शोध आलेख / रोमांस : भाषा, विधा और प्रवृत्ति / अंगद तिवारी

रोमांस : भाषा, विधा और प्रवृत्ति
- अंगद तिवारी


शोध
-सार : रोमांस या रोमान शब्द का अर्थ सभी कालों में एक जैसा नहीं रहा है। इसमें निरंतर विकास और परिवर्तन होता रहा है। पुनर्जागरण काल में यह शब्द लैटिन के मूलाधार से निकलकर जातीय संस्कृतियों की विशेषताओं को आत्मसात कर विकसित होने वाली भाषाओं का वाचक शब्द था। बाद में यह इन भाषाओं के पद्य,फिर गद्य और फिर गद्य और पद्य दोनों में लिखे गए साहित्य का वाचक बन गया। आगे चलकर इन भाषाओं में अभिव्यक्त साहित्यिक प्रवृत्तियों तथा दूसरी भाषाओं से रोमांस भाषाओं में अनूदित साहित्य में अभिव्यक्त होने वाली प्रवृत्तियों को भी रोमांस या रोमान ही कहा गया। उपन्यास के उद्भव और विकास के पूर्व इसकी पहचान एक साहित्यिक विधा के रूप में की गई। बाद में रोमांस को उपन्यास ने आत्मसात कर लिया। रोमांस और उपन्यास में भेद का आधार उनकी प्रवृत्तियों के साथ-साथ लेखकीय दृष्टि के संतुलन को स्वीकार किया गया। यूरोप का रोमांटिक आंदोलन जो वस्तुत: आंदोलनों की एक श्रृंखला था और मध्ययुगीन रोमांस से प्रेरणा तथा प्रतिदर्श ग्रहण कर नव आभिजात्यवाद के विरुद्ध विकसित हुआ था; अपनी तमाम नवीनताओं के बावजूद मध्ययुगीन रोमांस से पूरी तरह मुक्त नहीं था। इसलिए रोमान या रोमांस की अवधारणा इन दोनों के समन्वित रूप से ही बनती है। हिन्दी का रोमानी आंदोलन छायावाद इससे कुछ प्रभावित अवश्य था, लेकिन वह सिर्फ प्रभाव ही था अनुकरण नहीं। इस आंदोलन के दरम्यान रचित साहित्य की पहचान भी यूरोपीय रोमांटिक साहित्य की तरह उसकी प्रवृत्तियों और लेखकीय दृष्टि के संतुलन को आधार बनाकर ही की जा सकती है।

बीज शब्द : रोमान, स्वच्छंदतावाद, आभिजात्यवाद, नव आभिजात्यवाद, प्रकृतिवाद, मानवतावाद, आदर्शवाद, छायावाद, साम्राज्यवाद, पुनर्जागरण, फैंटेसी, इतिवृत्त, मूर्तविधान, प्रतीक विधान, क्रान्ति।

मूल आलेख : साहित्य की एक प्रवृत्ति के रूप में रोमान या रोमांस की धारणा बहुत बाद में आयी। पहले शास्त्रीय और अभिजात भाषा के समानांतर बोली जाने वाली भाषाओं को रोमांस के रूप में परिभाषित किया गया। यह सही है कि फ्रेंच, इटालियन,  स्पेनिश, पुर्तगीज, प्रोवेंसाल, रोमानियन,  रोमांच्स आदि भाषाओं का विकास लैटिन के मूल आधार पर ही हुआ, लेकिन ये भाषाएँ लैटिन से स्वतंत्र थीं और जातीय संस्कृतियों की विशेषताएँ आत्मसात करके विकसित हो रही थीं। यूरोप के रूढ़िवादी पादरी-पुरोहित इन भाषाओं का उपहास करने के लिए इन्हें रोमांसकहते थे जिसका अर्थ था वरनाक्युलर लैंग्वेज, डर्टी लैंग्वेज या गंदी भाषा। गिलिन बीर ने रोमांसमें इस तथ्य का उल्लेख किया है कि आरंभिक मध्यकाल में यूरोप में रोमांसशब्द से अभिप्राय तात्कालीन विद्वत जनों की भाषा लैटिन से विकसित और उसी के विरुद्ध प्रयुक्त होने वाली देशज भाषाओं से लिया जाता था।1 इस तथ्य का उल्लेख कॉन्साइज ऑक्सफोर्ड डिक्शनरी ऑफ लिटरेरी टर्म्स2 और पेंगुइन डिक्शनरी ऑफ लिटरेरी टर्म्स एंड लिटरेरी थिअरी3 में भी है।

    लैटिन रोमन साम्राज्य की राजभाषा तो थी ही, वह ईसाइयों की धर्म भाषा भी थी। आठवीं सदी के आसपास लैटिन से विकसित होकर विभिन्न यूरोपीय भाषाएँ लैटिन के समानांतर खड़ी होने लगी थीं। एफ. एल. लुकास का विचार है कि प्रथमत: इन्हें लिंगुआ रोमानिकाकहा गया। इस लिंगुआ रोमानिकाके क्रिया विशेषण- रोमानिससे रोमांससंज्ञा बनी जो देशज भाषाओं का बोध कराती है। बाद में रोमांसका अर्थ-विस्तार हुआ और उसमें रोमांस भाषाओं का पद्य साहित्य, फिर उनका गद्य और पद्य दोनों शामिल हुए। आगे चलकर रोमांस भाषाओं के गद्य और पद्य साहित्य में अभिव्यक्त प्रवृत्तियों और दूसरी भाषाओं से रोमांस भाषाओं में अनूदित साहित्य को भी रोमांसके अंतर्गत ही गिना गया। इन सभी प्रकार की रचनाओं को रोमांसके अलावा रोमान’  ‘रोमांसर’ ‘एन. रोमांसरऔर रोमांजोआदि भी कहा गया। लुकास ने अर्थ-विस्तार की इस प्रक्रिया के बारे में लिखा है कि समयान्तर के साथ रोमांसशब्द कम से कम तीन प्रकार के अर्थों का द्योतन करता है। सर्वप्रथम रोमांसका अर्थ कुछ खास भाषाएँ, फिर उन भाषाओं में लिखा गया साहित्य एवं तत्पश्चात उस साहित्य की विशेषताएँ।4 जाहिर है कि अर्थ विस्तार के फलस्वरूप रोमांसका अर्थ निश्चित से अनिश्चित की दिशा में बढ़ा।

