- प्रियंका राय
शोध
सार : लोक
संस्कृति
के
एक
महत्त्वपूर्ण
अंग
लोक
साहित्य
का
सर्वाधिक
महत्त्वपूर्ण
काव्य
रूप
है-लोकगीत।
इतिहास
के
लंबे
कालखंड
को
अपने
भीतर
संजोए
हुए
ये
लोकगीत,
अपने
समय
के
अलिखित
सामाजिक,
ऐतिहासिक
और
सांस्कृतिक
दस्तावेज
हैं।
ये
लोक
संस्कृति
के
वाहक
हैं।
यानी
मानव
के
सामाजिक,
राजनीतिक,
आर्थिक,
धार्मिक
एवं
सांस्कृतिक
आदि
सभी
चेतनाओं
का
प्रत्यक्ष
अथवा
अप्रत्यक्ष
रूप
लोकगीतों
में
समाहित
रहता
है।
वास्तव
में
ये
लोकगीत
ऐसे
महत्त्वपूर्ण
दस्तावेज
हैं,
जिसमें
हमारा
संपूर्ण
समाज
व
संस्कृति
सहजता
से
दर्ज
है।
वर्तमान
समय
में
देश
एक
तरफ
तो
विज्ञान
एवं
तकनीकी
प्रौद्योगिकी
के
क्षेत्र
में
निरंतर
उन्नति
कर
रहा
है,
तो
दूसरी
तरफ
समाज
एवं
संस्कृति
निरंतर
ह्रासोन्मुख
है।
जीवन
मूल्यों
का
ह्रास
होता
जा
रहा
है।
लोग
अपनी
जड़ों
से
कटते
जा
रहे
हैं।
परंपरा
को
ताक
पर
रख,
मानवीयता
की
तिलांजली
देकर
मनुष्य
भौतिकता
के
चक्कर
में
परेशान
है।
उनमें
संवेदनहीनता
की
स्थिति
बढ़ती
जा
रही
है।
ऐसे
में
ना
केवल
उनके
आपसी
संबंधों
में
परिवर्तन
आया
है
बल्कि
प्रकृति
तक
से
उसके
संबंध
भी
परिवर्तित
हो
गए
हैं।
ऐसी
ह्रासोन्मुख
स्थिति
में
गँवारू
और
निकृष्ट
कहकर
नकारे
जाने
वाले
इस
लोक
साहित्य
में
व्याप्त
पर्यावरणीय
चेतना
को
लोकगीतों
के
माध्यम
से
जानने-समझने
का
प्रयत्न
इस
आलेख
के
माध्यम
से
किया
गया
है।
बीज
शब्द : भोजपुरी,
संस्कृति,
लोकगीत,
लोक-जन,
प्रकृति,
उपादान,
उपस्थिति,
संवेदनशीलता,
न्योता,
चेतना,
गुड़हल,
संरक्षण,
मर्म।
मूल
आलेख :भोजपुरी
लोकगीतों
में
पर्यावरण
किस
रूप
में
विद्यमान
है
यह
जानने
से
पूर्व
सर्वप्रथम
पर्यावरण
क्या
है
यह
समझना
आवश्यक
है।
यदि
पर्यावरण
का
शाब्दिक
अर्थ
लिया
जाए
तो
यह
परि
और
आवरण
शब्द
के
योग
से
बना
है,
जिसमें
पारित:
का
तात्पर्य
है-
चारों
ओर
और
आवृत्त
का
तात्पर्य
है-
ढ़के
हुए।
यानी
पर्यावरण
से
हमारा
तात्पर्य
एक
ऐसे
आवरण
से
है
जो
समस्त
जीवधारियों
व
वनस्पतियों
के
चारों
ओर
विद्यमान
है
और
उसे
प्रभावित
करते
हैं।
फिटिंग
के
अनुसार-
“पर्यावरण किसी
जीवधारी
को
प्रभावित
करने
वाले
समस्त
कारकों
का
योग
है।”[1]
(Environment is the sum total of all the factors that
influence an organism fitting .) दूसरी तरफ
बोरिंग
के
शब्दों
में-
“एक व्यक्ति
के
पर्यावरण
में
वह
सबकुछ
सम्मिलित
किया
जाता
है
जो
उसके
