- रीता देवी एवं डॉ. पिंकी पारीक
शोध सार : 21वीं सदी में भारत एक समृद्ध विकासशील देश बनने की ओर अग्रसर हो चुका है। स्त्रियों ने सफलता के विभिन्न आयामों को छू कर जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में कामयाबी का परचम लहराया है तथा अपने कठिन परिश्रम से स्वयं की पहचान बनाई है। 21वीं सदी में स्त्री धर्म एवं परम्परा के बंधनों को तोड़कर नए-नए आयाम स्थापित कर रही है जबकि आदिवासी स्त्री आज भी धर्म एवं परम्परा में जकड़ी अंधविश्वास भरा जीवन जी रही है। इसी पिछड़ी स्त्री के जीवन को अनिता रश्मि ने अपनी कहानियों के माध्यम से दिखाने का प्रयास किया है। लेखिका का जन्म झारखंड के रांची में हुआ है इसलिए इनकी कहानियों का बड़ा भाग झारखंड क्षेत्र के आदिवासी समाज और उनकी संस्कृति को चित्रित करता है। झारखंड की मिट्टी में पली-बड़ी लेखिका ने वहाँ की आदिवासी स्त्री के जीवन संघर्षों, खेत-खलिहानों व फैक्ट्रियों में उनका परिश्रम तथा धार्मिक अंधविश्वासों व कुरीतियों के कारण हो रहे उनके शोषण को करीब से देखा है इसलिए उनके जीवन के प्रत्येक पक्ष का यथार्थ चित्रण कहानियों में किया है। अनिता रश्मि ने अपनी कहानियों में स्त्री का केवल दबा-कुचला रूप ही नहीं दिखाया बल्कि उसके जागरूक रूप को भी हमें दिखाया है। कहानियों में स्त्रीतस्करी, ड़ायन-बिसाही आदि कुप्रथाओं को लेखिका ने पुरजोर ढंग से उठाया है तथा स्त्री शिक्षा को महत्व दिया है। रश्मि जी की कहानियाँ आदिवासी स्त्री के संघर्षों एवं सफलताओं के साथ-साथ उनकी मासूमियत को लक्ष्य करती हैं।
मुख्य शब्द : स्त्री, परिवार, समाज, जनी शिकार, डायन, शोषण, आजीविका, संघर्ष, संस्कृति, राजनीति, अंधविश्वास, शिक्षा, जागरूकता।
मूल आलेख : भारतीय समाज में स्त्री की स्थिति को लेकर
भिन्न-भिन्न रूप अलग-अलग नियम पाये जाते हैं परन्तु जब आदिवासी स्त्री की बात हम
करते हैं तो हमारे सामने उनकी एक स्वच्छन्द, स्वतंत्र, संघर्षशील, निड़र छवि सामने आती है भारतीय समाज और संस्कृति की
तुलना में आदिवासी स्त्रियाँ आरम्भ से ही स्वतंत्र और स्वछन्द रही हैं। चाहे फिर
प्रेम करने की स्वतन्त्रता हो या फिर वर चयन की स्वतन्त्रता हो, आदिवासी स्त्रियाँ आरम्भ से ही आत्मनिर्भर रहीं हैं। इसके लिए उनका समाज व
परिवार उनका बहिष्कार नहीं करता बल्कि उसके रिश्ते को स्वीकार करता है। वहीं
पति-पत्नी के रिश्ते में किसी प्रकार मदभेद चल रहा हो तो स्त्री को इस रिश्ते को
निभाने के लिए बाध्य नहीं किया जाता। वह उस रिश्ते को तोड़कर पुनर्विवाह के लिए
आजाद है। जिसका वर्णन रश्मि जी ने ‘कहाँ गयी वह’ कहानी में किया है, ‘‘क्यों? क्या हुआ था?’’ इसके
जवाब में उसने बताया था कि एक पति का साथ उसने घोटुल में चुना था। ब्याह के बाद वह