    जिन भाषाओं और उनमें लिखित साहित्य को रोमांसआदि नामों से पुकारा गया, उनके गुणों, विशेषताओं एवं प्रवृत्तियों के आधार पर रोमांसकी अवधारणा का विकास हुआ। धर्म और शासन की भाषा लैटिन से रोमांस भाषाओंऔर उनके साहित्य का अंतर्विरोध ही यह स्पष्ट करता है कि रोमान की सारवस्तु धर्म, समाज और संस्कृति की स्थापित शक्तियों से टकराव में विकसित हुई है। इसलिए विद्रोह, नवीनता, आवेश, उत्तेजना, जैसे गुण रोमान की अवधारणा का निर्माण करते हैं।

    यूरोपीय भाषा और साहित्य में रोमांसको उपन्यास का पूर्ववर्ती कथा-रूप माना गया है। मध्यकालीन यूरोप में चर्च के वर्चस्व के कारण जीवन और समाज धार्मिक और नैतिक आचार संहिताओं से निर्देशित होता था। लेकिन एक कथा-रूप के तौर पर रोमांसइसी युग में स्थापित हो चुका था। यूरोप में उपन्यासनामक कथा-रूप और प्रकृतिवादनामक जीवन-दृष्टि या कला आंदोलन के उद्भव और विकास के समानांतर भी रोमांसलेखन का कार्य चलता रहा। आगे सत्रहवीं सदी के बाद तक उसकी उपस्थिति पायी जाती है। लेकिन इस दौर में रोमांसलेखन में कुछ बुनियादी परिवर्तन हुए। पहला परिवर्तन तो यह हुआ कि पद्यात्मक रोमांस का अधिक से अधिक स्थान गद्यात्मक रोमांस ने लिया। दूसरा परिवर्तन यह हुआ कि रोमांस में जीवन और समाज की वास्तविकताओं को भी न्यूनाधिक स्थान मिलने लगा। बाद में ऐसी स्थिति भी आई जब रोमांसऔर उपन्यासदोनों कथा-रूपों में अंतर करना मुश्किल होने लगा और धीरे-धीरे उपन्यास ने अपने पूर्ववर्ती कथा-रूप रोमांसको अपने में आत्मसात कर लिया। परिणाम यह हुआ कि अब रोमांसके विषयों को लेकर उपन्यासलिखे जाने लगे और मात्रा भेद के साथ उपन्यासके तत्त्वों को रोमांसमें स्थान मिलने लगा। इसलिए रोमांसऔर उपन्यासमें अंतर स्थापित करने का आधार अब विषय वस्तु और प्रवृत्तियों की जगह लेखकीय दृष्टि का संतुलन बन गया है।

     आमतौर पर रोमांससमाज के आभिजात्य वर्ग से संबद्ध होते हैं जिनमें उस वर्ग के लोगों के सतत एवं एकनिष्ठ प्रेम, अपराजेय साहस के अलावा आश्चर्य, चमत्कार, कल्पना, इच्छापूर्ति, स्वप्नलोक और परीलोक के सृजन, अप्रत्याशित, आकस्मिकता, असंभाव्यता, वास्तविकता से अलगाव या पलायन आदि के तत्त्व पाए जाते हैं जबकि जीवन और समाज के करीब होने और अपने में जीवन और समाज की वास्तविकताओं के निर्वचन और प्रतिनिधित्व करने के कारण उपन्यास का संबंध समाज के किसी भी वर्ग और स्थिति से हो सकता है। उपन्यास में भी प्रेम, साहस, कल्पना, आश्चर्य और आनंद आदि तत्त्वों का समावेश हो सकता है किन्तु किसी भी हालत में इन तत्त्वों का समावेश रोमांसकी भाँति चमत्कारी और अविश्वसनीय नहीं होना चाहिए। रोमांसअपने पाठक से रोमांसकार के साथ दृष्टिगत समानता, स्वविवेक एवं स्वविचार के निषेध  तथा पूर्ण समर्पण की अपेक्षा रखता है जबकि उपन्यासअपने पाठकों से ऐसे किसी अनुबंध की अपेक्षा नहीं रखता है। इस दृष्टि से उपन्यासअधिक जनतांत्रिक और आधुनिक साहित्यिक विधा है। रोमांसका उद्देश्य प्राय आनंद की प्राप्ति और मनोरंजन होता है जबकि उपन्यासका उद्देश्य सिर्फ मनोरंजन नहीं होता। आधुनिक जीवन में उपन्यासों ने महाकाव्य का स्थान ग्रहण किया है। अतः महाकाव्य की ही भाँति इनका उद्देश्य भी प्राय: महत् होता है। रोमांस अपने पाठकों पर क्षणिक और अस्थाई प्रभाव छोड़ता है क्योंकि उसका पाठक कुछ ही समय तक रोमांसकार द्वारा सृजित वायवीय दुनिया में विचरण कर पाता है। जैसे ही वह यथार्थ के धरातल पर उतरता है; उसे सब कुछ स्वप्न-सा झूठा लगने लगता है। इसके विपरीत उपन्यास अपने पाठकों पर दीर्घकालिक और कई बार स्थाई प्रभाव छोड़ता है। कानग्रीव ने रोमांसऔर उपन्यासमें अंतर स्थापित करते हुए ठीक ही लिखा है- कि रोमांसनायक-नायिका, राजा-रानी और समाज के उच्चवर्गीय लोगों के सतत एवं एकनिष्ठ प्रेम तथा अपराजेय साहस के ताने-बाने से बुनी वह कथा-रचना होती है जिसकी भाषा ऊदात्त, घटनाएँ चमत्कारिक, अप्रत्याशित और प्रदर्शन असंभाव्य किस्म का होता है। रोमांस रचनाएँ अपने पाठकों को केवल आश्चर्य में डालती हैं बल्कि उनका मानसिक उन्नयन कर उन्हें जीवन और समाज की वास्तविकताओं से दूर किसी काल्पनिक दुनिया में ले जाकर चकित कर देने वाला आनंद प्रदान करती हैं जिसमें पाठक अपनी वास्तविक स्थिति भूल जाता है और यह सोचने पर विवश हो जाता है कि पठित अवतरणों में उसे कैसी अनुभूति हुई? इसके विपरीत उपन्यासएक अधिक परिचित साहित्यिक विधा है जो केवल हमारे जीवन और समाज के करीब है बल्कि उसका प्रतिनिधित्व भी करता है। उपन्यास में वर्णित जीवन और समाज की घटनाओं-दुर्घटनाओं से हमें आनंद की प्राप्ति होती है लेकिन यह आनंद अप्रत्याशित और अविश्वसनीय किस्म का नहीं होता। कानग्रीव के अनुसार रोमांसऔर उपन्यासमें उपरोक्त अंतर के बावजूद उसके अनुपात (प्रोपोर्शन) में कुछ वैसी ही समानता देखी जा सकती है जैसी कॉमेडी और ट्रेजडी में।5उपन्यासऔर रोमांसके संबंध में लगभग इसी प्रकार की बात गिलिन बीर ने रोमांसमें की है।6

