- डॉ. हेमेन्द्र सिंह सारंगदेवोत
शोध
सार :
तेरहवीं
शताब्दी
ई.
में
पूर्व
मध्यकाल
से
ही
दक्षिणी
राजस्थान
में
अस्तित्वमान
रहे
मेवाड़
राज्य
के
शासक
महाराणा
लाखा
(1382-1421 ई.) के
तृतीय
पुत्र
अज्जा
के
पुत्र
सारंगदेव
के
वंशज
सारंगदेव
सिसोदिया
कानोड़, मादड़ी
ठिकानों
के
जागीरदार
रहे, जिन्होंने
राजनीतिक-सैन्य
भागीदारी
के
साथ-साथ
सांस्कृतिक
क्षेत्र
में
भी
अपना
योगदान
देते
हुए
चित्रकला
को
भी
संरक्षण
प्रदान
किया।
कानोड़
एवं
मादड़ी
ठिकाना
अपने
सामंतों
के
संरक्षण
में
18वीं-20वीं शताब्दी
में
चित्रकला
के
प्रमुख
केन्द्र
रहे
हैं।
मादड़ी
ठिकाने
के
भित्ति-चित्रों
की
शैली
संयोजन
एवं
भौगोलिक
दृष्टिकोण
से
मेवाड़
चित्रकला
शैली
की
ही
उपचित्रकला
शैली
कही
जाएगी
जो
कि
वर्ण
संयोजन
व
विषयों
में
संपूर्ण
रूप
से
मेवाड़ी
चित्रकला
शैली
से
ही
प्रभावित
है।
विशेष
रूप
से
मादड़ी
में
दरबारी
दृश्यों
का
बहुलता
से
चित्रांकन
प्राप्त
होता
है।
इस
प्रकार
मेवाड़
की
मध्ययुगीन
एवं
आधुनिकयुगीन
चित्रकला
शैली
में
मादड़ी
की
उपचित्रकला
शैली
भी
अपना
प्रमुख
स्थान
रखती
है।
बीज
शब्द : मेवाड़,
मादड़ी, चित्रकला,
भित्ति
चित्र,
सारंगदेवोत,
भोमट।
मूल
आलेख :
सातवीं
शताब्दी
ई.
में
दक्षिण-पूर्वी
राजस्थान
में
गुहिल
एवं
बापा
रावल
द्वारा
स्थापित
किये
गए
हिन्दुआ
मेवाड़
राज्य
के
महाराणा
लाखा
(1382-1421 ईस्वी) के
तृतीय
पुत्र
अज्जा
के
ज्येष्ठ
पुत्र
सारंगदेव
के
वंशज
सारंगदेवोत
सिसोदिया
गुहिलोत
कहलाए, जिनका
प्रथम
श्रेणी
का
’’ठिकाना
या
राजस्थान
या
राजथान’’ सोलह
उमरावों
के
अन्तर्गत
कानोड़
ठिकाना
एवं
बत्तीसा
या
बत्तीस
उमरावों
के
अन्तर्गत
द्वितीय
श्रेणी
के
बाठेड़ा
ठिकाने1
सहित
भोमट
के
भोमिया
सारंगदेवोत
जागीरदारों
में
मादड़ी, नेनवारा
ठिकाने
प्रसिद्ध
रहे
हैं।2
इन
मेवाड़ी
सामंतों
ने
ठिकानों
में
ललित
कलाओं
विशेषतः
चित्रकला
के
विकास
में
अपना
योगदान
देते
हुए
चित्रकारों
को
संरक्षण
प्रदान
किया
एवं
‘मादड़ी उप-चित्रकला
शैली’
का
मेवाड़
चित्रकला
शैली
में
भित्ति
चित्रों
के
सन्दर्भ
में
महत्त्वपूर्ण
स्थान
रहा।
ज्ञातव्य है
कि
मेवाड़
के
गुहिलोत
सिसोदिया
शासकों
ने
13वीं
से
17वीं
शताब्दी
तक
चित्रकला
को
संरक्षण
प्रदान
कर
उसे
अपने
चरमोत्कर्ष
पर
पहुँचाया।3
इसी
क्रम
में
महाराणा
कुंभा
एवं
चावण्ड
चित्रकला
शैली
के
संरक्षक
रहे
महाराणा
प्रताप
एवं