दूसरे के घर भी जाने लगा था। तब एक ही झटके में मीनवा ने उसको त्याग, दूसरे का दामन थाम लिया था।’’[1]
आदिवासी समाज में दहेज के लिए स्त्री को प्रताड़ित नहीं किया जाता बल्कि स्त्री के
सम्मान में ‘जनी शिकार’ का आयोजन किया जाता है। जो हर बारह वर्ष पर मनाया जाता है
यह पर्व आदिवासी स्त्री की वीरता, शौर्य का प्रतीक है। यहाँ आदिवासी
समाज में स्त्रियों का एक पक्ष मजबूत है तो वहीं, दूसरी
ओर उनकी कुछ सामाजिक परम्पराएँ व मर्यादाएँ है जो पुरूष वर्चस्व की ओर अधिक झुकी
हैं। इन परम्पराओं और मर्यादाओं का उलंघन करने पर स्त्री को ऐसी यातनाएँ दी जाती
हैं। जिसकी कल्पना मात्र से रूह कांप जाती है। ‘कहानी यहीं खत्म नहीं होती’ कहानी
की फूलमणि और चाँदो वर्षों से चली आ रही धारणा ‘स्त्री खेत में हल नहीं चला सकती’
को तोड़ देती हैं। जिस धारणा का उल्लंघन करने का साहस आज तक किसी स्त्री ने नहीं
किया था। फूलमणि और चाँदों ने कर तो दिखाया परन्तु इसकी इतनी भयंकर सजा होगी यह
दोनों ने सोचा नहीं था। ‘‘भीड़ का हर चेहरा पराया। जितने मुँह, उतनी बातें! मारो...........काटो............नंगा
करो............मैला पिलाओ............गाड़ दो..........की सुनामी बहने लगी। पहले भी
पंचायत के फैसलों पर कई औरतों को नंगा कर घुमाया गया था। कईयों को पखाना घोलकर
पिलाने, कई को ‘देश निकाला’ कई को पीट-पीट कर मार डालने की
सजा।’’[2]
आदिवासी समाज में परिश्रमी एवं कर्तव्यपरायण स्त्री
को सम्मान की दृष्टि से देखा जाता है। विधवा व अकेली स्त्री को अपमान सहना पड़ता है
उसकी जमीन, जायदाद संपति को हड़पने के लिए एक शब्द, एक कंलक ‘डायन’ जो कोड़े की तरह उस स्त्री के सिर पर मार दिया जाता है जिससे
उसके दिमाग के साथ-साथ उसका वजूद छिल जाता है। कहानियों में स्त्री को लेकर यह
सबसे खतरनाक प्रथा देखने को मिलती है जिसे ‘डायन प्रथा’ कहा गया है जिसका शिकार
चाँदो, फूलमणि, बुधनी तथा ‘फागुनी’ कहानी की
फागुनी बनती है। लेखिका फागुनी के दर्द को व्यक्त करते हुए लिखती है, ‘‘इस कोड़े की मार उसे अंदर तक दहला देती है छड़ी की मार से ज्यादा तकलीफदेह उस
कोड़े की मार............डायन...........पीठ पर सटाक...........डायन..........दिमाग
में सटाक।........डायन .........दिल में सटाक।
............सटाक...........डायन।।’’[3]
अनिता रश्मि जी ने कहानियों में इस कुप्रथा को उठाया
है जिसकी आड़ में स्त्री का शोषण किया जा रहा है। कहानियों में स्त्री की स्थिति के
सामाजिक पक्ष का तीसरा पहलू हम तब देखते हैं जब इनके जीवन में गैर-आदिवासी का
हस्तक्षेप होता है जो चिंताजनक है। गैर-आदिवासी इन्हें केवल काम या भोग की वस्तु
समझते हैं। वे आदिवासी युवतियों को नौकरी या काम दिलाने का झांसा देकर शहर ले जाकर