     रोमांसऔर उपन्यासके बीच अंतर स्पष्ट करने के क्रम में रोमांसकी कई विशेषताओं, गुणों एवं प्रवृत्तियों का उद्घाटन तो होता है लेकिन इसे पर्याप्त इसलिए नहीं माना जा सकता है कि यूरोप में एक लंबी अवधि तक अलग-अलग देशों की अलग-अलग भाषाओं में रोमांसलेखन का कार्य हुआ है जिसके परिणामस्वरूप हीरोइक, आर्थिरियन, गोथिक, हिस्टोरिकल, पेस्टोरल, पिकारेस्क आदि रोमांस के अनेक रूप सामने आए हैं। रोमांस लेखन का कार्य आज भी किसी किसी रूप में जारी होने के कारण इनमें केवल नित्य नूतन तत्त्वों का समावेश जारी है बल्कि उनके नए-नए रूप भी विकसित हो रहे हैं। ऐसी स्थिति में रोमांस की प्रकृति, स्वरूप एवं उसकी विशेषताओं का अंतिम रूप से सर्वमान्य निर्धारण संभव नहीं है। दूसरी बात यह है कि रोमांस के विभिन्न रूपों की अपनी अलग-अलग विशेषताएँ भी हैं जो उन्हें रोमांस के शेष रूपों से अलग पहचान प्रदान करती हैं। अलग-अलग पहचान प्रदान करने वाली इन विशेषताओं को समन्वित कर रोमांसका अंतर्विरोध रहित स्वरूप निश्चित नहीं किया जा सकता। इसलिए अवधारणा के रूप में भी वह स्पष्टत: परिभाषित पद होकर कुछ प्रवृत्तियों, विशेषताओं, तत्त्वों और लेखकीय दृष्टि का संकेत है। ऐसी स्थिति में रोमांसकी प्रवृत्ति और स्वरूप के निर्धारण के लिए यह आवश्यक है कि उसकी सामान्य विशेषताओं, गुणों एवं तत्त्वों की पहचान की जाय।

    गिलिन बीर ने प्रेम, साहस, जोखिम, प्रचुर ऐन्द्रीय और मांसल वर्णन, सरलीकृत चरित्र, वस्तुपरकता और काल्पनिकता का मिश्रण, लेखक, नायक और पाठक सभी स्तरों पर जीवन और समाज की वास्तविकताओं से पलायन, कथा तत्त्वों के अनुपातों में असंतुलन, जटिल घटना विधान, अनेक उत्कर्षों से युक्त घटनाओं का सिलसिला, सुखद अंत, चरित्र पर एक खास तरह की आचार संहिता के पालन का दबाव, वैयक्तिकता और सामान्य भाषा के प्रयोग आदि को रोमान की विशेषताओं के रूप में स्वीकार किया है।7 पेंगुइन डिक्शनरी ऑफ लिटरेरी टर्म्स एंड लिटरेरी थिअरीमें फैंटेसी, असंभाव्यता, असंयम, भोलापन, निष्कपटता, प्रेम, साहस, शौर्य, मिथ और चमत्कार आदि को रोमांस का तत्त्व माना गया है।8लिटरेरी टर्म्स एंड क्रिटिसिजममें साहस, प्रेम, शौर्य, घटनाओं की अलौकिकता, आदर्शात्मकता, परीलोक का सृजन, आम जीवन से अलगाव आदि को रोमांस की विशेषताओं के रूप में स्वीकार किया गया है।9 लॉन्गमैन डिक्शनरी आफ इंग्लिश लैंग्वेज’- में शौर्य, प्रेम, साहस, वीरता, रहस्यात्मकता, कल्पना और भावुकतापूर्ण आकर्षण को रोमांस का गुण माना गया है।10

     इस आधार पर यदि रोमांस के स्वरूप और प्रकृति का निर्धारण किया जाय तो यह कहा जा सकता है कि-रोमांस पद्य या गद्य या दोनों में लिखी गई वह कथात्मक कृति है जिसमें- साहस, शौर्य, वीरता, प्रेम, कल्पना, वैयक्तिकता, रहस्यात्मकता, जोखिम, असंयम, भोलापन, निष्कपटता, मिथ, फैंटेसी, चमत्कार, आदर्शात्मकता, असंभाव्यता, जीवन और समाज की वास्तविकताओं से पलायन, स्वप्न या परीलोक का सृजन, आकस्मिकता, इच्छापूर्ति, भावुकतापूर्ण आकर्षण, घटनाओं की अलौकिकता, जटिल घटना विधान, अनेक उत्कर्षोंवाली घटनाओं का सिलसिला, वस्तुपरकता और काल्पनिकता का मिश्रण, प्रचुर ऐन्द्रीय और मांसल वर्णन, कथा-तत्त्वों के अनुपातों में असंतुलन, सरलीकृत चरित्र, सुखद अन्त, सामान्य भाषा का प्रयोग, चरित्र पर एक खास तरह की आचारसंहिता के पालन का दबाव आदि तत्त्व पाये जाते हैं। जिन रचनाओं में उपरोक्त विशेषताएँ मौजूद हों उन रचनाओं को रोमांटिक रचनाएँ कहा जाता हैं। जाहिर है कि रोमांटिकशब्द रोमांसका विशेषण है और इन दोनों में अन्योन्याश्रय संबंध है।