जन्म
से
मृत्यु
पर्यंत
तक
प्रभावित
करता
है।”[2]
विश्वकोश
के
अनुसार-
“पर्यावरण के
अंतर्गत
उन
सभी
दशाओं,
संगठन,
एवं
प्रभावों
को
सम्मिलित
किया
जा
सकता
है,
जो
किसी
जीवन
अथवा
प्रजाति
के
उद्भव,
विकास
एवं
मृत्यु
को
प्रभावित
करते
हैं।”[3]
पर्यावरण
को
दो
घटकों
में
बांटा
गया
है-
1) जैव घटक जैसे-
पशु-पक्षी,
जीव-जंतु,
पेड़-पौधे
इत्यादि।
2) अजैव घटक जैसे-
वायु,
जल,
सूर्य
इत्यादि।
ये
समस्त
घटक
सामूहिक
रूप
से
मिलकर
प्रकृति
के
संतुलन
को
बनाए
रखने
में
अपनी-अपनी
भूमिका
निभाते
हैं,
जिससे
हमारा
दैनिक
जीवन
सुचारु
रुप
से
चलता
रहा
है।
परंतु
आधुनिक
समय
में
बढ़ते
संसाधनों,
मशीनीकरण
और
प्रौद्योगिकी
से
उपजे
हानिकारक
रसायनों
के
कारण
भारत
ही
नहीं
अपितु
संपूर्ण
विश्व
के
सामने
पर्यावरण
संकट
उत्पन्न
हो
गया
है।
प्राकृतिक
संसाधनों
के
हो
रहे
अंधाधुंध
दुरुपयोग
को
यदि
तुरंत
रोका
नहीं
गया
तो
भविष्य
में
उसके
घातक
परिणाम
सामने
आएंगे।
ऐसे
में
मनुष्य
को
जीवित
ही
नहीं
बल्कि
निर्जीव
यानी
पर्यावरण
के
जैविक
तथा
अजैविक
दोनों
ही
घटकों
के
आपसी
संबंधों
को
ध्यान
में
रखते
हुए
उनसे
तालमेल
बिठाने
की
आवश्यकता
है,
जिससे
विश्व
कल्याण
का
मार्ग
प्रशस्त
हो
और
यह
कार्य
हमारे
लोक
ने
बखूबी
किया
है।
यदि
हम
पर्यावरण
को
लोक
साहित्य
और
लोक
गीतों
से
जोड़ने
का
प्रयत्न
करेंगे
तो
स्पष्ट
होगा
कि
जिस
लोक
साहित्य
को
निकृष्ट,
अशिष्ट
एवं
गवारों
का
साहित्य
कहकर
नकारा
जाता
रहा
है
वह
अपने
आप
में
प्रकृति
संरक्षण
के
लगभग
हर
पहलू
को
समेटे
हुए
और
चेतना
संपन्न
है।
विशेषकर
भोजपुरी
लोकगीतों
की
परंपरा
तो
अत्यंत
समृद्ध
है।
इन
गीतों
में
मानव
समाज
व
संस्कृति
की
विराटता
में
पेड़-पौधे,
वनस्पति,
जीव-जंतु,
सूर्य,
नदी
इत्यादि
सब
पूरी
आन-बान
से
समाहित
हैं।
भोजपुरी
लोकगीतों
में
प्रकृति
अपने
विविध
रूप-रंगों
में
जीवन
सहचरी
के
रूप
में
उभरती
है,
जिसके
बिना
सब
राग-रंग,
पर्व-त्यौहार
एवं
उत्सव
अधूरे
हैं।
पर्यावरण
की
जैसी
विलक्षण
उपस्थिति
भोजपुरी
लोकगीतों
में
निहित
है,
वह
लोक
जीवन
की
सूक्ष्म
विज्ञान-बुद्धि
व
चेतना
का
ही
परिणाम
है।
अगर
कहा
जाए
कि
भोजपुरी
संस्कृति
का
मूलाधार
प्रकृति
ही
है
तो
अत्युक्ति
न
होगी।
तभी
तो
लोक
जन
के
हृदय
की
उपज
इन
गीतों
में
समुद्र,
नदी,
झरने,
कुआँ,
पहाड़,
जंगल,
वृक्ष,
लताएं,
फल-फूल,
बांस,
नीम,
तुलसी,
कुश,
सूर्य,
सर्प
इत्यादि
सभी
तत्व
समाहित