वैश्यालयों में बिकने के लिए मजबूर कर देते हैं। इस घटना का वर्णन ‘सरई के फूल’
कहानी में रश्मि जी ने किया है। यहां सरई से एक शहरी बाबू कहता है कि मैं यहाँ तुम
सब के बारे में जानने-समझने आया हूँ तब सरई उसे उतर देती हुई कहती है, ‘‘चुप! काहे झूठ बोलते हो बाबू, हमारे
बारे में जानने को है का? सब हमारा मेहनत, ईमानदारी का फायदा उठाने आता है। या हमें बहला-फुसलाकर, बाहर ले जाकर, खरीदने-बेचने। तुम अकेले हो
जो.............[4]’’ वर्तमान
में गैर आदिवासी ने उसकी अस्मिता और अस्तित्व को तार-तार कर उन्हें हाशिये पर लाकर
खड़ा कर दिया है और वह वैश्यावृति, भीखमंगी और मजदूरी करने के लिए
विवश है।
आदिवासी समाज की अर्थव्यवस्था में स्त्री की अहम भागीदारी होती है। कहानियों में वह अपने परिवार, बाल-बच्चों की परवरिश के साथ-साथ, वनोत्पादन चुनना, साग-सब्जी की खेती करना, चैंगने-मुर्गे पालना, खाने-पीने का सामान घरों में पकाकर बेचना तथा पुरूष के बराबर बहार मजदूरी करना आदि जिम्मेदारियों को निभाती जान पड़ती है। वह आर्थिक रूप से स्वावलम्बी है। परन्तु इसके पीछे इसका कड़ा संघर्ष भी दिखाई देता है। ‘घोड़वा-नाच’ कहानी में सोनवा और मुन्नी आधी रात को छोटे से बच्चे को पीठ पर बाँध कर बाँस लाने जंगल चली जाती हैं ताकि पेट भर खाने के लिए कुछ पैसे जुटा सकें, ‘‘दशहरा को समय था। पंडालों के लिए बाँस ले जाना था। दोनों सास-पतोहू उसी के लिए तैयार हो रही थीं। रात के दो बजे के लगभग ही वे दोनों और सेनारी बाँसों के झुरमुट के पास पहुँच गए थे। तेज हथियार से रेत-रेतकर बाँसों को काटा और वहीं सुख गई लताओं को रस्सी की तरह इस्तेमाल कर कई गट्ठर तैयार कर लिए।’’[5] आदिवासी स्त्री अपने परिवार के पालन-पोषण के लिए पति के समान मजूरी करती है जिससे अपना और अपने बच्चे का खर्च पुरा कर सके। एक ‘नौनिहाल का जन्म’ कहानी की बुधनी कहती है, ‘‘पानी तो बरिस ही गया। अच्छा से बरसे तो रोपा के मजूरी से ही खाने भर हो जायेगा। का जरूरत लकड़ी लाने का? लकड़ी जाकर छः कोस दूर बेचने का ........... खेती के बाद फिर जैबे करेंगे।’’[6] इसी तरह सरई के फूल कहानी में स्त्रियाँ अपनी आजीविका के लिए संघर्ष करती नजर आती हैं। वे हर दिन लकड़ी, पतल-दोना, सखुआ, दातुन लेकर गांव से मिलो दूर शहर बेचने जाती हैं। कहानी में सरई कहती हुए सुनाई देती है, ‘‘जल्दी चलिए। हमको पतल-दोना और करंज-सखुआ का दातुन लेकर हाट जाना है।’’[7] कहानियों में आदिवासी स्त्री अपने आर्थिक दायित्वों की पूर्ति के लिए प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष रूप से जंगल पर निर्भर है, साथ ही इनका आर्थिक जीवन भी संघर्षों से भरा दिखाई देता है।
आदिवासी अपने को प्रकृति के अधिक निकट मानते हैं
इसलिए इनकी संस्कृति, संगीत, जीवन