    रोमांटिकके लिए हिन्दी में रोमानी’, ‘रूमानीअथवा स्वच्छंद प्रति शब्दों का प्रयोग किया जाता है। एफ. एल. लुकास ने रोमांटिकशब्द के प्रयोग के दो संदर्भों का उल्लेख किया है। प्रथम- यूरोपीय रोमांटिक आंदोलन के संदर्भ में और द्वितीय मध्यकालीन रोमांसों के संदर्भ में। लेकिन उनका यह विचार है कि रोमांटिकशब्द का रोमांस की विशेषताओं से युक्त होने वाला अर्थ और प्रयोग ज्यादा पुराना है; और उसे अब भुला दिया गया है तथा रोमांटिक आंदोलनने इस शब्द को नई अर्थवत्ता प्रदान की है। इसलिए अब रोमांटिकशब्द का रोमांटिक आंदोलन के दौरान विकसित अर्थ ही प्रासंगिक है।11 लुकास का यह विचार सही है कि रोमांटिक आंदोलन ने रोमांटिकशब्द के अर्थ का विस्तार किया है। किन्तु इसका यह मतलब कदापि नहीं हो सकता कि इस शब्द के पुराने अर्थ को रोमांटिक आंदोलन ने समाप्त कर दिया है। यूरोप का रोमांटिक आंदोलन जीवन-दृष्टि, लेखन की भावभूमि, और उपकरण (टूल्स) तीनों ही स्तरों पर मध्ययुगीन रोमांस साहित्य का ऋणी है। इसलिए लुकास का यह विचार सर्वथा निरापद नहीं है कि रोमांटिक शब्द के पुराने अर्थ को भुला दिया गया है। इस संदर्भ में रेने वेलेक का यह विचार ज्यादा सही है कि स्वच्छंदतावाद नवआभिजात्यवाद का विरोधी है और उसने केवल प्रेरणा बल्कि मॉडल (प्रतिदर्श) भी मध्य युग और पुनर्जागरण काल से ग्रहण किए हैं।12

    आलोचना के क्षेत्र में रोमांटिकशब्द का प्रयोग सबसे पहले श्लेगल ने आभिजात्य साहित्य के विरोध में किया था। उसके अनुसार आभिजात्यवादी साहित्यकार अपरिमित एवं अनिश्चित विचारों और अनुभूतियों को निश्चित रूप विधान में ढालने का प्रयत्न करता है जबकि रोमांटिक साहित्यकार स्वच्छंद अभिव्यक्ति और नवनिर्मित रूप विधान में विश्वास करता है। आभिजात्यवाद, शास्त्रवाद और श्रेण्यवाद अंग्रेजी के क्लासिसिज़्मके हिन्दी प्रतिरूप और आपस में एक दूसरे के पर्यायवाची हैं। श्लेगल ने जब से आभिजात्य साहित्य के विरुद्ध रोमांटिकशब्द का प्रयोग किया है;  तब से एक की प्रकृति को समझने के लिए दूसरे की प्रकृति पर विचार करना आवश्यक-सा हो गया है। लेकिन इस पक्ष पर विचार करने से पहले यूरोप के कला और साहित्य में आभिजात्यवादी और रोमानी साहित्य की चक्राकार आवृत्ति पर दृष्टिपात करना जरूरी है।

    यदि आभिजात्य और रोमानी साहित्य के उन्मेष की दृष्टि से यूरोपीय कला और साहित्य के इतिहास का विहंगावलोकन किया जाए तो यह निष्कर्ष निकलेगा कि यूरोप में आभिजात्य और रोमनी साहित्य-लेखन के युगों की बार-बार आवृत्ति हुई है। पाँचवीं शताब्दी ईसा पूर्व से लेकर पाँचवीं शताब्दी तक के काल को यूरोपीय कला और साहित्य के इतिहास में आभिजात्य या शास्त्रीय युग माना गया है। प्लेटो, अरस्तू और होरेस आदि को आभिजात्यवादी कला चिंतक माना गया है। प्लेटो के रिपब्लिक  अरस्तू के पोइटिक  और होरेस के आर्स पोइटिक  में सुझाए गए कला और साहित्य के सिद्धांतों और प्रतिमानों को आभिजात्यवादी कलाकार और साहित्यकार अपना आदर्श मानते हैं। वे सरलता, सहजता, सादगी, संतुलन, अनुशासन, नैतिकता, मर्यादा, परंपरानुमोदन, निश्चित रूप विधान, श्रेष्ठ चरित्र सृजन आदि में विश्वास करते हैं। उनके अनुसार साहित्य और कला का उद्देश्य आनंद के अलावा समाजोपयोगी आदेश और निर्देश देना भी है। आभिजात्यवादी साहित्यकार मनुष्य की मूल वृत्तियों की अकुंठ और स्वच्छंद अभिव्यक्ति के लिए अवकाश नहीं देते हैं। इसी अर्थ में आभिजात्यवादी साहित्य रोमानी साहित्य का विरोधी सिद्ध होता है। रोमानी साहित्यकार आभिजात्यवादी जीवन मूल्यों को केवल अस्वीकार करते हैं बल्कि मनुष्य की मूल वृत्तियों की अकुंठ और स्वच्छंद अभिव्यक्ति में विश्वास रखते हैं। वे किसी भी प्रकार के अनुशासन में बंधना नहीं चाहते और साहित्य को आनंद की वस्तु मानते हैं, भले ही वह आनंद क्षणिक और वायवीय ही क्यों हो।