हैं।
हमारा
भारतीय
जीवन
धर्ममय
है।
यहाँ
लोग
किसी
बात
से
डरें
ना
डरें
पर
धर्म
व
ईश्वर
का
भय
सबमें
कहीं
ना
कहीं
विद्यमान
है।
अतः
हमारे
लोक
ने
प्रकृति
के
महत्त्वपूर्ण
उपादानों
को
ईश्वर
से
जोड़
दिया
ताकि
उनका
संरक्षण
आसानी
से
किया
जा
सके।
जीवन
के
लिए
पेड़-पौधों
की
महत्ता
तो
निर्विवाद
है।
पेड़-पौधों
से
ही
हमें
जीने
के
लिए
ऑक्सीजन
मिलता
है
यानी
ये
जीवन
के
लिए
अत्यंत
महत्त्वपूर्ण
हैं।
तभी
तो
हमारे
लोक
ने
पेड़-पौधों
को
भी
ईश्वर
व
अलौकिक
सत्ता
से
जोड़
दिया
है
ताकि
उनको
संरक्षित
किया
जा
सके।
उदाहरणार्थ
एक
लोकगीत
द्रष्टव्य
है,
जिसमें
आम
को
पुत्र
व
नीम
को
मां
का
प्रतीक
बताया
गया
है।
साथ
ही
हरे-भरे
वृक्षों
को
काटना
पाप
व
वर्जित
बताया
गया
है-
“आम
पुतर हवे,
निमिया महतारी
बनवा
के कर
रछपाल ए
बिरिजवासी।”[4]
वहीं
दूसरी
तरफ
नीम
जैसे
लाभकारी
वृक्ष
को
शीतला
माता
से
जोड़
दिया
गया
है,
यह
प्रकृति
के
प्रति
लोक
की
चेतना
व
प्रकृति
के
संरक्षण
के
प्रयत्न
का
ही
तो
परिणाम
है।
उदाहरणार्थ-
“निमिया
की डाढ़
मइया लावेली
झूलूअवा
कि
झूली-झूली
न,
मइया
मोरी गावेली
गीतिया हो
कि झूली-झूली
न”[5]
इन
गीतों
का
ही
प्रभाव
है
कि
कहीं
ना
कहीं
आज
भी
हमारा
ग्रामीण
समाज
इन
वृक्षों
को
काटने
से
डरता
है।
आँवला
वृक्ष
का
पूजन-अर्चन
तो
प्रारंभ
से
ही
हमारा
लोक
समाज
करता
आ
रहा
है
और
आज
भी
अक्षय
नवमी
के
दिन
आँवला
वृक्ष
का
पूजन
हमारे
ग्रामीण
समाज
में
पूरे
विधि-विधान
से
किया
जाता
है।
इससे
सम्बद्ध
एक
गीत
द्रष्टव्य
है-
“अँवरा
के गछिया
अंगनवा त
देखत सोहावन,
पूजन
चलेली सीता
देई, अँचरा
पसारेली;
जुग-जुग
बढ़ो अहिवात,
अँवरा असीस
दिहले”[6]
यह
हमारी
लोक
चेतना
की
ही
देन
है
कि
त्रिफला
औषधि
के
सबसे
गुणकारी
तत्त्व
आँवला
के
व्याधि
शमन
गुणों
के
कारण
ही
संभवतः
हमारे
लोक
ने
धर्म
से
जोड़कर
इसके
संरक्षण
का
प्रयत्न
किया
है।
आँवला
और
नीम
ही
नहीं
बल्कि
आम,
महुवा,
पीपल
और
वटवृक्ष
का
जिक्र
भी
इन
लोकगीतों
में
यत्र-तत्र
हुआ
है।
उदाहरणार्थ
एक
जनेऊ
गीत
में
पीपल
के
नीचे
खड़े
होकर
अपने
भतीजे
के
जनेऊ
संस्कार
में
जाने
के
लिए
व्याकुल
एक
स्त्री
का
इन्द्र
देव
से
न
बरसने
का
आग्रह
कुछ
इस
प्रकार
अभिव्यक्त
हुआ
है-
“मोरा
पिछुअरवा बा
छाछरी पीपर,
अरु बा
छाछरी पीपरि;
ताहि
तर ठाढ़
भइली कवनी
देई, अदीत
मनावेलि हो।
अरे
देव गरज़हु,
जनि देव
बरसहु, नेवत
हम जाइबि
रे;
अरे
हामारी दुलारुवा