और कला सब प्रकृति से प्रेरित है। जो अमूल्य है। महान विद्वान अलबरूनी ने इनकी
संस्कृति के बारे में कहा है, ‘‘यह अप्रतिम संस्कृति है, जिसकी तुलना किसी ओर से नहीं कर सकते।’’[8]
प्रकृति को आत्मसात करने की प्रवृत्ति जो आदिवासी संस्कृति में देखने को मिलती है
वह अन्य संस्कृति में नहीं मिलती है। यहीं प्रवृत्ति उनको अन्य से विशिष्ट बनाती
है। कहानियों में सांस्कृतिक आधार पर स्त्री तथा पुरूष में एकसमानता देखने को
मिलती है। पर्व-त्यौहार, नृत्य-गान तथा कला के क्षेत्र में
स्त्री की अहम भूमिका रहती है वह किसी भी कार्य में पुरूष से पीछे नहीं है। रश्मि
जी ‘कहानी यहीं खत्म नहीं होती’ कहानी में स्त्रियों के सांस्कृतिक कार्य का परिचय
देती हुई लिखती हैं। ‘‘उनके घरों के बाहर बने विभिन्न भिति चित्रों के सौंदर्य को
देखकर भी ठगे से मत रह जाइएगा। पतों के रस, गोबर, बिचाली की राख से उकेरे गए लता-पतों, मोर, मुर्गें, कौआ-मैना, ढोल-नगाड़ों, जोगी-जोगीन को देख-देख उनके कुशल
चितेरे होने, लौकिकता को बचाए रखने की कोशिश का कयास भर मत
लगाइएगा। और न ही माँदर की मदमाती ध्वनि के साथ थिरकते पैरों पर बिछ-बिछ जाइएगा।’’[9]
आदिवासी स्त्री चित्रकला के साथ-साथ अन्य कलाओं में भी निपुण है जैसे पँखे बुनना, चटाई बुनना व अन्य साज-सजावट का सामान घर के लिए तैयार करना आदि। इनका पसंदीदा
कार्य हैं। इसका वर्णन सरई के फूल कहानी में हुआ है, ‘‘एक
कोने में हाथ बुने पँखे, लकड़ी से बना चाकू, लकड़ी का खंजर, तलवार आदि रखा था। वहाँ के बाशिदों
का यह पसंदीदा काम। जीने का एक छोटा सा उपक्रम। वहीं बैठ कैथी फिर से चटाई बुनने
लगी। प्रायः हर ग्रामीण के घर में ये काम होता था।’’[10]
आदिवासी समाज के अपने विशिष्ट पर्व व त्यौहार धूम-धाम
से मनाए जाते हैं जिसमें स्त्री की विशेष भूमिका रहती है। वह हर खुशी के क्षण को
अपने नृत्य व गीत से खास बना देती है उसके बिना हर पर्व-त्यौहार फीका सा लगने लगता
है। अनिता रश्मि की कहानियों में स्त्रियाँ हर खुशी के अवसर पर माँदर की थाप पर
झूमती गाती मिलती हैं। ‘घोडवा नाच’ कहानी में सरहुल पर्व पर स्त्रियाँ लाल
किनारीदार साड़ी में हाथ में हाथ डाले झुमते हुए गाती हैं,
जोड़ी काड़ेसा ना लागे।’’[11]
वह हर पल को खुशी से जीना चाहती है एक नौनिहाल की
सोमारिया वारिश होने पर रोपा की मजूरी मिलने पर खुशी से जोर-जोर से गाती है,
पवनवा करे सोर’’[12]
इसी तरह सखुआ के फूल खिलनें पर में ‘घोडवा नाच’ की मुन्नी
भी खुशी से गाने लगती है,
हम कह सकते है कि कहानियों में सांस्कृतिक स्तर पर स्त्री को समान अवसर प्राप्त है। वह सांस्कृतिक कार्य में बढ़-चढ़ कर भाग लेती नजर आती है।