    ईसा की पाँचवीं शताब्दी से लेकर चौदहवीं-पंद्रहवीं शताब्दी तक यूरोप में चर्च और धर्म का वर्चस्व रहा। इसलिए इस अवधि में कला और साहित्य का विकास धार्मिक अनुशासन में हुआ जो सांस्कृतिक उपलब्धि की दृष्टि से नगण्य है। इस युग को कला और साहित्य के विकास की दृष्टि से अंधकार युग (डार्क एज) कहा जाता है। चौदहवीं और पंद्रहवीं सदी आते-आते चर्च और धर्म की पकड़ ढीली पड़ी। धार्मिक जड़ता में कमी आई। चिंतन मानव केंद्रित हुआ और व्यक्ति स्वातंत्र्य पर बल दिया गया। इस काल को पुनर्जागरण (रेनेसां) का काल कहा गया। इस काल में मानव केंद्रित चिंतन और व्यक्ति स्वातंत्र्य पर बल की प्रवृत्ति ने कला और साहित्य के क्षेत्र में भी मुक्ति और स्वच्छंदता के द्वारा खोले। परिणामस्वररूप प्रचुर रोमानी साहित्य लिखा गया। यूरोपीय कला और साहित्य के इतिहास में इस रोमानी साहित्य-लेखन को प्राचीन आभिजात्यवादी साहित्य-लेखन की प्रतिक्रिया के रूप में देखा गया। पुनर्जागरणकालीन रोमानी साहित्य-लेखन अपनी आतिशय काल्पनिकता, अत्यधिक स्वच्छंदता एवं वायवीयता के कारण सत्रहवीं शताब्दी के सातवें दशक तक आते-आते हाशिए पर चला गया। 1664 . में ब्यालू (bioleau) ने आर्ट पोइटीकलिख कर यूरोप के कला और साहित्य में एक बार पुनः प्लेटो, अरस्तू और होरेस आदि के कला एवं साहित्य संबंधी सिद्धांतों की पुनर्स्थापना की जिसके परिणामस्वरूप एक बार पुन: आभिजात्यवादी साहित्य-लेखन की धारा यूरोपीय कला और साहित्य की मुख्य धारा बनी। यूरोप के कला और साहित्य के इतिहास में इसे नव आभिजात्यवाद (नियोक्लासिसिज़्म) के नाम से अभिहित किया गया। अंग्रेजी साहित्य लेखकों में बेन जानसन, ड्राइडन, पोप, डा.सैमुअल जानसन, फील्डिंग, गोल्डस्मिथ, गिब्बन आदि ने अपने लेखन से इस नव आभिजात्यवादी साहित्य को समृद्ध किया। नव आभिजात्यवादी साहित्यकार परंपरावादी थे। प्राचीन आभिजात्यवादी चिंतकों और साहित्यकारों के प्रति उनके मन में आदर का भाव था। प्राचीन आभिजात्यवादियों की तरह ही नव आभिजात्यवादी साहित्यकार भी साहित्य को कला मानते थे और उनका विचार था कि कला के बारे में जो कुछ भी सर्वश्रेष्ठ सोचा या लिखा जा सकता है;  वह प्राचीन आभिजात्यवादी चिंतकों एवं साहित्यकारों ने लिख दिया है। अब उसके आगे की बात सोची जा सकती है और लिखी जा सकती है। अतः नव आभिजात्यवादी साहित्य में एक तरह से प्राचीन यूरोपीय आभिजात्यवादी सिद्धांतों का अनुकरण किया गया। अतिशय बुद्धिवादिता और अनुशासनप्रियता ने इस आंदोलन को कृत्रिम बना दिया। अठारहवीं सदी के उत्तरार्ध में फ्रांस में रूसो और वाल्तेयर के सामाजिक, राजनीतिक और दार्शनिक विचारों का व्यापक प्रभाव पड़ा। सोशल कॉन्ट्रैक्टऔर एमिलीके प्रकाशन, स्वतंत्रता, समानता और विश्वबंधुत्व तथा व्यक्ति स्वातंत्र्य के नारों ने फ्रांसीसी जनमानस को आंदोलित कर दिया। परिणामस्वररूप 1789 . में फ्रांसीसी क्रांति हुई। फ्रांसीसी क्रांति ने यूरोप में सामंतवाद के पतन और औद्योगिक पूंजीवाद के विकास का मार्ग प्रशस्त किया। नव आभिजात्यवादी आंदोलन पर इसका गहरा प्रभाव पड़ा। लेसिंग, बर्न, ब्लेक, वर्ड्सवर्थ, कॉलरिज, शेली, वायरन और कीट्स आदि ने नव आभिजात्यवादी बुद्धिवादिता, अनुशासनप्रियता और कृत्रिमिता का विरोध किया। उपरोक्त सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक परिस्थितियों के सामूहिक प्रभाव के कारण अठारहवीं शताब्दी के अंतिम कुछ वर्षों में जर्मनी, इंग्लैंड एवं फ्रांस में एक बार पुनः रोमांटिक उन्मेष हुआ जिसने धीरे-धीरे आन्दोलनातमक रूप ग्रहण कर लिया। यूरोप के कला और साहित्य के इतिहास में इस आंदोलन को रोमांटिक आंदोलनया रोमांटिक रिवाइवलकहा गया। डॉ. रामविलास शर्मा ने रोमांटिक आंदोलन पर फ्रांसीसी क्रांति के प्रभाव का मूल्यांकन करते हुए कहा है कि ‘’फ्रांस की राज्य क्रांति का बहुत गहरा असर अनेक देशों पर पड़ा, विशेष रूप से यूरोप के देशों में जो जागरण हुआ, साहित्य में जो प्रगति हुई, उसके बाद इंग्लैंड में प्रसिद्ध साहित्य का आंदोलन चला जिसे हम रोमांटिक आंदोलन के नाम से जानते हैं। फ्रांस में बादशाही और उसके समर्थक जमींदारों की सत्ता बलपूर्वक उलट दी गयी।13  