के जनेव,
नेवत हम
जाइबि रे”[7]
यह
तो
विज्ञान
सिद्ध
है
कि
पीपल
और
वट
की
पत्तियों
से
लेकर
फल
और
यहाँ
तक
की
जड़
भी
औषधीय
गुणों
से
परिपूर्ण
होता
है।
इनमें
मौजूद
गुणों
से
सांस,
दांत,
सर्दी,
जुकाम,
खुजली
इत्यादि
परेशानियों
को
दूर
किया
जा
सकता
है।
साथ
ही
पीपल
तो
सर्वाधिक
ऑक्सीजन
देने
वाला
पेड़
भी
है।
हमारा
लोक
भी
इसकी
महत्ता
से
अनजान
नहीं
रहा
है।
संभवतः
इसकी
महत्ता
जानकर
इसकी
रक्षा
हेतु
ही
लोक
ने
पीपल
और
वट
वृक्ष
को
ईश्वर
और
धर्म
से
जोड़
इनपर
सभी
देवी-देवताओं
का
वास
माना
है
और
इसी
कारण
नीम
की
ही
भांति
इन
वृक्षों
को
भी
काटने
से
हमारा
जन-समाज
डरता
रहा
है।
तुलसी
का
पौधा
तो
अनेकों
औषधीय
गुणों
का
भंडार
है
ही।
तुलसी
का
पौधा
न
केवल
सर्वाधिक
प्राणवायु
देता
है
बल्कि
तुलसी
दल
का
सेवन
बीमारियों
से
दूर
भी
रखता
है।
संभवतः
इसीलिए
इन्हे
विष्णुप्रिया
कहा
जाता
है
और
तुलसी
के
पत्ते
के
बिना
पूजा-
अर्चना
एवं
प्रसाद
की
कल्पना
भी
नहीं
की
जा
सकती।
यह
लोक
चेतना
की
ही
देन
है
कि
आज
भी
भारतीय
हिंदू
घरों
में
तुलसी
का
पौधा
अवश्य
पूजा
जाता
है।
तुलसी
की
महत्ता
को
व्याख्यायित
करते
अनेकों
गीत
हमारे
लोक
में
विद्यमान
हैं।
उदाहरणार्थ
एक
गीत
द्रष्टव्य
है,
जिससे
स्पष्ट
है
कि
हमारे
ग्रामीण
समाज
में
तो
तुलसी
को
छूकर
सौगंध
लेने
मात्र
से
ही
व्यक्ति
की
बात
विश्वसनीय
एवं
प्रमाणिक
बन
जाती
है-
“तोहरी
कहलका प्रभु
में ना
पतिअइबों।
तुलसी
चउरवा छुई
आव हो
राम।।”[8]
इतना
ही
नहीं
अढ़उल(गुड़हल),
चम्पा,
चमेली,
भांग-धतूरा
जैसे
छोटे-छोटे
फूलों
का
भी
वर्णन
लोकगीतों
में
यत्र-तत्र
देखने
को
मिल
जाता
है।
स्पष्ट
है
हमारे
लोक
ने
प्रकृति
के
सिर्फ
बड़े
ही
नहीं
बल्कि
छोटे-छोटे
उपदानों
पर
भी
गौर
किया
है
और
उन्हें
भी
किसी
देवी-देवता
से
जोड़
कर
संरक्षित
करने
का
प्रयत्न
किया
है।
उदाहरणार्थ
गुड़हल
के
फूल
से
शीतला
माँ
के
जुड़ाव
का
वर्णन
इस
गीत
में
कुछ
इस
प्रकार
हुआ
है-
“कौन
फूल फूलेला
लाहारलि; कवन
फूल रन्थ
साजे हो।
ए
मइया कवना
फूलवा रहेलू
हो लोभाइ;
सेवक राउर
बाट जोहे
हो।।
अड़हुल
फूल फुलेला
लाहारलि; चम्पा
फूल रन्थ
साजे हो।
ए
सेवका बेला
फूल रहीलें
लोभाइ; सेवकवा
मोर रन्थ
साजे हो”[9]
वैसे
देखा
जाए
तो
वर्तमान
समय
में
गुड़हल
के
फूल
का
प्रयोग
आयरन
की
कमी
दूर
करने,
हाई
ब्लड
प्रेशर
नियंत्रण
करने,
सर्दी
और
जुकाम
इत्यादि
के
साथ
ही
अनेकों
रोगों