महाराणा
अमरसिंह
के
पश्चात्
उत्तर-मध्यकाल
से
लेकर
आधुनिक
ऐतिहासिक
काल
तक
महाराणा
संग्रामसिंह
द्वितीय
(1710-1734 ईस्वी), महाराणा
जगतसिंह
द्वितीय
(1734-1751 ईस्वी) और
महाराणा
भीमसिंह
(1778-1828 ईस्वी) का
शासन
काल
भी
मेवाड़
चित्रशैली
के
विकास
में
उल्लेखनीय
रहा।
महाराणा
जवानसिंह
(1828-1838 ईस्वी) के
बाद
महाराणा
सरदारसिंह
(1838-1842 ईस्वी) के
काल
में
भी
मेवाड़ी
चित्रकला
का
कलात्मकता
संवर्द्धन
जारी
रहा।
महाराणा
सरदार
सिंह
के
काल
में
परसराम, तारा
व
शिवलाल
भी
प्रसिद्ध
चित्रकार
हुए
थे।4
मेवाड़
में
ब्रिटिश
राजनीतिक
शक्ति
के
आगमन
के
पश्चात्
19वीं-20वीं
शताब्दी
ई.
के
काल
में
मेवाड़
चित्रशैली
पर
आंग्ल
प्रभाव
द्रष्टव्य
होता
है
जिसके
उदाहरण
उदयपुर
राजमहलों
एवं
मादड़ी, ओगणा, देवगढ़
आदि
से
प्राप्त
चित्रों
में
देखे जा
सकते
हैं।
19 वीं
व
20 वीं शताब्दी
ई.
में
मेवाड़
का
भोमट
क्षेत्र
और
यहाँ
स्थित
ठिकाने
भित्ति
चित्रकला
के
प्रमुख
केंद्र
रहे
हैं।
प्रतीत
होता
है
कि
मादड़ी
सामन्तों
ने
भी
कानोड़, बदनोर, घानेराव,
देवगढ़5
इत्यादि
ठिकाने के
सामन्तों
या
जागीरदारों
के
समान
ही
उदयपुर
राजदरबार
के
चित्रकारों
को
अपने
ठिकाने
में
भी
संरक्षण
प्रदान
कर
चित्रकला
की
उन्नति
में
उत्तर
मध्यकाल
से
ही
अपना
योगदान
देना
प्रारम्भ
कर
दिया
था
और
इस
परम्परा
का
आधुनिक
काल
तक
निर्वाह
किया
जाता
रहा
है।
फलतः
मेवाड़
चित्रशैली
के
एक
प्रमुख
केन्द्र
के
रूप
में
18वीं-19वीं
शताब्दी
में
मादड़ी
ठिकाना
भी
उल्लेखनीय
रहा
और
कानोड़, देवगढ़, शाहपुरा, बनेड़ा
एवं
बदनोर6, घाणेराव7 के
समान
यहाँ
भी
मेवाड़
की
उप-चित्रकला
शैली
अर्थात्
मादड़ी
उपचित्रकला
शैली
का
विकास
हुआ।
मेवाड़ी चित्रकला
विशेषज्ञ
डॉ.
राधाकृष्ण
वशिष्ठ
ने
अपनी
पुस्तक
‘‘मेवाड़
की
चित्रांकन
परम्परा’’ में
महाराणा
स्वरूपसिंह
कालीन
चित्रकारों
तारा
व
शिवलाल
का
तो
उल्लेख
किया
है, परन्तु
मेवाड़
के
ठिकानों
की
चित्रकला
शैली
के
विवरण
में
मादड़ी
ठिकाने
की
चित्रकला
शैली
का
कोई
विवरण
नहीं
दिया
है, जो
कि
आश्चर्यजनक
प्रतीत
होता
है।
मेवाड़
के
चित्रकला
विषय
के
विद्वानों
में
अंतर्राष्ट्रीय
चित्रकार
एवं
कई
मध्यकालीन-आधुनिककालीन
चित्रों
के
संरक्षक
श्री
ओमप्रकाश
सोनी
(बिजोलिया), डॉ.विष्णु
माली
(सेवानिवृत आचार्य, से.म.बि.महाविद्यालय
नाथद्वारा)
सहित
डॉ.वंदना
जोशी
(आचार्य,से.म.बि.