     यह रोमांटिक आंदोलन मध्ययुगीन रोमानी उन्मेष की तुलना में प्रसार एवं प्रभाव में व्यापक, कलात्मकता की दृष्टि से अधिक गहरा, अलग-अलग देशों की परिस्थितियों एवं कारणों में भिन्नता के चलते अपनी प्रकृति में काफी कुछ भिन्न और कहीं-कहीं अंतर्विरोधी तथा जीवन के अनेक क्षेत्रों में फैला हुआ था। कॉम्पटन्स एनसाइक्लोपीडियामें इस आंदोलन के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि रोमांटिक आंदोलन की शुरुआत 18वीं शताब्दी के अंत से 19वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध तक विभिन्न चरणों, विभिन्न देशों एवं जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में हुई। इसलिए रोमांटिक आंदोलन को केवल एक आंदोलन मानकर उसे आंदोलनों की एक श्रृंखला माना जा सकता है जिसने कला, साहित्य, विज्ञान, धर्म, अर्थशास्त्र, राजनीति तथा व्यक्तियों की स्वयं की समझ आदि को गहरे स्तर पर प्रभावित किया। इस विश्वव्यापी आंदोलन की अलग-अलग धाराएँ थीं और वे सभी धाराएँ तो अपनी प्रकृति में समान थीं और सभी समयों में इनका एक जैसा प्रभाव था। बल्कि कई बार तो वह अपने परिणाम और प्रभाव में एक-दूसरे की विरोधी भी दिखाई देती थीं।14 शायद इसीलिए लवजॉय ने विभिन्न देशों के रोमांटिक आंदोलनों को बहुवादकी संज्ञा प्रदान की, जिसमें साझापन तो हो सकता है, हालांकि वह भी काफी अस्पष्ट है, लेकिन उनमें आपसी मिलान काफी कम है, भिन्नता और विपरीतता ज्यादा ज्यादा है। जाहिर है कि ऐसे किसी आंदोलनया वादकी सर्वांग पूर्ण और सर्वमान्य परिभाषा नहीं दी जा सकती। लेकिन इस बहुवाद, अस्पष्टता और विपरीतता के बावजूद इस आंदोलन के रोमांटिकवादनामकरण में, मध्य युग और पुनर्जागरण से प्रेरणा ग्रहण करने में, नव आभिजात्यवाद के विरोधी होने में, श्लेगल और मदाम स्तेल के तर्कों को स्वीकार करने में, काव्य में कल्पना-व्यापार की सक्रियता,  प्रकृति-मानव के भावात्मक संबंधों के बोध, ग्रहण और अभिव्यक्ति, मूर्तविधान, प्रतीक-विधान,  मिथकों के प्रयोग आदि में पर्याप्त  समानताएँ मिलती हैं। इसलिए इन बुनियादी समानताओं के आधार पर रोमांटिकवाद की प्रकृति एवं स्वरूप की एक सामान्य रूपरेखा बनाई जा सकती है। इस दिशा में अनेक प्रयत्न भी हुए हैं लेकिन ज्यादातर प्रयत्न रोमांटिक साहित्य को आभिजात्य साहित्य के बरक्स रखकर किए गए हैं जिनसे यह विदित होता है कि अनुशासन, परंपरानुमोदन, चुस्ती-दुरुस्ती, संतुलन, संयम, शालीनता, चारुता, शांति, आदर्श, औचित्य प्रतिपादन, इतिवृत्तात्मकता, स्वीकृत, मान्य और स्थापित मूल्यों, व्यवस्थाओं एवं नियमों के प्रति संवेदनशीलता आदि तत्त्वों से युक्त साहित्य आभिजात्य (शास्त्रीय) या क्लासिक साहित्य है जबकि अतिवाद, साहसिकता, नवीनता, परंपरा विरोध, आवेश, शक्ति, आकुलता, कुतूहल, क्षोभ, प्रगति, प्रयोगधर्मिता, उत्तेजकता, आध्यात्मिकता, इतिवृत्तात्मकता के प्रति अरुचि, अन्योक्त पद्धति का अनुसरण, स्वीकृत, मान्य और स्थापित मूल्यों, व्यवस्थाओं एवं नियमों के प्रति असंतोष और विद्रोह, नवीन व्यवस्था की खोज, अप्रत्यक्ष-अज्ञात की जिज्ञासा और उद्दाम आकांक्षा तथा इन तत्त्वों एवं प्रवृत्तियों से जुड़े अन्य आनुषंगिक तत्त्वों एवं प्रवृत्तियों से युक्त साहित्य रोमांटिक साहित्य है। जेम्स स्कॉट ने आभिजात्य साहित्य और रोमांटिक साहित्य की तुलना करते हुए लिखा है कि ‘’क्लासिसिज़्म सदा मध्यम मार्ग की खोज में रहता है जबकि रोमांटिक अति की, क्लासिक को शक्ति पसंद है जबकि रोमांटिक को साहसिकता आकर्षित करती है, एक परंपरा की ओर देखता है जबकि दूसरा नवीनता की ओर, एक के पक्ष में वे सब गुण-दोष सकते हैं जिनका संबंध चुस्ती-दुरुस्ती और औचित्य, संतुलन, संयम, गतानुगतिकता, अनुशासन, शक्ति, आदि के साथ है तो दूसरे के पक्ष में उन गुण-दोषों का समावेश है जो आवेश, शक्ति, आकुलता, आध्यात्मिकता, कुतूहल, प्रक्षुब्धता, प्रगति, प्रयोगिता तथा उत्तेजकता की भावनाओं के साथ-साथ चला करते हैं।’’15

     जेम्स स्कॉट की ही भांति स्टोडर्ड ने भी आभिजात्य साहित्य के संदर्भ में रोमांटिक साहित्य की रूप-रेखा सुनिश्चित करने का प्रयत्न किया है। उनका विचार है कि ‘’शास्त्रीय रचना की पृष्ठभूमि में एक स्थिर आदर्श, स्वीकृत अंग, संगठित लक्ष्य, सुचारुता, योग्यता और एक तारतम्य रहा करते हैं। इस प्रकार के आदर्श की स्वीकृति शास्त्रीय एकता या वस्तु संतुलन की सूचना देती है। इसके वाह्य लक्षण-क्रमबद्धता, आनुषंगिकता, नियमानुवर्तिता, आलंकारिकता होते हैं। काव्य की शास्त्रीय पद्धति का सूत्रपात वैधानिक है। इसका परिपोषण अनुशासित वाक्यों से होता है। इसके आदर्श ज्ञात होते हैं। शास्त्रीय कवि आदर्शवादी होता है। स्वच्छंदतावादी इतिवृत्त की उपेक्षा करता है और अन्योक्ति की शरण लेता है। प्रत्यक्ष को त्याग कर गहनत्व का अनुसंधान करता है। स्वीकृत विधान से असंतोष में स्वच्छंदतावाद का जन्म होता है। यह निरंतर सजग होकर एक ऐसी नवीन व्यवस्था की खोज करता है जो पुरानी और मान्य व्यवस्था का अतिक्रमण कर सके। अतः परंपरावादी कवि की तुलना में स्वच्छंदतावादी कवि अनुपात संतुलन एवं परिष्कार के गुणों की न्यूनता लेकर आता है। शास्त्रीयवाद शालीन स्वीकृति है जबकि स्वच्छंदतावाद उद्दाम आकांक्षा।’’16