के
उपचार
में
किया
जा
रहा
है।
संभवतः
हमारा
लोक
इसके
औषधीय
गुणों
से
पहले
ही
परिचित
रहा
हो
और
इसी
कारण
इसे
शीतला
माँ
से
जोड़कर
इसको
संरक्षित
करने
का
प्रयत्न
किया
हो।
हमारे
लोक
में
प्रकृति
के
बिना
हर
कार्य-व्यापार
अधूरा
है,
तभी
तो
इन
गीतों
में
प्रकृति
को
भी
विविध
संस्कारों
में
उपस्थित
होने
के
लिए
न्योता
भेजने
का
वर्णन
कई
जगह
दिखाई
पड़ता
है;
यथा-
“गया
जी के
नेवतिलें आजु,
त नेवती
बेनीमाधव हो।
नेवतिलें
तीरथ परयाग,
तबहीं जग
पूरन....”[10]
हमारी
संस्कृति
में
तुलसी,
नीम,
आँवला,
वट
एवं
पीपल
इत्यादि
पेड़-पौधों
के
अतिरिक्त
नदियों
की
उपयोगिता
भी
स्वतः
सिद्ध
है।
जल
ही
जीवन
है,
जीवन
के
लिए
जल
की
उपयोगिता
से
हमारा
लोक
भी
अनजान
नहीं
रहा
है।
गंगा-यमुना,
सरयू
इत्यादि
नदियों
को
पवित्र
एवं
देवी
मानकर
उनकी
स्तुति
तो
यहां
प्राचीन
काल
से
ही
लोग
करते
आ
रहे
हैं।
नदियां
तो
जीवनदायिनी
हैं
और
उनमें
भी
गंगा
का
जल
तो
अति
पावन
एवं
पवित्र
माना
जाता
रहा
है।
गंगाजल
को
अधिक
दिनों
तक
रखने
पर
भी
वह
खराब
व
दूषित
नहीं
होता
है,
साथ
ही
यह
रोग
नाशक
भी
माना
जाता
है।
संभवतः
यही
कारण
है
कि
हमारे
लोक
ने
गंगा
को
देवी
और
माँ
का
दर्जा
दिया
है।
यहाँ
के
लोगों
की
धार्मिक
एवं
सांस्कृतिक
मान्यता
है
कि
गंगा
नहाने
से
पाप
कट
जाते
हैं
और
मनोकामना
पूर्ण
होती
है,
जिसका
सशक्त
उदाहरण
निम्नांकित
भोजपुरी
लोकगीत
में
द्रष्टव्य
है-
“मीलहुं
सखिया रे
मिलहुं सहेलिया
रे
आरे
सुनु सखिया
चलु देखे
गंगाजी के
लहरिया,
गंगा
नहइला से
पाप कटित
होइहैं
निरमल
होइहैं देहियां....”[11]
वहीं
एक
और
लोकगीत
में
पुत्र
प्राप्ति
हेतु
बंध्या
स्त्री
की
प्रार्थना
का
वर्णन
कुछ
इस
प्रकार
हुआ
है-
“गंगा
के ऊंच
आररवा चढ़त
डर लागेला
हो।
ताही
चढ़ी कोसिला
नहाली, मुकुती
बनावेली हो।।
हंसी
के जे
बोलेली गंगा
जी, सुन
ए कोसिला
रानी हो।
ए
रानी कवन
संकट तोहरा
परले, मुकुती
बनावेलु हो।।
सोनवा
त ए
गंगा जी
ढेर बाटे,
रूपवा के
पुछेला हो।
ए
गंगा मइया
हमरा संततिया
के साध,
संततिया हम
चाहिले”[12]
इतना
ही
नहीं
हमारे
समाज
में
हिन्दू
वर्ग
में
प्रचलित
सोलहों
संस्कार
भी
गंगा
की
उपस्थिति
के
बिना
अपूर्ण
हैं।
जन्म
से
लेकर
मृत्यु
संस्कार
तक
में
गंगा
जल
और
गंगा
स्नान
की
महत्ता
स्वीकार
की
गई
है।
उदाहरणार्थ
जनेऊ
संस्कार
संबंधी
एक
गीत
द्रष्टव्य
है-
“गंगा
जमुना बालू
रेत बरुआ
पुकारै।
पठइ
दै कवन
राम नाव