महाविद्यालय,
नाथद्वारा)
का
मार्गदर्शन
भी
मादड़ी
उपचित्रकला
शैलियों
के
लेखन
एवं
विश्लेषण
में
आधारभूत
रहा
है।
मादड़ी
उपचित्रकला-शैली
मेवाड़ महाराणा
के
उदयपुर
राजदरबार
सहित
नाथद्वारा, बदनोर, देवगढ़
व
घाणेराव
ठिकाने
के
अनुरूप
ही
सारंगदेवोत
सिसोदियों
के
मादड़ी
ठिकाने
में
भी
19वीं
से
20वीं
शताब्दी
ईस्वी
के
मध्य
चित्रकला
का
विकास
हुआ
और
यहाँ
के
सामन्तों
ने
चित्रकारों
को
संरक्षण
प्रदान
किया।
मेवाड़-भोमट
क्षेत्र
की
1818 ईस्वी में
ईस्ट
इण्डिया
कम्पनी
से
हुई
सन्धि
के
बाद
मेवाड़
में
स्थापित
हुए
शान्तिकाल
में
संभवतः
मादड़ी
ठिकाने
का
19वीं-20वीं
शताब्दी
के
समय
चित्रकला
के
केन्द्र
के
रूप
में
उदय
हुआ
और
यहाँ
बहुमूल्य
कलात्मक
भित्ति
चित्रों
का
सृजन किया गया।
कानोड़ ठिकाने के भाई-बांधुओं में भोमट क्षेत्र के अन्तर्गत मादड़ी ठिकाना भी ‘‘रावत’’ की उपाधि सहित सोलहवीं शताब्दी ई. से अस्तित्वमान रहा है। मेवाड़ महाराणा लाखा के पुत्र अज्जा के पुत्र सारंगदेव जी के द्वितीय पुत्र पत्ता जी अथवा प्रतापसिंह जी मुगल शासक बाबर के साथ हुए 1527 ई. के बयाना या खानवा युद्ध में काम आए और उनके वंशज पत्तावत या प्रतापसिंघोत सारंगदेवोत कहलाए। इनके ही वंशज मालदेवजी ने मादड़ी ठिकाने की स्थापना मेवाड़ के भौमट क्षेत्र में की। मादड़ी ठिकाने के वंशक्रम में रावत रघुनाथ सिंह सारंगदेवोत ने 1865 ई. में पहाड़ी पर एक गढ़ी का निर्माण करवाया।8 इस गढ़ी के उत्तरी- पूर्वी (मर्दाना महल) एवं दरबार हॉल की भित्ति का कुछ भाग वर्तमान में भी सुरक्षित है।9 (चित्र संख्या 1)
इस गढ़ी को भित्ति चित्रों से सजाया गया। ये दो मंजिला गढ़ी अन्दर-बाहर दोनों ओर से भित्ति-चित्रों से सुसज्जित रही जिनमें चित्र पेनल अत्यधिक आकर्षक रहे। गढ़ी के पूर्वी भाग की बाहरी दीवार पर 20 इंच चौड़ाई में पुत्रोत्पन्न की कथा का सुन्दर चित्रांकन किया गया है। चित्र में घोड़ा-बग्गी में बैठकर जाते रावजी(सामंत), महलों का शयन कक्ष, रति दृश्य के पश्चात् पुत्र उत्पन्न होने का दृश्य चित्र में विशिष्ट स्थान रखता है। इसी क्रम में नट के करतब, शिकार, मल्लयुद्ध, सवारी एवं ज्यामितीय अलंकरणों आदि का सुन्दर चित्रांकन भी दीवारों पर प्राप्त होता है। दरबार हॉल में समसामयिक विषयों का अंकन दिखाई देता है जिसमें प्रवेश करते ही मुख्य गोखड़े में दो ब्रिटिश अधिकारियों के मध्य घुंघराले केशयुक्त नृत्यांगना, नदी की जल-धारा के किनारे मछली पकड़ते हुए ब्रिटिश अधिकारी, तोप को पहाड़ी पर चढ़ाते हुए पीठ झुकाए सिपाही तथा ब्रिटिश सिपाहियों को हिरन, शेर आदि का शिकार (आखेट) करते हुए दर्शाया गया है। महल के बाहर की दीवारों पर पक्षियों के चित्र भी उल्लेखनीय है।