     जेम्स स्काट और स्टोडर्ड ने रोमांटिक साहित्य के जिन तत्त्वों और प्रवृत्तियों का उल्लेख किया है, उनमें से अनेक तत्त्व और प्रवृत्तियाँ मध्यकालीन रोमानी साहित्य में विद्यमान थीं। अतः यह कहने में कोई दुविधा नहीं है कि तमाम नवीनताओं के बावजूद रोमांटिक आंदोलन पर केवल मध्यकालीन रोमानी साहित्य का प्रभाव है बल्कि उसने मध्यकालीन रोमानी साहित्य से प्रेरणा और प्रतिदर्श दोनों ग्रहण किया है। इसलिए इस संदर्भ में लुकास की तुलना में रेने वेलेक का विचार ज्यादा स्पष्ट और प्रामाणिक है। आभिजात्य साहित्य और रोमांटिक साहित्य दोनों में व्यक्त प्रवृत्तियाँ वास्तव में जीवन और समाज को देखने और जीने की दो अलग-अलग दृष्टियों एवं पद्धतियों का परिणाम हैं। जीवन और समाज में ये दोनों परस्पर विरोधी दृष्टियाँ किसी किसी रूप में हमेशा मौजूद रहती हैं और कला एवं साहित्य में इनकी अभिव्यक्ति भी होती रहती है। अंतर सिर्फ यह होता है कि किसी युग में एक जीवन-दृष्टि प्रमुख जीवन-दृष्टि बन जाती है और दूसरी गौण। पुनः अनुकूल समय मिलने पर गौण जीवन-दृष्टि प्रमुख जीवन-दृष्टि बन जाती है और जो प्रमुख जीवन-दृष्टि थी वह गौण। जीवन और समाज में जब जो जीवन-दृष्टि प्रमुख जीवन-दृष्टि बनती है; तब उस दृष्टि से प्रेरित कला और साहित्य उस युग के प्रमुख कला और साहित्य बन जाते हैं। इस प्रकार कला और साहित्य में आभिजात्य और रोमांटिक साहित्य की बार-बार आवृत्ति होती रहती है। यूरोप में अठारहवीं शताब्दी के अंतिम कुछ वर्षों से लेकर उन्नीसवीं सदी के आरंभिक चतुर्थांश तक चलने वाले रोमांटिक आंदोलन को इसी प्रक्रिया की परिणति के रूप में देखा जा सकता है जो अपने पूर्ववर्ती नव आभिजात्यवादी जीवन-दृष्टि से प्रेरित नव आभिजात्यवादी कला एवं साहित्य के विरुद्ध उठ खड़ा हुआ था।

     बीसवीं सदी के आरंभिक कुछ वर्षों में इसी तरह का आंदोलन मराठी, तमिल, कन्नड़, उर्दू तथा हिन्दी आदि भारतीय भाषाओं में उठ खड़ा हुआ। इस आंदोलन के रचनाकारों ने अपनी व्याकुलता, कुतूहल और जिज्ञासा को विविध रूपों में व्यक्त किया। लेकिन रोमानी भावबोध की रचनाओं का प्रथम दर्शन बांग्ला लेखक माइकेल मधुसूदन दत्त, तरु दत्त और रवीन्द्रनाथ की आरंभिक रचनाओं में ही हुआ। रवीन्द्रनाथ ने तो दूसरी भारतीय भाषाओं के साहित्य को सबसे अधिक प्रभावित किया। 1913 . में गीतांजलि पर नोबेल पुरस्कार मिलने के बाद उन्होंने लगभग सभी भारतीय भाषाओं के साहित्यकारों का ध्यान आकृष्ट किया और वे प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से रवीन्द्रनाथ से प्रभावित भी हुए। बांग्ला भाषा में रोमानी भावबोध के प्रथम उन्मेष का कारण वहाँ इसके लिए आवश्यक भौतिक परिस्थितियों की मौजूदगी और वहाँ के लोगों का अंग्रेजी भाषा और साहित्य के सबसे पहले संपर्क में आना था।

            बांग्ला भाषा में रोमानी भावबोध के उन्मेष के कुछ ही वर्षों बाद हिन्दी भाषा और साहित्य में भी रोमानी भावबोध की रचनाएँ लिखी जाने लगीं। आरंभिक चरण में श्रीधर पाठक, रामनरेश त्रिपाठी, माखनलाल चतुर्वेदी, सियारामशरण गुप्त, सुभद्रा कुमारी चौहान, बालकृष्ण शर्मा नवीन और गुरु भक्त सिंह की रचनाएँ सामने आईं। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने इन रचनाकारों को स्वाभाविक या प्राकृतिक' भावधारा का रचनाकार माना और उनकी रचनाओं को नैसर्गिक स्वच्छंदतावादी रचना के नाम से अभिहीत किया। आगे चलकर इस नैसर्गिक स्वच्छंदतावाद का और विकास हुआ। मुकुटधर पाण्डेय ने स्वच्छंदतावाद के इस विकसित रूप को छायावाद नाम दिया और यह नाम चल भी पड़ा। इस द्वितीय चरण के स्वच्छंदतावाद अर्थात् छायावाद को जयशंकर प्रसाद, सूर्यकांत त्रिपाठी निराला, सुमित्रानंदन पंत, महादेवी वर्मा और रामकुमार वर्मा आदि रचनाकारों ने अपनी लेखनी से विकसित और समृद्धि किया। यह स्वच्छंदतावाद से अधिक विकसित और व्यापक आंदोलन था; जिसमें नैसर्गिक स्वच्छंदतावाद की प्रवृत्तियों के अलावा अनेक नवीन प्रवृत्तियों और तत्त्वों का समावेश हुआ। इसका विस्तार सिर्फ कविता तक ही सीमित नहीं था; उस दौर के उपन्यास, कहानी, नाटक और आलोचना आदि विधाओं में भी इसका विस्तार देखा जा सकता है।

      हिन्दी साहित्य के आलोचकों ने छायावादी कविता और साहित्य को अलग-अलग नजरिए से देखा। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने इसे प्रस्तुत के स्थान पर उसकी व्यंजना करने वाली छाया के रूप में अप्रस्तुत कथन और रहस्य भावना से ओतप्रोत कविता कहा। आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने इसे अन्योक्ति पद्धति के रूप में देखा। डॉ. नगेंद्र ने इसे स्थूल के प्रति सूक्ष्म का विद्रोह कहा सुमित्रानंदन पंत ने इसे स्थूल के सूक्ष्म में रूपांतरण के रूप में देखा और डॉ. रामविलास शर्मा ने इसे थोथी नैतिकता, रूढ़िवाद और सामंती-साम्राज्यवादी बंधनों के प्रति विद्रोह के रूप में। इन आलोचकों द्वारा दी गई परिभाषाओं में जो अंतर्विरोध है; उससे यह साबित होता है कि हिन्दी के रोमानी आंदोलन छायावाद को भी एक सर्वमान्य और सर्वांग पूर्ण परिभाषा द्वारा परिभाषित नहीं किया जा सकता। अंग्रेजी रोमांटिक आंदोलन की तरह ही इसे भी इसकी प्रवृत्तियों के माध्यम से ही पहचाना जा सकता है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल, डॉ. नामवर सिंह, डॉ. निर्मला जैन आदि आलोचकों ने अपने-अपने दृष्टिकोण से छायावाद की प्रवृत्तियों की ओर पाठकों का ध्यान आकृष्ट किया है जिनमें से कुछ प्रमुख प्रवृत्तियाँ इस प्रकार हैं:- मुक्ति की आकांक्षा, व्यक्ति और राष्ट्र की स्वाधीनता तथा देशभक्त की भावना, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, लोकमंगल, मानव करुणा, विश्व मानवतावाद, नैसर्गिक और उच्चतर जीवन जीने की आकांक्षा, अज्ञात की जिज्ञासा अर्थात रहस्य भावना, प्रकृति साहचार्य, मधुमयी कल्पना, काल्पनिक इच्छापूर्ति, छायालोक का सृजन,  सौंदर्याशक्ति, वैयक्तिक प्रणय, अतीतानुराग, संवेदनशीलता और वेदना विवृत्ति, स्वप्न और आवेग की प्रबलता, नवीन रूप विन्यास और अभिव्यंजना प्रणाली, चित्रमयी भाषा, ललित पदावली, प्रतीक विधान, अन्योक्ति, लाक्षणिकता आदि।