बरुआ चढ़ि
आवैं”[13]
गंगा
के
अलावा
इन
गीतों
में
यमुना
और
सरयू
जैसी
नदियों
का
जिक्र
भी
सजीवता
के
साथ
हुआ
है।
विवाह
से
सम्बद्ध
एक
लोकगीत
में
सीता
अपने
पति
का
परिचय
देते
हुए
कहतीं
हैं
कि
“चारुन
में जिनि
साँवर बाड़े,
उहे हवे
कान्त हमार
ए।
हाथे
गुरदेलिया गले
तुलसी के
माला, खेलत
सरजू के
तीर ए”[14]
सरयू के
किनारे
खेलते
चारों
भाइयों
में
जो
सबसे
साँवले
हैं
और
जिनके
हाथों
में
गुलेल
और
गले
में
तुलसी
माला
है,
वही
मेरे
पति हैं।
इनके
अतिरिक्त
जलापूर्ति
के
अन्य
साधनों
जैसे-
ताल,
तलैया,
कुंड,
कुआँ,
पोखरा
इत्यादि
की
महत्ता
से
भी
हमारा
लोक
अनजान
नहीं
रहा
है।
तभी
तो
अनेक
गीतों
में
इनका
जिक्र
मिलता
है।
जनेऊ
संस्कार
संबंधी
एक
गीत
द्रष्टव्य
है-
“ऊँच
पोखरवा जी
बाबा, नीच
एक घाट।
जाहि
चढ़ि कवने
बरुआ, करे
असनान”[15]
इससे
स्पष्ट
है
की
जल
संरक्षण
के
प्रति
हमारा
लोक
जागरूक
रहा
है
और
जलाशयों
को
ईश्वर
से
जोड़
उनके
संरक्षण
का
प्रयत्न
करता
रहा
है।
वर्तमान
समय
में
कुओं
का
तो
अस्तित्व
ही
समाप्त
होता
जा
रहा
है
जबकि
प्रदूषित
गंगा
व
यमुना
इत्यादि
की
सफाई
हेतु
करोड़ों
रुपए
खर्च
किए
जा
रहे
हैं,
जबकि
इसका
आसान
सा
उपाय
हमारे
लोक
ने
उपलब्ध
कराया
हुआ
है।
यदि
वर्तमान
समय
में
यही
लोक
दृष्टि
और
ये
गीत
जनता
में
प्रचलित
व
विद्यमान
होते
तो
कहीं
ना
कहीं
स्थितियां
इतनी
खतरनाक
नहीं
होती।
पेड़-पौधे
और
नदियाँ
ही
नहीं
बल्कि
सूर्य,
मिट्टी
की
भी
महत्ता
से
हमारा
लोक
अनजान
नहीं
रहा
है।
इन्हीं
के
होने
से
धरती
पर
जीवन
संभव
है।
इतना
ही
नहीं
यह
विज्ञान
प्रमाणित
भी
है
कि
सूर्योदय
के
पश्चात
डेढ़
घंटे
तक
और
सूर्यास्त
के
एक
घंटे
पहले
तक
का
समय
किरणोंपचार
के
लिए
अत्यंत
उपयोगी
होता
है।
सूर्य
की
किरणों
का
पीला
रंग
कुष्ठरोग,
जामुनी
रंग
मोतियाबिंद
ट्यूमर,
नीला
रंग
दमा,
आसमानी
रंग
संक्रामक
रोग,
हरा
रंग
हृदय
रोग,
और
लाल
रंग
पांडुरोग
इत्यादि
में
राहत
पहुंचाता
है।
यानी
सूर्य
की
किरणों
में
अनेकों
लाभकारी
तत्व
समाहित
हैं।
संभवत:
इनकी
महत्ता
के
कारण
ही
हमारे
लोक
में
मिट्टी,
सूर्य
इत्यादि
की
उपासना
भी
प्रचलित
है।
छठ
के
गीतों
पर
दृष्टिपात
करें
तो
स्पष्ट
होगा
कि
वे
गीत
तो
पूर्णतया
प्रकृति
को
समर्पित
गीत
हैं।
जिसमें
कहीं
तोता
से
फल
न
जूठा
करने
का
आग्रह
और
उस
तोता
के
मरने
पर
उसके
जोड़े
की
वियोग
व्यथा
और
सूर्य
देव
से
प्रार्थना
दिखाई
देती
है
।
जैसे-