10 मादड़ी के करतब करने वाले नट मेवाड़ में प्रसिद्ध रहे हैं। मेवाड़ में कई कस्बे नटों के केंद्र के रूप में प्रसिद्ध रहे जो साहसिक मनोरंजनपूर्ण करतब दिखाकर अपनी आजीविका का निर्वाह रियासत काल से अब तक जारी रखे हुए हैं।
मादड़ी के दरबार हॉल के टोडियों युक्त गवाक्ष या गोखड़े में पगड़ी व राजसी वेशभूषा धारण किए मादड़ी सामंत रावत रघुनाथसिंह(चित्र संख्या 2) का चित्र भी गोलाई लिए धरातल पर फूल-पत्तियों व बेल-बूटों के अलंकरणों से आवृत प्राप्त होता है। ये चित्र वर्गाकार पेनल में गोलाई लिए वृत्ताकार धरातल पर चित्रित हैं जिसमें सिर पर आकर्षक पाग और कलंगी का चित्रांकन हैं। करीने की दाढ़ी तीखे नैन-नक्श को चार-चाँद लगाती हैं एवं हाथ में फूल लिए मादड़ी सामंत अत्यधिक वैभवशाली राजसिक भाव को सृजित करते हैं। कमर या कटि में स्वर्ण रंग का पटका या कमरबंध भित्ति चित्र की सुन्दरता को बढ़ा देता हैं। नीले रंग के छाप्पों युक्त नीला जामा स्वर्ण किनारी से अत्यधिक आकर्षक लगता हैं जो अपने रंग के अनुरूप सात्विकता सहित राजसिकता को मिश्रित कर देता हैं।
सभी चित्र
आला-गीला
पद्धति
में
निर्मित
है
जिसमें
गेरु, रामरज, नीला
व
काले
रंग
की
प्रधानता
है।
रंगों
की
परम्परा
में
इन
चित्रों
के
संदर्भ
में
लाल
पृष्ठभूमि
पर
काले-सफेद
और
नीले
रंग
से
बनाये
गये
चित्र
अपने
आप
में
विशिष्ट
है।
इन
पारंपरिक
चित्रों
में
कलाकार
की
रेखाएं, दक्षता
एवं
कला
कौशल
की
परिपक्वता
दिखायी
देती
है
लेकिन
समसामयिक
चित्रों
में
चित्रकार
के
कौशल
की
कमी
प्रकट
होती
है।
उदयपुर निवासी अंतर्राष्ट्रीय चित्रकार ओमप्रकाशजी सोनी बिजोलिया के अनुसार इस भित्ति चित्र में ढाल-तलवार से युद्धाभ्यास करते(चित्र संख्या 3) राजपूत योद्धाओ के आला-गीला पद्वति से बने हुए भित्तिचित्र लाल-गेरू धरातल पर संभवत 1850 ईस्वी के समय बने हुए है जिनके कालक्रम की पुष्टि ठिकाने से प्राप्त प्राथमिक अभिलेखीय स्रोत और बडवा पोथी से होती हैं। ये राजपूत यौद्धा भिन्न-भिन्न रंगों के पायजामे(धोती) पहने हुए हैं एवं सिर को पगड़ी से सुरक्षित करते हुए आक्रामक मुद्रा में ढाल-तलवार सहित युद्धाभ्यास में संलग्न हैं। शरीर का ऊपरी भाग नग्न हैं जो कि सैन्य-प्रशिक्षण को दर्शाता हैं। सैनिकों के मुख मंडल ओजस्वी हैं जिन पर दाढ़ी-मूंछे अपना यौद्धा स्वरूप प्रतिबिम्बित कर देती हैं। भित्ति चित्रों के ऊपर-नीचे दोनों ओर सुन्दर पानसोल बने हुए है जो कि पान के आकार में रंगों से सुसज्जित हैं।