      यहाँ देखा जा सकता है कि छायावाद की प्रवृत्तियों में कुछ प्रवृत्तियाँ ऐसी हैं; जो अंग्रेजी और बांग्ला रोमानी आंदोलन में भी मौजूद हैं। किन्तु इसकी अनेक प्रवृत्तियाँ ऐसी हैं; जो अंग्रेजी और बांग्ला रोमानी आंदोलन में मौजूद नहीं हैं। इसलिए हिन्दी रोमानी आंदोलन छायावाद को अंग्रेजी या बांग्ला रोमानी आंदोलन की नकल नहीं कहा जा सकता। इस आंदोलन के लिए हिन्दी प्रदेश में आवश्यक भौतिक परिस्थितियाँ मौजूद थीं। यही कारण है कि हिन्दी का रोमानी आंदोलन अनेक रूपों में अंग्रेजी और बांग्ला के रोमानी आंदोलन से अपनी प्रकृति में काफी कुछ भिन्न है। निराला, पंत आदि रचनाकारों ने अंग्रेजी और बांग्ला रोमानी आंदोलन से कुछ प्रभाव अवश्य ग्रहण किए थे किन्तु वह प्रभाव उन्होंने अपनी शर्तों पर ग्रहण किया था और उसे ईमानदारी पूर्वक स्वीकार भी किया है।

निष्कर्ष : रोमांस या रोमान की वधारणा का निश्चित से अनिश्चित की दिशा में निरंतर विकास और परिवर्तन होता रहा है। कभी इसकी पहचान गंदी भाषा के रूप रही है तो कभी एक साहित्यिक विधा और उसमें अभिव्यक्त प्रवृत्तियों के रूप में। इसके विधागत रूप को उपन्यास विधा द्वारा आत्मसात कर लिए जाने के बाद अब इसकी पहचान इसकी प्रवृतियों और लेखकीय दृष्टि के संतुलन के आधार पर की जाती है।

संदर्भ :

  1. गिलिन बीर, रोमांस, मेथुन एण्ड कं. लि., लंदन, 1977, पृ.- 4
  2. च्रिस बाल्डिक, कंसाइज ऑक्सफोर्ड डिक्शनरी ऑफ लिटरेरी टर्म्स, ऑक्सफोर्ड युनिवर्सिटी प्रेस, न्यूयार्क, 1990, पृ.-192
  3. जे. . कड्डन, पेंगुइन डिक्शनरी ऑफ लिटरेरी टर्म्स एण्ड लिटरेरी थिअरी, पेंगुइन ग्रुप, 1999, पृ.-763
  4. एफ. एल. लुकास, डिक्लाइन एण्ड फाल ऑफ रोमांटिक आइडियल, कैम्ब्रिज युनिवर्सिटी प्रेस, 1963 पृ.-18-19
  5. जियोफ़्फ़्रेय डे, उद्धृत, फ्राम फिक्शन टू नावेल, रूटलेज एण्ड केगौन पाल लि., लंदन, 1987, पृ.-1
  6. गिलिन बीर, रोमांस, मेथुन एण्ड कं. लि., लंदन, 1977, पृ.-8-12
  7. वही, पृ.-10
  8. जे. . कड्डन, पेंगुइन डिक्शनरी ऑफ लिटरेरी टर्म्स एण्ड लिटरेरी थिअरी, पेंगुइन ग्रुप, 1999, पृ.-758
  9. जॉन पीक एण्ड मार्टिन कोयले, लिटरेरी टर्म्स एण्ड क्रिटिसिज्म, मैकमिलन एजुकेशन, लि., 1984, पृ.-63
  10. लॉन्गमैन डिक्शनरी ऑफ इंगलिश लैंगवेज़, लॉन्गमैन ग्रुप लि., हरलो, 1984, पृ.-1289
  11. एफ. एल. लुकास, डिक्लाइन एण्ड फाल ऑफ रोमांटिक आइडियल,  कैम्ब्रिज युनिवर्सिटी प्रेस, 1963, पृ-.20
  12. रेने वेलेक, कंसेप्ट्स ऑफ क्रिटिसिज्म, येल युनिवर्सिटी प्रेस, न्यू हेवेन एण्ड लंदन, 1973 पृ.-131
  13. रामविलास शर्मा, आस्था और सौंदर्य, राजकमल प्रकाशन, प्रा. लि. दिल्ली, 1990, पृ.-196
  14. काम्पटन्स एनसाइक्लोपीडिया भाग-20, पृ.-280
  15. पी. वासवदत्ता, उद्धृत, शास्त्रवादी और स्वच्छंदतावादी साहित्यादर्श और समीक्षा प्रणालियाँ, स्वराज प्रकाशन, दिल्ली, 2001, पृ.-400-401
  16. वही, पृ.-401

 

अंगद तिवारी
एसोसिएट प्रोफेसर, हिन्दी विभाग, श्री अरविंद महाविद्यालय(सांध्य), दिल्ली विश्वविद्यालय, मालवीय नगर, दिल्ली-110017

 

चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक ई-पत्रिका 
  अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-52, अप्रैल-जून, 2024 UGC Care Listed Issue
सम्पादक-द्वय : माणिक-जितेन्द्र यादव चित्रांकन  भीम सिंह (इलाहाबाद विश्वविद्यालय)

Post a Comment

और नया पुराने