21वीं सदी में महिलाऐं अपने राजनीतिक अधिकारों के प्रति जागरूक हो रही हैं। वे मतदान में भाग लेने के साथ-साथ सार्वजनिक कार्यालयों, निचले स्तरों बल्कि उच्चतम स्तरों पर राजनीतिक दलों के लिए प्रचार व चुनाव लड़ रहीं हैं। वे राजनीति में पूरी तरह सक्रिय दिखाई देती हैं, वहीं जब हम आदिवासी स्त्री की बात करते हैं तो वह आज भी पिछड़ी हुई है। अपने राजनीतिक अधिकारों के प्रति सजग नहीं है। जिसके कारण राजनीति में उसकी भागेदारी बहुत कम मिलती है। कहानियों में कुछ एक-दो स्त्रियाँ है जो राजनीतिक आंदोलन में भाग लेती दिखाई दी हैं। ‘कहाँ गयी वह’ कहानी की मीनवा के लिए लेखिका कहती हैं, ‘‘मैं जानती हूँ, अपने पति को जूलूस में सबसे आगे देख वह अपने मन में बहुत संतोष का अनुभव करती है। जुलूस में वह भी शामिल रहती है। उसके हाथ में परम्परागत तीर-धनुष एवं होठों पर नारे, ‘‘झारखंड अलग करो.........अलग करो।’’ माथे पर पसीने की चुहचुहाहट, मन में संतोष की लहर!’’[14] इसी तरह ‘डोमिसाइल’ कहानी की मीरू भी झांरखंड आंदोलन में शामिल होकर धरना-प्रदर्शन करती नजर आती है, ‘‘घीसू के साथ वह भी झारखंड आंदोलन में शामिल रहती थी। आपन राज और राज्य पाने के लिए उसका मन भी बेताब था। तीर-धनुष ले वह मँगरी भी सड़कों पर नारे लगाती। धरना-प्रदर्शन में शामिल होती। कितनी लम्बी लड़ाई के बाद अलग राज्य बना था।’’[15] ‘कहानी यहीं खत्म नहीं होती’ कहानी की एक युवती फूलमनी जो अपने समाज के उत्थान के लिए कार्य करना चाहती है वह अपने समाज की स्त्रियों की नेता बन ‘आदिवासी जनी जागरण संस्था’ बनाती है जिसमें आदिवासी स्त्रियों को जुटाकर उनको उनके अधिकारों के प्रति जागरूक करती है तथा उनके हक की बात करती है। ‘‘उसका गाँव विभिन्न कुरीतियों, अंधविश्वासों से घिरा, वैमनस्य, तकलीफ देने वाली कुछ परम्पराओं, स्त्री का हर छीन लेने वाले रीति-नियमों से त्रस्त! चट्टान सा संकल्प भर रहा था फूलमनी के अंदर इन सबसे। उसने ठान लिया कि सारे खुराफातों का अंत करने की कोशिश करेगी। उसने सालों पहले जो बीड़ा उठाया था, उसके लिए लगातार जुटी है।’’[16] रश्मि जी की कहानियों में आदिवासी स्त्रियाँ राजनीति में विशेष रूप से सक्रिय नहीं हैं परन्तु छोट-छोटे आंदोलन में भाग लेती हुई अपने राजनीतिक अधिकारों के प्रति जागरूक हो रहीं हैं। इन पिछड़ी स्त्रियों को जागरूकता की ओर ले जाने में कुछ पढ़ी-लिखी युवतियों की भूमिका अहम दिखाई देती है।
किसी भी समाज व समुदास के विकास के लिए शिक्षा
महत्वपूर्ण होती है और उसी समाज के निर्माण में स्त्री की विशेष भूमिका रहती है।
स्त्री के बिना समाज की कल्पना भी नहीं हो सकती है। समाज में स्त्री के पढ़े-लिखे
होने का अर्थ है उस पूरे समाज का पढ़ा-लिखा होना। इसलिए पं. जवाहरलाल नेहरू ने
स्त्री शिक्षा को महत्व देते हुए कहा था,
‘‘लड़के की शिक्षा