इस उपर्युक्त भित्ति चित्र(चित्र संख्या 4) में विकसित कमल की प्रफुल्ल पंखुड़ियों के कोने और मध्य में चमेली, लता को चित्रित करते हुए श्वेत चुना निर्मित भित्ति पर नील से बने बूटे और लता वल्लरी का चित्रांकन आकर्षक रूप से कलात्मक हैं। गमले पर चौकोर या वर्गाकार डिजाईन का अंकन भी आकर्षक हैं जिसमें नील से बने बिदुओं का अंकन एक अलग ही चित्र सृजन प्रस्तुत करते हैं। इसमें नीचे की ओर लहरनुमा पत्तियों का आकर्षक चित्रांकन भी मनमोहक हैं।
उदयपुर
निवासी
अंतरराष्ट्रीय
चित्रकार
ओमप्रकाशजी
सोनी
बिजोलिया
के
अनुसार
उपर्युक्त
भित्ति
चित्र
में
बाघ
द्वारा
गाय
का
शिकार
और
शिकारियों
के
वार
को
दर्शाने(चित्र
संख्या
5) वाले
इस
आला-गीला
पद्वति
के
चित्र
में
कांटी
नील
से
बने
पायजामे
धारण
किये
राजपूतों
को
चित्रित
किया
गया
हैं
एवं
साथ
ही
इसमें
जावर
खान
का
सफेदा
(श्वेत रंग) का
उपयोग
भी
किया
गया
हैं, ये
भी
1850ई.
के
लगभग
निर्मित
है।
गाय
को
भयाक्रांत
दर्शाया
गया
हैं
जो
कि
भागती
हुई
अपने
प्राणों
की
रक्षा
के
लिए
आतुर
हैं
जबकि
बाघ
आक्रामक
मुद्रा
में
चित्रित
किया
गया
हैं।
इस
प्रकार
मानवीय
भावनाओं
और
रसों
का
चित्रांकन
करने
में
चित्रकार
सफल
रहे
हैं
जहाँ
मेवाड़ी
राजपूत
यौद्धा
‘गौ-ब्राह्मण
प्रतिपालक’
की
उपाधि
को
चरितार्थ
करने
हेतु
कटिबद्ध
हैं
एवं
उनमें
वीर
रस
का
अंकन
मुखमंडल
पर
द्रष्टव्य
हैं।
वन
क्षेत्र
में
घटित
होने
वाली
इस घटना को
पूर्णता
प्रदान
करने
हेतु
मध्य
में
पेड़-पोधों
या
प्रकृति
का
भी
चित्रांकन
किया
गया
हैं
जो
कि
चित्रकार
एवं
सृजन
की
पूर्णता
को
दर्शाता
हैं।
यौद्धा
के
सिर
पर
पाग
का
अंकन
मेवाड़ी
राजपूत
की
तत्कालीन
वेशभूषा
पर
भी
प्रकाश
डालता
हैं
जो
अपने
नैतिक
मूल्यों
में
गाय
की
रक्षा
करना
अपना
कर्तव्य
समझाता
हैं।
मानवीय
देह
में
तीखे
नैन-नक्श
(आँख-नासिका) का
अंकन
मेवाड़ी
मानस
की
सुन्दरता
व
वीरता
का
सुपरिचायक
हैं
जहाँ
मेवाड़ी
राजपूत
हाथ
में
ढाल-तलवार
लेकर
आक्रामक
मुद्रा
में
वीर
रस
सहित
बाघ
को
पछाड़ने
हेतु
तत्पर
हैं।
देह
आकार
संतुलित
प्रतीत
होते
हैं
जो
ना
तो
ज्यादा
विशालकाय
हैं,
ना
लघु।
