्यास तक, साखी
अंक 34,
उत्तर प्रदेश,
जुलाई 2021,
पृष्ठ47
- नित्यानंद
तिवारी : हिंदुस्तान
की नवीनतम
सृजनशील परंपरा
के पक्ष
में, कथादेश,
दिल्ली, नवंबर
2022, पृष्ठ
48
- रोहिणी
अग्रवाल : गुलेल
के निशाने
पर विहंसती
प्रेम की
बस्ती, साखी
अंक 34,
उत्तर प्रदेश,
जुलाई 2021,
पृष्ठ 73
- मनीषा
कुलश्रेष्ठ : विमर्श
से दर्शन
तक: अनामिका
की औपन्यासिक
यात्रा, साखी
अंक 34,
उत्तर प्रदेश,
जुलाई 2021,
पृष्ठ 77
- अनामिका
: स्त्री भक्त
कवि: अस्मिता
विमर्श के
आईने में,
साखी अंक
34,
जुलाई 2021,
पृष्ठ 34
- के.
अजीता- स्त्री
की दुनिया
(सं.) : संगीता-
नई सदी
का महिला
कथा लेखन
और स्त्री
विमर्श, वाणी
प्रकाशन, दिल्ली, 2019, पृष्ठ
168
- मृणाल
पाण्डे : स्त्री
देह की
राजनीति से
देश की
राजनीति तक,
राधाकृष्ण प्रकाशन,
दिल्ली, 2019, पृष्ठ
44
- वही,
पृष्ठ 46
- अनामिका
: आईनासाज़,
राजकमल प्रकाशन,
दिल्ली, 2020, पृष्ठ
39
- वही,
पृष्ठ 144
- अनामिका
: स्त्री विमर्श
की उत्तर
गाथा, सामयिक
प्रकाशन, दिल्ली,
2012, पृष्ठ 17
- अनामिका
: आईनासाज़,
राजकमल प्रकाशन,
दिल्ली, 2020,
पृष्ठ 41
- वही,
पृष्ठ 140
- वही, पृष्ठ 136
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