केवल एक व्यक्ति की शिक्षा है, किन्तु एक लड़की की शिक्षा सारे
परिवार की शिक्षा है।’’[17]
विश्वविद्यालय आयोग (1948-49), ने भी स्त्री शिक्षा को महत्व देते
हुए कहा, ‘‘स्त्री शिक्षा के बिना लोग शिक्षित नहीं हो सकते। यदि
शिक्षा पुरूषों अथवा स्त्रियों के लिए सीमित करने का प्रश्न हो तो यह अवसर
स्त्रियों को दिया जाए, क्योंकि उनके द्वारा ही भावी संतान
को शिक्षा दी जा सकती है।’’[18]
अगर स्त्री अशिक्षित रहेगी तो वह न तो सफल गृहिणी बन सकेगी और न कुशल माता और साथ
ही एक स्वस्थ समाज का निर्माण एवं विकास सम्भव नहीं सकेगा। स्त्री शिक्षा व जागृति
के माध्यम से समाज की बुराइयों, कमजोरियों, अंधविश्वासों
को दूर किया जा सकता है। वर्तमान में स्त्री शिक्षा पर जोर दिया जा रहा है।
स्त्रियाँ शिक्षित हो रहीं हैं किन्तु आदिवासी समाज को स्त्रियाँ शिक्षा के
क्षेत्र से वंचित रह गई हैं। कहानियों में इसके बहुत से कारण मिलते है जिनमें
निर्धनता पहाड़ी, पठारी क्षेत्र होने के कारण स्कूल की कमी, उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिए कॉलेज का न होना आदि मुख्य कारण हैं। अनिता
रश्मि की कहानियों में आदिवासी स्त्रियाँ अधिकतर अशिक्षित होने के कारण स्थानान्तरित
खेती करती हुई, रूढ़िवादी एवं अंधविश्वास से भरी जिंदगी जीती हैं। वे
जादु-टोना, नजर लगना डायन बिसाही आदि में विश्वास करती हैं।
जिसका एक उदाहरण ‘घोडवा नाच’ कहानी की सोनवा और मुन्नी हैं। वे दोनों डायन बिसाहीं
की नजर से बचने के उपाय करती हुई मिलती हैं, ‘‘मुन्नी
के बचाव के तरीके को अपनाती दो साल पुरानी बहू ने टूटे पलंग के चारों पायों में
अजबायन, कड़वा तेल, कपूर से बना काजल का टीका लगाया
था। झोपड़ी के बाँसों, छोटे से मेज के पायों, टूटे टीन के बक्से एवं बक्से में पड़े छोटे से डब्बे में दीठौना लगाकर निश्चिंत
हो गई थी। सेनारी की अब कोई डायन-बिसाही सिद्धि-प्राप्ति के लिए कितनी भी कोशिश कर
ले, उसके घर के सामानों, बच्चे
एवं सेनारी पर कोई असर नहीं होगा।’’[19]
वहीं दूसरी और नई पीढ़ी की युवतियों की सोच बदल रही है
वे अंधविश्वास भरी जिन्दगी से निकलकर पढ़ना-लिखना चाहती हैं ताकि उनको कोई जंगली न
कहे। वे आदमी बनना चाहती है। लाल छप्पा साड़ी कहानी की एक युवती बुधनी अपने परिवार
से छिपकर डॉक्टर निशा के पास पढ़ने जाती है उसे पढ़ने का शौक है वह चाहती है,
‘‘कम से कम सहर में जाइके ठीक लखे बाइत करब, आदमी
बनब, जेकर से कोय हमके जंगली नीं कहे। रकिया के के बाप तो
खेइत में खट के खुस रहेना। पर हमके महुआ बीछ के लेके सहर जाय पड़ि, लकड़ी बोझा ढो के गली-गल घूमे पड़ि, तो थोड़ा आदमी बने के चाही।’’[20]
इसी तरह कहानी यहीं खत्म नहीं होती की युवती फूलमणि
जो दसवीं पास कर आगे की पढ़ाई के लिए शहर नहीं जा पाती। वह अपने गाँव में रूककर