ज्योमितीय अलंकरणों में वर्गाकार या गोलाकार सहित आयताकार व वर्गाकार अंकन(पेनल) भी उल्लेखनीय रहा, संभवत सीलन और अनदेखी से जीर्ण हुए इन चित्रों में 19वीं शताब्दी के मेवाड़-भोमट का राजनीतिक-सांस्कृतिक दर्शन होता हैं। ये भित्तिचित्र मेवाड़ चित्रकला शैली की अनुपम धरोहर हैं जिनमें भी मादड़ी उपचित्रकला के सन्दर्भ में इनका संरक्षण अत्यधिक आवश्यक हैं। मेवाड़ चित्रकला शैली की मादड़ी उपचित्रकला शैली सारंगदेवोत गुहिलोत सिसोदिया शासकों की ललित कलाओं के प्रति राग का अनुपम उदाहरण हैं जिसमें लोक संस्कृति से लेकर राजतंत्रात्मक व्यवस्था के विभिन्न पहलुओं के दर्शन होते हैं एवं जो मेवाड़ी राजपूत चित्रकला शैली सहित ब्रिटिश प्रभाव से आच्छादित रही।
मादड़ी11
ठिकाना
राजनीतिक
इतिहास
के
साथ-साथ
सांस्कृतिक
इतिहास
से
भी
समृद्ध
रहा
हैं।
एक
फ्रेंच
विद्वान्
ने
भी
यहाँ
की
भित्ति
चित्र
कलाशैली
पर
1992ई. में अनुसंधानात्मक
कार्य
किया
था
और
उसे
फ्रेंच
पत्रिका
में
प्रकाशित
भी
करवाया
था
लेकिन
इनका
संरक्षण
अभी
तक
नही
हो
पाया।
चित्रकला
व्याख्याता
डॉ.
अर्चना
कुलश्रेष्ठ
(बूंदी महाविद्यालय
की
प्राध्यापक)
ने
भी
इस
मादड़ी
की
भित्ति
चित्रकला
पर
कुछ
लेखन
कार्य
किया
एवं
आलेख
लिखकर
प्रकाशित
भी
करवाए,
इसके
साथ
ही
इन्होंने
आज
से
25 वर्ष पूर्व इसकी
सम्पूर्ण
फोटोग्राफी
की
थी
जो
की
बहुत
महत्त्वपूर्ण
संग्रह
है,
भित्ति
चित्रों
के
मादड़ी
संग्रह
के
दृष्टिकोण
से।
तत्पश्चात
मैंने
अपने
गुरुदेव
स्वर्गवासी
चित्रकला
के
सेवानिवृत्त
व्याख्याता(नाथद्वारा
महाविद्यालय)
डॉ.
विष्णु
माली
के
साथ
यहाँ
का
सम्पूर्ण
ऐतिहासिक-सांस्कृतिक
सर्वे
किया
जिसमें
भित्ति
चित्रों
सहित
हस्तलिखित
ग्रन्थों
का
संग्रह
प्राप्त
हुआ,
लेकिन
डॉक्टर
विष्णु
माली
सर
के
असामयिक
निधन
हो
जाने
के
कारण
मादड़ी
चित्रकला
शैली
पर
लिखित
पुस्तक
अभी
तक
प्रकाशित
नहीं
हो
पायी।
इस
गढ़ी
का
संरक्षण
पर्यटन
व ऐतिहासिक धरोहर
दोनों
ही
संदर्भ
में
अति-आवश्यक
हैं।
अतः स्पष्ट
है
कि
मेवाड़
के
गुहिलोत
सिसोदिया
राजवंश
के
ठिकाने
भी
ललित
कलाओं
के
संरक्षण
में
अग्रणी
रहे
हैं
जिनमें
सारंगदेवोत
सिसोदिया
जागीरदारों
द्वारा
सृजित
व
पल्लवित
मादड़ी
की
उपचित्रकला
शैली
मेवाड़
के
संदर्भ
में
अपना
मनोरम
स्थान
रखती
है।
1.गौरीशंकर हीराचन्द ओझा, उदयपुर राज्य का इतिहास, भाग 2, राजस्थानी ग्रंथागार, जोधपुर, 2015ई., पृ. 748-749 ; सम्पादक, हुकमसिंह भाटी, महावजस प्रकाश, मज्झमिका, भाग 13,प्रताप शोध प्रतिष्ठान, उदयपुर, 1989ई., पृ. 32-33, 39-40 ; धर्मपाल शर्मा,मेवाड़ संस्कृति एवं परम्परा, प्रताप शोध प्रतिष्ठान, उदयपुर, 1999ई.,पृ. 198-200
2. धर्मपाल शर्मा,मेवाड़ संस्कृति एवं परम्परा, पृ. 119-120