“केरवा
जे फरेला
घवद से,
ओह पर
सुगा मेड़राय;
उ
जे खबरी
जनइबो आदित
से, सुगा
देले जूठियाए
उ
जे मरबो
रे सुगवा
धनुक से,
सुगा गिरे
मुरझाय।
उ
जे
सुगनी जे
रोएले बियोग
से, आदित
होइना सहाय”[16]
तो
कहीं
छठ
पूजा
में
हरे
बांस
की
महत्ता
की
ओर
इंगित
किया
गया
है।
उदाहरणार्थ-
“मोरा
पिछुवरवा घनी
बसवा, बसवा
नई-नई
जाय;
काटना
कवन बाबू
बसवा, दीह
डोमवा के
हाथ।
दुई-चारी
बिनिहें दउरवा,
एगो सुपवा
जरूर;
ओहि
कलसूप देबो
अरघीया, फलवा
मांगब जरूर”[17]
इसके
अतिरिक्त
सोहर
गीतों
में
भी
सूर्योपासना
संबंधी
अनेक
गीत
शामिल
हैं।
उदाहरणार्थ
एक
सोहर
गीत
द्रष्टव्य
है,
जिसमें
एक
बंध्या
स्त्री
का
सूर्य
कृपा
से
पुत्र
प्राप्ति
का
वर्णन
है-
“मचिया
ही बइठल
कोसिला रानी,
सिंहासन राजा
दशरथ हो।
आरे
कोसिला कवन
व्रत कइलू,
रमइया जी
के पावेलू
हो।।
गंगा
त हमहूं
नहइली, सुरूज
गोड़वा लागीले
हो।
आरे
भूखीलें हम
अतवार, रमइया
जी के
पाइले हो।।”[18]
हमारे
लोक
का
प्रकृति
से
जुड़ाव
इतना
विषद
और
गहन
है
कि
वह
सांप
जैसे
विषैले
जीव
को
भी
संरक्षण
प्रदान
करता
है।
तभी
तो
उसे
शिव
से
जोड़
दिया
गया
है।
उदाहरणार्थ
शिव
विवाह
संबंधी
एक
लोकगीत
द्रष्टव्य
है-
परंतु
यदि
गहनता
से
विचार
करें
तो
स्पष्ट
होगा
कि
सांप
हमारे
लोक
जीवन
विशेषकर
कृषि
आधारित
सभ्यता
में
अत्यंत
उपयोगी
होते
हैं
और
खेतों
में
आने
वाले
हानिकारक
कीटों
व
चूहों
से
फसल
की
रक्षा
करते
हैं,
जिससे
फसल
अच्छी
होती
है।
सांप
जैसे
विषैले
जीव
की
उपयोगिता
हमारा
लोक
ही
समझ
सकता
था,
तभी
तो
इनके
प्रति
डर
के
अलावा
एक
आस्था
भी
लोगों
में
दिखाई
पड़ती
है
और
सांपों
से
जुड़े
अनेक
गीत
हमारे
लोक
में
यत्र-तत्र
मिल
जाते
हैं।
इसके
अतिरिक्त
तोता,
कौवा,
हंस,
मछली,
चूहा,
मोर,
जैसे
छोटे-मोटे
जीव-जंतुओं
से
लेकर
शेर
जैसे
खतरनाक
जानवरों
को
भी
संरक्षण
प्रदान
करने
हेतु
ही
हमारे
लोक
ने
उन्हें
किसी
न
किसी
देवी-देवता
का
वाहन
घोषित
कर
दिया।
यह
हमारे
लोक
का
पर्यावरण
के
प्रति
संवेदनशीलता
का
ही
परिणाम
है।
प्राकृतिक
उपादानों
की
महत्ता
को
समझकर
ही
हमारे
लोक
ने
उनके
संरक्षण
एवं
संवर्धन
हेतु
उन्हें
पूजनीय
बनाया।
निष्कर्षतः
कहा
जा
सकता
है
कि
वर्तमान
समय
में
बढ़ते
प्रौद्योगिकीकरण
के
कारण
पर्यावरण
के
लगातार
हो
रहे
क्षरण
को
लेकर
सम्पूर्ण
विश्व
चिंतित
है।
ऐसे
में
हमें
एक
ऐसी
संस्कृति
और
दृष्टिकोण
की
आवश्यकता
है
जिसका
प्रकृति
से
अभेद्य