उसके समाज में फैले अंधविश्वास व कुछ धारणाओं को खत्म करने का प्रण लेती है। वह यह
जानती है कि इसके लिए उसको कड़े संघर्ष से गुजरना होगा। फिर भी कोशिश में जुट जाती
है। वह एक साहसी लड़की है, ‘‘वह समझ रही है। उसे भी अंगारे पर
चलकर पार करना है। वह अंगारा कब फूल बनेगा, देखना
है। बनेगा फूल कि अंगारा ही रहेगा, उसे नहीं पता। उसे सिर्फ इतना पता, फूलखुँदी के लिए उसकी कोशिशें जारी रहनी हैं। उसे तपस्या करनी है। तब तक, जब तक अंगारा फूल में न बदल जाए।’’[21]
फूलमणि ने डर कर पीछे हटना नहीं सिखा था। फूलमणि जैसी फागुनी कहानी की फागुनी सांतवी पास कर अपने गाँव में छोटे-छोटे बच्चों को पढ़ाती है साथ ही गांव की बेबस जनी मन का सहारा बनकर उनकों अन्याय के विरूद्ध लड़ना सिखाती है। वह कहती है, ‘‘आज उसका मन दहक उठा। इस गाँव में आकर उसने लड़ना सीखा था, जनी मन को लड़ना सिखाया था। यहाँ रहते हुए सबको उस कोड़े की मार से बचाती रही थी। हर बार अड़कर खड़ी हो जाती।’’[22] ये पढ़ी-लिखी युवतियाँ केवल अपने गाँव-गोत्र का ही नहीं बल्कि पूरे आदिवासी समाज की भलाई के लिए कार्य करना चाहती हैं वे अपने समाज को दुःख-दर्द से निकालकर एक अच्छी जिंदगी की ओर ले जाने का सपना देखती है जिसके लिए प्रयत्न करती हुई दिखाई गई हैं वे बच्चों को शिक्षा के लिए प्रेरित करती हैं और अशिक्षित स्त्रियों को अपने अधिकारों के प्रति जागरूक बनाना चाहती हैं। ताकि उनके प्रति हो रहे शोषण को रोक सकें। लेखिका ने कहानियों में फागुनी तथा फूलमनी जैसी पात्र के माध्यम से अन्य युवाओं को भी प्रेरणा दी है वे भी पढ़-लिख कर अपने समाज के उत्थान में सहयोग करें।
निष्कर्ष : हम कह सकते हैं कि अनिता रश्मि ने अपनी कहानियों में आदिवासी स्त्री के जीवन के हर पहलु को संवेदनशीलता के साथ दिखाया है। कहानियों में आदिवासी समाज में पतिव्रता स्त्री के लिए सम्मान है तो उसी समाज में परित्यक्ता तथा विधवा स्त्री के लिए यातनाएँ है। कहानियों में आदिवासी स्त्री आर्थिक रूप से स्वतन्त्र है किन्तु उसके पीछे उसका कठिन संघर्ष व परिश्रम भी है वह अपने और परिवार के पालन-पोशण के लिए दिन-रात, सर्दी-गर्मी न देखकर हर समय काम करने के लिए तत्पर रहती है ताकि पेट भर खाने के लिए कुछ धन राशि जुटा सकें। वह आर्थिक स्थिति अधिक अच्छी न होने के कारण कहीं पर गैर आदिवासियों द्वारा ठगी भी जाती है। रश्मि जी ने कहानियों में स्त्रियों के विरोध के स्वर को भी मुखरित किया है। उनकी कहानियों की स्त्री समाज द्वारा बनाई गई कुछ धारणाएँ, जिनकी आड़ में स्त्री का शोषण किया जाता रहा है। जो उसके अस्तित्व के लिए चुनौती है उसको तोड़ती हुई दिखाई देती है। जिसके लिए उसे कठोर दण्ड भी दिया जाता है। कहीं पर उसकी आँखे सूई से गोद दी