3. हरीश चन्द्र सोनी, ‘‘महाराणा प्रताप का स्वरूप प्राचीन चित्रों के आधार पर’’(शोध आलेख) पृ.3-8, शर्मा, रघुनाथ, ’’मेवाड़ क्षेत्र की आधुनिक कला और कलाकार’’(शोध आलेख), पृ. 9-14, वन्दना जोशी, ’’मेवाड़ की फड़ चित्रकारी एवं कलाकार’’, 47-53, सम्पादक डॉ.के.एस. गुप्ता, मेवाड़ के कलाविद, मेवाड़ गौरव स्मारिका, 2014ई. वीर शिरोमणि महाराणा प्रताप समिति, उदयपुर
4.डॉ.राधाकृष्ण वशिष्ठ, मेवाड़ की चित्रांकन परम्परा, यूनिक ट्रेडर्स, चौड़ा रास्ता, जयपुर (राज.),1984ई., पृ.सं. 28-35
5. Editor Usha Bhatia, Deogarh Painting, 1977A.D., Lalit Kala Akademi, New Delhi. Page No. 1-5, 15-18, 35-37
7.देवीलाल पालीवाल, घाणेराव के मेड़तिया राठौड़, 1997ई., प्रकाशक ठाकुर लक्ष्मण सिंह, नया फतेहपुरा, उदयपुर, पृ.सं. 13-14
10. स्वयं द्वारा चित्रकला के सेवानिवृत्त व्याख्याता(नाथद्वारा महाविद्यालय) डॉ. विष्णु माली के साथ किया
गया सर्वे; चित्रकला व्याख्याता डॉ. अर्चना कुलश्रेष्ठ (बूंदी महाविद्यालय की प्राध्यापक) का प्रकाशित
आलेख (स्वयं आलेख लेखक के संग्रह में उपलब्ध); प्रधान सम्पादक जाट डॉ. मोहन लाल, सहसम्पादक
शर्मा मयंक, तक्षमणी पत्रिका, अर्द्धवार्षिक ,अंक-1,अगस्त 2015, आलेख लेखक-माली डॉ. विष्णु,
प्रकाशक टखमण -28, कला एवं सांस्कृतिक केन्द्र उदयपुर एवं पश्चिम क्षेत्र सांस्कृतिक केन्द्र उदयपुर
11. हेमेन्द्र सिंह सारंगदेवोत, बाठेड़ा (मेवाड़) के सारंगदेवोतों का राजनीतिक इतिहास, पृ.136, मेवाड़ श्री पब्लिकेशन, नई दिल्ली एवं चित्तौड़गढ़(राजस्थान), 2021ई.
12. स्वयं द्वारा चित्रकला के सेवानिवृत्त व्याख्याता डॉ. विष्णु माली (सेठ मथुरादास बिनानी महाविद्यालय, नाथद्वारा, राजसमन्द, (राज.)एवं चित्रकला व्याख्याता डॉ. वन्दना जोशी (नाथद्वारा महाविद्यालय) के साथ किया गया विश्लेषण
13. स्वयं द्वारा चित्रकला के सेवानिवृत्त व्याख्याता (नाथद्वारा महाविद्यालय) डॉ. विष्णु माली के साथ किया गया सर्वे
14. चित्रकला व्याख्याता डॉ. अर्चना कुलश्रेष्ठ (बूंदी महाविद्यालय की प्राध्यापक) का प्रकाशित आलेख (स्वयं आलेख लेखक के संग्रह में उपलब्ध)
15. सम्पादक भुपेन्द्रसिंह चौहान आऊवा, जनकसिंह,’’हकीकत बहीड़ा महाराणा सज्जनसिंह 1874-1881ईस्वी, 2013ई.,महाराणा मेवाड़ हिस्टोरिकल पब्लीकेशन ट्रस्ट, उदयपुर
16. उदयपुर (अम्बा माता जी मंदिर के निकट, हाल मुकाम उदयपुर ) निवासी अंतर्राष्ट्रीय चित्रकार ओमप्रकाशजी सोनी बिजोलियाँ द्वारा लिए गए साक्षात्कार,उम्र 60 वर्ष
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