संबंध
रहा
हो
और
वह
संस्कृति
है-
“प्राचीन भारतीय संस्कृति”,
जो
हमारे
लोक
व
उनके
लोकगीतों
में
आज
भी
जीवित
है।
अगर
हम
प्राचीन
ग्रंथों,
वेद-पुराणों
पर
गौर
करेंगे
तो
स्पष्ट
हो
जाएगा
कि
भारतीय
संस्कृति
अनादिकाल
से
ही
पर्यावरण
की
संवर्धक
एवं
पोषक
रही
है।
यह
तो
हम
सभी
को
ज्ञात
है
कि
भारतीय
जीवन
धर्ममय
रहा
है।
वस्तुतः
इसी
कारण
भारतीय
संस्कृति
में
प्रकृति
को
भी
धर्म
एवं
अध्यात्म
से
जोड़कर
जीवन
का
अभिन्न
अंग
बना
दिया
गया
है।
हमारी
संस्कृति
में
पृथ्वी
और
नदियों
को
माँ
माना
गया
है।
उदाहरणार्थ
ऋग्वेद
का
एक
श्लोक
द्रष्टव्य है- “द्यौर्मे
पिता जनिता
नाभिरत्र बंधुर्मे
माता पृथिवी
महीयम्”[19]
यानि
आकाश
मेरे
पिता
हैं,
बंधु
वातावरण
मेरी
नाभि
है
और
यह
महान्
पृथ्वी
मेरी
माँ
है।
इसी
प्राचीन
संस्कृति
को
आत्मसात
किए
हमारे
लोक
पर
अगर
दृष्टिपात
करें
तो
स्पष्ट
होगा
कि
हमारी
लोकसंस्कृति
व
परंपराओं
का
पर्यावरण
संरक्षण
से
अभिन्न
संबंध
है
और
प्रत्येक
परंपरा
अपने
आप
में
वैज्ञानिक
दृष्टिकोण
को
भी
समेटे
हुए
है।
यथा
विभिन्न
देवी-देवताओं
के
वाहन
के
रूप
में
उपयोगी
पशु-पक्षियों
एवं
जीव-जंतुओं
को
जोड़ने
की
वजह
भी
कहीं
न
कहीं
इनका
संरक्षण
एवं
संवर्धन
ही
रहा
है।
इसके
अतिरिक्त
विभिन्न
व्रत-त्यौहारों
जैसे-
वट-सावित्री,
आवला
नवमी,
तुलसी
विवाह
इत्यादि
के
पीछे
भी
पर्यावरण
संरक्षण
कि
ही
अवधारणा
कार्यरत
है।
नागपंचमी,
गोवर्धन
पूजा
इत्यादि
के
माध्यम
से
जहां
हमारे
लोक
ने
पशु
संरक्षण
की
ओर
संकेत
किया
है
तो
वहीं
विभिन्न
धार्मिक
अनुष्ठानों
में
प्रयुक्त
तुलसी
पत्र,
बेलपत्र,
आम्रपत्र,
केला,
हल्दी,
सुपारी,
नारियल
इत्यादि
के
प्रयोग
द्वारा
हमारे
लोक
ने
वनस्पति
संरक्षण
कि
ओर
भी
संकेत
किया
है।
स्पष्ट
है
कि
हमारा
लोक
प्रकृति
के
प्रत्येक
उपादान
की
उपयोगिता
को
जानता
एवं
समझता
रहा
है।
हमारा
लोक
अंधविश्वासी
व
गंवार
नहीं
बल्कि
चेतना
संपन्न
है।
इसके
सशक्त
उदाहरण
पूरी
तरह
से
पर्यावरण
के
लिए
समर्पित
ये
लोकगीत
हैं।
इन
गीतों
में
हमें
मनुष्य
के
साथ
प्रकृति
के
अभेद्य
रागात्मक
संबंधों
के
दर्शन
होते
हैं,
जिसकी
आज
के
समय
में
पुनः
आवश्यकता
है
ताकि
पर्यावरण
को
संरक्षित
किया
जा
सके।
इस
हेतु
लोकसंस्कृति
एवं
इन
गीतों
के
मर्म
को
एक
नई
पहचान
देने
एवं
उनसे
जुड़ने
की
जरूरत
है।
सन्दर्भ :
Sundar
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