जाती हैं तो कहीं पर बैल की जगह खेत में जोत दिया जाता है। वे फिर भी हिम्मत नहीं हारती, अपने अस्तित्व को बचाने के लिए अड़िग रहती हैं, अपनी रक्षा स्वयं करती है। वह किसी भी कार्य के लिए पुरूष पर निर्भर नहीं है। कहानियों में कुछ आदिवासी युवतियाँ जो पढ़ी-लिखी हैं जो अपने समाज में बदलाव लाना चाहती हैं जिससे उनके पिछड़े समाज का कल्याण हो सके। इन्हीं युवतियों के माध्यम से रश्मि जी ने स्त्री शिक्षा पर जोर दिया है जो वर्तमान में महत्वपूर्ण है। सरकार को इसके लिए प्रयासरत होना चाहिए। स्त्री शिक्षा द्वारा ही इस समाज को अंधविश्वास व शोषण के अन्धकार से निकाला जा सकता है। समाजकल्याण के लिए स्त्री का शिक्षित होना अति आवश्यक है इसलिए एक स्त्री को वो सब शैक्षणिक सुविधाएँ दिए जानी चाहिए जो पुरूष के लिए हों। और यह ही सत्य है कि यदि समाज में स्त्री शिक्षित न होगी उस समाज का कल्याण सम्भव नहीं हो सकता। इसलिए स्त्री की शिक्षा उतनी ही आवश्यक है जितनी पुरूष की।
[1] अनिता, रश्मि, बाँसुरी की चीख़, पूनम प्रकाशन, 2013, पृ.-9
[3] अनिता, रश्मि, फागुनी (कहानी), साहित्य अमृत पत्रिका, अंक अक्टूबर, 2023, पृ.-22
[4] अनिता, रश्मि, सरई के फूल, हिन्द युग्म, प्रकाशन, 2021, पृ.-98
[5] अनिता, रश्मि, सरई के फूल, हिन्द युग्म, प्रकाशन, 2021, पृ.-183
[6] अनिता, रश्मि, बाँसुरी की चीख़, पूनम प्रकाशन, 2013, पृ.-54
[7] अनिता, रश्मि, सरई के फूल, हिन्द युग्म, प्रकाशन, 2021, पृ.-95
[8] रमणिका, गुप्ता, आदिवासी समाज और साहित्य, सामयिक प्रकाशन, 2022, पृ.-131
[9] अनिता, रश्मि, सरई के फूल, हिन्द युग्म, प्रकाशन, 2021, पृ.-46
[10] अनिता, रश्मि, सरई के फूल, हिन्द युग्म, प्रकाशन, 2021, पृ.-92
[11] अनिता, रश्मि, सरई के फूल, हिन्द युग्म, प्रकाशन, 2021, पृ.-192
[12] अनिता, रश्मि, बाँसुरी की चीख़, पूनम प्रकाशन, 2013, पृ.-55
[13] अनिता, रश्मि, सरई के फूल, हिन्द युग्म, प्रकाशन, 2021, पृ.-192
[14] अनिता, रश्मि, बाँसुरी की चीख़, पूनम प्रकाशन, 2013, पृ.-10
[15] अनिता, रश्मि, सरई के फूल, हिन्द युग्म, प्रकाशन, 2021, पृ.-145
[16] अनिता, रश्मि, सरई के फूल, हिन्द युग्म, प्रकाशन, 2021, पृ.-51
[17] जे.सी. अग्रवाल, भारत में नारी शिक्षा, विद्या विहार, 2009, पृ.-11
[18] जे.सी. अग्रवाल, भारत में नारी शिक्षा, विद्या विहार, 2009, पृ.-11
[19] अनिता, रश्मि, सरई के फूल, हिन्द युग्म, प्रकाशन, 2021, पृ.-184
[20] अनिता, रश्मि, बाँसुरी की चीख़, पूनम प्रकाशन, 2013, पृ.-121
[21] अनिता, रश्मि, सरई के फूल, हिन्द युग्म, प्रकाशन, 2021, पृ.-54
[22] अनिता, रश्मि, फागुनी (कहानी), साहित्य अमृत पत्रिका, अंक अक्टूबर, 2023, पृ.-22
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